पशुशाला की मिट्टी और ईंट की बनी फ़र्श से मनजीत कौर भैंस का गोबर दोनों हाथों से उठाती हैं. अपने कूल्हों के सहारे पालथी मार कर बैठी हुईं 48 वर्षीया मनजीत अभी भी गीली फ़र्श से गोबर को खुरच-खुरच कर उठाती हैं और उन्हें एक बालटा (टब) में जमा करती हैं, जिन्हें अब उन्हें अपने सर पर उठाना है. अपने सर पर रखे वज़न को सावधानी और संतुलन के साथ उठाए हुए वह पशुशाले के लकड़ी के बने फाटक से बाहर निकल जाती हैं, ताकि उसे 50 मीटर दूर गोबर की ढेर में जमा किया जा सके. गोबर के टीले की ऊंचाई अब उनकी छाती के बराबर पहुंच चुकी है और उनके महीनों की मेहनत का सबूत है.

यह अप्रैल की एक चुभने वाली गर्म दोपहर है. मनजीत इस छोटे से फेरे को 8 बार तय करती हैं, और आख़िर में टब को पानी की मदद से अपने नंगे हाथों से धोती हैं. आज का काम निबटाने से पहले वह एक भैंस को दुहकर स्टील के एक छोटे से डिब्बे में आधा लीटर दूध भर लेती हैं. यह दूध उनके नन्हें से पोते के पीने के लिए हैं.

यह छठा घर है, जिसमें वह सुबह 7 बजे से अपना काम निबटा रही हैं. सब के सब घर जाट सिखों के हैं, जो पंजाब के तरन तारन ज़िले के हवेलियां गांव के दबंग ज़मींदार बिरादरी के हैं.

वह कहती हैं, “मजबूरी है.” यह उनकी बेबसी ही है जिसकी वजह से वह अपना पेट पालने के लिए मवेशियों के खटालों की सफ़ाई करने के लिए मजबूर हैं. वह तो ठीक-ठीक यह भी नहीं जानती हैं कि एक दिन में वह अपने माथे पर जितना गोबर ढोती हैं उसका वास्तविक वज़न कितना होता हैं, लेकिन वह कहती हैं, “बड्डा सिर दुखदा है, भार चुकदे चुकदे (मेरा सर इतना ज़्यादा वज़न उठाने के कारण बहुत ज़्यादा दुखता है).”

उनके घर लौटने के रास्ते में पीले-सुनहरे गेहूं के खेत पड़ते हैं, जो दूर क्षितिज तक फैले हैं. बैसाखी के ठीक बाद उनकी कटाई शुरू हो जाएगी. बैसाखी अप्रैल महीने में ही मनाई जाती है और पंजाब में यह फ़सलों की कटाई की शुरुआत का त्यौहार है. हवेलियां के जाट सिखों की ज़्यादातर खेतिहर भूमि गंडीविंड ब्लॉक में हैं, जिनमें मुख्य रूप से चावल और गेहूं की पैदावार होती है.

Manjit Kaur cleaning the dung of seven buffaloes that belong to a Jat Sikh family in Havelian village
PHOTO • Sanskriti Talwar

मनजीत कौर हवेलियां गांव के एक जाट सिख परिवार की सात भैंसों के गोबर साफ़ करती हुईं

After filling the baalta (tub), Manjit hoists it on her head and carries it out of the property
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बालटा (टब) में गोबर भर जाने के बाद मनजीत उसे अपने माथे पर उठाती हैं और ढोकर अहाते से बाहर गोबर की ढेर में जमा कर देती हैं

बहरहाल, मनजीत ने दिन में चाय के साथ एक ठंडी चपाती खाई है और एक घंटे आराम किया है. अब उन्हें प्यास लगी हुई है. मनजीत उस कथित ऊंची जाति के किसान के बारे में कह रहीं हैं जिसने मनजीत को काम पर रखा हुआ है, “इस गर्मी में भी वह हमें पानी तक नहीं पिलाते हैं.”

मनजीत मज़हबी सिख नाम के एक दलित समुदाय से आती हैं. वह और उनके परिवार के लोगों ने क़रीब दो दशक पहले ईसाइयत का अनुसरण करना शुरू कर दिया था. हिंदुस्तान टाइम्स की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, हवेलियां की दो-तिहाई आबादी अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के लोगों की है जो दिहाड़ी या खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करते हैं. शेष लोग जाट सिख हैं. रिपोर्ट के अनुसार, जाट सिखों के लगभग 150 खेत सीमावर्ती तार के बाड़ों के बीचोंबीच हैं, जहां से पाकिस्तान की सरहद सिर्फ़ 200 मीटर की दूरी पर है.

हवेलियां की दलित औरतें या तो गोबर इकट्ठे करती हैं और पशुशालाओं की सफ़ाई करती हैं या जाट सिखों के घरों में घरेलू काम करती हैं.

मनजीत कहती हैं, “गरीबां दा सरकार नही सोचदी तां ही ते गुहा चुकदे हां असीं [सरकार ग़रीब लोगों के बारे में नहीं सोचती है, तभी तो हम मवेशियों का गोबर इकट्ठे करते हैं और सफ़ाई करते हैं].”

आपको मज़दूरी के रूप में क्या मिलता है?

मनजीत के अनुसार, “एक गाय या भैंस के बदले हमें हर छह महीने पर एक मन [या मौंड; लगभग 37 किलो के बराबर] गेहूं या चावल मिलता है. यह फ़सल के सीज़न पर निर्भर है.”

मनजीत सात घरों में काम करती हैं, जिनमें कुल मिलाकर 50 डंगर [मवेशी] हैं. “एक घर में 15 हैं, दूसरे में सात हैं. जो तीसरा घर है उनमें पांच भैंसें हैं; चौथे घर में छह हैं ...” मनजीत बजाप्ता गिनती शुरू कर देती हैं.

वह बताती हैं कि सबके सब गेहूं और चावल का सही-सही हिस्सा देते हैं. सिर्फ़ एक घर है जो 15 डांगरों के एवज़ में “सिर्फ़ 10 मन [370 किलो] अनाज देता है. मैं सोच रहीं हूं कि उनका काम छोड़ दूं.”

It takes 30 minutes, and eight short but tiring trips, to dump the collected dung outside the house
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जमा किए गोबर को घर के बाहर इकट्ठा करने में आधे घंटे का वक़्त लग जाता है और इसके लिए उन्हें आठ चक्कर लगाने पड़ते हैं

The heap is as high as Manjit’s chest. ‘My head aches a lot from carrying all the weight on my head’
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गोबर का ढेर अब मनजीत के सीने के बराबर हो चुका है. ‘इतना ज़्यादा वज़न उठाने के कारण मेरे सर में भयानक दर्द रहता है’

जिस घर में सात भैंसें हैं, मनजीत ने अपने नवजात पोते के लिए कपड़े ख़रीदने और घर के दूसरे ख़र्चों के लिए वहां से 4,000 रुपए का क़र्ज़ लिया है. मई में उस घर में अपने काम के छह महीने पूरे होने पर जब उन्हें उनके हिस्से का गेहूं मिला, तब बाज़ार मूल्य के अनुसार गेहूं की दर तय करके उनके हिस्से से उतना गेहूं काट लिया गया.

सात मवेशियों के हिसाब से उनकी मज़दूरी सात मन या क़रीब 260 किलो होती है.

भारतीय खाद्य निगम के अनुसार इस वर्ष एक क्विंटल (100 किलो) गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,015 रुपए है. इस हिसाब से मनजीत के 260 किलो गेहूं की क़ीमत 5,240 रुपए होती है. अपना क़र्ज़ चुकाने के बाद उनके पास गेहूं के मूल्य के रूप में केवल 1,240 रुपए ही बचेंगे.

उन्हें ब्याज भी नक़द के रूप में ही चुकाना है. वह कहती हैं, “क़र्ज़ के पैसे के एवज़ में वे प्रति 100 रुपए पर 5 रुपए का ब्याज वसूलते हैं.” वार्षिक ब्याज की दर से यह क़र्ज़ में ली गई रक़म का 60 प्रतिशत होता है.

मध्य अप्रैल तक उन्हें ब्याज के रूप में 700 रुपए चुकाने पड़े थे.

मनजीत अपने सात लोगों के परिवार के साथ रहती हैं - 50 की उम्र पार कर चुके उनके पति एक खेतिहर मज़दूर हैं, उनका 24 वर्षीय बेटा भी एक खेतिहर मज़दूर ही है. उनकी पुत्रवधू, दो पोते-पोतियां और 22 और 17 साल की दो अविवाहित बेटियां परिवार के बाक़ी सदस्य हैं. दोनों बेटियां जाट सिखों के घर में घरेलू काम करती हैं, और दोनों प्रति महीने पांच-पांच सौ रुपए कमाती हैं.

मनजीत ने अपने एक दूसरे मालिक से 2,500 रुपए अलग से लिए हैं. यह रक़म उन्हें बिना ब्याज के मिली है. वह बताती हैं कि घर के राशन की ख़रीदारी, दवा-दारू के ख़र्च, रिश्तेदारियों में शादियां और दूसरे अवसरों पर होने वाले छोटे-मोटे ख़र्चों के लिए, कथित ऊंची जाति के घरों से छोटे-मोटे क़र्ज़ लेना ज़रूरी हो जाता है. उन्हें मवेशियों की ख़रीदारी और अन्य ख़र्चों के लिए औरतों की सहायता करने वाले लघु बचत समूहों की मासिक क़िस्तें चुकाने के लिए भी पैसों की ज़रूरत पड़ती है.

Manjit Kaur at home with her grandson (left); and the small container (right) in which she brings him milk. Manjit had borrowed Rs. 4,000 from an employer to buy clothes for her newborn grandson and for household expenses. She's been paying it back with the grain owed to her, and the interest in cash
PHOTO • Sanskriti Talwar
Manjit Kaur at home with her grandson (left); and the small container (right) in which she brings him milk. Manjit had borrowed Rs. 4,000 from an employer to buy clothes for her newborn grandson and for household expenses. She's been paying it back with the grain owed to her, and the interest in cash
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मनजीत कौर अपने घर में अपने पोते के साथ (बाएं); और वह छोटा सा डिब्बा (दाएं) जिसमें वह दूध लाती हैं. मनजीत ने अपने नवजात पोते के लिए कपड़े ख़रीदने और कुछ दूसरे ज़रूरी घरेलू ख़र्चों के लिए अपने एक मालिक से 4,000 रुपए उधार लिए थे. अब वह उस क़र्ज़ को मज़दूरी में मिलने वाले अनाज में कटौती करवाकर चुका रही हैं, और ब्याज की राशि का नक़द भुगतान कर रही हैं

मार्च 2020 को जारी किए गए एक अध्ययन ‘दलित वीमेन लेबरर्स इन रूरल पंजाब: इनसाइट फैक्ट्स’ में पटियाला की पंजाबी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के (पूर्व) प्रोफेसर डॉ. गियान सिंह कहते हैं कि उनकी टीम द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि ग्रामीण पंजाब में 96.3 प्रतिशत दलित महिला श्रमिकों के परिवार औसतन 54,300 रुपयों के क़र्ज़ के बोझ से दबे हुए थे. और, क़र्ज़ की राशि का लगभग 80.40 प्रतिशत हिस्सा गैर-संस्थानिक संसाधनों से आया था.

हवेलियां की एक अन्य दलित औरत सुखबीर कौर (49) बताती हैं कि पुराने मालिक वेयाज (ब्याज) नहीं लगाते हैं, केवल नए मालिक ही ब्याज वसूलते हैं.

सुखबीर, मनजीत की पारिवारिक रिश्तेदार हैं और बगल में ही अपने दो कमरों के घर में रहती हैं. वह अपने पति और बीस साल से अधिक उम्र के दो युवा पुत्रों के साथ रहती हैं. तीनों दिहाड़ी या खेतिहर मज़दूरी का ही काम करते हैं. काम मिल जाने पर उनका रोज़ का मेहनताना 300 रुपया होता है. सुखबीर भी पिछले पन्द्रह सालों से जाट सिखों के घरों में गोबर इकट्ठा करने और पशुशालाओं की सफ़ाई करने का काम करती हैं.

वह ऐसे दो घरों में काम करती हैं, जिनमें कुल मिलाकर 10 मवेशी हैं. तीसरे घर में वह 500 रुपए प्रतिमाह पर घरेलू कामकाज करती हैं. वह सुबह नौ बजे से पहले अपने काम पर निकल जाती हैं, लेकिन उनके घर वापस लौटने का कोई पक्का समय नहीं होता है. सुखबीर कहती हैं, “कभी-कभी मैं दोपहर में 3 बजे तक ही लौट जाती हूं, और कई बार मुझे लौटने में शाम के छह भी बज जाते हैं. घर लौटने के बाद मुझे खाना पकाने के अलावा, घर के दूसरे काम भी निबटाने होते हैं. जब मैं सोने के लिए बिस्तर पर पहुंचती हूं, तो रात के 10 बज चुके होते है.”

सुखबीर बताती हैं कि मनजीत की हालत थोड़ी बेहतर है, क्योंकि उनकी पुत्रवधू घर के अधिकतर काम ख़ुद ही कर लेती है.

मनजीत की तरह सुखबीर भी अपने मालिकों से लिए क़र्ज़ में दबी हुई हैं. लगभग पांच साल पहले, अपनी बेटी की शादी के लिए उन्होंने अपने एक मालिक से 40,000 रुपए उधार लिए थे. अपने क़र्ज़ की क़िस्त के रूप में हर छह महीने पर अपनी मज़दूरी में मिलने वाले छह मन (लगभग 220 किलो) गेहूं या चावल का एक बड़ा हिस्सा चुकाने के बाद भी उनका क़र्ज़ अभी चुकाया नहीं जा सका है.

Sukhbir Kaur completing her household chores before leaving for work. ‘I have to prepare food, clean the house, and wash the clothes and utensils’
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Sukhbir Kaur completing her household chores before leaving for work. ‘I have to prepare food, clean the house, and wash the clothes and utensils’
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सुखबीर कौर काम पर निकलने से पहले अपने घरेलू कामों को निबटा रही हैं. ‘मुझे खाना पकाना होता है, साफ़-सफ़ाई करनी होती है और कपड़े-बर्तन धोने होते हैं’

क़र्ज़ की बकाया रक़म का हिसाब-किताब हर छह महीनों पर किया जाता है, लेकिन पारिवारिक समारोहों और अन्य घरेलू ख़र्चों के कारण उन पर दूसरे क़र्ज़े भी हैं. सुखबीर कहती हैं, “ते चलदा ही रेहंदा है [यह सब चलता ही रहता है]. इन्हीं वजहों से हम क़र्ज़ के जाल से बाहर नहीं निकल पाते.”

कई बार उन्हें उस परिवार के लिए कुछ अतिरिक्त काम भी करना पड़ता है जिससे उन्होंने क़र्ज़े लिए हुए हैं. सुखबीर कहती हैं, “चूंकि हमने उनसे उधार लिया हुआ होता है, इसलिए हम उनके किसी हुक्म को टाल नहीं पाते हैं. अगर हम कभी एक दिन के लिए भी काम पर नहीं जा पाएं, तो हमें उनकी खरी-खोटी सुननी पड़ती है. वे हमें अपने पैसे चुकाने के लिए कहते हैं, और काम से निकाल देने की धमकी भी देते हैं.”

गगनदीप, जो एक क़ानूनविद और सक्रिय सामाजिक आन्दोलनकर्ता होने के साथ-साथ 1985 से पंजाब में बंधुआ मज़दूरी और जाति-विभेद को ख़त्म करने के लिए संघर्षरत संगठन दलित दासता विरोधी आन्दोलन की अध्यक्षा भी हैं, कहती हैं कि इन कामों में लगी हुई अधिकतर दलित औरतें अशिक्षित या कम पढ़ी-लिखी हैं. “वे अपने क़र्ज़ों का हिसाब-किताब नहीं रख पाती हैं, लिहाज़ा ब्याज और क़र्ज़ के रूप में उनके हिस्सों के अनाज में जो कटौतियां की जाती हैं, उन्हें उस वसूली के ग़लत-सही होने का भी पता नहीं होता. क़र्ज़ के जाल में उनके फंसे रहने का एक कारण यह भी है.”

गगनदीप जो केवल अपने पहले नाम के उपयोग को प्रमुखता देती हैं, के अनुसार, पंजाब के मालवा (दक्षिणी पंजाब) और माझा (पंजाब का सीमावर्ती इलाक़ा, जहां तरन तारन स्थित है) के इन इलाक़ों में दलित औरतों का शोषण एक सामान्य घटना है. “दोआबा क्षेत्र [व्यास और सतलज नदी के बीच का पंजाब का भूक्षेत्र] में हालात थोड़े बेहतर हैं, क्योंकि वहां के बहुत से लोग विदेशों में बसे हुए हैं.”

पंजाबी यूनिवर्सिटी की टीम ने अपने अध्ययन में पाया कि सर्वे में शामिल की गईं दलित महिला कामगारों में किसी को न्यूनतम म दूरी अधिनियम, 1948 के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

दुर्भाग्य से मवेशियों का गोबर चुनने का काम करने वाली इन औरतों को मज़दूरों का दर्ज़ा भी हासिल नही है, और जैसा कि गगनदीप बताती हैं, उन्हें न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के अंतर्गत सूचीबद्ध भी नहीं किया गया है. सरकार ने घरेलू काम करने वाली औरतों को इस सूची में शामिल किया है, जबकि घरों के बाहर बनी पशुशालाओं की साफ़-सफ़ाई करने वाली औरतों को इनसे बाहर रखा है. गगनदीप कहती हैं, “इन औरतों को भी प्रति घंटे श्रम के आधार पर न्यूनतम मज़दूरी के भुगतान का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि ये प्रतिदिन एक से अधिक घरों में साफ़-सफ़ाई और गोबर चुनने का काम करती हैं.”

Left: The village of Havelian in Tarn Taran district is located close the India-Pakistan border.
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Right: Wheat fields in the village before being harvested in April
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बाएं: भारत-पाकिस्तान की सीमा के पास स्थित तरन तारन ज़िले का हवेलियां गांव. दाएं: अप्रैल में कटाई से पहले गांव में लहलहाते गेहूं के खेत

सुखबीर कभी भी अपनी बेटी के ससुराल वालों से अपनी तक़लीफ़ें साझा नहीं कर सकती हैं. वह बताती हैं, “उन्हें पता चलेगा, तो वे हमसे नफ़रत करने लगेंगे. वे समझेंगे कि उन्होंने अपने बेटे की शादी एक ग़रीब परिवार में कर दी.” उनका दामाद राजमिस्त्री का काम करता है, लेकिन उसके घर वाले पढ़े-लिखे लोग हैं. सुखबीर ने उन्हें बस इतना ही बताया है कि वह कभी-कभार खेतों में मज़दूरी का काम करती हैं.

मनजीत ने भी 17 की उम्र में ब्याह कर हवेलियां आने से पहले कभी काम नहीं किया था. लेकिन यहां आर्थिक मुश्किलों ने उन्हें काम करने के लिए मजबूर कर दिया. उनकी बेटियां दूसरे के घरों में काम करती हैं, लेकिन वह इस बात को लेकर अड़ी हुई हैं कि पेट भरने के लिए गोबर चुनने जैसा काम वे हरगिज़ नहीं करेंगी.

मनजीत और सुखबीर दोनों ही यह कहती हैं कि उनके पति उनकी आमदनी को दारू में उड़ा देते हैं. सुखबीर एक खीझ और उदासी के साथ कहती हैं, “वे रोज़ की मज़दूरी, जोकि 300 रुपए है, से 200 रुपए शराब ख़रीदने के लिए निकाल लेते हैं. बाक़ी बचे पैसों से हमारा गुज़ारा मुश्किल हो जाता है.” जब उनके पास पीने के लिए पैसे नहीं होते, तो वे घर की औरतों के छुपाए हुए पैसे भी छीन लेते हैं. सुखबीर आगे बताती हैं, “अगर हम उन्हें मना करते हैं, तो वे हमारे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं, हमें पीटते हैं और हमारे ऊपर बर्तन फेंकने लगते हैं.”

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 (एनएफ़एचएस-5) के अनुसार, पंजाब में 18-49 आयुवर्ग की 11 प्रतिशत विवाहित औरतें अपने पति द्वारा किसी न किसी रूप में शारीरिक हिंसा की शिकार हो चुकी हैं. उनमें से 5 प्रतिशत औरतों की शिकायत थी कि उनके साथ धक्का-मुक्की की गई थी या किसी घरेलू सामान से उनपर प्रहार किया गया था; 10 प्रतिशत औरतों पर उनके पति ने थप्पड़ चलाए थे; 3 प्रतिशत औरतों की घूंसों अथवा मुक्कों से पिटाई की गई थी, और तक़रीबन उतनी ही औरतों को पैरों से पिटाई की गई थीं, उन्हें घसीटा गया था या लात-मुक्के मार कर ज़ख़्मी कर दिया गया था. घरेलू हिंसा की शिकार इन औरतों में 38 प्रतिशत वे औरतें थीं जिनके पति शराबखोरी के आदी थे.

दलित मज़हबी सिख समुदाय की ही 35 वर्षीया सुखविंदर कौर अपने 15 साल के बेटे, 12 साल की बेटी और अपने 60 के आसपास की उम्र के ससुर के साथ पड़ोस में ही रहती हैं. वह कहती हैं कि जब वह कम उम्र की थीं, तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें गोबर चुनने जैसा काम करना पड़ेगा. जब उनके घर बेटे ने जन्म लिया, तब उनकी सास (जिनका देहांत पांच साल पहले हो चुका है) ने उनसे कहा कि घर के ख़र्चे में हाथ बटाने के लिए उन्हें बाहर जाकर काम करना ही होगा, जबकि उनके पति एक खेतिहर मज़दूर के रूप में काम कर रहे थे.

She started collecting dung and cleaning cattle sheds to manage the family expenses on her own
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Sukhvinder Kaur outside her house (left) in Havelian village, and the inside of her home (right). She started collecting dung and cleaning cattle sheds to manage the family expenses on her own
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हवेलियां गांव के अपने घर के बाहर खड़ीं सुखविंदर कौर (बाएं). घर का अंदरूनी हिस्सा (दाएं). उन्होंने पशुशालाओं की सफ़ाई और गोबर चुनने का काम परिवार के ख़र्चों में हाथ बटाने के लिए शुरू किया था

पांच साल शादीशुदा ज़िंदगी गुज़ारने के बाद उन्होंने गोबर चुनने और पशुशालाओं की सफ़ाई के अलावा, कथित ऊंची जाति के घरों में फ़र्श में पोंछे लगाने का काम शुरू कर दिया. आज वह पांच घरों में काम करती हैं - दो घरों में 500 रुपए मासिक पर घरेलू सहायिका के तौर पर, और बाक़ी के तीन घरों में 31 मवेशियों के गोशाले की सफ़ाई और गोबर चुनने का काम करती हैं.

पहले उन्हें इस काम से नफ़रत थी. वह 10 किलो के गोबर भरे टब के वज़न के बारे में सोचती हुईं कहती हैं, “मेरे लिए यह एक असहनीय बोझ की तरह है. और उसकी तेज़ दुर्गन्ध! वह दुःख और घृणा के मिले-जुले लहज़े में कहती हैं, “ओ दिमाग़ दा किड्डा मर गया [मेरा दिमाग़ काम करना बंद कर देता है].”

अक्टूबर 2021 में खेतिहर मज़दूरी करने वाले उनके पति बीमार पड़ गए. बाद में जांच के बाद बताया गया कि उनकी किडनी ने काम करना बंद कर दिया था. घरवाले उन्हें एक निजी अस्पताल लेकर गए, लेकिन अगली सुबह ही उनकी मौत हो गई. सुखविंदर बताती हैं, “मेडिकल रिपोर्ट से हमें यह पता चला कि उनको एड्स था.”

उस समय उन्होंने अपने पति की जांच कराने के लिए अपने एक मालिक से 5,000 रुपए क़र्ज़ के तौर पर लिए थे. बाद में, उनकी अंत्येष्टि और श्राद्धकर्मों के लिए 10,000 और 5,000 रुपए के दो क़र्ज़ और लिए.

जो क़र्ज़ उन्होंने अपने पति की मौत के पहले लिया था, उसका मासिक ब्याज 10 रुपए प्रति सैकड़ा था, जो सालाना ब्याजदर के हिसाब से 120 रुपए होता है. बाद में उस परिवार के लोगों ने उनपर घर से गहने चुराने का आरोप भी लगाया. सुखविंदर बताती हैं, “इसलिए मैंने उनका काम छोड़ दिया और दूसरों से 15,000 रुपए का क़र्ज़ दोबारा लिया, ताकि ब्याज समेत पहला क़र्ज़ चुका सकूं. बाद में उनके गहने उनके ही घर में पाए गए.”

बहरहाल, उनपर 15,000 रुपयों का क़र्ज़ अभी भी बना हुआ है.

Helplessness and poverty pushes Mazhabi Sikh women like Manjit Kaur in Havelian to clean cattle sheds for low wages. Small loans from Jat Sikh houses are essential to manage household expenses, but the high interest rates trap them in a cycle of debt
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मनजीत कौर जैसी हवेलियां गांव की मज़हबी सिख औरतें अपनी ग़रीबी और आर्थिक विवशताओं के कारण मामूली मज़दूरी मिलने पर भी पशुशालाओं की सफ़ाई और गोबर चुनने जैसा काम करने को मजबूर हैं. जाट सिखों के घरों से छोटे-मोटे क़र्ज़े लेना उनकी आवश्यकता में शामिल है, ताकि वे अपनी गृहस्थी किसी तरह से चला सकें, लेकिन ब्याज की ऊंची दरें उन्हें क़र्ज़ के इस जाल से बाहर नहीं निकलने देतीं

मनजीत कौर जैसी हवेलियां गांव की मज़हबी सिख औरतें अपनी ग़रीबी और आर्थिक विवशताओं के कारण मामूली मज़दूरी मिलने पर भी पशुशालाओं की सफ़ाई और गोबर चुनने जैसा काम करने को मजबूर हैं. जाट सिखों के घरों से छोटे-मोटे क़र्ज़े लेना उनकी आवश्यकता में शामिल है, ताकि वे अपनी गृहस्थी किसी तरह से चला सकें, लेकिन ब्याज की ऊंची दरें उन्हें क़र्ज़ के इस जाल से बाहर नहीं निकलने देतीं

दलित दासता विरोधी आन्दोलन के तरन तारन के ज़िलाध्यक्ष रंजीत सिंह कहते हैं कि ऊंची ब्याज दर इस बात को सुनिश्चित कर देती है कि इन औरतों के क़र्ज़ कभी भी पूरी तरह चुकाए नहीं जा सकें. वह कहते हैं, “ब्याज की दर इतनी ऊंची होती है कि कोई भी औरत अपना क़र्ज़ पूरी तरह चुकाने में सक्षम नहीं हो पाती. नतीजतन, उन्हें बंधुआ मज़दूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है.” मिसाल के तौर पर, सुखविंदर अपने 10,000 के क़र्ज़ का ब्याज भरने के लिए 1,000 रुपए प्रति महीने चुकाने के लिए मजबूर हुईं.

पैंतालिस साल पहले भारत ने बंधुआ म दूर व्यवस्था (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 की घोषणा की थी. इस अधिनियम का किसी रूप में उल्लंघन करने की स्थिति में तीन साल तक के सश्रम कारावास और 2,000 रुपए के आर्थिक दंड का प्रावधान है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत यदि किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को एक बंधुआ श्रमिक के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह एक दंडनीय अपराध है.

रंजीत के अनुसार, ऐसे संगीन मामलों को निबटाने में ज़िला प्रशासन की भी कोई विशेष रूचि नहीं दिखती है.

अपनी मुश्किलों और मजबूरियों से हताश हो चुकीं सुखविंदर कहती हैं, “मेरे पति अगर आज के दिन जीवित होते, तो मेरे लिए अपनी गृहस्थी चलाना ज़्यादा आसान होता. हमारी ज़िंदगी सिर्फ़ क़र्ज़ लेने और उसे चुकाने में ही खप रही है.”

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Sanskriti Talwar

Sanskriti Talwar is an independent journalist based in New Delhi, and a PARI MMF Fellow for 2023.

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Editor : Kavitha Iyer

Kavitha Iyer has been a journalist for 20 years. She is the author of ‘Landscapes Of Loss: The Story Of An Indian Drought’ (HarperCollins, 2021).

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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