उपचार के लिए शरीर से ख़ून निकालना, लगभग 3,000 वर्षों तक चिकित्सा का एक सामान्य तरीक़ा था।
इसकी उत्पत्ति इस विचार, जिसकी शुरूआत हिप्पोक्रेट्स से हुई थी और जो बाद में चलकर मध्ययुगीन यूरोप में बहुत लोकप्रिय हुआ: कि शरीर के चार देहद्रवों – रक्त, कफ़, काला पित्त, पीला पित्त – का असंतुलन बीमारी का कारण बनता है। हिप्पोक्रेट्स के लगभग 500 साल बाद, गैलेन ने रक्त को सबसे महत्वपूर्ण देहद्रव घोषित किया। इन विचारों और सर्जिकल प्रयोग तथा, अक्सर, अंधविश्वास से पैदा होने वाले अन्य विचारों के नतीजे में शरीर से ख़ून निकाला जाने लगा कि अगर रोगी को बचाना है, तो उसके शरीर को ख़राब रक्त से मुक्त करना होगा।
ख़ून निकालने के लिए जोंक का उपयोग किया जाता था, जिसमें औषधीय जोंक हिरुडो मेडिसिनलिस भी शामिल है। हमें कभी पता नहीं चल पाएगा कि इन 3,000 वर्षों में इस उपचार से कितने लोगों की जान गई, कितने मनुष्य शवों में बदल गए, जिनका ख़ून बहाकर डॉक्टरों ने उन्हें अपनी चिकित्सा-वैचारिक भ्रांति से मौत के घाट उतार दिया। लेकिन हम यह ज़रूर जानते हैं कि इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने मरने से पहले अपना 24 औंस ख़ून निकलवाया था। जॉर्ज वॉशिंगटन के तीन डॉक्टरों ने उनके गले के संक्रमण का इलाज करने के लिए (ख़ुद उनके अनुरोध पर) प्रचुर मात्रा में ख़ून निकाला था – उनकी जल्द ही मृत्यु हो गई।
कोविड-19 ने हमें नवउदारवाद की एक शानदार, पूरी शव-परीक्षा दी, जो वास्तव में पूंजीवाद के ही बारे में है। लाश मेज़ पर पड़ी है, चकाचौंध रोशनी में, हर नस, धमनी, अंग और हड्डी हमारे चेहरे को घूर रही है। आप सभी जोंकों को देख सकते हैं – निजीकरण, कॉर्पोरेट वैश्विकता, धन की अत्यधिक एकाग्रता, जीवित स्मृति में कभी न देखे गए असमानता के स्तर। सामाजिक और आर्थिक बुराइयों के लिए रक्तस्राव का दृष्टिकोण, जिसने समाजों को काम करने वाले लोगों से उनके सभ्य और प्रतिष्ठित मानव अस्तित्व को छीनते हुए देखा है।
3,000 साल पुरानी यह चिकित्सा पद्धति 19वीं शताब्दी में यूरोप में अपने चरम पर पहुंच गई थी। 19वीं और 20वीं सदी के अंत में इसका उपयोग कम होने लगा – लेकिन सिद्धांत और व्यवहार अभी भी अर्थशास्त्र, दर्शन, व्यवसाय और समाज के विषयों पर हावी हैं।

असमानता अब हर उस बहस का केंद्र है, जो हम मानवता के भविष्य पर करते हैं
लाश के आसपास मौजूद सबसे शक्तिशाली सामाजिक और आर्थिक डॉक्टरों में से कुछ हमारे सामने, इसका विश्लेषण उसी प्रकार करते हैं जैसा मध्यकालीन यूरोप के डॉक्टरों ने किया था। जैसा कि काउंटरपंच के संस्थापक संपादक, दिवंगत अलेक्जेंडर कॉकबर्न ने एक बार कहा था, जब मध्य युग के चिकित्सकों ने अपना मरीज़ खो दिया, तो उन्होंने शायद दुख से अपने सिर को हिलाया और कहा: “हमने उसका ख़ून ज़्यादा नहीं बहाया था।” विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने दशकों तक इस बात पर ज़ोर दिया कि उनके झटके और ख़ौफ़नाक उपचार, कभी-कभी निकट-जनसंहारक संरचनात्मक समायोजन, की भयावह क्षति – इस वजह से नहीं थी कि उनके ‘सुधार’ का दूर तक प्रभाव हुआ, बल्कि इस वजह से थी कि उनके सुधार का दूर तक प्रभाव नहीं हुआ। वास्तव में, इसके पीछे कारण यह है कि उपद्रवी और गंदे लोगों ने इसे लागू नहीं होने दिया।
असमानता ऐसी भयानक चीज़ नहीं थी, वैचारिक रूप से उन्मादी ने तर्क दिया। इसने प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिगत पहल को बढ़ावा दिया। और हमें उनकी अधिक आवश्यकता थी।
असमानता अब हर उस बहस का केंद्र है, जो हम मानवता के भविष्य पर करते हैं। शासक यह जानते हैं।
पिछले 20 वर्षों से, वे इस सुझाव की तीव्र आलोचना कर रहे हैं कि असमानता का मानवता की समस्याओं से कोई लेना-देना है। इस सहस्त्राब्दी के प्रारंभ में, ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट ने सभी को असमानता पर घातक बहस के बारे में चेतावनी दी थी। कोविड-19 के दुनिया भर में फैलने से 90 दिन पहले, द इकोनॉमिस्ट पत्रिका, जिसे नवउदारवाद का भविष्यवक्ता कहा जा सकता है, ने कुछ भविष्यवाणियां कीं और एक कड़वा लेख लिखा:
इनइक्वैलिटी इल्यूज़न्सः व्हाई वेल्थ एंड इनकम गैप्स आर नॉट व्हाट दे अपियर ( असमानता के भ्रम: धन और आय के बीच का अंतर वैसा क्यों नहीं है जैसा यह दिखता है)
टार्ज़न के बाद से सबसे प्रसिद्ध अंतिम शब्दों में बदल सकता था – “किसने इस बेल को इतना फिसलन भरा बनाया?”
फिर यह आय और धन से संबंधित आंकड़ों की आलोचना करता है, उन आंकड़ों के स्रोतों पर सवाल उठाने की कोशिश करता है; कहता है कि “ध्रुवीकरण, झूठी ख़बरों और सोशल मीडिया की इस दुनिया में भी” ये हास्यास्पद मान्यताएं जारी हैं।
कोविड-19 हमारे सामने एक प्रामाणिक शव-परीक्षा है, यह नवउदारवादी जादूगरों के सभी दावों को पूरी तरह ख़ारिज करती है - फिर भी उनकी विचारधारा हावी है, और कॉर्पोरेट मीडिया पिछले तीन महीनों के विनाश को पूंजीवाद से किसी भी तरह न जोड़ने के तरीकों को खोजने में व्यस्त है।
महामारी और मानवता के संभावित अंत पर चर्चा करने में हम सबसे आगे हैं। लेकिन नवउदारवाद और पूंजीवाद के अंत पर चर्चा करने से हम कतरा रहे हैं।
खोज इस बात की चल रही है कि हम कितनी जल्दी इस समस्या पर क़ाबू पा सकते हैं और “सामान्य स्थिति में लौट सकते हैं।” लेकिन समस्या सामान्य होने के बारे में नहीं है।
पहले जो ‘सामान्य’ हुआ करता था, वही समस्या है। (सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग नए वाक्यांश ‘न्यू नॉर्मल’ या नए सामान्य को परिभाषित करने में लगा हुआ है)।


चंद्रमा तक पहुंचने के लिए दो सड़कें ? एक, अमीर लोगों के लिए सुपरहाइवे है और दूसरी, प्रवासियों के लिए गंदगी से भरा मार्ग जिस पर चलते हुए वे उनकी सेवा करने पहुंचेंगे
कोविड से पहले के सामान्य – जनवरी 2020 में, हमने ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट से जाना कि दुनिया के 22 सबसे अमीर पुरुषों के पास अफ्रीका की सभी महिलाओं की तुलना में अधिक संपत्ति थी।
और यह कि दुनिया के 2,153 अरबपतियों के पास इस ग्रह की 60 प्रतिशत आबादी की संयुक्त संपत्ति से अधिक संपत्ति है।
नया सामान्य: वॉशिंगटन डी. सी. के इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिसी स्टडीज़ के अनुसार, अमेरिकी अरबपतियों ने 1990 में अपने पास मौजूद कुल धन (240 अरब डॉलर) की तुलना में कोविड महामारी के सिर्फ़ तीन हफ़्तों में उससे कहीं ज़्यादा धन – 282 अरब डॉलर – अर्जित किए।
एक ऐसा सामान्य जहां खाद्य सामग्री की प्रचूरता के बावजूद अरबों लोग भूखे रहने पर मजबूर हैं। भारत में, 22 जुलाई तक, सरकार के पास 91 मिलियन मीट्रिक टन से अधिक खाद्यान्न का ‘अधिशेष’ या बफर स्टॉक मौजूद था – और दुनिया में सबसे ज़्यादा भूखे लोग भी यहीं रह रहे थे। नया सामान्य? सरकार उस अनाज में से बहुत कम मुफ्त में वितरित करती है, लेकिन चावल के विशाल स्टॉक को इथेनॉल में बदलने – हैंड सैनिटाइज़र बनाने
https://www.business-standard.com/article/economy-policy/centre-permits-conversion-of-surplus-rice-to-ethanol-for-hand-sanitisers-120042001529_1.html
– के लिए मंज़ूरी दे देती है।
पुराना सामान्य, जब हमारे पास लगभग 50 मिलियन टन ‘अधिशेष’ अनाज गोदामों में पड़ा था, तब प्रोफ़ेसर जीन ड्रेज़ ने 2001 में बहुत अच्छे ढंग से समझाया था: यदि हमारे सभी खाद्यान्न को बोरे में भर कर “एक लाइन में लगा दिया जाए, तो वे एक लाख किलोमीटर तक पहुंच जाएंगे – जो कि पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी का दोगुना है।” नया सामान्य – यह आंकड़ा जून की शुरुआत में 104 मिलियन टन तक पहुंच गया। चंद्रमा तक पहुंचने के लिए दो सड़कें? एक, अमीरों के लिए सुपर-हाईवे और दूसरी, प्रवासियों के लिए गंदगी से भरा मार्ग जिस पर चलते हुए वे उनकी सेवा के लिए पहुंचेंगे।
‘सामान्य’ एक ऐसा भारत था जहां 1991 से 2011 के बीच, 20 वर्षों में, हर 24 घंटे में 2,000 किसान पूर्णकालिक किसान होने की स्थिति से बाहर हो गए थे। दूसरे शब्दों में, देश में पूर्णकालिक किसानों की संख्या उस अवधि में 15 मिलियन घट गई थी ।
इसके अलावा: 1995 से 2018 के बीच 315,000 किसानों ने आत्महत्या कर ली, जैसा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े (बहुत ही कम करके) बताते हैं। लाखों लोग या तो खेतिहर मज़दूर बन गए या नौकरियों की तलाश में अपने गांवों से पलायन करने लगे – क्योंकि कई संबद्ध व्यवसाय भी समाप्त हो गए थे।


‘ सामान्य ’ एक ऐसा भारत था जहां 1991 से 2011 के बीच, 20 वर्षों में, हर 24 घंटे में 2,000 किसान पूर्णकालिक किसान होने की स्थिति से बाहर हो गए थे। जहां 1995 से 2018 के बीच कम से कम 315,000 किसानों ने आत्महत्या कर ली
नया सामान्य: प्रधानमंत्री द्वारा 1.3 बिलियन की आबादी वाले देश को पूर्ण लॉकडाउन के लिए केवल चार घंटे का नोटिस देने के बाद, लाखों प्रवासी शहरों और कस्बों से अपने गांवों की ओर लौटने लगे। कुछ लोग हज़ार किलोमीटर से अधिक पैदल चलकर अपने गांवों तक पहुंचे, जहां उन्होंने अपने जीवित रहने की सर्वोत्तम संभावनाओं का सही अनुमान लगाया। उन्होंने इतना लंबा सफ़र मई के महीने में 43-47 डिग्री सेल्सियस तापमान में पूरा किया।
नया सामान्य यह है कि लाखों लोग उन आजीविकाओं की तलाश में वापस लौट रहे हैं, जिन्हें हमने पिछले तीन दशकों में नष्ट कर दिया था।
अकेले मई महीने में लगभग 10 मिलियन लोग ट्रेन से लौटे – वह भी तब, जब सरकार ने बड़ी अनिच्छा से और लॉकडाउन के एक महीना पूरा होने के बाद ये ट्रेनें चलाईं। पहले से ही परेशान और भूखे, इन प्रवासियों को सरकार के स्वामित्व वाली रेलवे को पूरा किराया देने पर मजबूर होना पड़ा।
सामान्य एक अत्यधिक निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र था, जो इतना महंगा था कि सालों तक, संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यक्तिगत दिवालिया होने की सबसे बड़ी संख्या स्वास्थ्य व्यय से आई थी। भारत में, इस दशक में स्वास्थ्य व्यय के कारण एक वर्ष में 55 मिलियन इंसान गरीबी रेखा से नीचे आ गए।
नया सामान्य: स्वास्थ्य देखभाल पर कॉर्पोरेट का और अधिक नियंत्रण। और भारत जैसे देशों में निजी अस्पतालों द्वारा मुनाफ़ाख़ोरी । जिसमें कई अन्य चीज़ीं के अलावा, कोविड के परीक्षण से पैसा कमाना भी शामिल है। इससे निजी नियंत्रण और भी बढ़ता जा रहा है – जबकि स्पेन और आयरलैंड जैसे कुछ पूंजीवादी राष्ट्रों ने सभी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया है। जैसे 90 के दशक की शुरुआत में स्वीडन ने सभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, सार्वजनिक कोष से उनकी स्थिति में सुधार किया और दुबारा उन्हें निजी हाथों में सौंप दिया। स्पेन और आयरलैंड भी स्वास्थ्य क्षेत्र के साथ ऐसा ही करने वाले हैं।
सामान्य वह क़र्ज़ का बोझ था, व्यक्तियों और राष्ट्रों का, जो बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया। अंदाज़ा लगाएं कि नया सामान्य क्या होगा?


बाएं: लाखों भारतीय घरों में घरेलू हिंसा हमेशा ‘ सामान्य ’ थी। इस तरह की हिंसा में तेज़ी आई है , लेकिन लॉकडाउन की हालत में इसे बहुत ही कम करके रिपोर्ट किया गया। दाएं: सामान्य वह मीडिया उद्योग था, जिसने दशकों से प्रवासियों पर कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन 25 मार्च के बाद उन्हें पैदल चलता हुआ देख मंत्रमुग्ध हो गया
कई मायनों में, भारत में यह नया सामान्य नहीं, बल्कि पुराना सामान्य है। दैनिक व्यवहार में, हमारी सोच आज भी वैसी ही है कि गरीब ही वायरस के स्रोत और वाहक हैं, हवाई जहाज़ से यात्रा करने वाले नहीं, जिन्होंने दो दशक पहले इस संक्रामक बीमारी को पूरी दुनिया में फैलाया था।
लाखों भारतीय घरों में घरेलू हिंसा हमेशा ‘सामान्य’ थी।
नया सामान्य? कुछ राज्यों के पुरुष पुलिस प्रमुख भी इस तरह की हिंसा में वृद्धि की आशंका व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन इसे पहले की तुलना में कहीं अधिक कम करके रिपोर्ट किया जा रहा है , क्योंकि लॉकडाउन के कारण ‘अपराधी अब [लंबे समय के लिए] घर पर है’।
नई दिल्ली के लिए सामान्य यह था कि उसने बहुत पहले बीजिंग को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी वाला शहर होने की दौड़ में हरा दिया था। हमारे वर्तमान संकट का एक सुखद नतीजा यह है कि दिल्ली में आसमान आजकल जितना साफ़ है वैसा दशकों में नहीं रहा, जहां सबसे अधिक गंदी और खतरनाक औद्योगिक गतिविधि रुक गई है।
नया सामान्य: स्वच्छ हवा के कोलाहल में कमी। महामारी के बीच हमारी सरकार के सबसे प्रमुख कदमों में से एक, देश में कोयला ब्लॉकों की नीलामी और निजीकरण करना था ताकि उत्पादन में बड़े पैमाने पर वृद्धि हो सके।
यह हमेशा से सामान्य था कि जलवायु परिवर्तन शब्द सार्वजनिक, या राजनीतिक चर्चा से ग़ायब रहा। हालांकि मानव एजेंसी के नेतृत्व वाले जलवायु परिवर्तन ने बहुत पहले ही भारतीय कृषि को तबाह कर दिया है।
नया सामान्य स्टेरॉयड पर अक्सर पुराना सामान्य ही है।
भारत में एक राज्य के बाद दूसरे राज्य में, श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया गया है या उनका उल्लंघन हो रहा है। श्रम कानून का स्वर्ण मानक – 8 घंटे का दिन – उन राज्यों में समाप्त कर दिया गया है, जिन्होंने इसे बढ़ाकर अब 12 घंटे का दिन कर दिया है। कुछ राज्यों में, इस अतिरिक्त चार घंटे के लिए ओवरटाइम का भुगतान नहीं किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश ने संगठित या व्यक्तिगत विरोध की किसी भी संभावना का गला घोंटने के लिए 38 मौजूदा श्रम कानूनों को भी निलंबित कर दिया है।
हेनरी फोर्ड 1914 में 8-घंटे के दिन को अपनाने वाले शुरुआती पूंजीपतियों में से एक थे। फोर्ड मोटर कंपनी ने अगले दो वर्षों में लगभग दोगुना मुनाफ़ा कमाया। उन स्मार्ट लोगों ने पता लगाया था कि आठ घंटे के बाद उत्पादकता में तेज़ी से कमी आती है। नया सामान्य: भारतीय पूंजीपति, जो अनिवार्य रूप से चाहते हैं कि अध्यादेश द्वारा बंधुआ मज़दूरी की घोषणा कर दी जाए। उनके पीछे प्रमुख मीडिया संपादक आवाज़ लगा रहे हैं और हमसे “अच्छे संकट को बर्बाद न करने” का आग्रह कर रहे हैं। आख़िरकार, हमने उन कमीने कर्मचारियों को घुटनों के बल जो झुका दिया है, वह तर्क देते हैं। लाओ, अब जोंक को इनके ऊपर छोड़ दो। इस अवसर का लाभ उठाते हुए यदि आपने ‘श्रम सुधार’ नहीं किया, तो यह पागलपन होगा।


विश्व बैंक और आईएमएफ के दमनकारी उपायों के कारण, तीसरी दुनिया के लाखों सीमांत किसान पिछले 3-4 दशकों में धान (बाएं) जैसी खाद्य फ़सलों को छोड़ कर कपास (दाएं) जैसी नक़दी फसलों की ओर चले गए। पुराना सामान्य: क़ीमतों में घातक उतार-चढ़ाव ने उन्हें अपंग बना दिया। नया सामान्य: चालू सीज़न की उनकी फ़सलें कौन ख़रीदेगा ?
कृषि में, एक डरावनी स्थिति विकसित हो रही है। याद रखें कि तीसरी दुनिया के लाखों छोटे और सीमांत किसान पिछले 3-4 दशकों में नक़दी फसलों की ओर चले गए। और उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया विश्व बैंक-आईएमएफ के गठजोड़ ने, जिसने उन्हें समझाया कि नक़दी फ़सलों का निर्यात होता है, उनका भुगतान दुर्लभ मुद्रा में किया जाता है – आपके देश में डॉलर आएगा और आपको ग़रीबी से मुक्त कर देगा।
हम जानते हैं कि इसका नतीजा क्या हुआ। नक़दी फ़सल उगाने वाले छोटे किसान, ख़ासकर कपास की खेती करने वालों की संख्या आत्महत्या करने वाले किसानों में सबसे ज़्यादा है। सबसे ज़्यादा क़र्ज़ में डूबे हुए भी यही किसान हैं।
अब तो और भी बुरा हाल है। आमतौर पर मार्च-अप्रैल के आस-पास काटी जाने वाली रबी की फ़सल या तो बिना बिके पड़ी हुई है या, अगर ख़राब होने वाली है, तो लॉकडाउन के कारण खेतों में ही सड़ चुकी है। हज़ारों क्विंटल कपास, गन्ना, और अन्य फ़सलों सहित लाखों क्विंटल नक़दी फ़सलों का ढेर किसानों के घरों की छत पर लगा हुआ है (कम से कम कपास का)।
पुराना सामान्य: क़ीमतों में घातक उतार-चढ़ाव ने भारत और तीसरी दुनिया के नक़दी फ़सल उगाने वाले छोटे किसानों को पंगु बना दिया। नया सामान्य: चालू सीज़न में उनकी फ़सलें कौन ख़रीदेगा जबकि उन्हें काटे हुए महीनों बीत चुके हैं?
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के शब्दों में, “हम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सबसे गंभीर वैश्विक मंदी, और 1870 के बाद से आय में ज़बरदस्त कमी का सामना कर रहे हैं।” वैश्विक स्तर पर आय और खपत में भारी कमी से भारत अछूता नहीं है और इससे नक़दी फ़सल के किसानों को बहुत नुक़सान होगा। पिछले साल, कपास की निर्यात के लिए हमारा सबसे बड़ा बाज़ार चीन था। आज, चीन के साथ हमारे संबंध पिछले कई दशकों में इतने बुरे कभी नहीं रहे और दोनों देश मुश्किल में हैं। भारत सहित आज कई देशों में कपास, गन्ना, वेनिला और अन्य नक़दी फ़सलों का जो ढेर पड़ा हुआ है, उसे कौन ख़रीदेगा? और किस क़ीमत पर?
और अब, जबकि इतनी सारी ज़मीन को नक़दी फ़सल के हवाले कर दिया गया है, ऊपर से भयंकर बेरोज़गारी है – ऐसे में यदि भोजन की कमी हुई तब आप क्या करेंगे? गुटेरेस चेतावनी देते हैं: “...हमें इतिहास का भयंकर अकाल देखना पड़ सकता है।”


एक ऐसा सामान्य जहां खाद्य सामग्री की प्रचूरता के बावजूद अरबों लोग भूखे रहने पर मजबूर हैं। भारत में , 22 जुलाई तक , सरकार के पास 91 मिलयन मीट्रिक टन से अधिक खाद्यान्न का ‘ अधिशेष ’ या बफ़र स्टॉक मौजूद था – और दुनिया में सबसे ज़्यादा भूखे लोग भी यहीं रह रहे थे
एक और बात जो गुटेरेस ने कोविड-19 के बारे में कही: “यह हर जगह की भ्रांतियों और झूठ को उजागर कर रहा है: यह झूठ कि मुक्त बाज़ार सभी को स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकता है; यह कल्पना कि अवैतनिक देखभाल कार्य नहीं है।”
सामान्य: भारत का अभिजात वर्ग इंटरनेट पर अपनी प्रगति, सॉफ्टवेयर महाशक्ति के रूप में हमारी उड़ान, कर्नाटक के बेंगलुरु में दुनिया की दूसरी सुपर सिलिकॉन वैली बनाने में अपनी दूरदर्शिता और प्रतिभा के बारे में डींग मारना बंद नहीं कर सकता। (और वैसे भी, पहली सिलिकॉन वैली के निर्माण में भारतियों का ही हाथ था)। यह अहंकार लगभग 30 वर्षों से सामान्य है।
बेंगलुरु से बाहर निकल कर ग्रामीण कर्नाटक में क़दम रखें और नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा दर्ज की गई वास्तविकताओं को देखें: वर्ष 2018 में ग्रामीण कर्नाटक के सिर्फ़ 2 फ़ीसदी घरों में कंप्यूटर थे। (उत्तर प्रदेश, जिसका सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ाया जाता है, वहां पर यह संख्या 4 फ़ीसद थी।) ग्रामीण कर्नाटक के महज़ 8.3 फीसदी घरों में ही इंटरनेट की सुविधा थी। और ग्रामीण कर्नाटक में 37.4 मिलियन इंसान, या राज्य की 61 प्रतिशत आबादी रहती है – जबकि बेंगलुरु, यानी दूसरी सिलिकॉन वैली में लगभग 14 प्रतिशत।
नया सामान्य यह है कि कॉर्पोरेट कंपनियां ‘ऑनलाइन शिक्षा’ पर ज़ोर दे रही हैं ताकि अरबों रुपये कमा सकें । वे पहले से ही धनवान थे – लेकिन अब बहुत आसानी से अपनी संपत्ति को दोगुना कर लेंगे। समाज, जाति, वर्ग, लिंग और क्षेत्र के आधार पर जो लोग पहले से ही वंचित थे, अब इस महामारी ने उसे वैध कर दिया है (बच्चों को सीखने से नहीं रोक सकते, ठीक है?)। सबसे अमीर राज्य, महाराष्ट्र सहित भारत के ग्रामीण इलाक़ों में कहीं भी जाकर देख लीजिए कि कितने बच्चों के पास स्मार्टफोन है, जिन पर वे अपना पीडीएफ ‘पाठ’ डाउनलोड कर सकते हैं। वास्तव में कितने लोगों के पास नेट की सुविधा है – और यदि है, तो उन्होंने आख़िरी बार इसका उपयोग कब किया था?
इस पर भी विचार करें: कितनी लड़कियां स्कूल से बाहर हो रही हैं क्योंकि उनके दिवालिया, नव-बेरोज़गार माता-पिता उनकी फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं? आर्थिक तंगी के दौरान लड़कियों को स्कूल से बाहर निकालना भी पुराना सामान्य था, अब लॉकडाउन के कारण इसमें काफ़ी तेज़ी आई है।


भारत के ग्रामीण इलाक़ों में कहीं भी जाकर देख लीजिए कि कितने बच्चों के पास स्मार्टफोन है , जिन पर वे अपना पीडीएफ ‘ पाठ ’ डाउनलोड कर सकते हैं। वास्तव में कितने लोगों के पास नेट की सुविधा है – और यदि है , तो उन्होंने आख़िरी बार इसका उपयोग कब किया था ? फिर भी, कॉर्पोरेट कंपनियां ‘ऑनलाइन शिक्षा’ पर ज़ोर दे रही हैं
महामारी से पहले का सामान्य वह भारत था, जिसे सामाजिक-धार्मिक कट्टरपंथियों तथा आर्थिक बाज़ार के कट्टरपंथियों के गठजोड़ से चलाया जा रहा था – विवाह के बाद ख़ुशहाल साथी कार्पोरेट मीडिया नामक बिस्तर पर मज़े लूट रहे थे। कई नेता वैचारिक रूप से दोनों ख़ेमों में सहज महसूस कर रहे थे।
सामान्य 2 ट्रिलियन रुपये का मीडिया (और मनोरंजन) उद्योग था जिसने दशकों से प्रवासियों के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन 25 मार्च के बाद उन्हें पैदल चलता देख मंत्रमुग्ध और हैरान हो गया। किसी भी ‘राष्ट्रीय’ अख़बार या चैनल के पास पूर्णकालिक श्रम संवाददाता नहीं थे, न ही पूर्णकालिक कृषि-कार्य संवाददाता (हास्यास्पद रूप से कहे जाने वाले ‘कृषि संवाददाता’ के विपरीत, जिसका काम कृषि मंत्रालय और, तेज़ी से, कृषि व्यवसाय को कवर करना है)। इन दोनों के लिए पूर्णकालिक बीट मौजूद नहीं थी। दूसरे शब्दों में, 75 फ़ीसदी लोग ख़बरों से ग़ायब थे।
25 मार्च के बाद कई हफ्तों तक, एंकरों और संपादकों ने इस विषय के जानकार होने का नाटक किया, भले ही किसी प्रवासी से कभी उनकी भेंट न हुई हो। हालांकि, कुछ लोगों ने खेद जताते हुए स्वीकार किया कि हमें मीडिया में उनकी कहानियों को बेहतर ढंग से बताने की ज़रूरत थी। ठीक उसी समय, कॉर्पोरेट मालिकों ने 1,000 से अधिक पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाल दिया – ताकि प्रवासियों के बारे में किसी भी गहराई और स्थिरता के साथ कवर करने का एक भी अवसर बाक़ी न रहे। इनमें से बहुत से लोगों की छंटनी की योजना महामारी के काफी पहले से ही बनाई जा रही थी। और यह सब उन मीडिया कंपनियों द्वारा किया गया, जो सबसे ज़्यादा लाभ कमा रही हैं – जिनके पास नक़दी का विशाल भंडार है।
अब चाहे इस सामान्य का जो भी नाम हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, सभी बदबूदार हैं।
अब एक आदमी है, जो इक्का-दुक्का टीवी रियलिटी शो पर देश को चला रहा है। और, बाकी सारे चैनल अपनी तारीफ़ में कही गईं इन चिकनी चुपड़ी बातों को अधिकतर अपने प्राइम-टाइम में चलाते हैं। मंत्रिमंडल, सरकार, संसद, अदालतें, विधान सभा, विपक्षी दल, इन सब का कोई मतलब नहीं रह गया है। हमारी तकनीकी विशेषज्ञता हमें संसद के एक भी सत्र का एक भी दिन आयोजन करने में सक्षम नहीं बना पाई। नहीं। लगभग 140 दिनों के लॉकडाउन में – कोई वर्चुअल, ऑनलाइन, टेलीविजित संसद नहीं। अन्य देशों ने सहजता से ऐसा किया है, जबकि उनके पास हमारी सक्षम तकनीक वाली मस्तिष्क-शक्ति रत्ती भर भी नहीं है।
हो सकता है कि कुछ यूरोपीय देशों में, सरकारें कल्याणकारी राज्य के उन तत्वों को संकोचपूर्वक या आंशिक रूप से पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही हों, जिन्हें विखंडित करने में उन्होंने चार दशक लगा दिए। भारत में, हमारे बाज़ार के चिकित्सकों का ख़ून चूसने वाला मध्ययुगीन दृष्टिकोण आज भी हावी है। लूटने और झपटने के लिए जोंक बाहर आ चुकी हैं। अभी उन्होंने ग़रीबों का ख़ून ज़्यादा नहीं चूसा है। परजीवी कीड़ों को वही करना चाहिए जिसके लिए वे पैदा किए गए हैं।
प्रगतिशील आंदोलन क्या कर रहे हैं? उन्होंने पुराने सामान्य को कभी स्वीकार नहीं किया। लेकिन उनके पास वापस जाने के लिए ऐसा कुछ ज़रूर है, जो कि पुराना है – न्याय, समानता, और गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के लिए संघर्ष के साथ-साथ इस ग्रह का संरक्षण।
‘समावेशी विकास,’ एक मृत जोंक है जिसे आप पुनर्जीवित नहीं करना चाहते। ढांचा है न्याय, लक्ष्य है असमानता को समाप्त करना। और प्रक्रिया – विभिन्न प्रकार के मार्ग हैं, कुछ पहले से ही मौजूद हैं, कुछ का पता लगाना अभी बाक़ी है, कुछ को छोड़ दिया गया है – लेकिन हम सभी को इसी प्रक्रिया पर ध्यान देने की आवश्यकता है।


यह हमेशा से सामान्य था कि जलवायु परिवर्तन शब्द सार्वजनिक , या राजनीतिक चर्चा से ग़ायब था। हालांकि मानव एजेंसी के नेतृत्व वाले जलवायु परिवर्तन ने बहुत पहले ही भारतीय कृषि को तबाह कर दिया है। नया सामान्य: स्वच्छ हवा के कोलाहल में कमी
उदाहरण के लिए, यदि किसानों और खेतिहर मज़दूरों के आंदोलनों को जलवायु परिवर्तन (जिसने भारत में कृषि को पहले ही तबाह कर दिया है) से उत्पन्न समस्याओं का एहसास नहीं होता है, या अगर वे कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र के दृष्टिकोण के साथ अपने स्वयं के संघर्षों को नहीं जोड़ते हैं, तो एक बड़ा संकट मंडरा रहा है। श्रमिक आंदोलनों को केक के एक बड़े टुकड़े के लिए न केवल लड़ने की ज़रूरत है, बल्कि बेकरी का स्वामित्व हासिल करने के लिए अपने पुराने असामान्य प्रयास को भी जारी रखने की आवश्यकता है।
कुछ लक्ष्य स्पष्ट हैं: उदाहरण के लिए, तीसरे विश्व के ऋण को रद्द करना। भारत में, हमारी अपनी चौथी दुनिया के क़र्ज़ से छुटकारा पाना है।
कॉर्पोरेट एकाधिकार को समाप्त करें। इसकी शुरुआत उन्हें स्वास्थ्य, खाद्य तथा कृषि, और शिक्षा से पूरी तरह हटाने से करें।
संसाधनों के प्रजातंत्रवादी पुनर्वितरण के लिए राज्यों पर दबाव बनाने के लिए आंदोलन; संपत्ति कर, भले ही यह शीर्ष 1 प्रतिशत के लिए हो। बहुराष्ट्रीय निगमों पर टैक्स, जो लगभग कोई टैक्स नहीं चुकाते हैं। इसके अलावा, उन कराधान प्रणालियों की बहाली और सुधार जिन्हें बहुत से देशों ने कई दशकों पहले बहुत तेज़ी से नष्ट कर दिया था।
केवल जन आंदोलन ही देशों को स्वास्थ्य और शिक्षा में राष्ट्रव्यापी सार्वभौमिक प्रणालियों का निर्माण करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। हमें स्वास्थ्य के लिए न्याय, खाद्य के लिए न्याय इत्यादि के लिए लोगों के आंदोलनों की आवश्यकता है – कुछ प्रेरक पहले से मौजूद हैं, लेकिन कॉर्पोरेट मीडिया के कवरेज में हाशिए पर हैं।
हमें, यहां और दुनिया भर में, संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के उन अधिकारों पर भी ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है, जिसे कॉर्पोरेट मीडिया ने सार्वजनिक संवाद से ग़ायब कर दिया है। जैसे कि अनुच्छेद 23-28 , जिसमें शामिल है ‘ट्रेड यूनियन बनाने और उसमें शामिल होने का अधिकार’, काम करने का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन, पारिश्रमिक पाने का अधिकार, जो गरिमापूर्ण जीवन और स्वास्थ्य को सुनिश्चित करता है – और भी बहुत कुछ।
हमारे देश में, हमें भारतीय संविधान के राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का प्रसार करने की आवश्यकता है – जिसमें काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार इत्यादि शामिल हैं – जो न्यायसंगत और लागू करने योग्य हैं। ये संविधान की आत्मा हैं जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम से आए थे। पिछले 30-40 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक से अधिक फैसलों में कहा है कि निदेशक तत्व उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि मौलिक अधिकार।

चित्रण (ऊपर और कवर): लबनी जंगी मूल रूप से पश्चिम बंगाल के नादिया जिले के एक छोटे से शहर की रहने वाली हैं , और वर्तमान में कोलकाता के सेंटर फॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज़ से बंगाली मज़दूरों के प्रवास पर पीएचडी कर रही हैं। वह ख़ुद से सीखी हुई एक चित्रकार हैं और यात्रा करना पसंद करती हैं
लोग किसी भी व्यक्तिगत घोषणापत्र की तुलना में अपने संविधान और स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के साथ ज़्यादा जुड़े होते हैं।
पिछले 30 वर्षों में, भारत की हर एक सरकार ने उन सिद्धांतों और अधिकारों का हर दिन उल्लंघन किया है – क्योंकि नैतिक मूल्य मिटा दिए गए हैं और बाज़ार को थोप दिया गया है। ‘विकास’ का पूरा मार्ग लोगों के बहिष्करण, उनके जुड़ाव, भागीदारी और नियंत्रण के बहिष्करण पर आधारित था।
लोगों की भागीदारी के बिना, भविष्य की विपत्तियों को छोड़ दीजिए, आप वर्तमान महामारी से भी नहीं लड़ सकते। कोरोना वायरस का मुकाबला करने में केरल की सफलता स्थानीय समितियों में स्थानीय लोगों के शामिल होने, सस्ते भोजन की आपूर्ति करने वाले रसोई के नेटवर्क के निर्माण में शामिल होने पर आधारित है; संपर्क करना, पता चलाना, अलग-थलग करना और नियंत्रण – यह सब उस राज्य में लोगों की भागीदारी के कारण संभव हो पाया। इस महामारी और इससे आगे के ख़तरों से कैसे निपटा जाए, उसके लिए यहां एक बड़ा सबक़ है।
हर प्रगतिशील आंदोलन का आधार है न्याय और समानता में विश्वास। भारतीय संविधान में – ‘न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक…’, जिसमें, हमारे समय में, लैंगिक न्याय और पर्यावरणीय न्याय को भी जोड़ा जाना चाहिए। संविधान ने स्वीकार किया है कि कौन इस न्याय और समानता को ला सकता है। बाज़ार नहीं, कार्पोरेट कंपनियां नहीं, बल्कि ‘हम भारत के लोग’।
लेकिन सभी प्रगतिशील आंदोलनों के भीतर एक और सर्वव्यापी विश्वास है कि दुनिया एक तैयार उत्पाद नहीं, बल्कि कार्य प्रगति पर है – जिसमें कई असफलताएं और बहुत सारे अधूरे एजेंडे हैं।
जैसा कि महान स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन भाऊ – जो इस साल जून में 97 साल के हो गए – ने एक बार मुझसे कहा था। “हम स्वतंत्रता और आज़ादी के लिए लड़े। हमें स्वतंत्रता मिली।”
आज जबकि हम उस स्वतंत्रता की 73वीं वर्षगांठ मनाने वाले हैं, हमारे लिए आज़ादी के उस अधूरे एजेंडे के लिए लड़ना सार्थक होगा।
यह लेख पहली बार फ्रंटलाइन पत्रिका में छपा था।
हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़