अमरावती ज़िले के तलेगांव दशासर पुलिस स्टेशन के प्रभारी इंस्पेक्टर अजय अकरे कहते हैं, “हमने इन 58 ऊंटों को ज़ब्त नहीं किया है. महाराष्ट्र में इन जानवरों के प्रति होने वाली क्रूरता के लिए कोई क़ानून नहीं है, इसलिए हमारे पास इन्हें ज़ब्त करने का कोई अधिकार नहीं है.”

वह कहते हैं, “ऊंट हिरासत में हैं.”

अमरावती में स्थानीय न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिए ऊंट पालकों को भी गिरफ़्तार किया गया है. ये पांचों घुमंतूओं की तरह रहने वाले ऊंट पालक हैं. ये गुजरात के कच्छ से हैं और उनमें से चार रबारी और एक फकीरानी जाट समुदाय से हैं. सदियों से ये दोनों समुदाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऊंट पालन करते आ रहे हैं. मजिस्ट्रेट ने पांचों को ही बिना शर्त तत्काल जमानत दे दी. इन्हें कुछ स्वघोषित ‘पशु अधिकार कार्यकर्ताओं’ की शिकायत पर पुलिस ने हिरासत में लिया था.

अकरे कहते हैं, “इनके पास इन ऊंटों को ख़रीदने या अपने पास रखने से संबंधित कोई काग़ज़ात नहीं थे. इनके पास ख़ुद के भी निवास-स्थान से जुड़े कोई क़ानूनी काग़ज़ात नहीं थे.” और फिर कोर्ट में उंटों और ख़ुद से संबंधित काग़ज़ात पेश करना इन परंपरागत चरवाहों के लिए अजब कौतुक बना. ये काग़ज़ात इन चरवाहों के परिजनों और दोनों चरवाहे समुदायों से जुड़े अन्य सदस्यों द्वारा पेश किए गए.

चरवाहों से अलग कर दिए गए इन उंटों को गायों के लिए बनी गौशाला में रखा गया है. और वहां काम करने वाले लोगों को इसकी जानकारी नहीं है कि ऊंट पालन कैसे होता है या उन्हें चारा कैसे खिलाना होता है. हालांकि, गाय और ऊंट दोनों जुगाली करने वाले पशु हैं, लेकिन दोनों का चारा बिल्कुल अलग होता है. अगर ये केस आगे खिंचता है, तो गौशाला में बंद पड़े ऊंटों की दशा दिनोंदिन बदतर होती जाएगी.

Rabari pastoralists camping in Amravati to help secure the release of the detained camels and their herders
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'हिरासत' में लिए गए 58 ऊंटों और उनके चरवाहों की रिहाई में मदद के लिए, अमरावती में डेरा डाले हुए कुछ रबारी चरवाहे

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"ऊंट राजस्थान का राजकीय पशु है, उसे दूसरे राज्यों की जलवायु में नहीं रखा जा सकता है.”
जसराज श्रीश्रीमाल, भारतीय प्राणी मित्र संघ, हैदराबाद

यह सब संदेह के आधार पर शुरू हुआ.

7 जनरी, 2022 को हैदराबाद के पशु कल्याण कार्यकर्ता जसराज श्रीश्रीमाल (71 वर्ष) ने दशासर पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करवाई कि पांच चरवाहे उंटों की तस्करी करके हैदराबाद के बूचड़खानों में ले जा रहे हैं. पुलिस ने तत्काल कार्रवाई करते हुए चरवाहों व उनके उंटों को हिरासत में ले लिया. हालांकि, श्रीश्रीमाल ने चरवाहों को हैदराबाद में नहीं, महाराष्ट्र के विदर्भ इलाक़े में देखा था.

श्रीश्रीमाल ने अपनी शिकायत में लिखा है, “मैं अपने एक साथी के साथ अमरावती के लिए निकला और निमगव्हाण गांव (चांदूर रेलवे तहसील) पहुंचा, जहां चार-पांच लोग खेत में उंटों के साथ डेरा डाले हुए थे. हमने गिना तो पाया कि वहां 58 ऊंट थे. उन्हें गले और पैरों से बांधा गया था, जिसके कारण वो ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे. उनके साथ क्रूरता हो रही थी. कुछ ऊंट ज़ख़्मी भी थे, जिनकी कोई दवा नहीं की गई थी. ऊंट, राजस्थान का राजकीय पशु है और उसे दूसरे राज्य की जलवायु में नहीं रखा जा सकता है. उनके पास कोई काग़ज़ात नहीं थे, जिनसे ये पता चले कि वे उंटों को कहां ले जा रहे थे.”

भारत में ऊंट राजस्थान, गुजरात, और हरियाणा में पाए जाते हैं, साथ ही कुछ और स्थानों पर भी दिख जाते हैं. हालांकि, उंट पालन सिर्फ़ राजस्थान और गुजरात में ही होता है. साल 2019 में हुई 20वीं पशुधन गणना के अनुसार देश में उंटों की कुल संख्या 250,000 है. और ये संख्या 2012 में हुई पशुधन गणना से 37 प्रतिशत कम है.

The camels, all male and between two and five years in age, are in the custody of a cow shelter in Amravati city
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हिरासत में लिए गए सभी ऊंट, नर ऊंट हैं और उनकी उम्र दो से पांच साल के बीच है. वे अमरावती शहर की एक गौशाला में क़ैद हैं

ये पांचों चरवाहे बड़े पशुओं को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में अनुभवी और जानकार हैं. पांचों ही गुजरात के कच्छ के रहने वाले हैं. ये कभी हैदराबाद नहीं गए हैं.

श्रीश्रीमाल ने पारी को फ़ोन पर हुई बातचीत में बताया, “वे लोग कोई साफ़-साफ़ जवाब नहीं दे पाए, तो मेरा संदेह बढ़ गया. उंटों को अवैध रूप से काटने के मामले बढ़ रहे हैं.” वह दावा करते हैं कि उनके संस्थान ‘भारतीय प्राणी मित्र संघ’ ने भारत में अलग-अलग जगह पर पिछले पांच साल में 600 से ज़्यादा ऊंटों को बचाया है.

उनका कहना है कि गुलबर्गा, बेंगलुरु, अकोला, और हैदराबाद सहित कई स्थानों पर उंटों को बचाया गया. उनके संगठन ने इन बचाए गए उंटों को वापस राजस्थान भेजा. उनके मुताबिक़, हैदराबाद सहित भारत के कई अन्य स्थानों पर ऊंट के मांस की मांग लगातार बढ़ रही है. लेकिन, शोधकर्ताओं व व्यापारियों का कहना है कि सिर्फ़ बूढ़े हो चुके ऊंटों को ही बूचड़खाने में बेचा जाता है.

श्रीश्रीमाल, भारतीय जनता पार्टी से सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी, जो पीपल फ़ॉर एनिमल संगठन का नेतृत्व करती हैं, उनसे नज़दीकी रूप से जुड़े हुए हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के हवाले से मेनका गांधी का बयान है, “उत्तरप्रदेश के बागपत से एक बड़ा रैकेट और सिंडिकेट चल रहा है. उंटों को बांग्लादेश भी भेजा जाता है. इतने सारे ऊंटों को एक साथ रखने की कोई और वजह ही नहीं बनती है.”

शुरुआती जांच के बाद पुलिस ने 8 जनवरी को एफ़आईआर दर्ज की थी. महाराष्ट्र में उंटों की सुरक्षा से जुड़ा कोई क़ानून न होने के कारण पुलिस ने पशु क्रुरता निवारण अधिनियम, 1960 के सेक्शन 11 (1)(डी) के तहत मामला दर्ज किया है.

ये धाराएं 40 साल से ज़्यादा की उम्र के प्रभु राणा, जग हीरा, मूसाभाई हमीद जाट, तथा 50 साल की उम्र के वीसाभाई सरावू; व 70 साल से ज़्यादा की उम्र के वेरसीभाई राणा रबारी पर लगाई गई हैं.

Four of the traditional herders from Kachchh – Versibhai Rana Rabari, Prabhu Rana Rabari, Visabhai Saravu Rabari and Jaga Hira Rabari (from left to right) – who were arrested along with Musabhai Hamid Jat on January 14 and then released on bail
PHOTO • Jaideep Hardikar

कच्छ के पारंपरिक चरवाहे - वेरसीभाई राणा रबारी, प्रभु राणा रबारी, वीसाभाई सरावू रबारी, और जग हीरा रबारी (बाएं से दाएं) - जिन्हें 14 जनवरी को मुसाभाई हामिद जाट के साथ गिरफ़्तार किया गया था और फिर ज़मानत पर रिहा कर दिया गया

इंस्पेक्टर अकरे का कहना है कि 58 उंटों की देखभाल करना मुश्किल काम था. जब तक अमरावती में किसी बड़ी जगह से बात होती, पुलिस ने दो दिन के लिए एक स्थानीय छोटी गौशाला की सहायता ली. अमरावती के दस्तूर नगर की यह गौशाला ख़ुद आगे आई और ऊंटों को वहां भेज दिया गया, क्योंकि उनके पास उन्हें रखने की पर्याप्त जगह थी.

विडंबना देखिए कि ऊंटों को तलेगांव से अमरावती ले जाने की ज़िम्मेदारी आरोपियों के रिश्तेदारों और जानने वालों पर आ गई. वे दो दिनों तक 55 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके ऊंटों को वहां ले गए.

इन चरवाहों को लोगों का समर्थन मिलने लगा है. कच्छ की कम से कम तीन ग्राम पंचायतों ने अमरावती पुलिस व ज़िला प्रशासन से अनुरोध किया है कि ऊंटों को खुले में चरने के लिए छोड़ा जाए, नहीं तो वे भूख से मर सकते हैं. नागपुर ज़िले की मकरधोकड़ा ग्राम पंचायत में रबारियों का एक बड़ा डेरा है, और उन्होंने सामुदायिक  समर्थन करते हुए कहा है कि ये पारंपरिक चरवाहे हैं और उन ऊंटों को हैदराबाद के बूचड़खाने नहीं ले जाया जा रहा था. अब निचली अदालत के हाथ में है कि वह ऊंटों को आरोपी चरवाहों को सौंपेगी या वापस कच्छ भेज देगी.

अंतिम फ़ैसला इस बात पर निर्भर करता है कि अदालत इन लोगों को पारंपरिक ऊंट पालक मानती है या नहीं.

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हमारी अज्ञानता के कारण इन चरवाहों के प्रति संदेह पैदा हो गया है, क्योंकि ये हमारी तरह दिखते या बोलते नहीं हैं.
सजल कुलकर्णी, शोधकर्ता (चरवाहा समुदाय), नागपुर

इन पांचों चरवाहों में सबसे बड़े वेरसीभाई रबारी अपने उंटों और भेड़ों के साथ देश के कई स्थानों पर पैदल घूमे हैं, लेकिन उन पर कभी पशुओं के प्रति क्रूरता का आरोप नहीं लगा.

पुलिस थाने में एक पेड़ के नीचे पांव मोड़कर चिंतित और शर्मिंदा होकर बैठे, झुर्रियों भरे चेहरे वाले ये बुज़ुर्ग कच्छी भाषा में कहते हैं, “ऐसा पहली बार हुआ है.”

Rabaris from Chhattisgarh and other places have been camping in an open shed at the gauraksha kendra in Amravati while waiting for the camels to be freed
PHOTO • Jaideep Hardikar
Rabaris from Chhattisgarh and other places have been camping in an open shed at the gauraksha kendra in Amravati while waiting for the camels to be freed
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छत्तीसगढ़ समेत अन्य जगहों से आए रबारी, ऊंटों की रिहाई के इंतज़ार में अमरावती के गौरक्षा केंद्र पर खुले शेड में डेरा डाले हुए हैं

पांच आरोपियों में से एक प्रभु राणा रबारी ने 13 जनवरी को तलेगांव दशासर पुलिस थाने में हमें बताया, “महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में अपने रिश्तेदारों को पहुँचाने के लिए, हम इन ऊंटों को कच्छ से ले आए थे.” ये उनके 14 जनवरी को गिरफ़्तार होकर बेल पर छूटने से एक दिन पहले की बात है.

कच्छ के भुज से अमरावती पहुंचने तक रास्ते में उन्हें किसी ने भी नहीं रोका. किसी ने उन पर गलत होने का शक नहीं किया. उनकी ये लंबी यात्रा अचानक इस घटना के चलते बीच में ही रुक गई.

ये ऊंट उन्हें महाराष्ट्र के वर्धा, नागपुर, भंडारा तथा छत्तीसगढ़ में रहने वाले रबारी समुदाय के लोगों तक पहुंचाने थे.

रबारी, घुमंतुओं की तरह जीने वाला एक चरवाहा समुदाय है. वे दो-तीन अन्य समुदायों के साथ कच्छ और राजस्थान में रहते हैं. जीवनयापन के लिए वे भेड़-बकरियां पालते हैं तथा आवाजाही व खेती के लिए ऊंट पालते हैं. कच्छ ऊंट प्रजनन एसोसिएशन द्वारा बनाए बायोकल्चरल कम्यूनिटी प्रोटोकॉल को मानते हुए वे ऊंटपालन करते हैं.

समुदाय का एक हिस्सा, जिन्हें ढेबरिया रबारी कहते हैं, पूरे साल चारे-पानी की उपलब्धता वाली जगह पर घूमता रहता है. कई परिवार अब मध्य भारत की कई जगहों पर पूरे सालभर डेरा डालकर बस जाते हैं. इनमें से कुछ मौसम के अनुसार दीवाली के बाद पलायन करते हैं और कच्छ से तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, और महाराष्ट्र के विदर्भ तक जाते हैं.

चरवाहों व पारंपरिक पशुपालकों पर शोध कर रहे नागपुर के सजल कुलकर्णी बताते हैं कि मध्य भारत में ढेबरिया रबारियों के क़रीब 3,000 डेरे हैं. कुलकर्णी रिवाइटलाइजिंग रेनफेड एग्रीकल्चर नेटवर्क (आरआरएएन) में फेलो हैं. वह बताते हैं कि एक डेरे में पांच से दस परिवार, ऊंट, बड़ी संख्या में भेड़ें, और मीट के लिए बकरियां होती हैं.

Jakara Rabari and Parbat Rabari (first two from the left), expert herders from Umred in Nagpur district, with their kinsmen in Amravati.They rushed there when they heard about the Kachchhi camels being taken into custody
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अपने रिश्तेदारों के साथ जकारा रबारी और परबत रबारी (बाएं से पहले दो), जो नागपुर ज़िले के उमरेड के माहिर चरवाहे हैं. कच्छ के चरवाहों और ऊंटों को हिरासत में लिए जाने की ख़बर सुनते ही वे अमरावती के निकल गए थे

कुलकर्णी एक दशक से रबारी समुदाय सहित अन्य चरवाहा समुदायों व पशुपालन से जुड़ी संस्कृति का अध्ययन कर रहे हैं. वह गिरफ़्तारी व ऊंट पकड़ने की इस घटना के बारे में कहते हैं, “यह घटना दर्शाती है कि हमारी अज्ञानता के कारण इन चरवाहों के प्रति संदेह पैदा हो गया है, क्योंकि ये हमारी तरह दिखते या बोलते नहीं हैं.

कुलकर्णी बताते हैं कि रबारियों के कुछ समूह अब घुमंतू जीवन छोड़कर बसने लगे हैं. गुजरात में वे अब अपना पारंपरिक काम छोड़कर पढ़ने की चाह रखने लगे हैं, नौकरियां करने लगे हैं. कुछ परिवारों ने महाराष्ट्र में ज़मीन ले ली है और यहां के किसानों के साथ खेती करने लगे हैं.

कुलकर्णी कहते हैं, "चरवाहों व किसानों के बीच सहजीविता का संबंध बन जाता है. फ़सल कटाई के बाद या जब खेत खाली पड़ा होता है, तब रबारी अपनी भेड़ों व बकरियों को खेतों में चरने के लिए छोड़ देते हैं. वहां ये पशु मल-मूत्र करते हैं, जिससे खेतों को जैविक खाद प्राप्त होती है. वह कहते हैं, “जो किसान इस बारे में जानते हैं या उनसे ऐसा संबंध  रखते हैं वे जानते हैं कि इनका महत्व क्या है.”

जो रबारी इन 58 ऊंटों को लेने वाले थे वे महाराष्ट्र व छत्तीसगढ़ में रहते हैं. उनकी पूरी उम्र यहीं गुज़री है, लेकिन वे कच्छ में रहने वाले अपने समुदाय के लोगों से आज भी संबंध बनाकर रहते हैं. वहीं दूसरी तरफ़, फकीरानी जाट लंबी दूरी तक पलायन नहीं करते हैं, लेकिन वे बहुत ही उम्दा ऊंटपालक हैं और रबारियों से उनका सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है.

भुज में पशुचारण केंद्र चलाने वाले एक एनजीओ सहजीवन के अनुसार, यहां पर रबारी, समास, और जाटों सहित कच्छ के चरवाहा समुदायों के 500 ऊंट पालक रहते हैं.

सहजीवन के प्रोग्राम डायरेक्टर रमेश भट्टी ने पारी से फ़ोन पर हुई बातचीत में बताया, “हमने पता किया है और यह सही बात है कि ये 58 ऊंट कच्छ ऊंट उछेरक मालधारी संगठन (कच्छ ऊंट प्रजनन एसोसिएशन) के 11 ऊंटपालक सदस्यों द्वारा मध्य भारत में रहने वाले रिश्तेदारों को पहुंचाने के लिए ख़रीदे गए थे.”

भट्टी ने बताया ये पांचों बहुत ही जानकार ऊंट प्रशिक्षक हैं, इसलिए उन्हें ऊंटों के साथ इस लंबी, दुर्गम यात्रा पर भेजा गया. वेरसीभाई कच्छ के उन सबसे बुज़ुर्ग ऊंट प्रशिक्षकों में से हैं जो अभी सक्रिय हैं और ऊंट को एक जगह से दूसरी जगह लाने या ले जाने के माहिर हैं.

Suja Rabari from Chandrapur district (left) and Sajan Rana Rabari from Gadchiroli district (right) were to receive two camels each
PHOTO • Jaideep Hardikar
Suja Rabari from Chandrapur district (left) and Sajan Rana Rabari from Gadchiroli district (right) were to receive two camels each
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चंद्रपुर ज़िले के सुजा रबारी (बाएं) और गढ़चिरौली ज़िले (दाएं) के सजन राणा रबारी को, हिरासत में लिए गए 58 ऊंटों में से दो-दो ऊंट मिलने थे

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हम घुमंतू समुदाय हैं. इसलिए कई बार हमारे पास काग़ज़ात नहीं होते हैं...
मशरूभाई रबारी, वर्धा के सामुदायिक नेता

उन्हें पक्का याद नहीं है कि वे किस तारीख़ को कच्छ से निकले थे.

हताश और परेशान प्रभु राणा रबारी कहते हैं, “हमने नौवें महीने (सितंबर 2021) में ऊंट पालकों से अलग-अलग जगहों से ऊंट इकट्ठा करना शुरू किया था. और दीवाली (नवंबर की शुरुआत में) के तुरंत बाद भचाऊ (कच्छ की एक तहसील) से चलना शुरू किया था. और हमें फरवरी या फरवरी के अंत तक बिलासपुर (छत्तीसगढ़) पहुंचना था.”

कच्छ से चलने के बाद से ये पांचों चरवाहे क़रीब 1200 किलोमीटर का सफ़र तय कर चुके हैं. भचाऊ से अहमदाबाद होते हुए महाराष्ट्र के नंदुरबार, भुसावल, अकोला, कारंजा, तलेगांव दशासर को पार किया. आगे वे महाराष्ट्र के ही वर्धा, नागपुर, भंडारा को पार करके छत्तीसगढ़ के दुर्ग और रायपुर की ओर चलते हुए, वहां से बिलासपुर पहुंचते. वाशिम के कारंजा क़स्बे से गुज़रने के दौरान वे नए-नए बने समृद्धि हाइवे पर भी चले.

पांचों आदमियों में सबसे छोटे मूसाभाई हमीद जाट बताते हैं, “हम एक दिन में 12-15 किलोमीटर चलते हैं. हालांकि, एक जवान ऊंट आराम से दिन में 20 किलोमीटर तक चल सकता है. हम रात में रुक जाते हैं और सुबह जल्दी फिर से चलना शुरू कर देते हैं.” वे अपने लिए खाना बनाते, दोपहर की नींद लेते, ऊंटों को आराम करने देते, और फिर से चलना शुरू कर देते थे.

ऊंटपालन के लिए गिरफ़्तार किए जाने के कारण वे बहुत डरे हुए हैं.

वर्धा ज़िले में रहने वाले समुदाय के एक बुज़ुर्ग नेता मशरुभाई रबारी बताते हैं, “हम अपनी ऊंटनियों को कभी नहीं बेचते हैं और आवागमन के लिए ऊंटों का इस्तेमाल करते हैं. ऊंट हमारे पांव हैं.” इस वक्त जो 58 ऊंट हिरासत में हैं वे सभी ‘नर ऊंट’ हैं.

Mashrubhai Rabari (right) has been coordinating between the lawyers, police and family members of the arrested Kachchhi herders. A  community leader from Wardha, Mashrubhai is a crucial link between the Rabari communities scattered across Vidarbha
PHOTO • Jaideep Hardikar
Mashrubhai Rabari (right) has been coordinating between the lawyers, police and family members of the arrested Kachchhi herders. A  community leader from Wardha, Mashrubhai is a crucial link between the Rabari communities scattered across Vidarbha
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गिरफ़्तार किए गए कच्छी चरवाहों के घरवालों, वकीलों, और पुलिस सबको मशरूभाई रबारी (दाएं) ही संभाल रहे हैं. वह वर्धा के सामुदायिक नेता हैं, और विदर्भ में फैले रबारी समुदायों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी माने जाते हैं

उन्हें सब प्यार से ‘मशरु मामा' कहते हैं. पांचों चरवाहों को जबसे पुलिस ने पकड़ा है वे उनके साथ ही हैं. वे उनके परिजनों से बातचीत कर रहे हैं, अमरावती में वकीलों की व्यवस्था कर रहे हैं, तथा पुलिस को बयानों की रिकॉर्डिंग का अनुवाद करने में मदद कर रहे हैं. उनको मराठी और कच्छी, दोनों भाषाएं अच्छे से समझ आती हैं. वे यहां अलग-अलग जगहों पर रहने वाले रबारियों के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं.

मशरुभाई बताते हैं, “ये ऊंट विदर्भ, तेलंगाना, और छत्तीसगढ़ के अलग-अलग डेरों में रहने वाले हमारे लोगों तक पहुंचाने थे. हरेक को 3-4 उंट देने थे.” एक जगह से दूसरी जगह जाने के दौरान वे अपने जानवरों पर सामान, छोटे बच्चे, तथा भेड़ों के बच्चे ढोते हैं. लगभग वे अपनी पूरी दुनिया ही इन जानवरों पर ढोकर चलते हैं. वे महाराष्ट्र के धनगर चरवाहा समुदाय की तरह बैलगाड़ियों का इस्तेमाल नहीं करते हैं.

मशरूभाई बताते हैं, “हम अपने ही यहां के ऊंट पालकों से ऊंट ख़रीदते हैं. जब ऊंट बूढ़े हो जाते हैं और 10-15 लोगों को नए ऊंटों की ज़रूरत होती है, तो हम कच्छ के अपने रिश्तेदारों को ऑर्डर करते हैं. वे बड़ी संख्या में ऊंटों को एक साथ जानकार लोगों के साथ भेजते हैं जिन्हें ऊंटों को ख़रीदारों तक पहुंचाने के लिए भुगतान किया जाता है. यदि ऊंट बहुत दूर तक पहुंचाने होते हैं, तो महीने की 6,000 से 7,000 मज़दूरी दी जाती है. एक युवा ऊंट का मूल्य 10,000 से 20,000 रुपए होता है.” एक ऊंट 3 साल की उम्र में काम करना शुरू करता है और 20-22 साल की उम्र तक जीता है. एक नर ऊंट की कामकाजी उम्र 15 साल होती है.”

मशरूभाई कहते हैं, “यह सही बात है कि इन लोगों के पास कोई काग़ज़ात नहीं थे. हमें आजतक कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी. अब आगे से हमें ध्यान रखना पड़ेगा. अब स्थितियां बदल रही हैं.”

वह असंतोष ज़ाहिर करते हुए कहते हैं कि ये शिकायत उन्हें और उनके ऊंटों को फालतू की परेशानियों में डालती हैं. वह मराठी में कहते हैं, “आमि घुमन्तु समाज आहे, आमच्या बरयाच लोके कद कधी कधी कागद पत्र नास्ते. हम घुमंतू समुदाय हैं. इसलिए, कई बार हमारे पास काग़ज़ात नहीं होते हैं. [यहां पर भी यही मामला हुआ था]."

Separated from their herders, the animals now languish in the cow shelter, in the custody of people quite clueless when it comes to caring for and feeding them
PHOTO • Jaideep Hardikar
Separated from their herders, the animals now languish in the cow shelter, in the custody of people quite clueless when it comes to caring for and feeding them
PHOTO • Jaideep Hardikar

अपने चरवाहों से अलग, ऊंट अब गौशाला में ऐसे लोगों की हिरासत में बंद हैं जिन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है कि इन ऊंटों की देखभाल कैसे करनी है और इन्हें क्या खिलाना चाहिए

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“उनका आरोप है कि हमने ऊंटों के साथ क्रूरता से व्यवहार किया. लेकिन इससे बड़ी क्रूरता क्या होगी कि जब उन्हें खुले में चरने की ज़रूरत है, उन्हें यहां क़ैद में रखा गया है.”
परबत रबारी, नागपुर के बुज़ुर्ग रबारी ऊंट पालक

हिरासत में लिए गए सभी ऊंट 2 से 5 साल के बीच की उम्र के नर ऊंट हैं. ये कच्छी नस्ल के ऊंट हैं, जो मुख्य रूप से कच्छ के स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में पाए जाते हैं. इस समय कच्छ में इस नस्ल के ऊंटों की संख्या 8,000 के लगभग है.

इस नस्ल के ऊंटों का वज़न 400 से 600 किलो के बीच और ऊंटनियों का वज़न 300 से 540 किलो के बीच होता है. वर्ल्ड एटलस द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार संकरी छाती, एक कूबड़, मुड़ी हुई लंबी गर्दन, कूबड़, कंधे व गले पर लंबे बाल इस नस्ल की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं. इनका रंग भूरा, काला,  और सफ़ेद भी होता हैं.

भूरे रंग के ये कच्छी ऊंट खुले में चरना पसंद करते हैं. ये कई प्रकार के पौधे और पत्तियां चरते हैं. ये जंगलों, चारागाहों या खाली पड़े खेतों में पेड़ों की पत्तियां चरते हैं.

राजस्थान और कच्छ में अब ऊंट पालना बहुत ही मुश्किल होता जा रहा है. दोनों राज्यों में दलदली मैंग्रोव व जंगलों में प्रवेश पर पाबंदियां बढ़ती जा रही हैं. इन क्षेत्रों में आई विकास की आंधी ने भी ऊंटों और पशुपालकों के लिए मुसीबतें बढ़ाई हैं. ऊंटों के लिए पहले पर्याप्त मात्रा में मुफ़्त चारागाह उपलब्ध थे, पर वे अब ख़त्म होते जा रहे हैं.

पांचों आरोपी चरवाहे, जो ज़मानत पर बाहर आए हैं, अपने रिश्तेदारों के साथ अमरावती में उस जगह पर मौजूद हैं जहां ऊंटों को एक बड़े खुले मैदान में रखा गया है, जिसके चारों तरफ़ बाड़ाबंदी की हुई है. रबारी अपने ऊंटों की सेहत को लेकर चिंतित हैं, क्योंकि उन्हें वह चारा नहीं मिल रहा जो वे हमेशा चरते हैं.

A narrow chest, single hump, and a long, curved neck, as well as long hairs on the hump, shoulders and throat are the characteristic features of the Kachchhi breed
PHOTO • Jaideep Hardikar
A narrow chest, single hump, and a long, curved neck, as well as long hairs on the hump, shoulders and throat are the characteristic features of the Kachchhi breed
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संकीर्ण छाती, एकल कूबड़ और लंबी, घुमावदार गर्दन के साथ कूबड़, कंधे, और गले पर लंबे बाल कच्छी ऊंट की विशेषता माने जाते हैं

रबारी कहते हैं कि यह बात सच नहीं है कि ऊंट कच्छ (या राजस्थान) से दूर दूसरी जगहों पर नहीं रह सकते. भंडारा ज़िले के पौनी ब्लॉक के असगांव में रहने वाले बुज़ुर्ग ऊंट पालक आसाभाई जेसा कहते हैं, “वे सदियों से हमारे साथ पूरे देश में रहते और घूमते आ रहे हैं.”

नागपुर ज़िले के पास उमरेड क़स्बे में आकर बसे एक और बुज़ुर्ग प्रवासी चरवाहा परबत रबारी कहते हैं, “विडंबना देखिए, उनका आरोप है कि हमने ऊंटों के साथ क्रूरता से व्यवहार किया. लेकिन इससे बड़ी क्रूरता क्या होगी कि जब उन्हें खुले में चरने की जरूरत है, उन्हें यहां क़ैद में रखा गया है.”

नागपुर ज़िले की उमरेड तालुका के सिरसी गांव के रहने वाले जकारा रबारी कहते हैं, “ऊंट वह नहीं चरते जो दूसरे मवेशी चरते हैं.” जकाराभाई को इन ऊंटों में से तीन ऊंट प्राप्त होने थे.

कच्छी ऊंट नीम, बबूल, पीपल सहित कई प्रकार के पौधों और पेड़ों की पत्तियों को खाते हैं. कच्छ में वे ज़िले के सूखे व पहाड़ी इलाक़ों के पेड़ व चारा खाते हैं, जिनसे उनके दूध की पौष्टिकता बढ़ती है. इस नस्ल की ऊंटनी आमतौर पर दिन में 3 से 4 लीटर दूध देती है. कच्छी चरवाहे हर दूसरे दिन अपने ऊंटों को पानी तक लाने की कोशिश करते हैं. जब ये ऊंट  प्यासे होते हैं, तो 15 से 20 मिनट में 70-80 लीटर पानी पी जाते हैं. लेकिन, ये लंबे समय तक बिना पानी के भी रह सकते हैं.

परबत रबारी कहते हैं कि इन 58 ऊंटों को दायरे में बंधी इस तरह की व्यवस्था के बीच चरने की आदत नहीं है. बड़े ऊंट मूंगफली का चारा खा लेते हैं, लेकिन इन युवा और छोटे ऊंटों ने इस तरह का चारा कभी नहीं खाया है. अमरावती की इस जगह तक पहुंचने के रास्ते में वे सड़क व खेतों के किनारे के पेड़ों की पत्तियां खाते आए हैं.

परबत ने हमें बताया कि एक युवा ऊंट दिन में 30 किलो चारा खाता है.

Eating cattle fodder at the cow shelter.
PHOTO • Jaideep Hardikar
A Rabari climbs a neem tree on the premises to cut its branches for leaves, to feed the captive camels
PHOTO • Jaideep Hardikar

बाएं: अमरावती की गौशाला में अन्य मवेशियों का चारा खाते ऊंट. दाएं: बंदी ऊंटों को पत्तियां खिलाने के लिए, एक रबारी परिसर में मौजूद नीम के पेड़ पर डाल काटने के लिए चढ़ता हुआ

इस शेल्टर में मवेशियों को सोयाबीन, गेंहू, ज्वार, छोटे व बड़े बाजरा की फ़सलों के परिशिष्ट और हरी घास भी खिलाई जाती है. और अब पकड़े गए इन ऊंटों को भी खाने में यही दिया जा रहा है.

परबत, जकारा, तथा महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में कई दशकों से बसे अन्य कई रबारी चरवाहे, अपने लोगों तथा ऊंटों को पकड़े जाने की ख़बर सुनकर अमरावती पहुंचे थे. ये सभी लोग चिंतित हैं और ऊंटों पर नज़र रखे हुए हैं.

अदालत के फ़ैसले के इंतज़ार में इस वक्त गौरक्षा केंद्र में डेरा डाले हुए जकारा रबारी कहते हैं, "सभी ऊंट बंधे हुए नहीं थे. लेकिन कुछ ऊंटों को बांधना ज़रूरी होता है, नहीं तो वे एक-दूसरे को काटने लगते हैं या आस-पास से गुज़रने वाले लोगों को भी काट सकते हैं. युवा नर ऊंट बहुत आक्रामक हो जाते हैं.”

रबारी मांग कर रहे हैं कि ऊंटों को खुले में चरने के लिए छोड़ा जाना चाहिए. अतीत में ऐसा भी देखा गया है कि पुलिस द्वारा पकड़कर रखे गए ऊंटों की हिरासत में मौत हो गई.

इस संबंध में निचली अदालत में एक याचिका उनके स्थानीय वकील मनोज कल्ला द्वारा दायर की गई है, ताकि जल्द से जल्द इन ऊंटों को वापस रबारियों को सौंपा जा सके. कच्छ के उनके रिश्तेदार, यहां रहने वाले समुदाय के लोग, तथा ख़रीदार अलग-अलग जगहों से आकर केस लड़ने, वकीलों का भुगतान करने, अपने रहने, तथा ऊंटों के लिए सही चारे की व्यवस्था के लिए संसाधन जुटा रहे हैं.

इन सबके बीच ऊंट, गौशाला में बंद पड़े हैं.

The 58 dromedaries have been kept in the open, in a large ground that's fenced all around. The Rabaris are worried about their well-being if the case drags on
PHOTO • Jaideep Hardikar
The 58 dromedaries have been kept in the open, in a large ground that's fenced all around. The Rabaris are worried about their well-being if the case drags on
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58 ऊंटों को खुले मैदान में रखा गया है, जिसकी चारों ओर से बाड़ाबंदी हुई है. रबारी चिंतित हैं कि अगर मामला लंबा चलेगा, तो इन ऊंटों की सेहत का क्या होगा

गौशाला चलाने वाली गौरक्षण समिति के सचिव दीपक मंत्री कहते हैं, “शुरू में हमें ऊंटों को चारा खिलाने में परेशानी हुई थी, लेकिन अब हम समझ गए हैं कि उन्हें कितना और क्या चारा देना है. इसमें रबारी भी हमारी मदद कर रहे हैं. पास में ही हमारे पास 300 एकड़ खेती की ज़मीन है, जहां से हम ऊंटों के लिए हरा व सूखा चारा ले आते हैं." उनका दावा है कि “यहां चारे की कोई कमी नहीं है.” समिति की ही डॉक्टरों की एक टीम ने इन ऊंटों की जांच की तथा उन्हें आई चोटों का इलाज किया. दीपक का कहना है, “हमें यहां ऊंटों की देखभाल करने में कोई परेशानी नहीं है.”

परबत रबारी कहते हैं, “ऊंट ठीक से चारा नहीं खा रहे हैं.” उन्हें उम्मीद है कि अदालत उन्हें क़ैद से निकालकर वापस उनके मालिकों को सौंप देगी. वह कहते हैं, “यह जगह उनके लिए जेल की तरह है.”

इस बीच ज़मानत पर बाहर आए वेरसीभाई और चार अन्य लोग अपने घर जाने के लिए बेचैन हैं, लेकिन अपने ऊंटों को क़ैद से छुड़ाकर वापस हासिल कर लेने के बाद ही. रबारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मनोज कल्ला ने पारी को बताया, "शुक्रवार, 21 जनवरी को, धामनगांव (निचली अदालत) के न्यायिक मजिस्ट्रेट ने पांचों चरवाहों को 58 ऊंटों पर स्वामित्व साबित करने के लिए दस्तावेज़ पेश करने को कहा है. यह उन लोगों द्वारा जारी की गई रसीदें हो सकती हैं जिनसे जानवर ख़रीदने का इन्होंने दावा किया है."

इस बीच, फिर से इन ऊंटों का संरक्षण मिलने का इंतज़ार कर रहे रबारी भी अपने रिश्तेदारों और ऊंट ख़रीदारों के साथ, अमरावती के पशु आश्रय में डेरा डाले हुए हैं. अब सबकी निगाहें धामनगांव कोर्ट पर टिकी हुई हैं.

वहीं दूसरी तरफ़ इन घटनाक्रमों से अनजान, वे 58 कच्छी ऊंट, अब भी क़ैद में हैं.

अनुवाद: सुमेर सिंह राठौड़

Jaideep Hardikar

Jaideep Hardikar is a Nagpur-based journalist and writer, and a PARI core team member.

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Translator : Sumer Singh Rathore

Sumer is a visual storyteller, writer and journalist from Jaisalmer, Rajasthan.

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