सर्दी की दोपहरी में, जब खेतों के काम खत्म हो जाते हैं और घर के नौजवान अपनी-अपनी नौकरी पर चले जाते हैं, तब हरियाणा के सोनीपत जिले में हरसाना कलां गांव के पुरुण चौपाल (गांव के चौराहे) पर पहुंचते हैं और अक्सर ताश खेलते हैं या छाया में आराम करते हैं।
महिलाएं वहां कभी नहीं दिखतीं।
“महिलाएं यहां क्यों आएं?” स्थानीय निवासी, विजय मंडल पूछते हैं। “उन्हें अपने काम से छुट्टी नहीं मिलती। वे क्या करेंगी इन बड़े आदमियों के साथ बैठ कर?”
दिल्ली से बमुश्किल 3 किलोमीटर दूर और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बसे, लगभग 5,000 की आबादी वाले इस गांव की महिलाएं कुछ साल पहले तक सख़्ती से पर्दा करती थीं, जिसका मतलब था कि महिलाओं को अपने चेहरे और शरीर को ढंकना पड़ता था।
“महिलाएं तो चौपाल की ओर झांकती भी नहीं थीं,” मंडल कहते हैं। गांव के लगभग मध्य में स्थित, यह सभा स्थल है, जहां विवादों को निपटाने के लिए पंचायत बैठती है। “पहले की महिला संस्कारी थी,” हरसाना कलां के पूर्व सरपंच, सतीश कुमार कहते हैं।
“उनके अंदर लाज-शरम थी,” मंडल कहते हैं, “यदि उन्हें किसी काम से चौपाल की ओर जाना भी हुआ, तो वे पर्दा कर लेती थीं।” वह अपने चेहरे पर मुस्कान लिए कहते हैं।
26 साल की सायरा के लिए यह सब नया नहीं है। वह पिछले तीन वर्षों से इन आदेशों में से अधिकांश का पालन कर रही हैं, जब बीस साल की उम्र में शादी करके वह दिल्ली के पास स्थित अपने गांव, मजरा डबास से यहां आई थीं। पुरुषों के विपरीत, उन्हें केवल उनके पहले नाम से पुकारा जाता है।
“अगर मैं शादी से पहले अपने पति से मिली होती, तो कभी भी इस शादी के लिए अपनी सहमति नहीं देती। इस गांव में तो कत्ते ना आती [अर्थात इस गांव में आने के लिए कभी सहमत नहीं होती],” सायरा कहती हैं, जबकि उनकी अगुलियां कुशलतापूर्वक सिलाई मशीन की सुई और उस पीले कपड़े के बीच चल रही हैं, जिस पर वह काम कर रही हैं। (इस स्टोरी में उनका नाम, और उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम बदल दिए गए हैं।)

सायरा अपने घर में आसपास के ग्राहकों के कपड़े सिलती हैं। ‘अगर कोई औरत बोलने की कोशिश करे , तो पुरुष उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं देंगे ,’ वह बताती हैं
“इस गांव में अगर कोई औरत बोलने की कोशिश करे, तो पुरुष उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं देंगे। वे कहेंगे, तुम्हें बोलने की क्या ज़रूरत है जब तुम्हारा आदमी यह कर सकता है? मेरे पति भी यही मानते हैं कि महिलाओं को घर के अंदर रहना चाहिए। अगर मैं कपड़े की सिलाई के लिए ज़रूरी सामान ख़रीदने के लिए भी बाहर जाने के बारे में सोचती हूं, तो वे कहेंगे कि घर के अंदर रहना बेहतर है,” सायरा बताती हैं।
उनके 44 वर्षीय पति, समीर ख़ान, पास ही दिल्ली के नरेला स्थित एक फ़ैक्ट्री में काम करते हैं, जहां वह प्लास्टिक का सांचा बनाते हैं। वह अक्सर सायरा से कहते हैं कि वह यह नहीं समझतीं कि पुरुष महिलाओं को कैसे देखते हैं। “वह कहते हैं कि यदि तुम घर पर रहोगी, तो सुरक्षित रहोगी; बाहर तो भेड़िये बैठे हैं,” वह बताती हैं।
इसलिए, सायरा तथाकथित भेड़ियों से दूर, घर पर ही रहती हैं। हरियाणा की 64.5 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं की तरह ( राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 , 2015-16) जिन्हें अकेले बाजार, अस्पताल, या गांव के बाहर कहीं भी जाने की अनुमति नहीं है। वह रोज़ाना दोपहर को खिड़की के पास रखी सिलाई मशीन पर कपड़े सिलती हैं। यहां भरपूर रोशनी है, जिसकी ज़रूरत पड़ती है क्योंकि दिन के इस समय बिजली चली जाती है। दोपहर में यह काम करने से महीने में 5,000 रुपये की कमाई हो जाती है, जो संतुष्टि का एक स्रोत है और साथ ही उन्हें अपने दो बेटों, 16 वर्षीय सुहेल खान और 14 वर्षीय सन्नी अली के लिए कुछ चीज़ें ख़रीदने में सक्षम बनाता है। लेकिन वह शायद ही कभी खुद से कुछ ख़रीदती हैं।
सन्नी के जन्म के कुछ महीने बाद, सायरा ने नसबंदी करवाने की कोशिश की थी। लेकिन उनके पति समीर को उनके इरादों का पता नहीं था।
सोनीपत जिले में, 15 से 49 साल की नवविवाहित महिलाओं में गर्भनिरोधक उपयोग करने की दर (सीपीआर) 78 प्रतिशत है (एनएफ़एचएस-4) – जो की हरियाणा में 64 प्रतिशत की कुल दर से अधिक है।
अपने बेटे के जन्म के बाद पहले कुछ महीनों में, सायरा ने दो बार नसबंदी कराने की कोशिश की थी। पहली बार, मायके में अपने घर के पास के एक सरकारी अस्पताल में, जहां के डॉक्टर ने कहा था कि वह शादीशुदा नहीं दिखतीं। दूसरी बार, उसी अस्पताल में, वह अपने बेटे को साथ ले गईं यह साबित करने के लिए कि वह शादीशुदा हैं। सायरा बताती हैं, “डॉक्टर ने मुझसे कहा था कि मैं इस तरह का निर्णय लेने के लिए बहुत छोटी हूं।”
वह तीसरी बार ऐसा करने में सफल रहीं जब उन्होंने दिल्ली के रोहिणी में अपने माता-पिता के साथ रहते हुए, वहां के एक निजी अस्पताल में नसबंदी करवाई।


हरसाना कलां गांव के मध्य में स्थित चौपाल पर केवल पुरुषों का कब्ज़ा रहता है , जो अक्सर ताश खेलते हैं। ‘औरतें यहां क्यों आएं ?’ उनमें से एक सवाल करता है
“इस बार मैंने अपने पति के बारे में झूठ बोला। मैं अपने बेटे को साथ ले गई और डॉक्टर से कहा कि मेरा पति शराबी है,” सायरा बताती हैं और इस घटना को याद करते हुए हंसती भी हैं, लेकिन उन्हें अच्छी तरह याद है कि नसबंदी कराने के लिए वह इतनी बेचैन क्यों थीं। “घर का माहौल ख़राब था, क्रूरता और निरंतर लड़ाई। मुझे एक बात का पक्का यक़ीन था – मुझे और बच्चे नहीं चाहिए थे।”
सायरा को वह दिन याद है जब उन्होंने अपनी नसबंदी करवाई थी: “उस दिन बारिश हो रही थी। मैं वार्ड की कांच की दीवार के बाहर खड़ी अपनी मां की गोद में अपने छोटे बेटे को रोता हुआ देख सकती थी। जिन अन्य महिलाओं की सर्जरी हुई थी, वे [एनेस्थीसिया के कारण] अभी भी सो रही थीं। मेरे ऊपर से इसका असर जल्दी ख़त्म हो गया। मुझे अपने बच्चे को स्तनपान कराने की चिंता हो रही थी। मैं बहुत घबरा गई थी।”
जब समीर को पता चला, तो उन्होंने महीनों तक उनसे बात नहीं की। वह नाराज़ थे कि उन्होंने उनसे बिना पूछे यह फैसला किया। वह चाहते थे कि सायरा कॉपर-टी जैसा गर्भनिरोधक उपकरण (आईयूडी) लगवा लें, जिसे हटाया भी जा सकता है। लेकिन सायरा ज्यादा बच्चे पैदा करने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं थीं।
“हमारे पास खेत और भैंसें हैं। मुझे अकेले उन सभी का ध्यान रखना पड़ता है और घर का भी काम निपटाना होता है। अगर आईयूडी का उपयोग करने से मुझे कुछ हो गया होता तो?” वह अपने पिछले जीवन को याद करती हैं, जब वह केवल 24 साल की थीं, मुश्किल से 10वीं कक्षा पास किया था और जीवन तथा गर्भनिरोधक के बारे में बहुत कम जानती थीं।
सायरा की मां अनपढ़ थीं। उनके पिता नहीं। लेकिन उन्होंने भी नहीं कहा कि सायरा को अपनी पढ़ाई जारी रखनी चाहिए। “महिलाओं और मवेशियों में कोई अंतर नहीं है। हमारी भैंसों की तरह ही, हमारा दिमाग़ भी काम नहीं करता है,” सुई से ऊपर की ओर देखते हुए, वह कहती हैं।
“हरियाणा के आदमी के सामने किसी की नहीं चलती,” वह आगे कहती हैं। “वे जो कहें उसे करना ही होगा। अगर वह कहें कि इसे पकाना है, तो पकाना ही होगा – खाना, कपड़े, बाहर जाना, उनके कहने के अनुसार हर एक चीज़ करनी पड़ती है।” पता ही नहीं चला कि सायरा ने किस समय अपने पति के बारे में बताना छोड़, अपने पिता के बारे में बताना शुरू कर दिया।


हरियाणा में लगभग 5,000 लोगों के गांव, हरसाना कलां रेलवे स्टेशन के चारों ओर गेहूं के खेत हैं
आप उम्मीद कर रहे होंगे कि उनकी एक दूर की रिश्तेदार, 33 वर्षीय सना ख़ान (उनका नाम, और उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम इस स्टोरी में बदल दिए गए हैं), जो सायरा के घर के बग़ल में रहती हैं, की सोच कुछ अलग होगी। एजुकेशन में स्नातक की डिग्री के साथ, वह टीचर बनना चाहती थीं और प्राथमिक विद्यालय में काम करती हैं। लेकिन जब कभी घर के बाहर जाकर काम करने की बात आती, तो उनके 36 वर्षीय पति, रुस्तम अली, जो एक लेखा कंपनी में कार्यालय सहायक के रूप में काम करते हैं, ताना मारना शुरू कर देते: “तुम बाहर जाकर काम करो। मैं ही घर पर बैठता हूं। तुम ही कमाओ और अकेले इस घर को चलाओ।”
सना ने तब से इस विषय पर बात करना ही बंद कर दिया है। “क्या फ़ायदा है? फिर से बहस शुरू हो जाएगी। यह वह देश है जहां पुरुषों का नंबर पहले आता है। इसलिए महिलाओं के पास समझौता करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करतीं, तो लड़ाई शुरू हो जाएगी,” वह अपनी रसोई के बाहर खड़ी, कहती हैं।
जिस तरह सायरा दोपहर में कपड़े सिलती हैं, उसी तरह सना भी दिन के इस समय का उपयोग प्राथमिक स्कूल के बच्चों को अपने घर पर ट्यूशन पढ़ाने में करती हैं, जिससे वह प्रति माह 5,000 रुपये कमा लेती हैं, जो कि उनके पति के वेतन का आधा है। वह इसमें से अधिकतर हिस्सा अपने बच्चों के ऊपर ख़र्च कर देती हैं। लेकिन हरियाणा की 54 प्रतिशत महिलाओं की तरह ही, उनके पास भी अपना कोई बैंक खाता नहीं है।
सना हमेशा से दो बच्चे पैदा करना चाहती थीं और जानती थीं कि वह आईयूडी जैसी गर्भनिरोधक विधि का उपयोग करके दो गर्भधारण के बीच अंतर रख सकती हैं। उनके और रुस्तम अली के तीन बच्चे हैं – दो बेटियां और एक बेटा।
उनकी पहली बेटी, आसिया का जब 2010 में जन्म हुआ था, तो उसके बाद सना ने सोनीपत के एक निजी अस्पताल से आईयूडी लगवा ली थी। वर्षों तक वह यही सोचती रहीं कि यह मल्टी-लोड आईयूडी होगी, यही वह चाहती थीं, कॉपर-टी नहीं, जिसको लेकर उनके कुछ संदेह थे, जैसा कि गांव की कई अन्य महिलाओं के थे।
“कॉपर-टी ज़्यादा दिनों तक काम करता है और लगभग 10 वर्षों तक गर्भधारण से बचाता है। जबकि मल्टी-लोड आईयूडी तीन से पांच साल तक काम करती है,” निशा फोगाट बताती हैं, जो हरसाना कलां गांव के उप-चिकित्सा केंद्र में सहायक नर्स (एएनएम) के रूप में काम करती हैं। “गांव की बहुत सी महिलाएं मल्टी-लोड आईयूडी का उपयोग करती हैं। इसलिए यह उनकी पहली पसंद बनी हुई है।” कॉपर-टी के बारे में औरतों का शक ऐसा लगता है कि उन्होंने एक-दूसरे से जो सुना है, उसकी वजह से पैदा हुआ है। “अगर गर्भनिरोधक से किसी एक महिला को कोई समस्या होती है, तो अन्य महिलाएं भी उसका इस्तेमाल करने से हिचकती हैं,” निशा बताती हैं।
हरसाना कलां में 2006 से ही एक सामाजिक चिकित्सा कार्यकर्ता (आशा) के रूप में काम कर रही सुनीता देवी कहती हैं, “महिलाओं को यह समझने की ज़रूरत है कि कॉपर-टी लगवाने के बाद उन्हें भारी वज़न नहीं उठाना चाहिए और एक सप्ताह तक आराम करना चाहिए, क्योंकि उपकरण को ठीक से फ़िट होने में समय लगता है। लेकिन वे ऐसा नहीं करतीं, या नहीं कर सकती हैं। इसीलिए, उससे बेचैनी हो सकती है। और वह अक्सर शिकायत करेंगी, ‘मेरे कलेजे तक चढ़ गया है’।”


सना ख़ान अपने घर में बर्तन धो रही हैं ; एजुकेशन में डिग्री प्राप्त करने के बाद , वह टीचर बनना चाहती थीं। ‘महिलाओं के पास समझौता करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है’ , वह कहती हैं
सना कॉपर-टी का इस्तेमाल कर रही थीं, इसका पता उन्हें तब चला जब वह आईयूडी को निकलवाने गईं। “मुझसे झूठ बोला गया, मेरे पति और निजी अस्पताल के डॉक्टर दोनों ही के द्वारा। वह [रुस्तम अली] इन सभी वर्षों में जानते थे कि मैं कॉपर-टी का उपयोग कर रही हूं, न कि मल्टी-लोड आईयूडी का, लेकिन उन्होंने मुझे सच बताने की ज़हमत नहीं उठाई। जब मुझे पता चला, तो मैंने उनके साथ लड़ाई की,” वह बताती हैं।
क्या इससे कोई फ़र्क़ पड़ा, क्योंकि उन्हें कोई समस्या नहीं हुई, हमने उनसे पूछा। “उन्होंने झूठ बोला। इस क़ीमत पर, वे मेरे अंदर कुछ भी डाल सकते हैं और उसके बारे में झूठ बोल सकते हैं,” वह जवाब देती हैं। “उन्होंने (रुस्तम अली ने] मुझे बताया कि डॉक्टर ने उन्हें मुझे गुमराह करने की सलाह दी थी, क्योंकि महिलाएं कॉपर-टी के आकार से डरती हैं।”
आईयूडी निकाले जाने के बाद, सना ने अपनी दूसरी बेटी, अक्षी को 2014 में जन्म दिया, इस उम्मीद में कि यह उनके परिवार को पूर्ण कर देगा। लेकिन परिवार का दबाव तब तक बना रहा जब तक कि 2017 में उनका एक बेटा नहीं हो गया। “वे बेटे को संपत्ति समझते हैं; बेटियों के बारे में ऐसा नहीं सोचते,” वह कहती हैं।
पूरे देश में हरियाणा के अंदर बाल लिंगानुपात (0-6 वर्ष की आयु में) सबसे कम है, जहां प्रत्येक 1,000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 834 है (जनगणना 2011)। सोनीपत जिले में, यह संख्या अभी भी कम बनी हुई है, जहां पर 1,000 लड़कों की तुलना में 798 लड़कियां हैं। और लड़कों को वरीयता देने के साथ-साथ जहां लड़कियों का तिरस्कार होता रहता है, इस तथ्य का भी बड़े पैमाने पर दस्तावेज़ीकरण किया गया है कि परिवार नियोजन के फैसले मज़बूत पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण, अक्सर पति और दूर के परिवारों द्वारा प्रभावित होते हैं। एनएफ़एचएस-4 के आंकड़ों से पता चलता है कि हरियाणा में केवल 70 प्रतिशत महिलाएं ही अपने स्वास्थ्य संभंधी निर्णय लेने में भाग ले सकती हैं, जबकि दूसरी ओर 93 प्रतिशत पुरुष अपने स्वयं के स्वास्थ्य संबंधी निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं।
कांता शर्मा (उनका नाम, और उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम इस स्टोरी में बदल दिए गए हैं), जो उसी इलाके में रहती हैं जहां सायरा और सना, उनके परिवार में पांच सदस्य हैं – उनके 44 वर्षीय पति, सुरेश शर्मा और चार बच्चे। दो बेटियों, आशु और गुंजन का जन्म शादी के पहले दो वर्षों में हुआ था। इस दंपति ने तय किया था कि उनकी दूसरी बेटी के जन्म के बाद कांता नसबंदी करा लेंगी, लेकिन उनके ससुराल वाले सहमत नहीं थे।
“दादी को पोता चाहिए था। उस पोते की चाहत में हमारे चार बच्चे हो गए। अगर बुजुर्गों की इच्छा है, तो ऐसा किया जाएगा। मेरे पति परिवार में सबसे बड़े हैं। हम परिवार के फ़ैसले को स्वीकार करने से इनकार नहीं कर सकते थे,” 39 वर्षीय कांता उन ट्रॉफ़ियों की ओर देखते हुए कहती हैं, जिन्हें उनकी बेटियों ने उत्कृष्ट शैक्षणिक प्रदर्शन के दौरान जीता है।


कांता का हाथ जो खेतों में कड़ी मेहनत और परिवार की भैंसों की देखभाल करने से घिस चुका है। जब उनकी तीसरी संतान भी लड़की हुई , तो उन्होंने गर्भनिरोधक गोलियां लेनी शुरू कर दीं
गांव में जब कोई नई दुल्हन शादी करने के बाद आती है, तो सुनीता देवी जैसी आशा कार्यकर्ता इसका रिकॉर्ड रखती हैं, लेकिन अक्सर उनसे बात करने के लिए पहले साल के अंत में ही जाती हैं। “यहां की अधिकतर युवा दुल्हनें शादी के पहले साल में ही गर्भवती हो जाती हैं। बच्चे के जन्म के बाद, हम उसके घर जाते हैं और उसकी सास की उपस्थिति में परिवार नियोजन के तरीकों पर चर्चा करने को सुनिश्चित करते हैं। बाद में, जब परिवार आपस में बात करके किसी नतीजे पर पहुंचता है, तो वे हमें इसके बारे में सूचित कर देते हैं,” सुनीता बताती हैं।
“नहीं तो, उसकी सास हमसे नाराज़ हो जाएगी और कहेगी, ‘हमारी बहू को क्या पट्टी पढ़ाकर चली गई हो!” सुनीता कहती हैं।
जब तीसरी संतान भी लड़की हुई, तो कांता ने गर्भनिरोधक गोलियां लेनी शुरू कर दीं, जो उनका पति उनके लिए लेकर आता था, जिसके बारे में उनके सास-ससुर को पता नहीं था। गोलियां छोड़ने के महीनों बाद, कांता फिर से गर्भवती हो गईं, इस बार बेटा था। त्रासदी यह हुई कि दादी बेचारी पोते को देख ही नहीं पाई। कांता की सास का देहांत 2006 में ही हो गया था। उसके एक साल बाद कांता ने अपने बेटे, राहुल को जन्म दिया।
तब से, कांता परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला बन चुकी हैं। उन्होंने आईयूडी का उपयोग करने का निर्णय लिया है। उनकी बेटियां पढ़ाई कर रही हैं; सबसे बड़ी नर्सिंग में बीएससी कर रही है। कांता अभी उसकी शादी के बारे में नहीं सोच रही हैं।
“उन्हें अध्ययन करना और सफल होना चाहिए। हमारी बेटियां जो प्राप्त करना चाहती हैं, अगर हम उसमें उनकी मदद नहीं करेंगे, तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि उनके पति और सास-ससुर पढ़ाई में उनकी मदद करेंगे? हमारा समय अलग था। वह अब नहीं रहा,” कांता कहती हैं।
वह अपनी भावी बहू के बारे में क्या सोचती हैं? “वही,” कांता कहती हैं। “यह उसे तय करना होगा कि वह क्या करना चाहती है, क्या [गर्भनिरोधक] इस्तेमाल करना चाहती है। हमारा समय अलग था; वह अब नहीं रहा।”
कवर चित्रण: प्रियंका बोरार नए मीडिया की एक कलाकार हैं जो अर्थ और अभिव्यक्ति के नए रूपों की खोज करने के लिए तकनीक के साथ प्रयोग कर रही हैं। वह सीखने और खेलने के लिए अनुभवों को डिज़ाइन करती हैं, संवादमूलक मीडिया के साथ हाथ आज़माती हैं, और पारंपरिक क़लम तथा कागज़ के साथ भी सहज महसूस करती हैं।
पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा महिलाओं पर राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग की परियोजना पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया समर्थित एक पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की आवाज़ों और उनके जीवन के अनुभवों के माध्यम से इन महत्वपूर्ण लेकिन हाशिए पर पड़े समूहों की स्थिति का पता लगाया जा सके।
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हिंदी अनुवादः मोहम्मद क़मर तबरेज़