जब उनके सारे विकल्प ख़त्म हो गए, तो विजय कोरेटी और उनके दोस्तों ने पैदल चलकर घर जाने का फ़ैसला किया.

यह मध्य अप्रैल की बात थी. भारत कोविड-19 महामारी के चलते सख़्त लॉकडाउन से गुज़र रहा था. और वे चिंतित थे कि कब तक घर से दूर इन छोटी-छोटी झोंपड़ियों में फंसे रह पाएंगे.

कोरेटी याद करते हैं, "दो बार पुलिस ने हमारे दोस्तों को बीच में रोका और जब उन्होंने वहां से जाने की कोशिश की, तो उन्हें वापस भेज दिया. लेकिन एक-एक करके वे सब वहां से निकल गए, और घर पहुंचने के लिए पैदल चल पड़े."

दोस्तों की इस टोली ने, जिनके पास जीपीएस वाला एक स्मार्टफ़ोन तक नहीं था, एक संभावित मार्ग तय किया था:

तेलंगाना के कोमाराम भीम ज़िले में सिरपुर-काग़ज़नगर, जहां वे कपास की जुताई और प्रेसिंग मिल में काम करते थे, हैदराबाद-नागपुर रेलवे खंड में पड़ता है.

वहां से महाराष्ट्र के गोंदिया ज़िले की अर्जुनी मोरगांव तहसील में स्थित अपने गांव ज़शीनगर की ओर चलना था. अगर वे पटरियों के साथ-साथ चलते, तो 700-800 किलोमीटर की कुल दूरी पर पड़ती. हां, यह यात्रा भीषण तक़लीफ़देह होने वाली थी, लेकिन कोशिश करने लायक तो थी. अगर वे रेलवे लाइनों के साथ-साथ चले, तो पुलिस द्वारा उन्हें रोकने की संभावना भी कम थी.

और इस तरह, देश भर के लाखों श्रमिकों की जैसे ही 39 वर्षीय कोरेटी (एक एकड़ ज़मीन के मालिक गोंड आदिवासी किसान) और ज़शीनगर के अन्य लोगों ने काग़ज़नगर से उस कठिन सफ़र की शुरुआत की जिसमें अपने परिवार के पास वापस घर पहुंचने में उन्हें 13 रात और 14 दिन लगने थे. यह एक ऐसी दूरी थी जिसे ट्रेन या बस से आधे दिन (लगभग 12 घंटे) में तय किया जा सकता था. लेकिन वे पैदल ही यह दूरी नाप रहे थे.

Vijay Koreti and his daughter, Vedanti, at their home in Zashinagar village, Gondia district
PHOTO • Sudarshan Sakharkar

गोंदिया ज़िले के ज़शीनगर गांव में अपने घर पर विजय कोरेटी और उनकी बेटी वेदांती

उन्होंने ख़ुद को दो जत्थों में बांट लिया. उनमें से सत्रह, 44 वर्षीय हमराज भोयार के नेतृत्व में 13 अप्रैल के आस-पास ज़शीनगर के लिए रवाना हुए थे. वहीं, कोरेटी और दो अन्य मज़दूर - धनराज शहारे (30साल) और गेंदलाल होडीकर (59 साल) एक हफ़्ते बाद रवाना हुए.

पैदल यात्रा के दौरान की रातों और दिनों के वक़्त, कोरेटी अपनी सात वर्षीय बेटी वेदांती से मिलने के बारे में सोचते रहते थे. यही ख़याल उन्हें प्रेरित करता रहा. वह उनका इंतज़ार कर रही होगी, वह ख़ुद से यह कहते थे और पैरों में दर्द व तेज़ धूप होने के बावजूद चलना जारी रखते थे. नाटे, मगर मज़बूत कद-काठी के कोरेटी अब एक मुस्कान के साथ कहते हैं, "अम्हले फक्त घरी पोहचायचे होते [हम बस घर पहुंचना चाहते थे]." हम उनसे और उनके कुछ दोस्तों से उस लंबे मार्च के कई महीनों बाद, नवेगांव वन्यजीव अभयारण्य के किनारे स्थित ज़शीनगर में एक गर्म और उमस भरे दिन मिल रहे हैं. बाहरी लोगों को अंदर आने से रोकने के लिए, गांववालों ने जो बैरिकेड्स लगाए थे उन्हें हटा दिया गया है. लेकिन तनाव और महामारी का डर अब भी हवा में मौजूद है.

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9वीं कक्षा के बाद, कोरेटी की हाईस्कूल की पढ़ाई छूट गई और साल 2019 से पहले कभी भी काम के लिए वह अपने गांव से बाहर नहीं निकले थे. वह अपनी एक एकड़ ज़मीन की जुताई करते थे, आस-पास के इलाक़ों से मामूली वन उपज इकट्ठा करते थे, खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करते थे या पास के छोटे क़स्बों में छोटे-मोटे काम के लिए जाते थे. वह अपने गांव के कई अन्य लोगों की तरह, काम के लिए कभी भी लंबी दूरी तय नहीं करते थे.

लेकिन 2016 में नोटबंदी के बाद, काम-धंधों की हालत सिकुड़ गई और कुछ महीनों के खेतिहर मज़दूरी के अलावा, उन्हें अपने गांव या उसके आस-पास कोई अन्य काम नहीं मिला. आर्थिक मोर्चे पर चीज़ें मुश्किल होती जा रही थीं.

उनके बचपन के दोस्त और बीते काफ़ी समय से काम की तलाश में पलायन कर रहे भूमिहीन दलित 40 वर्षीय लक्ष्मण शहारे ने उन्हें 2019 में काग़ज़नगर जाने के लिए राज़ी किया.

शहारे 18 साल की उम्र से ही हर साल अपने गांव से काम के लिए पलायन करते रहे हैं (वीडियो देखें). जब महामारी आई, तो वह काग़ज़नगर में एक व्यवसायी के लिए सूपरवाइज़र के रूप में काम कर रहे थे और वहां की तीन कपास जुताई और प्रेसिंग इकाइयों में लगभग 500 मज़दूरों का प्रबंधन संभाल रहे थे - जिसमें से ज़्यादातर पुरुष मज़दूर उनके पैतृक गांव से व उसके आस-पास से थे और छत्तीसगढ़ जैसे अन्य राज्यों से पलायन करके आए थे.

शहारे घर पैदल नहीं गए, लेकिन जून की शुरुआत में एक वाहन में लौट आए. लेकिन तब भी उन्होंने अपने साथियों को इस लंबी यात्रा पर जाते हुए देखा. उनमें उनका अपना छोटा भाई धनराज भी शामिल था, जो कोरेटी की टीम में था. वह ख़ुद उस समय मिलों के बीच मज़दूरी का भुगतान करने, राशन पैक करने में लगे हुए थे. वह कहते हैं, "जो कुछ भी मैं कर सकता था वह कर रहा था, ताकि सुनिश्चित हो सके कि उन्हें जो चाहिए वह उन्हें मिल जाए."

वीडियो देखें: 'मेरा इस साल वापस जाने का मन नहीं कर रहा है'

कोरेटी नवंबर 2019 में काग़ज़नगर के लिए रवाना हुए थे और उन्हें जून 2020 में ख़रीफ़ की बुआई के लिए समय पर लौटना था. जिनिंग फ़ैक्ट्री में लगाए घंटों के आधार पर, वह 3,000-5,000 रुपए प्रति सप्ताह कमाने में सक्षम थे. जब वह अप्रैल 2020 में घर लौटे, तो वह क़रीब 40,000 रुपए की बचत साथ लाए थे, जो उन्होंने कारखाने में सिर्फ़ पांच महीने काम करके कमाए थे.

उनका कहना है कि वह अपने गांव में पूरे साल में जितना कमाते थे यह उससे कहीं अधिक था.

उन्होंने काग़ज़नगर में 21 दिनों के लॉकडाउन के समाप्त होने और परिवाहन सेवाओं के फिर से शुरू होने का धैर्यपूर्वक इंतज़ार किया था. लेकिन, इसके बाद लॉकडाउन को और बढ़ा दिया गया.

मिल के मालिक ने उन्हें राशन और अन्य सहायता दी, लेकिन काम रोक दिया गया था. कोरेटी कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान, हम एक अलग देश में थे. हमारी झोंपड़ियों में उथल-पुथल मची थी; हर कोई हमारी सेहत के लिए चिंतित था; कोविड-19 का डर भी हमारे चारों ओर मंडरा रहा था. हम सोच में पड़ गए हमें इंतज़ार करना चाहिए या वापस चले जाना चाहिए. मेरी चिंतित पत्नी मुझे वापस आने के लिए कहे जा रही थी.” फिर एक तूफ़ान ने फ़ैक्ट्री परिसर में स्थित उनकी झोंपड़ियों को नष्ट कर दिया, जिससे उनका निर्णय अपने-आप तय हो गया.

वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि हमने 20 अप्रैल को चलना शुरू किया था." कोरेटी का घर मिट्टी से सुंदर मकान है, जिसे उन्होंने ख़ुद बनाया है.

वे उत्तर-दक्षिण रेलवे मार्ग के नागपुर-हैदराबाद खंड के साथ-साथ उत्तर की ओर चलते रहे. महाराष्ट्र को पार करते हुए, वे चंद्रपुर ज़िले में पहुंचे और फिर घने जंगलों से गुज़रते हुए, गोंदिया में अपने गांव पहुंचने के लिए नए ब्रॉड-गेज ट्रैक (पटरी) के साथ पूर्व की ओर मुड़ गए.

रास्ते में उन्होंने वर्धा और कई छोटी नदियों को पार किया. कोरेटी कहते हैं कि जहां से उन्होंने चलना शुरू किया था वहां से उनका गांव बहुत दूर मालूम पड़ता था.

उन्होंने एक बार में एक क़दम उठाया.

Vijay Koreti (in the red t-shirt), Laxman Shahare (in the green shirt) and others from Zashinagar who walked about 800 kilometres to get home from Telangana's Komaram Bheem district during the lockdown
PHOTO • Sudarshan Sakharkar

विजय कोरेटी (लाल टी-शर्ट में), लक्ष्मण शहारे (हरे रंग की शर्ट में), और ज़शीनगर के अन्य लोगों लॉकडाउन के दौरान तेलंगाना के कोमाराम भीम ज़िले से लगभग 800 किलोमीटर की पैदल यात्रा की

जशीनगर ग्राम पंचायत के रिकॉर्ड बताते हैं कि 17 लोगों का एक जत्था दो समूहों में गांव पहुंचा; पहला 28 अप्रैल को. जत्थे के पांच लोग  जो 12 अन्य से अलग हो गए थे वे तीन दिन बाद 1 मई को पहुंचे, क्योंकि वे अपनी थकान से उबरने के लिए बीच में रुक गए थे.

कोरेटी और उनके दो दोस्त 3 मई को गांव पहुंचे. उनके पैर सूजे हुए थे और उनकी सेहत काफ़ी ख़राब थी.

जब वे ज़शीनगर पहुंचे, तो उनके जूते ख़राब हो चुके थे. उनके मोबाइल फ़ोन लंबे समय से बंद थे; उनका अपने परिवारवालों या दोस्तों से वस्तुतः कोई संपर्क ही नहीं था. वे बताते हैं कि रास्ते में उन्होंने मानवता के अच्छे और बुरे, दोनों पहलू को देखा – वे ऐसे रेलवे अधिकारियों, यहां तक कि ग्रामीणों से मिले जिन्होंने उन्हें भोजन, पानी, और आश्रय दिया. लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने उन्हें गांवों में प्रवेश करने से मना कर दिया था. उनमें से कई लोग यात्रा के अधिकांश भाग में नंगे पैर चलते रहे और वैसे भी उनके जूते ख़राब हो गए थे. चूंकि गर्मी का समय था, वे शाम के बाद ही चलते थे और दिन के सबसे गर्म समय में आराम करते थे.

अब उस समय के बारे में सोचते हुए कोरेटी को लगता है कि उनको और उनके सहयोगियों को इतना सबकुछ नही सहना पड़ता, अगर उन्हें वास्तव में लॉकडाउन के लिए दिए गए चार घंटों के बजाय, 48 घंटे का नोटिस मिला होता.

वह कहते हैं, "दोन दिवासाचा टाईम भेलता अस्त, तर अम्ही चुपचाप घर पोहोचलो अस्तो [अगर हमें दो दिन का समय मिलता, तो हम चुपचाप और सुरक्षित रूप से घर लौट जाते]."

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24 मार्च, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आधी रात को शुरू होने वाले लॉकडाउन की घोषणा चार घंटे पहले की थी. हालांकि, ऐसा कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए एक सुरक्षा-उपाय के रूप में किया गया था, लेकिन इसकी आधी-अधूरी सूचना और अचानक घोषणा से अफ़रा-तफ़री मच गई.

पूरे भारत में लाखों प्रवासी कामगार जोख़िम भरी यात्राएं करके अपने गांव पहुंचने की कोशिश करने लगे – उनमें से अनगिनत पैदल चले, सैकड़ों ने कठिन रास्तों पर लिफ़्ट मांगकर यात्रा की, कई अपनी साइकिल पर सवार होकर या ट्रकों और अन्य वाहनों पर सवार होकर अपने घरों तक पहुंचने के लिए निकल पड़े – क्योंकि सार्वजनिक परिवहन के लगभग सभी सामान्य साधनों को बंद कर दिया गया था.

हममें से बाक़ी लोग महामारी से बचने के लिए घर पर ही रहे.

Millions of migrants walked long distances to return home during the lockdown; some came by trucks or other vehicles as there was no public transport
PHOTO • Sudarshan Sakharkar
Millions of migrants walked long distances to return home during the lockdown; some came by trucks or other vehicles as there was no public transport
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लाखों प्रवासी मज़दूरों ने घर जाने के लिए लंबी दूरी पैदल ही तय की; कुछ ट्रक या अन्य वाहनों से गए, क्योंकि कोई सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं था

रास्तों पर चलने वालों के लिए यह एक बुरे सपने जैसा था. सोशल मीडिया पर कई मार्मिक कहानियां सामने आईं, और कुछ पत्रकार प्रवासी मज़दूरों के संघर्षों की कहानी सुनाने के लिए, अपने पेशेवर जीवन में शायद पहली बार आगे बढ़कर सामने आए. कुछ टिप्पणीकारों ने आसन्न संकट को ‘रिवर्स माइग्रेशन’ कहा. सभी सहमत थे कि यह 1947 के ख़ूनी विभाजन से भी बड़ा कुछ घट रहा था.

जिस समय लॉकडाउन की घोषणा की गई थी उस समय कोरोना वायरस के लगभग 500 मामले सामने आए थे. कई ऐसे ज़िले और क्षेत्र थे जहां एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया था. यहां तक ​​कि कोविड-19 टेस्ट अभी शुरू नहीं हुए थे. केंद्र ने एक प्रोटोकॉल विकसित करने और परीक्षण किट की ख़रीद के लिए टेंडर निकालने में महत्वपूर्ण समय गंवा दिया था.

अप्रैल के अंत तक, कोविड-19 मामलों में कई हज़ार की वृद्धि हुई और जून के अंत तक यह संख्या 10 लाख तक पहुंच गई. स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई थी. इस सप्ताह के अंत तक, भारत में लगभग 11 मिलियन कोविड मामले और 150,000 से अधिक मौतें दर्ज की जाएंगी. अर्थव्यवस्था बिल्कुल बिखर गई है - देश के सबसे ग़रीब तबके को बड़ा झटका लगा, विशेष रूप से प्रवासी मज़दूरों को, जो महामारी से पहले के वक़्त में और उसके आने के बाद भी सबसे कमज़ोर समूहों में से एक हैं.

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कोरेटी को याद है कि पहले दिन वह शाम 4 बजे के आसपास काग़ज़नगर से निकले और देर रात तक चलते रहे थे. सामान के नाम पर उनके पास एक जोड़ी कपड़े, कुछ किलो चावल और दाल, नमक, चीनी, मसाले, बिस्किट के कुछ पैकेट, कुछ बर्तन, और पानी की बोतलें थीं.

समय, तारीख़ें या स्थान जैसे विवरण अब उन्हें पूरी तरह याद नहीं हैं. उन्हें बस वह थका देने वाला सफ़र याद है.

रास्ते में तीनों ने एक-दूसरे से मुश्किल से कुछ बात की होगी. कभी कोरेटी दोनों से आगे होते थे, तो कभी दोनों के पीछे. यात्रा के दौरान वे अपना सामान और राशन अपने सर और पीठ पर ढोते हुए आए थे. उन्होंने जहां भी कोई कुआं या बोरवेल देखा, ख़ुद को प्यास से बचाने के लिए अपनी पानी की बोतलें भर लीं.

उनका पहला पड़ाव पटरियों के किनारे एक रेलवे शेल्टर में था. पहली शाम, वे लगभग पांच घंटे चले, खाना बनाया, और घास के मैदान में सो गए.

अगले दिन तड़के वे फिर से चलने लगे, और तब तक चलते रहे, जब तक कि सूरज की लपटें बुझ नहीं गईं. उन्होंने खेतों में, एक पेड़ के नीचे, पटरियों के किनारे शरण ली. शाम ढलते ही वे फिर चल पड़े, ख़ुद के पकाए हुए दाल-चावल खाए, कुछ घंटे सोए, और सुबह-सुबह अपनी यात्रा फिर से शुरू कर दी, जब तक कि सूरज फिर से सीधे उनके सर पर नहीं चढ़ आया. तीसरी रात, वे महाराष्ट्र सीमा के पास मकोदी नामक स्थान पर पहुंचे.

Left: Laxman Shahare has been migrating for work for more than 20 years. Right: Vijay Koreti with Humraj Bhoyar (centre) and Amar Netam (right) in Zashinagar
PHOTO • Sudarshan Sakharkar
Left: Laxman Shahare has been migrating for work for more than 20 years. Right: Vijay Koreti with Humraj Bhoyar (centre) and Amar Netam (right) in Zashinagar
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बाएं: लक्ष्मण शहारे 20 से अधिक वर्षों से काम की तलाश में पलायन करते रहे हैं. दाएं: ज़शीनगर में विजय कोरेटी, हमराज भोयर (बीच में) और अमर नेताम (दाएं) के साथ

कोरेटी कहते हैं कि 2-3 दिनों के बाद उनके दिमाग़ ने सोचना ही बंद कर दिया.

छोटे किसान हमराज भोयार कहते हैं, “हम गांवों, बस्तियों, रेलवे स्टेशनों, नदियों, और जंगलों से गुज़रते हुए, रेलवे की पटरियों के किनारे चलते रहे. हमराज के नेतृत्व में ही 17 लोगों का पहला समूह ज़शीनगर तक पहुंचा था.

इनमें से ज़्यादातर मज़दूरों की उम्र 18 से 45 साल के बीच थी. वे चल तो सकते थे, लेकिन भीषण गर्मी ने उनके लिए यह मुश्किल बना दिया था.

छोटे पड़ाव भी उन्हें बड़ी उपलब्धि की तरह लग रहे थे. मराठी में साइनबोर्ड देखकर उन्हें ख़ुशी और राहत महसूस हुई – वे महाराष्ट्र पहुंच चुके थे!

हमराज याद करते हैं, “हमने सोचा कि अब कोई परेशानी नहीं होगी." कोरेटी और उनके दो साथी उसी रास्ते से गए थे जिस रास्ते से हमराज की टीम कुछ दिन पहले गुज़री थी, और उन्हीं जगहों पर रुकी थी.

कोरेटी कहते हैं, “हम महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित विहिरगांव नामक स्थान पर रुके, और अगले दिन मानिकगढ़ में – जिसे चंद्रपुर ज़िले में कई सीमेंट कारखानों के लिए जाना जाता है."

हर रात जब वे चलते थे, चांद और तारे ही उनके साथी थे,

चंद्रपुर ज़िले के बल्लारपुर रेलवे स्टेशन पर उन्होंने नहाया, दिन भर सोए, और स्वादिष्ट भोजन किया.  सैकड़ों की संख्या में वहां पहुंचने वाले प्रवासी मज़दूरों के लिए, रेलवे अधिकारियों और स्थानीय लोगों ने भोजन की व्यवस्था की थी.

कोरेटी कहते हैं, “ऐसे वाटत होते, पूरा देश चलुन राहिला [ऐसा लगता था कि जैसे पूरा देश चल रहा था]. हम अकेले नहीं थे." लेकिन उन्हें थकी हुई असहाय महिलाओं और बच्चों को देखकर बहुत दुख हुआ. वह कहते हैं, “मैं ख़ुश था कि वेदांती और मेरी पत्नी शामकला घर पर सुरक्षित थे."

अगला पड़ाव था चंद्रपुर शहर. वहां उन्होंने एक रेलवे पुल के नीचे आराम किया और फिर उन पटरियों के साथ चलने लगे जो गोंदिया की ओर जाती थीं. उन्होंने बाघ क्षेत्र के बीच में चंद्रपुर ज़िले के मुफ़स्सिल स्टेशन, केल्ज़र और फिर मूल, दोनों को पार किया. कोरेटी कहते हैं, “केल्ज़र और मूल के बीच हमने एक तेंदुआ देखा. हम एक जलाशय के चारों ओर बैठे थे, जहां वह आधी रात को पानी पीने के लिए आया था." शामकला अपने पति को जीवित घर भेजने के लिए भगवान के प्रति कृतज्ञता भरे शब्द बोलती हुई उन्हें पीछे से देख रही हैं. वह आगे बताते हैं, “तेंदुआ भागकर घने जंगलों में चला गया." वे अपनी जान के बचाने के लिए तेज़ी से वहां से निकल गए.

केल्ज़र पार करने के बाद, उन्होंने पटरियां छोड़ दीं और सड़क पर चलने लगे.

Vijay with Shamkala and Vedanti. Shamkala says she was tense until her husband reached home
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शामकला और वेदांती के साथ विजय. शामकला का कहना है कि जब तक उनके पति घर नहीं पहुंचे, तब तक वह तनाव में थीं

ब्रम्हपुरी पहुंचने तक तीनों आदमी, विशेष रूप से उम्र में सबसे बड़े होड़िकर, बेहद थके चुके थे. ब्रम्हपुरी, चंद्रपुर ज़िले की एक तहसील है, जहां से वे गढ़चिरौली में स्थित वडसा के लिए रवाना हुए और फिर जशीनगर की तरफ़ मुड़ गए. सितंबर में जब हम उनसे मिलने गए, तो होड़िकर गांव में नहीं थे. इसके बाद, हम समूह के साथ नियमित संपर्क में रहे.

कोरेटी कहते हैं, “मूल पहुंचने के बाद हमें उन आश्रय शिविरों में अच्छा खाना खाने को मिला जिन्हें स्थानीय लोगों ने हमारे जैसे लोगों के लिए बना रखा था." 14वें दिन, यानी 3 मई को जब वे अंततः ज़शीनगर पहुंचे और ग्रामीणों द्वारा उनका स्वागत किया गया, तो यह उन्हें एक बहुत बड़ी उपलब्धि की तरह लगा.

उनके सूजे हुए पैरों को ठीक होने में कई दिन लग गए.

शामकला कहती हैं, “जावा पर्यंत हे लोक घरी पोहोचले नव्हते, अम्हले लगित टेंशन होते (जब तक ये लोग घर नहीं लौटे, तब तक हम बहुत तनाव में थे). हम महिलाएं अक्सर एक-दूसरे से बात करती थीं और उनके दोस्तों को फ़ोन करके देखती थीं कि क्या उनकी स्थिति के बारे में उन्हें कुछ पता है.”

कोरेटी याद करते हैं, "जब मैंने वेदांती को देखा, तो मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैंने उसे और मेरी पत्नी को दूर से देखा और उन्हें घर जाने के लिए कहा." उन्हें शारीरिक संपर्क से बचने की ज़रूरत थी. दो स्कूलों, एक बड़े केंद्रीय मैदान, और सभी ग्राम पंचायत भवनों को लौटने वाले प्रवासी मज़दूरों को अनिवार्य रूप से 14 दिनों के क्वारंटीन में रखने के लिए खोल दिया गया था. सरकार के बदलते निर्देशों के अनुरूप कुछ मामलों में इसे घटाकर 7-10 दिन कर दिया गया था; संभवत: इसलिए, क्योंकि लौटने वाले कुछ लोगों की यात्राएं बहुत अकेली क़िस्म की थीं और उनका दूसरों के साथ बहुत कम संपर्क हुआ था.

उस रात गांव के स्कूल में, जहां उन्होंने क्वारंटीन में एक सप्ताह बिताया था, कोरेटी कई हफ़्तों में पहली बार अच्छी तरह से और शांतिपूर्वक सो पाए. सही मायनों में यह घरवापसी थी.

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ज़शीनगर, जिसे मूल रूप से तंभोरा कहा जाता है, आज लगभग 2,200 निवासियों (2011 की जनगणना में 1,928) के साथ एक बड़ा गांव है.1970 में ईटियाडोह सिंचाई परियोजना द्वारा मूल बस्ती को निगल जाने के बाद इसे इस नए स्थान पर फिर से बसाया गया था. पांच दशक बाद, नई पीढ़ियां तो आगे बढ़ गयी हैं, लेकिन पुराने निवासी जो वहीं रहे अभी भी ज़बरन विस्थापन के बाद पुनर्वास और पुनर्स्थापन की समस्याओं से जूझ रहे हैं.

The migrants walked through fields, forest pathways and along railway tracks
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यात्रा के बीच प्रवासी मज़दूरों ने तमाम खेतों, जंगलों, और रेलवे ट्रैकों को पार किया

गोंदिया ज़िले की अर्जुनी मोरगांव तहसील में नवेगांव अभयारण्य के आसपास के जंगलों में बसा ज़शीनगर, गर्मियों के दौरान पीने के पानी की कमी से जूझता है. यहां के किसान लिफ़्ट सिंचाई परियोजना के पूरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं. गांव में मुख्यतः धान, दालें, और कुछ मोटे अनाज उगाए जाते हैं.

ज़शीनगर के 250 से 300 पुरुष और महिलाएं, हर साल काम की तलाश में दूर-दराज़ के स्थानों की ओर पलायन करते हैं. अप्रैल में प्रवासियों के पहले समूह के लौटने के बाद से, गांव की कोविड प्रबंधन समिति द्वारा बनाई गई एक सूची में दो दर्जन अलग-अलग गंतव्यों का रिकॉर्ड है. यहां के श्रमिक लगभग सात राज्यों में जाते हैं; गोवा से चेन्नई और हैदराबाद से कोल्हापुर और उससे आगे के स्थानों पर भी. लोग खेतों, कारखानों, कार्यालयों, सड़कों पर काम करने जाते हैं और घर पर पैसे भेजते हैं.

पूर्वी विदर्भ के धान उगाने वाले ज़िले, भंडारा, चंद्रपुर, गढ़चिरौली, और गोंदिया से काफ़ी पलायन होता है.  पुरुष और महिलाएं केरल के धान के खेतों या पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना या कपास मिलों में काम करने के लिए लंबी दूरी तय करती हैं. पिछले 20 वर्षों में श्रमिक ठेकेदारों की एक श्रृंखला उभरी है, जिनके माध्यम से उनमें से कुछ मज़दूर अंडमान भी जाते हैं.

भंडारा और गोंदिया जैसे ज़िलों से पलायन करने की मूल वजहों में एकल-फ़सल कृषि प्रणाली और उद्योगों की कमी है. ख़रीफ़ का मौसम समाप्त होने के बाद, भूमिहीन और छोटे किसान, जो बहुसंख्यक आबादी में हैं, उन्हें वर्ष के बाक़ी दिनों के लिए स्थानीय स्तर पर बहुत कम काम मिलता है.

44 वर्षीय भीमसेन डोंगरवार कहते हैं, “लोग इस क्षेत्र से बड़ी संख्या में पलायन करते हैं." भीमसेन पड़ोसी गांव ढाबे-पाओनी के एक बड़े ज़मींदार और वन्यजीव संरक्षणवादी हैं. वह कहते हैं, "पलायन बढ़ रहा था [महामारी से पहले के वर्षों में]." पलायन करने वालों में ज़्यादातर भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसान थे, जो रोज़गार हासिल करने के दबाव में थे. साथ ही, बेहतर मज़दूरी मिलने के कारण भी वे बाहर की तरफ़ खिंचे चले गए.

उल्लेखनीय रूप से – और काफ़ी हद तक सौभाग्य से – दूर और पास के इलाक़ों से सभी प्रवासी मज़दूरों के घर लौटने पर भी, ज़शीनगर में महामारी के दौरान अभी तक एक भी कोविड-19 नहीं आया है.

विलेज कोविड कोऑर्डिनेशन कमेटी के एक सदस्य विक्की अरोड़ा कहते हैं, “अप्रैल के अंत से एक दिन भी ऐसा नहीं बीता है, जब हमें उलझनों का सामना न करना पड़े.” वह पूर्व सरपंच के बेटे हैं और एक सक्रिय सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. उन्होंने हमें सूचित किया कि लॉकडाउन के दौरान अनिवार्य क्वारंटीन में समय बिताने वाले प्रवासियों की देखभाल के लिए ग्रामीणों ने पैसे जमा किए थे.

अरोड़ा हमें बताते हैं, “हमने सुनिश्चित किया कि कोई भी बाहरी व्यक्ति बिना अनुमति के प्रवेश न करे. पूरा गांव प्रवासियों के भोजन और अन्य आवश्यकताओं की देखभाल करता था, जिसमें उनके रहने की व्यवस्था, और उनका स्वास्थ्य परीक्षण और कोविड परीक्षण शामिल था. सरकार की ओर से एक रुपया भी नहीं आया.“

उनके द्वारा जुटाई गई धनराशि से, ग्रामीणों ने आइसोलेशन केंद्रों में रहने वालों के लिए सैनिटाइज़र, साबुन, टेबल फैन, बिस्तर, और अन्य सामग्री ख़रीदी.

Vicky Arora (left) says Zashinagar's residents collected money during the lockdown to look after the migrants spending time in isolation upon their return home (right)
PHOTO • Sudarshan Sakharkar
Vicky Arora (left) says Zashinagar's residents collected money during the lockdown to look after the migrants spending time in isolation upon their return home (right)
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विक्की अरोड़ा (बाएं) का कहना है कि ज़शीनगर के निवासियों के घर आने पर आइसोलेशन (दाएं) में समय बिताने वाले प्रवासियों की देखभाल के लिए धन एकत्र किया

ज़शीनगर की हमारी सितंबर की यात्रा के दौरान, चार युवा प्रवासियों का एक समूह, जो गोवा से घर लौटे थे, को एक ओपेन थिएटर में ग्राम पंचायत पुस्तकालय की देखरेख में रखा जा रहा था. उनमें से एक ने उत्तर दिया, “हम तीन दिन पहले वापस आए. हम अपने टेस्ट के नतीजों की प्रतीक्षा कर रहे हैं.“

हमने पूछा कि परीक्षण कौन करेगा.

अरोड़ा ने हमें सूचित किया, “गोंदिया स्वास्थ्य विभाग को सूचित कर दिया गया है. या तो गांववालों   को उन्हें निकटतम अस्पताल ले जाना होगा या स्वास्थ्य विभाग कोविड-19 परीक्षण करने के लिए एक टीम भेजेगा, जिसके बाद वे अपने परिणामों के आधार पर घर जा सकते हैं.” चारों मडगांव में एक स्टील रोलिंग मिल में काम करते हैं और एक साल बाद छुट्टी पर घर लौटे हैं. लॉकडाउन के दौरान, वे अपने कारखाने के परिसर में रहते थे और काम करते थे.

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वर्तमान में, ज़शीनगर रोज़गार की कमी से जूझ रहा है. पंचायत की बैठक हर रोज़ होती है. लक्ष्मण शहारे कहते हैं कि काग़ज़नगर से कोरेटी और अन्य प्रवासियों की वापसी के बाद, पिछले कई महीनों में केवल कुछ मज़दूर गांव से बाहर निकले हैं.

ज़शीनगर के 51 वर्षीय ग्राम सेवक (ग्राम सचिव) सिद्धार्थ खडसे कहते हैं, ‘’हम रोज़गार पैदा करने के प्रयास कर रहे हैं. सौभाग्य से, इस साल अच्छी बारिश हुई और किसानों ने अच्छी फ़सल काटी. [हालांकि, कीट के एक हमले ने कई लोगों की ख़रीफ़ की अच्छी उपज को तबाह कर दिया था]. लेकिन ग्राम पंचायत को रोज़गार पैदा करने की ज़रूरत है, ताकि हम कुछ प्रवासियों को काम दे सकें, अगर वे यहां रहते हैं.”

शहारे और कोरेटी सहित कुछ ग्रामीणों ने अन्य सामूहिक विकल्प आज़माने की कोशिश की है. उन्होंने रबी की बुआई के लिए अपनी ज़मीनें (सबकी मिलाकर लगभग 10 एकड़) मिला लीं. जहां इससे कुछ मदद मिली, गांव में अब भी ज़रूरत से बहुत कम काम उपलब्ध है – और ऐसी कोई संभावना नहीं है कि तमाम लोग 2021 की सर्दियों से पहले गांव से बाहर जाएंगे.

कोरेटी कहते हैं, “मैं इस साल बाहर नहीं जाऊंगा, भले ही इसका मतलब अभाव में ज़िंदगी गुज़ारना हो." महामारी के डर की वजह से अब भी बड़े पैमाने पर ज़शीनगर के सभी प्रवासियों का यही मानना है. महामारी का डर नहीं होता, तो इनमें से अधिकांश अक्टूबर 2020 तक पलायन कर चुके होते.

शहारे अपनी कुर्सी पर बैठते हुए घोषणा करने अंदाज़ में ज़ोरदार तरीक़े से कहते हैं, “इस साल भी कोई नहीं जा रहा है. हम अपनी बचत और स्थानीय कृषि कार्यों से ही गुज़ारा करेंगे." पिछली गर्मियों के ज़ख्म आज भी सालते हैं. वह कहते हैं, “मिल मालिक मुझे आदमियों को वापस लाने के लिए कह रहा है, लेकिन हम नहीं जा रहे हैं.“

अनुवाद: पंखुरी ज़हीर दासगुप्ता

Jaideep Hardikar

Jaideep Hardikar is a Nagpur-based journalist and writer, and a PARI core team member.

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Translator : Pankhuri Zaheer Dasgupta

Pankhuri Zaheer Dasgupta is an Independent Researcher and Writer based in Delhi. She is a practitioner and academic of dance and performance. She also co-hosts a weekly podcast called 'Zindagi As We Know It'.

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