अपनी मौत से पहले-पहल 22 वर्षीय गुरप्रीत सिंह अपने गांव के किसानों को तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ लामबंद करते रहे थे. उनके पिता, जगतार सिंह कटारिया ख़ुद एक किसान हैं. उनके पास पंजाब के उत्तर-पश्चिम इलाक़े में स्थित उनके गांव में पांच एकड़ ज़मीन है. वह गुरप्रीत का आख़िरी भाषण याद करते हुए ख़ामोश हो जाते हैं. थोड़ी देर बाद, याद करते हुए बताते हैं कि लगभग 15 किसानों का एक समूह उन्हें बेहद ध्यान से सुन रहा था. वह कह रहे थे कि दिल्ली की सरहदों पर एक सुनहरा इतिहास लिखा जा रहा है - जिसमें उन सबको जाकर अपना योगदान देना चाहिए. पिछले साल के आख़िरी महीने की उस सुबह गुरप्रीत का वह उत्साहित भाषण सुनने के बाद किसानों के उस समूह ने कमर कसा, और राजधानी की ओर कूच कर गए.

यह समूह गत वर्ष 14 दिसंबर को शहीद भगत सिंह नगर ज़िले के बलाचौर तहसील के मकोवाल गांव से निकला था. दिल्ली की ओर आते हुए यह क़रीब 300 किलोमीटर का सफ़र तय कर चुका था. मगर हरियाणा के अंबाला ज़िले में मोहरा के पास एक भारी वाहन ने उनके ट्रैक्टर-ट्रॉली को टक्कर मार दी. "यह एक बड़ी टक्कर थी. गुरप्रीत की मृत्यु हो गई,” जगतार सिंह अपने बेटे - जो पटियाला के मोदी कॉलेज में बीए की पढ़ाई कर रहे थे - की मौत के बारे में बताते हुए फिर ख़ामोश हो जाते हैं. इस ख़ामोशी को चीरते हुए कुछ शब्द उनके हलक़ से अदा होते हैं. वह इतना ही कह पाते हैं - “आंदोलन में यही उसका योगदान था - उसकी ज़िंदगी."

गुरप्रीत, सितंबर 2020 में भारत सरकार द्वारा पारित किए गए तीन कृषि क़ानूनों के विरुद्ध आंदोलन में भाग लेने वाले उन 700 से अधिक लोगों में एक हैं जिन्होंने अपनी जान गंवा दी. देश भर के किसान उन क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध दर्ज कर रहे थे. वे कह रहे थे कि ये क़ानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की प्रक्रिया नष्ट करते हुए, निजी व्यापारियों और बड़ी कंपनियों को फ़सलों की क़ीमतों को निर्धारित और नियंत्रित करने की खुली छूट दे देंगे, जिससे वे और मालामाल होते जाएंगे. विरोध प्रदर्शनों में मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश से आए किसान शामिल थे, और 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की दहलीज़ पर जमा हुए थे. उन्होंने दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर स्थित सिंघु और टिकरी व दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर स्थित ग़ाज़ीपुर में सड़कों पर अपने-अपने कैंप स्थापित किए.

इन विरोध प्रदर्शनों के शुरू हुए एक साल से अधिक बीत चुके थे. तब प्रधानमंत्री ने 19 नवंबर, 2021 को इन क़ानूनों को रद्द करने की घोषणा की. इन क़ानूनों की वापसी (कृषि क़ानून निरसन अधिनियम, 2021) को 29 नवंबर को संसद में पारित किया गया. हालांकि, जब सरकार ने लिखित रूप से किसानों की यूनियन (संयुक्त किसान मोर्चा) की अन्य ज़्यादातर मांगों को मान लिया, तब मोर्चे ने इस महीने की 11 तारीख़ को आंदोलन शिविर ख़ाली कर, घर लौट जाने की घोषणा की.

मैंने इन 700 परिवारों - जिन्होंने साल भर चले आंदोलन के दौरान अपने किसी प्रियजन को खो दिया था - में से कुछ से व्यक्तिगत रूप से और कुछ से फ़ोन पर बात की. घरवाले इन शहीदों - जिन्होंने आंदोलन में अपनी आहुति पेश कर दी - को याद करते हुए फफ़क पड़ते हैं. उनमें से कई गहरी सांस लेते हुए दोबारा उस घटना को याद करने में हिचकते हैं, और कोई ग़ुस्से का इज़हार करता है. तबाही और दुख का मंज़र उनके सीने में कहीं घर कर गया है.

जगतार सिंह कटारिया ने कहते हैं, “हम किसानों की जीत का जश्न मनाते हैं, लेकिन क़ानूनों को वापस लेने की प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा से हमें ख़ुशी नहीं हुई. सरकार ने किसानों के लिए कुछ अच्छा नहीं किया है. बल्कि इसने किसानों और शहीदों का अपमान ही किया है.”

From the left: Gurpreet Singh, from Shahid Bhagat Singh Nagar district, and Ram Singh, from Mansa district, Punjab; Navreet Singh Hundal, from Rampur district, Uttar Pradesh
From the left: Gurpreet Singh, from Shahid Bhagat Singh Nagar district, and Ram Singh, from Mansa district, Punjab; Navreet Singh Hundal, from Rampur district, Uttar Pradesh
From the left: Gurpreet Singh, from Shahid Bhagat Singh Nagar district, and Ram Singh, from Mansa district, Punjab; Navreet Singh Hundal, from Rampur district, Uttar Pradesh

बाएं से: पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर ज़िले के गुरप्रीत सिंह, और मनसा ज़िले के राम सिंह; उत्तर प्रदेश के रामपुर ज़िले के नवरीत सिंह हुंदल

पंजाब के मनसा ज़िले के बुढलाडा तहसील के दोदरा गांव में रहने वाले 61-वर्षीय ज्ञान सिंह ने कहा, “हमारे किसान मर रहे हैं. हमारे जवान भी पंजाब और देश के लिए शहीद हुए हैं. लेकिन सरकार को शहीदों की कोई चिंता नहीं है - चाहे वे [देश की] सीमाओं पर जान दे रहे हों या देश के भीतर. सरकार ने सीमाओं पर लड़ने वाले जवानों और देश के लिए अन्न उगाने वाले किसानों का मज़ाक़ बना दिया है."

आंदोलन के शुरुआती दिनों में ज्ञान सिंह ने अपने 51 वर्षीय भाई राम सिंह को खो दिया. वह एक किसान संगठन, भारतीय किसान यूनियन (एकता उग्रहण) के सदस्य थे. वह मनसा रेलवे स्टेशन पर जारी धरने के लिए लकड़ियां इकट्ठा करते थे. पिछले साल 24 नवंबर को उन पर लकड़ी का कुंदा गिरने से उनकी मौत हो गई थी. ज्ञान सिंह अपनी गहरी आवाज़ में अपने सदमे को छुपाने की कोशिश करते हुए कहते हैं, "उनकी पांच पसलियां टूट गई थीं, और एक फेफड़ा ज़ख़्मी हो गया था."

ज्ञान बताते हैं, “इस घोषणा के बाद कि कृषि क़ानूनों को निरस्त किया जाएगा, हमारे गांव के लोगों ने पटाखे फोड़े और दिये जलाए. चूंकि हमारे घर में शहीदी हुई है, इसलिए हम जश्न नहीं मना सके. लेकिन हम उनकी ख़ुशी देखकर ख़ुश थे.”

उत्तर प्रदेश (यूपी) के रामपुर ज़िले के बिलासपुर तहसील के डिबडिबा गांव के 46 वर्षीय किसान सरविक्रमजीत सिंह हुंदल अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि सरकार को तीनों कृषि क़ानूनों को बहुत पहले ही रद्द कर देना चाहिए था. अगले ही पल उनका ग़ुस्सा ज़ाहिर होता है: "लेकिन किसान नेताओं के साथ 11 दौर की बातचीत के बाद भी सरकार ने ऐसा नहीं किया.” 26 जनवरी, 2021 को दिल्ली में किसानों की रैली में हिस्सा लेने के दौरान विक्रमजीत के 25 वर्षीय बेटे नवरीत सिंह हुंदल की मौत हो गई थी. वह एक ट्रैक्टर चला रहे थे, जो दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर दिल्ली पुलिस द्वारा लगाए गए बैरिकेड्स के समीप पलट गया था. सरविक्रमजीत कहते हैं कि ट्रैक्टर पलटने से पहले नवरीत को गोली मारी गई थी. वह आगे कहते हैं कि गोली पुलिस द्वारा चलाई गई थी. उस समय, हालांकि, दिल्ली पुलिस का कहना था कि नवरीत की मौत ट्रैक्टर पलटने से लगी चोटों से हुई थी. सिरविक्रमजीत बताते हैं, "जांच जारी है."

सिरवीरक्रमजीत ने कहा, “उसकी मौत के बाद से सबकुछ उल्टा-पुल्टा लगता है. सरकार ने क़ानूनों को निरस्त करके किसानों [के घावों] को मरहम नहीं लगाया है. यह कुर्सी पर [सत्ता में] बने रहने की कोशिश है. यह सत्ता की एक चाल है और यह हमारी भावनाओं के साथ खेलती है."

यूपी के बहराइच ज़िले के बलहा ब्लॉक के भटेहटा गांव के 40 वर्षीय जगजीत सिंह ने कहा कि किसानों - जीवित या मृत - के प्रति सरकार का रवैया बहुत ख़राब रहा है. उन्होंने कहा, "हमने इस सरकार को वोट दिया. अब यह हमें 'खालिस्तानी', 'राष्ट्र-विरोधी' कहकर बदनाम करती है, हमारे ऊपर फब्तियां कसती है. इनकी साहस देखिए! इनकी हिम्मत कैसे हुई?” जगजीत के भाई दलजीत सिंह की 3 अक्टूबर, 2021 को यूपी के लखीमपुर-खीरी में हुई हिंसक घटना में मृत्यु हो गई. यहां किसान केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा टेनी के ख़िलाफ़ इकट्ठा हुए थे. इस घटना के कुछ दिन पहले ही अजय टेनी ने किसानों के ख़िलाफ़ दिए धमकियों से भरे भाषण में उनकी तौहीन की थी.

From the left: Daljeet Singh, from Bahraich district, and Lovepreet Singh Dhillon, from Kheri district, Uttar Pradesh; Surender Singh, from Shahid Bhagat Singh Nagar district, Punjab
From the left: Daljeet Singh, from Bahraich district, and Lovepreet Singh Dhillon, from Kheri district, Uttar Pradesh; Surender Singh, from Shahid Bhagat Singh Nagar district, Punjab
From the left: Daljeet Singh, from Bahraich district, and Lovepreet Singh Dhillon, from Kheri district, Uttar Pradesh; Surender Singh, from Shahid Bhagat Singh Nagar district, Punjab

बाएं से: बहराइच ज़िले के दलजीत सिंह, और उत्तर प्रदेश के खीरी ज़िले के लवप्रीत सिंह ढिल्लों; पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर ज़िले के सुरेंद्र सिंह

मंत्री के क़ाफ़िले के वाहनों से कुचल दिए जाने के बाद चार किसान और एक पत्रकार की मौत हो गई थी. इस हिंसक घटना में मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष मिश्रा टेनी समेत 13 आरोपियों को नामज़द किया गया है. पूरे घटना की जांच कर रही विशेष जांच दल (एसआईटी) ने इन मौतों को 'पूर्व नियोजित साज़िश' क़रार दिया है.

35 वर्षीय दलजीत को दो एसयूवी (स्पोर्ट यूटिलिटी व्हीकल) गाड़ियों ने टक्कर मारी थी, और तीसरी गाड़ी ने उनको कुचल दिया था. दलजीत की पत्नी परमजीत कौर बताती हैं, “हमारे 16 साल के बेटे राजदीप ने यह मंज़र अपने सामने देखा." परमजीत याद करते हुए रोने लगती हैं, "उस सुबह विरोध प्रदर्शन पर जाने से पहले, दलजीत मुस्कुरा रहे थे और हमें हाथ हिलाकर अलविदा कह रहे थे. मैंने उस घटना से ठीक 15 मिनट पहले फ़ोन पर बात की थी. मैंने उनसे पूछा था कि उन्हें और कितनी देर लगेगी? उन्होंने कहा, 'यहां बहुत सारे लोग हैं. मैं जल्दी ही वापस आऊँगा.'" ऐसा नहीं होना था.

परमजीत ने कहा कि जब तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के निर्णय की घोषणा की गई, उस समय उनका घर दुख में मुब्तिला हो गया. “हमारा परिवार उस दिन, दोबारा, दलजीत की मौत के शोक में डूब गया. क़ानूनों को रद्द करने से मेरा भाई वापस नहीं आएगा. इससे (क़ानूनों की वापसी) 700 शहीदों में से कोई भी अब घर वापस नहीं लौटेगा.”

45 वर्षीय सतनाम ढिल्लों बताते हैं कि लखीमपुर-खीरी में प्रदर्शनकारियों को कुचलने वाली एसयूवी गाड़ियां वहां धीरे-धीरे आगे बढ़ीं जहां भीड़ अधिक थी. लेकिन जहां भीड़ कम थी, वे बहुत तेज़ दौड़ने लगीं. उनके बेटे, लवप्रीत सिंह ढिल्लों भी उन मृतकों में से एक थे. यूपी के खीरी ज़िले के पलिया तहसील के भगवंत नगर गांव में रहने वाले सतनाम कहते हैं, “वह लोगों को ज़ख़्मी करते रहे, उनको कुचलते रहे.” हालांकि, वह ख़ुद घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे, लेकिन घटना के बाद जैसे ही वह वहां पहुंचे, किसी ने उनको इस मंज़र से अवगत कराया.

सतनाम ने बताया कि लवप्रीत की 42 वर्षीय मां सतविंदर कौर रात में अक्सर उठकर बैठ जाती हैं, और बेटे को याद करते हुए रोने लगती हैं. उन्होंने कहा, “हम मांग करते हैं कि मंत्री [टेनी] इस्तीफ़ा दें, और उनके बेटे को क़ानून के तहत सज़ा मिले. हम केवल इंसाफ़ चाहते हैं.”

खीरी के धौरहरा तहसील के जगदीप सिंह ने कहा, “सरकार हमें न्याय देने के लिए कुछ नहीं कर रही है.” उनके पिता, 58 वर्षीय नछत्तर सिंह लखीमपुर-खीरी की घटना में मारे गए थे. उस त्रासदी के बारे में बात करने के लिए पूछे जाने पर उनका ग़ुस्सा होना लाज़मी था. 31 वर्षीय जगदीप ने मुझसे कहा, “हमसे यह पूछना सही नहीं है कि हम किस दौर से गुज़र रहे हैं. यह पूछना ऐसा है कि किसी भूखे इंसान के हाथ पीछे बंधे हुए हों, उसके सामने खाना रख दिया जाए, और उससे यह पूछा जाए कि 'खाना कैसा है?' बजाय इसके आप मुझसे यह पूछिए कि न्याय की लड़ाई कहां तक पहुंची है? हमें इस सरकार से क्या-क्या दिक़्क़तें हैं?” वह और ग़ुस्से में आ जाते हैं, “उन्होंने किसानों को कुचल दिया. क्यों कुचल दिया गया किसानों को?”

From the left: Harbansh Singh and Pal Singh, from Patiala district, and Ravinder Pal, from Ludhiana district, Punjab
From the left: Harbansh Singh and Pal Singh, from Patiala district, and Ravinder Pal, from Ludhiana district, Punjab
From the left: Harbansh Singh and Pal Singh, from Patiala district, and Ravinder Pal, from Ludhiana district, Punjab

बाएं से: पंजाब के पटियाला ज़िले के हरबंश सिंह और पाल सिंह, और लुधियाना ज़िले के रविंदर पाल

जगदीप एक डॉक्टर हैं और उनके छोटे भाई सशस्त्र सीमा बल - जो देश की सीमाओं पर तैनात केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल होता है - से जुड़े हैं. जगदीप ने कहा, "हम देश की सेवा करते हैं." वह अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि, "एक बेटे से पूछो कि अपने पिता को खोने पर कैसा लगता है."

मनप्रीत सिंह ने भी 4 दिसंबर, 2020 को एक सड़क दुर्घटना में अपने पिता सुरेंद्र सिंह को खो दिया था. 64 वर्षीय सुरेंद्र, शहीद भगत सिंह नगर के बलाचौर तहसील के हसनपुर खुर्द गांव से विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए दिल्ली आ रहे थे. हादसा हरियाणा के सोनीपत में हुआ. पिता को खोने पर मनप्रीत (29 साल) बताते हैं, "मैं बहुत दुख़ी हूं, उदास भी. पर मैं उनके लिए गौरवान्वित भी होता हूं, यह सोचकर कि उन्होंने आंदोलन के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी. उनको एक शहीद की मौत नसीब हुई.” पुलिस को आभार व्यक्त करते हुए वह बताते हैं कि "सोनीपत के पुलिस अधिकारियों ने मुझे मेरे पिता का शव दिलाने में मदद की."

73 वर्षीय हरबंश सिंह, पंजाब के पटियाला ज़िले के उन किसानों में से थे, जिन्होंने आंदोलन के दिल्ली की सीमाओं पर जाने से पहले ही तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था. भारतीय किसान संघ (सिद्धूपुर) के सदस्य, हरबंश, पटियाला तहसील के अपने गांव महमूदपुर जट्टां में सभाओं को संबोधित कर रहे थे. पिछले साल 17 अक्टूबर को भाषण देते समय वह गिर पड़े थे. उनके 29 वर्षीय बेटे, जगतार सिंह ने मुझसे बताया, "वह दर्शकों को तीन क़ानूनों के बारे में समझा रहे थे, जब उनको दिल का दौरा पड़ा, वह गिर पड़े और उनका निधन हो गया."

जगतार ने आगे कहा, “जो इस दुनिया से गुज़र गए, अगर वह नहीं जाते तो हम ख़ुश हो लेते.”

पाल सिंह जब दिल्ली में विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए घर से निकले, तो घरवालों को यह कह दिया कि वह उनसे ज़िंदा लौटने की उम्मीद न करें! पटियाला की नाभा तहसील के सहौली गांव के 58 वर्षीय पाल 1.5 एकड़ ज़मीन पर खेती करते थे. उनकी बहू अमनदीप कौर बताती हैं कि 15 दिसंबर, 2020 को सिंघु में उनको दिल का दौरा पड़ा और वह चल बसे. कॉलेज में पुस्तकालय प्रबंधन की स्टूडेंट रह चुकीं 31 वर्षीय अमनदीप ने कहा, “जो चले गए हैं उन्हें कोई वापस नहीं ला सकता. लेकिन जिस दिन किसान दिल्ली पहुंचे, उसी दिन क़ानूनों को रद्द कर देना चाहिए था. इसके बजाय, उन्होंने [सरकार और पुलिस] किसानों को रोकने के लिए हर संभव कोशिश की - बैरिकेड्स लगा दिए और खाई खोद दी.”

क़र्ज़ के बोझ तले दबे चार लोगों के इस परिवार में पाल सिंह ही कमाने वाले थे. अमनदीप दर्ज़ी के तौर पर काम करती हैं, लेकिन उनके पति कमाते नहीं हैं और उनकी सास एक गृहिणी हैं. अमनदीप धीमे स्वर में अफ़सोस के साथ कहती हैं, “मृत्यु से एक रात पहले, वह अपने जूते पहनकर सो गए थे. वह अगली सुबह घर के लिए जल्दी निकलना चाह रहे थे. उनका शरीर तो घर आया, वह नहीं आए."

From the left: Malkit Kaur, from Mansa district, Punjab; Raman Kashyap, from Kheri district, UP; Gurjinder Singh, from Hoshiarpur district, Punjab
From the left: Malkit Kaur, from Mansa district, Punjab; Raman Kashyap, from Kheri district, UP; Gurjinder Singh, from Hoshiarpur district, Punjab
From the left: Malkit Kaur, from Mansa district, Punjab; Raman Kashyap, from Kheri district, UP; Gurjinder Singh, from Hoshiarpur district, Punjab

बाएं से: पंजाब के मनसा ज़िले की मलकीत कौर; उत्तर प्रदेश के खीरी ज़िले के रमन कश्यप; पंजाब के होशियारपुर ज़िले के गुरजिंदर सिंह

पंजाब के लुधियाना ज़िले की खन्ना तहसील के इकोलाहा के 67 वर्षीय रविंदर पाल की अस्पताल में मौत हो गई. पिछले साल 3 दिसंबर को, उन्हें सिंघु बॉर्डर पर क्रांतिकारी गीत गाते हुए एक वीडियो में रिकॉर्ड किया गया था. उन्होंने सफ़ेद कुर्ता पहन रखा था, जिस पर लाल स्याही से नारे लिखे हुए थे. उस पर लिखा था 'परनाम शहीदों को', और 'न पगड़ी न टोप, भगत सिंह एक सोच’.

हालांकि, उस रोज़ के बाद रविंदर की तबीयत ने अचानक करवट ली. 5 दिसंबर को उन्हें लुधियाना शिफ़्ट किया गया, जहां अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई. उनके 42 वर्षीय बेटे, राजेश कुमार ने कहा, “उन्होंने दूसरों की चेतना जगाई, अब वह ख़ुद हमेशा के लिए सो गए हैं.” राजेश 2010-2012 में भूटान के शाही सैनिकों को प्रशिक्षित कर चुके हैं. इस परिवार के पास कोई ज़मीन नहीं है. राजेश ने मुझे बताया, “मेरे पिता एक खेतिहर मज़दूर यूनियन के सदस्य थे और उनकी एकता के लिए काम करते थे.”

60 साल की उम्र में मलकीत कौर पंजाब के मनसा ज़िले में मज़दूर मुक्ति मोर्चा की सक्रिय सदस्य थीं और मज़दूरों के अधिकारों से जुड़े अभियानों में शामिल रही थीं. मलकीत, दलित समुदाय से थीं और उनके पास ज़मीन का कोई एक टुकड़ा भी नहीं था; वह पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली जाने के रास्ते में 1,500 किसानों के एक जत्थे के साथ थीं. मज़दूर संगठन के स्थानीय प्रमुख गुरजंत सिंह ने कहा, “वह जत्था हरियाणा के फ़तेहाबाद में एक लंगर [सामुदायिक रसोई] पर रुका था. मलकीत सड़क पार कर रहीं थीं, जब उन्हें एक वाहन से टक्कर लगी और उनकी मौत हो गई."

इस आंदोलन में अपनी जान गंवाने वालों में एक पत्रकार का भी नाम उस दिन जुड़ गया, जब 3 अक्टूबर, 2021 को लखीमपुर-खीरी में वह भी केंद्रीय मंत्री टेनी की गाड़ियों के काफ़िले के नीचे कुचल दिए गए. अपनी ज़िंदगी के 34 बसंत पार कर चुके रमन कश्यप दो बच्चों के पिता थे, और वह खीरी की निघासन तहसील के एक टीवी समाचार चैनल साधना प्लस के लिए एक क्षेत्रीय रिपोर्टर के तौर पर कार्यरत थे. उनके भाई पवन कश्यप, जो ख़ुद एक किसान हैं, उन्होंने मुझसे कहा, "वह हमेशा समाज सेवा में रुचि रखते थे." वह और रमन अपने तीसरे भाई के साथ संयुक्त रूप से लगभग चार एकड़ की ज़मीन पर खेती करते थे. 32 वर्षीय पवन ने बताया, “रमन एक वाहन के पहिए में फंस गए थे, और फिर सड़क पर गिर गए. उनका शरीर तीन घंटे से अधिक समय तक वहां उपेक्षित पड़ा रहा था. उनके शव को सीधे पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया था. मैंने उसे मुर्दाघर में देखा था. उनके शरीर पर टायर और बजरी से लगे चोट के निशान थे. अगर समय पर इलाज मिल जाता, तो उनकी जान बचाई जा सकती थी.”

किसान आंदोलन में शहीद हुए किसानों में, उनके परिवार के बच्चे भी शामिल रहे. ऐसे परिवारों के लिए बच्चों को खोना, उनके कलेजे से दिल निकाल लेने जैसा रहा है. गुरजिंदर सिंह की उम्र महज़ 16 साल थी. वह पंजाब के होशियारपुर ज़िले की गढ़शंकर तहसील के टांडा में रहते थे. गुरजिंदर की 38 वर्षीय मां कुलविंदर कौर ने कहा, “हमारा परिवार तबाह हो गया है. इन भयानक क़ानूनों को सरकार आख़िर लेकर ही क्यों आई?” गुरजिंदर 16 दिसंबर, 2020 को दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे एक विरोध प्रदर्शन में शामिल होने जा रहे थे. जब वह करनाल पहुंचे, तो ट्रैक्टर से गिर गए थे. उनकी मौत से ठीक 10 दिन पहले, 6 दिसंबर को, जसप्रीत सिंह हरियाणा के कैथल ज़िले के गुहला तहसील के मस्तगढ़ से सिंघु जा रहे थे. रास्ते में उनकी गाड़ी नहर में गिर गई और उनकी मौत हो गई. जसप्रीत 18 वर्ष के थे. उनके चाचा, 50 वर्षीय प्रेम सिंह ने मुझसे कहा: “जिन परिवारों ने अपनों को खो दिया है - उन्हें अब क्या फ़र्क़ पड़ता है कि क़ानून रद्द हो गए हैं या नहीं?”

मृतकों के परिवारों से बात करते हुए, मैं दिल्ली के कठोर मौसम, सड़क दुर्घटनाओं, मानसिक तनाव, और शारीरिक कठिनाइयों को मृत्यु के मुख्य कारणों के रूप में सूचीबद्ध कर सकता हूं. कृषि क़ानूनों को लेकर उनकी व्यथा व मनोदशा, आने वाले भविष्य की अनिश्चितता और किसानों द्वारा महसूस की गई उपेक्षा व उदासीनता, उनकी ख़ुदकुशी के कारणों में शामिल हैं.

From the left: Jaspreet Singh, from Kaithal district, Haryana; Gurpreet Singh, from Fatehgarh Sahib district, Punjab; Kashmir Singh, from Rampur district, UP
From the left: Jaspreet Singh, from Kaithal district, Haryana; Gurpreet Singh, from Fatehgarh Sahib district, Punjab; Kashmir Singh, from Rampur district, UP
From the left: Jaspreet Singh, from Kaithal district, Haryana; Gurpreet Singh, from Fatehgarh Sahib district, Punjab; Kashmir Singh, from Rampur district, UP

बाएं से: हरियाणा के कैथल ज़िले के जसप्रीत सिंह; पंजाब के फ़तेहगढ़ साहिब ज़िले के गुरप्रीत सिंह; यूपी के रामपुर ज़िले के कश्मीर सिंह

10 नवंबर, 2021 को 45 वर्षीय गुरप्रीत सिंह, सिंघु बॉर्डर के विरोध-स्थल के पास एक स्थानीय भोजनालय के सामने मृत पाए गए. उन्होंने फांसी लगा ली थी. उनके 21 वर्षीय बेटे लवप्रीत सिंह ने मुझे बताया कि उनके बाएं हाथ पर बस एक शब्द - ज़िम्मेदार - लिखा हुआ था. गुरप्रीत के पास पंजाब के फ़तेहगढ़ साहिब ज़िले की अमलोह तहसील के रुरकी गांव में आधा एकड़ ज़मीन थी, जिससे परिवार के मवेशियों को हरा चारा मिल जाता था. वहां से क़रीब 18 किलोमीटर दूर मंडी के गोबिंदगढ़ में वह बच्चों को घर से स्कूल तक लाने और वापस ले जाने का काम करते थे.  वहीं, गोबिंदगढ़ में देश भगत विश्वविद्यालय में बीकॉम के छात्र लवप्रीत ने कहा, “अगर 10 दिन पहले क़ानूनों को रद्द करने का फ़ैसला कर लिया गया होता, तो मेरे पिता हमारे साथ होते.” वह आगे बताते हैं, “सरकार को किसानों की सभी मांगों को स्वीकार कर लेना चाहिए, ताकि कोई भी मेरे पिता द्वारा उठाए गए क़दम को अपनाने के लिए मजबूर न हो.”

कश्मीर सिंह का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ था, जिस दिन आधुनिक भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी मिली थी. यूपी के रामपुर ज़िले के सुअर ब्लॉक के पसियापुरा के किसान, कश्मीर सिंह ग़ाज़ीपुर प्रदर्शनस्थल पर लंगर में सेवा कर रहे थे. उन्होंने एक नोट में लिखा था: "मैं कृषि क़ानूनों के विरोध में अपने शरीर का बलिदान कर रहा हूं.” नए साल के दूसरे दिन (2 जनवरी, 2021 को) उन्होंने ख़ुद को फांसी लगा ली.

कश्मीर सिंह के पोते गुरविंदर सिंह ने मुझसे पूछा, “उन 700 शहीदों के परिवार अब कैसा महसूस कर रहे होंगे? हालांकि, क़ानूनों को रद्द कर दिया गया है, लेकिन अब वे हमारे 700 किसान वापस नहीं आएंगे. 700 घरों के चराग़ बुझ गए हैं."

दिल्ली की सीमाओं पर लगे, किसानों के कैंप और तम्बू हटाए जा चुके हैं. विरोध प्रदर्शन भी अब नहीं हो रहा. लेकिन किसान, एमएसपी की क़ानूनी गारंटी और शहीदों के परिवारों को मुआवज़े के लिए सरकार पर दबाव बनाना जारी रखे हुए हैं. सूरत-ए-हाल यह है कि इसी महीने की पहली तारीख़ को संसद में दिए एक लिखित जवाब में, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि उन्हें मौतों का आंकड़ा नसीब नहीं हुआ. उनका कहना था कि मुआवज़े का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता, क्योंकि सरकार के पास किसान आंदोलन में हुई मौतों का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.

गुरविंदर कहते हैं कि अगर सरकार ने ध्यान दिया होता, तो उसे मालूम होता कि कितने लोगों की शहीदी हुई. "किसान सड़कों पर बैठे रहे, लेकिन सरकार अपने महलों में सोती रही. मज़दूर मुक्ति मोर्चा के गुरजंत सिंह पूछते हैं - जब तकनीक के इस युग में डेटा आसानी से उपलब्ध हैं, तो आंदोलन में मारे गए लोगों का विवरण प्राप्त करना कितना मुश्किल काम है?"

गुरप्रीत सिंह फिर कभी भाषण देने नहीं आएंगे. दिल्ली की दहलीज़ पर लिखे इतिहास के आख़िरी सुनहरे पन्नों को देखने के लिए उनके जैसे 700 से अधिक किसान अब इस दुनिया में नहीं रहे. उनमें से कोई भी अपने साथी प्रदर्शनकारियों के आंसू नहीं पोछ पाया, न उनके साथ आंदोलन की जीत की ख़ुशियां बांट सका. लेकिन वे शायद ऊपर आसमान में आंदोलन की जीत का परचम बुलंद कर रहे होंगे, और देख रहे होंगे कि नीचे धरती पर खड़े उनके साथी किसान, शान से माथा उठाए, गर्व से उन्हें सलाम पेश कर रहे हैं.

सभी तस्वीरें, शहीद किसानों के परिवारों के सौजन्य से हासिल हुई हैं . कवर फ़ोटो, आमिर मलिक ने खींची है .

यदि आपके मन में ख़ुदकुशी का ख़याल आता है या आप किसी ऐसे इंसान को जानते हैं जो संकट में है, तो कृपया राष्ट्रीय हेल्पलाइन 'किरण' को 1800-599-0019 (24/7 टोल फ़्री) पर या इनमें से किसी भी नज़दीकी हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करें. मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों और सेवाओं के बारे में जानकारी के लिए, कृपया एसपीआईएफ़ की मानसिक स्वास्थ्य निर्देशिका देखें.

Amir Malik

Amir Malik is an independent journalist, and a 2022 PARI Fellow.

Other stories by Amir Malik