कुछ महीने पहले मैंने एक सुबह, वरसोवा घाट पर खाड़ी के किनारे एक चट्टान पर बैठे रामजीभाई से पूछा कि वह क्या कर रहे हैं। “टाइम पास,” उन्होंने जवाब दिया। “मैं इसे घर ले जाऊंगा और खाऊंगा।” उन्होंने एक छोटे से टेंगड़ा (एक प्रकार की कैटफ़िश ) की ओर इशारा किया, जिसे उन्होंने थोड़ी देर पहले पकड़ा था। मैंने अन्य मछुआरों को जाल साफ़ करते हुए देखा जिसे उन्होंने पिछली रात खाड़ी में डाला था – इसमें ढेर सारी प्लास्टिक थी, कोई मछली नहीं फंसी थी।
“खाड़ी में मछली पकड़ना आज बमुश्किल संभव है,” भगवान नामदेव भानजी कहते हैं, जिन्होंने 70 साल से अधिक वर्षों से उत्तरी मुंबई के के-वेस्ट वार्ड में मछुआरों के गांव, वरसोवा कोलीवाड़ा में अपना जीवन व्यतीत किया है। “जब हम छोटे थे, तो यहां का तट मॉरीशस जैसा था। यदि आप पानी में सिक्का फेंकते, तो उसे आसानी से देख सकते थे... पानी इतना साफ़ हुआ करता था।”
जो मछलियां भगवान के पड़ोसियों के जाल में आकर फंसती हैं – जाल को अब समुद्र में और गहराई में ले जाकर डाला जाता है – वे अक्सर छोटी भी होती हैं। “पहले, हमें बड़ी पोम्फ्रेट मछलियां मिल जाया करती थीं, लेकिन अब छोटी मिलती हैं। इसका हमारे व्यवसाय पर बहुत प्रभाव पड़ा है,” भगवान की बहू, 48 वर्षीय प्रिया भांजी कहती हैं, जो 25 वर्षों से मछलियां बेच रही हैं।
यहां के लगभग सभी लोगों के पास लुप्त या कम होती मछलियों के बारे में बताने के लिए कोई ना कोई कहानी ज़रूर है – कोलीवाड़ा में मछुआरों के 1,072 परिवार या 4,943 लोग रहते हैं (2010 की समुद्री मत्स्य जनगणना के अनुसार)। और वे स्थानीय स्तर के प्रदूषण से लेकर विश्व-स्त्रीय उच्च तापमान तक को इसका कारण बताते हैं – दोनों ने वरसोवा में संयोजित होकर शहर के समुद्री किनारों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लाने में भूमिका निभाई है।

भगवान भानजी वरसोवा कोलीवाड़ा के दक्षिणी छोर पर स्थित एक यार्ड में, जहां ट्रॉलर की मरम्मत की जाती है
समुद्र तट के निकट वाले पानी में, मलाड खाड़ी में (जिसका पानी वरसोवा में समुद्र में जाकर गिरता है), भिंग , पाला और अन्य मछलियां जो लगभग दो दशक पहले इस कोलीवाड़ा के निवासियों द्वारा आसानी से पकड़ी जाती थीं, ऐसा लगता है कि अब मानवीय हस्तक्षेप के कारण समाप्त हो चुकी हैं।
आसपास के इलाकों से बहने वाले लगभग 12 नालों (खुले सीवर) से अनुपचारित सीवेज, औद्योगिक गाद, और वरसोवा तथा मलाड पश्चिम की दो नगरपालिका अपशिष्ट जल उपचार प्रणालियों से बहकर आने वाली गंदगी अब इस खाड़ी में गिरती है, जिसके बारे में भगवान का कहना है कि यहां पर कभी बिल्कुल साफ पानी हुआ करता था। “यहां पर अब शायद ही कोई समुद्री जीवन बचा हो। यह सारा प्रदूषण समुद्र के भीतर 20 मील तक जाता है। हर किसी के सीवेज, गंदगी और कचरे के कारण, एक साफ खाड़ी अब नाला बन चुकी है,” भगवान कहते हैं, जो कोली इतिहास, संस्कृति और स्थानीय राजनीति के अपने ज्ञान के लिए इस इलाके में जाने जाते हैं। कुछ साल पहले तक, वह अपने दिवंगत भाई की दो मछली पकड़ने वाली नावों के समुद तट के कार्यों का प्रबंधन किया करते थे – जैसे मछली को सुखाना, जाल बनाना, मरम्मत की निगरानी करना।
गंदे पानी का मतलब है खाड़ी में और तट के पास घुलित ऑक्सीजन के निम्न स्तर के साथ-साथ बड़ी संख्या में मल जीवाणु – और मछलियां इस पर जीवित नहीं रह सकतीं। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (एनईईआरआई) के वैज्ञानिकों का 2010 का एक शोध पत्र कहता है, “मलाड खाड़ी की स्थिति चिंताजनक है क्योंकि कम ज्वार के दौरान खाड़ी में कोई डीओ [घुलित ऑक्सीजन] नहीं है... उच्च ज्वार के दौरान स्थिति थोड़ी बेहतर थी…”
महासागरों का प्रदूषण दीर्घकालीन प्रभाव उत्पन्न करने के लिए जलवायु परिवर्तन के साथ प्रतिच्छेद करता है। विकास की गतिविधियों में तेज़ी, तटीय और समुद्री प्रदूषण (80 प्रतिशत से अधिक की उत्पत्ति भूमि-आधारित स्रोतों से होती है) और समुद्री धाराओं पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से समुद्र के मृत क्षेत्रों (ऑक्सीजन-मृत क्षेत्रों) के फैलाव में तेज़ी आएगी, यह अवलोकन संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा 2008 में प्रकाशित एक पुस्तक – इन डेड वॉटर: मर्जिंग ऑफ क्लाइमेंट विद पॉल्युशन, ओवर-हार्वेस्ट एंड इन्फेस्टेशन इन दी वर्ल्ड्स फ़िशिंग ग्राउंड्स – में किया गया है। पुस्तक में कहा गया है कि “...समुद्र तटों पर तेज़ी से हो रहे निर्माण के कारण मैनग्रोव और अन्य निवास स्थानों का विनाश हो रहा है जिससे प्रदूषण के प्रभाव और गहराते जा रहे हैं...”


बाएं: बदलते ज्वार-भाटा से संघर्षरत – कोलीवाड़ा में काम करते मछुआरे। दाएं: सभी मछलियां मलाड खाड़ी और आस-पास के तटों से जा चुकी हैं , इसलिए वरसोवा कोलीवाडा के मछुआरों को समुद्र की गहराई में जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है
मुंबई में भी, सड़कों, इमारतों और अन्य परियोजनाओं के लिए मैनग्रोव के एक बड़े इलाके को साफ कर दिया गया है। मैनग्रोव मछलियों के लिए एक महत्वपूर्ण समांडन स्थल होता है। इंडियन जर्नल ऑफ मरीन साइंसेज़ के 2005 के एक शोध पत्र में लिखा गया है, “मैनग्रोव वन न केवल तटीय समुद्री जीवों की सहायता करते हैं, बल्कि तट को कटाव से भी बचाते हैं और ज्वारनदमुखी और समुद्री जीवों के लिए प्रजनन, भोजन और नर्सरी के मैदान के रूप में भी काम करते हैं।” वर्ष 1990 से 2001 तक, केवल 11 सालों में अकेले मुंबई उपनगरीय क्षेत्र में कुल 36.54 वर्ग किलोमीटर मैनग्रोव की सफाई कर दी गई, पेपर में आगे कहा गया है।
“मछलियां [मैनग्रोव में] अपने अंडे देने के लिए तट पर आती थीं,
लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता,” भगवान कहते हैं।
“जितने भी मैनग्रोव बर्बाद किए जा सकते थे हमने कर दिए। अब बहुत ही
कम बचे हैं। यहां के उपनगरों और लोखंडवाला और आदर्श नगर जैसे तटीय इलाकों की इमारतें
पहले मैनग्रोव हुआ करती थीं।”
नतीजतन, सभी मछलियां मलाड खाड़ी और आस-पास के तटों से जा चुकी हैं, इसलिए वरसोवा कोलीवाडा के मछुआरों को समुद्र की गहराई में जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। लेकिन गहरे समुद्र में भी, समुद्र के बढ़ते तापमान, चक्रवाती तूफान और बड़े जहाज़ों द्वारा मछली पकड़ने से उनके व्यापार पर असर पड़ा है।
“इससे पहले, उन्हें मछली पकड़ने के लिए गहरे समुद्र में [तट से 20 किलोमीटर से अधिक दूर] नहीं जाना पड़ता था क्योंकि तटीय पारिस्थितिकी बहुत समृद्ध थी,” वरसोवा कोलीवाड़ा में तटीय प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करने वाले वास्तुकारों के एक समूह, बॉम्बे 61 के केतकी भडगांवकर कहते हैं। “गहरे समुद्र में माहीगिरी ने मछली पकड़ने को आर्थिक रूप से अस्थिर बना दिया है क्योंकि इसमें काफी निवेश करना पड़ता है – बड़ी नावों, चालक दल इत्यादि पर। और मछुआरों को इस बात का भरोसा भी नहीं होता है कि बड़ी मछलियां उनके हाथ आएंगी।


ये तस्वीरें वरसोवा कोलीवाड़ा के एक मछुआरे, दिनेश धांगा द्वारा 3 अगस्त, 2019 को खींची गई थीं, जब नावें ऊंची लहरों में फंस गई थीं। पीले रंग की रेत खाड़ी से निकलने वाली गाद है जिससे होकर मछुआरे मानसून के महीनों में बाहर निकलते हैं, ताकि नावें समुद्र की ओर अधिक आसानी से जा सकें। गाद खाड़ी की तली में बैठ जाती है, क्योंकि नालों और सीवेज उपचार प्रणालियों से निकलने वाले कचरे इसमें बहकर गिरते हैं
गहरे समुद्र में मछली पकड़ना अरब सागर के गर्म होने के कारण भी अनिश्चित हो
गया है – इसके ऊपरी स्तर के तापमान में 1992 से 2013 के बीच प्रत्येक दशक में औसतन 0.13 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है,
जियोफ़िज़िकल
रिसर्च लेटर्स
नामी पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र
बताता है। इससे समुद्री जीवन प्रभावित हुआ है, डॉ. विनय देशमुख कहते हैं, जो चार
दशकों से अधिक समय तक सीएमएफआरआई के मुंबई केंद्र के साथ रहे। “
सार्डिन
मछलियां, [भारत के] दक्षिण में स्थित प्रमुख मछलियों में से एक, [तट के
साथ] उत्तर की ओर जाने लगीं। और मैकेरल, दक्षिण की एक और
मछली, गहरे पानी में [20 मीटर नीचे] जाने
लगीं।” उत्तरी अरब सागर का पानी और गहरे समुद्र का पानी
अपेक्षाकृत ठंडा रहता है।
मुंबई और महाराष्ट्र के समुद्री जल का गर्म होना एक परस्पर वैश्विक पैटर्न का हिस्सा है – 2014 में, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अनुमान लगाया कि 1971 से 2010 के बीच प्रत्येक दशक में, दुनिया के महासागरों के ऊपरी 75 मीटर हिस्से 0.09 से 0.13 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो गए थे।
इस बढ़ते समुद्री तापमान ने कुछ मछलियों के जीव विज्ञान को बदल दिया है – एक महत्वपूर्ण और “अपरिवर्तनीय परिवर्तन” डॉ. देशमुख कहते हैं। “जब पानी अपेक्षाकृत ठंडा था और तापमान लगभग 27 डिग्री था, तब मछलियां देर से बड़ी होती थीं। लेकिन अब चूंकि पानी गर्म हो चुका है, मछलियां जल्दी बड़ी हो जाती हैं। यानी, उन्होंने अपने जीवन चक्र में अंडे और शुक्राणु का उत्पादन जल्दी करना शुरू कर दिया है। ऐसा होने पर मछलियों के शरीर का आकार छोटा होने लगता है। यह हमने बॉम्बे डक और पोम्फ्रेट में स्पष्ट रूप से देखा है।” अतः तीन दशक पहले एक परिपक्व पोम्फ्रेट , जो लगभग 350-500 ग्राम की होती थी, आज सिर्फ 200-280 ग्राम की रह गई है – उच्च तापमान और अन्य कारकों से उनका आकार छोटा हो गया है – ऐसा डॉ. देशमुख और स्थानीय मछुआरों का अनुमान है।
तीन दशक पहले एक परिपक्व पोम्फ्रेट , जो लगभग 350-500 ग्राम की होती थी, आज सिर्फ 200-280 ग्राम की रह गई है – उच्च तापमान और अन्य कारकों से उनका आकार छोटा हो गया है
लेकिन, डॉ. देशमुख के विचार में, हद से ज़्यादा मछली पकड़ना कहीं अधिक बड़ा कारण रहा है। नावों की संख्या बढ़ी है और ट्रॉलर तथा अन्य बड़ी नावें (जिनमें से कुछ कोलीवाड़ा के स्थानीय लोगों की भी हैं) समुद्र में जितना समय बिताती हैं, उसमें भी वृद्धि हुई है। वह बताते हैं कि वर्ष 2000 में ये नावें समुद्र में 6-8 दिन बिताया करती थीं; बाद में यह बढ़कर पहले 10-15 दिन हुआ और अब 16-20 दिन हो चुका है। इससे समुद्र में मौजूदा मछलियों के भंडार पर दबाव बढ़ गया है। और, वह कहते हैं, ट्रॉलिंग के कारण समुद्र तल के पारिस्थितिकी तंत्र में गिरावट आई है, “जो ज़मीन [समुद्री तल] को खुरचता है, पौधों को उखाड़ देता है और जीवों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने नहीं देता है।”
देशमुख कहते हैं कि महाराष्ट्र में पकड़ी गई मछली की कुल मात्रा 2003 में अपने उच्च स्तर पर पहुंच गई थी, जब यह लगभग 4.5 लाख टन थी, जो 1950 के बाद से अपने दस्तावेज़ित इतिहास में सबसे अधिक है। हद से ज़्यादा मछली पकड़ने के कारण यह मात्रा हर साल नीचे होती चली गई – 2017 में यह 3.81 लाख टन थी।
“ओवर-हार्वेस्टिंग और समुद्र तल में महाजाल लगाने से मछलियों के आवास कम हो रहे हैं और समुद्री जैव विविधता के बेहतरीन स्थान का पूरा उत्पादन खतरे में पड़ गया है,” इन डेड वॉटर नामक किताब कहती है, “जिसके वजह से उनके जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने का खतरा और बढ़ गया है।” और, यह कहती है, मानव गतिविधि के प्रभाव (प्रदूषण और मैनग्रोव-विनाश सहित) समुद्र के स्तर में वृद्धि और तूफानों की आवृत्ति और तीव्रता में तेज़ी से और भी जटिल हो जाएंगे।
दोनों के सबूत अरब सागर में – और इस तरह से वरसोवा कोलीवाड़ा में मौजूद हैं। “...एंथ्रोपोजेनिक फोर्सिंग ने अरब सागर पर देर-सवेर ईसीएससी [अत्यधिक गंभीर चक्रवाती तूफान] की संभावना को बढ़ा दिया है...” 2017 में नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक शोध पेपर कहता है।

व्यापक भूमि सुधार और तटीय इलाकों में निर्माण ने मैनग्रोव को समाप्त कर दिया , पानी के पैटर्न को बदल दिया और मुंबई के मछुआरा समुदायों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है
इन तूफानों ने मछुआरा समुदायों को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे में जलवायु अध्ययन विभाग के संयोजक, प्रोफेसर डी. पार्थसारथी बताते हैं। “पकड़ी गई मछलियों की मात्रा में गिरावट के कारण, मछुआरों को समुद्र में गहराई तक जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन उनकी [कुछ] नावें काफी छोटी हैं और वे गहरे समुद्र में जाने लायक नहीं हैं। इसलिए जब तूफान और चक्रवात आते हैं, तो वे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। मछली पकड़ना बहुत अधिक अनिश्चित और जोखिम भरा होता जा रहा है।”
समुद्र का जलस्तर बढ़ना इससे जुड़ी एक अन्य समस्या है। भारतीय तट के साथ, पिछले 50 वर्षों के दौरान जलस्तर में 8.5 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है – या प्रति वर्ष 1.7 मिलीमीटर (संसद में उठाए गए एक सवाल का जवाब देते हुए सरकार ने, नवंबर 2019 में राज्यसभा को बताया)। वैश्विक समुद्र जलस्तर इससे भी उच्च दर पर बढ़ रहा है – पिछले 25 वर्षों में हर साल 3 से 3.6 मिमी के आसपास, आईपीसीसी के आंकड़े और प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (अमेरिका) नामक पत्रिका में छपा 2018 का एक शोध पत्र बताता है। इस दर पर, दुनिया भर में समुद्र का जलस्तर वर्ष 2100 तक लगभग 65 सेंटीमीटर बढ़ सकता है – हालांकि यह वृद्धि क्षेत्रीय रूप से भिन्न है, जो ज्वार, गुरुत्वाकर्षण, पृथ्वी के चक्र की जटिलता पर निर्भर करती है।
डॉ. देशमुख चेतावनी देते हैं कि समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, “वरसोवा के लिए विशेष रूप से खतरनाक है क्योंकि यह खाड़ी के मुहाने पर स्थित है और मछुआरे जहां कहीं भी अपनी नावों को रखते हैं, वे तूफानी मौसम की चपेट में आ जाते हैं।”
वरसोवा कोलीवाडा के कई लोगों ने समुद्र के इस बढ़ते जलस्तर को देखा है। 30 साल से मछली बेच रहीं हर्षा राजहंस तापके कहती हैं, “क्योंकि मछलियों की पकड़ कम हो गई है, इसलिए लोगों [बिल्डरों और स्थानीय लोगों] ने उस ज़मीन का पुनर्ग्रहण कर लिया है, जहां हम अपनी मछलियां सुखाते हैं और वहां [रेत पर] मकान बनाने लगे हैं। इस पुनर्ग्रहण के साथ, खाड़ी में पानी का स्तर बढ़ रहा है, और हम इसे किनारे के साथ-साथ देख सकते हैं।”

हर्षा तापके (बाएं) , जो 30 साल से मछली बेच रही हैं, उन परिवर्तनों के बारे में बता रही हैं जो वह देख चुकी हैं। उनके साथ हैं सहायिका यशोदा धनगर, जो आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिले की रहने वाली हैं
और जब शहर में बहुत अधिक वर्षा होती है, तब भी मछुआरा समुदायों के ऊपर संयुक्त प्रभाव – मैनग्रोव की हानि, निर्माण के लिए पुनर्ग्रहित भूमि, समुद्र के बढ़ते जलस्तर इत्यादि का – बहुत बड़ा होता है। उदाहरण के लिए, 3 अगस्त 2019 को मुंबई में 204 मिलीमीटर बारिश हुई – एक दशक में अगस्त महीने में 24 घंटे की तीसरी सबसे अधिक बारिश – और 4.9 मीटर (लगभग 16 फीट) का उच्च ज्वार। उस दिन, वरसोवा कोलीवाड़ा में लंगर अंदाज़ कई छोटी नावों को ताकतवर लहरों ने तहस-नहस कर दिया और मछुआरा समुदायों को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
“कोलीवाड़ा के उस भाग [जहां नावें रखी जाती हैं] का पुनर्ग्रहण कर लिया गया है, लेकिन पिछले सात सालों में पानी उतना नहीं बढ़ा, जितना उस दिन बढ़ा था,” वरसोवा माशेमारी लघु नौका संगठन के अध्यक्ष, दिनेश धांगा कहते हैं, यह लगभग 250 मछुआरों का संगठन है जो 148 छोटी नावों पर काम करते हैं। “तूफान उच्च ज्वार के दौरान आया था, इसलिए जलस्तर दोगुना बढ़ गया। कुछ नावें डूब गईं, कुछ टूट गईं। मछुआरों का जाल खो गया और पानी कुछ नावों के इंजन में घुस गया।” प्रत्येक नाव की क़ीमत 45,000 रुपये तक हो सकती है, दिनेश कहते हैं। प्रत्येक जाल की क़ीमत 2,500 रुपये है।
वरसोवा के मछली पकड़ने वाले समुदाय की आजीविका पर इस सब का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। “हमने पकड़ी गई मछली की मात्रा में 65-70 प्रतिशत का अंतर देखा है,” प्रिया भानजी कहती हैं। “अभी हम बाज़ार में अगर 10 टोकरियां लेकर जा रहे हैं, तो पहले [लगभग दो दशक पहले] 20 टोकरियां ले जाया करते थे। यह बहुत बड़ा अंतर है।”
और पकड़ी गई मछलियों का आकार जहां एक तरफ़ कम हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ बंदरगाह के निकट थोक बाज़ार में, जहां से महिलाएं मछलियां खरीदती हैं, क़ीमतें बढ़ गई हैं – इसलिए उनका मुनाफा लगातार कम हुआ है। “पहले, हम अपना सबसे बड़ा टुकड़ा [ पोम्फ्रेट का], लगभग एक फुट लंबा, 500 रुपये में बेचते थे। अब उस क़ीमत में, हम छह इंच की पोम्फ्रेट बेचते हैं। पोम्फ्रेट का आकार छोटा हो गया है और क़ीमतें बढ़ गई हैं,” प्रिया कहती हैं, जो तीन दिन मछलियां बेचकर 500-600 रुपये कमाती हैं।


बाएं: दिनेश धांगा (दाईं ओर) छोटी नावों का संचालन करने वाले लगभग 250 मछुआरों के एक संगठन की अध्यक्षता करते हैं; इसके सदस्यों में सुनील कापतील (बाएं) और राकेश सुकचा (केंद्र) शामिल हैं। दिनेश और सुनील के पास अब मछली पकड़ने से अपनी घटती आय को पूरा करने के लिए गणपति की मूर्ति बनाने की एक कार्यशाला है
कम आय की भरपाई करने के लिए, मछुआरा परिवारों में से कई ने अन्य काम ढूंढने शुरू कर दिए हैं। प्रिया के पति विद्युत ने केंद्र सरकार के कार्यालय के लेखा विभाग में काम किया (जब तक कि उन्होंने समय से पहले सेवानिवृत्ति नहीं ले ली); उनके भाई गौतम एयर इंडिया में स्टोर मैनेजर के रूप में काम कर रहे हैं, जबकि उनकी पत्नी अंधेरी बाज़ार में मछली बेचती हैं। “अब वे कार्यालय की नौकरी कर रहे हैं [क्योंकि मछली पकड़ना अब व्यवहार्य नहीं है]” प्रिया कहती हैं। “लेकिन मैं कुछ और नहीं कर सकती क्योंकि मुझे इसी की आदत है।”
43 वर्षीय सुनील कापतील, जिनके परिवार के पास एक छोटी नाव है, ने भी आय अर्जित करने के अन्य तरीकों की तलाश की है। कुछ महीने पहले, उन्होंने अपने दोस्त दिनेश धांगा के साथ गणपति की मूर्ति बनाने का एक व्यवसाय शुरू किया है। “पहले, हम आसपास के क्षेत्रों में मछली पकड़ने जाते थे, लगभग एक घंटे के लिए। अब, हमें 2-3 घंटे की यात्रा करनी पड़ती है। हम एक दिन में मछली से भरी 2-3 पेटियों [टोकरियों] के साथ वापस आते थे। अब हम एक पेटी पकड़ने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं…” सुनील कहते हैं। “कभी-कभी हम 1,000 रुपये [एक दिन में] कमा लेते है, कभी-कभी 50 रुपये भी नहीं कमा पाते।”
फिर भी, वरसोवा कोलीवाड़ा में कई लोग पूर्णकालिक मछुआरे और मछली विक्रेता बने हुए हैं, जो समुद्र के बढ़ते जलस्तर, तापमान में वृद्धि, हद से ज़्यादा माहीगिरी, प्रदूषण, लुप्त हो रहे मैनग्रोव इत्यादि के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं – गिरती हुई मछली की मात्रा और छोटी मछलियों के साथ। 28 साल के राकेश सुकचा, जिन्हें अपने परिवार की आय के कारण कक्षा 8 के बाद स्कूल छोड़ना पड़ा, उन लोगों में से एक हैं जो केवल मछली पकड़ने पर निर्भर हैं। वह कहते हैं: “हमारे दादाजी हमें एक कहानी सुनाते थे: अगर तुम्हें जंगल में कोई शेर दिखे, तो तुम्हें उसका सामना करना होगा। अगर तुम भागोगे, तो वह तुम्हें खा जाएगा। अगर तुम [उसके खिलाफ] जीत जाते हो, तो तुम बहादुर हो। इसी तरह, उन्होंने हमसे कहा कि हम समुद्र का सामना करना सीखें।”
लेखिका इस स्टोरी में मदद करने के लिए नारायण कोली , जय भाडगांवकर, निखिल आनंद, स्टालिन दयानंद और गिरीश जठार का शुक्रिया अदा करना चाहती हैं।
जलवायु परिवर्तन पर PARI की राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग, आम लोगों की आवाज़ों और जीवन के अनुभव के माध्यम से उस घटना को रिकॉर्ड करने के लिए UNDP -समर्थित पहल का एक हिस्सा है।
इस लेख को प्रकाशित करना चाहते हैं ? कृपया [email protected] को लिखें और उसकी एक कॉपी [email protected] को भेज दें
हिंदी अनुवाद : मोहम्मद क़मर तबरेज़