डाक्टर साहब कहली, “ई त लइकी हिय.”

आशा के ई चउथा लरिका हवे. बाकि ऊ जानत बारी कि ई आखिरी नइखे. ऊ डॉक्टर के आपन माई कांताबेन के ढाढ़स देत सुनली, “मां, रउआ रोई मत. जरूरत पड़ी त हम आठ बेर ऑपरेशन करम. बाकिर जबले बेटा ना होई, हम इहंवे बानी. ई हमार जिम्मेवारी ह.”

आशा के पहिले से तीन गो लइकी बारी. सभके जन्म सिजेरियन डिलीवरी से भइल बा. आशा आपन माई संगे अहमदाबाद के मणिनगर में एगो प्राइवेट क्लीनिक आइल रहली. पेट में लइका बा, कि लइकी- पता करे खातिर ऊ लोग एह किलीनिक में एगो टेस्ट (एह तरह के टेस्ट गैरकानूनी बा, बाकिर हर गली-नुक्कड़ पर चोरी-छिपे होखेला) करवावत बा. आशा आ उनकर माई इहंवा से 40 किलोमीटर दूर खानपर गांव में रहेला. पेट में लइकी होखे के बात सुनके माई-बेटी दुनो कोई के चेहरा मुरझा गइल. ऊ लोग जानत बा कि आशा के ससुर बच्चा गिरावे ना दिहें. कांताबेन कहली, “ई सभ में हमनी के भरोसा नइखे.”

मतलब कि आशा के अभी आउर लरिका पैदा करे के पड़ी. तबले, जबले एगो बेटा नइखे हो जात.

आशा आ कांताबेन चरवाहा जाति के भारवाड़ से बा. एह समुदाय के लोग  भेड़-बकरी चरावेले. अइसे त, अहमदाबाद जिला के ढोलका तालुका में पड़े वाला उनकर गांव खानपार में गांय-भैंस कमे लोग चरावेला. एह गांव में 271 घर, आ 1,500 (जनगणना 2011 के हिसाब से) के आबादी बा. एह जाति के गुजरात में अनुसूचित जनजाति के स्थान मिलल बा. पारंपरिक रूप से समाज में देहाती जाति के जे क्रम बा, ओह में ई समुदाय के स्थान सबसे नीचे मानल जाला बा.

*****

अबही हमनी खानपार गांव में एगो छोट मकान में दुनो माई-बेटी के इंतजार कर रहल बानी. थोड़के देरी में कांताबेन कमरा में घुसली. भीतर आवते ऊ आपन माथ से अंचरा हटा देली. इहंवा आसपास के गांवन से कुछ अउरी मेहरारू लोग हमनी के साथे जुड़ गइल बारी. ऊ सभे कोई आपन प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में बात करे खातिर जुटल हवे. बाकिर एह पर बात कइल आसान कहां बा.

'You don’t cry. I will do eight more caesareans if needed. But I am here till she delivers a boy'

''रउआ रोई मत, जरूरत पड़ी त हम आठ गो आउर सिजेरियन करम, बाकिर जबले बेटा ना होई, हम इहंई बानी'

मीटिंग में कातांबेन बतावे लगली, “एह गांव में छोट-बड़ 80 से 90 भारवाड़ परिवार बा. एह लोग के साथे हरिजन (दलित), वागड़ी, ठाकोर भी रहेला. इहंवा कुछ घर कुंभार (कुम्हार) के भी बा. बाकिर जादे घर भारवाड़ के मिली.” कोली ठाकोर गुजरात में एगो बड़हन जाति समूह ह, बाकिर ई दोसरा राज्यन के ठाकुरन से अलग होखेला.

कांताबेन कहली, “हमनी इहंवा लइकी लोग के बियाह जल्दी कर देहल जाला. बाकिर 16 चाहे 18 के होखले पर ओह लोग के गौना (ससुराल भेजे के रसम) करावल जाला.” कांताबेन 50 पार कर चुकल बारी. उनकर लइकी, आशा के बियाह भी जल्दी हो गइल रहे. एहि से 24 बरिस में ही उनका तीन गो लरिका हो गइल. इहंवा बाल-विवाह आम बात बा. एह समुदाय के जादेतर मेहरारू लोग के ठीक से पता नइखे कि ऊ लोग के उमर का बा, बियाह कवन बरिस भइल, चाहे केतना बरिस पर उनका पहिल लरिका भइल रहे.

कातांबेन के कहनाम बा, “हमरा ई त नइखे याद कि हमर बियाह कवन बरिस भइल रहे. बाकिर एतना जरूर याद बा कि हम हर दोसर बरिस पेट से हो जात रहनी.” उनकर आधार कार्ड पर लिखल तारीख ओतने भरोसा लायक बा, जेतना उनकर याददाश्त.

ओहिजा जुटल मेहरारू लोग में एगो हीराबेन भारवाड़ बारी. हीराबेन कहे लगली, “हमार नौ गो लइकी बारी, फेरू दसमा बेर लइका भइल रहे. हमार लइका अठमा में पढ़ेले. छव गो लइकी लोग के बियाह कर देले बानी, बाकी दू गो के बाकी बा. ओह लोग के गोलट बियाह भइल बा.” खानपार आउर एह तालुका के दोसर गांवन में एह समुदाय के मेहरारू लोग बेर-बेर गर्भवती होला. हीराबेन कहली, “हमनी के गांव में एगो मेहरारू रहस. उनकरा 13 बेर बच्चा गिरावल गइल, ओकरा बाद एगो लइका भइल. ई त पागलपन ह. इहंवा जबले लइका ना होखेला, लोग मेहरारू के लरिका पैदा करे वाला मशीन समझ लेवेला. ऊ लोग के कुछुओ समझ में ना आवे. ओह लोग के त बस लइका चाही, मेहरारू जास भाड़ में. हमार सास के आठ गो लरिका रहे. चाची के 16 गो. रउआ एकरा का कहम, बताईं?”

रमिला भारवाड़, 40 पार, के कहनाम बा, “ससुरालवाला के लइका चाहीं. अगर ना दे सकनी, त सास से लेके ननद, पड़ोसी, सभे कोई रउआ ताना मारी. एह जमाना में लइकन के पालल-पोसल आसान नइखे. हमार बड़का लइका दसमां में दू बेर फेल हो गइले. अब ऊ तेसर बेर परीक्षा दिहें. लइकन लोग के पालल केतना मुश्किल बा, से त हमनी मेहरारू लोग ही बढ़िया से समझिला. बाकिर हमनी का कर सकीले?”

बेटा के पीछे पागल एह समाज में मेहरारू लोग पर बेटा पैदा करे पर जोर देहल जाला. ओह लोग के सामने दोसर कवनो रास्ता ना होखेला. रमिला पूछत बारी, “का करीं जब भगवाने हमनी के करम में बेटा के असरा ताकल लिख देले हवें. हमरा भी बेटा से पहिले तीन गो बेटी भइली. हमनी के जमाना में, हमनी सभे के बेटा खातिर इंतजार करे के पड़त रहे. बाकिर अब बात तनी अलग हो गइल बा.”

“का अलग हो गइल बा? का हमरा चार गो लइकी ना भइली ह?” रेखाबेन उनका ताना मारली. रेखाबेन पड़ोस के गांव लाना के हई. एह गांव के आबादी 1,522 बा. हमनी के जवना मेहरारू लोग के झुंड से बात कर रहल बानी, ऊ लोग अहमदाबाद के 50 किलोमीटर के भीतर अलल-अलग बस्ती से आइल बारी. ई बस्ती खानपार, लाना आउर अंबलियारा गांव में पड़ेला. सभे मेहरारू लोग एह रिपोर्टर से बतियावे के संगही आपसो में बतियावे लागल बा. रेखाबेन रमिला के एह बात पर सवाल उठावत बारी, कि हालात बदल रहल बा. ऊ पूछत बारी, “हमहूं त एगो बेटा होखे के असरा ताकत रह गइनी. हमनी भारवाड़ हईं. हमनियो इहां एगो बेटा भइल जरूरी ह. केहू के खाली बेटी बारी, त लोग ओकरा बांझ कहेला.”

'The in-laws want a boy. And if you don’t go for it, everyone from your mother-in-law to your sister-in-law to your neighbours will taunt you'

'ससुराल के लोग के लइका चाहीं, आ रउआ ई ना कर सकनीं, त सास-ससुर, ननद आ पड़ोसी तक, सभे कोई रउआ के ताना मारी'

रमिलाबेन समाज के एह परंपरा के जे जोर लगा के निंदा कइली, ओकरा बावजूद, सामाजिक दबाव आउर सांस्कृतिक परंपरा के कारण जादे मेहरारू लोग के बेटा चाहीं. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हेल्थ साइंसेज एंड रिसर्च, 2015 में एह बारे में एगो शोध छपल . एकरा में कहल गइल कि अहमदाबाद के गांव-देहात इलाका के 84 प्रतिशत से जादा मेहरारू लोग कहलक कि उनकरा बेटा चाहीं. शोध में बेटी के मुकाबले बेटा के पसंद करे के कारण पर भी सोच-विचार कइल गइल बा. एकरा हिसाब से तीन कारण से लोग बेटा चाहेला- “पहिल, बेटा में जादे कमाए के ताकत होखेला, खासकर के खेती-बारी के काम में. दोसर, समाज के पुरातन सोच कि बेटा बंस आगे बढ़ावेला, तीसर कि परिवार के विरासत के हकदार बेटे होखेला.”

दोसर ओरी, शोध के हिसाब से बेटी के बोझ मानल जाला, अइसन सोच के पीछे दहेज प्रथा एगो बड़ कारण बा. एकरा अलावा, बियाह के बाद आमतौर पर बेटी आपन घरवाला के परिवार के सदस्य बन जाली, ऊ बेमारी आउर बुढ़ापा में माई-बाबूजी के देखभाल ना कर पावेली. एह सभ कारण से बेटी के उनकर परिवार पर आर्थिक रूप से बोझ समझल जाला.

*****

पास के अंबलियारा गांव के जीलुबेन भारवाड़ कुछ बरिस पहले नसबंदी करवइले रहस. नसबंदी ढोलका तालुका के कोठ (जेकरा के कोठा भी कहल जाला) के पास एगो सरकारी अस्पताल में भइल रहे. अंबलियारा, 3,567 आबादी वाला गांव, के रहे वाली 30 बरिस के जीलुबेन चार गो लरिका भइला के बाद नसबंदी करवइले रहस. ऊ बतावत बारी, “जब तक हमरा दू गो लइका ना हो गइल, इंतजार करे के परल. हमार बियाह 7-8 बरिस में ही हो गइल रहे. जब बालिग भइनी, त ससुराल भेज देहल गइल. ओह घरिया हम 19 बरिस के रहीं. बियाह के कपड़ा बदले से पहिले हम पेट से हो गइनी. एकरा बाद, हर दोसरका बरिस इहे होखे लागल.”

लरिका पैदा होखे से रोके खातिर गोली ठीक रही, कि कॉपर-टी (अंतर्गर्भाशयी उपकरण), एह बारे में ऊ तय ना कर पावत रहस. ऊ तेज आवाज में कहली, “हमरा तब जादे कुछ ना मालूम रहे. जानत रहती, त शायद एतना लरिका पैदा ना करतीं. बाकिर हमनी भारवाड़ के माताजी (मेलाड़ी मां, कुल देवी) जे देवेली, मन से स्वीकार करे के पड़ेला. एकरा अलावे, हम दोसर लरिका पैदा ना करतीं, त लोग बात बनाइत. ऊ लोग सोचित कि हमरा दोसर आदमी चाहीं. एह सब के सामना कइसे कइल जाव?”

जीलुबेन के पहिल बेर में ही बेटा हो गइल रहे. बाकिर परिवार के फरमान रहे कि एगो आउरी चाहीं. दोसर बेटा के असरा में उनका दू गो लइकी हो गइली. एह में से एगो लइकी त बोल ना सकेली, ना ही उनका सुनाई देवेला. ऊ बतावत बारी, “भारवाड़ लोग के दू गो बेटा चाहीं. आज कुछो मेहरारू लोग एगो लइका, आउर एगो लइकी से संतुष्ट बा. बाकिर हमनी फिर भी माताजी के आशीर्वाद के उम्मीद में रहिले."

Multiple pregnancies are common in the community in Khanpar village: 'There was a woman here who had one son after 13 miscarriages. It's madness'.
PHOTO • Pratishtha Pandya

खानपार गांव में एह समुदाय के मेहरारू लोग बेर-बेर गर्भधारण करेला: 'इहंवा एगो मेहरारू रहस, उनकरा 13 बार बच्चा गिरवला के बाद एगो बेटा भइल, ई पागलपन हवे'

दोसर बेटा के जन्म के बाद जीलुबेन नसबंदी करावे के सोच लेहली. उनकरा एह सब उपाय के बारे में जानकारी रखेवाली मेहरारू से सलाह मिलल. अंत में ऊ आपन ननद संगे कोठ जाके नसबंदी करावे के फैसला लेली. ऊ बतावत बारी, “हमार घरवाला भी इहे चाहत रहन. ऊ भी जानत रहन कि ऊ केतना कमा के घर ला सकेलन. हमनी के पास कमाई के कवनो दोसर साधन ना रहे. हमनी लगे देखभाल करे खातिर खाली इहे जानवर बारें.”

ढोलका तालुका के समुदाय, सौराष्ट्र या कच्छ के भारवाड़ पशुपालकन से एकदम अलग बा. एह समूहन के पास भेड़-बकरियन के बहुते बड़ झुंड हो सकेला, बाकिर ढोलका क जादे भारवाड़ लोग खाली गाय आ भैंस पालेला. अंबलियारा के जयाबेन भारवाड़ कहली, “इहंवा हर परिवार के पास खाली 2-4 गो जानवर बा. एकरा से हमनी के घर के खरचा मुश्किल से पूरा होखेला. एह से हमनी के कोई कमाई नइखे. हमनी के एकरा खातिर चारा के बेवस्था करे के पड़ेला. कबो-कबो लोग धान के मौसम में कुछ धान दे देला. ना त उहो हमनी के खरीदे के पड़ेला.”

मालधारी संगठन के अहमदाबाद के रहे वाली अध्यक्ष भावना राबारी कहली, “एह इलाका के मरद लोग सड़क, भवन बनावे, आउर खेती करे जइसन अलग अलग क्षेत्र में अकुशल मजूर के रूप में काम करेले. काम मिले त ऊ लोग रोज के 250 से 300 रुपइया तक कमाई कर लेवेला."

For Bhawrad women of Dholka, a tubectomy means opposing patriarchal social norms and overcoming their own fears

ढोलका की भारवाड़ मेहरारू खातिर के लिए, नसबंदी मतलब मरदवादी समाज के नियम के विरोध आउर आपन डर पर काबू पाइल ह

जयाबेन कहली, “मरद लोग बार जाला आउर मजूरी करेला. हमार मरद सीमेंट के बोरी ढोवेलन. एह काम से उनका 200-250 रुपइया मिल जाला.” ऊ भाग्यशाली लागत बारन कि लगे एगो सीमेंट फैक्ट्री बा. उनका उहंवा अधिकतर दिन काम मिल जाला. उनकर परिवार के लगे, इहंवा के बहुत लोग निहन, बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) राशन कार्ड तक नईखे.

जयाबेन गरभ रोके वाला गोली चाहे, कॉपर-टी लगावे से डेराली. उहो दू गो लइका आउर एगो लइकी के माई होखला के बाद. ऊ कवनो स्थायी ऑपरेशन करावे के चाहत बारी, कि बेर-बेर के ई झंझट से हमेशा खातिर छुटकारा मिल जाओ. ऊ कहली, “हमार सभ डिलीवरी घरे में भइल बा. हम अस्पताल में जे औजार से काम होला, ओह सब से बहुते डेरात बानी. हम ऑपरेशन के बाद एगो ठाकोर के घरवाली के परेशानी झेलत देखले बानी.”

ऊ कहली, “एहि से हम आपन मेलाड़ी दाई से पूछे के फैसला कइनी. उनकर इजाजत बगैर आपरेसन खातिर ना जा सकेनी. माताजी बढ़त पौधा के काटे के इजाजत काहे दिहन? बाकिर, आजकल हर चीज एतना महंगा हो गइल बा. एतना लोग के पेट कइसे भराई? त हम माताजी से कहनी कि हमरा लगे भरपूर लरिका बा, बाकिर हम ऑपरेशन से डेरात रहनी. हम उनका के प्रसाद चढ़ावे के वादा कइनी. माताजी 10 बरिस तक हमर ख्याल रखले बारी. हमरा एको दवाई ना खाए के पड़ल बा.”

*****

जयाबेन खातिर ई बात अचरज वाला रहे कि उनकर घरवाला भी नसबंदी करा सकत बारन. उनकरा अलावा एह बात पर उहंवा जुटल सभे मेहरारू लोग अचरज करत रहे.

मेहरारू लोग के प्रतिक्रिया से पता चलत बा कि देश भर के मरद लोग आपन नसबंदी कराएल ना चाहे. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के एगो रिपोर्ट के हिसाब से पूरा भारत में, 2017-18 में होखे वाला कुल 14,73,418 नसबंदी में खाली 6.8% पुरुष लोग नसबंदी करवले रहे. एह में मेहरारू के नसबंदी 93.1% रहे.

पुरुष नसबंदी के चलन आउर मान, आज के तुलना में 50 बरिस पहले जादे रहे. एह में 1970 के बाद बहुते गिरावट आइल. खास करके 1975-77 के आपातकाल के बखत जबरन नसबंदी के बाद. विश्व स्वास्थ्य संगठन के बुलेटिन में छपल एगो पेपर के हिसाब से, ऊ अनुपात 1970 में 74.2 फीसदी रहे, जे घट के 1992 में सिरिफ 4.2 फीसदी रह गइल.

परिवार नियोज के अबहियो बहुत हद तक मेहरारू लोग के जिम्मेवारी के रूप में देखल जाला.

एह समूह में सिरिफ जीलुबेन के ही नसबंदी भइल बा. ऊ इयाद करत बारी, “हमार घरवाला परिवार नियोजन करे खातिर कुछो उपाय करिहन, एकर कवनो सवाले ना रहे. हमरो ना पता रहे कि ऊ ऑपरेशन करा सकतारे. वइसे हमनी के बीच कबो अइसन बात ना भइल” अइसे त ऊ बतावत बारी, उनकर घरवाला आपन मन से कबो कबो ढोलका से उनकरा खातिर, इमरजेंसी में गरभ रोके वाला “500 रुपइया में तीन” गो गोली खरीद के ले आवत रहस. ई सभ उनकर नसबंदी के ठीक पहिले वाला बरिस के बात ह.

राज्य खातिर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के फैक्ट शीट (2015-16) में नोट कइल गइल बा कि गुजरात के गांव-देहात के इलाका में पुरुष नसबंदी (सभ तरीका में) के हिस्सा सिरिफ 0.2 फीसदी हवे. महिला नसबंदी, कॉपर-टी आउर गोली समेत दोसर सभ तरीका के बोझ मेहरारूए के उठावे के पड़ेला.

ढोलका के भारवाड़ मेहरारू लोग खातिर नसबंदी करावे के मतलब बा, मरदवादी परिवार आ समाज के नियम के खिलाफ जाए आउर संगही आपन डर पर काबू पाए.

The Community Health Centre, Dholka: poor infrastructure and a shortage of skilled staff add to the problem
PHOTO • Pratishtha Pandya

ढोलका के कम्युनिटी हेल्थ सेंटर: खराब बुनियादी ढांचा आउर काबिल करमचारी के कमी दिक्कत के आउर बढ़ा देले हवे

कांताबेन के पतोह कनकबेन भारवाड़, 30 बरिस, भी इहे मीटिंग में बइठल बारी. उनकर कहनाम बा, “आशा दीदी (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) हमनी के सरकारी अस्पताल ले जाली. बाकिर हमनी सभे कोई डेरा गइल बानी.” ऊ लोग के पता चलल रहे कि आपरेशन बखत एगो मेहरारू के मउके पर मौत हो गइल रहे. डॉक्टर गलती से कवनो दोसर नली काट देले रहे, जेसे ओहिजे ऑपरेशन टेबुल पर उनकर मौत हो गइल. एह बात के अभी एको बरिस ना भइल ह.

बाकिर ढोलका में त गर्भधारण भी जोखिम से भरल बा. सरकारी सामूहिक आरोग्य केंद्र (सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, सीएचसी) के एगो परामर्शदाता डॉक्टर के कहनाम बा कि अशिक्षा आउर  के कारण मेहरारू लोग लगातार लरिका पैदा करत रहेली. ऊ लोग दू गो लरिका के बीच अंतर ना रखेला. ऊ बतावत बारन, “केहू नियमित रूप से चेकअप खातिर ना आवेला. केंद्र पर आवे वाली जादे मेहरारू लोग पोषण के कमी आउर एनीमिया के शिकार हवे.” उनकर अनुमान बा कि, इहंवा आवे वाली लगभग 90% मेहरारू में  8 प्रतिशत से भी कम हीमोग्लोबिन हवे.

खराब बुनियादी ढांचा आउर काबिल करमचारी के कमी दिक्कत के आउर बढ़ा देले हवे. इहंवा कवनो सोनोग्राफी मशीन नइखे. लंबा बखत ले कवनो फुलटाइम स्त्री रोग विशेषज्ञ, चाहे एनेस्थेटिस्ट जरूरत परला में ना मिले. एके एनेस्थेटिस्ट ढोलका के छहों पीएचसी (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र), एगो सीएचसी, आ कई गो प्राइवेट अस्पताल, क्लिनिक में काम करेला. मरीजन के ओकरा खातिर अलगा से पइसा देबे के पड़ेला.

ओने, खानपार गांव के ओह कमरा में, मेहरारू लोग के बतकही तेज हो गइल बा. एहि बीच आपन देह पर आपने काबू ना होखे से नाराज, एगो तेज आवाज एह बतकही के बीच गूंजत हवे. बरिस भर के लरिका के गोदी में लेले एगो जवान महतारी खिसिया के पूछत बारी, “तोहर का मतलब कि कवन फैसला करी? हमार देह ह, त हमहीं फैसला करब नू. केहू दोसर फैसला काहे करी? हमरा मालूम बा कि हमरा दोसर लइका ना चाहीं. आ हम गोली ना खाए के चाहत बानी. त अगर हम पेट से हो गइनी, त का भइल. सरकार के पास हमनी खातिर दवाई बा, बा कि ना? हम दवाई (इंजेक्टेबल गर्भनिरोधक) ले लेब. बाकिर फैसला हमहीं करब.”

एह सभ के खिलाफ एगो मेहरारू के आवाज उठल हवे, अइसन आवाज जे बिरले उठेला. फिर भी, बतकही शुरू भइला घरिया रमिला भारवाड़ कहले रहस, “अब समय, हो सके तनी बदल गइल होखे.” खैर, शायद अइसन भइल बा, तनी-मनी.

एह कहानी में सभे मेहरारू लोग के नाम, उनकर गोपनीयता बनाए रखे खातिर बदल दिहल गइल बा.

संवेदना ट्रस्ट के जानकी वसंत के, उनकर सहयोग खातिर विशेष आभार

पारी आ काउंटरमीडिया ट्रस्ट देश भर में गंउवा के किशोरी आउर जनाना के केंद्र में रख रिपोर्टिंग करेला. राष्ट्रीय स्तर पर चले वाला ई प्रोजेक्ट ' पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया ' के पहल के हिस्सा बा. इहंवा हमनी के मकसद आम जनन के आवाज आ ओह लोग के जीवन के अनभव के मदद से महत्वपूर्ण बाकिर हाशिया पर पड़ल समुदायन के हालत के पड़ता कइल बा.

रउआ ई लेख के छापल चाहत कइल चाहत बानी? बिनती बा [email protected] पर मेल करीं आ एकर एगो कॉपी [email protected] पर भेज दीहीं .

अनुवाद: स्वर्ण कांता

Pratishtha Pandya

Pratishtha Pandya is a Senior Editor at PARI where she leads PARI's creative writing section. She is also a member of the PARIBhasha team and translates and edits stories in Gujarati. Pratishtha is a published poet working in Gujarati and English.

Other stories by Pratishtha Pandya
Illustrations : Antara Raman

Antara Raman is an illustrator and website designer with an interest in social processes and mythological imagery. A graduate of the Srishti Institute of Art, Design and Technology, Bengaluru, she believes that the world of storytelling and illustration are symbiotic.

Other stories by Antara Raman

P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought' and 'The Last Heroes: Foot Soldiers of Indian Freedom'.

Other stories by P. Sainath
Series Editor : Sharmila Joshi

Sharmila Joshi is former Executive Editor, People's Archive of Rural India, and a writer and occasional teacher.

Other stories by Sharmila Joshi
Translator : Swarn Kanta

Swarn Kanta is a journalist, editor, tech blogger, content writer, translator, linguist and activist.

Other stories by Swarn Kanta