नागी रेड्डी रहते तमिलनाडु में हैं, बोलते कन्नड़ हैं, और पढ़ते तेलगु में हैं. दिसंबर की एक अलसुबह हम कुछेक किलोमीटर पैदल चलकर उनसे मिलने पहुंचते हैं. उनका घर उन्हीं के शब्दों में “बस पास ही है.” लेकिन वास्तव में यह एक भिन्न दुनिया हैं जो क़रीब की एक गहरी झील, एक बड़े इमली के पेड़ के पिछवाड़े, यूकिलिप्टस की पहाड़ी, आम के झुरमुट, मवेशियों की छावनी, एक पहरेदार कुत्ते, और किकियाते हुए पिल्लों के समवेत दृश्यों से बनी है.

इस देश में किसानों के सामने आने वाली सामान्य परेशानियों और मुश्किलों का सामना करने के अलावा, नागी रेड्डी को रागी उपजाने के क्रम में बहुत सी दूसरी मुश्किलों से भी गुज़रना पड़ता है. सबसे बड़ा ख़तरा उन्हें उन विशालकाय और भयानक जीवों से महसूस होता है जिनके नाम मोट्टई वाल, मक्काना, और गिरी हैं.

यहां के सभी किसानों को यह बात अच्छी तरह से पता है कि इन जीवों को किसी भी स्थिति में लापरवाही के साथ लेना ठीक नहीं होगा. उन तीनों में हर एक का वज़न कोई 4,000 से 5,000 किलो के बीच है, हालांकि ग्रामीणों को इन उपद्रवी हाथियों के सही वज़न और उंचाई का सही अनुमान नहीं है.

हम कृष्णागिरी ज़िले में हैं, जो तमिलनाडु और कर्नाटक - दो राज्यों की सीमा पर स्थित है. और, नागी रेड्डी का छोटा सा गांव वाड्रा पलायम जो कि देंकनिकोट्टाई तालुक में है, जंगल से ज़्यादा दूर नहीं है. ज़ाहिर है, यह गांव हाथियों की पहुंच से भी दूर नही. और, हम उनके घर के सीमेंट से बने जिस बरामदे पर बैठे है, वहां से कुछ मीटर पर ही उनका खेत शुरू होता है. ग्रामीणों में नागन्ना नाम से लोकप्रिय, 86 वर्षीय नागी एक किसान हैं जो रागी की खेती करते है. रागी को अत्यधिक पौष्टिक अनाज माना जाता है. वह एक अनुभवी बुज़ुर्ग हैं और अपने लंबे जीवन में उन्होंने खेती के अच्छे, ख़राब, और भयानक - तीनों दौर देखे हैं.

“जब मैं बच्चा था, तब फ़सल के दरमियान आनई (हाथी) कभी-कभार ही आते थे, जब रागी की गंध उन्हें आकृष्ट करती थी.” और अब? “वे अब प्रायः आ धमकते हैं. उन्हें हमारी फ़सल और फल खाने की मानो लत लग गई है.”

इसकी दो वजहें हैं, नागी तमिल में विस्तार से बताते हैं. “1990 के बाद जंगल में हाथियों की तादाद बढ़ गई, और दूसरी तरफ़ जंगल का आकार और घनापन कम हो गया. लिहाज़ा अपने खाने की तलाश में वह बस्तियों में आते रहते हैं. यह लगभग वैसा ही मामला है कि जब आप किसी अच्छे होटल में खाते है तो उस बारे में अपने दोस्तों को बताते हैं, वैसे ही हाथियों ने अपने कुनबे को भी बताया होगा.” वह लंबी सांस लेते हुए मुस्कुराते हैं. यह विचित्र तुलना उनके लिए परिहास की बात है और मेर लिए आश्चर्य की बात है.

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बाएं: नागी रेड्डी के खेत में कटाई के लिए तैयार रागी की फ़सल. दाएं: नागी के पुत्र आनंदरामु एलईडी टॉर्च की दुधिया रौशनी को दिखाते हुए. यह टॉर्च उन्हें वन विभाग ने हथियों को खदेड़ने के लिए दिया है. उनके पिता नागी रेड्डी अपने बेटे को निहार रहे हैं

वे उन्हें वापस कैसे भगाते हैं? “हम एक साथ मिलकर बहुत तेज़ शोर करते हैं, और उन पर बैटरियां चमकाते हैं,” वह एलईडी टॉर्च की तरफ़ इशारा करते हुए हमें बताते है. उनका बेटा आनंदरामु, जिसे लोग सुविधा के लिए आनन्दा बुलाते हैं, टॉर्च जलाकर दिखाता है. यह उसे वन विभाग ने दिया है. उसकी रौशनी बहुत तीखी है - एकदम उजली, जो बहुत दूर तक जाती है. नागन्ना कहते हैं, “लेकिन सिर्फ़ दो ही हाथी वापस जाते हैं.”

आनंदा बरामदे के एक सिरे पर जाकर टॉर्च जला कर दिखा रहा है, “मोट्टई वाल बस थोड़ा सा घूम जाता है, ताकि उसकी आंखों पर रौशनी नहीं पड़े, और खाना जारी रखता है. मोट्टई वाल तब तक नही जाता है, जब तक अपना पेट पूरी तरह भर नहीं लेता. मानो वह कह रहा हो: आप अपना काम कीजिए, यानी टॉर्च जलाते रहिये, और मैं अपना काम करूंगा, मतलब जब तक पेट नही भर जाता तब तक खाता रहूंगा.”

चूंकि उसे भूख ज़्यादा लगती है, मोट्टई वाल वह हर चीज़ खाता है जो उसे मिलती है. रागी तो उसे बहुत पसंद है. और, कटहल भी उतना ही. अगर वह ऊंची डाल तक नहीं पहुंच पाता तो अपने दोनों अगले पैरों को पेड़ के धड़ पर टिका कर खड़ा हो जाता है और अपनी सूंड का इस्तेमाल कर उन्हें तोड़ लेता है. पेड़ अगर अधिक ऊंचा है, तो वह उस पर ज़ोर के धक्के मारता है और अपने पसंद की चीज़ों की दावतें उड़ाता है. नागन्ना बताते हैं, “मोट्टई वाल तक़रीबन 10 फुट ऊंचा है.” आनंदा कहता है, “और वह अपने दोनों पैरों को उठाकर छह-आठ फुट और अधिक ऊंची चीज़ तक पहुंच सकता है.”

नागन्ना कहते हैं, “लेकिन मोट्टई वाल हम इंसानों को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाता है. वह मकई और आम खाता है, और ज़मीन पर फैली फ़सलों को कुचल डालता है. हाथी अपने पीछे जो चीज़ें छोड़ जाते हैं वह बंदरों, जंगली सूअरों, और चिड़ियों का पेट भरने के काम आती हैं.”. हमें हमेशा चौकस रहना होता है, वरना दूध और दही भी नहीं बचेंगे, क्योंकि बंदर हर वक़्त रसोई में घुसने की ताक में  रहते हैं.

“रही-सही कसर जंगली कुत्ते पूरी कर देते हैं. वे हमारी मुर्गियों को चट कर जाते हैं. कई बार तेंदुए रखवाली करने वाले हमारे कुत्तों का शिकार कर खा जाते हैं. पिछले हफ़्ते ही ...” उनकी उंगलियां उन रास्तों की ओर संकेत करती हैं जिनसे तेंदुए शिकार की घात में आटे हैं. डर से मेरी देह में झुरझुरी दौड़ जाती है. यह सिर्फ़ सुबह की खुन्नक नहीं, बल्कि ज़िंदगी को कगार पर जीने का भी खौफ़ है. यहां जीवन अनिश्चितताओं से भरा है.

वे इन चीज़ों से कैसे निपटे होंगे? मेरे यह पूछने पर आनंदा बताता है, “हम अपनी आधी एकड़ ज़मीन पर अपने परिवार की ज़रूरत के मुताबिक़ पर्याप्त रागी उपजा लेते हैं. हमें 80 किलो की बोरी के बदले में सिर्फ़ 2,200 रुपए ही मिलते हैं. इतनी कम क़ीमत पर बेचकर हम मुनाफ़ा कमाने की सोच भी नहीं सकते हैं. फिर बेमौसम की बरसात हमारे लिए एक अलग मुसीबत है, उसके बाद रही-सही कसर ये जानवर पूरी कर देते हैं. इसलिए हमने अपने एक अलग खेत में यूकेलिप्टस के पेड़ लगाए हैं. इस इलाक़े के कई दूसरे किसानों ने रागी की जगह गुलाबों की खेती शुरू कर दी है.”

हाथियों की फूलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. कम से कम अभी तक तो नहीं ..

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आनंदरामु हाथियों के आने का रास्ता दिखाते हुए. जानवर प्रायः फ़सल और फल खाने के लिए आते हैं

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मैं रागी के खेतों के क़रीब झूले पर बैठी इंतज़ार कर रही थी
जहां हम सुग्गों के पीछे भागते हैं, और जब वह आया,
मैंने उससे कहा, “मेरे झूले को ज़रा झुला दोगे”;
उसने कहा, ”ज़रूर लड़की!” और, उसने झूले को हौले से धक्का दे दिया
मैं अपनी पकड़ को ढीली होने के बहाने औंधे मुंह ज़मीन पर जा गिरी
मेरे गिरने को सच मान वह मुझे उठाने के लिए लपका
मैं निश्चेत पड़ी रही जैसे मुझे होश ही नहीं था

प्रेम में आतुर ये पंक्तियां 2,000 साल पुरानी कविता ‘ कलि त्तो कई ’ से उद्धृत की गई हैं जिन्हें ‘कपिलार’ ने संगम काल में लिखा था. रागी का उल्लेख तमिल इतिहास में पुराना है, सेंतिल नाथन बताते हैं जो OldTamilPoetry.com नाम का एक ब्लॉग संचालित करते हैं. इस ब्लॉग पर संगम साहित्य से ली गई कविताओं के अनुवाद उपलब्ध हैं.

सेंतिल नाथन कहते हैं, “संगम कालीन लेखन में प्रेम कविताओं के सन्दर्भ में रागी की पृठभूमि का उल्लेख एक सामान्य परिपाटी है. एक बुनियादी शोध क्रम में रागी का उल्लेख 125 बार मिला जोकि चावल की तुलना में कुछ अधिक ही है. इसलिए, यह सहज रूप में माना जा सकता है कि संगम काल में (200 ईसापूर्व से 200 ईस्वी तक) रागी जनमानस के लिए एक मुख्य अनाज था. रागी की प्रजातियों में तिनई (कंगनी या फॉक्सटेल मिलेट) सबसे बेहतर माना जाता है. उसकी बाद ‘वरगु’ (कोदो रागी) का नाम आता है.”

के.टी. अचय अपनी किताब ‘इंडियन फूड : अ हिस्टोरिकल कम्पैनियन’ में लिखते हैं कि रागी की उत्पत्ति ईस्ट अफ्रीका के यूगांडा में हुई थी. दक्षिण भारत में इसका आगमन हज़ारों वर्ष पहले हुआ था और पहली बार इसके अवशेष “कर्नाटक में तुंगभद्रा नदी के हल्लूर (1800 ईसापूर्व) स्थल,” और “तमिलनाडु के पैयम्पल्ली” (1390 ईसापूर्व) में पाए गए. नागन्ना के घर से यह जगह कोई 200 किलोमीटर दूर है.

भारत में रागी की खेती के मामले में तमिलनाडु दूसरे स्थान पर है - पहले स्थान पर कर्नाटक का नाम आता है - और इसकी सालाना पैदावार लगभग 2.745 मैट्रिक टन है. कृष्णागिरी ज़िला, जिसमें नागन्ना का गांव है, राज्य के कुल उत्पादन का 42 प्रतिशत रागी अकेले पैदा करता है.

संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (FAO) रागी की अनेक महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख करता है, मसलन रागी को किसी फ़सल के बीच में फलियों के साथ भी लगाया जा सकता है ताकि किसान अतिरिक्त कमाई कर सकें. कम श्रम करके भी इससे अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है, और कम उपजाऊ मिट्टी पर भी यह जीवित रहती है.

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रागी की फ़सल (बाएं) और उसका अनाज. कृष्णागिरी ज़िला तमिलनाडु के रागी उत्पादन का कुल 42 प्रतिशत अकेले पैदा करता है

इस सबके के बावजूद रागी के उत्पादन और खपत, दोनों में गिरावट आई है. हैरत की बात नहीं है कि इस गिरावट की का संबंध हरित क्रांति के परिणामस्वरूप चावल और गेहूं की बढ़ती हुई लोकप्रियता से है. जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) की सरकारी योजना ने चावल और गेहूं की उपलब्धता को आम लोगों के लिए अपेक्षाकृत सुलभ बना दिया है.

भारत भर में ख़रीफ़ के मौसम के दौरान पिछले सालों में रागी की उपज में अनेक उतार-चढाव आए हैं, लेकिन साल 2021 में इसका उत्पादन लगभग 20 लाख टन के आसपास दर्ज़ किया गया. हालांकि, साल 2022 में पहले अनुमान के अनुसार इसके उत्पादन में गिरावट की आशंका व्यक्त की गई है. साल 2010 में यह आंकड़ा कोई 10.89 लाख टन था, किंतु 2022 में इसकी अनुमानित पैदावार लगभग 10.52 लाख टन होने की संभावना है.

धान फाउंडेशन, जो रागी पर वैज्ञानिक अनुसन्धान करने और उस की पैदावार के लिए वित्तीय सहायता करने वाली एक विकास संस्था है, के अनुसार, “पोषक गुणवत्ता और मौसम की तन्यकता के बावजूद भारत में रागी की खपत में 47 प्रतिशत गिरावट आई है , जबकि पिछले पांच दशकों में रागी की दूसरी छोटी प्रजातियों में यह गिरावट 83 फ़ीसदी तक दर्ज़ की गई है.

पड़ोसी राज्य कर्नाटक देश का सबसे बड़ा रागी उत्पादक प्रदेश है. “ग्रामीण इलाक़ों में प्रति महीने रागी की खपत औसतन प्रति व्यक्ति 1.8 किलोग्राम से गिरकर 1.2 किलोग्राम हो गई है. यह आंकड़ा 2011-12 का है.”

इस फ़सल का अस्तित्व इसलिए बचा है कि जलवायु इसके अनुकूल है और कुछ समुदाय के लोग अभी भी रागी उपजाते और खाते हैं. कृष्णागिरी भी उनमें से एक था.

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आप जितनी रागी उपजाएंगे, आप उतने अधिक ही मवेशियों को पाल सकेंगे और अपनी आमदनी बढा सकेंगे. चारे की कमी के कारण ही ज़्यादातर लोगों ने अपने मवेशियों को बेच दिया है.
गोपाकुमार मेनन, किसान और लेखक

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बाएं : गोपाकुमार मेनन अपने गोल्लापल्ली गांव के फार्म में रागी की डंठल हाथ में लिए हुए. दाएं: तेज़ बारिश के चलते बर्बाद हो चुकी रागी का मंज़र

उस इलाक़े में अपने मेज़बान नागन्ना के घर जाने के एक रात पहले गोपाकुमार ने मुझे हाथी की एक रोंगटे खड़ी कर देने वाली कहानी सुनाई. यह दिसंबर की शुरुआत का समय है और हम गोल्लापल्ली गांव के उनके घर की छत पर बैठे हैं. चारों ओर अंधेरा और हल्की ठंड है. कभी-कभी बस रात में विचरने वाले जीव-जन्तुओं की डरावनी मौजूदगी महसूस हो रही रही है - बस उनका गुंजन और उनकी भिनभिनाहट. यह एक साथ तसल्ली भी देता है और सिहरन भी पैदा करता है.

वह थोड़ी ही दूर पर आम के पेड़ को दिखाते हुए कहते हैं, “मोट्टई वाल यहां पहुंच गया था. उसे आम खाना था लेकिन वह उन तक पहुंच नहीं पा रहा था. फिर ग़ुस्से में उसने पेड़ को ही गिरा दिया.” मैं डरते हुए चारों ओर आंखें घुमाती हूं. हर एक चीज़ में मुझे हाथी ही दिखने लगता है.  गोपा मुझे ढांढस देते हैं, “डरिए मत , वह यहां होता तो आप ख़ुद ही जान जाते.”

अगले एक घंटे तक गोपा मुझे कई कहानियां सुनाते हैं. वे व्यवहारिक अर्थशास्त्र के अच्छे जानकार, एक लेखक और व्यापारिक बुद्धि से संपन्न व्यक्ति हैं. लगभग 15 साल पहले उन्होंने गोल्लापल्ली में कुछ ज़मीन ख़रीदीं, जिन्हें वे अपना फार्म कहते हैं. खेती शुरू करने के बाद ही यह बात उनकी समझ में आई कि यह कितना मुश्किल काम है. अपनी दो एकड़ ज़मीन में अब वे सिर्फ़ नींबू और चने की खेती ही करते हैं. आमदनी के लिए पूरी तरह से खेती पर निर्भर किसानों के लिए यह बहुत कठिन काम है. वह कहते हैं कि नीतियों की प्रतिकूलता, मौसम की मार, ख़राब ख़रीद मूल्य, और जानवर और आदमी के बीच की प्रतिस्पर्द्धा ने पारंपरिक रागी कृषि की फ़सल को बहुत नुक़सान पहुंचाया है.

गोपा कहते हैं, “रागी प्रस्तावित और बाद में निरस्त कर दिए गए कृषि क़ानूनों की असफलता का एक श्रेष्ठ उदाहरण है. क़ानून कहता है कि आप इसे किसी के हाथ बेच सकते हैं. लेकिन तमिलनाडु का मामला लीजिए. यदि यह सचमुच कारगर होता तो किसान ज़्यादा रागी उगाने में कामयाब होते. और हां, वे अपनी पैदावार को अवैध तरीक़े से कर्नाटक क्यों ले जाते? क्योंकि वहां रागी न्यूनतम समर्थन मूल्य 3,377 रुपए प्रति क्विंटल है जोकि आनंदा के मुताबिक़ तमिलनाडु की तुलना में बहुत बेहतर है.”

इसका स्पष्ट अर्थ है तमिलनाडु के उक्त क्षेत्र में लोग उचित समर्थन मूल्य पाने में असफल हैं, जैसा कि गोपा मेनन कहते हैं, लिहाज़ा अनेक किसान अपनी फ़सल की तस्करी कर सीमा पार ले जाते हैं.

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मज़दूर गोल्लापल्ली के बाहरी इलाक़े में किसान सिवा कुमारन के पट्टे पर लिए गए खेत पर रागी की फ़सल काटते हुए

फ़िलहाल तमिलनाडु के होसुर ज़िले में, आनंदा के अनुसार, सबसे अच्छी क़िस्म की रागी का मूल्य “2,200 प्रति 80 किलो है, और दूसरे दर्जे की रागी की क़ीमत 2,000 रुपए है. प्रति किलो यह क्रमशः 25 और 27 रुपए प्रति किलो पड़ता है.”

यह वह क़ीमत है जो एक कमीशन एजेंट उन्हें दरवाज़े पर देकर जाता है. स्पष्ट है, एजेंट अपना मुनाफ़ा भी कमाता है, जो आनंदा के आकलन के मुताबिक़ कोई 200 रुपए होता है. इस तरह रागी किसान के हाथ से थोक व्यापारी के हाथ में जाता है. अगर किसान मंडी जाकर अपनी पैदावार सीधे बेचें, तो उन्हें सबसे अच्छी रागी के 2,350 (80 किलोग्राम की बोरियों के) रुपए मिल सकते हैं. लेकिन किसानों की नज़र में यह घाटे का सौदा है. “मुझे ढुलाई, टेम्पो का भाड़ा, और मंडी में कमीशन के लिए अलग से पैसे चुकाने होंगे...”

कर्नाटक में हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तमिलनाडु की तुलना में बेहतर है, लेकिन इसके बावजूद अनेक किसान वसूली में देरी के कारण समर्थन मूल्य से 35 प्रतिशत कम में ही अपनी पैदावार बेच देते हैं.

गोपाकुमार सभी स्थानों पर एक उचित एमएसपी लागू किए जाने को ज़रूरी बताते हैं. “अगर आप 35 रुपए किलो की दर पर ख़रीदेंगे, तो किसान भी रागी की फ़सल बढ़ाने को लेकर उत्साहित होंगे. अगर अपन नहीं ख़रीदेंगे, तो किसान फूल, टमाटर, और फ्रेंच बीन की खेती करने को उन्मुख होंगे. इस तरह धीरे-धीरे रागी उपजाने के प्रति लोग उदासीन होने लगेंगे.”

गांव में उनके पड़ोसी सीनप्पा जो एक अधेड़ उम्र के किसान हैं, अधिक टमाटर उपजाना चाहते हैं. सीनप्पा कहते हैं, “यह एक लाटरी है, हरेक किसान उस किसान को इज़्ज़त की नज़र से देखता है, जो टमाटर उगाकर 3 लाख रुपए कमाता है. लेकिन टमाटर की खेती में लागत बहुत अधिक है और उसकी क़ीमत बहुत अस्थिर होती है - कभी मात्र एक रुपए किलो जिससे किसान कंगाल बन सकता है और कभी 120 रुपया किलो तक.”

यदि सीनप्पा को ठीक-ठाक मूल्य मिले तो वह टमाटर की बजाय रागी की खेती ही करेंगे. “आप जितनी रागी उगाएंगे, उतने ही मवेशियों को पालने में समर्थ होंगे. आपकी आमदनी भी उसी अनुपात में बढ़ेगी. लोगों ने अपने मवेशी इसलिए बेच डाले, क्योंकि उनके पास चारे की कमी थी.”

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बाएं : काटी जा चुकी फ़सल के गट्ठर. रागी के दानों को दो सालों तक सुरक्षित रखा जा सकता है. दाएं: सूखी हुई फूस को मवेशियों के चारे के रूप में उपयोग किया जाता है

गोपा मेनन मुझे बताते हैं कि रागी इस इलाक़े का मुख्य खाद्यान्न है. “आप रागी तभी बेचते हैं जब आपको पैसों की किल्लत होती है. इसका भंडारण दो सालों तक के लिए संभव है. आपको जब इसे खाने में इस्तेमाल करना हो, आप तब इसकी पिसाई कर सकते हैं. दूसरे अनाजों को इतनी अच्छी तरह से नहीं रखा जा सकता है. दूसरी चीज़ें उपजाकर या तो आप मालामाल हो सकते हैं या फिर बर्बाद हो सकते हैं.”

इस क्षेत्र में बहुत सी मुश्किलें हैं और वे बेहद जटिल भी हैं, “इस इलाक़े में फूलों की जो पैदावार होती है वह बिकने के लिए चेन्नई के बाज़ार में जाती है,” गोपाकुमार बताते हैं. “आपके फार्म के गेट तक एक गाड़ी आती है और आपको आपके पैसे दे जाती है. जहां तक रागी की बात है, सबसे मूल्यवान फ़सल होने के बाद भी आप पूरी तरह से आश्वस्त नही रहते, और सबसे विचित्र बात यह है कि देशी, हाईब्रिड, और जैविक - सभी क़िस्मों के लिए आपको एक ही क़ीमत मिलती है.”

“अमीर किसानों ने अपने खेतों के चारों ओर बिजली दौड़ने वाला तार लगा दिया है, जिसके कारण हाथी ग़रीब किसानों के खेत की तरफ़ रुख़ करते हैं. अमीर किसान दूसरी फ़सलें भी उपजा रहे हैं, जबकि ग़रीब किसान सिर्फ़ रागी पर आश्रित हैं.” इसके बाद भी, गोपा अपनी बात जारी रखते हैं, “इस इलाक़े के किसान हाथियों के प्रति अधिक असहिष्णु नहीं हैं. उनका मसला यह है कि हाथी जितनी मात्रा में खाते हैं, उससे दस गुना ज़्यादा वे बर्बादी करते हैं. मैंने मोट्टई वाल को सिर्फ़ 25 फीट की दूरी से देखा है.” वह कहते हैं, और हाथियों के क़िस्से फिर चल निकलते हैं. “यहां के लोगों की तरह मोट्टई वाल भी एक से अधिक राज्यों का नागरिक है. वह मूलतः तमिल है, लेकिन मानद कन्नडिगा भी है. मक्काना उसका सहायक है. बिजली वाले तार के बेड़ों को पार करने की चालाकी माकन ने उसी से सीखी है.”

अचानक यह महसूस होता है, मानो मोट्टई छत के बगल में ही खड़ा हो. “संभव है कि मैं होसुर लौटकर अपनी कार में ही सो जाऊं,” मैं घबराते हुए हंसने की कोशिश करती हूं. गोपा मुस्कराने लगते हैं, “मोट्टई वाल एक विशाल हाथी है …बहुत भारी-भरकम. लेकिन वह नुक़सानदेह नहीं है.” मैं मन ही मन प्रार्थना करती हूं कि उससे सामना नहीं हो - बल्कि दूसरे हाथियों से भी मुलाक़ात नहीं हो. लेकिन ईश्वर की योजनाओं के बारे में वही जानता है...

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देशी रागी में पैदावार कम हुआ करती थी, लेकिन उसका स्वाद बहुत अच्छा और पोषक तत्व बहुत ज़्यादा होते थे.
नागी रेड्डी, कृष्णागिरी के रागी किसान

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बाएं से: नागन्ना (नागी रेड्डी), उनकी पुत्रवधू प्रभा, और पुत्र आनंदा वाड्रा पलयम गांव में अपने घर के बरामदे में. नागन्ना कहते हैं, 'मुझे रागी की पांच क़िस्मों की जानकारी है'

जब नागन्ना युवा थे, तब रागी की फ़सल उनके सीने तक आती थी. वह ऊंचे क़द के हैं - कोई 5 फीट 10 इंच के - और छरहरे हैं. वह धोती और बनियान पहनते हैं और कंधे पर एक गमछा लपेटे रहते हैं. कभी-कभी वह एक छड़ी लेकर चलते हैं, और बिरादरी में आने-जाने के लिए एक सफ़ेद कमीज़ पहनते हैं.

वह चेहरे पर एक चमक के साथ कहते हैं, “मुझे रागी की पांच क़िस्मों की जानकारी है.” वह अपने बरामदे में बैठे हुए गांव को निहार रहे हैं. सामने उनके घर का बड़ा सा अहाता है. “नाटु (देशी) रागी में सिर्फ़ चार या पांच बालियां होती थीं. उनकी पैदावार भी बहुत मिलती थी. लेकिन उसका स्वाद बहुत अच्छा होता था और वह बहुत पौष्टिक होता था.”

वह याद करते हैं, “हाइब्रिड 1980 में प्रचलन में आया.” उनके आम भी लोगों के नामों की तरह संक्षेप में होते थे - एमआर, एचआर - और उनमें बालियां भी अधिक होती थीं. उनसे अनाज ख़ूब निकलते थे - जिस ज़मीन से 80 किलोग्राम की पांच बोरियां पैदा होती थीं, वहां से अब रागी की अट्ठारह बोरियां आने लगीं. लेकिन अधिक पैदावार से किसान अधिक उत्साहित नहीं थे - क्योंकि उसकी क़ीमत उतनी ऊंची नहीं थी कि उनको आर्थिक रूप से अधिक मुनाफ़ा हो पाता.

उन्होंने 12 साल की उम्र से खेती करना शुरू किया था और अब इस क्षेत्र में उनके 74 साल बीत चुके हैं. नागन्ना ने अनेक फ़सलें पैदा कीं. “हमारे परिवार ने उस हर चीज़ की खेती की जो हमने चाही. हमने अपने खेतों में गन्ने से गुड़ बनाया. हमने तिल उगाया और लकड़ी की चक्की में उसकी पिराई करके तेल निकाला. रागी, चावल, चना, मिर्च, लहसुन, प्याज...हमने हर चीज़ उगाया.”

खेत ही उनकी पाठशाला थी. औपचारिक पाठशाला इतनी दूर स्थित थी कि वहां पहुंचना मुश्किल था. उनकी ज़िम्मेदारी परिवार के मवेशियों की देखभाल करना था, जिनमें बकरियां और गायें थीं. वह बहुत व्यस्तताओं से भरा जीवन था जिसमें हर आदमी के लिए काम था.

नागन्ना का संयुक्त परिवार ख़ासा बड़ा था, जिसमें 45 की तादात में लोग थे. सभी उनके दादाजी के बनाए गए घर में रहते थे. यह घर सड़क के उस पार था – कोई 100 साल पुराना बना मकान जिसमें मवेशियों के लिए छावनी बनी थी और अहाते में बैलगाड़ी लगी होती थी, बरामदे में एक बड़ा भंडार बना था, जिसमें रागी की सालाना उपज रखी जाती थी.

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बाएं: नागन्ना के पैतृक घर में मवेशियों की छावनी. दाएं: पुराने घर का बरामदा और उस में बना अनाज-भंडार

नागन्ना जब सिर्फ़ 15 साल के थे, उसी वक़्त परिवार के लोगों में संपत्ति का बंटवारा हो गया. उन्हें खेत में हिस्से के अलावा उस ज़मीन का टुकड़ा भी मिला जहां कभी गोशाला हुआ करती थी. उसकी सफ़ाई कर वहां एक मकान बनाना अब नागन्ना की ज़िम्मेदारी थी. “उस ज़माने में सीमेंट की एक बोरी की क़ीमत 8 रुपए होती थी जोकि ख़ासी बड़ी रक़म मानी जाती थी. हमने एक राजमिस्त्री को 1,000 रुपए में यह घर बनाने का ओपन्द्दम (ठेका) दे दिया.”

लेकिन इस काम में कई साल लग गए. एक बकरी और गुड़ की 100 सिल्ली बेचकर कुछ ईंटें ख़रीदी गईं, ताकि एक दीवार खड़ी की जा सके. सामान माटु वंदी (बैलगाड़ी) से मंगाए जाते थे. उस समय पैसों की बेहिसाब किल्लत थी. आख़िरकार, एक पाड़ी (राज्य में वज़न की पारंपरिक नाप – 60 पड़ी 100 किलोग्राम के बराबर होते थे) के बदले सिर्फ़ आठ आने आते थे.

साल 1970 में जब उनकी शादी हुई उसके कुछ साल पहले ही नागन्ना इस घर में रहने आ गए. उनका घर पुराने ढंग का ही बना है, जिसे वह बताते हैं, “बस जैसे-तैसे.” उनका पोता अपनी कल्पना से कुछ-कुछ करता रहता है. किसी नुकीली चीज़ से उसने लैंप रखने के ताखे के ठीक ऊपर अपना नाम और बड़े होकर वह जो पद पाना चाहता है, उसने खुरच कर लिखा है : ‘दिनेश इज़ द डॉन.’ हमने 13 साल के दिनेश को सुबह ही देखा था. वह सड़क के रास्ते स्कूल जा रहा था. देखने में वह किसी भी कोने से डॉन नहीं, बल्कि एक सीधा-सादा लड़का लग रहा था. उसने अस्फुट स्वर में हमारा अभिवादन किया और तेज़ी से आगे बढ़ गया.

डॉन बनने की कामना रखने वाले लड़के की मां प्रभा ने हमारे लिए चाय लेकर आती हैं. नागन्ना उसे चना लाने के लिए कहते हैं. वह टिन के एक डिब्बे में भुना हुआ चना लेकर आती हैं और उसे लाने के क्रम में ज़ोर से हिलाती हैं. डिब्बे से एक तरह का संगीत निकलता है. नागन्ना हमें बताते हैं कि चने को किस तरह से कोलाम्बु (तरी) में पकाया गया है. वह कहते हैं, “इसे कच्चा खाइए, अच्छा लगेगा.” हम सब मुट्ठियों में चना भर लेते हैं. यह सख्त, चटपटा, और ज़ायकेदार है. नागन्ना कहते हैं, “नमक डालकर भुनने के कारण इसका स्वाद लाजवाब है.” हम उनकी बात से सहमत होते हैं.

खेती के तौर-तरीक़े में क्या बदलाव आया है, मैं उनसे पूछती हूं. “ सबकुछ,” वह स्पष्ट लहज़े में कहते हैं. वह अपना माथा हिलाते हैं, “कुछ बदलाव अच्छे भी हुए हैं, लेकिन अब लोग मेहनत नहीं करना चाहते हैं.” उनकी उम्र 86 की हो चुकी है, लेकिन वह अभी भी रोज़ खेत जाते हैं और उन तमाम विषयों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं जिनसे उनका जीवन प्रभावित हो सकता है. वह बताते हैं, “अब अगर आप के पास खेत है भी तो आपको मज़दूर नहीं मिलते हैं.”

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अपने घर के बरामदे में बैठे नागन्ना अपनी युवावस्था की कहानियां सुनाते हुए

आनंदा कहते हैं, “लोग आपसे कहेंगे कि रागी की कटाई के लिए मशीनें आ गई हैं. लेकिन मशीन रागी की बालियों में फ़र्क नहीं कर सकते हैं. एक ही डंठल में एक मंजर पका हुआ, दूसरा सूखा हुआ और तीसरा कच्चा हो सकता है. कोई भी मशीन तीनों मंजर की एक साथ कटाई कर देगा. इन्हें जब बोरियों में भरा जाएगा, तो पूरी रागी सड़ जाएगी और इनसे दुर्गन्ध निकलने लगेगी.” हाथ से कटाई बहुत मेहनत का काम है “लेकिन इससे रागी अरसे तक सुरक्षित रहती है.”

सिवा कुमार की पट्टे पर लिए गए रागी के खेत में पन्द्रह औरतें हाथों से कटाई के काम में लगी हुई हैं. अपनी दरांती को बगल में दबाए और कंधे पर एक तौलिया लपेटे सिवा कुमार रागी के बारे में बात करते हुए ख़्यालों में डूब से जाते हैं. उन्होंने एक टी-शर्ट पहन रखी है जिसपर लिखा है – ‘सुपरड्राई इंटरनेशनल.’

गोल्लापल्ली के ठीक बाहर, पिछले ही हफ़्ते उनके खेत को तेज़ बरसात और हवा से जूझना पड़ा है. सिवा (25 साल) मेहनती किसान हैं. वह मुझे बारिश और उसके कारण पैदावार को होने वाले नुक़सान के बारे में बताते हैं. पैदावार पर बुरा असर पड़ा है और औरतों के काम के घंटों को बढ़ा दिया गया और वह उकडूं बैठकर रागी को काट रही हैं, ताकि उनका गट्ठर बनाकर पैदावार को खेतों से खलिहान तक पहुंचाया जा सके. लेकिन सिवा को तय राशि के मुताबिक़ ही पट्टे का भुगतान करना है, उसमें कोई राहत नहीं मिलने वाली.

वह बताते हैं, “इस खेत के लिए - जोकि दो एकड़ से भी कम ही है - मुझे पट्टे के लिए सात बोरी रागी देनी होंगी. बाक़ी बची 12 से 13 बोरियां मैं बेचने के लिए रखूंगा. यदि कर्नाटक के डर से रागी बेच सकिए, तभी आप मुनाफ़ा कमा सकते हैं. तमिलनाडु में भी हमें 35 रुपए प्रति किलो की क़ीमत चाहिए. इस बात को याद रखिए.” वह मुझे ताकीद करते हैं. और मैं इसे दर्ज कर लेती हूं...

पीछे अपने आंगन में नागन्ना मुझे एक बड़ा रोलिंग स्टोन दिखाते हैं. यह विशालकाय है और आकृति में गोल है जिसे मवेशियों द्वारा गोबर से लीपी गई ज़मीन पर पसरी हुई रागी रौंदने के काम में लाया जाता था. धीरे-धीरे यह पत्थर फलियों को रगड़कर अनाज और भूसे को अलग कर देता था. रागी को उसके बाद फटककर घर के सामने बने भंडार कुंड में रख लिया जाता था. पहले उन्हें उन्हें जूट की बोरियों में भर कर रखा जाता था – लेकिन अब जूट के बजाय प्लास्टिक की बोरिया इस्तेमाल की जाती हैं.

नागन्ना हमें आमंत्रित करते हुए कहते हैं, “भीतर आइए. भोजन कीजिए...” और रसोई में कुछ और कहानियां मिलने की आशा भरी नज़रों से देखते हुए, मैं उत्सुकतापूर्वक प्रभा के पीछे चल पड़ी.

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बाएं : सिवा कुमारन, गोल्लापल्ली के बाहरी इलाक़े में पट्टे पर लिए गए खेत में बारिश से तबाह हुई रागी की फ़सल काटते हुए. दाएं : सिवा के खेत में काम करने वाले मज़दूर कटाई करने के बाद फ़सल का गट्ठर बनाते हुए

*****

कबूतर के अण्डों की तरह दिखते रागी के अनाज के दाने
बरसात से सींचे खेतों में बढ़ते हैं
दूध में पके हुए और शहद मिले
और सुलगी हुई लकड़ी पर भुना खरगोश का नर्म गोश्त
मैं अपने बच्चों और परिवार के साथ खा रहा हूं

‘पूरनानूरु 34,’ अलातुर किलार की लिखी संगम कविता
सेंतिल नाथन का अनुवाद

दो वर्षों तक सुरक्षित रहने वाला और कैल्शियम और आयरन से भरपूर तथा ग्लूटेन से मुक्त रागी एक स्वास्थ्यप्रद अनाज है. यहां तक कि 2,000 साल पहले भी तमिल लोग रागी का एक अनोखा स्वादिष्ट व्यंजन बनाते थे, जिसमें दूध, शहद, और गोश्त मिला होता था. आज रागी को भोजन के रूप में पकाया और खाया जाता है. इसे नाश्ते के रूप में भी खाया जाता है और बच्चो के लिए भी यह गुणकारी है. तमिलनाडु के कई इलाक़ों में रागी के अलग-अलग व्यंजन बनते हैं. कृष्णागिरी में रागी के मुड्डे (लड्डू) बनते हैं जिसे काली भी कहते हैं. प्रभा ने हमें एक मुड्डे बनाते हुए दिखाया

हम सभी रसोई में हैं जहां सीमेंट के प्लेटफॉर्म पर एक स्टील का चूल्हा रखा है. वह एल्युमिनियम की कड़ाही में पानी उड़ेलती हैं और एक हाथ में लकड़ी का करछुल और दूसरे में एक कटोरी रागी का आटा लिए इंतज़ार करती हैं.

क्या उन्हें तमिल बोलना आता है? मैं बातचीत शुरू करने के इरादे से पूछती हूं. प्रभा ने सलवार कमीज़ के साथ कुछ हल्के जेवर पहने हुए हैं और उनके चेहरे पर संकोच से भरी मुस्कुराहट है. उन्होंने गर्दन हिलाकर ‘न’ का इशारा किया है. लेकिन वह तमिल भाषा समझ जाती हैं. वह अटकती हुई कन्नड़ में जवाब देती हैं जिसमें तमिल के भी कुछ शब्द मिले हुए हैं. वह कहती हैं, "मैं यह पिछले 16 सालों से पका रही हूं." तब से जब वह 15 साल की थीं.

प्रभा का अनुभव उसी समय नज़र आ जाता है, जब पानी में उबाल आता है. वह एक बड़े कप में भरे रागी का आटा उबलते हुए पानी में मिला देती हैं. जल्दी ही कड़ाही में एक भूरा मिश्रण तैयार हो जाता है. कड़ाही को चिमटे से पकड़ कर वह मिश्रण को लकड़ी के करछुल से तेज़ी से फेंटने लगती हैं. यह एक मुश्किल काम है जिसमें कौशल और धीरज दोनों लगते हैं. कुछ ही मिनटों में रागी पक कर तैयार हो जाती है और आटा करछुल में लिपट कर एक गेंद का आकार ले ले लेता है.

यह अनुमान लगाना वाक़ई दिलचस्प है, मैं उन्हें देखते हुए सोचती हूं कि यहां की औरतें इस काम को कोई दो हज़ार साल से कर रही हैं.

नागन्ना बताते हैं, “जब मैं छोटा था, तब इसे लकड़ी के चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता था." उसका ज़ायका बहुत शानदार हुआ करता था. वह दावे के साथ कहते हैं. आनंद देशी क़िस्म की रागी के बारे में बताते हैं. “उसकी खुश्बू घर के बाहर ही आपका स्वागत करती लगती थी - गम गम वासनई.” वह इसे यूं कहते हैं, गोया देशी रागी की गंध को प्रमाणिकता प्रदान कर रहे हों. “लेकिन हाइब्रिड रागी की गमक दूसरे कमरे तक भी नहीं पहुंचती है!”

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बाएं: प्रभा द्वारा पकाया गया रागी का आटा. बीच में और दाएं: गर्म आटे को हथेलियों के सहारे ग्रेनाइट के स्लैब पर बीच में गोल करके मुड्डे (लड्डू) बनाती हुई प्रभा

शायद चूंकि उनके सास और ससुर वहां उपस्थित हैं, इसलिए प्रभा कम बोल रही हैं. वह कड़ाही को रसोई के कोने में ग्रेनाइट के चौकोर पत्थर पर रखती है और भाप छोड़ती हुई रागी को उसमें पलट देती है. फिर अपनी दोनों हथेलियों की मदद से उसे एक ट्यूब के आकार में गोल कर लेती हैं. बीच बीच में वह अपनी हथेलियों को गीला करती रहती हैं. उसके बाद वह ट्यूब के दोनों सिरों को एक दूसरे से मिलाकर उसे वृताकार बना डालती है.

जब कुछ वृत्त बन जाते हैं तो तब हमें स्टील की तश्तरी में उनको भोजन के रूप में दिया जाता है. “इनको इस तरह से खाइए," नागन्ना कहते हैं, और रागी से बने मुड्डे के एक छोटे हिस्से को तोड़ते हुए तरीदार चने में डुबो कर खाते हैं. प्रभा एक दूसरी कटोरी में हमें हल्की तली हुई सब्ज़ियां देती हैं. भोजन सचमुच स्वादिष्ट पका है और खाने के बाद भी घंटों हमारा पेट भरा हुआ सा महसूस होता है.

कृष्णागिरी ज़िले के बरगुर में ही, जो बिल्कुल पड़ोस में है, लिंगायत समुदाय के लोग रागी की रोटियां खाते हैं. बहुत पहले जब मैं वहां एक बार गई थी, तब किसान पार्वती सिद्धैया ने घर के बाहर बने चूल्हे पर मुझे रोटियां बना कर खिलाई थीं. वे मोटी और स्वादिष्ट थीं. रोटी का स्वाद मुझे कई दिनों तक याद रहा. रागी की रोटी जंगल में मवेशियों को लेकर जाने वाले चरवाहा परिवारों का मुख्य भोजन है.

चेन्नई के भोजन इतिहासकार, विशेषज्ञ और टीवी प्रस्तोता राकेश रघुनाथन अभिजात्यों के भोजन - रागी वेल्ला अदई के बारे में बताते हैं. रागी पाउडर, गुड़, सूखे अदरख पाउडर, नारियल के दूध, और चुटकी भर इलाइची से बना यह मीठा पैनकेक बेहद ज़ायकेदार होता है. “मेरी मां की दादी ने मुझे यह अदई बनाना सिखाया था. यह तंजावुर के इलाक़े में बनाया जाता था, और पारंपरिक रूप से इसे कर्तिगई दीपम (दीप जलाने का एक पारंपरिक त्यौहार) के दिन उपवास तोड़ने के लिए खाया जाता था.” यह मोटा-नर्म पैनकेक थोड़े घी की मदद से पकाया जाता है और स्वादिष्ट होने के साथ पौष्टिक भी होता है. यह उपवास के बाद का आदर्श भोजन है.

पुदुकोट्टई ज़िले के चिन्ना वीरमंगलम गांव में विलेज कुकिंग चैनल के मशहूर शेफ़ एक रागी से बना व्यंजन ख़ास तौर पर बनाते हैं: करुवाडु (सूखी मछली) के साथ काली. उनके यूट्यूब चैनेल की ख़ासियत यही है कि यह दक्षिण भारत के पारंपरिक व्यंजनों पर केन्द्रित है. “जब मैं सात या आठ साल का था तो रागी को ख़ूब खाया और पकाया जाता था. उसके बाद धीरे-धीरे वह हमारे जीवन से ग़ायब होती गई, और उसकी जगह चावल ने ले ली."

कोई हैरत की बात नही थी कि 8 मिलियन व्यूज़ के साथ एक दो साल पुराने वीडियो ने चैनल को 15 मिलियन सब्सक्राइबर्स दिए. इस वीडियो में रागी को ग्रेनाइट के पत्थर से पीसने से लेकर उसे ताड़ के पत्ते से बने दोने में खाने तक की सभी प्रक्रियाओं को बारीकी से दिखाया गया है.

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बाएं: पिछले पांच दशकों में रागी की खपत में भारी गिरावट आई है. दाएं: नागन्ना के अहाते का वह पत्थर जो गुड़ाई के काम में आता था. इस पत्थर को मवेशी खींचा करते थे

रागी का सबसे दिलचस्प पहलू इसके आटे के मुड्डे तैयार करना है. सुब्रमण्यम के 75 वर्षीय दादा पेरियातम्बी, पिसी हुई रागी को उबले चावल के साथ मिलाए जाने की प्रकिया पर नज़र रखते हैं. इसके बाद इस मिश्रण के छोटे-छोटे गोल लड्डू बनाए जाते हैं और उन लड्डुओं को चावल की मांड में डाला जाता है. इस नमकीन व्यंजन को सुखाई गई मछलियों, जिन्हें सुलगती हुई लकड़ी पर भुना जाता है, के साथ खाया जाता है. वह बताते हैं, "आम तौर पार रोज़ाना खाए जाने वाले इस व्यंजन को हरी मिर्च और छोटे प्याज के साथ खाया जाता है.”

सुब्रमण्यम चावल की देशी क़िस्मों और रागी के पौष्टिक गुणों के बारे में गहरी रुचि के साथ बताते हैं. साल 2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों से पहले सुब्रमण्यम और उनके भाइयों तथा चचेरे भाइयों ने राहुल गांधी को उनकी चुनावी यात्रा के दौरान ख़ासा प्रभावित किया था. अपने हरेक वीडियो के साथ उनका चैनल उन व्यंजनों पर केंद्रित बातें भी प्रसारित करता है, जो अब विलुप्ति की कगार पर हैं.

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वे किसान जो रसायनों का अधिक छिडकाव करते हैं, दरअसल अपने लाभ अस्पतालों को दान कर देते हैं.
आनंदरामु, कृष्णागिरी के रागी उपजाने वाले किसान

नागन्ना के गांव के आसपास के इलाक़े से खेतों से रागी की विलुप्ति के मुख्य रूप से तीन कारण हैं - लाभ का गणित, हाथियों का उत्पात, और सबसे महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तन. पहला कारण पूरे तमिलनाडु का सच है. रागी की खेती में प्रति एकड़ औसतन 16,000 से 18,000 रुपयों का निवेश है. आनंदा विस्तार से बताते हैं, “यदि फ़सल की अवधि में बारिश हो जाती है या हाथी तबाही मचाते हैं, तो नुक़सान से निबटने के लिए स्थिति को दोबारा पटरी पर लाने के लिए मजदूरों पर 2,000 रुपए अतिरिक्त व्यय करने पड़ते हैं."

“तमिलनाडु में 80 किलो की बोरी का विक्रय मूल्य 2,200 रुपए हैं. इसका अर्थ है कि प्रति किलो किसान को 27.50 रुपए मिलते हैं. जिस साल अच्छी फ़सल होती है उस साल अधिकतम 15 बोरी रागी का उत्पादन होता है. हाइब्रिड बीजों के इस्तेमाल की स्थिति में यह उत्पादन 18 बोरी तक हो सकता है. लेकिन," आनंद ख़बरदार करते हैं, “मवेशियों को हाइब्रिड की डांठे नहीं सुहाती हैं, उन्हें सिर्फ़ देशी क़िस्म ही पसंद है.”

और यही एक नाटकीय मोड़ है, क्योंकि रागी की डांठों का पूरा बोझ 15,000 में बिकता है और एक एकड़ ज़मीन से डांठ के दो बोझ हासिल किए जा सकते हैं. इनका इस्तेमाल किसान मवेशियों के चारे के रूप में करते हैं. वे इन्हें टीले के रूप में जमा कर लेते हैं और साल भर तक इनकी खपत होती रहती है. आनंद बतलाते हैं, “हम रागी भी नहीं बेचते हैं. जब तक कि अगले साल अच्छी फ़सल नहीं होती है. सिर्फ़ हम ही नहीं, हमारे कुत्ते और मुर्गियां तक रागी ही खाते हैं. इसलिए सबका पेट भरने के लिए हमें ढेर सारे अनाज की ज़रूरत है.”

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बाएं: आनंद अपनी भेड़ और बकरियों के साथ; मवेशी मुख्यतः रागी की डांठे ही खाते है. दाएं : नागन्ना के पैतृक घर में गुड़ाई के बाद प्लास्टिक की बोरियों में रखे गए अनाज

आनंदरामु मूलतः एक पुरानी मान्यता की ही पुष्टि कर रहे हैं - रागी इस क्षेत्र और यहां के जनजीवन के केंद्र में है, उसका महत्व केवल इसलिए नहीं है, क्योंकि वह एक प्राचीन खाद्यान्न है. आनंद कहते हैं, "यह एक मज़बूत फ़सल है, और आम तौर पर किसी भी प्रकार के “ख़तरे से मुक्त” है. “यह बारिश अथवा सिंचाई के बिना भी दो हफ़्ते तक जीवित रह सकती है. इसमें अधिक कीड़े नहीं लगते हैं, इसलिए हमें टमाटरों और फलियों की तरह अधिक रसायनों के छिडकाव की ज़रूरत भी नहीं पड़ती है. वे किसान जो रसायनों का अधिक छिड़काव करते हैं, वे अपने लाभ अस्पतालों को दान कर देते हैं.”

तमिलनाडु की सरकार द्वारा उठाया गया एक ताज़ा क़दम मुश्किलों को थोड़ा आसान करने में सहायक सिद्ध हो सकता है. राज्य सरकार ने चेन्नई और कोयंबटूर में जन वितरण प्रणाली की दुकानों में रागी बांटने की शुरुआत की है. इसके अतिरिक्त, 2022 का कृषि बजट पेश किए जाने के समय दिए गए भाषण में मंत्री एम.आर.के. पन्नीरसेलवम ने रागी शब्द का उल्लेख 16 बार किया, जबकि चावल और धान दोनों का उल्लेख 33 बार हुआ. रागी की खेती को बढ़ावा देने के लिए जो प्रस्ताव लाए गए उनमें एक प्रस्ताव दो विशेष क्षेत्र की स्थापना और राज्य व ज़िला स्तरीय उत्सवों के आयोजन से भी संबंधित था. इस मद में 92 करोड़ की राशि भी आवंटित की गई है, ताकि रागी के पोषक गुणों कर महत्व को लेकर जागरूकता उत्पन्न की जा सके.

एफएओ ने भी 2023 को अंतर्राष्ट्रीय रागी वर्ष के रूप में घोषित करने का निर्णय लिया है. यह घोषणा भारत के प्रस्ताव से ही प्रेरित है जो रागी सहित उन खाद्यान्नों पर केंद्रित हैं जो अपने पोषक गुणों के कारण जाने जाते हैं.

बहरहाल, नागन्ना के परिवार के लिए यह चुनौतियों से भरा साल होने वाला है. रागी के लिए निर्धारित आधा एकड़ खेत से वे सिर्फ़ तीन बोरियां पैदावार हासिल करने में कामयाब हुए हैं. बाक़ी की फ़सल बारिश और जंगली जानवरों के प्रकोप की बलि चढ़ चुकी है. आनंद कहते हैं, “रागी के मौसम में हर रोज़ हमें पेड़ पर बने मचान पर अपनी रात काटनी पड़ती है."

उनके दूसरे भाई-बहन - तीन भाई और एक बहन में - में से किसी और की खेती में कोई रुचि नहीं है और वे नज़दीक के शहर तल्ली में नौकरियां करते हैं. लेकिन आनंद की गहरी दिलचस्पी खेती में है. खेत में टहलते हुए वह कहते हैं, “स्कूल जाकर भी मैं क्या करता था? आम के पेड़ पर चढ़ जाता था और घंटों डाल पर बैठा रहता था. छुट्टी होने पर दूसरे बच्चों के साथ मैं भी घर लौट जाता था. मैं दरअसल यही करना चाहता था." बात करते हुए उनकी नज़र अपने चने की फ़सल पर टिकी हुई है.

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बाएं: आनंद अपने खेत में चने की फ़सल की निगरानी करते हुए. दाएं: रागी के मौसम में नागन्ना के खेत में पेड़ पर बना मचान, ताकि वहां से हाथियों पर नज़र रखी जा सके

वह हमें बारिश से हुए नुक़सान दिखा रहे हैं. हर तरफ़ फसलों को नुक़सान पहुंचा है. “मैंने अपने 86 साल के जीवन में ऐसी बारिश नहीं देखी,” नागन्ना की आवाज़ चिंता में डूबी हुई है. उनके, और जिस पर उन्हें गहरा विश्वास है, उस पंचांग के अनुसार इस साल की बारिश ‘विशाका’ है. बारिश की सभी क़िस्मों का नाम किसी तारे के नाम पर है. “ओरु मासम, मलई, मलई मलई.” इस पूरे महीने, सिर्फ़ बारिश, बारिश, बारिश. “सिर्फ़ आज थोड़ी धूप निकली है.” अख़बारों की रिपोर्ट भी इस भारी बरसात की पुष्टि करती है. उनके अनुसार 2021 में तमिलनाडु में 57 प्रतिशत अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई.

वापस गोपा के खेतों की तरफ़ लौटते हुए हमारी मुलाक़ात दो वृद्ध किसानों से होती है. उन्होंने शाल ओढ़ रखी है और माथे पर टोपी पहना हुआ है. उनके हाथों में छाते हैं. शुद्ध कन्नड़ में बताते हैं कि किस तरह रागी की पैदावार में भारी गिरावट आई है. गोपा हमारी सुविधा के लिए दुभाषिए का काम करते हैं.

के. राम रेड्डी (74 साल) मुझे बताते हैं कि कुछ दशक पहले की तुलना में अब रागी की खेती “सिर्फ़ आधे खेतों” में ही होती है. “हरेक परिवार पर लगभग दो एकड़ की औसत से. अब बस हम इतना भर ही उपजाते हैं.” बाक़ी के खेत में टमाटर और फलियों की उपज होती है. कृष्णा रेड्डी (63) मुझे बताते हैं कि वह रागी भी जो हम अभी उपजा रहे हैं, केवल हाइब्रिड और सिर्फ़ हाइब्रिड है. “हाइब्रिड” शब्द को रेखांकित करने के लिए वह उसे ज़ोर डालते हुए दोहराते हैं.

अपनी बांहों की मांसपेशियों के उभारों को दिखाते हुए राम रेड्डी बताते हैं, “नाटु रागी शक्ति जास्ती (देशी रागी बलवर्धक होती है)." अपनी अच्छी सेहत का पूरा श्रेय वह जवानी के दिनों में खाए गए देशी रागी को देते हैं.

लेकिन इस साल की तेज़ बारिश से वह भी दुखी हैं. वह बुदबुदाते हुए बोलते हैं, "यह बहुत बुरा हुआ."

बारिश से हुए नुक़सान का मुआवज़ा मिलने की संभावना को लेकर वह आश्वस्त नहीं हैं. “हमारे नुक़सान की कोई भी वजह रही हो, बिना रिश्वत दिए हमें कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. साथ ही पट्टे पर हमारा नाम चढ़ा होना चाहिए.” अन्यथा नाम के बिना मुआवज़े पर किसान का कोई हक़ नहीं है.

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बाएं: गोल्लापल्ली में किसान कृष्णा रेड्डी और राम रेड्डी (लाल टोपी में). दाएं: आनंद हाथियों द्वारा बर्बाद फ़सल की तस्वीरों के साथ

यह हमेशा आसान नहीं होता है. आनंद की आवाज़ में एक निराशा है. उनके पिता अपने ही भाई द्वारा ठगे गए थे. आनंद इस वाक़ये को अभिनय करके बताते हैं. वह चार क़दम आगे बढ़ाते हैं और फिर चार क़दम पीछे की तरफ़ लौट जाते हैं. “उन्होंने हमें ज़मीन भी इसी तरीक़े से दी - यह कहते हुए कि यह ज़मीन तुम्हारी है और यह मेरी. मेरे पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं, सो वह मान गए. आज सिर्फ़ चार एकड़ ज़मीन पर ही हमारी रजिस्ट्री है.” सच्चाई यह है कि वह ज़्यादा जमीन पर खेती कर रहे हैं. लेकिन किसी भी नुक़सान की स्थिति में वह सिर्फ़ उस चार एकड़ ज़मीन के हिसाब से ही मुआवज़े का दावा कर सकते हैं जो आधिकारिक तौर पर उनके नाम है.

बरामदे में पहुंचने के बाद वह हमें तस्वीरें और काग़ज़ात दिखलाते हैं. यहां हाथी ने फ़सल रौंद डाली थी, तो जंगली सूअरों ने नुक़सान पहुंचाया था. एक गिरा हुआ पेड़. बर्बाद हुई फ़सल. एक तस्वीर में गिरे हुए कटहल के पेड़ के पास खड़े उनके लंबे और निराश पिता.

नागन्ना अपनी तक़लीफ़ बताते हैं, “खेती करके आप पैसा कैसे कमा सकते हैं? क्या आप कोई अच्छी गाड़ी ख़रीद सकते हैं? अच्छे कपड़े पहन सकते हैं? हमारी आमदनी इतनी कम है, जबकि हमारे पास कम से कम अपनी ज़मीनें हैं.” उन्होंने अब औपचारिक अवसरों पर पहने जाने वाले, फॉर्मल कपड़े पहन लिए हैं - एक सफ़ेद कमीज़, नई धोती, टोपी, मास्क, और अंगोछा. “मेरे साथ मंदिर तक चलिए,” वह हमसे कहते हैं, और हम उनके साथ हो लेते हैं. जिस त्यौहार में वह जा रहे हैं, वह देंकनिकोट्टई तालुका में आयोजित है, जो ‘स्टार’ रोड (अच्छी सड़क) पर आधे घंटे की दूरी पर है.

नागन्ना हमें रास्ता दिखाते हुए यह भी बताते जा रहे हैं कि इस इलाक़े में कितनी तेज़ी से बदलाव आ रहा है. वह बताते हैं, गुलाब उगाने वाले किसान बड़े क़र्ज़ ले रहे हैं. वह एक किलो फूल के एवज़ में 50 से 150 रुपए लेते हैं. उनकी आमदनी शादी-ब्याह और उत्सव-त्यौहार पर निर्भर है. इस इलाक़े में गुलाब की सबसे बड़ी खूबी उनका रंग या उनकी ख़ुशबू नहीं, बल्कि यह है कि हाथी गुलाब खाना पसंद नहीं करते हैं.

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बाएं: नागन्ना, देंकनिकुट्टई में होने वाले उत्सव के लिए तैयार होते हुए. दाएं: दूसरे मंदिर से लाए गए उत्सव की शोभायात्रा का हाथी द्वारा नेतृत्व

जैसे-जैसे हम मंदिर के निकट पहुंच रहे हैं, वैसे-वैसे सड़क पर भीड़ भी बढ़ती जा रही है. एक लंबी शोभायात्रा निकलने वाली है जिसकी अगुआई एक हाथी करेगा. नागन्ना भविष्यवाणी करते हैं, “हम आनई से मिलेंगे." वह हमें मंदिर की रसोई में नाश्ते के लिए आमंत्रित करते हैं. खिचड़ी और बज्जी का स्वाद शानदार है. जल्दी ही एक हाथी आ चुका होता है. वह तमिलनाडु के किसी सुदूर मंदिर से आया है और उसके साथ उसका महावत और एक पुजारी भी है. नागन्ना बोलते हैं, “पलुता आनई." यह एक बूढी हथिनी है, जो धीरे-धीरे सुस्त चाल में चल रही है. लोगबाग अपने-अपने मोबाइल फ़ोनों से लगातार तस्वीरें ले रहे हैं. जंगल से सिर्फ़ आधे घंटे की दूरी पर, यह हाथी की एक अलग कहानी है.

मुझे आनंद की एक बात याद आती है, जिसे उन्होंने तब कही थी, जब वह बरामदे में गले में तौलिया लपेटे बैठे थे. “अगर एक या दो हाथी की बात हो, तो हम उनसे निपट सकते हैं, लेकिन युवा नर हाथियों को काबू में करना बहुत मुश्किल है. वे भयानक उपद्रव कर सकते हैं और कुछ भी खा सकते हैं.”

आनंद उनकी भूख को समझते हैं. “सिर्फ़ आधा किलो खाने के लिए हम इतनी मेहनत करते हैं. फिर हाथी क्या करेंगे? उनको रोज़ 250 किलोग्राम भोजन की ज़रूरत है. हम एक कटहल के पेड़ से 3,000 रूपये कमा सकते हैं. जिस साल हाथी सब कुछ खा जाते हैं, हम बस यही सोचते हैं कि भगवान हमारे घर आए थे.

इसके बाद भी अनंदा की बस इतनी सी कामना है. किसी दिन वह 30 से 40 बोरियों के बराबर रागी उगाना चाहता है, “सेइयनम, मैडम. मैं एक दिन ज़रूर सफल होऊंगा.”

मोट्टई वाल की भी यही इच्छा है ...

इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.

कवर फ़ोटो: एम पलानी कुमार

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Aparna Karthikeyan

Aparna Karthikeyan is an independent journalist, author and Senior Fellow, PARI. Her non-fiction book 'Nine Rupees an Hour' documents the disappearing livelihoods of Tamil Nadu. She has written five books for children. Aparna lives in Chennai with her family and dogs.

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Photographs : M. Palani Kumar

M. Palani Kumar is Staff Photographer at People's Archive of Rural India. He is interested in documenting the lives of working-class women and marginalised people. Palani has received the Amplify grant in 2021, and Samyak Drishti and Photo South Asia Grant in 2020. He received the first Dayanita Singh-PARI Documentary Photography Award in 2022. Palani was also the cinematographer of ‘Kakoos' (Toilet), a Tamil-language documentary exposing the practice of manual scavenging in Tamil Nadu.

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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