कनका अपना हाथ पूरा खोलकर बताती हैं, “मेरा पति शनिवार को शराब की तीन इतनी बड़ी बोतलें ख़रीदता है. वह अगले दो-तीन दिनों तक उसको पीता है और जब बोतलें ख़त्म हो जाती हैं, तब वापस काम पर जाता है. खाने के लिए कभी भी पर्याप्त पैसा नहीं रहता. मैं ख़ुद को और अपने बच्चे को मुश्किल से कुछ खिला पाती हूं, और मेरे पति को अब दूसरा बच्चा भी चाहिए." वह मायूसी से कहती हैं, "मुझे ऐसी ज़िंदगी नहीं जीनी!”

24 साल की कनका (बदला हुआ नाम) बेट्टा कुरुम्बा आदिवासी समुदाय की हैं, जो गुडलूर के आदिवासी अस्पताल में डॉक्टर का इंतज़ार कर रही हैं. गुडलूर शहर का यह 50 बेड वाला अस्पताल, उदगमंडलम (ऊटी) से 50 किलोमीटर दूर, तमिलनाडु के नीलगिरी ज़िले के गुडलूर और पंथलूर तालुकाओं के 12,000 से ज़्यादा आदिवासियों को सेवा प्रदान करता है.

पतली-दुबली काया वाली कनका बेरंग हो चुकी सिंथेटिक साड़ी पहने हुए हैं और अपनी इकलौते बच्ची  के लिए यहां आई हैं. पिछले महीने अस्पताल से 13 किलोमीटर दूर, उनकी अपनी बस्ती में की गई एक नियमित जांच के दौरान, नीलगिरी में स्वास्थ्य कल्याण संघ (अश्विनी) की एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जो अस्पताल से जुड़ी हुई हैं, यह देख कर चिंतित हो गईं कि कनका की दो साल की बच्ची का वज़न सिर्फ़ 7.2 किलोग्राम है (दो साल के बच्चे के लिए आदर्श वज़न 10-12 किलो है). इस वज़न की वजह से वह गंभीर रूप से कुपोषित श्रेणी में आ गई हैं. स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने कनका और उनकी बेटी से तुरंत अस्पताल जाने का आग्रह किया.

जिस हद तक कनका को अपनी पारिवारिक आय के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है, उसको देखते हुए बच्चे का कुपोषित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. उनका पति, जिसकी उम्र भी लगभग 20-30 साल के बीच है, आसपास के चाय, कॉफ़ी, केला, और मिर्च के बाग़ानों में हफ़्ते के कुछ दिन काम करके रोज़ का क़रीब 300 रुपए कमाता है. कनका कहती हैं, “वह खाने-पीने के लिए मुझे महीने के सिर्फ़ 500 रुपए देता है. उन रुपयों से ही मुझे पूरे घर के लिए खाना बनाना पड़ता है.”

कनका और उनका पति, उसके चाचा और चाची के साथ रहते हैं, दोनों लगभग 50 साल की आयु के दिहाड़ी मज़दूर हैं. दोनों परिवारों के मिलाकर उनके पास दो राशन कार्ड हैं, जिसकी वजह से उनको हर महीने 70 किलोग्राम तक मुफ़्त चावल, दो किलो दाल, दो किलो शक्कर, और दो लीटर तेल रियायती दर पर मिल जाते हैं. कनका बताती हैं, “कभी-कभी मेरा पति हमारे राशन के चावल को भी शराब ख़रीदने के लिए बेच देता है. कई बार हमारे यहां खाने के लिए कुछ भी नहीं रहता.”

The Gudalur Adivasi Hospital in the Nilgiris district –this is where young women like Kanaka and Suma come seeking reproductive healthcare, sometimes when it's too late
PHOTO • Priti David
The Gudalur Adivasi Hospital in the Nilgiris district –this is where young women like Kanaka and Suma come seeking reproductive healthcare, sometimes when it's too late
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नीलगिरी ज़िले में गुडलूर आदिवासी अस्पताल – इस जगह पर कनका और सूमा जैसी नौजवान महिलाएं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी सलाह लेने आती हैं, कई बार काफ़ी देर हो जाने के बाद

राज्य के पोषण संबंधी कार्यक्रम भी कनका और उनकी बेटी के अल्पाहार की पूर्ति के लिए काफ़ी नहीं हैं. गुडलूर में उनके क़स्बे के पास समेकित बाल विकास योजना (आइसीडीएस) बालवाड़ी में कनका और दूसरी गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को हर हफ़्ते एक अंडा और हर महीने एक दो किलो का सूखा सथुमावू (गेहुं, हरे चने, मूंगफली, चना, और सोया का दलिया) का पैकेट मिलता है. तीन साल से कम की उम्र के बच्चों को भी सथुमावू का पैकेट मिलता है. तीन साल की उम्र के बाद, बच्चों से उम्मीद की जाती है कि वे नाश्ते, दोपहर के खाने, और गुड़ और मूंगफली के शाम के नाश्ते के लिए आइसीडीएस केंद्र जाएं. गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को रोज़ाना अतिरिक्त मूंगफली और गुड़ दिया जाता है.

जुलाई 2019 से सरकार ने नई माताओं को अम्मा उट्टचाठु पेट्टगम पोषण सामग्री किट देना शुरू किया है, जिसमें 250 ग्राम घी और 200 ग्राम प्रोटीन पाउडर होता है. लेकिन अश्विनी में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम समन्वयक के पद पर कार्यरत, 32 वर्षीय जीजी एलमन कहती हैं, “पैकेट बस उनके घर की अलमारी में ही पड़े रहते हैं. हक़ीक़त यह है कि जनजातीय लोग अपने खाने में दूध और घी का प्रयोग नहीं करते. वे घी छूते ही नहीं हैं. और उन्हें प्रोटीन पाउडर और हरे आयुर्वेदिक पाउडर का इस्तेमाल करना नहीं आता, इसलिए वे उसे हटाकर एक तरफ़ रख देते हैं.”

एक समय था जब नीलगिरी के आदिवासी समुदाय खाने का सामान इकट्ठा करने के लिए आसानी से जंगल जा सकते थे. 40 सालों से गुडलूर के आदिवासी समुदायों के साथ काम कर रही मारी मार्सल ठेकैकारा बताती हैं, “आदिवासियों को अपने इकट्ठा किए गए तरह-तरह के क़ंद, जामुन, हरे पत्ते, और मशरूमों के बारे में बहुत जानकारी है. वे लोग खाने के लिए पूरे साल मछलियां पकड़ते हैं या छोटे जानवरों का शिकार भी करते हैं. बारिश के दिन के लिए ज़्यादातर घरों में आग के ऊपर थोड़ा मांस सुखाया जाता है. लेकिन, वन विभाग ने जंगल में उनके प्रवेश को सीमित करना शुरू कर दिया और फिर पूरी तरह से रोक लगा दी.”

2006 के वनाधिकार अधिनियम के तहत आम संपत्ति संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों की बहाली के बावजूद, आदिवासी लोग अपने आहार की पूर्ति के लिए पहले की तरह जंगल से संसाधन इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं.

गांव में गिरती हुई आय भी बढ़ते हुए कुपोषण का कारण है. आदिवासी मुनेत्र संगम के सचिव, के. टी. सुब्रमण्यन कहते हैं कि पिछले 15 साल से आदिवासियों के लिए दिहाड़ी मज़दूरी के विकल्प कम हुए हैं, क्योंकि यहां के जंगल संरक्षित मुदुमलाई वन्यजीव अभ्यारण्य बन गए हैं. इस अभ्यारण्य के अंदर आने वाले बाग़ान और संपदा – जहां ज़्यादातर आदिवासियों को काम मिलता था – बेच दिए गए हैं या फिर स्थानांतरित कर दिए गए हैं, जिसके कारण वे चाय के बड़े बाग़ानों या खेतों में अस्थायी काम ढूंढने के लिए मजबूर हैं.

Adivasi women peeling areca nuts – the uncertainty of wage labour on the farms and estates here means uncertain family incomes and rations
PHOTO • Priti David

आदिवासी महिलाएं सुपारी छीलते हुए – खेतों और बाग़ानों में दिहाड़ी मज़दूरी की अनिश्चितता का मतलब है परिवारों की आय और राशन में अनिश्चितता

जहां कनका इंतज़ार कर रही हैं उसी गुडलूर आदिवासी अस्पताल (जीएएच) में 26 वर्षीय सूमा (बदला हुआ नाम) वार्ड में आराम कर रही हैं. वह पास ही के पंथलूर तालुक़ा की पनियन आदिवासी हैं, और उन्होंने हाल ही में अपने तीसरे बच्चे को जन्म दिया है, जो कि उनकी पहले की दो और 11 साल की लड़कियों की तरह ही एक लड़की है. सूमा ने बच्ची को इस अस्पताल में जन्म नहीं दिया था, लेकिन प्रसव के बाद की देखभाल और नसबंदी कराने के लिए यहां आई हैं.

उनकी बस्ती से यहां तक आने के लिए जीप से एक घंटे लगते हैं. वह बस्ती से यहां तक आने पर होने वाले ख़र्चे की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “मेरी डिलीवरी पहले ही हो जानी चाहिए थी, लेकिन पैसे न होने की वजह से हम इस अस्पताल में प्रसव नहीं करवा पाए. गीता [अश्विनी की स्वास्थ्य कार्यकर्ता] चेची (दीदी) ने हमें आने-जाने और खाने के लिए 500 रुपए दिए, लेकिन मेरे पति ने सारा पैसा शराब पर ख़र्च कर दिया. इसलिए, मैं घर पर ही रही. तीन दिन बाद, दर्द और भी बढ़ गया और हमें निकलना पड़ा, लेकिन अस्पताल जाने के लिए बहुत देर हो गई थी, इसलिए घर के पास वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) में डिलीवरी हुई.” अगले दिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की नर्स ने 108 नंबर (एंबुलेंस सेवा) पर फ़ोन किया, और सूमा व उनका परिवार आख़िरकार जीएएच के लिए निकल गए.

चार साल पहले सूमा का आईयूजीआर की वजह से सातवें महीने में गर्भपात हो गया था; इस अवस्था में गर्भ में बच्चा (भ्रूण) छोटा रह जाता या जितना होना चाहिए उससे कम विकसित होता है. ज़्यादातर यह अवस्था मां में होने वाली पोषण की कमी, ख़ून और फ़ोलेट की कमी की वजह से होती है. सूमा का अगला गर्भ भी आईयूजीआर से प्रभावित हुआ और उनकी बच्ची का वज़न जन्म के समय गंभीर रूप से कम था (1.3 किलोग्राम, जबकि जन्म के वक़्त आदर्श वज़न 2 किलोग्राम होता है). बच्चे की उम्र के अनुसार वज़न का ग्राफ़ सबसे कम प्रतिशत की रेखा से भी काफ़ी नीचे है, और चार्ट में ‘गंभीर रूप से कुपोषित’ श्रेणी में चिह्नित किया गया.

जीएएच में दवा विशेषज्ञ के तौर पर कार्यरत, 43 वर्षीय डॉक्टर मृदुला राव बताती हैं, “अगर मां कुपोषित है, तो बच्चा भी कुपोषित होगा. सूमा के बच्चे को मां के कुपोषण का असर झेलना पड़ सकता है; उसका शारीरिक, बौद्धिक, और तंत्रिकीय विकास उसकी उम्र के दूसरे बच्चों की अपेक्षा धीमा होगा.”

सूमा का रिकॉर्ड दिखाता है कि तीसरे गर्भ के दौरान उनका सिर्फ़ पांच किलो ही वज़न बढ़ा. यह वज़न, सामान्य वज़न वाली गर्भवती महिलाओं के निर्धारित वज़न बढ़त से आधे से भी कम है, और सूमा जैसी कम वज़न वाली महिलाओं के हिसाब से तो आधे से बहुत ही ज़्यादा कम है. नौ महीने के गर्भ के साथ वह सिर्फ़ 38 किलो की हैं.

PHOTO • Priyanka Borar

चित्रण : प्रियंका बोरार

2006 के वनाधिकार अधिनियम के तहत आम संपत्ति संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों की बहाली के बावजूद, स्थानीय आदिवासी अपने आहार की पूर्ति के लिए पहले की तरह जंगल से संसाधन इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं

जीएएच की स्वास्थ्य एनिमेटर (प्रसार कार्यकर्ता), 40 वर्षीय गीता कन्नन याद करते हुए बताती हैं, “मैं हफ़्ते में कई बार गर्भवती मां और बच्चे को देखने के लिए जाती थी. मैं देखती थी कि बच्चा सिर्फ़ अंडरवियर पहने अपनी दादी की गोद में निरुत्साही ढंग से बैठा हुआ है. घर में खाना नहीं बनता था, और पड़ोस के लोग बच्चे को खाना खिलाया करते थे. सूमा लेटी रहती थी, कमज़ोर दिखती थी. मैं सूमा को हमारा अश्विनी सथुमावू (रागी और दालों का पाउडर) देती थी और उससे कहती थी कि अपनी और अपने बच्चे, जिसको वह स्तनपान कराती है, की सेहत के लिए ढंग से खाना खाया करे. लेकिन, सूमा कहती थी कि अभी भी उसका पति जो कुछ भी दिहाड़ी मज़दूरी में कमाता है उसमें से ज़्यादातर शराब पीने में ख़र्च कर रहा है.” गीता थोड़ा रुककर बोलती हैं, “सूमा ने भी शराब पीना शुरू कर दिया था.”

वैसे तो गुडलूर के ज़्यादातर परिवारों की यही कहानी है, लेकिन इस ब्लॉक के स्वास्थ्य संकेतकों में नियमित बढ़त होती हुई नज़र आती है. अस्पताल के रिकॉर्ड बताते हैं कि 1999 में 10.7 (प्रति 100,000 जीवित जन्म पर) का मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) का अनुपात, 2018-19 तक 3.2 तक नीचे गिर गया था, और उसी दौरान शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) 48 (प्रति 1,000 जीवित जन्म पर) से घट कर 20 हो गया था. राज्य योजना आयोग की ज़िला मानव विकास रिपोर्ट , 2017  के अनुसार, नीलगिरी ज़िले में आईएमआर 10.7 है, जो राज्य के 21 के औसत से भी कम है, और गुडलूर तालुका में तो 4.0 है.

पिछले 30 सालों से गुडलूर की आदिवासी महिलाओं के साथ काम कर रही डॉक्टर पी. शैलजा देवी समझाती हैं कि ये संकेतक पूरी कहानी नहीं बताते हैं. वह बताती हैं, “मृत्यु संकेतक जैसे एमएमआर और आईएमआर ज़रूर बेहतर हुए हैं, लेकिन रुग्णता बढ़ गई है. हमें मृत्यु और रुग्णता में फ़र्क़ करना पड़ेगा. एक कुपोषित मां कुपोषित बच्चे को ही जन्म देगी, जिसे बीमारियां लगने का काफ़ी ख़तरा है. इस तरह बढ़ रहा तीन साल का बच्चा दस्त (डायरिया) जैसे रोग से भी जान गंवा सकता, और उसका बौद्धिक विकास धीरे होगा. आदिवासियों की अगली पीढ़ी ऐसी ही होगी.”

इसके अलावा, सामान्य मृत्यु दर संकेतकों में आई बढ़त को इस क्षेत्र के जनजातीय समुदायों में बढ़ती हुई शराब की लत की वजह से कम करके आंका जा रहा है, और यह बढ़त आदिवासी जनसंख्या में उच्च मात्रा में मौजूद कुपोषण पर पर्दा डाल सकती है. (जीएएच शराब की लत और कुपोषण के सह-संबंध पर एक पेपर तैयार करने की प्रक्रिया में है; वह अभी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है.) जैसा कि डीएचडीआर 2017 की रिपोर्ट में भी कहा गया है, “मृत्यु दर के नियंत्रण में होने पर भी, पोषण स्तर में शायद सुधार न हो.”

प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ, डॉक्टर शैलजा (60 साल) कहती हैं, "जब हम मृत्यु के दूसरे कारणों जैसे डायरिया और डिसेंट्री को नियंत्रित कर रहे थे, और सभी डिलीवरी अस्पताल में करवा रहे थे, समुदाय में शराब की लत इन सबको बर्बाद कर रही थी. “हम नौजवान माताओं और बच्चों में सब-सहारा स्तर का कुपोषण और पोषण की जर्जर स्थिति देख रहे हैं,” डॉक्टर शैलजा जनवरी 2020 में जीएएच से आधिकारिक तौर पर सेवानिवृत्त हो गई थीं, लेकिन वह अभी भी हर सुबह अस्पताल में मरीज़ों को देखते हुए और सहकर्मियों के साथ केस पर चर्चा करते हुए बिताती हैं. वह बताती हैं, “50 प्रतिशत बच्चे मध्यम या गंभीर रूप से कुपोषित हैं. दस साल पहले [2011-12], मध्यम कुपोषण 29 प्रतिशत पर था और गंभीर कुपोषण 6 प्रतिशत. इसलिए, यह बढ़ोतरी बहुत ही ज़्यादा परेशान कर देने वाली है.”

Left: Family medicine specialist Dr. Mridula Rao and Ashwini programme coordinator Jiji Elamana outside the Gudalur hospital. Right: Dr. Shylaja Devi with a patient. 'Mortality indicators have definitely improved, but morbidity has increased', she says
PHOTO • Priti David
Left: Family medicine specialist Dr. Mridula Rao and Ashwini programme coordinator Jiji Elamana outside the Gudalur hospital. Right: Dr. Shylaja Devi with a patient. 'Mortality indicators have definitely improved, but morbidity has increased', she says
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बाएं: फ़ैमिली मेडिसिन एक्सपर्ट डॉक्टर मृदुला राव और अश्विनी प्रोग्राम कोर्डिनेटर जीजी एलामाना गुडलूर अस्पताल के बाहर. दाएं: डॉक्टर शैलजा देवी एक मरीज़ के साथ. वह कहती हैं, ‘मृत्यु संकेतक ज़रूर बेहतर हुए हैं, लेकिन रुग्णता बढ़ गई है'

कुपोषण के स्पष्ट प्रभावों के बारे में बताते हुए, डॉक्टर राव कहती हैं, “पहले, जब माएं जांच करवाने के लिए ओपीडी में आती थीं, तो वे अपने बच्चों के साथ खेलती थीं. अब वे बस उदासीन भाव से बैठी रहती हैं, और बच्चे भी बहुत सुस्त लगते हैं. यह उदासीनता बच्चों और ख़ुद के पोषण स्वास्थ्य के प्रति देखभाल की कमी में बदल रही है.”

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 ( एनएफ़एचएस-4 , 2015-16) से पता चलता है कि नीलगिरी के ग्रामीण क्षेत्रों में 6 से 23 महीने की उम्र के 63 प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त आहार नहीं मिलता है, जबकि 6 महीने से 5 साल की उम्र के 50.4 प्रतिशत बच्चों में ख़ून की कमी है (11 ग्राम प्रति डेसीलीटर से नीचे का हीमोग्लोबिन – न्यूनतम 12 सही माना जाता है). क़रीब आधी (45.5 प्रतिशत) ग्रामीण माताओं में ख़ून की कमी है, जो उनके गर्भ पर हानिकारक प्रभाव डालती है.

डॉक्टर शैलजा बताती हैं, “हमारे यहां अभी भी ऐसी आदिवासी महिलाएं आती हैं, जिनके अंदर बिल्कुल भी ख़ून नहीं होता – 2 ग्राम प्रति डेसीलीटर हीमोग्लोबिन! जब ख़ून की कमी की जांच करते हैं, तब हाइड्रोक्लोरिक एसिड रखते हैं और उस पर ख़ून डालते हैं, तो न्यूनतम 2 ग्राम प्रति डेसीलीटर तक का ही नाप पढ़ा जा सकता है. इससे कम भी हो सकता है, लेकिन नापा नहीं जा सकता."

ख़ून की कमी और मातृ मृत्यु में एक क़रीबी संबंध है. जीएएच की प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ, डॉक्टर नम्रता मैरी जॉर्ज (31 साल) कहती हैं, “ख़ून की कमी की वजह से प्रसूति रक्तस्राव हो सकता है, हृदय गति रुक सकती है, और मौत हो सकती है. इसकी वजह से गर्भ में बच्चे का विकास भी बाधित होता है और जन्म के समय कम वज़न की वजह से नवजात की मृत्यु भी हो जाती है. बच्चा पनप नहीं पाता और जीर्ण कुपोषण का शिकार हो जाता है.”

कम उम्र में शादी और गर्भधाण, बच्चे की सेहत को और भी ख़तरे में डालते हैं. एनएफ़एचएस-4 के मुताबिक़, नीलगिरी के ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ़ 21 प्रतिशत लड़कियों की ही शादी 18 साल से कम की उम्र में होती है, लेकिन यहां के स्वास्थ्य कार्यकर्ता इस बात पर तर्क करते हैं कि ज़्यादातर आदिवासी लड़कियों की शादी 15 साल की उम्र में या फिर जैसे ही उन्हें मासिक धर्म शुरू होता है वैसे ही कर दी जाती हैं. डॉक्टर शैलजा कहती हैं, “हमें शादी और उनके पहले गर्भ को विलंबित करने के लिए और भी प्रयास करने होंगे. जब पूरी तरह से वयस्क होने से पहले ही, 15 या 16 साल की उम्र में लड़कियां गर्भवती हो जाती हैं, तब उनका ख़राब पोषण, नवजात शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है.”

An Alcoholics Anonymous poster outside the hospital (left). Increasing alcoholism among the tribal communities has contributed to malnutrition
PHOTO • Priti David
An Alcoholics Anonymous poster outside the hospital (left). Increasing alcoholism among the tribal communities has contributed to malnutrition
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अस्पताल के बाहर शराब की लत वाले अज्ञात व्यक्ति (अलकोहोलिक्स अनॉनिमस) का एक पोस्टर (बाएं). आदिवासी समुदायों में बढ़ती हुई शराब की लत ने भी कुपोषण बढ़ाया है

शायला को मरीज़ और सहकर्मी, दोनों चेची (बड़ी बहन) के नाम से बुलाते हैं. वह आदिवासी महिलाओं के मुद्दों पर विश्वकोश सरीखा ज्ञान रखती हैं. वह बताती हैं, “परिवार का स्वास्थ्य, पोषण से जुड़ा हुआ है, और गर्भवती व स्तनपान करवाने वाली महिलाओं को पौष्टिक आहार की कमी के कारण दोगुना ख़तरा होता है. वेतन बढ़ा है, लेकिन पैसा परिवार तक नहीं पहुंच रहा है. हम ऐसे आदमियों के बारे में जानते हैं जो अपने राशन का 35 किलोग्राम चावल लेते हैं और बग़ल वाली दुकान पर शराब ख़रीदने के लिए बेच देते हैं. उनके बच्चों में कुपोषण कैसे नहीं बढ़ेगा?”

अश्विनी में मानसिक स्वास्थ्य सलाहकार, वीना (53 साल) बताती हैं, “समुदाय के साथ हमारी जो भी मुलाक़ात होती है, चाहे वह किसी भी मुद्दे पर हो, इसी समस्या के साथ ख़त्म होगी: परिवारों में बढ़ती हुई शराब की लत."

इस क्षेत्र में रहने वाले ज़्यादातर लोग कट्टूनायकन और पनियन आदिवासी समुदाय के हैं, जो विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों में शामिल हैं. जनजातीय अनुसंधान केंद्र, उदगमंडलम के द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, उनमें से 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग बाग़ानों और खेतों में खेतिहर मज़दूर हैं. यहां रहने वाले बाक़ी समुदाय मुख्य रूप से इरुलर, बेट्टा कुरुम्बा, और मुल्लू कुरुम्बा हैं, जो अनुसूचित जनजातियों में शामिल हैं.

मारी ठेकैकारा बताती हैं, “हम जब 80 के दशक में यहां आए थे, तब 1976 के बंधुआ मज़दूर प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम के बावजूद, पनिया समुदाय के लोग धान, बाजरा, केला, मिर्च, और साबुदाने के बाग़ानों में बंधुआ मज़दूरी करते थे. वे लोग घने जंगलों के बीच छोटे बाग़ानों में काम करते थे, इस बात से बेख़बर कि जिस ज़मीन पर वे काम कर रहे हैं वह ज़मीन उन्हीं की है.”

मारी और उनके पति स्टैन ठेकैकारा ने आदिवासियों के सम्मुख आने वाले मुद्दों को संबोधित करने के लिए 1985 में अकॉर्ड (सामुदायिक संगठन, पुनर्वास और विकास के लिए कार्यवाही) की स्थापना की. समय के साथ, अनुदान से चलने वाले एनजीओ ने कई संगठनों का एक नेटवर्क बना लिया है – संगम (परिषद) स्थापित किए गए और उनको आदिवासी मुन्नेत्र संगम की छत्र-छाया में लाया गया, आदिवासियों द्वारा चलाया और नियंत्रित किया गया. संगम ने आदिवासी भूमि को दोबारा पाने में कामयाबी हासिल की, चाय का बाग़ान लगाया गया, और आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल स्थापित किया. अकॉर्ड ने भी नीलगिरी में स्वास्थ्य कल्याण संघ (अश्विनी) की शुरुआत की, और 1998 में गुडलूर आदिवासी अस्पताल स्थापित हुआ. अब यहां छह डॉक्टर हैं, एक प्रयोगशाला है, एक्स-रे रूम, दवा की दुकान और ब्लड बैंक हैं.

Left: Veena Sunil, a mental health counsellor of Ashwini (left) with Janaki, a health animator. Right: Jiji Elamana and T. R. Jaanu (in foreground) at the Ayyankoli area centre, 'Girls in the villages approach us for reproductive health advice,' says Jaanu
PHOTO • Priti David
Left: Veena Sunil, a mental health counsellor of Ashwini (left) with Janaki, a health animator. Right: Jiji Elamana and T. R. Jaanu (in foreground) at the Ayyankoli area centre, 'Girls in the villages approach us for reproductive health advice,' says Jaanu
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बाएं: अश्विनी की एक मानसिक स्वास्थ्य सलाहकार वीना सुनील (बाएं), एक स्वास्थ्य ऐनिमेटर जानकी के साथ. दाएं: जीजी एलामाना और टीआर जानू (सामने) अय्यनकोली एरिया सेंटर पर; जानू कहती हैं, ‘ गांव की लड़कियां हमारे पास प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी सलाह लेने आती हैं'

डॉक्टर रूपा देवदासन याद करती हैं, “80 के दशक में, सरकारी अस्पतालों में आदिवासियों के साथ द्वितीय श्रेणी के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाता था और वे भाग जाते थे. स्वास्थ्य स्थिति विकट थी: गर्भ के दौरान महिलाएं नियमित रूप से मर रही थीं, और बच्चों को दस्त (डायरिया) हो रहे थे और उनकी मृत्यु हो रही थी. “हमें बीमार या गर्भवती मरीज़ों के घर में घुसने की भी इजाज़त नहीं थी. बहुत सारी बातों और आश्वासन के बाद ही समुदायों ने हम पर विश्वास करना शुरू किया.” रूपा और उनके पति, डॉक्टर एन. देवदासन अश्विनी के उन अग्रणी डॉक्टरों में से हैं, जो आदिवासी क्षेत्रों में घर-घर जाते थे.

सामुदायिक चिकित्सा, अश्विनी का मूल मंत्र है; जिनके पास 17 स्वास्थ्य ऐनिमेटर (स्वास्थ्य कार्यकर्ता) हैं और 312 हेल्थ वॉलंटियर हैं, और सभी आदिवासी हैं. ये सभी गुडलूर और पंथलूर तालुकाओं में बड़े पैमाने पर घूमते हैं, घर-घर जाकर स्वास्थ्य और पोषण संबंधी सलाह देते हैं.

पचास साल से ज़्यादा की हो चुकी टी. आर. जानू, जो मुल्लू कुरुंबा समुदाय की हैं, अश्विनी में प्रशिक्षित होने वाली पहली स्वास्थ्य ऐनिमेटर थीं. पंथलूर तालुका में चेरनगोडे पंचायत की अय्यनकोली बस्ती में उनका ऑफ़िस है, और आदिवासी परिवारों में मधुमेह, उच्च रक्तचाप, और टीबी की नियमित रूप से जांच करती हैं, और प्राथमिक चिकित्सा के साथ-साथ सामान्य स्वास्थ्य और पोषण पर सलाह भी देती हैं. वह गर्भवती महिलाओं और स्तनपान करवाने वाली माताओं का भी ध्यान रखती हैं. वह कहती हैं, “गांव की लड़कियां गर्भवती होने के काफ़ी महीने हो जाने पर, हमारे पास प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी सलाह के लिए आती हैं. फ़ोलेट की कमी के लिए गर्भ के पहले तीन महीने में ही दवा देना ज़रूरी है, जिससे अंतर गर्भ में बच्चे का विकास न रुके, नहीं तो यह काम नहीं करती."

हालांकि, सूमा जैसी नौजवान महिलाओं के लिए आईयूजीआर से नहीं बचा जा सका. अस्पताल में हमारे मिलने के कुछ दिनों बाद उनकी नसबंदी पूरी हो चुकी थी और वह और उनका परिवार घर जाने की तैयारी कर रहे थे. उनको नर्सों और डॉक्टरों से सलाह मिली थी. उनको सफ़र के लिए और अगले हफ़्ते के खाने के लिए रुपए दिए गए थे. उनके जाने के वक़्त, जीजी एलमाना कहती हैं, “इस बार हमें उम्मीद है कि इन रुपयों को हमारे द्वारा बताई गई चीज़ों पर ख़र्च किया जाएगा."

पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा औरतों को केंद्र में रखकर की जाने वाली रिपोर्टिंग का यह राष्ट्रव्यापी प्रोजेक्ट 'पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया' द्वारा समर्थित पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की बातों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए इन महत्वपूर्ण, लेकिन हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति का पता लगाया जा सके.

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अनुवादः नेहा कुलश्रेष्ठ

Priti David

Priti David is the Executive Editor of PARI. She writes on forests, Adivasis and livelihoods. Priti also leads the Education section of PARI and works with schools and colleges to bring rural issues into the classroom and curriculum.

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Priyanka Borar is a new media artist experimenting with technology to discover new forms of meaning and expression. She likes to design experiences for learning and play. As much as she enjoys juggling with interactive media she feels at home with the traditional pen and paper.

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Sharmila Joshi is former Executive Editor, People's Archive of Rural India, and a writer and occasional teacher.

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Translator : Neha Kulshreshtha

Neha Kulshreshtha is currently pursuing PhD in Linguistics from the University of Göttingen in Germany. Her area of research is Indian Sign Language, the language of the deaf community in India. She co-translated a book from English to Hindi: Sign Language(s) of India by People’s Linguistics Survey of India (PLSI), released in 2017.

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