चलिए, शुरू से शुरू करते हैं...

पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया (पारी), साल 2014 से ही भारत की विविधता की कहानी बयान करता आ रहा है. यह कहानी भारत के गांवों में रहने वाले उन 83 करोड़ 30 लाख लोगों के ज़रिए बयान होती है, जो 700 से ज़्यादा भाषाओं में बात करते हैं और 86 अलग-अलग लिपियों का इस्तेमाल करते हैं. इन सभी भाषाओं में वे भाषाएं भी शामिल हैं जिनकी अपनी कोई लिपि नहीं है. ये सभी भाषाएं इस देश की सांस्कृतिक विविधता की मिसाल हैं. और इनके बिना आम अवाम को केंद्र में रखकर तैयार किए जाने वाले किसी भी संग्रह की कल्पना नहीं की जा सकती है और न ही उसे साकार रूप दिया जा सकता है. पारी की हर कहानी की अपनी एक यात्रा है और इस यात्रा में अलग-अलग भारतीय भाषाओं में किए जाने वाले अनुवाद की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

स्मिता खट्टर कहती हैं, “अनुवाद का यह संग्रह, पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नज़ीर की तरह है. पारी में अनुवाद के काम को सामाजिक न्याय और बराबरी के चश्मे से देखा जाता है. इससे यह सुनिश्चित हो पाता है कि ज्ञान का उत्पादन और प्रसार सिर्फ़ अंग्रेज़ी जानने वालों तक सीमित नहीं रहेगा, क्योंकि गांव-देहात के अधिकांश लोग आज भी अंग्रेज़ी भाषा से कई प्रकाश वर्षों की दूरी पर गुज़र-बसर करते हैं.”

भाषा संपादकों और अनुवादकों की हमारी टीम, अक्सर शब्दों के सांस्कृतिक संदर्भ, वाक्यांशों की उपयुक्तता जैसे विषयों पर आपस में विचार-विमर्श करती रहती है और अपनी राय साझा करती है. मुझे एक वाक़या याद आता है...

स्मिता : आपको पुरुषोत्तम ठाकुर की वह कहानी याद है जिसमें वह एक दृश्य बयान करते हैं, जब तेलंगाना के ईंट भट्ठे पर काम करने वाले कुरुमपुरी पंचायत के प्रवासी मज़दूर उन्हें देखकर कितने ख़ुश हुए थे? उनमें से एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने उनके पास आकर कहा था कि “लंबे समय बाद ऐसे व्यक्ति से मिला हूं जो ओड़िया बोलना जानता है. आपसे मिलकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई!"

ज्योति शिनोली की महाराष्ट्र से दर्ज की गई एक कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें उन्होंने चेन्नई में पलायन करने वाले प्रवासी मज़दूरों के लड़के रघु के बारे में बताया था. रघु को अपना नया स्कूल रास नहीं आ रहा था, क्योंकि उसे शिक्षकों और सहपाठियों की भाषा ही समझ नहीं आती थी. कहानी में लड़के की मां गायत्री कहती हैं, “चेन्नई के उस स्कूल में सिर्फ़ तीन हफ़्ते बिताने के बाद एक दिन वह रोते हुए वापस घर लौटा. वह कहने लगा कि अब स्कूल नहीं जाएगा. उसे वहां कुछ समझ नहीं आता था और उसे लगता है कि हर कोई उससे ग़ुस्से में बात कर रहा है.”

ग्रामीण भारत में लोगों के लिए भाषाई पहचान बहुत अहम है, ख़ासकर तब, जब उन्हें रोज़ी-रोटी के चक्कर में मजबूरन अपने गांव से पलायन करके किसी दूर के शहर जाना पड़ता है.

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शंकर : लेकिन स्मिता, कभी-कभी लोगों के साथ शब्द भी पलायन करते हैं. मुझे याद है कि एक बार मैं सेंतलिर की कहानी पर काम कर रहा था, जो हाथ से परागण करने वालों पर केंद्रित थी. मुझे अहसास हुआ कि वहां काम करने वाली महिलाएं हाथों से फूलों के परागण के अपने काम के संदर्भ में अंग्रेज़ी के क्रॉस या क्रॉसिंग शब्दों का इस्तेमाल कर रही थीं. अंग्रेज़ी का यह शब्द अब उनकी बोलचाल का हिस्सा बन गया था. अब ऐसे शब्द आपको गांव-देहात में ख़ूब सुनने को मिलेंगे.

यह बात काफ़ी उत्साहित करने वाली तो है ही, चुनौतीपूर्ण भी है. कई बार ऐसा भी हुआ है, जब मैं अपने राज्य कर्नाटक से अंग्रेज़ी में रिपोर्ट की गई कहानी पढ़ता हूं, तो कहानी में शामिल किरदारों की बातें पढ़कर ऐसा लगता है कि वे वहां के हैं ही नहीं. वे किसी किताब के काल्पनिक पात्रों की तरह मालूम पड़ते हैं. उनके जीवन में रस और रंगों की कमी नज़र आती है. इसलिए, जब मैं अनुवाद करता हूं, तो मैं इस बात को सुनिश्चित करता हूं कि मैं उन लोगों की बातें सुनूं, जिस तरह वे बात करते हैं उसे जानू. मैं कोशिश करता हूं कि मेरा अनुवाद उनके जीवन की वास्तविकता बयान करे, कलात्मक रिपोर्टिंग का नमूना बनकर न रह जाए.

प्रतिष्ठा: अनुवाद की प्रक्रिया हमेशा सरल या सीधी नहीं होती. मुझे जाने कितनी बार अपनी मातृभाषा में लिखने वाले रिपोर्टरों की कहानी पर काम करते वक़्त जूझना पड़ता है. जो कहानी मूल रूप से गुजराती या हिंदी में लिखी गई हो पढ़ने में काफ़ी बेहतरीन मालूम पड़ती है. लेकिन जब मैं उसका अंग्रेज़ी अनुवाद करती हूं, तो मुझे उसकी बनावट, वाक्य विन्यास और उच्चारण सभी बनावटी लगने लगते हैं. ऐसी स्थिति में मुझे यह समझ नहीं आता कि मैं कौन सा रास्ता अपनाऊं.

मुझे समझ नहीं आता कि मैं स्टोरी की भावना के साथ जाऊं और अनुवाद के दौरान समाज में हाशिए पर खड़े उस समुदाय के अनुभवों को बयान करना मक़सद रखूं या फिर मूल कहानी में जो लिखा हुआ है, जो शब्द इस्तेमाल किए गए, जो ढांचा बना हुआ है सिर्फ़ उसके अनुसार काम करूं? मैं संपादन भारतीय भाषा में करूं या अंग्रेज़ी में? अंत में, यह एक लंबी प्रक्रिया हो जाती है, जिसमें खूब सारी बहसें और चर्चाएं भी शामिल होती हैं.

भाषाओं के बीच भिन्नता होने का बाद भी सभी कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और इसी से अनुवाद संभव हो पाता है. पारी के साथ काम करने के दौरान मुझे तस्वीरों, ध्वनियों, उच्चारण, भाषा के ज्ञान-संसार और उसकी सांस्कृतिक दुनिया व उसके ख़ास चरित्र के बीच के गहरे अर्थ और उसकी ख़ूबसूरती का पता चला. कई बार हमने एक ही कहानी को दो भाषाओं में दो अलग-अलग तरीक़ों से प्रकाशित किया है. लेकिन दोनों के तरीक़े में इतना अंतर होता है कि एक को दूसरे का अनुवाद कहने से पहले कई बार सोचना पड़ता है.

जोशुआ: प्रतिष्ठा दी, क्या हम यह नहीं कह सकते हैं कि अनुवाद दरअसल पुनर्सृजन की मनोरंजक प्रक्रिया का नाम है, यानी पहले से कही गई किसी बात को अलग तरह से कहने की एक प्रक्रिया? जब मैं बांग्ला में ग्राइंडमिल गीतों पर काम करता हूं, तब मैं गीतों का अनुवाद नहीं करता हूं, बल्कि ओवी को नए सिरे से अपनी मातृभाषा में लिख रहा होता हूं. ऐसा करते हुए मुझे समझ आया कि छंदों और कहन को बार-बार सीखना और भुलाना पड़ता है. मुझे लगता था कवि होना मुश्किल है, लेकिन अब मुझे लगता है कि कविता का अनुवाद करना तो और भी कठिन है!

जो किसी के हाव-भाव, विचार, कल्पना, बोलने के ढंग, छंद, लय और रूपकों को एक साथ बरक़रार रख सकता है वही मराठी के वाचिक साहित्य को अपनी ज़बान में बयान कर सकता है या लिख सकता है. ग्रामीण गायिकाओं-महिला गीतकारों से प्रेरित होकर, मैंने भी अपनी कविता में किसी महिला की तरह सोचने की कोशिश शुरू की है, जो किसी अनाज की तरह जाति व्यवस्था, पितृसत्ता और वर्ग संघर्ष की चक्की में पिसती रहती हैं. हर बार, मैं बंगाल के गांवों की महिलाओं के बीच प्रचलित गीत-संगीत-कविता की टुशु, भादु, कुलो-झाड़ा गान और ब्रतोकथा जैसी वाचिक परंपराओं में मेल ढूंढने की कोशिश करता हूं.

इस दौरान, निराशा और आश्चर्य दोनों का सामना करना पड़ता है.

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मेधा: लेकिन जानते हो इससे भी ज़्यादा मुश्किल क्या है? हास्य से लबरेज़ व्यंग्यात्मक सामग्री का अनुवाद. साईनाथ के लेख! जब मैं हाथी का विशालकाय पेट और सरगुजा का महावत स्टोरी पढ़ रही थी, तो मैं मुस्कुरा भी रही थी और अपना सर भी खुजा रही थी. उनके द्वारा लिखी गई हर पंक्ति, हर शब्द कमाल की तस्वीर पेश कर रहे थे, एक विनम्र हाथी था, उसके ऊपर बैठे तीन लोग थे और उसका महावत प्रभु था. तमाम कोशिशों के बाद भी वे समझ ही नहीं पाए कि उस हाथी का पेट आख़िर कैसे भर पाता है, उसे खाना कहां से मिलता है.

इस मज़ेदार कहानी को मुझे जस के तस मराठी में भी मज़ेदार ढंग से अनुवाद करना था और हाथी के बारे में विस्तार के किए गए वर्णन और उसकी सवारी के मज़ेदार अनुभव के साथ कोई समझौता नहीं करना था.

मेरे लिए चुनौती की शुरुआत लेख के शीर्षक से ही हो गई थी, और ऐसा अक्सर पारी की बहुत सी कहानियों के साथ होता है. हाथी को हर दिन भोजन कराने की जद्दोजहद मुझे चर्चित किरदार बकासुर की कहानी तक ले गई कि कैसे पूरे गांव को हर रोज़ मशक्कत करके बकासुर का पेट भरना पड़ता था. इसलिए, मराठी में मैंने इस कहानी का शीर्षक लिखा: हत्ती दादा आणि बकासुराचं पोट .

मुझे लगता है कि बेली ऑफ़ द बीस्ट या पेंडोरा बॉक्स या थिएटर ऑफ़ ऑप्टिक्स जैसे अंग्रेज़ी वाक्यांशों का अनुवाद करते समय, हमें ऐसे शब्दों, अवधारणाओं, पात्रों को चुनना चाहिए जिससे हमारी भाषा के पाठक परिचित हैं.

प्रतिष्ठा: ऐसी ही आज़ादी मैं भी अनुवाद के समय लेती हूं, जब किसी दूसरी संस्कृति या परंपरा की कविता का अनुवाद करती हूं. मैं यह समझती हूं कि पारी की कहानी पर काम करते हुए ऐसा करना क्यों ज़रूरी है. मुझे लगता है कि किसी कहानी के अनुवाद की प्रक्रिया उसके पाठकों के हिसाब से भी तय होती है.

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‘पारी का अनुवाद कार्यक्रम सिर्फ़ एक भाषागत पहल या हर भाषा को कमतर करके अंग्रेज़ी के प्रति समर्पित करने की कोशिश नहीं है. ये उन संदर्भों तक पहुंचने की कोशिश है जो हमारी दुनिया से परे रहे हैं’ – पी. साईनाथ

कमलजीत: मैं आपको बताती हूं कि मैं पंजाबी में कैसे काम करती हूं. अनुवाद करते समय कई बार मुझे अपनी भाषा के नियमों को तोड़ना पड़ता है, ख़ुद की ज़बान में ढालना पड़ता है! और इसके चलते अक्सर मेरी आलोचना भी होती है.

उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी में लिखे गए सभी लेखों में किसी समुदाय या वर्ग के सभी व्यक्तियों के लिए एक ही सर्वनाम का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन पंजाबी में ऐसा नहीं होता है. इसमें अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ही व्यक्ति के पद, आयु, वर्ग, सामाजिक स्थिति, जेंडर (लिंग) और जाति के आधार पर सर्वनाम बदलते रहते हैं. इसलिए, पारी की कहानी का पंजाबी में अनुवाद करते समय, अगर मैं अपनी भाषाई मानदंडों का पालन करूं, तो यह हमारी वैचारिक मान्यताओं के बीच रुकावट बनने लगेगा.

इसलिए, हमने पहले ही यह तय कर लिया कि अनुवाद में सभी व्यक्तियों को एक जैसा सम्मान देंगे, चाहे वह गुरु हो, राजनेता हो, वैज्ञानिक हो, सफ़ाईकर्मी हो, पुरुष हो या ट्रांस महिला.

मुझे तरनतारन ज़िले से दर्ज की गई कहानी याद आती है, जो एक दलित महिला मंजीत कौर की ज़िंदगी पर लिखी गई थी. वह ज़मींदारों के घरों में गाय का गोबर उठाने का काम करती थीं. कहानी प्रकाशित होने के बाद मुझसे कई पाठक पूछने लगे कि "आप मंजीत कौर को इतना सम्मान क्यों दे रही हैं?" मंजीत कौर इक मज़हबी सिक्ख हन. ओह ज़िमिदारां दे घरां दा गोहा चुकदी हन?” कई पाठकों को लगा कि मैं मशीनी अनुवाद कर रही हूं, क्योंकि मैंने भाषाई नियमों का पालन नहीं किया और 'है' के स्थान पर 'हन' का इस्तेमाल किया.

देवेश: अरे, हिंदी में भी यही हाल है. जब भी हाशिए के समुदायों के लोगों की बात आती है, तो हिन्दी में भी उनके प्रति सम्मानजनक शब्दों की भारी कमी नज़र आने लगती है. ऐसे शब्द ढूंढना मुश्किल हो जाता है जो उनकी वास्तविकताओं का उपहास न उड़ाते हों. लेकिन अनुवाद की प्रक्रिया में इस समस्या का हल निकल पाता है, और दूसरी भाषाओं से सीखकर हम नए शब्द गढ़ पाते हैं.

हिंदी में अनुवाद करते वक़्त मुझे कुछ मौक़ों पर बड़ी समस्या आती है, जब मसला प्रकृति या विज्ञान से जुड़ा हो या फिर जेंडर या इंसान की यौनिकता से जुड़ा हो या फिर जब बात किसी अक्षमता से जूझ रहे व्यक्ति की हो. हिंदी की शब्दावली में ऐसे मौक़ों पर शब्द ढूंढे नहीं मिलते. एक तरफ़ हमने ऐसा होते भी देखा है कि महिमामंडन के ज़रिए मूल सवालों को ग़ायब कर दिया जाता है, जैसे महिलाओं को देवी बता दिया जाना या फिर शारीरिक अक्षमता से जूझते लोगों को दिव्यांग कहा जाता है. लेकिन अगर हम ज़मीनी हक़ीक़त पर नज़र डालें, तो उनकी स्थिति समाज में पहले से भी बदतर होती दिखती है.

जब हम कविता अय्यर की लिखी स्टोरी मैं नसबंदी कराने के लिए घर से अकेली ही निकल गई थी ’ जैसे लेखों का अनुवाद करते हैं, तो महसूस होता है कि विशाल साहित्य संसार होने के बाद भी, हिंदी की गैर-साहित्यिक विधाओं में आम जन-मानस की पीड़ा का ज्वलंत चित्रण मिलना मुश्किल है. ज्ञान, विज्ञान, चिकित्सा और स्वास्थ्य तथा समाज के मुद्दों को संबोधित करने वाली शब्दावली बहुत सीमित है.

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स्वर्णकांता : भोजपुरी की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. या यूं कहें कि इससे भी बदतर, क्योंकि इसको बोलने वालों की संख्या तो बहुत अधिक है, लेकिन इस भाषा में लिखने वाले बेहद कम हैं. चूंकि, भोजपुरी पढ़ने-लिखने का माध्यम नहीं रही है, इसलिए मेडिकल, इंजीनियरिंग, इंटरनेट, सोशल मीडिया से जुड़े शब्द इसमें नहीं मिलते हैं.

देवेश, आपने सही कहा कि नए शब्द गढ़े जा सकते हैं, लेकिन सबकुछ बहुत भ्रमित करने वाला है. मसलन, हमारे समाज में 'ट्रांसजेंडर' के लिए पारंपरिक रूप से 'हिजड़ा', 'छक्का', 'लौंडा' जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता रहा है, जो अंग्रेज़ी में हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द की तुलना में बेहद आपत्तिजनक हैं. इसी तरह, हम कितनी भी कोशिश कर लें, महिला दिवस, मानसिक स्वास्थ्य, क़ानून (मसलन स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े अधिनियम), खेल टूर्नामेंटों के नाम (पुरुषों का अंतरराष्ट्रीय विश्व कप) आदि का अनुवाद करना तक़रीबन असंभव हो जाता है.

पारी में छपी बिहार के समस्तीपुर ज़िले की 19 साल की शिवानी की कहानी का मैंने अनुवाद किया था. महादलित समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाली शिवानी अपने परिवार और समाज दोनों से जातिगत व लैंगिक भेदभाव की लड़ाई लड़ रही थी. मुझे ऐसी भेदभावपूर्ण प्रथाओं के बारे में गहन जानकारी है, लेकिन वास्तविक जीवन पर आधारित ऐसी कहानियां हमें पढ़ने के लिए नहीं मिलती हैं.

मेरा मानना ​​है कि अनुवाद किसी समुदाय के बौद्धिक और सामाजिक विकास को आगे बढ़ाने का काम कर सकता है.

निर्मल: मानकीकरण के अभाव से जूझती भाषा का भी विकास अनुवाद के माध्यम से हो सकता है. छत्तीसगढ़ के पांचों हिस्सों - उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और मध्य - में छत्तीसगढ़ी भाषा के दो दर्जन से ज़्यादा प्रकार मिल जाते हैं. इसलिए, छत्तीसगढ़ी में अनुवाद करते समय मानक रूप का अभाव चुनौती बन जाती है. मैं अक्सर किसी ख़ास शब्द के चुनाव में बहुत उलझन जाता हूं. इस दुविधा से निकलने के लिए, मैं अक्सर अपने पत्रकार मित्रों, संपादकों, लेखकों, शिक्षकों आदि से मदद मांगता हूं और किताबों का भी इस्तेमाल करता हूं.

साईनाथ की कहानी ' तोहफ़ा देने वाले ठेकेदारों से सावधान ' का अनुवाद करते समय, कई ऐसे छत्तीसगढ़ी शब्द मेरे सामने आए जिनका इस्तेमाल आम बोलचाल में नहीं होता है. छत्तीसगढ़ का सरगुजा इलाक़ा झारखंड की सीमा से सटा हुआ है और वहां उरांव आदिवासी बहुसंख्यक हैं. तो वो जिस छत्तीसगढ़ी भाषा का इस्तेमाल करते हैं उसमें जंगलों से जुड़े शब्द बहुत आम हैं. चूंकि, कहानी उसी समुदाय की एक महिला पर आधारित थी, तो मैंने ख़ुद को आदिवासी संस्कृति से जोड़ने की कोशिश की और उन शब्दों का इस्तेमाल किया जिनका इस्तेमाल वे रोज़मर्रा के जीवन में करते हैं. हालांकि, समुदाय के लोग कुरुख भाषा में बात करते हैं.

मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि कैसे सुकुर्दुम, कौव्वा, हांका, हांके, लांदा, फांदा, खेदा, अलकरहा जैसे शब्द, जो कभी रोज़मर्रा के जीवन में शामिल थे, अब इस्तेमाल में नहीं हैं, क्योंकि जल, जंगल और ज़मीन अब समुदायों की पहुंच से दूर हैं.

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‘हमारी पारिस्थितिकी, आजीविकाएं और हमारा लोकतंत्र काफ़ी हद तक हमारी भाषाओं के भविष्य पर निर्भर है. भाषाएं जो विविधता प्रदान करती हैं, आज उसका महत्व और ज़्यादा बढ़ गया है’ – पी. साईनाथ

पंकज: अनुवादकों के लिए उन लोगों की दुनिया को जानना बहुत ज़रूरी है जिनकी कहानियों का वे अनुवाद करते हैं. आरुष की कहानी का अनुवाद करते हुए मुझे न सिर्फ़ एक ट्रांसजेंडर पुरुष और एक महिला के बीच के गहरी प्रेम कहानी का पता चला, बल्कि उनके जीवन के संघर्षों के बारे में भी जानने का मौक़ा मिला. मैंने इस कहानी के अनुवाद के दौरान शब्दावली का सावधानीपूर्वक इस्तेमाल सीखा. उदाहरण के लिए, जेंडर अफ़र्मेशन सर्जरी को आगे लिखकर ब्रैकेट में ‘रिअसाइनमेंट सर्जरी’ लिखना.

मुझे ऐसे भी शब्द मिले जो अपमानजनक नहीं थे और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे. जैसे, रूपंतरकामी पुरुष या नारी और यदि जेंडर की पुष्टि ज्ञात है, तो हम इसे रूपांतरित पुरुष या नारी कहते हैं. यह सुनने और पढ़ने में कितना अच्छा लगता है. इसी तरह, हमारे पास लेस्बियन या गे के लिए भी एक शब्द है - समकामी. लेकिन आज तक हमें क्वियर लोगों के लिए कोई ऐसा शब्द नहीं मिला है जो उनकी गरिमा को बरक़रार रखता हो, इसलिए हम उस शब्द का बस लिप्यंतरण कर देते हैं.

राजासंगीतन: पंकज, मुझे एक कहानी याद आ रही है जो कोविड-19 महामारी के दौर में जूझती यौनकर्मियों के बारे में थी. इस कहानी ने मुझे बहुत प्रभावित किया. पूरी दुनिया ग़रीबी और अभाव में बसर करते लोगों को भुलाकर इस नई बीमारी से लड़ने की कोशिश कर रही थी. उस समय जब विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए जीवन जीना मुश्किल था, तो हाशिए के समुदायों पर किसका ध्यान था? आकांक्षा की कमाठीपुरा की कहानी ने हमें उन लोगों की समस्याओं और पीड़ा को महसूस करने को विवश किया जिनके बारे में हमने कभी जानने की दिलचस्पी नहीं दिखाई.

सेक्स वर्कर्स छोटे व दमघोंटू कमरों में रहती थीं, और वहीं पर उनके ग्राहक आते-जाते रहते थे. और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की वजह से स्कूल-कॉलेज बंद हो जाने के कारण, उनके बच्चे भी उसी कमरे में रहने को मजबूर थे. ज़रा सोचकर देखिए कि ऐसे माहौल में उन बच्चों की मन:स्थिति पर क्या असर पड़ा होगा? सेक्सवर्कर और एक मां प्रिया अपने जज़्बात को क़ाबू में रखने और पेट पालने की लड़ाई में पिस रही थीं. ऐसे में, उनका बेटा विक्रम निराशाओं और मुश्किलों से घिरी अपनी ज़िदगी का अर्थ तलाश पाने के लिए संघर्ष कर रहा था.

इस कहानी में परिवार, प्यार, आशा, ख़ुशी और बच्चों के पालन-पोषण से जुड़ी जो तस्वीर सामने आई वह झकझोर देने वाली थी. लेकिन इसके बावजूद उनके सामाजिक अर्थों में कोई बदलाव नहीं आया. ऐसी कहानियों के अनुवाद के समय मैं इंसानों के विपरीत परिस्थितियों में भी हौसला बनाए रखने के जज़्बे को देखकर हैरान हो जाता हूं.

सुधामयी: मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूं. मुझे एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के बारे में कुछ पता नहीं था, जब तक मैंने उनसे जुड़ी कहानियों का अनुवाद नहीं शुरू किया. और अगर सच बताऊं, तो मैं इन समुदायों के लोगों और इस विषय से डरती थी. जब ट्रांस समुदाय के लोग सड़कों पर, सिग्नल पर दिखाई देते थे या कभी मेरे घर आ जाते थे, मैं उन लोगों की तरफ़ देखने में भी डरती थी. मुझे उनसे डर लगता था. मुझे लगता था कि उनका व्यवहार प्राकृतिक नहीं हैं.

जब ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़ी कहानियों के अनुवाद की बात आई, तो मुझे इस विषय को जानने-समझने वाले लोगों को ढूंढना पड़ा, जो सही शब्दालियों से भी परिचित थे. उन कहानियों को पढ़ने, समझने और बाद में संपादित करने की प्रक्रिया में मुझमें समझ पैदा हुई और मेरा डर ख़त्म हुआ. अब जब भी मैं उन्हें देखती हूं, तो थोड़ी देर रुककर मैं उन लोगों से दो-चार बातें कर लिया करती हूं.

मैं तो यही कहूंगी कि अनुवाद अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाकर आगे बढ़ने का भी एक बेहतरीन ज़रिया है.

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प्रणति: मैंने भी बहुत सी अलग संस्कृतियों से जुड़ी कहानियों के अनुवाद के समय ऐसा ही महसूस किया. अनुवादक के पास कहानियों को सावधानी से पढ़ने व अनुवाद करने के दौरान विविध संस्कृतियों-परंपराओं को जानने और सीखने का मौक़ा होता है. अनुवाद से पहले मूल भाषा में लिखी कहानी की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी होता है.

भारत की तरह जो भी देश अंग्रेज़ों के ग़ुलाम रहे, वहां अंग्रेज़ी संपर्क भाषा बन गई. बहुत बार ऐसा होता है कि हमें मूल भाषा की जानकारी नहीं होती, और हमें अपने काम के लिए अंग्रेज़ी पर निर्भर रहना पड़ता है. लेकिन अगर कोई सचेत अनुवादक मेहनत के साथ काम करे, और अलग-अलग रीति-रिवाज़ों, इतिहास और भाषाओं से जुड़ी जानकारी हासिल करे, तो वह एक अच्छा अनुवादक बन सकता है.

राजीव: मैं बहुत धीरज रखता हूं, लेकिन कभी अगर अनुवाद के समय अपनी भाषा में मुझे सही शब्द नहीं मिलता है, तो मैं परेशान हो जाता हूं. ख़ासकर, किसी पेशे की जटिल प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताने वाली कहानियों में औज़ारों और मशीन के नाम का अर्थपूर्ण वर्णन करना चुनौती बन जाती है. उदाहरण के लिए, कश्मीर के बुनकरों पर आधारित उफ़क़ फ़ातिमा की लिखी कहानी को ही ले लीजिए. मुझे चारखाना और चश्मे-ए-बुलबुल जैसी बुनाई की प्रक्रिया के अनुवाद में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. मलयालम में इनके लिए कोई समानार्थी शब्द मौजूद नहीं हैं, और इसलिए मुझे विस्तृत वाक्यांश इस्तेमाल करने पड़े. पट्टू शब्द भी कितना मज़ेदार है. कश्मीर में यह बुना हुआ ऊनी कपड़ा है, वहीं मलयालम में पट्टू का अर्थ रेश्मी कपड़ा होता है.

क़मर: उर्दू में भी सही अल्फ़ाज़ की ख़ासी कमी महसूस है, ख़ासकर तब, जब पारी की जलवायु परिवर्तन और महिलाओं के प्रजनन से जुड़े अधिकारों पर आधारित किसी कहानी का अनुवाद करना होता है. हिंदी की बात अलग है. वह केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित भाषा रही है; इसे राज्य सरकारों का समर्थन भी हासिल है. उसके लिए कई संस्थान भी बने हुए हैं. इसलिए उसमें नए अल्फ़ाज़ तेज़ी से शामिल हो जाते हैं, जबकि उर्दू के साथ ऐसा नहीं है. उर्दू में अनुवाद करते समय हमें बहुत सी चीज़ों के लिए अंग्रेज़ी शब्द ही इस्तेमाल करने पड़ते हैं.

एक वक़्त था, जब उर्दू भी ज़रूरी हुआ करती थी. इतिहास बताता है कि दिल्ली कॉलेज, हैदराबाद के उस्मानिया विश्विद्यालय जैसे संस्थान, उर्दू टेक्स्ट के अनुवाद के लिए काफ़ी मशहूर थे. कोलकाता के फ़ोर्ट विलियम कॉलेज का मक़सद ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय भाषाओं की तालीम देना था, अनुवाद करना-करवाना था. लेकिन आज ये सारे संस्थान लगभग ख़त्म हो चुके हैं. हमने उर्दू और हिंदी के बीच की लड़ाई भी देखी है, जो 1947 के बाद भी जारी रही. और अब तो स्थिति ऐसी है कि उर्दू की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है.

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कमलजीत: क्या आपको लगता है कि देश के बंटवारे ने भाषा को भी बांट दिया? मेरे ख़याल से भाषा लोगों को नहीं बांटती, लोग बांटते हैं.

क़मर: एक ज़माने में उर्दू पूरे देश की शान हुआ करती थी. यह दक्षिण में भी बोली जाती थी. वहां के लोग इसे दक्खिनी उर्दू कहते थे. इस भाषा में लिखने वाले ऐसे कवि भी थे जिनकी रचनाएं उर्दू पाठ्यक्रमों का हिस्सा थीं. लेकिन जैसे ही मुस्लिम शासन का अंत हुआ, सबकुछ बदलने लगा. और आज के भारत में उर्दू केवल उत्तर प्रदेश, बिहार सहित केवल हिंदी भाषी राज्यों तक सिमटकर रह गई है.

पहले स्कूलों में उर्दू पढ़ाई जाती थी. और इस बात का हिन्दू या मुस्लिम होने से कोई लेना-देना नहीं था. मैं कई ऐसे वरिष्ठों (हिंदू धर्म के) को जानता हूं जो मीडिया में काम करते हैं और मुझे बताते हैं कि उन्हें उर्दू अच्छे से आती है. उसे उन्होंने बचपन में अपने स्कूलों में सीखा था. लेकिन अब कहीं भी उर्दू नहीं पढ़ाया जाता है. कोई भी भाषा आख़िर कितने दिनों तक ज़िंदा रह सकती है अगर उसे पढ़ाया नहीं जाएगा?

पहले तो उर्दू जानने वालों को नौकरी मिल जाया करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. कुछ बरस पहले तक कुछ उर्दू अख़बार बचे हुए थे, और ऐसे लोग भी थे जो उर्दू मीडिया के लिए लिखते थे. लेकिन 2014 के बाद से अख़बार भी बंद हो गए हैं, क्योंकि उन्हें फंड मिलने बंद हो गए. उर्दू में बोलने वाले लोग तो मिल जाते हैं, लेकिन उर्दू पढ़ने और लिखने वालों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है.

देवेश: भाषा और राजनीति की यह बड़ी त्रासद कहानी है, क़मर दा. ये बताइए कि पारी के लिए आप जिन कहानियों का उर्दू में अनुवाद करते हैं फिर उन्हें कौन पढ़ता है? और आपके लिए इस काम के क्या मायने हैं?

क़मर: पारी का हिस्सा बनने के बाद, जब पहली बार इसकी सालाना बैठक में हिस्सा लिया था, मैंने तब भी यह बताया था. मुझे महसूस होता कि पारी में मौजूद लोग मेरी भाषा को बचाने में दिलचस्पी रखते हैं. और यही वजह है कि मैं आज भी पारी के साथ जुड़ा हुआ हूं. बात सिर्फ़ उर्दू की नहीं है, बल्कि पारी उन सभी भाषाओं को बचाने के लिए प्रयासरत है जो लुप्त होने की कगार पर हैं या ख़तरे का सामना कर रही हैं.

यह कहानी पारीभाषा टीम के सामूहिक प्रयास से संभव हो सकी है. इस टीम का हिस्सा हैं: देवेश (हिंदी), जोशुआ बोधिनेत्र (बांग्ला), कमलजीत कौर (पंजाब), मेधा काले (मराठी), मोहम्मद क़मर तबरेज़ (उर्दू), निर्मल कुमार साहू (छत्तीसगढ़), पंकज दास (असमिया), प्रणति (ओड़िया), प्रतिष्ठा पांड्या (गुजराती), राजासंगीतन (तमिल), राजीव चेलानाट (मलयालम), स्मिता खटोर (बांग्ला), स्वर्णकांता (भोजपुरी), शंकर एन.केंचनुरु (कन्नड़) और सुधामयी सत्तेनपल्ली (तेलुगु). इसका संपादन प्रतिष्ठा पांड्या ने किया है, जिसमें स्मिता खटोर, मेधा काले और जोशुआ बोधिनेत्र ने संपादकीय सहयोग किया. बिनाइफ़र भरूचा ने तस्वीरों की एडिटिंग की है.

अनुवाद: देवेश

PARIBhasha Team

پاری بھاشا، ہندوستانی زبانوں میں ترجمے کا ہمارا ایک منفرد پروگرام ہے جو رپورٹنگ کے ساتھ ساتھ پاری کی اسٹوریز کو ہندوستان کی کئی زبانوں میں ترجمہ کرنے میں مدد کرتا ہے۔ پاری کی ہر ایک اسٹوری کے سفر میں ترجمہ ایک اہم رول ادا کرتا ہے۔ ایڈیٹروں، ترجمہ نگاروں اور رضاکاروں کی ہماری ٹیم ملک کے متنوع لسانی اور ثقافتی منظرنامہ کی ترجمانی کرتی ہے اور اس بات کو بھی یقینی بناتی ہے کہ یہ اسٹوریز جہاں سے آئی ہیں اور جن لوگوں سے ان کا تعلق ہے اُنہیں واپس پہنچا دی جائیں۔

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Illustrations : Labani Jangi

لابنی جنگی مغربی بنگال کے ندیا ضلع سے ہیں اور سال ۲۰۲۰ سے پاری کی فیلو ہیں۔ وہ ایک ماہر پینٹر بھی ہیں، اور انہوں نے اس کی کوئی باقاعدہ تربیت نہیں حاصل کی ہے۔ وہ ’سنٹر فار اسٹڈیز اِن سوشل سائنسز‘، کولکاتا سے مزدوروں کی ہجرت کے ایشو پر پی ایچ ڈی لکھ رہی ہیں۔

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Translator : Devesh

دیویش ایک شاعر صحافی، فلم ساز اور ترجمہ نگار ہیں۔ وہ پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا کے لیے ہندی کے ٹرانسلیشنز ایڈیٹر کے طور پر کام کرتے ہیں۔

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