यह क्लासिक भारतीय सिनेमा का रेगिस्तान में लड़ाई का एक दृश्य है। नायक, जिसके पीछे रेत के टीले हैं जिन पर कहीं-कहीं छोटी घास उग रही है, खलनायक का कचूमर बनाने के लिए बंजर भूमि की जलती हुई रेत से उठता है। प्रकृति द्वारा पहले से ही दी गई बहुत सारी गर्मी और धूल को बढ़ाते हुए, वह फिल्म को सुखद अंत (खलनायकों को छोड़कर) तक ले जाता है। अनगिनत भारतीय फिल्मों ने राजस्थान के कुछ उजाड़ इलाकों में उन दृश्यों का मंचन किया है। या मध्यप्रदेश में चंबल घाटी के बीहड़ों में भी।
केवल, इस शुष्क उजाड़ दृश्य (वीडियो क्लिप देखें) में राजस्थान या चंबल की कोई जगह इस्तेमाल नहीं की गई। इसकी शूटिंग दक्षिणी प्रायद्वीप के बहुत भीतर, आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र में की गई थी। अनंतपुर जिले में लगभग 1,000 एकड़ का यह विशिष्ट इलाका – जो कभी बाजरा के खेतों से भरा होता था – कई दशकों से रेगिस्तान बना हुआ है। यह सब अक्सर विरोधाभासी कारकों से हुआ है – और इसने कुछ ऐसी जगहों की रचना की है जिसका पता लगाने के लिए फिल्म निर्माता अपने लोकेशन स्काउट्स को भेजते रहे हैं।
दरगाह होन्नूर गांव में, जहां इस इलाके के बड़े ज़मींदार रहते हैं, लोगों को यह समझाना मुश्किल था कि हम फिल्म की शूटिंग के लिए जगह तलाश करने वाले लोग नहीं हैं। “यह किस फिल्म के लिए है? यह कब आ रही है?” यही उनका स्पष्ट सवाल था या उस समय उनके दिमाग में चल रहा था। कुछ लोगों को जब यह पता चला कि हम पत्रकार हैं, तो उनकी रूचि फौरन ही समाप्त हो गई।
इस जगह को मश्हूर करने वाली तेलुगु फिल्म – जयम मनडे रा (विजय हमारी है) – के निर्माताओं ने यहां लड़ाई के उन दृश्यों की शूटिंग 1998 से 2000 के बीच की। किसी भी मेहनती वाणिज्यिक फिल्म निर्माताओं की तरह, उन्होंने रेगिस्तान के प्रभाव को बढ़ाने के लिए अपने ‘सेट’ के साथ छेड़छाड़ की। “हमें अपनी फसल को उखाड़ना पड़ा (जिसके लिए उन्होंने हमें मुआवजा दिया था),” 45 वर्षीय पुजारी लिंगन्ना कहते हैं जिनके परिवार के पास 34 एकड़ ज़मीन है जिसमें लड़ाई की शूटिंग हुई थी। “हमने कुछ वनस्पति और छोटे पेड़ों को भी हटाया, ताकि यह ज़्यादा वास्तविक दिखाई दे,” बाकी का काम कैमरा के कुशल प्रबंधन तथा फिल्टर के चतुर उपयोग ने किया।
यदि जयम मनडे रा के निर्माता आज 20 साल बाद, इसकी अगली कड़ी की शूटिंग कर रहे होते, तो उन्हें बहुत कम मेहनत करनी पड़ती। समय तथा संतप्त प्रकृति, और अथक मानव हस्तक्षेप ने रेगिस्तान को फैला कर इतना कर दिया है जितने की वह मांग कर सकते थे।
इस शुष्क उजाड़ दृश्य (वीडियो क्लिप देखें) में राजस्थान या चंबल की कोई जगह इस्तेमाल नहीं की गई। इसकी शूटिंग दक्षिणी प्रायद्वीप के बहुत भीतर, आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र में की गई थी
लेकिन यह एक जिज्ञासु रेगिस्तानी इलाका है। खेती अभी भी होती है – क्योंकि भूजल अभी भी सतह के बहुत करीब है। “हमें इस इलाके में केवल 15 फीट नीचे पानी मिल जाता है,” लिंगन्ना के बेटे, पी होन्नूरेड्डी कहते हैं। अनंतपुर के अधिकांश हिस्सों में, बोरवेलों में 500-600 फीट से ऊपर पानी नहीं मिलता। जिले के कुछ हिस्सों में, उन्होंने 1,000 फुट के निशान को तोड़ दिया है। लेकिन यहां, जिस समय हम बात कर रहे हैं, चार इंच के बोरवेल में पानी लबालब भरा हुआ है। इतना पानी, सतह के इतना करीब, वह भी इस गर्म और रेतीले इलाके में?
“यह पूरा क्षेत्र एक फैली हुई नदी की ज़मीन में स्थित है,” पास के एक गांव के किसान, पलथुरु मुकन्ना बताते हैं। कौन सी नदी? हम तो कुछ नहीं देख सकते। “उन्होंने [लगभग पांच] दशकों पहले, हुन्नूर से करीब 25-30 किलोमीटर दूर, यहां से होकर बहने वाली वेदवती नदी पर एक बांध बनाया था। लेकिन हमारे इलाके में वेदवती (तुंगभद्रा की एक सहायक नदी – जिसे अघारी भी कहा जाता है) सूख गई।”
“वास्तव में यही हुआ है,” (अनंतपुर के ग्रामीण विकास ट्रस्ट के) पारिस्थितिकी केंद्र के मल्ला रेड्डी कहते हैं – कुछ ही लोग इस क्षेत्र को जानते हैं जिनमें यह भी शामिल हैं। “और हो सकता है कि नदी सूख गई हो लेकिन, सदियों से, इसने पानी के एक भूमिगत जलाशय को बनाने में मदद की जिसे अब लगातार खुदाई करके निकाला जा रहा है। इतनी गति से कि यह आने वाली आपदा का संकेत दे रही है।”
इस आपदा के आने में देर नहीं लगेगी। “यहां 20 साल पहले मुश्किल से कोई कुआं था,” 46 वर्षीय किसान, वी. एल. हिमाचल कहते हैं, जिनका इस निर्जन क्षेत्र में 12.5 एकड़ खेत है। “यहां बारिश के पानी से खेती होती थी। लेकिन अब, लगभग 1,000 एकड़ में 300-400 बोरवेल हैं। और हमें 30-35 फीट की गहराई में पानी मिलता है, कभी-कभार उससे भी नीचे।” यानी हर तीन एकड़, या उससे भी कम में एक बोरवेल।
यह संख्या बहुत बड़ी है, अनंतपुर के लिए भी, जैसा कि मल्ला रेड्डी बताते हैं, जहां “करीब 270,000 बोरवेल हैं, हालांकि जिले की वहन क्षमता 70,000 है। और इस वर्ष उनमें से लगभग आधा सूख गए हैं।”


बीस साल पहले, पुजारी लिंगन्ना (बाएं: अपने बेटे पी. होन्नूरेड्डी के साथ दाईं ओर) को एक फिल्म की शूटिंग के लिए वनस्पति को उखाड़ना पड़ा था। आज, समय और मानवीय गतिविधियों ने उस रेगिस्तान को और भी बढ़ाया है। (तस्वीरें: बाएं: राहुल एम/ PARI। दाएं: पी. साईनाथ/ PARI)
तो इन बंजर इलाकों में बोरवेल किस लिए हैं? किस चीज़ की खेती की जा रही है? हम जिस इलाके में घूम रहे हैं, वहां चारों ओर नज़र आने वाली चीज़ जिले की सर्वव्यापी मूंगफली की फसल नहीं है, बल्कि बाजरे की है। इस बाजरे की खेती यहां बीज को कई गुणा बढ़ाने के लिए की जाती है। खाने या बाजार के लिए नहीं, बल्कि बीज कंपनियों के लिए जिन्होंने इस काम के लिए किसानों को अनुबंधित किया है। आप निकटवर्ती क्यारियों में बड़े करीने से लगाए गए नर और मादा पौधों को देख सकते हैं। कंपनियां बाजरे की दो अलग-अलग प्रजातियों से एक संकर बना रही हैं। इस काम में ढेर सारा पानी लगेगा। बीज निकालने के बाद पौधे में जो कुछ बचेगा, वह चारा के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।
“इस बीज प्रतिकृति कार्य के लिए हमें 3,800 रुपये प्रति क्विंटल मिलते हैं,” पुजारी लिंगन्ना कहते हैं। इसमें दरकार मेहनत और संरक्षण को देखते हुए, यह कम प्रतीत होता है – और यह एक सच्चाई है कि कंपनियां उन बीजों को समान वर्ग के किसानों को बहुत ऊंची कीमतों पर बेचेंगी। इस इलाके की एक और किसान, वाई. एस. शांतम्मा कहती हैं कि उनके परिवार को 3,700 रुपये प्रति क्विंटल मिलता है।
शांतम्मा और उनकी बेटी वंदक्षी कहती हैं कि यहां खेती करने की समस्या पानी नहीं है। “हमें गांव में भी पानी मिलता है, हालांकि हमारे घर में पाइप वाला कोई कनेक्शन नहीं है।” उनका सिरदर्द रेत है जो – पहले से मौजूद भारी मात्रा के अलावा – बहुत तेज़ी से जमा हो सकता है। और कई फुट गहरी रेत पर थोड़ी दूर चलना भी थका देने वाला हो सकता है।
“यह आपके द्वारा किए गए काम को नष्ट कर सकता है,” मां और बेटी का कहना है। पी. होन्नूरेड्डी सहमत हैं, और हमें रेत के टीले के नीचे वह जगह दिखाते हैं जहां उन्होंने बड़ी मेहनत से पौधों की क्यारियां बनाई हैं – चार दिन पहले ही। अब वे केवल रेत में ढंकी रेखाएं हैं। इस जगह पर धूल भरी आंधी चलती है, जो तेज़ी से शुष्क होते क्षेत्र का हिस्सा है जहां से उठने वाली तेज़ हवाएं गांव तक पहुंचती हैं।
“साल के तीन महीने – इस गांव में रेत की बारिश होती है,” रेगिस्तान के एक अन्य काश्तकार, एम. बाशा कहते हैं। “यह हमारे घरों में आती है; हमारे भोजन में गिरती है।” हवाएं रेत को उड़ा कर उन घरों में भी ले जाती हैं, जो रेत के टीले के बहुत ज़्यादा करीब नहीं हैं। जाली या अतिरिक्त दरवाज़े हमेशा काम नहीं करते हैं। इसिक्का वर्शम [रेत की बारिश] अब हमारे जीवन का हिस्सा है, हम इसी के साथ रहते हैं।”


बाएं: होन्नूरेड्डी की बड़ी मेहनत से लगाई गई पौधों की क्यारियां चार दिनों के भीतर ही रेत से ढंक गई थीं। दाएं: वाई. एस. शांतम्मा और उनकी बेटी वंदक्षी कहती हैं, ‘यह [रेत] आपके द्वारा किए गए काम को नष्ट कर सकती है’। (तस्वीरें: बाएं: पी. साईनाथ/PARI। दाएं: पी. साईनाथ/PARI)
डी. होन्नूर गांव के लिए रेत कोई नई चीज़ नहीं है। “लेकिन हां, उनकी तीव्रता बढ़ गई है,” हिमाचल कहते हैं। बहुत से झाड़ीदार पौधे और छोटे पेड़ जो हवा को रोकने का काम करते थे, अब खत्म हो चुके हैं। हिमाचल वैश्वीकरण और बाजार अर्थशास्त्र के प्रभाव के बारे में पूरी जानकारी से बात करते हैं। “अब हम हर चीज़ की गणना नकदी में करते हैं। झाड़ियां, पेड़-पौधे और वनस्पतियां इसलिए चली गईं क्योंकि लोग ज़मीन के हर एक इंच को व्यावसायिक खेती के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे।” और “अगर रेत उस समय गिरने लगे जब बीज अंकुरित हो रहे हों, तो सब कुछ तबाह हो जाता है,” 55 वर्षीय किसान एम. तिप्पैय्यह कहते हैं। पानी मौजूद होने के बावजूद पैदावार कम है। “हमें एक एकड़ से तीन क्विंटल मूंगफली मिलती है, ज़्यादा से ज़्यदा चार,” 32 वर्षीय किसान, के. सी. होन्नूर स्वामी कहते हैं। जिले की औसत उपज लगभग पांच क्विंटल है।
हवा के प्राकृतिक बाधकों में उन्हें कोई मूल्य नहीं दिखता? “वे केवल उन पेड़ों की ओर ध्यान देंगे जिनका वाणिज्यिक मूल्य है,” हिमाचल कहते हैं। जो, इन स्थितियों के लिए अनुपयुक्त हैं, यहां बिल्कुल नहीं उग सकते। “और वैसे भी, अधिकारी कहते रहते हैं कि वे पेड़ लगाने में मदद करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है।”
पलथुरु मुकन्ना बताते हैं कि “कुछ साल पहले, कई सरकारी अधिकारी निरीक्षण के लिए रेत के टील वाले क्षेत्र में आए थे।” रेगिस्तान की यात्रा बुरी तरह समाप्त हुई, उनकी एसयूवी रेत में ही धंस गई, जिसे ग्रामीणों ने ट्रैक्टर से खींच कर बाहर निकाला। “हमने तभी से, उनमें से किसी और को नहीं देखा है,” मुकन्ना कहते हैं। किसान, मोखा राकेश कहते हैं कि कभी-कभार ऐसा भी होता है “जब बस गांव के उस तरफ बिल्कुल भी नहीं जा सकती।”
झाड़ी और जंगल की समाप्ति रायलसीमा के इस पूरे क्षेत्र की समस्या है। अकेले अनंतपुर जिले में, 11 प्रतिशत क्षेत्र को ‘वन’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। लेकिन जंगल वाला क्षेत्र अब घटकर 2 प्रतिशत से भी कम रह गया है। इसका मिट्टी, हवा, पानी और तापमान पर अपरिहार्य प्रभाव पड़ा है। अनंतपुर में जो एकमात्र बड़ा जंगल आप देख रहे हैं, वह पवनचक्की का जंगल है – हज़ारों की संख्या में – जो चारों ओर दिखाई देता है, यहां तक कि इस छोटे रेगिस्तान की सीमा पर भी। ये पवनचक्की कंपनियों द्वारा खरीदे गए या पट्टे पर दी गई भूमि पर बनाई गई हैं।
वापस डी. होन्नूर में, रेगिस्तानी भूखंड पर खेती करने वाले किसानों का एक समूह हमें बताता है कि यहां हमेशा से यही हाल रहा है। फिर वे इसके विपरीत दमदार साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। रेत यहां हमेशा रही है, हां। लेकिन बालू के तूफ़ान पैदा करने वाला उनका बल बढ़ गया है। पहले ज़्यादा झाड़ी और जंगल था। लेकिन अब, बहुत कम रह गया है। उनके पास हमेशा पानी हुआ करता था, हां, लेकिन हमें बाद में पता चला कि नदी सूख गई है। दो दशक पहले बहुत कम बोरवेल हुआ करते थे, अब सैकड़ों हैं। उनमें से हर एक, पिछले दो दशकों में पड़ने वाले कठोर मौसम की संख्या को याद करता है।
वर्षा का स्वभाव बदल गया है। “जब हमें बारिश की ज़रूरत होती है, तो मैं कहुंगा कि वे 60 फीसदी कम होती हैं,” हिमाचल कहते हैं। “पिछले कुछ वर्षों में, उगादी [तेलुगु नए साल के आसपास, आमतौर पर अप्रैल में] कम बारिश हुई।” अनंतपुर को दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्व दोनों ही मानसून छूते हैं, लेकिन किसी एक का भी पूरा लाभ नहीं मिलता।

ऊपर की पंक्ति: रेत चारों ओर फैल रही है, रेगिस्तान में खेती करने वाले एक और किसान, एम. बाशा कहते हैं, ‘यह हमारे घरों में आती है; हमारे भोजन में गिरती है’। नीचे की पंक्ति: अनंतपुर का एकमात्र बड़ा जंगल अब दूर तक, हर जगह पवन चक्कियों का जंगल है। (तस्वीरें: राहुल एम./PARI)
उन वर्षों में भी, जब जिले में 535 मिमी की वार्षिक औसत वर्षा होती है – समय, फैलाव और छिड़काव बहुत ही अनियमित रहा है। पिछले कुछ वर्षों से बारिश, फसल से गैर-फसल वाले मौसमों में होने लगी है। कभी-कभी, शुरू के 24-48 घंटों में भारी वर्षा होती है और उसके बाद लंबे दिनों तक मौसम सूखा रहता है। पिछले साल, कुछ मंडलों ने फसल के मौसम (जून से अक्टूबर) के दौरान लगभग 75 दिनों तक सूखे का सामना किया। अनंतपुर, जहां की 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और कुल श्रमिकों में से 80 प्रतिशत लोग कृषि-कार्य (किसान या मज़दूर के रूप में) करते हैं, वहां के लिए यह विनाशकारी साबित होता है।
“पिछले दो दशकों में से हर एक में, अनंतपुर में सिर्फ दो ‘सामान्य’ साल रहे हैं,” इकोलॉजी सेंटर के मल्ला रेड्डी कहते हैं। “शेष 16 वर्षों में से प्रत्येक में, जिले के दो-तिहाई से तीन-चौथाई हिस्से को सूखा-प्रभावित घोषित किया गया है। उस अवधि से पहले के 20 वर्षों में, हर दशक में तीन अकाल होते थे। जो बदलाव 1980 के दशक के अंत में शुरू हुआ, वह हर साल तेज़ होता चला गया।”
किसी ज़माने में बाजरा की बहुतायत वाला यह जिला तेज़ी से मूंगफली जैसी व्यावसायिक फसलों की ओर बढ़ने लगा। और इसके नतीजे में, यहां भारी संख्या में बोरवेल की खुदाई होने लगी। (नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अब यहां “कुछ ऐसे इलाके हैं जहां पानी का दोहन 100 प्रतिशत से ज़्यादा हो गया है।”)
“चालीस साल पहले, एक स्पष्ट पैटर्न था – 10 वर्षों में तीन सूखे – और किसान जानते थे कि क्या रोपण करना है। अलग-अलग प्रकार की 9 से 12 फसलें और एक स्थिर कृषि चक्र हुआ करता था,” सी. के. ‘बबलू’ गांगुली कहते हैं। वह टिम्बकटू कलेक्टिव नामक एनजीओ के अध्यक्ष हैं, जिसने तीन दशकों तक इस क्षेत्र में ग्रामीण गरीबों की आर्थिक बेहतरी पर ध्यान केंद्रित किया है। स्वयं चार दशकों तक यहां काम करने की वजह से, उन्हें इस क्षेत्र की खेती के बारे में बहुत कुछ जानकारी हो गई है।
“मूंगफली [अब अनंतपुर में खेती के 69 प्रतिशत क्षेत्र को कवर करती है] ने हमारे साथ वही किया जो अफ्रीका में साहेल के साथ। जिस एक-फसली खेती को हमने अपनाया, उसमें सिर्फ पानी की स्थिति में ही बदलाव नहीं हुआ। मूंगफली छाया नहीं कर सकती, लोग पेड़ों को काट रहे हैं। अनंतपुर की मिट्टी नष्ट कर दी गई। बाजरा समाप्त हो गया। नमी चली गई है, जिससे बारिश वाली खेती की ओर लौटना मुश्किल हो रहा है।” फसल में बदलाव ने खेती में महिलाओं की भूमिका को भी कम कर दिया। परंपरागत रूप से, वे यहां उगने वाली वर्षा आधारित विविध फसलों के बीज की संरक्षक थीं। किसानों ने जैसे ही नकदी फसल संकर (जिसने अनंतपुर में मूंगफली की जगह ले ली है) के लिए बाजार से बीज खरीदना शुरू किया, महिलाओं की भूमिका काफी हद तक घट कर मज़दूरों की हो गई। इसके साथ ही, दो पीढ़ियों के दौरान, किसानों द्वारा एक ही खेत में विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाने का कौशल भी जाता रहा।

लिंगन्ना के पोते, होन्नूर स्वामी (ऊपर की पंक्ति में बाईं ओर) और नागराजू (ऊपर की पंक्ति में दाएं) अब रेगिस्तानी किसान हैं, जिनके ट्रैक्टर और बैलगाड़ी (नीचे की पंक्ति) रेत में गहरी रेखाएं खींचते हैं। (तस्वीरें: ऊपर बाएं और नीचे बाएं: राहुल एम./PARI। ऊपर दाएं और नीचे दाएं: पी. साईनाथ/PARI)
चारे की फसलें अब खेती वाले कुल क्षेत्र का 3 प्रतिशत से भी कम हैं। “अनंतपुर में कभी देश के छोटे-छोटे जुगाली करने वाले पशुओं की संख्या सबसे ज़्यादा थी,” गांगुली कहते हैं। “जुगाली करने वाले छोटे पशु कुरुबा जैसे पारंपरिक चरवाहों के प्राचीन समुदायों के लिए सबसे अच्छी संपत्ति हैं – मोबाइल संपत्ति। पारंपरिक चक्र, जिसमें चरवाहों के झुंड फसल कटाई के बाद किसानों के खेतों को गोबर और मूत्र के रूप में खाद प्रदान करते थे, अब फसल के बदलते पैटर्न तथा रासायनिक कृषि के कारण बाधित हो गया है। इस क्षेत्र के लिए बनाई जा रही योजना गरीबों के लिए प्रतिकूल साबित हुई है।”
होन्नूर में हिमाचल अपने आसपास की कृषि जैव विविधता और उसके परिणामों को समझते हैं। “किसी ज़माने में, इसी गांव में, हमारे पास बाजरा, लोबिया, कबूतर मटर, रागी, कांगणी, चना, सेम हुआ करते थे...” वह लंबी सूची सुनाते हैं। “वर्षा आधारित कृषि में फ़सल उगाना तो आसान है, लेकिन यह हमारे लिए नकदी नहीं लाती है।” मूंगफली ने कुछ समय के लिए यह काम ज़रूर किया।
मूंगफली का फसल चक्र लगभग 110 दिनों का होता है। उनमें, यह केवल मिट्टी को ढंकती है, उसे 60-70 दिनों तक कटाव से बचाती है। उस युग में जब नौ अलग-अलग बाजरा और दालें उगाई जाती थीं, तो वे हर साल जून से फरवरी तक ऊपरी मिट्टी को एक सुरक्षात्मक छाया प्रदान करती थीं, तब कोई न कोई फसल जमीन पर हमेशा रहती थी।
वापस होन्नूर में, हिमाचल चिंतनशील है। वह जानते हैं कि बोरवेल और नकदी फसलों ने किसानों को बहुत लाभ पहुंचाया है। वह उसमें भी गिरावट की प्रवृत्ति देख रहे हैं – और आजीविका सिकुड़ने के कारण पलायन में वृद्धि को भी। “हमेशा 200 से अधिक परिवार बाहर जाकर काम करना चाहते हैं,” हिमाचल कहते हैं। यानी 2011 की जनगणना के अनुसार अनंतपुर के बोम्मनहल मंडल के इस गांव के 1,227 घरों में से एक छठा। “सभी घरों में से लगभग 70-80 प्रतिशत कर्ज में डूबे हुए हैं,” वह आगे कहते हैं। दो दशकों से अनंतपुर में कृषि संकट काफी गहराया हुआ है – और यह आंध्र प्रदेश का वह जिला है जो किसान आत्महत्याओं से सबसे ज्यादा प्रभावित है।



बाएं: पुजारी लिंगन्ना (तस्वीर: पी. साईनाथ/PARI)। बीच में: पलथुरु मुकन्ना (तस्वीर: राहुल एम./PARI)। दाएं: वी. एल. हिमाचल (तस्वीर: पी. साईनाथ/PARI)
“बोरवेल का बढ़िया समय समाप्त हो चुका है,” मल्ला रेड्डी कहते हैं। “यही हाल नकदी फसल और एकल कृषि का है।” तीनों में अभी भी वृद्धि हो रही है, हालांकि, उपभोग के लिए उत्पादन से “अज्ञात बाजारों के लिए उत्पादन” तक के उस मौलिक बदलाव से प्रेरित होकर।
अगर जलवायु परिवर्तन बस प्रकृति द्वारा अपने रीसेट बटन को दबाने के बारे में है, तो होन्नूर और अनंतपुर में हमने क्या देखा था? इसके अलावा, जैसा कि वैज्ञानिक हमें बताते हैं, जलवायु परिवर्तन बहुत विशाल प्राकृतिक क्षेत्रों और इलाकों में होता है – होन्नूर और अनंतपुर प्रशासनिक इकाइयां हैं, केवल अल्पवयस्क, अर्हता प्राप्त करने के लिए बहुत ही छोटी। क्या यह हो सकता है कि ज़्यादा बड़े इलाकों के कैन्वस में इतना अधिक बदलाव कभी-कभी उनके भीतर उप-क्षेत्रों की मौजूदा अजीब विशेषताओं को बढ़ा सकते हैं?
यहां परिवर्तन के लगभग सभी तत्व मानवीय हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप हुए। ‘बोरवेल महामारी’, वाणिज्यिक फसल और एकल कृषि को भारी संख्या में अपनाना; जैव विविधता की समाप्ति जो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अनंतपुर को सबसे अच्छी रक्षा प्रदान कर सकती थी; जलदायी स्तर का लगातार दोहन; इस अर्ध-शुष्क क्षेत्र में जो थोड़ा-बहुत वन क्षेत्र था उसकी तबाही; घास के मैदान की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाना और मिट्टी का गंभीर क्षरण; रासायनिक कृषि की उद्योग संचालित गहनता; खेत और जंगल, चरवाहों और किसानों के बीच सहजीवी संबंधों का समाप्त होते जाना – और आजीविका का नुकसान; नदियों की मौत। इन सभी ने तापमान, मौसम और जलवायु को स्पष्ट रूप से प्रभावित किया है – जिन्होंने बदले में इन प्रक्रियाओं को और बढ़ा दिया है।
यदि मानव एजेंसी, अर्थशास्त्र और विकास के मॉडल द्वारा संचालित होने के कारण पागल हो चुकी है, हम पर होने वाले परिवर्तनों की एक प्रमुख कारक है, तो इस क्षेत्र और इस जैसे दूसरे कई क्षेत्रों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
“शायद हमें बोरवेल को बंद कर देना चाहिए और वर्षा आधारित खेती की ओर लौट जाना चाहिए,” हिमाचल कहते हैं। “लेकिन यह बहुत मुश्किल है।”
पी. साईनाथ पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (PARI) के संस्थापक संपादक हैं।
जलवायु परिवर्तन पर PARI की राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग, आम लोगों की आवाज़ों और जीवन के अनुभव के माध्यम से उस घटना को रिकॉर्ड करने के लिए UNDP-समर्थित पहल का एक हिस्सा है।
कवर फोटो: राहुल एम./PARI
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हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़