सुरेंद्र नाथ अवस्थी अपनी बाहें नदी की दिशा में फैला देते हैं, जो अब केवल उनकी स्मृति में ही बची है. "यह सब उसका हिस्सा था, और वह सब भी," बाहें फैलाकर वह हल्की मुस्कान के साथ बोलते हैं.

वह बताते हैं, "हमें उससे प्यार था. उसी के कारण हमारे कुओं में सिर्फ़ 10 फ़ीट पर मीठा पानी निकल आता था. हर मॉनसून में वह हमारे घरों तक चली आती थी. हर तीसरे साल वह एक न एक बलि ले लिया करती, ज़्यादातर छोटे जानवरों की. हालांकि, एक बार वह मेरे 16 वर्षीय चचेरे भाई को ले गई थी. मैं इतना ग़ुस्से में था कि कई दिनों तक उसकी ओर मुंह करके चिल्लाता रहा था. मगर अब वह काफ़ी समय से नाराज़ है...शायद पुल की वजह से." इतना कहकर वह चुप हो जाते हैं.

अवस्थी 67 मीटर लंबे पुल पर खड़े हैं, जो बमुश्किल नज़र आती सई नाम से जानी जाने वाली नदी पर बना है. 'वह' नाराज़ है. पुल के नीचे, नदी के तट पर खेत हैं, जिसमें गेहूं के ताज़ा कटे ठूंठ पड़े हैं और किनारों पर पानी को लील जाने वाले यूकेलिप्टस के पेड़ झूम रहे हैं.

अवस्थी के मित्र और सहयोगी जगदीश प्रसाद त्यागी सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक हैं, जो सई को "एक सुंदर नदी" के बतौर याद करते हैं.

वह लहरों के ज़रिए बने गहरे पानी के भंवरों की बात करते हैं, जिन पर बड़ी मछलियां सवार होकर एक नज़ारा पेश करती थीं. उन्हें अभी भी नदी में मिलने वाली एडी, रोहू, ईल, पफ़र्स जैसी मछलियां याद हैं. वह बताते हैं, "जब पानी सूखने लगा, तो मछलियां ग़ायब होने लगीं."

कई और प्यारी यादें हैं. मालती अवस्थी (74 साल) 2007 से 2012 तक गांव की सरपंच थीं. वह याद करती हैं कि सई नदी अपने तट से क़रीब 100 मीटर दूर उनके घर के आंगन तक आ जाया करती थी. उसी विशाल आंगन में हर साल गांववाले उन परिवारों के लिए सामुदायिक 'अन्न पर्वत दान' आयोजित किया करते थे जो नदी के प्रकोप के चलते अपनी फ़सलें गंवा देते थे.

वह कहती हैं, “समुदाय की वह भावना चली गई है. अनाज बेस्वाद हो गए हैं. कुओं में पानी नहीं है. जितने तक़लीफ़ में हम हैं, हमारे पशु भी उतना ही झेल रहे हैं. जीवन बेस्वाद हो गया है.”

Left: Surendra Nath Awasthi standing on the bridge with the Sai river running below.
PHOTO • Pawan Kumar
Right: Jagdish Prasad Tyagi in his home in Azad Nagar
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बाएं: सुरेंद्र नाथ अवस्थी पुल पर खड़े हैं और नीचे सई नदी बह रही है. दाएं: जगदीश प्रसाद त्यागी, आज़ाद नगर के अपने घर में

Left: Jagdish Prasad Tyagi and Surendra Nath Awasthi (in a blue shirt) reminiscing about the struggle for a bridge over the Sai river .
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Right: Malti Awasthi recalls how the Sai rode right up to the courtyard of her home, some 100 metres from the riverbed
PHOTO • Rana Tiwari

जगदीश प्रसाद त्यागी (बाएं) और सुरेंद्र नाथ अवस्थी (दाएं) सई नदी पर पुल के लिए अपने संघर्ष को याद करते हैं. दाएं: मालती अवस्थी को याद है कि सई नदी अपने तल से क़रीब 100 मीटर दूर सीधे उनके घर के आंगन तक चली आती थी

सई, गोमती नदी की सहायक नदी है. भारत की पौराणिक कथाओं में इसका ऊंचा स्थान बताया गया है. गोस्वामी तुलसीदास के लिखे रामचरितमानस (16वीं सदी का महाकाव्य जिसका शाब्दिक अर्थ है भगवान राम के कर्मों का सरोवर) में इसे आदि गंगा कहा गया है, यानी जो गंगा से भी पहले आई थी.

सई नदी, उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले के पिहानी ब्लॉक के गांव बिजगावां के एक तालाब से शुरू होती है. अपने असली नाम के साथ वह अपने शुरुआती 10 किलोमीटर के सफ़र में झाबर (तालाब) कहलाती है. लखनऊ और उन्नाव ज़िलों के बीच 600 किलोमीटर की यात्रा के दौरान यह उनकी हदबंदी करती है. राज्य की राजधानी लखनऊ हरदोई से क़रीब 110 किलोमीटर उत्तर में है, तो उन्नाव 122 किलोमीटर दूर है.

अपने उद्गम से जौनपुर ज़िले के राजेपुर गांव में गोमती (गंगा की सहायक नदी) के साथ अपने संगम तक सई लगभग साढ़े सात सौ किलोमीटर की दूरी तय करती है. इतनी दूरी यह अपनी घुमंतू प्रकृति के कारण करती है.

लंबाई में क़रीब 126 किलोमीटर और चौड़ाई में 75 किलोमीटर का हरदोई ज़िला टेढ़े-मेढ़े चतुर्भुज के आकार का है. इसमें 41 लाख लोग बसते हैं. यहां के ज़्यादातर कामगार खेतिहर मज़दूरी करते हैं; और इसके बाद किसान और कुटीर उद्योगों के श्रमिकों का नंबर आता है.

साल 1904 में प्रकाशित द डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर्स ऑफ़ आगरा एंड अवध ऑफ़ द यूनाइटेड प्रोविंसेज़ वॉल्यूम-XlI हरदोई अ गजेटियर के अनुसार सई की घाटी "ज़िले के बीचोंबीच तक फैली हुई है."

गज़ेटियर में दर्ज है: "हरदोई में खेती का क्षेत्र उपजाऊ है पर...कई उथले गड्ढों के कारण टूटा-फूटा है. एक के बाद एक बंजर ज़मीन के टुकड़े...ढाक और झाड़ियों के जंगल के बिखरे हुए हिस्से...इनसे साई घाटी बनती है.”

अवस्थी अब 78 वर्ष के हैं और मेडिकल डॉक्टर (अनेस्थिटिस्ट) हैं. उनका जन्म माधोगंज प्रखंड के कुरसठ बुज़ुर्ग गांव के परौली टोले में हुआ था. यह टोला पुल से लगभग 500 मीटर की दूरी पर है, जिस पुल पर वह अभी खड़े हैं.

Left: The great length of the Sai river is caused by its meandering nature.
PHOTO • Pawan Kumar
Right: Surendra Nath Awasthi standing on the bridge with the Sai river running below. The bridge is located between the villages of Parauli and Band
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बाएं: सई नदी की लंबाई ज़्यादा होने की वजह इसकी घुमावदार  प्रकृति है. (दाएं) सुरेंद्र नाथ अवस्थी पुल पर खड़े हैं, और नीचे सई नदी बह रही है. यह पुल परौली और बांड़ गांवों के बीच है

साल 2011 की जनगणना में कुरसठ बुज़ुर्ग गांव की जनसंख्या 1919 दर्ज की गई थी. परौली की आबादी 130 है, जिसमें चमार (अनुसूचित जाति) और विश्वकर्मा (अन्य पिछड़ी जाति) समुदाय के अलावा, मुख्य रूप से ब्राह्मण रहते हैं.

अवस्थी जिस पुल पर खड़े हैं वह कछौना ब्लॉक स्थित परौली और बांड़ गांवों के बीच स्थित है. कछौना एक महत्वपूर्ण बाज़ार हुआ करता था (और अब भी है), जहां किसान अपनी उपज बेचने को लाते हैं और उर्वरक ख़रीदते हैं. पुल न होने के कारण कुरसठ बुज़ुर्ग और कछौना के बीच की दूरी 25 किलोमीटर थी. इस पुल के कारण वह घटकर 13 किलोमीटर रह गई है.

कुरसठ और कछौना (अब बालामऊ जंक्शन) के रेलवे स्टेशनों के बीच एक रेलवे पुल होता था. लोग उसका इस्तेमाल भी करते थे. पुराने लोगों को लकड़ी के तख्तों से बने पुल पर व्यापार के लिए ऊंटों का आना-जाना अभी तक याद है. साल 1960 में भयंकर मॉनसून के दौरान वह पुल गिर गया. इस तरह दो जगहों को जोड़ने वाला एकमात्र छोटा मार्ग (10 किमी) ख़त्म हो गया था.

नए पुल का विचार सबसे पहले त्यागी को आया था, जो माधोगंज ब्लॉक के सरदार नगर गांव में एक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाते थे. उनका घर परौली से तक़रीबन साढ़े तीन किलोमीटर दूर, मौजूदा आज़ाद नगर में था.

साल 1945 में जन्मे इन पूर्व शिक्षक के परिवार का उपनाम त्यागी नहीं है. वह सिंह उपनाम लगाते हैं. त्यागी नाम हिन्दी के त्याग शब्द से आया, जिसका अर्थ होता है बलिदान; क्योंकि वह अपने लोगों की बेहतरी के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे. साल 2008 में सेवामुक्ति के समय वह जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक थे, जहां उन्होंने अपना करियर शुरू किया था.

त्यागी बताते हैं, "मैं एक बहुत ही ग़रीब परिवार में जन्मा था, पर इससे भलाई करने की मेरी इच्छा कभी धुंधली नहीं पड़ी." उम्र के साथ वह इतने कमज़ोर हो चुके हैं कि उनसे चलना दुश्वार है. एक बार उनके घर की दोनों भैंसें आज़ाद नगर के मुख्य गांव की सड़क पर एक गहरे गड्ढे में गिर पड़ीं. किसी तरह धक्का देकर उन्हें बाहर निकाला गया, तभी त्यागी को अपने पिता मोहन सिंह के कराहने की आवाज़ सुनाई दी. "क्या कभी वह वक़्त आएगा जब इन रास्तों पर चलना सुरक्षित होगा?"

वह याद करते हैं, "इस घटना से मैं इतना हिल गया कि मैंने उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया. गड्ढा छह फ़ीट गहरा और इससे दोगुने से ज़्यादा चौड़ा था. हर सुबह स्कूल जाने से पहले और लौटते हुए मैं पास में कीचड़ के ताल के किनारे से मिट्टी लाता और गड्ढे को भरने लगता था. एक गड्ढे के बाद दूसरे गड्ढे को भरता था. फिर इसमें दूसरे लोग शामिल हो गए.”

Left: Jagdish Prasad Tyagi retired as the headmaster of the junior high school where he began his career in 2008.
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Right: Surendra Nath Awasthi and Jagdish Prasad Tyagi talking at Tyagi's house in Azad Nagar, Hardoi
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बाएं: जगदीश प्रसाद त्यागी 2008 में जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त हुए, जहां उन्होंने अपना करियर शुरू किया था. दाएं: सुरेंद्र नाथ अवस्थी और जगदीश प्रसाद त्यागी हरदोई के आज़ाद नगर में त्यागी के घर पर

वह अपने साथी गांववालों के लिए कई फ़ुटकर काम कर देते थे. एक शिक्षक के रूप में सादगी से जीने वाले त्यागी गांव में सम्मानित व्यक्ति थे. वह स्वास्थ्य जांच के लिए नज़दीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से डॉक्टरों को लाते, कीटाणुशोधन के लिए ब्लीच पाउडर का छिड़काव करते, टीकाकरण के लिए गांव के बच्चों को इकट्ठा करते और यहां तक कि उन्होंने गांव को शहरी इलाक़े में भी शामिल कराया. बाद के चरण में उन्होंने सार्वजनिक निर्माण विभाग के किए कामों का औचक निरीक्षण करने का ज़िम्मा भी अपने ऊपर ले लिया था.

साल 1994 तक अवस्थी और त्यागी एक-दूसरे को निजी तौर पर नहीं जानते थे. हालांकि, उन्हें एक-दूसरे के बारे में पता था. गांव के पहले डॉक्टर अवस्थी ने तब तक ज़्यादातर विदेशों में (नाइजीरिया, यूनाइटेड किंगडम और मलेशिया में) काम किया था. वह अपने भीतर इस नदी का दर्द संजोए थे, जिसने बच्चों की आगे की पढ़ाई को असंभव बना दिया था, ख़ासकर गांव के स्कूल की लड़कियों के लिए. इसलिए उन्होंने अपने भाई और इलेक्ट्रिकल इंजीनियर नरेंद्र से नाविक तलाशने को कहा, जो मॉनसून के दौरान छात्रों को नदी के दूसरी ओर मुफ़्त में ले जाए. लकड़ी की नाव के लिए अवस्थी ने तब 4,000 रुपए दिए.

स्कूल की ड्यूटी के बाद, नाविक चोटाई दिन के बाक़ी हिस्से में अपने हिसाब से किराया वसूलने को आज़ाद था. शर्त यह थी कि वह स्कूल वाले एक भी दिन अनुपस्थित नहीं होगा. बरस बीते और नाव भी टूट-फूट गई, लेकिन अवस्थी ने 1980 में अपने गांव में कक्षा 8 तक के लिए एक स्कूल खड़ा कर दिया था, जिसका नाम उन्होंने अपने दादा-दादी के नाम पर रखा था, गंगा सुग्रही स्मृति शिक्षा केंद्र. साल 1987 में, स्कूल को उत्तर प्रदेश राज्य हाईस्कूल और इंटरमीडिएट शिक्षा बोर्ड ने मान्यता दे दी. फिर भी यह चुनौती अभी भी सामने थी कि शिक्षा के लिए दूसरे बच्चे परौली कैसे आएं.

आख़िर, जब अवस्थी और त्यागी मिले, तो उन्होंने तय किया कि नए पुल के बिना समस्या का समाधान नहीं हो सकता. दोनों शख़्स एक-दूसरे से एकदम उलट थे. अवस्थी ने नदी में कूदकर तैरना सीखा था, जबकि त्यागी ने कभी पानी में पैर डालने की हिम्मत नहीं की थी. अवस्थी सरकारी नौकरी के चलते आंदोलन की अगुआई नहीं कर पाए थे, जबकि त्यागी आगे बढ़कर नेतृत्व करना ही जानते थे. दो भिन्न, मगर प्रतिबद्ध व्यक्ति जब मिले, तो 'क्षेत्रीय विकास जन आंदोलन' (केवीजेए) की नींव पड़ी.

केवीजेए के सदस्यों की असल में कोई गिनती नहीं थी, पर वह बढ़ता गया. त्यागी ख़ुद चुनाव नहीं लड़ सकते थे, तो उन्होंने अपनी मां भगवती देवी को नगरपालिका चुनावों में खड़े होने को मनाया, ताकि अच्छी गुणवत्ता वाले विकास कार्य कराए जा सकें. भगवती देवी पांच मतों से हार रही थीं, मगर उप ज़िला मजिस्ट्रेट (एसडीएम) अदालत में एक अपील ने फ़ैसला उनके हक़ में कर दिया. साल 1997-2007 तक वह टाउन एरिया चेयरमैन रहीं.

सबसे पहले केवीजेए का पंजीकरण करवाना था. हालांकि, लखनऊ में अवस्थी की प्रभावशाली हैसियत होने के बावजूद यह नहीं हो पाया. इसलिए, यह आंदोलन नेताओं और विधायकों के लिए 'विकास नहीं, तो वोट नहीं' और 'विकास करो या गद्दी छोड़ो' के नारे में बदल गया.

'हमें उससे [सई नदी] से प्यार था. उसी की वजह से हमारे कुओं में सिर्फ़ 10 फीट पर मीठा पानी निकल आता था. हर मॉनसून वह सवारी करती हुई हमारे घरों तक आ जाया करती थी'

वीडियो देखें: खो गई सई नदी

अभी तक गैर-पंजीकृत इस संस्था की पहली बैठक में 17 प्रभावित गांवों के लगभग 3,000 लोग भगवती देवी को सुनने के लिए परौली पहुंचे. पर्चे बांटे गए, जिनमें लिखा था, “अपने तन-मन से हम इस आंदोलन के लिए खुद को प्रतिबद्ध करते हैं. हम पीछे नहीं हटेंगे. इन प्रतिज्ञा पत्रों पर हम अपने रक्त से हस्ताक्षर करेंगे. जब तक बांड़ और परौली के बीच पुल नहीं बन जाता, तब तक चैन से नहीं बैठेंगे.' इन पर्चों पर 'लाल होगा हमारा झंडा, क्रांति होगा काम' के साथ हस्ताक्षर किए गए थे.

ऐसे 1,000 से अधिक पर्चे बांटे गए और हरेक पर लोगों ने अपने ख़ून से हस्ताक्षर किए या अंगूठे के निशान लगाए.

इसके बाद पुल से प्रभावित होने वाले सभी 17 गांवों का दौरा शुरू हुआ. त्यागी याद करते हैं, “लोगों ने अपनी साइकिल पर बिस्तर बांधे और निकल पड़े. बड़े पैमाने पर तैयारी की कोई ज़रूरत नहीं थी.” जिस गांव में यात्रा होनी होती, वहां संदेसा भेज दिया जाता और वहां के निवासियों को ख़बर करने के लिए एक डुगडुगी बजाई जाती थी.

अगला क़दम था त्यागी की माताजी के नेतृत्व में नदी किनारे धरना, जो स्थानीय स्तर पर एक सम्माननीय शख्सियत थीं. अवस्थी ने धरना देने के लिए नदी किनारे अपना खेत आंदोलनकारियों को सौंप दिया. धरना स्थल को बांस के डंडों से घेर दिया गया. रात को धरनास्थल पर रहने वालों के लिए भूसे की छतरी लगाई गई. सात लोगों का जत्था पूरे 24 घंटे प्रतिरोध के गीत गाते हुए वहां बैठा रहता. जब महिलाएं बैठती थीं, तो वे भजन गाती थीं. उनके चारों ओर पुरुषों का घेरा होता था, ताकि कोई अप्रिय घटना न होने पाए. अवस्थी ने आंदोलनकारियों की सुविधा के लिए हैंडपंप लगवा दिया. हालांकि, लोगों को हमेशा पानी वाले सांपों के काटने का डर बना रहता था, पर उस दौरान ऐसी एक भी घटना नहीं हुई. ज़िला पुलिस की स्थानीय खुफ़िया इकाई के लोग बीच-बीच में धरने की टोह लेते रहते थे, पर कोई अधिकारी या निर्वाचित प्रतिनिधि प्रदर्शनकारियों की सुनने नहीं आया.

इसी विरोध-प्रदर्शन के दौरान 1996 का विधानसभा चुनाव आ गया, जिसका ग्रामीणों ने बहिष्कार किया. उन्होंने न केवल मतदाताओं को मतदान से दूर रहने का आह्वान किया, बल्कि मतदान करने के बहाने जाकर मतपेटियों में पानी डाल दिया. स्कूली बच्चों ने राज्य के राज्यपाल मोतीलाल वोरा को 11,000 पत्र लिखे, जो उन्हें बोरियों में भरकर भेजे गए.

अवस्थी और त्यागी ने तब लड़ाई को लखनऊ ले जाने का फ़ैसला किया. इससे पहले त्यागी ने ज़िलाधिकारी और एसडीएम को पत्र लिखकर चेतावनी दे दी थी कि अगर यूं ही अनदेखी चली, तो लोग अपनी ताक़त दिखाने को तैयार हैं. लखनऊ जाने से पहले आठ किलोमीटर दूर माधोगंज शहर तक एक साइकिल रैली निकालकर आख़िरी कोशिश की गई. जब पोस्टर, बैनर और झंडे लिए क़रीब 4,000 साइकिलें सड़कों पर दिखाई दीं, तो मीडिया का भी इस पर ध्यान गया. कई स्थानीय रिपोर्टों के ज़रिए इस मुद्दे को हवा मिली. कुछ आंदोलनकारियों ने इस दुस्साहसी ऐलान की भी सूचना थी कि अगर पुल की मांग न मानी गई, तो वे डीएम की जीप नदी में धकेल देंगे.

कुछ हफ़्ते बाद 51 ट्रैक्टरों ने डीएम दफ़्तर का घेराव किया. मगर ज़िलाधिकारी ने प्रदर्शनकारियों से मिलने के लिए बाहर आने से इंकार कर दिया.

Left: Jagdish Tyagi (white kurta) sitting next to Surendra Awasthi (in glasses) in an old photo dated April 1996. These are scans obtained through Awasthi.
PHOTO • Courtesy: Surendra Nath Awasthi
Right: Villagers standing on top of a makeshift bamboo bridge
PHOTO • Courtesy: Surendra Nath Awasthi

बाएं: अप्रैल 1996 की एक पुरानी तस्वीर में सुरेंद्र अवस्थी (चश्मे में) के बगल में बैठे जगदीश त्यागी (सफ़ेद कुर्ते में). ये तस्वीरें अवस्थी के ज़रिए मिली हैं. दाएं: बांस के अस्थायी पुल के ऊपर खड़े ग्रामीण

Surendra Nath Awasthi standing with villagers next to the Sai river
PHOTO • Rana Tiwari

सई नदी के किनारे गांववालों के साथ खड़े सुरेंद्र नाथ अवस्थी

अगला पड़ाव लखनऊ में राज्यपाल का आवास था. मांगपत्र छपवाए गए, ख़ून से दस्तख़त किए गए और हर गांव को एक प्रभारी के हाथ सौंप दिया गया, जो लोगों को यात्रा के लिए तैयार करता था. महिलाओं को इससे दूर रखा जाना था, लेकिन त्यागी की माताजी को कौन रोकता. उन्होंने ज़ोर दिया कि जहां उनका बेटा जाएगा वह भी वहां जाएंगी.

अप्रैल 1995 में किसी समय, परौली से क़रीब 20 किलोमीटर दूर संडीला में 14 बसें तैयार खड़ी थीं. इन्हें राज्य रोडवेज़ निगम के एक अधिकारी ने गुमनाम तौर पर प्रायोजित किया था. सुबह पांच बजे प्रदर्शनकारी लखनऊ पहुंचे. चूंकि किसी भी प्रदर्शनकारी को शहर के रास्तों का पता नहीं था, तो वे सुबह 11 बजे महात्मा गांधी मार्ग पर स्थित राज भवन पहुंचने से पहले भटकते रहे.

त्यागी बताते हैं, "ज़बर्दस्त हंगामा हुआ. देखते ही देखते पुलिस की 15 जीपों ने हमें घेर लिया. कुछ पुलिसवाले घोड़ों पर सवार थे. वाटर कैनन [बड़े पाइप से पानी बरसाना] चले. मुझे पुलिसकर्मी ज़मीन पर घसीटने लगे, तभी मेरी मां चिल्लाते हुए मुझ पर गिर पड़ीं कि बेटे से पहले वह जेल जाएंगी.” कुछ प्रदर्शनकारी भाग गए. बाक़ी को मौक़े पर पहुंचे हरदोई के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने बचाया. शारीरिक रूप से थका, लेकिन भावनात्मक रूप से विजयी यह समूह उस रात 12 बजे तक हरदोई वापस पहुंचा. गेंदे की मालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया गया.

तब तक पुल के लिए चल रहे संघर्ष को क़रीब डेढ़ साल हो चुका था. लखनऊ की घेराबंदी ने बड़े पैमाने पर हलचल मचा दी थी.

इसके तुरंत बाद, प्रदर्शनकारियों की सुनने वाले पहले व्यक्ति थे, सहकारिता मंत्री राम प्रकाश त्रिपाठी. मांग की जानकारी देने के लिए वह लोकनिर्माण विभाग के मंत्री कलराज मिश्र के पास गए और उन्हें इस तथ्य की भी जानकारी दी कि अगर आंदोलन चलता रहा, तो भारतीय जनता पार्टी क्षेत्र में समर्थन खो देगी.

इससे पहले कलराज मिश्रा कुछ करते, प्रदर्शनकारियों ने घोषणा कर दी थी कि वे ख़ुद को आग लगा लेंगे और मीडिया के सामने भी इसका ऐलान कर दिया था. पुलिस ने कार्रवाई कर त्यागी के भाई हृदय नाथ सहित कई आंदोलनकारियों को गिरफ़्तार कर लिया.

हरदोई के ज़िलाधिकारी के नेतृत्व में एक टीम ने 13 अगस्त, 1997 को आख़िर प्रदर्शनकारियों से मिलने का फ़ैसला किया. त्यागी को नायक के रूप में पेश किया गया. लखनऊ में आंदोलन की आर्थिक मदद कर रहे अवस्थी को राहत का अहसास हुआ. कुछ महीने बाद पुल को मंज़ूरी दे दी गई. हालांकि, पुल बनाने के लिए भुगतान की जाने वाली दो क़िस्तें विरोध के एक और साल बाद ही पहुंच पाईं.

Left: Venkatesh Dutta sitting in front of his computer in his laboratory.
PHOTO • Rana Tiwari
Right: A graph showing the average annual rainfall in Hardoi from years 1901-2021

बाएं: वेंकटेश दत्ता अपनी प्रयोगशाला में कंप्यूटर के सामने बैठे हुए हैं. दाएं: साल 1901 से 2021 तक हरदोई में हुई औसत सालाना बारिश का ग्राफ़

साल 1998 में 14 जुलाई को पीडब्ल्यूडी मंत्री के हाथों उद्घाटन के लिए पुल तैयार हो चुका था. उन्हें बताया गया था कि कृतज्ञ गांव वाले उन्हें सिक्कों में तोलेंगे. जब ऐसा नहीं हुआ, तो वह उद्घाटन भाषण में इस पर चुटकी लिए बिना न रह पाए.

अवस्थी याद करते हुए बताते हैं, "पुल के लिए संघर्ष करने वाले सभी 17 गांवों में यह जश्न का दिन था. दिवाली से कहीं ज़्यादा रौशन और होली से कहीं ज़्यादा रंगीन."

लगभग इसके तुरंत बाद, सई नदी सिकुड़ने लगी. बारिश पर निर्भर सई जो कभी साल भर उफ़ान पर रहती थी और मॉनसून में रौद्र रूप धारण कर लेती थी, साल बीतने के साथ क्षीण होती जा रही थी.

हालांकि, सिर्फ़ सई की क़िस्मत ऐसी नहीं थी - लखनऊ के बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के स्कूल फ़ॉर एनवायर्नमेंटल साइंसेज़ में प्रोफ़ेसर वेंकटेश दत्ता के मुताबिक़: “घटने-बढ़ने का यह चलन दुनिया भर में देखा गया है. [सई की तरह] बारहमासी नदियों का प्रवाह मॉनसून पर निर्भर होता गया है और सुस्त होता जा रहा है. साल 1984 से 2016 तक के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं कि भूजल और बेसफ़्लो [आधारभूत जल प्रवाह] दोनों घटते जा रहे हैं.”

बेसफ़्लो, ज़मीन पर मौजूद वह पानी है जो पिछली बारिश के बाद भी लंबे समय तक जलाशयों में बना रहता है; जबकि भूजल ज़मीन के नीचे का पानी है, पानी का वह भंडार है जिसे नदी सूखने की स्थित में इस्तेमाल करती है. इस तरह बेसफ़्लो आज की नदी है, भूजल है भविष्य की नदी. साल 1996 के बाद से 20 साल की अवधि में, उत्तर प्रदेश में होने वाली बारिश की मात्रा में 5 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है.

जुलाई 2021 में, उत्तर प्रदेश में भूजल की स्थिति पर सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट जारी हुई. इसमें कहा गया, “...जलस्तर में तेज़ी से गिरावट ने राज्य की भूजल आधारित नदियों पर गंभीर रूप से असर डाला है, क्योंकि नदियों और वेटलैंड [आर्द्रभूमि क्षेत्र] को मिलने वाला प्राकृतिक रिसाव/बेसफ़्लो काफ़ी हद तक घट गए हैं या लगभग ग़ायब हो चुके हैं. जलाशयों और उनके कैचमेंट [जलग्रहण] इलाक़ों पर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण ने मुश्किलें और बढ़ा दी हैं…घटा हुआ बेसफ़्लो भूजल पर निर्भर नदियों और उनके पारिस्थितिक बहाव के साथ-साथ सतह पर पानी के भंडारण पर भी असर डाल रहा है. गोमती नदी और उसकी सहायक नदियों के साथ-साथ राज्य की कई दूसरी नदियां भूजल के सहारे ज़िंदा हैं, पर नदी के कैचमेंट इलाक़े में पानी की भारी निकासी और बाद में भूजल स्तर में गिरावट ने नदियों के बहाव को और कम किया है."

इन आपदाओं के अलावा, ज़िले को तीसरी समस्या का सामना करना पड़ा. एक अध्ययन से पता चला कि हरदोई ने 1997 और 2003 के बीच अपने 85 फ़ीसदी वेटलैंड (आर्द्रभूमि क्षेत्र) गंवा दिए.

Left: Shivram Saxena standing knee-deep in the Sai river.
PHOTO • Rana Tiwari
Right: Boring for farm irrigation right on the banks of the river
PHOTO • Pawan Kumar

बाएं: शिवराम सक्सेना, सई नदी में घुटने के बल पानी में खड़े हैं. दाएं: नदी के किनारे खेत की सिंचाई के लिए की गई बोरिंग

परौली में विज्ञान की समझ न रखने वालों को भी बदलाव दिख रहा है. उदाहरण के लिए, केवल दो दशकों के भीतर गांव के सभी छह कुएं सूख चुके हैं. कुओं पर की जाने वाली सभी रस्में (जैसे नई दुल्हन की ओर से पूजा-पाठ) छोड़ दी गई हैं. गर्मी के महीनों के दौरान नदी पतली सी धारा भर रह जाती है.

शिवराम सक्सेना (47) जैसे किसान, जिनके लिए गर्मियों का सबसे बड़ा आनंद नदी में तैरना होता था, अब एक तस्वीर भर के लिए इसमें पैर रखने से हिचकिचाते हैं. घुटने भर पानी में खड़े होकर वह कहते हैं, "यह पहले जैसी सुंदर साफ़ नदी नहीं रह गई है, जिसके साथ मैं बड़ा हुआ हूं." पानी में उनके पीछे एक जानवर का शव तैर रहा था.

अवस्थी के पिता देवी चरण एक पतरौल (सिंचाई विभाग के लिए ज़मीन की नाप-जोख करने वाले सरकारी कर्मचारी) थे. उन्होंने सिंचाई के लिए सई के पानी को परौली की ओर मोड़ने के वास्ते एक छोटी नहर बनवाई थी. वह नहर अब सूखी पड़ी है.

अब खेतों में पानी देने के लिए नदी किनारे डीज़ल से चलने वाले पंप लगाए गए हैं.

सई के कुछ अपने योद्धा थे. इनमें एक राज्य विधान परिषद (1996-2002) के पूर्व सदस्य विंध्यवासनी कुमार (74 वर्ष) हैं, जिन्होंने 2013 में नदी किनारे 725 किलोमीटर की यात्रा की थी. अपनी 82 जनसभाओं और अपने लगाए हज़ारों पौधों के दौरान उन्होंने संदेश दिया था कि जब तक सहायक नदियों की रक्षा नहीं की जाएगी, तब तक गंगा को नहीं बचाया जा सकेगा.

प्रतापगढ़ ज़िले में जन्मे कुमार के अनुसार, ''मैंने अपने जीवन में कई नदियों की धीमी मौत देखी है. वे सिकुड़ गई हैं, जलस्रोत सूख चुके हैं, औद्योगिक कचरा और मलबा अंधाधुंध उनमें गिराया जा रहा है, खेती के लिए नदी तट पर अतिक्रमण कर लिया गया है, भूजल का बहुत ज़्यादा दोहन किया गया है...यह एक त्रासदी है, जिस पर हमारे नीति निर्माता-ध्यान नहीं देना चाहते." सई नदी, प्रतापगढ़ ज़िले से होकर भी बहती है.

नीति-निर्माता बेशक लुप्त होती नदियों की त्रासदी पर ध्यान नहीं देते, पर वे अपनी उपलब्धियों का बखान ज़रूर करते हैं.

Old photos of the protest march obtained via Vindhyavasani Kumar. Kumar undertook a journey of 725 kms on the banks of the river in 2013
PHOTO • Courtesy: Vindhyavasani Kumar
Old photos of the protest march obtained via Vindhyavasani Kumar. Kumar undertook a journey of 725 kms on the banks of the river in 2013
PHOTO • Courtesy: Vindhyavasani Kumar

विंध्यवासनी कुमार के ज़रिए मिलीं विरोध मार्च की पुरानी तस्वीरें. कुमार ने 2013 में नदी के किनारे 725 किलोमीटर की यात्रा की थी

'Till children do not study the trees, land and rivers around them, how will they grow up to care for them when adults?' says Vindhyavasani Kumar (right)
PHOTO • Courtesy: Vindhyavasani Kumar
'Till children do not study the trees, land and rivers around them, how will they grow up to care for them when adults?' says Vindhyavasani Kumar (right)
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विंध्यवासनी कुमार (दाएं) कहते हैं, 'जब तक बच्चे अपने आसपास के पेड़ों, ज़मीन और नदियों के बारे में नहीं जानेंगे, तब तक वे बड़े होकर उनकी देखभाल कैसे करेंगे?'

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 1 नवंबर, 2022 को भारत जल सप्ताह के अवसर पर दावा किया था कि पिछले कुछ सालों में राज्य की 60 से अधिक नदियों को फिर से ज़िंदा कर लिया गया है.

प्रोफ़ेसर वेंकटेश दत्ता कहते हैं कि नदी का कायाकल्प कोई 'जादू' की चीज़ नहीं है, जिसे कुछ साल में हासिल किया जा सके. "क़ुदरती तौर पर बड़े जलाशयों, झीलों, तालाबों और झरनों में पुनर्भरण से ही हमारी नदियों में पानी वापस लाया जा सकता है. फ़सल का चुनाव बदलना होगा. सिंचाई के सटीक तरीक़ों के माध्यम से पानी के इस्तेमाल को बड़े पैमाने पर घटाना होगा. और फिर भी एक नदी को फिर से ज़िंदा करने में 15 से 20 साल लगेंगे.” उन्होंने नदियों पर किसी राष्ट्रीय नीति की कमी पर भी अफ़सोस जताया.

विंध्यवासनी कुमार का कहना है कि स्कूली स्तर पर स्थानीय भूगोल के अध्ययन को ज़रूरी बनाना एक दीर्घकालिक समाधान है. वह पूछते हैं, "जब तक बच्चे अपने आसपास के पेड़ों, ज़मीन और नदियों का अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक वे बड़े होकर उनकी देखभाल कैसे करेंगे?"

राज्य के भूजल विभाग के पूर्व वरिष्ठ हाइड्रोलॉजिस्ट और ग्राउंड वॉटर एक्शन ग्रुप के संयोजक रवींद्र स्वरूप सिन्हा कहते हैं कि नदियों को फिर से जिलाने के लिए एक 'समग्र दृष्टिकोण' चाहिए.

"गंगा जैसी बड़ी नदियों को तब तक पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता, जब तक कि उसका भरण-पोषण करने वाली छोटी धाराएं फिर से चालू नहीं होतीं. एक व्यापक दृष्टिकोण के तहत डेटा को एक जगह लाने, उसका विश्लेषण और प्रबंधन करना शामिल होगा. पानी की निकासी की समुचित सीमा तय करनी होगी. मांग घटाने, कम निकासी और भूजल को पुनर्भरण करने के लिए एकजुट कार्रवाई, भूजल और सतही जल के संतुलित उपयोग के लिए ज़रूरी होगी."

राम स्वरूप सिन्हा कहते हैं, "सिर्फ़ किसी नदी की गाद निकालने और जलकुंभी को हटा देना अस्थायी उपाय हैं, जिनसे कुछ समय के लिए पानी का बहाव बढ़ जाता है."

उनके मुताबिक़, "भूजल, बारिश और नदियों के बीच मौसम का एक चक्रीय संबंध हुआ करता था, जो टूट गया है."

Left: There is algae, water hyacinth and waste on the river.
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Right: Shivram Saxena touching the water hyacinth in the Sai
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बाएं: नदी में शैवाल, जलकुंभी और कचरा भरा है. दाएं: शिवराम सक्सेना, सई नदी में जलकुंभी को छूकर देख रहे हैं

नुक़सान दोनों तरह से हुआ - इंसानी गतिविधियों का नतीजा और इंसान के क़ाबू से बाहर के कारणों से.

सिन्हा कहते हैं, “हरित क्रांति ने भूजल पर हमारी निर्भरता बढ़ाई. पेड़ कम हो गए. बारिशों का पैटर्न बदला और उनका अधिकांश हिस्सा फैलाव के बजाय कुछ दिनों में सिमटकर रह गया. मतलब यह कि बारिश का ज़्यादातर पानी बह जाता है, क्योंकि ज़मीन में रिसकर जाने का समय ही नहीं होता. भूजल दुर्लभ होता जा रहा है और इस प्रकार हमारी नदियों का पेट भरने के लिए काफ़ी नहीं होता.”

इसके बावजूद विकास की नीतियां शायद ही कभी भूजल को एक कारक के रूप में दर्ज करती हों. सिन्हा दो उदाहरण देते हैं. एक, मौजूदा सरकार के तहत राज्य में नलकूपों की संख्या 10,000 से बढ़ाकर 30,000 करना. दूसरा, हर घर जल योजना, जिसका उद्देश्य हर घर में पानी पहुंचाना है.

सिन्हा इसके लिए नदियों की मानचित्रण करने, भूजल की स्थिति का पता लगाने, मॉर्फ़ोलॉजी और (उपग्रह मानचित्रण के ज़रिए) ऑक्सबो झीलों (यू-आकार के जलाशयों) समेत कई ज़रूरी क़दमों की सूची बताते हैं.

फिर भी ज़्यादा एकीकृत दृष्टिकोण के बजाय सरकार आंकड़ों के उलझाव की ओर मुड़ गई है. मिसाल के लिए, 2015 में डार्क ज़ोन (ऐसे इलाक़े जहां भूजल स्तर ख़तरनाक स्तर तक गिर गया है) की गणना करते हुए, सरकार ने भूजल निकासी को मापने से ही पीछा छुड़ाने का फ़ैसला किया. तब से यह सिर्फ़ ज़मीन द्वारा सोखे गए पानी के अनुमानों पर निर्भर रह गई है.

आज़ाद नगर में बीमार पड़े त्यागी ख़ुश हैं कि वह अब पैदल सई तक नहीं जा सकते. वह कहते हैं, "मैं इसकी हालत के बारे में सुनता रहता हूं. मेरे लिए उसे देखना तो बहुत दर्दनाक होगा."

अवस्थी का कहना है कि नदी को रोकने की इंसानी कोशिश [और साथ ही पुल और नहर] शायद एक दुर्घटना थी. वह कहते हैं, "हमारे पास आज पुल तो है, पर उसके नीचे से कोई नदी नहीं बहती. इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है.”

अनुवाद: अजय शर्मा

Rana Tiwari

Rana Tiwari is a freelance journalist based in Lucknow.

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Photographs : Rana Tiwari

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P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought' and 'The Last Heroes: Foot Soldiers of Indian Freedom'.

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Translator : Ajay Sharma

Ajay Sharma is an independent writer, editor, media producer and translator.

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