“गर्मी से मेरी पीठ जल गई है,” बजरंग गोस्वामी, गजुवास गांव के ठीक बाहर, खेजड़ी के पेड़ों के झुरमुट की छाया में ज़मीन पर बैठे हुए कहते हैं। “गर्मी बढ़ रही है, फ़सल का उत्पादन घट रहा है,” वह कटे हुए बाजरा के ढेर की ओर देखते हुए कहते हैं। एक ऊंट पास में खड़ा है और राजस्थान के चूरू जिले की तारानगर तहसील में उस 22 बीघा खेत पर सूखी घास खा रहा है, जिस पर वह और उनकी पत्नी राज कौर बटाईदार किसान के रूप में खेती करते हैं।
“सिर के ऊपर सूरज गर्म है, पैरों के नीचे रेत गर्म है,” तारानगर के दक्षिण में स्थित सुजानगढ़ तहसील की गीता देवी नायक कहती हैं। गीता देवी, जो कि एक भूमिहीन विधवा हैं, भगवानी देवी चौधरी के परिवार के स्वामित्व वाले खेत पर मज़दूरी करती हैं। दोनों ने गुदावरी गांव में अभी-अभी, शाम के लगभग 5 बजे अपना काम पूरा कर लिया है। “गर्मी ही गर्मी पड़े [पड़ती है] आजकल,” भगवानी देवी कहती हैं।
उत्तरी राजस्थान के चूरू जिले में, जहां ग्रीष्मकाल में रेतीली ज़मीन साएं-साएं करती है और मई-जून में हवा तपती भट्टी की तरह महसूस होती है, गर्मी – और यह कैसे तीव्र होती जा रही है – के बारे में बातचीत आम बात है। उन महीनों में तापमान आसानी से 40 डिग्री के पार चला जाता है। पिछले महीने ही, मई 2020 में, तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था – और 26 मई के लिए दुनिया में सबसे अधिक था, जैसा कि समाचार रिपोर्टों में बताया गया।
इसलिए पिछले साल, जब चूरू में तापमान ने अपना रिकॉर्ड तोड़ा और जून 2019 की शुरुआत में पारा 51 डिग्री सेल्सियस के स्तर तक पहुंच गया – जो कि पानी के क्वथनांक के आधे से अधिक है – तो वहां के कई लोगों के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। “मुझे याद है, लगभग 30 साल पहले भी यह 50 डिग्री तक पहुंच गया था,” 75 वर्षीय हरदयालजी सिंह, जो कि एक सेवानिवृत्त स्कूली शिक्षक और ज़मींदार हैं, गजुवास गांव में अपने बड़े घर में एक खाट पर लेटते हुए कहते हैं।
छह महीने बाद, कुछ वर्षों में दिसंबर-जनवरी तक, चूरू में तापमान शून्य से नीचे देखा गया है। और फ़रवरी 2020 में. भारत के मौसम विभाग ने पाया कि भारत के मैदानी इलाक़ों में सबसे कम न्यूनतम तापमान, 4.1 डिग्री, चूरू का है।

सुजानगढ़ तहसील , चूरू की गीता देवी और भगवानी देवी: ‘गर्मी ही गर्मी पड़े [पड़ती है] आज कल ’
तापमान के इस विस्तृत वृत्तखण्ड से परे – माइनस 1 से 51 डिग्री सेल्सियस तक – जिले के लोग अधिकतर केवल गर्म छोर की बात करते हैं। वे ना तो जून 2019 के नाटकीय 50-से अधिक डिग्री की बात करते हैं और ना ही पिछले महीने की 50 डिग्री के बारे में, बल्कि लंबे समय तक रहने वाली उस गर्मी की बात करते हैं जो अन्य मौसमों के आगे-पीछे पड़ती है।
“अतीत में वह [तपती हुई गर्मी] केवल एक या दो दिन तक ही रहती थी,” चूरू के निवासी और पड़ोस के सीकर जिले के एसके गवर्नमेंट कॉलेज के पूर्व प्रधानाचार्य, प्रोफ़ेसर एचआर इसरान कहते हैं, जिन्हें कई लोग उस्ताद मानते हैं। “अब ऐसी गर्मी कई दिनों तक पड़ती है। पूरी गर्मी का विस्तार हो चुका है।”
जून 2019 में, अमृता चौधरी याद करती हैं, “हम दोपहर में सड़क पर नहीं चल सकते थे, हमारी चप्पलें तारकोल से चिपकने लगती थीं।” फिर भी, दूसरों की तरह, चौधरी, जो सुजानगढ़ शहर में बांधनी के कपड़ों का उत्पादन करने वाली एक संस्था, दिशा शेखावटी चलाती हैं, गर्मियों के गहराते जाने से अधिक चिंतित हैं। “इस गर्म क्षेत्र में भी, गर्मी बढ़ रही है और समय से पहली ही शुरू हो जाती है,” वह बताती हैं।
“गर्मियों का समय डेढ़ महीने बढ़ गया है,” गुदावरी गांव की भगवानी देवी का अनुमान है। उनकी तरह, चूरू जिले के कई गांव के लोग भी बताते हैं कि मौसम कैसे आगे-पीछे हो रहे हैं – गर्मी के फैलते दिनों ने अब सर्दी के शुरूआती कुछ हफ़्तों पर क़ब्जा कर लिया है और बीच के मानसून के महीनों को भी संकुचित करते जा रहे हैं – और कैसे 12 महीने का कैलेंडर मिश्रित हो गया है।
ये जलवायु में होने वाले परिवर्तन हैं – ना कि 51 डिग्री सेल्सियस का एक सप्ताह या पिछले महीने 50 डिग्री के कुछ दिन – जिससे वे चिंतित हैं।
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चूरू में 2019 में, 1 जून से 30 सितंबर के बीच 369 मिमी बारिश हुई। यह मानसून के उन महीनों के लिए अपने सामान्य औसत से लगभग 314 मिमी ऊपर था। पूरा राजस्थान – भारत का सबसे बड़ा और शुष्क राज्य, जो देश के कुल क्षेत्रफल का 10.4 प्रतिशत हिस्सा है – एक शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र है, जहां पर वार्षिक लगभग 574 मिमी औसत वर्षा होती है (सरकारी आंकड़ों के अनुसार)।



तारानगर तहसील में गजुवास गांव के बाहर के उस खेत में जिस पर बजरंग गोस्वामी और उनकी पत्नी राज कौर बटाईदार के रूप में खेती करते हैं
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लगभग 70 मिलियन में से लगभग 75 प्रतिशत लोगों के लिए खेती और पशुपालन ही मुख्य व्यवसाय है। चूरू जिले में, लगभग 2.5 मिलियन लोगों में से 72 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं – जहां पर कृषि अधिकतर वर्षा आधारित है।
समय के साथ, कई लोगों ने बारिश पर इस निर्भरता को कम करने की कोशिश की है। “1990 के दशक के बाद से, यहां बोरवेल खोदने के प्रयास हुए हैं [जो 500-600 फीट गहरा हो गया है], लेकिन यह [भूजल] लवणता के कारण बहुत सफल नहीं रहा है,” प्रोफ़ेसर इसरान बताते हैं। इस बीच, जिले की छह तहसीलों के 899 गांवों में, “कुछ समय के लिए, कुछ किसान [बोरवेल के पानी का उपयोग करते हुए] मूंगफली जैसी दूसरी फ़सल उगा सकते थे। लेकिन उसके बाद ज़मीन बहुत ज़्यादा सूख गई और कुछ गांवों को छोड़कर अधिकांश बोरवेल बंद हो गए।”
राजस्थान राज्य के शुद्ध बुवाई क्षेत्र का 38 प्रतिशत (या 62,94,000 हेक्टेयर) क्षेत्र सिंचित है, जलवायु परिवर्तन के लिए राजस्थान राज्य की कार्य योजना ( आरएसएपीसीसी , 2010) बताती है। चूरू में, यह मुश्किल से 8 प्रतिशत है। हालांकि अभी भी निर्माणाधीन चौधरी कुंभाराम लिफ्ट कैनाल जिले के कुछ गांवों और खेतों को पानी उपलब्ध कराती है, फिर भी चूरू की कृषि और इसकी चार मुख्य ख़रीफ़ फ़सलें – बाजरा, मूंग, मोठ और ग्वार फली – काफ़ी हद तक वर्षा पर निर्भर रहती हैं।
लेकिन पिछले 20 वर्षों में बारिश का पैटर्न बदल गया है। चूरू में लोग दो व्यापक बदलावों की बात करते हैं: मानसून के महीने आगे खिसक गए हैं, और बारिश कुछ जगहों पर बहुत तेज़, कुछ जगहों पर छिटपुट होने लगी है।
पुराने किसान एक अलग अतीत की पहली तेज़ बारिश को याद करते हैं। “आषाढ़ [जून-जुलाई] के महीने में, हम देखते कि बिजली चमक रही है, जान रहे होते थे कि बारिश आने वाली है और इसीलिए [अपनी झोपड़ियों के अंदर जाने से पहले] जल्दी से खेतों में रोटियां बनाना शुरू कर देते थे,” जाट समुदाय से संबंध रखने वाले 59 वर्षीय किसान, गोवर्धन सहारण बताते हैं, जिनके संयुक्त परिवार के पास गजुवास गांव में 180 बीघा (लगभग 120 एकड़) ज़मीन है। जाट और चौधरी, दोनों ओबीसी समुदाय, चुरू के किसानों में प्रमुख हैं। “अब अक्सर बिजली चमकती है, लेकिन यह वहीं रुक जाती है – बारिश नहीं होती,” सहारण कहते हैं।


बजरंग गोस्वामी और राज कौर (बाएं) का कहना है कि उनकी ‘पीठ गर्मी से जल गई है’ , जबकि गोवर्धन सहारण (दाएं) जैसे पुराने किसान एक अलग अतीत की पहली बारिश की बात करते हैं
“मैं जब स्कूल में था, तो उत्तर दिशा में काले बादलों को देखकर, हम बता सकते थे कि बारिश होने वाली है – और आधे घंटे में बारिश होने लगती थी,” पड़ोसी सीकर जिले के सदिनसर गांव के 80 वर्षीय नारायण प्रसाद कहते हैं। “अब, अगर बादल आते भी हैं, तो वे कहीं और चले जाते हैं,” वह अपने खेत में, एक खाट पर बैठे हुए कहते हैं। प्रसाद ने बारिश का पानी जमा करने के लिए अपने 13 बीघा खेत (लगभग 8 एकड़) पर कंक्रीट का एक बड़ा टैंक बनाया है। (यह नवंबर 2019 में खाली था जब मैं उनसे मिली थी।)
यहां के किसान बताते हैं कि अब, जून के अंत में, जब बाजरा बोया जाएगा, पहली बारिश के बजाय नियमित रूप से बारिश कई हफ्ते बाद शुरू होती है और कई बार एक महीने पहले ही रुक जाती है, अगस्त के अंत तक।
इससे बुआई की योजना और समय-सारिणी तैयार करने में मुश्किल होती है। “मेरे नाना के समय में, वे हवाओं, तारों की स्थिति, पक्षियों के गाने के बारे में जानते थे – और उसी के आधार पर खेती के निर्णय लेते थे,” अमृता चौधरी बताती हैं।
“अब यह पूरी व्यवस्था टूट चुकी है,” लेखक-किसान दुलाराम सहारण कहते हैं। सहारण का संयुक्त परिवार तारानगर तहसील के भारंग गांव में लगभग 200 बीघा में खेती करता है।
मानसून देर से आने और जल्दी चले जाने के अलावा, वर्षा की तीव्रता कम हो गई है, भले ही वार्षिक औसत काफी स्थिर हो। “अब बारिश की तीव्रता कम हो गई है,” गजुवास में 12 बीघा ज़मीन पर खेती करने वाले धर्मपाल सहारण कहते हैं। “यह होगी, नहीं होगी, कोई नहीं जानता।” और वर्षा का फैलाव अनिश्चित है। “हो सकता है कि खेत के एक हिस्से में बारिश हो, लेकिन दूसरे हिस्से में न हो,” अमृता कहती हैं।


बाएं: गजुवास गांव के धर्मपाल सहारण कहते हैं , ‘ मैं चना नहीं बो रहा हूं क्योंकि सितंबर के बाद बारिश नहीं होती। ’ दाएं: सदिंसर गांव के किसान – रघुबीर बगड़िया (सेना के सेवानिवृत्त कैप्टन) , नारायण प्रसाद (पूर्व हाई स्कूल लेक्चरर) और शिशुपाल नारसारा (सेवानिवृत्त स्कूल प्रिंसिपल) – बदलते मौसम की बात करते हैं
आरएसएपीसीसी में भी 1951 से 2007 तक अत्यधिक वर्षा के उदाहरणों का वर्णन है। लेकिन, अध्ययनों का हवाला देते हुए, यह कहता है कि राज्य में समग्र वर्षा में कमी होने का अनुमान है और “जलवायु परिवर्तन के कारण वाष्पोत्सर्जन में वृद्धि हुई है।”
चूरू के किसान लंबे समय तक मानसून के बाद की वर्षा पर भी निर्भर रहे हैं जो अक्टूबर में और कुछ हद तक जनवरी-फरवरी के आसपास होती है, जो रबी की फसलों जैसे मूंगफली या जौ में पानी देने का काम करती थी। ये बौछार – “चक्रवात बारिश जो यूरोप और अमेरिका के बीच के महासागरों से होते हुए, सीमा पार पाकिस्तान में आती थी” – ज़्यादातर गायब हो चुकी है, हरदयालजी बताते हैं।
वह बारिश चना की फ़सल को भी पानी देती थी – तारानगर को देश का ‘चना का कटोरा’ के रूप में जाना जाता था, जो यहां के किसानों के लिए गर्व की बात थी, दुलारम कहते हैं। “फ़सल इतनी अच्छी हुआ करती थी कि हम आंगन में चना का ढेर लगा देते थे।” वह कटोरा अब लगभग खाली है। “2007 के बाद, मैं चना की बुवाई भी नहीं कर रहा हूं क्योंकि सितंबर के बाद बारिश नहीं होती है,” धरमपाल कहते हैं।
नवंबर में तापमान गिरना शुरू हो जाता था, जिससे चूरू में चना की फ़सल अच्छी तरह से अंकुरित होने लगती थी। लेकिन इन वर्षों में, यहां की सर्दियों में भी बदलाव आया है।
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आरएसएपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर के बाद, भारत में शीत लहरों की सबसे अधिक संख्या राजस्थान में रही है – जो कि 1901 से 1999 के बीच लगभग एक शताब्दी में 195 रही (उसके पास 1999 के बाद का कोई डेटा नहीं है)। इसमें बताया गया है कि राजस्थान जहां अधिकतम तापमान के लिए गर्मी का रुझान दिखाता है, वहीं यहां न्यूनतम तापमान का सर्दी का रुझान भी देखा गया है – जैसे कि चूरू का न्यूनतम तापमान फरवरी 2020 में, भारत के मैदानी इलाकों में सबसे कम, 4.4 डिग्री रहा।
फिर भी, चूरू में कई लोगों के लिए, सर्दी अब वैसी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। “मैं जब बच्चा था (लगभग 50 साल पहले), तो नवंबर की शुरुआत में हमें रज़ाई का इस्तेमाल करना पड़ता था... मैं सुबह में 4 बजे जब खेत पर जाता था, तो अपने चारों ओर कंबल लपेट लिया करता था,” गजुवास गांव में गोवर्धन सहारण कहते हैं। वह खेजड़ी के पेड़ों के बीच, कटे हुए बाजरा के अपने खेत में बैठे हुए कहते हैं, “मैं बनियान पहनता हूं – 11वें महीने में भी इतनी गर्मी पड़ रही है।”


चूरू शहर के प्रोफ़ेसर इसरान (बाएं) कहते हैं: ‘पूरी गर्मी का विस्तार हो गया है’। सुजानगढ़ में दिशा शेखावाटी संगठन की अमृता चौधरी (दाएं) का कहना है , ‘ इस गर्म क्षेत्र में भी गर्मी बढ़ रही है ’
“अतीत में, जब मेरी संस्था मार्च में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का कार्यक्रम आयोजित करती थी, तब हमें स्वेटर की आवश्यकता होती थी,” अमृता चौधरी कहती हैं। “अब हमें पंखे की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन यह सब साल-दर-साल बहुत अप्रत्याशित भी हो गया है।”
सुजानगढ़ शहर में, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सुशीला पुरोहित, 3-5 साल के बच्चों के एक छोटे समूह की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “वे सर्दियों के कपड़े पहनते थे। लेकिन अब नवंबर में भी गर्मी है। हमें यकीन नहीं है कि उन्हें क्या पहनने की सलाह दी जाएगी।”
चूरू में, जाने-माने स्तंभकार और लेखक, 83 वर्षीय माधव शर्मा इसे संक्षेप में इस तरह बयान करते हैं: “कंबल और कोट का ज़माना चला गया।”
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गर्मी के विस्तार ने कंबल और कोट के उन दिनों को निगल लिया है। “अतीत में, हमारे पास चार अलग-अलग मौसम होते थे [वसंत सहित],” माधवजी कहते हैं। “अब केवल एक मुख्य मौसम है – गर्मी का जो आठ महीने तक रहता है। यह बहुत लंबी अवधि का बदलाव है।”
“अतीत में मार्च का महीना भी ठंडा होता था,” तारानगर के कृषि कार्यकर्ता, निर्मल प्रजापति कहते हैं। “अब फरवरी के अंत में भी कभी-कभी गर्मी शुरू हो जाती है। और यह अगस्त में समाप्त होने के बजाय अक्टूबर या उससे भी आगे तक मौजूद रहती है।”
प्रजापति कहते हैं कि पूरे चूरू के खेतों में, इस विस्तारित गर्मी के कारण काम के घंटे बदल गए हैं – किसान और मज़दूर अपेक्षाकृत सुबह और शाम के शुरुआती घंटों के दौरान काम करके गर्मी को मात देने की कोशिश कर रहे हैं।
इसके अलावा, यह विस्तारित गर्मी भी अविश्वसनीय है। कुछ लोग याद करते हुए बताते हैं कि एक समय था, जब लगभग हर हफ्ते गांवों में आंधियां चलती थीं जो अपने पीछे हर जगह रेत की एक परत छोड़ जाती थी। रेल की पटरियां रेत से ढंक जाती थीं, रेत के टीले एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे, यहां तक कि अपने आंगन में सो रहा किसान भी रेत से ढंक जाता था। “पछुवा हवाएं आंधी लाती थीं,” सेवानिवृत्त स्कूली शिक्षक हरदयालजी याद करते हैं। “रेत हमारी चादरें भी भर देती थी। अब उस तरह की आंधी यहां नहीं आती है।”



बाएं: चक्रवाती बौछार अब पूरी तरह से गायब हो गई है, सेवानिवृत्त शिक्षक और ज़मींदार हरदयालजी सिंह कहते हैं। बीच में: सुजानगढ़ की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सुशीला पुरोहित कहती हैं , ‘ नवंबर में भी गर्मी रहती है ’। दाएं: तारानगर के कृषि कार्यकर्ता निर्मल प्रजापति कहते हैं कि बढ़ती हुई गर्मी के कारण काम के घंटे में बदलाव आया है
ये धूल भरी आंधियां आमतौर पर गर्मियों के मई और जून के चरम महीनों में अक्सर लू – शुष्क, गर्म और तेज़ हवा – के साथ टकरा जाती थीं, जो घंटों तक चलती रहती थीं। आंधी और लू दोनों, चूरू में जब 30 साल पहले नियमित रूप से चलती थी – तो तापमान को नीचे लाने में मदद करती थी, निर्मल कहते हैं, “और आंधी अच्छी धूल जमा कर देती, जिससे मिट्टी की उर्वरता में मदद मिलती थी।” अब गर्मी फंस गई है, पारा भी 40 डिग्री से ज़्यादा बना रहता है। “अप्रैल 2019 में, मुझे लगता है कि लगभग 5-7 वर्षों के बाद, आंधी आई थी,” वह याद करते हैं।
यह फंसी हुई गर्मी ग्रीष्मकाल को बढ़ा देती है, जिससे यह और अधिक तपने लगती है। “राजस्थान में, हमें तेज़ गर्मी की आदत है,” तारानगर के कृषि कार्यकर्ता और हरदयालजी के बेटे, उमराव सिंह कहते हैं। “लेकिन पहली बार, यहां का किसान गर्मी से डरा हुआ है।”
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जून 2019 में ऐसा पहली बार नहीं था जब राजस्थान में 50 डिग्री सेल्सियस के आसपास तापमान देखा गया हो। मौसम विज्ञान केंद्र, जयपुर के रिकॉर्ड बताते हैं कि जून 1993 में चूरू में गर्मियों के दौरान तापमान 49.8 डिग्री सेल्सियस था। बाड़मेर ने मई 1995 में 0.1 डिग्री की वृद्धि दर्ज की। बहुत पहले, गंगानगर ने जून 1934 में 50 डिग्री के निशान को छू लिया था, और अलवर ने मई 1956 में 50.6 के निशान को छुआ था।
हालांकि कुछ समाचार रिपोर्टों ने जून 2019 की शुरुआत में इस ग्रह पर सबसे गर्म स्थान चूरू को भले ही कहा हो, दुनिया के अन्य हिस्सों – कुछ अरब देशों सहित – में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक दर्ज किया गया, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की 2019 की एक रिपोर्ट में कहा गया है। ग्लोबल वार्मिंग पैटर्न कैसे विकसित होता है, इसके आधार पर यह रिपोर्ट, एक गर्म ग्रह पर काम करना , भारत के लिए भविष्यवाणी करती है कि यहां 2025 से 2085 के बीच तापमान में 1.1 से लेकर 3 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होगी।
पश्चिमी राजस्थान के पूरे रेगिस्तानी क्षेत्र (19.61 मिलियन हेक्टेयर) के लिए, जलवायु परिवर्तन के अंतर-सरकारी पैनल और अन्य स्रोतों ने 21वीं सदी के अंत तक गर्म दिन और गर्म रातें और वर्षा में कमी का अनुमान लगाया है।
चूरू शहर के डॉक्टर सुनील जंडू कहते हैं, “लगभग 48 डिग्री सेल्सियस तापमान के बाद, जो लोग बहुत अधिक गर्मी के आदी हैं, उनके लिए भी एक डिग्री की वृद्धि बहुत मायने रखती है।” वह बताते हैं कि मानव शरीर पर 48 डिग्री से अधिक का प्रभाव बहुत अधिक होता है – थकावट, निर्जलीकरण, गुर्दे की पथरी (लंबे समय तक निर्जलीकरण के कारण) और यहां तक कि लू लगना, इसके अलावा मतली, चक्कर आना और अन्य प्रभाव। हालांकि, जिला प्रजनन और बाल स्वास्थ्य अधिकारी डॉक्टर जंडू कहते हैं कि उन्होंने मई-जून 2019 में ऐसे मामलों में कोई वृद्धि नहीं देखी। न ही उस समय चूरू में गर्मी से संबंधित कोई मौत हुई थी।
आईएलओ की रिपोर्ट में भी अत्यधिक गर्मी के खतरों पर ध्यान दिया गया है: “जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि… गर्मी के तनाव को और अधिक सामान्य बनाएगी… गर्मी अधिक मात्रा में पड़ेगी, जिसे शरीर शारीरिक कष्ट के बिना सहन कर सकता है… अत्यधिक गर्मी का सामना करने से दिल का दौरा भी पड़ सकता है, कभी-कभी एक घातक परिणाम के साथ भी।”

भारंग गांव के लेखक-किसान दुलाराम सहारण (बाएं), चूरू शहर के जाने-माने वयोवृद्ध स्तंभकार माधवजी शर्मा के घर पर: ‘ कंबल और कोट का ज़माना चला गया ’
रिपोर्ट कहती है कि दक्षिणी एशिया समय के साथ सबसे अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक है, और गर्मी के तनाव से सबसे अधिक प्रभावित देशों में आमतौर पर ग़रीबी, अनौपचारिक रोज़गार और निर्वाह कृषि की उच्च दर होती है।
लेकिन सभी हानिकारक प्रभाव ऐसे नहीं होते जो इतनी आसानी से, नाटकीय परिणाम के तौर पर, जल्दी दिखने लगें जैसे कि अस्पतालों में भीड़।
अन्य समस्याओं के साथ संयोजन करते हुए, आईएलओ की रिपोर्ट कहती है कि गर्मी का तनाव इस तरह से भी काम कर सकता है कि वह “कृषि श्रमिकों को ग्रामीण क्षेत्र छोड़ने के लिए प्रेरित करे... [और] 2005-15 की अवधि के दौरान, गर्मी के तनाव के उच्च स्तर बड़े पैमाने पर बाहर की ओर पलायन के साथ जुड़े थे – पूर्ववर्ती दस वर्ष की अवधि के दौरान ऐसी प्रवृत्ति नहीं देखी गई। यह अच्छी तरह से इस बात का संकेत हो सकता है कि ये परिवार प्रवास के अपने फैसलों में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रख रहे हों।”
चूरू में भी, गिरती पैदावार के कारण आय में गिरावट – आंशिक रूप से अब अनियमित मानसून के कारण – प्रवासन को प्रेरित करने वाले बलों की लंबी श्रृंखला में से एक है। अतीत में, दुलाराम सहारण कहते हैं, “हमें अपने खेत से 100 मन [लगभग 3,750 किलो] बाजरा मिलता था। अब ज़्यादा से ज़्यादा 20-30 मन मिलता है। मेरे गांव भारंग में, शायद केवल 50 प्रतिशत लोग ही खेती कर रहे हैं, बाकी लोगों ने खेती छोड़ दी और पलायन कर गए।”
गजुवास गांव में, धर्मपाल सहारण बताते हैं कि उनकी पैदावार में भी बहुत तेज़ी से गिरावट आई है। इसलिए अब कुछ वर्षों से वह टेम्पो चालक के रूप में काम करने के लिए सालाना 3-4 महीने के लिए जयपुर या गुजरात के शहरों में जा रहे हैं।
प्रोफ़ेसर इसरान ने भी यह नोट किया है कि चूरू में, गिरती हुई कृषि आय के नुकसान की भरपाई के लिए, कई लोग खाड़ी देशों की ओर या कर्नाटक, महाराष्ट्र और पंजाब के शहरों में कारखानों में काम करने के लिए पलायन कर रहे हैं। (सरकारी नीति से मवेशियों का व्यापार तबाह हो जाना भी इसका एक कारण है – लेकिन यह एक अलग कहानी है।)
आईएलओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया अगले 10 सालों में उच्च तापमान के कारण 80 मिलियन पूर्णकालिक नौकरियों के बराबर उत्पादकता हानि देख सकती है। यानी, वर्तमान के अनुमान के अनुसार, वैश्विक तापमान में इक्कीसवीं सदी के अंत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।
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चूरू में जलवायु क्यों बदल रही है?
पर्यावरण प्रदूषण के कारण, प्रोफ़ेसर इसरान कहते हैं, माधव शर्मा भी उनसे सहमत हैं। यह गर्मी को फंसाता है, मौसम के मिज़ाज को बदल देता है। “ग्लोबल वार्मिंग और कंक्रीट के काम के कारण गर्मी ज़्यादा पड़ रही है। जंगल कम हो गए हैं, वाहनों में वृद्धि हुई है,” तारानगर तहसील के भालेरी गांव के किसान और पूर्व स्कूल प्रिंसिपल, रामस्वरुप सहारण कहते हैं।


चूरू शहर के डॉक्टर सुनील जंडू (बाएं) कहते हैं , ‘ लगभग 48 डिग्री सेल्सियस तापमान के बाद, जो लोग बहुत अधिक गर्मी के आदी हैं , उनके लिए भी एक डिग्री की वृद्धि बहुत मायने रखती है ’। भालेरी गांव के रामस्वरूप सहारण बढ़ती गर्मी का कारण ग्लोबल वार्मिंग को मानते हैं
“उद्योग बढ़ रहा है, एयर-कंडीशनर का उपयोग बढ़ रहा है, कारें बढ़ रही हैं,” जयपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार, नारायण बारेठ कहते हैं। “पर्यावरण प्रदूषित है। यह सब ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ौतरी कर रहे हैं।”
चूरू, जिसे कुछ ग्रंथों में ‘थार रेगिस्तान’ का प्रवेश-द्वार कहा गया है, निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन की एक बड़ी वैश्विक श्रृंखला की सिर्फ एक कड़ी है। जलवायु परिवर्तन पर राजस्थान राज्य की कार्य योजना 1970 के बाद वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की वृद्धि पर चर्चा करती है। यह केवल राजस्थान के बारे में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रव्यापी कारकों पर केंद्रित है, जिससे बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैस चालित परिवर्तन हो रहे हैं। इनमें से कई ऊर्जा क्षेत्र में अधिक गतिविधि, जीवाश्म ईंधन के उपयोग में वृद्धि, कृषि क्षेत्र में उत्सर्जन, बढ़ती औद्योगिक प्रक्रियाओं और ‘भूमि-उपयोग, भूमि-उपयोग में परिवर्तन और वानिकी’ के कारण उत्पन्न होते हैं। ये सभी जलवायु परिवर्तन के जटिल जाल की बदलती हुई कड़ियां हैं।
चूरू के गांवों में लोग हो सकता है कि ग्रीन हाउस गैसों की बात ना करें, लेकिन उनका जीवन इससे प्रभावित हो रहा है। “अतीत में, हम पंखे और कूलर के बिना भी गर्मी को झेल सकते थे। लेकिन अब हम उनके बिना नहीं रह सकते,” हरदयालज कहते हैं।
अमृता कहती हैं, “ग़रीब परिवार पंखे और कूलर का ख़र्च नहीं उठा सकते। असहनीय गर्मी (अन्य प्रभावों के अलावा) दस्त और उल्टी लाती है। और डॉक्टर के पास जाने से उनका ख़र्च बढ़ जाता है।”
खेत में पूरा दिन बिताने के बाद, सुजानगढ़ में स्थित अपने घर के लिए बस लेने से पहले, भगवानी देवी कहती हैं, “गर्मी में काम करना मुश्किल है। हमें मतली, चक्कर आता है। फिर हम पेड़ की छांव में आराम करते हैं, थोड़ा नीबू पानी पीते हैं – और काम पर लौट आते हैं।”
इन लोगों की उदार मदद और मार्गदर्शन के लिए तहेदिल से धन्यवाद: जयपुर में नारायण बारेठ , तारानगर में निर्मल प्रजापति और उमराव सिंह , सुजानगढ़ में अमृता चौधरी , और चूरू शहर में दलीप सरवाग।
जलवायु परिवर्तन पर PARI की राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग , आम लोगों की आवाज़ों और जीवन के अनुभव के माध्यम से उस घटना को रिकॉर्ड करने के लिए UNDP - समर्थित पहल का एक हिस्सा है।
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हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़