फ़ातिमा बीबी कहती हैं, “लोग-बाग मेरे ससुर से अक्सर पूछते थे, ‘क्या आपके घर की लड़की पैसे कमाने के लिए घर से बाहर जाएगी?’ मैं इस क़स्बे की बेटी नहीं हूं, इसलिए मेरे लिए कायदे-क़ानून कुछ ज़्यादा सख़्त हैं.”

अपना काला नक़ाब आहिस्ते से उतार कर उसे घर के मुख्य दरवाज़े के पास लगी कील पर टांगती हुईं वह घर के भीतर दाख़िल होती हैं, लेकिन हमारे बीच की बातचीत भी साथ-साथ जारी रहती है. वह याद करती हुई हंसती हैं, “जब मैं बच्ची थी, तब मैं सोचती थी कि मेरा काम सिर्फ़ खाना पकाना और घर संभालना है. दोपहर की धूप में चांदी के रंग के सितारे टंके अपने सफ़ेद दुपट्टे को संभालती हुई 28 साल की फ़ातिमा दृढ आवाज़ में बोलती हैं, “जब मैंने अपनी पसंद का कुछ करने का फ़ैसला किया, तब मेरे परिवार ने मुझे बाहर निकलने और अपने लिए कुछ करने की पूरी आज़ादी दी. मैं भले ही एक जवान मुसलमान औरत हूं, लेकिन ऐसा कोई काम नहीं है जो मैं नहीं कर सकती हूं.”

फ़ातिमाम, उत्तरप्रदेश के प्रयागराज (पहले इलाहाबाद के नाम से मशहूर) ज़िले के महेवा क़स्बे में रहती हैं, जहां लोगों की ज़िंदगियां क़रीब ही बहती यमुना के बहाव की तरह ही सुस्त रफ़्तार है. वह उनलोगों में शुमार हैं जो कभी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहे, इसलिए आज वह एक दक्ष कारीगर और हस्तकला उद्यमी हैं. वह सरकंडे की तरह की पतली और खोखली घास, जिसे मूंज या सरपत कहते हैं - की तीलियों से विविध तरह की घरेलू चीज़ें बना कर बेचती हैं.

एक छोटी लड़की के तौर पर फ़ातिमा को यह नहीं पता था कि बड़ी होकर वह क्या करेंगी, लेकिन मोहम्मद शकील से निक़ाह के बाद वह महेवा आ गईं, जहां उनको अपनी सास आयशा बेगम, जो मूंज की एक अनुभवी और सिद्धहस्त कारीगर थीं, का साथ मिल गया.

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बाएं: आयशा बेगम मूंज की टोकरी का ढक्कन बुन रही हैं. वह सूखी घास से कई तरह के उत्पाद बनाती हैं, जैसे टोकरियां, डिब्बे, टिकली, आभूषण, और तमाम अन्य सजावटी सामान. दाएं: आयशा की बहू फ़ातिमा बीबी, तैयार टोकरियों के साथ बैठी हैं, जिन्हें बाज़ार और शिल्प प्रदर्शनियों में बेचा जाएगा

युवा दुल्हन के रूप में उन्होंने मूंज को अपनी सास के हाथों सफ़ाई के साथ अनेक घरेलू चीज़ों का रूप लेते हुए देखा. उनमें अलग-अलग आकारों और डिज़ाइनों के ढक्कन और बिना ढक्कन वाले बास्केट, कोस्टर, ट्रे, पेन स्टैंड, थैले, डस्टबिन, और छोटे-छोटे सजावटी झूले, ट्रैक्टर, और साज-सज्जा की दूसरी चीज़ें शामिल थीं. इन चीज़ों की बिक्री से घर में छोटी ही सही, लेकिन स्थायी रक़म आमदनी के रूप में आती थी, जिन्हें घर की औरतें अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ ख़र्च करती थीं.

वह कहती हैं, “मैंने अपनी अम्मी को अपने घर पिपिरसा में भी मूंज के सामान बनाते हुए देखा था.” जल्दी ही फ़ातिमा भी इस कला की बारीकियां सीख गईं. नौ साल की आफ़िया और पांच साल के आलियान की मां फ़ातिमा कहती हैं, “मैं एक घरेलू औरत थी जो अपना परिवार संभालती थी, लेकिन मेरे भीतर कुछ और करने की एक ख़्वाहिश थी. आज अपने इस काम के ज़रिए मैं महीने में 7,000 रुपए तक कमा लेती हूं.”

जिस समय वह मूंज के सामान नहीं बनाती होती हैं, तब भी फ़ातिमा अलग-अलग तरीक़ों से इस हस्तकला का प्रचार-प्रसार करने में व्यस्त रहती हैं: वह बनाए गए मूंज उत्पादों को इकट्ठा कर उनकी बिक्री करती हैं, नए ख़रीदारों की तलाश करती हैं, प्रशिक्षण वर्कशॉप का आयोजन और संचालन करती हैं, और इस हस्तकला के प्रोत्साहन के लिए नई नीतियां बनाती हैं. वह अपना ख़ुद का स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) भी सफलतापूर्वक चलाती हैं, जिसे उन्होंने ‘एंजेल’ नाम दिया है. यह नाम उन मज़बूत और दयालु औरतों की कहानियों से प्रेरित है जो दूसरी कमज़ोर औरतों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. वह अपनी बात स्पष्ट करती हैं, “मुझे वे कहानियां और फ़िल्में बेहद पसंद हैं जिसमें औरतें एक-दूसरे से ईर्ष्या और मुक़ाबला करने के बजाय एक-दूसरे की मददगार बनती हैं.”

ख़ुद को मिलने वाली पहचान और इज़्ज़त से वे बेहद रोमांचित महसूस करती हैं. उनकी उपलब्धियों में प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ मुलाक़ात भी शामिल है. “पहले मेरे शौहर, जो पेशे से मोटर मैकेनिक हैं, को कुछ समझ नहीं आता था कि मैं कहां और क्यों आती-जाती रहती हूं, लेकिन अब मुझे मिलने वाले सम्मान से उन्हें भी गौरव का अनुभव होता है. पिछले दो सालों से मैं हफ़्ते में बमुश्किल दो रोज़ ही घर पर टिक पाती हूं,” वह कहती हैं, मानो अपनी आज़ादी के अहसास को साझा कर रही हों. अपने स्वयं सहायता समूह के सदस्यों और ख़रीददारों से मिलने-जुलने, दूसरों को प्रशिक्षित करने और अपने बच्चों की देखभाल करने में उनका सारा वक़्त बीत जाता है.

महेवा की उद्यमी महिलाओं ने मूंज को बढ़ावा देने के क़दम का तहे-दिल से स्वागत किया और आय के इस अवसर को दोनों हाथों से लपका

वीडियो देखें: प्रयागराज में घास का हरा रंग कुछ ज़्यादा गहरा है

इसके बावजूद बात बनाने वालों को कोई रोक नहीं सकता. उत्तरप्रदेश के छोटे से शहर की संकीर्ण सामाजिक मान्यताओं और अपने ऊपर बरसने वाले तीरों और पत्थरों के जवाब में वह कहती हैं, “जब मैं किसी ऐसे प्रशिक्षण-सत्र में जाती हूं जिसमें पुरुष भी उपस्थित होते हैं और जब हमारी सामूहिक तस्वीरें खींची जाती हैं, तब लोग आकर मेरी सास से शिकायती लहज़े में कहते हैं, ‘इसे देखो, मर्दों के साथ तस्वीरें खिंचवा रही है!’ लेकिन मैं इन फ़िज़ूल की बातों को अपनी राह की रुकावट नहीं बनने देती.”

साल 2011 की जनगणना के आधार पर 6,408 लोगों की आबादी वाले महेवा पट्टी पश्चिम उपरहार को उत्तरप्रदेश में क़स्बे का दर्जा दिया गया है, लेकिन स्थानीय लोग इसे अभी भी ‘महेवा गांव’ ही बुलाते हैं. यमुना और गंगा नदियों के मिलन-स्थल, और हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण ठिकाना - संगम से कुछेक किलोमीटर की दूरी पर बसा यह क़स्बा करछाना तहसील के अधीन स्थित है.

यमुना, महेवा के लोगों के जीवन और आजीविकाओं के लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी है. यहां की कारीगर औरतें बाज़ार में ताड़ के पत्तों से बुनी हुई छोटी-छोटी टोकरियों की आपूर्ति भी बाज़ारों में करती हैं, जिनमें संगम के तीर्थयात्रियों के लिए फूल और दूसरे नैवेद्य भरे होते है. यहां के पुरुष मैकेनिक और ड्राईवर का काम करने बाहर प्रयागराज शहर में जाते हैं, या फिर आसपास के इलाक़ों में छोटी दुकानें चलाते हैं और ढाबों में काम करते हैं.

एक रोचक सत्य यह है कि 2011 की जनगणना के अनुसार प्रयागराज ज़िले की कुल आबादी का 13 प्रतिशत हिस्सा मुसलमानों का है, जबकि महेवा में मुसलमानों की जनसंख्या कुल आबादी का सिर्फ़ एक प्रतिशत है. इसके बावजूद फ़ातिमा और आयशा उन गिनी-चुनी या शायद अकेली औरतों में शुमार हैं, जो इस हस्तकला को पुनर्जीवित करने की कोशिशों में लगी हैं. फ़ातिमा कहती हैं, “यूं तो हम सभी औरतों को प्रशिक्षित कर रहे हैं, लेकिन अंततः जो औरतें इस हस्तकला का अभ्यास कर रही हैं वे अधिकतर एक ही समुदाय से ताल्लुक़ रखती हैं, शेष औरतें अपने अभ्यास को बीच में ही छोड़ देती हैं और फिर कभी नहीं लौटती हैं. शायद वे अपने लिए दूसरे काम चुन लेती हैं.”

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बाएं: फ़ातिमा और आयशा छत वाले उस कमरे के बाहर खड़ी हैं जहां सूखी घास रखी जाती है. दाएं: ताज़े कटे हुए मूंज को एक सप्ताह तक धूप में सुखाया जाता है, जब तक कि यह क्रीम रंग में न बदल जाए. फिर इसे सूखे कास (सरकंडेनुमा पतली घास; जिसे मूंज को बांधने के लिए इस्तेमाल किया जाता है) के साथ बंडलों में बांध दिया जाता है

महेवा के अपने घर की छत पर फ़ातिमा एक स्टोररूम का दरवाज़ा खोलती हैं, जो सूखे हुए मूंज के क़ीमती गट्ठरों से भरा हुआ है. ये गट्ठर घर के कबाड़ के सबसे ऊपर रखे हुए हैं. वह बताती हैं, “हमें मूंज सिर्फ़ सर्दियों के मौसम में (नवंबर से फ़रवरी के महीनों के बीच) मिलता है. हम हरी घास को पट्टियों के रूप में काट लेते हैं, फिर उसे सुखाने के बाद इस कबाड़खाने में जमा कर लेते हैं. यह घर की सबसे सूखी हुई जगह है और यहां थोड़ी सी भी हवा नहीं आती है. बारिश और जाड़े के मौसम में घास के रंग बदल कर पीले हो जाते हैं.”

पीली घास कुछ बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होती है, क्योंकि इससे यह पता चलता है कि घास बहुत नाज़ुक और कमज़ोर हो गई है और इस पर रंग भी नहीं चढ़ाए जा सकते. सबसे बढ़िया घास हल्के क्रीम रंग की होती है जिन्हें पसंद के रंगों से रंगा जा सकता है. ऐसी घास हासिल करने के लिए ताज़ा कटे मूंज को एहतियात के साथ बंडलों में बांधकर खुली और तेज़ धूप में हफ़्ते भर तक सुखाया जाता है. इस बात का ख़ास ख़याल रखा जाता है घास में थोड़ी भी हवा नहीं लगने पाए, और वे आर्द्रता से पूरी तरह मुक्त रहें.

इस बीच घास के स्टॉक को देखने के इरादे से फ़ातिमा की सास आयशा बेगम भी छत पर चली आती हैं. वह 50 की उम्र पार कर चुकी हैं और अब एक मंझी हुई कारीगर हैं. बातचीत में क्रम में वह उन दिनों को याद करने लगती हैं जब कोई भी यमुना के किनारे थोड़ी दूर पैदल चलकर जितनी मर्ज़ी हो उतनी मूंज इकट्ठा कर सकता था. पिछले कुछ दशकों में अंधाधुंध विकास और शहरों के विस्तार के कारण नदी का पाट बहुत संकरा हो गया है, जहां कभी ये जंगली घास किसी अवरोध के बिना लहलहाती रहती थी.

आयशा हमें बताती हैं, “अब यमुना पार से आने वाले मल्लाह अपने साथ मूंज लेकर आते हैं और हमें 300 से 400 रुपयों में एक ‘गट्टा’ बेचते हैं. एक ‘गट्टे’ में कोई 2 से 3 किलो घास रहती है.” हम बातचीत करते हुए छत से उतर कर घर के अहाते में पहुंच गए हैं जहां वह अपना काम करती हैं. मूंज के एक ‘गट्टे’ से कारीगर सामान्यतः 12 X 12 इंच की दो टोकरियां बना सकता है, जोकि 1,500 रुपए तक में बिक सकती हैं. इस आकार की टोकरियां अमूमन पौधे लगाने और कपड़े रखने के लिए इस्तेमाल होती हैं.

सरपत घास, जोकि 7 और 12 फ़ीट के बीच तक लंबी होती है, मूंज की हस्तकला में बड़े उपयोगी साबित होती है. ठीक ऐसी ही ज़रूरी मदद अपेक्षाकृत और पतला व सरकंडेनुमा दिखने वाली एक दूसरी घास से भी मिलती है, जिसे कास कहते हैं. कास के घासों से मूंज मज़बूत बंधाई होती है, और सामान के पूरी तरह से तैयार हो जाने के बाद यह बंधाई दिखती भी नहीं है. कसकर से बंधे गट्ठर के रूप में बिकने वाली यह घास नदी के किनारों पर बहुतायत में उगती है और एक गुच्छे की क़ीमत 5 से 10 रुपए के बीच होती है.

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बाएं: आयशा बेगम, सिराही (एक तेज़ सुई) के साथ एक घुंडी बुन रही हैं. दाएं: वह आकार देने के लिए कास के चारों ओर मोटी मूज पट्टियों को बांधती हैं

अपने घर के ही अहाते में आयशा अपने काम करने की जगह पर बैठ गई हैं. वह टोकरी के ढक्कनों को खोलने-लगाने के लिए उनपर लगने वाली घुन्डियां बना रही हैं. एक कैची और धारदार छुरी के सहारे वे घास की फालों को एक-दूसरे में फंसाते-निकालते हुए उन्हें एक मजबूत बुनावट दे रही हैं. जो घास थोड़ी सख़्त है उन्हें लचीला बनाने के लिए वह पानी की एक बाल्टी में थोड़ी देर के लिए डुबो देती हैं.

आयशा बताती हैं, “मैंने यह काम अपनी सास को देख कर सीखा. कोई 30 साल पहले, जो पहला सामान मैंने बनाया था वह एक रोटी का डब्बा था. उस समय मैं तुरत-तुरत ब्याह कर आई ही थी.” एक बार उन्होंने कृष्ण भगवान की बाल्यावस्था की एक मूर्ति को जन्माष्टमी (उनके जन्मोत्सव पर मनाया जाने वाला त्योहार) में झुलाने लिए एक छोटा सा झूला भी बनाया था.

ज़ख़्म के निशानों से भरी अपनी रुखी हथेलियों को दिखाती हुई वह कहती हैं, “काम करते हुए हमारे हाथ इन धारदार, लेकिन बेहद मज़बूत घासों से अक्सर कट जाते हैं.” पुराने दिनों को याद करते हुए वह आगे कहती हैं, “उन दिनों इस काम को करने पूरा परिवार जुट जाता था – औरतें और बच्चे मूंज के तरह-तरह के सामान बनाते थे, और मर्द उन्हें बेचने के लिए बाज़ारों में ले जाते थे. अगर एक घर की दो या तीन औरतें एक साथ मिल कर यह काम करती थीं, तो वे एक दिन में 30 रुपए तक कमा लेती थीं. उन सबकी आमदनी मिला दी जाए, तो घर चलाने के लिए काफ़ी होता था.”

कोई दस साल पहले मूंज की मांग में अचानक बहुत गिरावट आ गई और इस काम लगी औरतों की तादाद कम हो गई. बाज़ार में भी मूंज से बने सामान कम बिकते दिखने लगे. फिर अप्रत्याशित रूप में मदद मिली और इस काम को दोबारा नई ज़िंदगी मिली. इसका पूरा श्रेय उत्तरप्रदेश सरकार के ‘वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट’ (ओडीओपी) योजना को जाता है, जिसकी शुरुआत 2013 में हुई थी. प्रयागराज ज़िले के ‘विशिष्ट उत्पाद’ के रूप में मूंज को चुना गया, जिससे संबंधित हस्तकला का इतिहास कम से कम सात दशक पुराना था.

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बाएं: आयशा बेगम, जो 50 साल से ज़्यादा उम्र की हैं, मूंज शिल्प की एक अनुभवी कारीगर हैं. ‘मैंने यह काम अपनी सास को देख कर सीखा. कोई 30 साल पहले, जो पहला सामान मैंने बनाया था वह एक रोटी का डब्बा था.’ दाएं: आयशा द्वारा हाल ही में बनाए गए कुछ डिब्बे और टोकरियां

प्रयागराज ज़िला के उद्योग उपायुक्त अजय चौरसिया कहते हैं, ”ओडीओपी योजना ने मूंज से निर्मित सामानों की मांग और बिक्री दोनों में वृद्धि की है, और इसलिए बहुत से कारीगर इस हस्तकला की ओर दोबारा लौट रहे हैं. नए लोगों ने भी इस कला को सीखने में ख़ासी उत्सुकता दिखाई है.” चौरसिया ज़िला उद्योग केंद्र के अध्यक्ष भी हैं. ओडीओपी योजना के माध्यम से महिला कारीगरों को सुविधाएं प्रदान करने वाली राज्य सरकार का अभिकरण ज़िला उद्योग केंद्र ही है. वह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “हम इच्छुक महिलाओं को प्रशिक्षित करने और और उन्हें ज़रूरी सामान मुहैया कराते हैं. और हमारा लक्ष्य 400 महिलाओं को प्रति वर्ष प्रशिक्षण देना है.” उद्योग केंद्र, प्रांतीय और राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर नियमित मेलों और उत्सवों के आयोजन के ज़रिए भी इस हस्तकला को प्रोत्साहन देने का काम करता है.

महेवा की उद्यमी औरतों ने मूंजकला को प्रोत्साहित करने की इस पहल का दिल से स्वागत किया और अपनी आमदनी में बढ़ोतरी करने के इस मौक़े को अच्छी तरह से भांप लिया. फ़ातिमा बताती हैं कि अब उन महिला कारीगरों को व्हाट्सएप पर भी आर्डर मिलते हैं. काम और बिक्री से होने वाले मुनाफ़े को औरतों में बराबर बांट दिया जाता है.

ओडीओपी योजना ने महिला उद्यमियों को वित्तीय सहायता देने का काम भी बहुत सरल कर दिया है. फ़ातिमा बताती हैं, “इस योजना ने हमारे लिए ऋण लेना आसान कर दिया है. मेरे स्वयं सहायता समूह में काम शुरू करने के लिए बहुत सी औरतों ने 10,000 से 40,000 तक का ऋण लिया है.” यह योजना कुल ऋणराशि का 25 प्रति शत अनुदान के रूप में देती है – जिसका स्पष्ट अर्थ है कि ऋण का सिर्फ़ 75 प्रतिशत ही वापस लौटाना होता है. शेष राशि यदि तीन महीने के भीतर लौटा दी जाती है, तो लाभुक को ऋण पर किसी प्रकार का ब्याज नहीं चुकाना होता है. इस अवधि के समाप्त होने के बाद ऋण पर पांच प्रतिशत की मामूली दर से वार्षिक ब्याज देना होता है.

इस योजना से इस बात की आशा है कि दूसरी जगहों की भी इच्छुक महिलाएं इस हस्तकला में अपनी रूचि दिखाएंगी. आयशा की शादीशुदा बेटी नसरीन फूलपुर तहसील के अंदावा गांव में रहती हैं, जो महेवा से तक़रीबन 10 किलोमीटर दूर है.  नसरीन (26 साल), जिन्होंने शिक्षा और मनोविज्ञान में बैचलर किया हुआ है, कहती हैं, “अंदावा में यही घास सिर्फ़ कच्ची छत बनाने के काम में आती हैं, जिन्हें टाइलों के नीचे बिछाया जाता है, ताकि यह बारिश के पानी को नीचे की तरफ टपकने से रोक सके.” अपने मायके में मूंजकला की आर्थिक संभावनाओं को भांपते हुए उन्होंने इस काम को यहां शुरू करने के बारे में सोचा है.

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आयशा बेगम और फ़ातिमा बीबी की पड़ोसी, जिनका नाम भी आयशा बेगम है, अपने बनाए प्रत्येक मूंज उत्पाद के लिए 150-200 रुपए कमा लेती हैं. ‘अपना वक़्त फ़ालतू जाया करने की जगह मैं पैसे भी कमा रही हूं और मेरा वक़्त भी ठीकठाक कट जाता है’

बीस साल पहले रोटी रखने वाला मूंज का एक बास्केट 20 रुपए में आता था. आज उसी बास्केट की क़ीमत 150 रुपए या उससे भी अधिक है, और रुपए के मूल्य में भारी कमी के बावजूद यह एक सम्मानजनक आमदनी मानी जाएगी. यही कारण है कि फ़ातिमा की 60 वर्षीया पड़ोसन, जिनका नाम भी आयशा बेग़म ही है, के मन में इस कला को लेकर गहरी रुचि है. घंटों काम करते रहने की आदत के कारण उनकी आंखों की कम होती रौशनी के विपरीत उनकी मेहनत में आज भी कोई कमी नहीं दिखती है. वह बताती हैं, “मैं अपने बनाए हुए हर सामान से तक़रीबन 150-200 रुपए कमा सकती हूं. अपना वक़्त फ़ालतू जाया करने की जगह मैं पैसे भी कमा रही हूं और मेरा वक़्त भी ठीकठाक कट जाता है.” वह अपने मकान के आगे के खुले हिस्से में एक चटाई पर बैठी हैं, उनकी पीठ पीछे दिवार से टिकी है, और उंगलियां मूंज की बुनावट करते हुए हवाओं में लहरा रही हैं. वह तल्लीनता के साथ एक बास्केट का ढक्कन बनाने में जुटी हुई हैं.

उनके शौहर मोहम्मद मतीन उनकी बातें ध्यान से सुनने के क्रम में कहते हैं, “यह काम करने के बाद वह अभी पीठ में दर्द की शिकायत करेगी.” मोहम्मद मतीन पहले एक चाय की दुकान चलाया करते थे. जब उनसे पूछा जाता हैं कि क्या मर्द भी यह काम करते हैं, तो वह मुस्कुराने लगते हैं, “कुछ मर्द यह कर सकते हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता.”

दोपहर अब पूरी तरह ढलने ही वाली है और फ़ातिमा की अम्मी आसमा बेगम तैयार हो चुके सामानों के साथ अपनी बेटी के घर में हाज़िर हो चुकी हैं. फ़ातिमा उन हस्तकलाओं को अगले दिन प्रयागराज के सर्किट हाउस में आयोजित एक छोटी सी प्रदर्शनी में प्रदर्शित करने और उनकी बिक्री कराने ले जाएंगी. अपना काम दिखाने के उद्देश्य से आसमा एक बास्केट को उठाती हैं जिसके ढक्कन पर एक बहुत खूबसूरत डिजाइन बना है. “एक सुंदर कोस्टर जिसे बनाने में तीन से चार दिन का वक़्त लगता है. आपको इसे बहुत धीरे-धीरे और संभलकर बनाना पड़ता है, वरना घासों से कटने का ख़तरा रहता है,” वह विस्तार से बताती हैं. ज़्यादा नफ़ीस और ख़ूबसूरत सामान बनाने के लिए कारीगर घास की ज़्यादा पतली तीलियों का इस्तेमाल करते हैं. ऐसी कलात्मक चीजों के एवज़ में वे अधिक क़ीमत वसूलते हैं.

आसमा अभी 50 से कम उम्र की ही हैं, लेकिन उनको इस मूंजकला का सम्मानित कारीगर माना जाता है. उन्होंने अभी हाल में ही पिपिरसा के अपने घर में, जो महेवा से कोई 25 किलोमीटर की दूरी पर है, 90 औरतों को मूंजकला में प्रशिक्षित किया है. उनके प्रशिक्षनार्थियों में 14 से 50 साल की लड़कियां और महिलाएं शामिल हैं. उनका कहना है, “यह एक अच्छा काम है. इसे कोई भी सीख सकता है, इसके ज़रिए अपनी आमदनी बढ़ा सकता है और ज़िंदगी में तरक्क़ी कर सकता है.” साथ ही अपनी बात में वह यह भी जोड़ती हैं, “जब तक मुझसे हो पाएगा, तब तक यह काम करती रहूंगी. अपनी बेटी फ़ातिमा के कामों को देख कर मुझे बेहद ख़ुशी मिलती है.”

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बाएं: फ़ातिमा की मां, आसमा बेगम (बाएं, हरे दुपट्टे में), एक कुशल शिल्पकार हैं जो महिलाओं को मूंज शिल्प में प्रशिक्षित करती हैं. ‘इसे कोई भी सीख सकता है, इसके ज़रिए अपनी आमदनी बढ़ा सकता है और ज़िंदगी में तरक्क़ी कर सकता है.’ दाएं: आसमा अपने बनाए एक उत्पाद के साथ; ढक्कन वाली एक रंगीन टोकरी

आसमा ने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की है और जब फ़ातिमा के अब्बा के साथ उनका निकाह हुआ, उस वक़्त वह 18 साल की थीं. फ़ातिमा के अब्बा एक छोटे से किसान हैं, जिनके पास मोटा-मोटी दो एकड़ ज़मीन है. एक प्रशिक्षक के तौर पर आसमा को ज़िला उद्योग केंद्र से हर महीने 5,000 रुपए की आमदनी हो जाती है, और जो लड़कियां छह महीने के प्रशिक्षण-सत्र में शामिल होती हैं उन्हें हर महीने 3,000 रुपए का भुगतान किया जाता है. वह बताती हैं “ये लड़कियां सामान्य रूप से कुछ नहीं करती होती हैं, लेकिन सत्र में शामिल होकर वे घर में बैठे-बैठे कुछ सीखने और कमाने लगती हैं. कुछ लड़कियां इन पैसों का इस्तेमाल अपनी आगे की पढ़ाई में करती हैं.”

मूंजकला के कारीगरों के लिए सरकार की भविष्य की योजनाओं में एक संग्रहालय की स्थापना और एक वर्कशॉप का निर्माण करना है. “हम एक संग्रहालय की स्थापना की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि लोग-बाग हमारे कामों को देख और सराह सकें. वहां हमारी बनाई हुई उत्कृष्ट हस्तकलाएं प्रदर्शित की जाएंगी और आप उनके निर्माण की प्रविधि और प्रक्रिया से भी अवगत हो सकेंगे,” फ़ातिमा की आवाज़ में में एक ख़ुशी है. संग्रहालय से लगा वर्कशॉप अधिक से अधिक औरतों को अपनी तरफ खींचने में सफल होगा. चौरसिया के कहे अनुसार, पिछले साल केंद्र की सरकार ने एक  शिल्पग्राम के निर्माण के लिए 3 करोड़ रुपए आवंटित किए थे. संग्रहालय इसी शिल्पग्राम के भीतर स्थित होगा. “इसका काम चालू हो चुका है, लेकिन इसके पूरी तरह से तैयार होने में थोड़ा वक़्त लगेगा,” वह बताते हैं.

“वर्कशॉप में कुछ कारीगर केवल बुनाई करेंगे, और कुछ तैयार सामानों पर सिर्फ़ रंग चढ़ाने का. सब के काम बंटे होंगे. यह बहुत अच्छा होगा कि सभी लोग एक साथ बैठ कर अपना-अपना काम करेंगे. इस तरह मूंजकला के महिला कामगारों की एक बिरादरी बन जाएगी,” भविष्य के प्रति इस घास से संबंधित अपने सपनों के बारे में फ़ातिमा बताती हैं.

रिपोर्टर, प्रयागराज के सैम हिगिनबॉटम कृषि विश्वविद्यालय, टेक्नोलॉजी एंड साइंस की प्रो. जहानारा और प्रो. आरिफ़ ब्रॉडवे के प्रति इस स्टोरी में उनके उदारतापूर्ण सहयोग के लिए अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Reporter : Priti David

Priti David is the Executive Editor of PARI. She writes on forests, Adivasis and livelihoods. Priti also leads the Education section of PARI and works with schools and colleges to bring rural issues into the classroom and curriculum.

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Editor : Sangeeta Menon

Sangeeta Menon is a Mumbai-based writer, editor and communications consultant.

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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