भानु अपनी झुग्गी बस्ती की तंग गलियों से होते हुए पहाड़ी के ऊपर मौजूद अपने कमरे की ओर बढ़ रहा है। उसके मुंह पर एक रूमाल बंधा हुआ है, और उसके हाथ में आधा किलो चावल और दाल का पॉलीथिन बैग है, जो उसे मदद के रूप में मिला है। दूसरी तरफ से कुछ लोगों को आते देख, भानु गली के किनारे के एक घर के पीछे छुप जाता है। पहाड़ी की तरफ़ से आने वाले ये लोग बोरियां और बंडल लेकर जा रहे हैं। भानु अपने कमरे की ओर दोबारा चलना शुरू करने से पहले उन परिचित चेहरों को कुछ देर तक देखता है।

वह एक तंग खुले नाले के ऊपर कूदता है। गली में 10x10 वर्ग फुट के कई कमरे बंद हैं। उन अस्थायी दरवाज़ों के पीछे अप्रिय चुप्पी छिपी है। कोई बात नहीं कर रहा है, लड़ नहीं रहा है, हंस नहीं रहा है, मोबाइल फ़ोन पर ज़ोर से चिल्ला नहीं रहा है, पूरी आवाज़ में टीवी नहीं देख रहा है। खाना पकाने की कोई तीखी सुगंध भी नहीं आ रही है। चूल्हे ठंडे पड़े हुए हैं।

भानु का कमरा पहाड़ी की चोटी पर है। घर पर, उसकी पत्नी सरिता गैस के चूल्हे के पास बैठी है और दरवाज़े को घूर रही है। उसके हाथ उसके पेट पर हैं, वह छह महीने की गर्भवती है। नौ वर्षीय राहुल खिलौने वाली अपनी छोटी कार को गोल-गोल घुमाकर सीमेंट के फर्श पर चला रहा है और अपनी मां से लगातार खाने के लिए कुछ मांग रहा है।

“अम्मा, मुझे भूख लगी है! मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया है। तुमने दूध और क्रीम वाला बिस्कुट भी नहीं दिया, अम्मा...”

सरिता आहें भरती है, शायद अनजाने में। “हां, मेरे बच्चे,” वहां से उठते हुए वह कहती है, “मुझे पता है। मैं तुम्हें कुछ देती हूं। तुम्हारे पिता आने ही वाले हैं। वह बहुत सारी चीज़ें लाएगा। तुम बाहर जाकर खेलते क्यों नहीं?”

“मेरे साथ खेलने वाला कोई नहीं है,” राहुल कहता है। “अम्मा, विक्की और बंटी कहां चले गए?”

“मुझे लगता है, पिछले साल की तरह अपने गांव चले गए। वे वापस आएंगे।”

“नहीं, अम्मा, स्कूल के साल के बीच में नहीं। मुझे नहीं लगता कि वे वापस आएंगे। हम इंजीनियर बनने वाले थे। हम तीनों स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद कारों को ठीक करने के लिए एक गैराज खोलने वाले थे। लेकिन वे अब स्कूल नहीं आने वाले!”

“तुम और तुम्हारी कार! तुम अपना गैराज खोलोगे, बड़ा सा। तुम एक बड़े आदमी हो!” सरिता, जो अब अपने पैरों पर खड़ी है, चूल्हे के पीछे की तीन अलमारियों से गुज़रती है। एक अलमारी पर कुछ ख़ाली बर्तन, एक कड़ाही, एक करछुल, चम्मच, चार प्लेटें, और कुछ कटोरे और छोटी प्लेटें, यही सारे सामान हैं जो उनकी रसोई के लिए रखे हैं। अन्य दो अलमारियों पर नमक, दाल, चावल, गेहूं का आटा, सूखा अनाज, मसाले, खाना पकाने के तेल के लिए प्लास्टिक के जार की एक छोटी पंक्ति है — सभी जार खाली हैं। वह राहुल को देने के लिए कुछ ढूंढने का नाटक करती है, एक-एक करके सभी जार खोलती है। उनमें से एक में क्रीम बिस्कुट का एक खाली रैपर है। अपनी मुट्ठी में रैपर को रगड़ते हुए, वह राहुल के पास जाती है और दरवाज़े पर भानु को खड़ा हुआ देखती है, जो अपने मुंह पर बंधे रूमाल को खोल रहा है और एक आह के साथ दहलीज़ पर बैठ जाता है। राहुल अपने पिता से थैला लेने के लिए उत्साह में दौड़ता है।

“आप घर आ गए?! राहुल, पापा को पानी दो, प्लीज़।”

भानु ठेकेदार के साथ अपनी बैठक को हज़ारवीं बार फिर से अपने दिमाग में दोहरा रहा है।

“पापा, पानी… पापा… ले लो। आपको कोई बिस्कुट नहीं मिला, क्या आपको मिला?” राहुल ने उसका कंधा हिलाया।

भानु, राहुल के हाथ से गिलास लेता है और चुपचाप पानी पीने लगता है।

“ठेकेदार ने कोई पैसा नहीं दिया और कहा कि एक और महीने तक काम शुरू नहीं होगा।” वह बात करते हुए सरिता को देखता है।

वह अपनी हथेली को फिर से अपने पेट के उभार पर घुमाती है। वह भीतर पल रहे बच्चे को आराम पहुंचाने या उससे आराम पाने की कोशिश कर रही है, यह कहना मुश्किल है।

“सरकार ने सब कुछ बंद कर दिया है,” भानु अपनी बात को जारी रखता है, “बीमारी जो है। काम दोबारा कब शुरू होगा इस बारे में केवल सरकार ही बता सकती है।”

“बिना पैसे के डेढ़ महीने से अधिक समय बीत चुका है। दाल और चावल, कुछ नहीं बचा… हम दूसरों की दया पर कब तक जीवित रहेंगे?”

“मुझे तुमको यहां नहीं लाना चाहिए था,” भानु अपनी आवाज़ में अपराध को छिपा नहीं सकता। “तुम्हारी स्थिति में...पर्याप्त भोजन की व्यवस्था करने में सक्षम नहीं होना। अगर कुछ और महीने ऐसा ही चलता रहा तो क्या होगा?”

वह गुस्से में अपने हाथों को ऐंठता है। भानु का परिवार डेढ़ महीने से दिन में सिर्फ़ एक ही बार भोजन कर रहा है — केवल दाल और चावल, वह भी अगर स्थानीय संगठन द्वारा वितरित किया गया तब। यह सब शुरू होने से पहले, उसका परिवार हरी सब्ज़ियां, दूध, और ख़रीदने में सक्षम होने की स्थिति में, कुछ फल, कुछ सेब, संतरे, अंगूर खाता था।

चित्रण: अंतरा रमन

लेकिन सरकार ने कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण जब देश भर में अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दी, तो उसके बाद सभी उद्योग बंद हो गए। आठ वर्षों में पहली बार, भानु ने इतने लंबे समय तक काम नहीं किया है। वह निर्माण स्थलों पर काम कर रहा था — आमतौर पर महीने में 25 दिन, और 400 रुपये दैनिक कमाता था। वह इतना कमा लेता था कि उससे परिवार का ख़र्च चला सके और थोड़ा पैसा उत्तर प्रदेश के अपने गांव में अपने बुज़ुर्ग माता-पिता को भेज सके।

पति-पत्नी जिस समय बातें कर रहे हैं, भानु के दोस्त, सूर्या और अभय, उनके दरवाज़े पर पहुंच जाते हैं। दोनों हर सुबह पास के श्रमिक नाके पर खड़े हो जाते, और आमतौर पर निर्माण स्थलों पर काम करने के लिए ले जाए जाते थे। ऐसा लॉकडाउन से पहले होता था। अब उनके पास कोई काम नहीं है। सूर्या चार केले लेकर आया है, जो वह भानु को देता है।

अभय सरिता से उन्हें खाने का आग्रह करता है। “क्या कर रही हो भाभी? पहले कुछ केले खाओ... कल से तुमने कुछ नहीं खाया है।”

सूर्या ने भानु से पूछा, “क्या ठेकेदार ने तुम्हारी मज़दूरी दी? उसने क्या कहा?”

“वह क्या कहेगा? वह इतने दिनों से मेरा फ़ोन भी नहीं उठा रहा था। मैं उसकी इमारत के बाहर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह एक घंटे के बाद कहीं बाहर से आया। मैंने देखा कि कागज़ में शराब की एक बोतल लिपटी हुई थी। वह इसे मुझसे छिपा रहा था। मैंने उसे पिछले महीने की मज़दूरी देने के लिए कहा, मैंने दो सप्ताह तक काम किया था। लेकिन उसने कहा कि उसके पास पैसे बिल्कुल भी नहीं हैं। 500 रुपये का यह नोट दिया और बोला कि ‘ख़ुद अपना प्रबंध करो’।”

सूर्या कहता है, “ओह, शराब? वाह! आवश्यक चीज़ें, भाई।”

सरिता मेहमानों को दो गिलास पानी देती है और पूछती है, “क्या आपको किसी वाहन के बारे में पता चला, भैया?”

“नहीं भाभी, कुछ पता नहीं चला,” अभय कहता है। “आप जहां भी जाएं, लोग सड़क पर बैठे हुए हैं। हम चार रेलवे स्टेशन और तीन बस स्टॉप पर गए। कहीं भी कोई ट्रेन या बस नहीं मिलती।”

“लेकिन हमने फॉर्म भरे थे, टेस्ट कराए थे। उसका क्या हुआ?”

“मोबाइल पर चेक किया था। यह दिखा रहा है कि रद्द हो गया। जब हम पूछने के लिए स्टेशन गए, तो पुलिस ने हमें मारके भगा दिया,” सूर्या कहता है।

“नीचे के कमरे से गीता भाभी और उनका परिवार कल किसी निजी कार से अपने गांव चले गए। मैंने सुना है कि उसने प्रति व्यक्ति के लगभग 3,000 — 4,000 रुपये लिए थे।” सरिता उन्हें बताती है।

“बैंक में लगभग 10,000 और अब हाथ में यह 500 है...”, भानु कहता है। “मैंने सुना है, लोग पैदल भी घर जा रहे हैं...”

सूर्या उत्तेजित होकर भानु के सामने बंद कमरे की दहलीज़ पर बैठ जाता है। “मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। मकान मालिक लगातार फ़ोन कर रहा है, दो महीने का किराया मांग रहा है, लेकिन भुगतान कैसे करूं?” अभय दीवार से टेक लगा लेता है। सरिता दरवाज़े पर भानु के पीछे खड़ी हो जाती है। अभय कहता है, “हर जगह का यही दृश्य है, सभी की कहानी एक जैसी है... हम सभी मज़दूर... मैंने लगभग दो महीने से घर पर एक भी पैसा नहीं भेजा है। बापू की दवा के लिए भी नहीं...” उसके पिता को फेफड़े की बीमारी है। उसकी मां की दो साल पहले मलेरिया से मृत्यु हो गई थी। उसकी छोटी बहन 10वीं कक्षा में है। वह थोड़ी देर के लिए उनके विचारों में खो जाता है और फिर छोटे लड़के से बात करना शुरू कर देता है। “अरे राहुल, क्या कर रहे हो?”

“मैं अपनी ऑडी चला रहा हूं, चाचा।”

सूर्या ने उपसाह करते हुए लड़के से पूछा, “ओडी... क्या तुम्हारी ओडी हमें... हमारे प्रदेश ले जाएगी...?”

“हां, बिल्कुल। यह मेरी कार है, यह हर जगह जाती है, सभी को ले जाती है। ज़ूमससरूमसससरूमसस रूमससरूमससस…” वह चौखट पर बैठे अपने पिता को धक्का देता है और अपनी कार के साथ घर से बाहर निकल जाता है, ज़ूम और सीटी की तेज़ आवाज़ निकालते हुए, कार को तंग गली में तेज़ चलाता है। सरिता, भानु, सूर्या और अभय उसे खुशी से खेलते हुए देखते हैं।

सूर्या निर्णायक रूप से कहता है, “चलो भाभी हम सभी चलते हैं। चलो घर चलते हैं।”

वे रात का अधिकतर हिस्सा बर्तन और कपड़े पैक करने में बिताते हैं। अगली सुबह, सूरज निकलने से पहले, उन्होंने सड़क की ओर चलना शुरू कर दिया, जो शायद उन्हें शहर से बाहर ले जाए।

*****

पिठ्या और उसका परिवार शहर से क़रीब 50 किलोमीटर दूर, हाईवे के किनारे, घास से ढके एक खुले मैदान में जागता है। सुबह के चार बज रहे हैं। वे घास पर फैले अपने हाथ से सिले हुए कंबल को तह करने के बाद फिर से चलना शुरू करते हैं। पिछले दिन उन्होंने बुदरुज गांव के ईंट भट्ठे से चलना शुरू किया था। उनका घर 150 किलोमीटर दूर, गर्देपाड़ा में है। वे काम की तलाश में भट्टे पर गए थे।

पिठ्या अपने सिर पर ज्वार के आटे और चावल की भारी बोरी और हाथ में बर्तनों की एक गठरी लेकर चल रहा है। उसकी पत्नी, ज़ुला उसके पीछे-पीछे चल रही है, जिसके सिर पर कपड़े से बंधी कंबल की एक बड़ी गठरी है। आठ महीने का छोटा नंदू, उसके सीने के सामने कपड़े से बंधा, सुरक्षित सो रहा है। उसके धूल भरे चेहरे को चीरते हुए आंसू सूखे निशान छोड़ गए हैं। 13 साल की कल्पना अपने सिर पर कपड़े की गठरी उठाए, और छह साल की गीता अपनी बहन की फ्रॉक के किनारे को पकड़े, अपनी मां के पीछे चल रही हैं।

पीछे की ओर घूमे बिना, ज़ुला उनसे कहती है, “लड़कियों, ध्यान से चलना।”

पिठ्या सामने से पुकारता है, “उन्हें हमारे बीच चलने दो। पीछे नहीं। इस तरह हम उन पर नज़र रख सकते हैं।”

कल्पना और गीता, पिठ्या और ज़ुला के बीच चलने लगती हैं। कुछ घंटों बाद, सूरज उनके सिर पर आ गया है और काफ़ी गर्मी है। उनके पैर की उंगलियां और एड़ियां फटे चप्पलों से बाहर निकल आने के कारण तपती ज़मीन से जल रहे हैं। ज़ूला का दिल तेज़ी से धड़क रहा है, उसकी सांसें फूलने लगी हैं।

“हूम..हूमम..सुनो। थोड़ी देर रुकते हैं। और नहीं चल सकती। प्यास भी लग रही है।”

“आगे एक गांव है। वहां रुकते हैं,” पिठ्या कहता है।

आगे उन्हें पीपल का एक पेड़ दिखाई देता है। इसके बाईं ओर एक कच्ची सड़क आदर्शवादी गांव की ओर जा रही है — पेड़ के तने से लटके एक बोर्ड पर लिखा है। पिठ्या अपने भार को पेड़ के चारों ओर बने एक चबूतरे पर रख देता है। ज़ूला और कल्पना चबूतरे पर अपना सामान रखने के बाद ठंडी सांसें लेती हैं। गूलर की शाखाओं की घनी छाया सुखदायक है। ज़ूला उस कपड़े को खोलती है जिसमें उसने नंदू को अपने शरीर से बांध रखा था, और उसे दूध पिलाने के लिए गोद में लेती है और उसे अपनी साड़ी के एक कोने से ढक देती है।

पिठ्या का जब गर्म शरीर थोड़ा ठंडा होता है, तो वह अपनी एक गठरी से प्लास्टिक की तीन बोतलें निकालता है। “यहीं रुको। मैं पानी लाता हूं।”

कच्चे रास्ते से थोड़ा आगे, उसे कांटेदार झाड़ियों का एक बैरिकेड दिखाई देता है। इस पर लगे एक बोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा है: बाहरी लोग कोरोना वायरस से सुरक्षा के लिए गांव में प्रवेश नहीं कर सकते।

“बंद है? करोना...” पिठ्या धीरे से पढ़ता है और वहां जो कोई भी सुन सकता हो उसे पुकारना शुरू करता है।

“कोई है? बहन... भाई... कोई है यहां? मुझे थोड़ा पानी चाहिये। कोई है वहां?”

वह देर तक आवाज़ लगाता है, लेकिन जब कोई जवाब नहीं मिलता, तो वह निराश होकर लौट जाता है। ज़ूला उसे पास आता देख मुस्कुराती है।

“पानी कहां है?”

“सड़क को बंद कर दिया गया है। मैंने ग्रामीणों को आवाज़ लगाने की कोशिश की। कोई नहीं आया। बीमारी यहां भी है। आगे देखते हैं। कुछ न कुछ ज़रूर मिलेगा।”

ज़ूला आशांवित है। “अगर कोई खुला मैदान दिखता है, तो हम वहां चूल्हा जलाएंगे।”

गीता गिड़गिड़ाती है, “बाबा, मुझे बहुत भूख लगी है।”

पिता उसे खुश करने के लिए कहता है, “गीते, आओ, मेरे कंधे पर बैठो। और हमें बताओ कि ऊपर से तुम्हें क्या कुछ दिखाई दे रहा है।”

गीता उसके सिर को पकड़ कर उसके कंधे पर बैठ जाती है। पिठ्या एक हाथ में चावल और आटे की बोरी और दूसरे में बर्तनों की गठरी पकड़ता है। 2-3 किलोमीटर चलने के बाद, वे सड़क के किनारे एक टिन की झोपड़ी में पहुंचते हैं। ज़ूला की नज़र किसी पर पड़ती है।

“बात सुनो! कोई वहां ज़मीन पर गिरा हुआ है।”

पिठ्या ध्यान से देखता है: “सो रही होगी।”

“ज़मीन पर इस तरह कौन सोता है? देखो तो सही। मुझे लगता है कि वह बेहोश है।”

पिठ्या झोपड़ी के क़रीब जाता है, अपनी गठरी को ज़मीन पर पटकता है और गीता को नीचे उतारता है। एक बुज़ुर्ग महिला वास्तव में वहां बेहोश पड़ी है।

“ज़ुले, यहां आओ।”

ज़ूला तेज़ी से झोपड़ी में जाती है, कल्पना उसके पीछे भागती है। वे महिला को जगाने की कोशिश करते हैं। ज़ूला कल्पना को झोपड़ी के अंदर से पानी लाने के लिए भेजती है।

“माता जी,” पिठ्या उस महिला के चेहरे पर पानी छिड़कते हुए आवाज़ लगाता है।

वह उसे उठाकर एक चारपाई पर रखता है। फिर नंदू को अपनी बांहों में लेकर घास पर बैठ जाता है।

बिना कोई समय बर्बाद किए, ज़ूला झोपड़ी के बाहर पत्थर के एक चूल्हे में लकड़ियां जलाकर ज्वार की भाखरी बनाना शुरू करती है। तभी, वह बूढ़ी औरत जाग जाती है।

पिठ्या कहता है, “तुम उठ गई, बुढ़ी मां? तुम्हारा पेट ज़ोर से गुड़गुड़ा रहा है। क्या तुमने कुछ खाया-पिया नहीं?”

“बुढ़ी मां नहीं! मैं लक्ष्मीबाई हूं। और तुम इस तरह किसी के घर में कैसे घुस सकते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती?”

कल्पना उसके हाथ में तिल की चटनी के साथ एक भाखरी रखती है और मुस्कुराती है, “यह लो दादी, खाओ।”

गर्म भाखरी को देखते ही, वह अपना गुस्सा भूल जाती है। पहली भाखरी ख़त्म होते ही, ज़ूला उसके हाथ में एक और भाखरी रख देती है। लक्ष्मीबाई उसे देखकर मुस्कुराती है।

“अब तुम लोग किस ओर जाओगे?”

“हम ईंट भट्टे पर गए थे। लेकिन आधे रास्ते से लौटना पड़ा।”

“हूं... मैंने सुना है कि कोई बीमारी है। गांव वाले मुझे अंदर नहीं जाने देते। मैं भीख मांग कर अपना गुज़ारा चलाती हूं। चार दिनों के बाद मुझे भाखरी खाने को मिली है।” वे सभी बातें करते हुए खा रहे हैं। ज़ूला एक कपड़े में अलग से पांच भाखरी लपेटती है और लक्ष्मीबाई को अलविदा कहती है। जाने से पहले पिठ्या अपनी पानी की बोतलें भर लेता है।

लक्ष्मीबाई चारपाई से हाथ हिलाती है, “ध्यान से जाना, बच्चों,” और उन्हें देर तक देखती रहती है। फिर वह एक आह के साथ उठती है, अपनी टिन की झोपड़ी के अंदर जाती है और मिट्टी के घड़े से पानी पीती है। घड़े के बगल में, वह प्लास्टिक की थैली में बंधा ज्वार का आटा और तिल की चटनी देखती है। वह जल्दी से बाहर भागने की कोशिश करती है, लेकिन वे जा चुके हैं!

लगभग दस किलोमीटर चलने के बाद, वे सड़क पर कुचले हुए बैंगन और बिखरे हुए टमाटर देखते हैं। एक किसान ने सब्ज़ियों को हाईवे पर फेंक दिया है। “वे वैसे भी खराब हो रहे हैं। मैं इन्हें शहर तक कैसे पहुंचाऊंगा? हम कितना खाएंगे? इसे फेंक दो,” पिठ्या किसानों की बात सुनता है। उन्हें देखकर, वह पिछले साल फ़सल की कटाई के समय बेमौसम बारिश से बर्बाद हुए धान के खेतों को याद करता है।

“ज़ूले, ऐसा लगता है कि किसान को अपने जीवन के दिनों में अपने नुक़सान का भुगतान करना पड़ता है, चाहे बारिश हो या बीमारी,” पिठ्या कहता है।

वे चलना जारी रखते हैं, लगभग लक्ष्यहीन, जल्द ही घर पहुंचने की उम्मीद करते हैं, तभी उन्हें आगे एक भीड़ नज़र आती है। ख़ाकी वर्दी में पुलिस वाले प्लास्टिक के पीले बैरिकेड्स के साथ खड़े हैं, लोगों को लकड़ी के डंडों से पीछे धकेल रहे हैं। कुछ पुलिस से गुहार लगा रहे हैं, कई सड़क पर बैठे हैं, महिलाएं, बच्चे, पुरुष, हर कोई। बच्चों के साथ पिठ्या, ज़ूला करीब जाते हैं।

*****

“ओ साहब, हमें जाने दो। हम लोग सुबह से चल रहे हैं। हमने कुछ खाया भी नहीं है,” सूर्या पुलिसवाले से कहता है।

“तो? क्या मैंने कहा था तुम्हें चलने के लिए? ऊपर से आदेश है। सीमा पार नहीं कर सकते। पीछे हटो। कृपया वापस जाओ, भाई।”

“हम कहां जाएंगे साहब? यह देखिए, आपके लोगों ने मेरे पैर पर मारा है। मुझे स्प्रे या कुछ दें। बहुत दर्द हो रहा है।”

“हमारे लोगों ने? यहां से चले जाओ। भागो।” पुलिसवाला छड़ी को हवा में उछालता है। सूर्या अपने सिर को बचाते हुए पीछे हट जाता है। भानु, सरिता और छोटा राहुल पेड़ के नीचे बैठे हैं, और अभय उसकी टहनी से टेक लगाए खड़ा है।

“मैंने तुम्हें वहां जाने से मना किया था ना,” अभय सूर्या को डांटता है। “तुम मेरी बात नहीं मानते! क्या तुम दुबारा पिटना चाहते हो?”

“हम यहां डेढ़ घंटे से बैठे हुए हैं। मेरी पिटाई हो, घसीटा जाए, जो भी हो, लेकिन मैं घर जाना चाहता हूं।”

“घर! इन सभी वर्षों में हमने अमीर लोगों के लिए कितने बड़े घर बनाए और कितनी इमारतों का निर्माण किया? क्या हमने उन सभी को नहीं देखा जब हम आज सुबह उनके पास से गुज़र रहे थे?”

“किसी ने खिड़की से बाहर नहीं देखा और तुम्हें धन्यवाद नहीं कहा, भाई,” सूर्या कड़वाहट से हंसता है।

“उन्होंने अपनी खिड़कियों से सड़क पर लोगों की लंबी लाइनें देखी होंगी। उन्होंने ज़रूर देखा होगा।” पिठ्या के वहां पहुंचने पर भानु की बात बीच में ही कट जाती है। “भाई। पुलिस यहां सड़क को क्यों बंद कर रही है?” वह पूछ रहा है।

सूर्या उससे हिंदी में पूछता है, “क्या तुम मराठी बोलते हो?”

पिठ्या अपनी भाषा में बात जारी रखता है, “भाई, हम अपने गांव जाना चाहते हैं। ईंट भट्ठे पर काम रुक गया। कोई परिवहन नहीं है, इसलिए हम पैदल चल रहे हैं।”

सूर्या और अन्य लोग पिठ्या को खाली निगाहों से घूरते हैं। अभय समझाने के लिए आगे आता है, “मैंने ‘सड़क’ शब्द को छोड़कर तुम्हारे द्वारा कही गई किसी भी बात को नहीं समझा। वह सड़क बंद है।”

“मैं आपको बताती हूं कि मेरे पिता क्या कह रहे हैं,” कल्पना बीच में कूदती है, उस हिंदी में बोलते हुए जो उसने स्कूल में सीखा है। “हमें अपने गांव जाना है और मेरे पिता जानना चाहते हैं कि ये पुलिसकर्मी यहां पर क्यों हैं।”

सूर्या मुस्कुराता है, “वाह! हम तुम्हारे पिता की मराठी को नहीं समझ पा रहे हैं। यह शहर की मराठी से अलग लगती है।”

कल्पना अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहती है, “मराठी हर जिले-गांव-शहर में, पूरे राज्य में अलग-अलग तरीके से बोली जाती है।”

भानु, जो मराठी में कुछ शब्दों को समझता है, पिठ्या को बैठने के लिए कहता है और सूर्या की ओर मुड़ता है “क्या तुम अब भाषा की कक्षा लेने जा रहे हो या क्या?” वह कल्पना को देखकर मुस्कुराता है। “तुम एक स्मार्ट बच्ची हो।”

वे सभी देर तक एक-दूसरे के साथ विभिन्न भाषाओं में बातचीत करते हैं, तभी उन्हें भीड़ में बेचैन आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं।

“हम यहां कब तक बैठे रहेंगे?” एक आदमी कहता है। “चलो कच्ची सड़क से रेल पटरियों की ओर चलते हैं। अब जब उन्होंने हम सभी को पैदल चलने पर मजबूर कर दिया है, तो वे कोई ट्रेन नहीं चलाएंगे। चलो, सभी चलो। चलते हैं!”

हर कोई उस धूल भरी सड़क की दिशा में चलना शुरू कर देता है। दोनों परिवार उनके पीछे चलने का फैसला करते हैं। अंधेरा होने तक वे चलते हैं। पिठ्या और अन्य ने लगभग 40 किलोमीटर की दूरी और तय कर ली है। अब वे रेल की पटरियों पर चल रहे हैं। सूर्या अपने घायल पैर की वजह से काफी पीछे रह गया है। कल्पना और गीता उसके साथ चल रही हैं।

भानु पिठ्या को सुझाव देता है कि वे सूर्या और लड़कियों की प्रतीक्षा करे। “चलो रुकते हैं और उनकी प्रतीक्षा करते हैं। उनके आने तक यहीं बैठते हैं।”

सरिता भानु को थोड़ी देर आराम करने का सुझाव देती है। “रात भी हो चुकी है और राहुल भूखा है और उसे नींद आ रही है।”

वे सभी जब रेल की पटरियों पर बैठने के बाद अपने पैर फैला लेते हैं, तो ज़ूला भाखरी की गठरी को खोलती है और कहती है, “हम लोग थोड़ा-थोड़ा खाएंगे।”

अभय कहता है, “हमें बच्चों और सूर्या की प्रतीक्षा करनी चाहिए। हम एक साथ खाएंगे।”

प्रतीक्षा करते हुए, वे ऊंघने लगते हैं। पिठ्या अपना सिर हिलाता है और थोड़ी देर जागने की कोशिश करता है और फिर पटरियों पर सो जाता है। वहां आराम करने वाले बाकी लोग भी अब सो चुके हैं।

ट्रेन की सीटी की तेज़ आवाज़ उनके थके हुए कानों तक मुश्किल से पहुंचती है। तेज़ रफ्तार ट्रेन के इंजन की तेज़ चमक उन्हें घर के सपने देखने से जगाने में नाकाम रहती है।

चित्रकारः अंतरा रमन सृष्टि इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट , डिज़ाइन एंड टेक्नोलॉजी , बेंगलुरु से विज़ुअल कम्युनिकेशन में हालिया स्नातक हैं। उनके चित्रण और डिज़ाइन अभ्यास पर वैचारिक कला और कथावस्तु के सभी रूपों का गहरा प्रभाव है।

हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Jyoti Shinoli is a Senior Reporter at the People’s Archive of Rural India; she has previously worked with news channels like ‘Mi Marathi’ and ‘Maharashtra1’.

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Translator : Mohd. Qamar Tabrez

Mohd. Qamar Tabrez is the Translations Editor, Urdu, at the People’s Archive of Rural India. He is a Delhi-based journalist.

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