साफ़ आसमान और खिली हुई धूप में एक दिन, 39 वर्षीय सुनीता रानी लगभग 30 महिलाओं के एक समूह से बात कर रही हैं और उन्हें अपने अधिकारों के लिए बड़ी संख्या में घरों से बाहर निकल कर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठने के लिए प्रेरित कर रही हैं। “काम पक्का, नौकरी कच्ची,” सुनीता आवाज़ देती हैं। “नहीं चलेगी, नहीं चलेगी,” बाक़ी महिलाएं उनके पीछे आवाज़ लगाती हैं।
सोनीपत शहर में, दिल्ली-हरियाणा हाईवे से सटे सिविल अस्पताल के बाहर घास के एक मैदान में लाल कपड़ों में – हरियाणा में यही कपड़ा उनकी वर्दी है - ये महिलाएं एक धुर्री पर बैठी हैं और सुनीता को सुन रही हैं, जो उन्हें उन विपदाओं की सूची सुना रही हैं जिसे वे सभी अच्छी तरह से जानती हैं।
ये सभी महिलाएं आशा कार्यकर्ता हैं, यानी मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जो राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की पैदल सिपाही हैं और भारत की ग्रामीण आबादी को देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली से जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। देश भर में 10 लाख से अधिक आशा कार्यकर्ता हैं, और वे अक्सर किसी भी स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों और आपात स्थितियों में उपलब्ध पहली स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ता हैं।
उन्हें 12 प्राथमिक और 60 से अधिक उप-कार्य करने पड़ते हैं, जिसमें पोषण, स्वच्छता और संक्रामक रोगों के बारे में जानकारी देने से लेकर तपेदिक के रोगियों के उपचार पर नज़र रखना और स्वास्थ्य सूचकांकों का रिकॉर्ड रखना शामिल है।
वे यह सभी और इसके अलावा और भी बहुत कुछ काम करती हैं। लेकिन, सुनीता कहती हैं, “इन सबके पीछे वह चीज़ छूट जाती है, जिसके लिए हम वास्तव में प्रशिक्षित हैं – यानी माता और नवजात शिशु के स्वास्थ्य के आंकड़ों में सुधार करना।” सुनीता सोनीपत जिले के नाथूपुर गांव में काम करती हैं, और गांव की उन तीन आशा कार्यकर्ताओं में से एक हैं जिनके ऊपर 2,953 लोगों का ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी है।

सोनीपत जिले की आशा कार्यकर्ता मार्च में अनिश्चितकालीन हड़ताल पर; उन्होंने नौकरी की सुरक्षा, बेहतर वेतन और काम के हल्के बोझ की मांग की
प्रसव से पहले और प्रसव के बाद की देखभाल करने के अलावा, आशा सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जो सरकार की परिवार नियोजन की नीतियों, गर्भनिरोधक और गर्भधारण के बीच अंतर रखने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता भी पैदा करती हैं। वर्ष 2006 में जब आशा कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी, तभी से उन्होंने शिशुओं में मृत्यु दर को कम करने में केंद्रीय भूमिका निभाई है और इसे 2006 में प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 57 मृत्यु से घटाकर 2017 में 33 मृत्यु कर दिया था। वर्ष 2005-06 से 2015-16 के बीच, प्रसवपूर्व देखभाल के लिए घरों के चार या उससे अधिक दौरे 37 प्रतिशत से बढ़कर 51 प्रतिशत हो गए, और संस्थागत प्रसव 39 प्रतिशत से बढ़कर 79 प्रतिशत हो गया था।
“हमने जो अच्छा काम किया है और जो कुछ कर सकते हैं, उसके अलावा हमें लगातार सर्वेक्षण फ़ॉर्म भी भरने होते हैं,” सुनीता आगे कहती हैं।
“हमें हर दिन एक नई रिपोर्ट जमा करनी होती है,” जखौली गांव की एक आशा कार्यकर्ता, 42 वर्षीय नीतू (बदला हुआ नाम) कहती हैं। “एक दिन एएनएम [सहायक नर्स दाई, जिसे आशा कार्यकर्ता रिपोर्ट करती हैं] हमें उन सभी महिलाओं का सर्वेक्षण करने के लिए कहती है जिन्हें प्रसवपूर्व देखभाल की आवश्यकता है, अगले दिन हम संस्थागत प्रसव की संख्या के बारे में जानकारी एकत्र करते हैं, उसके अगले दिन हमें [कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग नियंत्रण के राष्ट्रीय कार्यक्रम के हिस्से के रूप में] हर किसी के रक्तचाप का रिकॉर्ड रखना पड़ता है। उसके बाद वाले दिन हमें चुनाव आयोग के लिए बूथ स्तर के अधिकारी का सर्वेक्षण करने के लिए कहा जाता है। यह कभी समाप्त नहीं होता।”
नीतू का अनुमान है कि 2006 में जब वह भरती हुई थीं, तब से उन्होंने इस काम में कम से कम 700 सप्ताह लगाए हैं, और छुट्टी केवल बीमारी की हालत में या त्योहारों पर ही मिली है। उनके चेहरे से थकान साफ़ झलक रही है, हालांकि 8,259 लोगों की आबादी वाले उनके गांव में नौ आशा कार्यकर्ता हैं। वह हड़ताल की जगह पर एक घंटे बाद पहुंची थीं, एनीमिया जागरूकता अभियान ख़त्म करने के बाद। दरवाज़े-दरवाज़े जाकर करने वाले कार्यों की एक लंबी सूची है जिसके लिए आशा कार्यकर्ताओं को किसी भी समय कहा जा सकता है, जैसे कि गांव में कुल कितने घर पक्के बने हुए हैं उनकी गिनती करना, किसी समुदाय के पास मौजूद गायों और भैसों की गिनती करना इत्यादि।
“2017 में मेरे आशा कार्यकर्ता बनने के केवल तीन वर्षों के भीतर मेरा काम तीन गुना बढ़ गया है – और इनमें से लगभग सभी काम काग़ज़ पर करने होते हैं,” 39 वर्षीय आशा कार्यकर्ता, छवि कश्यप का कहना है, जो सिविल अस्पताल से 8 किमी दूर अपने गांव, बहलगढ़ से इस हड़ताल में भाग लेने आई हैं। “जब सरकार द्वारा हम पर थोपा गया हर नया सर्वेक्षण पूरा हो जाता है, तभी हम अपना असली काम शुरू करते हैं।”


‘हमारे पास तो हड़ताल पर बैठने का समय भी नहीं है,’ सुनीता रानी कहती हैं; बैठकों में, वह सह-कार्यकर्ताओं को दरपेश समस्याओं (नीचे) को नोट करती हैं
शादी के 15 साल बाद तक, छवि अपने घर से अकेले कभी बाहर नहीं निकली थीं, अस्पताल के लिए भी नहीं। 2016 में जब आशा से संबंधित एक महिला उनके गांव आई और आशा कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले कार्यों पर एक कार्यशाला आयोजित की, तो छवि ने भी अपना नामांकन करवाने की इच्छा व्यक्त की। इन कार्यशालाओं के बाद, सूत्रधार 18 से 45 वर्ष की आयु की ऐसी तीन विवाहित महिलाओं के नामों को सूचीबद्ध करते हैं जिन्होंने कम से कम कक्षा 8 तक पढ़ाई की हो और जो सामुदायिक स्वास्थ्य स्वयंसेवकों के रूप में काम करने में रुचि रखती हों।
छवि की इसमें रुचि थी और वह योग्य भी थीं, लेकिन उनके पति ने कहा कि नहीं। वह बहलगढ़ में इंदिरा कॉलोनी के एक निजी अस्पताल की नर्सिंग स्टाफ टीम में हैं, और सप्ताह में दो दिन रात की शिफ़्ट में काम करते हैं। “हमारे दो बेटे हैं। मेरे पति इस बात को लेकर चिंतित थे कि अगर हम दोनों ही काम के लिए बाहर चले जाएंगे, तो उनकी देखभाल कौन करेगा,” छवि बताती हैं। कुछ महीने बाद, जब पैसे की तंगी होने लगी, तो उन्होंने अपनी पत्नी को नौकरी करने के लिए कहा। उन्होंने अगले भर्ती अभियान के दौरान आवेदन किया और गांव की ग्राम सभा द्वारा जल्द ही उनकी पुष्टि बहलगढ़ के 4,196 निवासियों के लिए पांच आशा कार्यकर्ताओं में से एक के रूप में कर दी गई।
“एक जोड़े के रूप में, हमारा एक ही नियम है। अगर वह रात की ड्यूटी पर हैं, और मुझे फ़ोन आता है कि किसी महिला को प्रसव पीड़ा हो रही है और उसे अस्पताल ले जाने की ज़रूरत है, तो मैं बच्चों को छोड़कर नहीं जा सकती। मैं या तो एम्बुलेंस को कॉल करती हूं या किसी दूसरी आशा कार्यकर्ता को यह काम करने के लिए कहती हूं,” छवि बताती हैं।
गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल पहुंचाना उन विभिन्न कार्यों में से एक है, जो आशा कार्यकर्ताओं को हर हफ्ते करना पड़ता है। “पिछले हफ्ते, मुझे अवधि पूरी कर चुकी एक महिला का फ़ोन आया कि उसे प्रसव पीड़ा हो रही है और वह चाहती है कि मैं उसे अस्पताल ले जाऊं। लेकिन मैं नहीं जा सकती थी,” सोनीपत की राय तहसील के बाढ़ खालसा गांव की एक आशा कार्यकर्ता, शीतल (बदला हुआ नाम) बताती हैं। “उसी सप्ताह, मुझे आयुष्मान शिविर का संचालन करने के लिए कहा गया,” 32 वर्षीय शीतल, आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना की ओर इशारा करते हुए कहती हैं। शिविर में सरकार की स्वास्थ्य योजना के लिए पात्र अपने गांव की सभी महिलाओं के फॉर्म और रिकॉर्ड के साथ अटकी हुई, वह जिस एएनएम को रिपोर्ट करती हैं उसकी तरफ़ से उन्हें आदेश मिला था कि उन्हें बाक़ी सारे काम को पीछे छोड़ आयुष्मान योजना के कार्य को प्राथमिकता देनी है।
“मैंने इस [गर्भवती] महिला के साथ तभी से विश्वास बनाने के लिए कड़ी मेहनत की थी, जब वह दो साल पहले शादी करके गांव आई थी। मैं हर अवसर पर उसके साथ हुआ करती थी – उसकी सास को मनाने, कि वह मुझे परिवार नियोजन के बारे में उसे समझाने की इजाज़त दे, से लेकर उसे और उसके पति को यह समझाने तक कि वे बच्चे पैदा करने के लिए दो साल तक इंतज़ार करें, और फिर उसके गर्भवती होने की पूरी अवधि के दौरान तक। मुझे उसके पास होना चाहिए था,” शीतल कहती हैं।
इसके बजाय, उन्होंने फोन पर आधे घंटे तक उस चिंतित परिवार को शांत करने की कोशिश की, जो उनके बिना डॉक्टर के पास जाने को तैयार नहीं था। अंत में, वे उस एम्बुलेंस में गए, जिसकी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी। “हम जो भरोसे का चक्र बनाते हैं, वह बाधित हो जाता है,” सुनीता रानी कहती हैं।

‘2017 में मेरे आशा कार्यकर्ता बनने के केवल तीन वर्षों के भीतर मेरा काम तीन गुना बढ़ गया है’, छवि कश्यप बताती हैं
आशा कार्यकर्ता जब अंततः अपना काम करने के लिए मैदान में उतरती हैं, तो अक्सर उनका एक हाथ बंधा होता है। ड्रग किट आमतौर पर उपलब्ध नहीं होते, न ही दूसरी अनिवार्य चीज़ें जैसे कि गर्भवती महिलाओं के लिए पेरासिटामोल टैबलेट, आयरन और कैल्शियम की गोलियां, ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्ट (ओआरएस), कंडोम, खाने वाली गर्भनिरोधक गोलियां और प्रेग्नेंसी किट। “हमें कुछ भी नहीं दिया जाता, सिर दर्द की दवा तक भी नहीं। हम प्रत्येक घर की आवश्यकताओं का एक नोट बनाते हैं, जैसे कि गर्भनिरोधक के लिए कौन क्या तरीक़ा अपना रहा है, और फिर एएनएम से अनुरोध करते हैं कि वह हमारे लिए इनकी व्यवस्था करे,” सुनीता कहती हैं। ऑनलाइन उपलब्ध सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं – सोनीपत जिले में 1,045 आशा कार्यकर्ताओं के लिए सिर्फ़ 485 ड्रग किट जारी किए गए थे।
आशा कार्यकर्ता, अपने समुदाय की सदस्यों के पास अक्सर ख़ाली हाथ जाती हैं। “कभी-कभी वे हमें केवल आयरन की गोलियां दे देते हैं, कैल्शियम की नहीं, जबकि गर्भवती महिलाओं को ये दोनों गोलियां एक साथ खानी चाहिएं। कभी-कभी वे हमें प्रति गर्भवती महिला के हिसाब से केवल 10 गोलियां देते हैं, जो 10 दिनों में ख़त्म हो जाती हैं। महिलाएं जब हमारे पास आती हैं, तो उन्हें देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं होता,” छवि बताती हैं।
कभी-कभी तो उन्हें ख़राब गुणवत्ता वाले उत्पाद दे दिए जाते हैं। “महीनों तक कोई आपूर्ति न होने के बाद हमें माला-एन (एक संयोजन हार्मोन मौखिक गर्भनिरोधक गोली) से भरे बक्से, उनकी समाप्ति की तारीख़ से एक महीने पहले इस आदेश के साथ मिलते हैं कि इन्हें जितना जल्दी संभव हो बांट देना है,” सुनीता कहती हैं। माला-एन का उपयोग करने वाली महिलाओं की प्रतिक्रिया, जिसे आशा कार्यकर्ता द्वारा बड़ी मेहनत से रिकॉर्ड किया जाता है, पर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता है।
हड़ताल के दिन दोपहर तक, विरोध प्रदर्शन के लिए 50 आशा कार्यकर्ता एकत्र हो चुकी हैं। अस्पताल के वाह्य रोगी विभाग के बगल की एक दुकान से चाय मंगवाई गई है। जब कोई पूछता है कि इसके पैसे कौन देने जा रहा है, तो नीतू मज़ाक़ में कहती हैं कि वह नहीं दे रही हैं क्योंकि उन्हें छह महीने से वेतन नहीं मिला है। एनआरएचएम की 2005 की नीति के अनुसार आशा कार्यकर्ता ‘स्वयंसेवक’ हैं, और उनका भुगतान उनके द्वारा पूरे किए जाने वाले कार्यों की संख्या पर आधारित है। आशा कार्यकर्ताओं को सौंपे जाने वाले विभिन्न कार्यों में से केवल पांच को ‘नियमित और आवर्ती’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन कार्यों के लिए, केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2018 में 2,000 रुपये की कुल मासिक राशि देने पर सहमति जताई थी – लेकिन इसका भी भुगतान समय पर नहीं किया जाता है।
इसके अलावा, आशा कार्यकर्ताओं को हर एक कार्य के पूरा होने पर भुगतान किया जाता है। वे छह से नौ महीने तक के लिए दवा-प्रतिरोधी तपेदिक रोगियों को दवा देने के लिए अधिकतम 5,000 रुपये, या ओआरएस का एक पैकेट बांटने के लिए सिर्फ़ 1 रुपया पा सकती हैं। परिवार नियोजन संबंधी मामलों में पैसे तभी मिलते हैं जब महिलाओं की नसबंदी करवाई जाए, उन्हें दो बच्चों के बीच अंतर रखने के तरीक़े अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए। महिला नसबंदी या पुरुष नसबंदी की सुविधा प्रदान करवाने पर आशा कार्यकर्ता को प्रोत्साहन भुगतान के रुप में 200-300 रुपये मिलते हैं, जबकि कंडोम, खाने वाली गर्भनिरोधक गोलियों और आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों के प्रत्येक पैकेट की आपूर्ति के लिए उन्हें मात्र 1 रुपया मिलता है। परिवार नियोजन के सामान्य परामर्श के लिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता, हालांकि आशा कार्यकर्ताओं के लिए यह एक आवश्यक, थकाऊ और समय लेने वाला कार्य है।

सुनीता रानी (बीच में) अन्य आशा कार्यकर्ताओं के साथ। ‘सरकार को हमें आधिकारिक रूप से कर्मचारी मानना चाहिए,’ वह कहती हैं
राष्ट्रव्यापी और क्षेत्रीय स्तर पर कई हड़ताओं के बाद, विभिन्न राज्यों ने अपनी आशा कार्यकर्ताओं को एक निश्चित मासिक वेतन भी देना शुरू कर दिया है। लेकिन देश में अलग-अलग जगहों पर यह अलग-अलग है, कर्नाटक में उन्हें जहां 4,000 रुपये दिए जाते हैं, वहीं आंध्र प्रदेश में 10,000 रुपये मिलते हैं; हरियाणा में, जनवरी 2018 से, प्रत्येक आशा कार्यकर्ता को राज्य सरकार की ओर से वेतन के रूप में 4,000 रुपये मिलते हैं।
“एनआरएचएम की नीति के अनुसार, आशा कार्यकर्ताओं से प्रति दिन तीन से चार घंटे, सप्ताह में चार से पांच दिन काम करने की उम्मीद की जाती है। लेकिन यहां पर किसी को भी यह याद नहीं है कि उसने आख़िरी बार छुट्टी कब ली थी। और हमें आर्थिक सहायता कैसी मिल रही है?” सुनीता तेज़ आवाज़ में पूछती हैं, इस तरह से चर्चा की शुरूआत करते हुए। कई महिलाएं बोलना शुरू करती हैं। कई महिलाओं को राज्य सरकार द्वारा सितंबर 2019 से ही उनका मासिक वेतन नहीं दिया गया है, अन्य को उनका कार्य-आधारित भुगतान पिछले आठ महीने से नहीं किया गया है।
हालांकि, अधिकांश को तो यह भी याद नहीं है कि उनका कितना बक़ाया है। “पैसा अलग-अलग समय में, दो अलग-अलग स्रोतों – राज्य सरकार और केंद्र सरकार – से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में आता है। इसलिए यह याद नहीं रहता कि कौन सा भुगतान कब से बक़ाया है,” नीतू कहती हैं। बक़ाया वेतन के इस विलंबित, मामूली भुगतान के व्यक्तिगत नुक़सान हैं। कईयों को घर पर ताने सुनने पड़ते हैं कि काम तो वक़्त-बेवक़्त और देर तक करना पड़ता है लेकिन पैसे उसके हिसाब से नहीं मिल रहे हैं; तो कुछ ने पारिवार के दबाव में आकर इस कार्यक्रम को ही छोड़ दिया है।
इसके अलावा, आशा कार्यकर्ताओं को ख़ुद अपने संसाधनों का उपयोग करते हुए रोज़ाना केवल सफ़र पर 100-250 रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं, चाहे वह आंकड़े इकट्ठा करने के लिए विभिन्न उप-केंद्रों का दौरा करना हो या फिर मरीज़ों को लेकर अस्पताल जाना। “हम जब परिवार नियोजन से संबंधित बैठकों के लिए गांवों में जाते हैं, तो गर्मी और तेज़ धूप होती है और महिलाएं आमतौर पर हमसे उम्मीद करती हैं कि हम उनके लिए कुछ ठंडा पीने और खाने का इंतज़ाम करेंगे। इसलिए, हम आपस में पैसा इकट्ठा करते हैं और हल्के नाश्ते पर 400-500 रुपये ख़र्च करते हैं। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तो महिलाएं नहीं आएंगी,” शीतल कहती हैं।
हड़ताल पर बैठे हुए दो-ढाई घंटे हो चुके हैं, और उनकी मांगें स्पष्ट हैं: आशा कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों के लिए एक ऐसा स्वास्थ्य कार्ड बनाया जाए, जिससे वे सरकारी सूची में शामिल निजी अस्पतालों से सभी सुविधाएं प्राप्त कर सकें; सुनिश्चित किया जाए कि वे पेंशन के लिए पात्र हैं; उन्हें छोटे-छोटे कॉलम वाले दो पृष्ठ का काग़ज़ देने के बजाय अपने कार्यों के लिए अलग-अलग प्रोफॉर्मा प्रदान किया जाए; और उप-केंद्र में एक अलमारी दी जाए ताकि वे कंडोम और सैनिटरी नैपकिन अपने घर पर स्टोर करने के लिए मजबूर न हों। होली से तीन दिन पहले, नीतू के बेटे ने उनसे अपनी अलमारी में रखे गुब्बारों के बारे में पूछा था, जो कि उनके द्वारा संग्रहित किए गए कंडोम थे।
और सबसे बड़ी बात, आशा कार्यकर्ताओं का मानना है कि उनके काम को सम्मान और मान्यता मिलनी चाहिए।

कई आशा कार्यकर्ताओं को तो यह भी याद नहीं है कि उनका कितना बक़ाया है। ककरोई गांव की अनीता (बाएं से दूसरी), अब भी अपनी बक़ाया राशि का इंतज़ार कर रही हैं
“जिले के कई अस्पतालों के प्रसव कक्ष में, आपको एक चिन्ह दिखाई देगा जिसमें लिखा होगा ‘आशा के लिए प्रवेश वर्जित’,” छवि बताती हैं। “हम महिलाओं को प्रसव कराने के लिए आधी रात को उनके साथ जाते हैं, और वे हमसे रुकने के लिए कहती हैं क्योंकि वे पर्याप्त रूप से आश्वस्त नहीं होतीं और वे हम पर भरोसा करती हैं। लेकिन हमें अंदर जाने की अनुमति नहीं है। अस्पताल के कर्मचारी कहते हैं, ‘चलो अब निकलो यहां से’। कर्मचारी हमसे ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे हम उनसे कमतर हों” वह आगे कहती हैं। कई आशा कार्यकर्ता उस जोड़े या परिवार के साथ रात भर रुकती हैं, हालांकि कई प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर कोई प्रतीक्षा कक्ष तक नहीं होता।
विरोध प्रदर्शन की जगह पर दोपहर के लगभग 3 बज चुके हैं, और महिलाएं अब बेचैन होने लगी हैं। उन्हें काम पर वापस जाना होगा। सुनीता इसे समाप्त करने के लिए दौड़ती हैं: “सरकार को हमें आधिकारिक रूप से कर्मचारी मानना चाहिए, स्वयंसेवक नहीं। उसे हमारे ऊपर से सर्वेक्षण का बोझ हटाना चाहिए, ताकि हम अपना काम कर सकें। हमारा जो कुछ भी बक़ाया है, उसे उसका भुगतान करना चाहिए।”
अब, कई आशा कार्यकर्ता यहां से उठने लगी हैं। “काम पक्का, नौकरी कच्ची,” सुनीता आख़िरी बार आवाज़ लगाती हैं। “नहीं चलेगी, नहीं चलेगी,” वह पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा तेज़ आवाज़ में वापस सुनती हैं। “हमारे पास तो अपने अधिकारों के लिए हड़ताल पर बैठने तक का समय नहीं है, हमें हड़ताल के लिए शिविरों और अपने सर्वेक्षणों के बीच में से समय निकालना पड़ता है!” शीतल अपने दुपट्टा से सिर को ढकते हुए एक हंसी के साथ कहती हैं, और अपने रोज़ाना के घर के दौरों के लिए फिर से तैयार हैं।
कवर चित्रण: प्रियंका बोरार नए मीडिया की एक कलाकार हैं जो अर्थ और अभिव्यक्ति के नए रूपों की खोज करने के लिए तकनीक के साथ प्रयोग कर रही हैं। वह सीखने और खेलने के लिए अनुभवों को डिज़ाइन करती हैं, संवादमूलक मीडिया के साथ हाथ आज़माती हैं, और पारंपरिक क़लम तथा कागज़ के साथ भी सहज महसूस करती हैं।
पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा महिलाओं पर राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग की परियोजना पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया समर्थित एक पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की आवाज़ों और उनके जीवन के अनुभवों के माध्यम से इन महत्वपूर्ण लेकिन हाशिए पर पड़े समूहों की स्थिति का पता लगाया जा सके।
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हिंदी अनुवादः मोहम्मद क़मर तबरेज़