रात में एक गहरी और अच्छी नींद शीला वाघमारे के लिए अब सिर्फ़ स्मृतियों की बात बन चुकी है.

फ़र्श पर बिछी गोधड़ी पर पालथी लगाए बैठी शीला (33 साल) बोलती हैं, “रात में एक गहरी नींद सोए हुए मुझे न जाने कितने साल बीत गए.” उनकी लाल जलती हुई आंखों में एक गहरी तक़लीफ़ का भाव है. बेनींद रातों के लंबे घंटों के बारे में बताते हुए उनकी हिचकियां फूट पड़ती हैं और पूरी देह बुरी तरह से कांपने लगती है. वह ख़ुद को ज़ब्त करने की कोशिशें करती हैं, “मैं रात भर रोती रहती हूं. मुझे लगता है…मुझे लगता है कि कोई मेरा गला दबा रहा है.”

शीला, महाराष्ट्र के बीड ज़िले के राजुरी घोड़का गांव के बाहरी इलाक़े में रहती हैं. बीड शहर से यह जगह कोई 10 किलोमीटर दूर है. ईंट से बने अपने दो कमरों के घर में जब वह अपने पति मानिक और तीन बच्चों कार्तिक, बाबू, और रुतुजा की बगल में जब सोने की कोशिश में करवटें बदलती रहती हैं, तो उनकी घुटी हुई रुलाई की आवाज़ से उन सबकी नींद टूट जाती है. वह कहती हैं, “मेरी रुलाई दूसरों की नींद में परेशानी का कारण बन जाती है. तब मैं अपनी आंखों को भींचकर चुपचाप सोए रहने की कोशिश करती हूं.”

लेकिन उन्हें नींद नहीं आती है, और न ही आंखों से आंसू बंद होते हैं.

शीला बताती हैं, “मैं हमेशा उदास और तनाव में रहती हूं.” वह थोड़ा ठिठक जाती हैं, लेकिन उनके चेहरे की खीज नहीं छुपती. “यह सब मेरी बच्चेदानी निकाले जाने के बाद ही शुरू हुआ. मेरी ज़िंदगी अब हमेशा के लिए बदल गई है. साल 2008 में जब एक ऑपरेशन के ज़रिए उनका गर्भाशय निकाल लिया गया था, तब वह सिर्फ़ 20 साल की थीं. उसके बाद से वह अवसाद, अनिद्रा, चिड़चिड़ेपन के दौरे और कई दूसरी शारीरिक पीड़ाओं और दर्द से जूझ रही हैं, जो लंबे-लंबे समय तक उनके साथ बने रहते हैं.

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शीला वाघमारे राजुरी घोड़का गांव के अपने घर में. 'मैं हमेशा उदास और तनाव में रहती हूं'

“कई बार मैं बच्चों पर बिना कारण के गुस्सा करने लग जाती हूं. वे प्यार के साथ भी मुझसे कुछ पूछते है, तो भी मैं चिल्लाकर उनकी बात का जवाब देती हूं.” शीला जब यह कहती हैं, तो उनके चेहरे की बेबसी साफ़-साफ़ दिखती है. “मैं सचमुच बहुत कोशिश करती हूं कि अपने गुस्से पर काबू रख सकूं. मेरी समझ में नहीं आता है कि मैं ऐसा व्यवहार क्यों करती हूं.”

मानिक से विवाह के समय उनकी उम्र सिर्फ़ बारह साल थी, और 18 की होते-होते शीला तीन बच्चों की मां भी बन चुकी थीं.

वह और मानिक उन तक़रीबन 8 लाख ‘ऊसतोड कामगारों’ में शामिल हैं जो छह महीने के गन्ने की कटाई के मौसम में मराठवाड़ा क्षेत्र से प्रवासी दिहाड़ी मज़दूर के रूप में पलायन करते हैं, और मार्च से अक्टूबर के महीनों तक पश्चिमी महाराष्ट्र और कर्नाटक के गन्ना के खेतों में रहते और काम करते हैं. साल के बाक़ी महीनों में शीला और मानिक, जिनके पास अपना खेत नहीं है, अपने या आसपास के गांवों में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करते हैं. वे नव बौद्ध समुदाय से संबंध रखते हैं.

शल्यचिकित्सा द्वारा गर्भाशय निकलवाने के बाद की जटिलताएं और बीमारियां, महाराष्ट्र के इस इलाक़े में कोई असामान्य बात नहीं है. साल 2019 में राज्य सरकार द्वारा गठित एक सात सदस्यीय कमिटी का उद्देश्य इस इलाक़े में अप्रत्याशित रूप से बढ़ी गर्भाशय की बीमारियों के कारणों की पड़ताल करना था. पीड़ितों में ज़्यादातर महिलाएं बीड में गन्ने के खेतों में मज़दूरी करने वाली महिला कामगार थीं. कमिटी का निष्कर्ष था कि पीड़ित महिलाएं सामान्यतः मनो-शारीरिक व्याधियों के विरुद्ध संघर्ष कर रही थीं.

कमिटी की अध्यक्ष डॉ नीलम गोर्हे थीं, जो महाराष्ट्र विधानसभा की तत्कालीन उप सभापति थीं. कमिटी ने अपना सर्वेक्षण-कार्य 2019 के जून-जुलाई महीनों में किया और इस अवधि में ज़िले में गन्ने की कटाई के मौसम में कम से कम एक बार आ चुकी 82,309 महिला श्रमिकों पर सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण के दौरान यह निष्कर्ष सामने आया कि जिन 13,861 महिलाओं का गर्भाशय निकाला गया था उनमें से 45 फ़ीसदी से अधिक, अर्थात 6,314 महिलाओं को किसी न किसी मानसिक या शारीरिक दिक़्क़तों से गुज़रना पड़ा था. इनमें प्रमुखतः अनिद्रा, अवसाद, विध्वंसक व्यवहार, और पीठ और जोड़ों के दर्द जैसी दिक़्क़तें शामिल थीं.

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शीला और उनके बच्चे, कार्तिक और रुतुजा (दायें). गन्ने की कटाई के मौसम में यह पूरा परिवार प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करने के लिए पलायन करता है

गर्भाशय को निकालने की सर्जरी एक जटिल प्रक्रिया है और देर-सबेर स्त्री-देह पर इसका प्रतिकूल असर पड़ना निश्चित है. यह मुंबई की स्त्रीरोग विशेषज्ञ और वीएन देसाई म्युनिसिपल जनरल हॉस्पिटल की परामर्शी डॉ कोमल चौहान का कहना है. डॉ चौहान आगे बताती हैं, “चिकित्सकीय भाषा में यह ऑपरेशन के कारण होने वाली रजोनिवृत्ति है.”

सर्जरी के बाद के वर्षों में, शीला जोड़ों के दर्द, सिरदर्द, पीठ दर्द, और लगातार थकान जैसी शारीरिक बीमारियों से जूझती आ रही हैं. वह कहती हैं, "हर दो-तीन दिनों के बाद, मुझे काफ़ी दर्द रहता है."

दर्द निवारक मरहमों और खाने वाली गोलियों से तात्कालिक राहत ही मिलती है. वह डिक्लोफेनैक जेल का एक ट्यूब दिखाती हुई कहती हैं, “मैं अपने घुटनों और पीठ के दर्द के लिए, महीने में इस क्रीम के दो ट्यूब ख़रीदती हूं.” इसमें हर महीने 166 रुपए लग जाते हैं. डॉक्टर द्वारा लिखी गई कुछ गोलियां भी उन्हें खानी होती हैं. उन्हें महीने में दो बार नसों के ज़रिए ग्लूकोज़ भी चढाया जाता है, ताकि उनकी कमज़ोरी और थकान में राहत मिल सके.

अपने घर से कोई एक किलोमीटर दूर के एक निजी दवाखाने से परामर्श और दवाएं लेने के एवज़ में उन्हें हरेक महीने 1,000 से 2,000 रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं. बीड का सिविल अस्पताल उनके गांव से 10 किलोमीटर दूर है, इसलिए निजी दवाखाने में इलाज कराना उनके लिए अधिक सस्ता और सुविधाजनक है. “गाड़ी-घोड़े (आने-जाने) में इतने पैसे ख़र्च करके इतनी दूर कौन जाएगा?”

दवाइयां भावनात्मक बदलावों को नियंत्रित करने में कोई काम नहीं आतीं. “इतनी सारी परेशानियों के साथ जीवित रहने का मुझे कोई अर्थ नहीं समझ आता?”

मुंबई के मनोचिकित्सक डॉ अविनाश डीसूजा कहते हैं कि शारीरिक दुष्परिणामों के अलावा, बच्चेदानी निकाल देने के बाद हारमोन स्तर में जो असंतुलन उत्पन्न होता है उसके परिणामस्वरूप मरीज़ को भयानक अवसाद और तनाव की समस्याओं से गुज़रना पड़ता है. वह आगे बताते हैं कि गर्भाशय के ऑपरेशन अथवा अंडाशय की निष्क्रियता से संबंधित बीमारियों की तीव्रता हरेक रोगी में भिन्न होती है. “कुछ औरतों पर इसका दुष्प्रभाव अधिक गंभीर होता है और कुछ औरतों में इसके मामूली लक्षण ही प्रकट होते है.”

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खाने वाली गोलियां और डिक्लोफेनैक दर्द-निवारक मरहम शीला को तात्कालिक आराम ही देते हैं. 'मैं महीने में मरहम के दो ट्यूब इस्तेमाल करती हूं'

सर्जरी के बाद भी शीला ने प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करना जारी रखा है. गन्ने की कटाई के हर मौसम में वह मानिक के साथ गन्ने की कटाई करने पश्चिमी महाराष्ट्र जाती हैं. सामान्यतः अपने परिवार के साथ वह कोल्हापुर में गन्ने की पिराई करने वाली एक फैक्ट्री जाती हैं, जो बीड से तक़रीबन 450 किलोमीटर दूर है.

शीला सर्जरी से पहले के दिनों को याद करती हुई कहती हैं, “हम पूरे दिन 16 से 18 घंटे तक काम करते थे और लगभग दो टन गन्ना प्रतिदिन काट लेते थे.” काटे गए गन्ने के एक टन के बोझ के बदले उन्हें 280 रुपए ‘कोयटा’ की दर से मज़दूरी मिलती थी. ‘कोयटा’ का शाब्दिक अर्थ वह मुड़ी हुई दरांती है जो सात फ़ीट तक ऊंचे गन्ने की कटाई में उपयोग में आती है. लेकिन बोलचाल की भाषा में यह शब्द उस दंपति का सूचक बन गया, जो साथ मिलकर गन्ने की कटाई करते हैं. दो सदस्यों की इस इकाई को श्रमिकों के ठेकेदार एकमुश्त पैसे बतौर एडवांस भुगतान करते हैं.

शीला कहती हैं, “छह महीने में हम 50,000 से 70,000 रुपए कमा लेते थे.” लेकिन गर्भाशय की सर्जरी के बाद पति-पत्नी के लिए रोज़ एक टन गन्नों की कटाई और ढुलाई भी मुश्किल हो गई है. “मैं भारी बोझ उठा पाने में लाचार हूं, और कटाई का काम भी पहले वाली फुर्ती के साथ नहीं कर पाती हूं.”

लेकिन शीला और मानिक ने साल 2019 में 30 प्रतिशत वार्षिक ब्याज दर पर 50,000 रुपए अग्रिम भुगतान के रूप में लिया था, ताकि अपने मकान की मरम्मत करा सकें. उस क़र्ज़ को चुकाने के लिए उनका काम करते रहना ज़रूरी है. शीला कहती हैं, “यह ख़त्म ही नहीं होता है.”

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महिलाओं के लिए उनके मासिक स्राव के दिनों में गन्ने के खेतों में देह-तोड़ श्रम करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण काम होता है. उनके लिए खेतों में कोई शौचालय या स्नानकक्ष नहीं होता, उनके रहने-सहने की व्यवस्था भी बेहद निम्नस्तरीय और कामचलाऊ रहती है. ‘कोयटा’ जिनके साथ आमतौर पर उनके बच्चे भी रहते हैं, गन्ने फैक्ट्रियों और खेतों के पास बने तंबुओं में रहते हैं. शीला याद करती हैं, “पाली (माहवारी) के दिनों में काम करना बहुत मुश्किल था.”

एक दिन की छुट्टी की भी क़ीमत चुकानी पड़ती थी, और मुकादम (मज़दूर ठेकेदार) उस दिन का मेहनताना बतौर हर्जाना काट लेता था.

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बाएं : टीन का वह बक्सा जिसमें शीला गन्ने के खेत पर जाने के लिए परिवार का सामान ले जाती हैं. दाएं: दरांती या क्योटा, जिसका उपयोग गन्नों के सख्त डंठल को काटने के लिए किया जाता है. यह उस दंपति का भी सूचक है जो एक साथ गन्ने की कटाई करते हैं

शीला बताती हैं कि कटाई करने वाली महिला मज़दूर खेतों में सूती के पुराने पेटीकोट के कपड़ों का पैड पहन कर जाती हैं. वे उन्हें बदले बिना 16 घंटे तक काम करती हैं. वह कहती हैं, “मैं उसे पूरा दिन काम करने के बाद बदलती थी. वह पूरी तरह से भीग चुका होता था और उससे ख़ून की बूंदें टपकती रहती थीं.”

सफ़ाई और स्वच्छता की पर्याप्त सुविधाओं के अभाव में और उपयोग किए हुए पैड को धोने के लिए पर्याप्त पानी की कमी के कारण या उन्हें सुखाने के लिए जगह नहीं होने के कारण, वह अक्सर गीला पैड इस्तेमाल कर लेती थीं. “इससे दुर्गन्ध आती थी, लेकिन उन्हें धूप में सुखाना मुश्किल काम था; आसपास बहुत से मर्द होते थे.” उन्हें सेनेटरी पैड के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. वह बताती हैं, “इसके बारे में तो मुझे तब पता चला, जब मेरी बेटी के मासिक चक्र की शुरुआत हुई.”

वह 15 साल की रुतुजा के लिए बाज़ार से सेनेटरी पैड ख़रीदती हैं. “उसकी सेहत के मामले में मैं कोई जोखिम नहीं लेना चाहती हूं”

साल 2020 में महिला कृषकों के अधिकारों की बात करने वाले पुणे के मकाम नाम के महिला संगठनों के एक साझा मंच ने एक सर्वे रिपोर्ट जारी की, जिसमें गन्ना की कटाई करने वाली 1,042 महिलाओं के साक्षात्कार के नतीजे बताए गए थे. ये साक्षात्कार महाराष्ट्र के आठ ज़िलों में संपादित किए गए थे. रिपोर्ट के मुताबिक़, गन्ने की कटाई करने वाली 83 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दौरान कपड़ों का इस्तेमाल कर रही थीं. केवल 59 प्रतिशत महिलाओं के पास उन पैडों को धोने के लिए पानी की सुविधा उपलब्ध थी, जबकि 24 फ़ीसदी महिलाएं गीले पैडों को ही दोबारा इस्तेमाल कर रही थीं.

ये अस्वास्थ्यकर तरीक़े ही अनेक स्त्रीरोगों और दूसरी जटिलताओं - मसलन अत्यधिक रक्तस्राव और कष्टकारी मासिक धर्मों के सबसे बड़े कारण हैं. शीला कहती हैं, “मेरे पेट के निचले हिस्से में असह्य दर्द रहता था, और जननांग से सफ़ेद गाढ़ा स्राव भी होता था.”

अस्वच्छ मासिक धर्म से संक्रमण फैलना बहुत सामान्य बात है, और इसे मामूली इलाज से ठीक भी किया जा सकता है, ऐसा डॉ. चौहान कहती हैं. “गर्भाशय को निकाल देना सबसे मुख्य उपाय नहीं है, लेकिन कैंसर, यूटेराइन प्रोलैप्स या फाइब्रोआयड्स की स्थिति में यह अंतिम विकल्प है.”

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महिलाओं के लिए उनके मासिक स्राव के दिनों में गन्ने के खेतों में देह-तोड़ श्रम करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण होता है. उनके लिए खेतों में शौचालय या स्नानागार नहीं होता, उनके रहन-सहन की व्यवस्था भी बहुत निम्नस्तरीय और कामचलाऊ होती है

शीला जो मराठी में अपना नाम लिखने के अलावा, लिखना-पढ़ना बिल्कुल नहीं जानती हैं, को इस बारे में बिल्कुल ही पता नहीं था कि संक्रमण का इलाज किया जा सकता था. दूसरी महिला खेतिहर श्रमिकों की तरह वह भी बीड के एक निजी अस्पताल में इस उम्मीद के साथ गईं कि दवा लेने से उनके दर्द में आराम मिलेगा और वह अपना काम बदस्तूर जारी रख सकेंगी, और मज़दूर ठेकेदार को जुर्माना देने से भी बची रहेंगी.

अस्पताल में एक डॉक्टर ने उन्हें चेतावनी दी कि उन्हें कैंसर हो सकता है. शीला याद करते हुए बताती हैं, “कोई ख़ून की जांच नहीं या कोई सोनोग्राफ़ी नहीं हुई. उसने मुझे सीधे कहा कि मेरे गर्भाशय में छेद हैं. और मैं पांच-छह महीने के भीतर कैंसर से मर जाउंगी.” बहरहाल, भय के कारण उन्होंने सर्जरी के लिए हामी भर दी. वह कहती हैं, “उसी दिन कुछ ही घंटों के बाद डॉक्टर ने मेरे पति को मेरा निकाला हुआ गर्भाशय दिखाते हुए कहा कि इन छेदों को देखिए.”

शीला ने अस्पताल में सात दिन गुज़ारे. मानिक ने अपनी बचत के पैसों और दोस्तों व रिश्तेदारों से क़र्ज़ लेकर इलाज का 40,000 रुपए का ख़र्चा जुटाया था.

बीड के एक सामाजिक कार्यकर्ता अशोक तांगडे कहते हैं, “ऐसी ज़्यादातर सर्जरियां निजी अस्पतालों में ही की जाती हैं.” तांगडे गन्ना श्रमिकों की बेहतरी के लिए काम करते हैं. यह एक अमानवीय कृत्य है कि डॉक्टर बिना किसी ठोस मेडिकल कारणों के ऐसी गंभीर सर्जरी करने का जोखिम उठाते हैं.”

सरकार द्वारा गठित समिति ने इस बात की पुष्टि की है कि सर्वे की गईं 90 प्रतिशत महिलाओं ने अपनी सर्जरी निजी अस्पतालों में कराई है.

शीला ने संभावित दुष्परिणामों को लेकर कोई मेडिकल परामर्श प्राप्त नही किया. वह कहती हैं, “मैं माहवारी के झंझटों से अब पूरी तरह मुक्त हो चुकी हूं, लेकिन मैं जीवन के सबसे तक़लीफ़देह दिनों से गुज़र रही हूं.”

मज़ दूरी में कटौती का डर, श्रमिक ठेकेदारों की शोषणकारी नीतियों, और पैसों के लोभी निजी सर्जनों के जाल में फंसीं बीड ज़िले की महिला गन्ना कामगारों के पास दूसरों से साझा करने के लिए बस यही कहानी है.

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लता वाघमारे अपनी रसोई में खाना पकाते हुए. काम पर जाने से पहले उन्हें अपने सारे घरेलू काम निबटाने होते हैं

शीला के घर से छह किलोमीटर दूर काठोडा गांव की लता वाघमारे की कहानी कोई अलग नहीं है.

लता (32 साल) कहती हैं, “मुझे अपने ज़िंदा होने की कोई ख़ुशी नहीं होती.” उन्हें अपनी बच्चेदानी तभी निकलवानी पड़ी थी जब वह सिर्फ़ 20 साल की थीं.

अपने पति रमेश के साथ अपने संबंधों के बारे में बताती हुई वह कहती हैं, “हमारे बीच अब प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं रह गई है.” उनके ऑपरेशन के एक साल के बाद से ही हालात बदलने लगे. वह हमेशा चिड़चिड़ी रहने लगीं और उन्होंने अपने पति से दूरी बना ली.

लता बताती हैं, “जब भी वह मेरे क़रीब आने की कोशिश करते थे, मैं उनसे मुंह फेर लेती थी. हमारे बीच इस बात को लेकर झगड़े होते थे और हम एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते थे.” वह कहती हैं कि दैहिक ज़रूरतों के निरंतर ठुकराए जाने पर उनके पति को भी लता से अरुचि हो गई. “अब तो वह मुझसे सीधे मुंह बात तक नहीं करते हैं.”

एक खेतिहर मज़दूर के रूप में काम पर निकलने से पहले उनका पूरा समय गृहस्थी के छोटे-बड़े कामों में बीत जाता है. वह अपने ही या पड़ोस के किसी गांव में दूसरे के खेतों में काम करती हैं. और उन्हें एक दिन के 150 रुपए दिहाड़ी में मिलते हैं. वह घुटनों और पीठ में दर्द से बेहद परेशान रहती हैं और आए दिन उन्हें भयावह सरदर्द से भी गुज़रना पड़ता है. राहत के लिए वह या तो गोलियां फांकती रहती हैं या घरेलू इलाज आज़माती हैं. वह कहती हैं, “ऐसे में मैं अपने पति के पास कैसे जाना चाहूंगी?”

मात्र 13 साल की उम्र में ब्याह दी गईं लता ने साल भर के भीतर अपने बेटे आकाश को जन्म दिया था. अब उनका बेटा भी अपने मां-बाप के साथ ही गन्ने के खेतों में मज़दूरी करता है, जबकि उसने 12वीं तक की पढ़ाई भी की है.

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उन महीनों में, जब लता गन्ना कटाई के लिए बाहर काम करने नहीं गई होती हैं, वह अपने गांव में ही खेतिहर मज़दूरी करती हैं

लता की अगली संतान एक बेटी थी, लेकिन वह मासूम बच्ची जब केवल पांच महीनों की थी, तब गन्ने के खेत में ट्रैक्टर के पहिए के नीचे आ गई थी. बच्चों और नवजातों के लिए बुनियादी सुविधाएं नहीं होने के कारण, कटाई करने वाले दंपति अपने नवजात और छोटे बच्चों को खेतों में ही रखने के लिए विवश होते हैं.

लता के लिए अपने जीवन के इस दुःख के बारे में बात करना बहुत मुश्किल है.

वह कहती हैं, “मेरा काम करने का बिल्कुल मन नहीं करता. मैं चाहती हूं कि कुछ नहीं करूं और चुपचाप बैठी रहूं.” काम में मन नहीं लगने के कारण उनसे अक्सर ग़लतियां होती रहती हैं. “कई बार तो मैं दूध या सब्ज़ी स्टोव पर रखकर भूल जाती हूं. यहां तक कि जब वे उफनने या जलने लगते हैं, तब भी मुझे उनका पता नहीं चलता है.”

अपनी बेटी को गंवा देने के बाद भी लता और रमेश, गन्ने की कटाई के मौसम में प्रवासी मज़दूर के तौर पर पलायन करने से ख़ुद को नहीं रोक सके.

लता ने बाद में तीन बेटियों को जन्म दिया था - अंजली, निकिता, और रोहिणी. और वह अब भी अपने बच्चों को अपने साथ खेत ले जाती रहीं. लता की आवाज़ में एक हताशा है, “अगर मैं काम नहीं करूंगी, तो भूख से बच्चों की जान चली जाएगी. अगर हम उन्हें साथ ले जाते हैं, तो दुर्घटना का डर बना रहता है. किसी भी हाल में हमारी स्थितियों में कोई फ़र्क नहीं पड़ता.”

महामारी के कारण स्कूलबंदी और घर में स्मार्टफ़ोन की अनुपलब्धता के कारण ऑनलाइन क्लासेज़ की दिक़्क़तों के मद्देनज़र उनकी बेटियों को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने के लिए मजबूर होना पड़ा. साल 2020 में अंजली की शादी हो गई थी, और निकिता और रोहिणी के लिए योग्य लड़कों की तलाश जारी है.

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बाएं: अपनी बेटियों, निकिता और रोहिणी के साथ लता. दाएं: रसोई में काम करती हुई निकिता. वह कहती है, 'मैं पढ़ना चाहती हूं, लेकिन अब पढ़ नहीं सकूंगी'

निकिता कहती है, “मैंने सातवीं कक्षा तक पढ़ाई की है.” वह मार्च 2020 से खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करने लगी है और अपने मां-बाप के साथ गन्ने की कटाई करने भी जाती है. वह कहती है, “मैं पढ़ना चाहती हूं, लेकिन अब पढ़ नहीं सकूंगी. मेरे माता-पिता मेरी शादी के बारे में सोच रहे हैं.”

नीलम गोर्हे की अध्यक्षता वाली कमिटी की सिफ़ारिशों के तीन साल बाद भी उनके क्रियान्वयन की प्रक्रिया अत्यंत धीमी है. शीला और लता का मामला इस बात की पुष्टि करता है कि गन्ने की कटाई करने वाले श्रमिकों के लिए शुद्ध पेयजल, शौचालय, और अस्थायी आवास उपलब्ध कराने संबंधी निर्देश सिर्फ़ काग़ज़ी खानापूर्ति हैं.

शीला एक तल्ख़ी के साथ इन घोषणाओं पर संदेह प्रकट करती हैं, “कैसा शौचालय और कैसा घर.” उन्हें शक है कि उनकी स्थितियां कभी बदलेंगी भी. “सबकुछ वैसा ही है.”

कमिटी दूसरी सिफ़ारिश ‘आशा’ सेविकाओं और आंगनबाड़ी सेविकाओं के समूह बनाने से संबंधित थी, ताकि महिला गन्ना श्रमिकों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के प्रति जागरूक किया जा सके और उनसे बुनियादी स्तर पर निपटा जा सके.

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काठोडा गांव में लता के घर के भीतर

मज़दूरी में कटौती का डर, श्रमिक ठेकेदारों की शोषणकारी नीतियों, और पैसों के लोभी निजी सर्जनों के जाल में फंसीं बीड ज़िले की महिला गन्ना कामगारों के पास दूसरों से साझा करने के लिए बस यही कहानी है

यह पूछने पर कि क्या ‘आशा’ सेविकाएं कभी उनके पास आती हैं, लता जवाब देती हैं, “कोई नही आता है. कभी नहीं. दिवाली के बाद से हमें गन्ने के खेतों में आए छह महीने बीत चुके हैं. हमारे पीछे हमारे घरों में ताले लटके हैं.” एक नव बौद्ध परिवार होने के नाते वह काठोडा के बाहरी इलाक़े में बसे बीस घरों वाले एक दलित टोले में रहते हैं और उनके साथ ग्रामीणों द्वारा अछूत जैसा व्यवहार किया जाता है. वह कहती हैं. “कोई हमारी खोज-ख़बर लेने नही आता है.”

तांगडे, जो बीड के एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, के अनुसार बाल विवाह की समस्या और गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रशिक्षित स्त्रीरोग विशेषज्ञों के अभाव जैसी कमियों को दूर करने की ज़रूरत है. वह आगे कहते हैं, “फिर सूखे का संकट है, और रोज़गार के अवसरों की भी भारी किल्लत है. गन्ना श्रमिकों का मसला सिर्फ़ उनके पलायन तक ही नहीं सीमित है.”

बहरहाल शीला, लता, और हज़ारों दूसरी महिलाएं प्रत्येक वर्ष की तरह इस मौसम में भी गन्ने की कटाई में लगी हैं. वे पहले की तरह ही चिथड़े तंबुओं में रहती हैं - अपने-अपने घरों से सैंकड़ों-हज़ारों किलोमीटर दूर, और अब भी स्वच्छता और सुविधाओं के अभाव में कपड़ों के बने पैड इस्तेमाल करती हैं.

शीला कहती हैं, “अब भी अपने जीवन के कई बरस काटने बाक़ी हैं. मैं नहीं जानती, मैं कैसे ज़िंदा रहूंगी.”

पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा औरतों को केंद्र में रखकर की जाने वाली रिपोर्टिंग का यह राष्ट्रव्यापी प्रोजेक्ट, ‘पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ द्वारा समर्थित पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की बातों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए इन महत्वपूर्ण, लेकिन हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति का पता लगाया जा सके.

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अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Jyoti Shinoli is a Senior Reporter at the People’s Archive of Rural India; she has previously worked with news channels like ‘Mi Marathi’ and ‘Maharashtra1’.

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Illustration : Labani Jangi

Labani Jangi is a 2020 PARI Fellow, and a self-taught painter based in West Bengal's Nadia district. She is working towards a PhD on labour migrations at the Centre for Studies in Social Sciences, Kolkata.

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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