एक सुबह अनु पेड़ के नीचे प्लास्टिक की एक फटी हुई चटाई पर बैठी हुई दिखती है, उसके बाल बिखरे और चेहरा पीला है. लोग उससे एक दूरी बनाकर बात कर रहे हैं. पास में जानवर सुस्ता रहे हैं और चारे का ढेर धूप में सूख रहा है.

अनु बताती हैं, "बारिश होने पर भी मैं एक छाता लेकर पेड़ के नीचे बैठती हूं और घर के भीतर नहीं जाती. यहां तक कि मेरी परछाई भी किसी के ऊपर नहीं पड़नी चाहिए. हम अपने भगवान को नाराज़ करने का ख़तरा नहीं उठा सकते हैं."

यह पेड़ उसके घर से 100 मीटर दूर एक खुली जगह पर है. हर महीने माहवारी के दौरान तीन दिनों के लिए यह पेड़ ही उसका 'घर' बन जाता है.

अनु (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "मेरी बेटी एक प्लेट में मेरे लिए खाना रखकर चली जाती हैं." इन दिनों वह अलग बर्तन इस्तेमाल करती हैं. "ऐसा नहीं है कि यहां मैं अपनी खुशी से आराम करती हूं. मैं (घर पर) काम करना चाहती हूं, लेकिन, अपनी संस्कृति के सम्मान की वजह से मैं यहां पर हूं. हालांकि, मैं हमारे खेतों में काम करती हूं, जब वहां पर बहुत ज़्यादा काम हो जाता है." अनु का परिवार 1.5 एकड़ की अपनी जमीन पर रागी की खेती करता है.

हालांकि, उन दिनों अनु अपने दम पर अकेले ही रहती हैं, लेकिन ऐसा करने वाली वह अकेली नहीं हैं. 17 और 19 साल की उनकी बेटियां भी यही करती हैं (21 साल की उनकी एक और बेटी है, जिसकी शादी हो चुकी है). 25 परिवारों के इस छोटे से गांव में काडूगोल्ला समुदाय की औरतों को इसी तरह सबसे अलग-थलग रहना पड़ता है.

जन्म देने के ठीक बाद भी महिलाएं तमाम तरह के प्रतिबंध झेलती हैं. अनु के पेड़ के आस-पास 6 झोपड़ियां हैं, जिसमें वे महिलाएं अपने नवजात बच्चे के साथ रहती हैं. अन्य मौकों पर ये झोपड़ियां खाली होती हैं. माहवारी के दौरान महिलाओं को पेड़ के नीचे ही रहना होता है.

The tree and thatched hut in a secluded area in Aralalasandra where Anu stays during three days of her periods
PHOTO • Tamanna Naseer

पेड़ के नीचे बैठी हुई अनु. पेड़ों के आस-पास बनी झोपड़ियों में महिलाएं प्रसव के बाद अपने नवजात बच्चों के साथ रहती हैं.

ये पेड़ और झोपड़ियां गांव के पिछले हिस्से में स्थित है, जो कर्नाटक के रामनगर ज़िले के चन्नापटना तालुका के एक गांव (जिसकी आबादी साल 2011 की जनगणना के अनुसार 1070 है) अरलालासंद्र के उत्तर में है.

माहवारी के दौरान निर्वासन झेल रहीं ये महिलाएं अपनी ज़रूरत पड़ने पर झाड़ियों के पीछे या खाली झोपड़ियों को अपने निजता कामों के लिए इस्तेमाल करती हैं. परिवार के सदस्यों या पड़ोसियों द्वारा उन्हें गिलास और बाल्टी में पानी उपलब्ध करा दिया जाता है.

नवजात बच्चों वाली महिलाओं को कम से कम एक महीना सबसे अलग-थलग इन झोपड़ियों में रहना पड़ता है. पूजा (बदला हुआ नाम) एक गृहिणी हैं, उन्होंने 19 की उम्र में अपनी शादी होने के बाद बीकॉम की डिग्री हासिल की. इस साल फरवरी में उन्होंने बेंगलुरु के निजी अस्पताल में (उनके गांव से 70 किमी दूर) एक बच्चे को जन्म दिया था. पूजा एक झोपड़ी की तरह इशारा करते हुए बताती हैं, "मेरा ऑपरेशन (सी-सेक्शन) हुआ था. मेरे सास-ससुर और पति अस्पताल आए थे, लेकिन रिवाज़ के अनुसार वे एक महीने तक बच्चे को छू नहीं सकते. जब मैं अपने मायके (अरलालासंद्र गांव में काडूगोल्ला समुदाय का टोला; वे अपने पति के साथ दूसरे गांव में रहती हैं) आई, तो मैं 15 दिनों तक एक झोपड़ी में रही. उसके बाद मैं इस झोपड़ी में आ गई." पूरे 30 दिन बाहर रहने के बाद, वह अपने बच्चे के साथ घर के भीतर आ सकीं.

उनके बोलने दौरान उनका बच्चा रोने लगता है. वे अपने बच्चे को अपनी मां की साड़ी से बने झूले में लिटा देती हैं. पूजा की मां गंगम्मा (उनकी उम्र 40 से कुछ ऊपर है) कहती हैं, "वह (पूजा) सिर्फ़ 15 दिनों के लिए अलग झोपड़ी में रही. हमारे गांव में हम लोग काफ़ी उदार हो गए हैं. (काडूगोल्ला के) दूसरे गांवों में प्रसव के बाद एक मां को अपने बच्चे के साथ दो महीने से भी ज़्यादा वक़्त के लिए एक झोपड़ी में रहना पड़ता है." उनका परिवार भेड़ पालता है, और अपनी 1 एकड़ जमीन पर रागी और आम की खेती करता है.

पूजा अपनी मां को सुन रही हैं, उनका बच्चा झूले पर सो गया है. वे कहती हैं, "मुझे कोई समस्या नहीं हुई. मेरी मां मुझे सबकुछ समझाने के लिए मौजूद हैं. बस बाहर गर्मी बहुत ज़्यादा है." वे अब 22 साल की हैं और एमकॉम की डिग्री के लिए आगे पढ़ना चाहती हैं. उनके पति बेंगलुरु के एक प्राइवेट कॉलेज में अटेंडेंट का काम करते हैं. पूजा आगे कहती हैं, "मेरे पति भी चाहते हैं कि मैं इस रिवाज़ का पालन करूं. मैं यहां नहीं रहना चाहती. लेकिन, मैंने विरोध नहीं किया. हम सभी को यह सब करना पड़ता ही है."

*****

ये रिवाज़ दूसरे काडूगोल्ला गांवों में भी है. इन सभी बस्तियों को स्थानीय रूप से गोल्लाराडोड्डी या गोलारहट्टी कहा जाता है. ऐतिहासिक रूप से काडूगोल्ला पशुपालन करने वाली एक खानाबदोश जाति है, जिसे कर्नाटक में अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) घोषित किया गया है (हालांकि, समुदाय अपने को अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किए जाने की मांग करता रहा है). कर्नाटक में इस समुदाय की जनसंख्या करीब 300,000 (जैसा कि रामनगर के पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के उपनिदेशक पी. बी. बासवराजू बताते हैं) से 10 लाख (कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग के एक पूर्व सदस्य के अनुसार) के बीच है. बासवराजू के अनुसार, यह समुदाय मुख्यतः राज्य के दक्षिणी और मध्य भाग में आने वाले दस ज़िलों में रहता है.

Left: This shack right in front of Pooja’s house is her home for 15 days along with her newborn baby. Right: Gangamma says, 'In our village, we have become lenient. In other [Kadugolla] villages, after delivery, a mother has to stay in a hut with the baby for more than two months'
PHOTO • Tamanna Naseer
Left: This shack right in front of Pooja’s house is her home for 15 days along with her newborn baby. Right: Gangamma says, 'In our village, we have become lenient. In other [Kadugolla] villages, after delivery, a mother has to stay in a hut with the baby for more than two months'
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बाएं: पूजा अपने घर के बगल में बनी झोपड़ी में अपने नवजात बच्चे के साथ 15 दिन रहीं. दाएं: गंगम्मा कहती हैं, 'हमारे गांव में हम लोग काफ़ी उदार हो गए हैं. (काडूगोल्ला के) दूसरे गांवों में प्रसव के बाद एक मां को अपने बच्चे के साथ दो महीने से भी ज़्यादा वक्त के लिए एक झोपड़ी में रहना पड़ता है.'

पूजा की झोपड़ी से 75 किमी दूर तुमकुर ज़िले के डी. होसहल्ली गांव की काडूगोल्ला बस्ती में, जयम्मा भी एक दोपहर अपने घर के सामने वाली सड़क के पास एक पेड़ नीचे आराम कर रही हैं. ये उनकी माहवारी का पहला दिन है. उनके ठीक पीछे एक संकरी खुली हुई नाली बह रही है, और उनके बगल में स्टील का एक प्लेट और एक गिलास ज़मीन पर रखा हुआ है. वे हर महीने तीन दिन पेड़ के नीचे ही सोती हैं, यहां तक कि बारिश में भी. वे इस दौरान अपने घर पर रसोई का काम नहीं कर सकतीं, लेकिन वे अभी भी अपने भेड़ों को चराने के लिए पास के खुले इलाक़ों में ले जाती हैं.

वे सवाल करते हुए कहती हैं, "कौन बाहर सोना चाहता है? लेकिन ये सभी को करना पड़ता है क्योंकि भगवान (काडूगोल्ला समुदाय के लोग कृष्ण भक्त हैं) यही चाहते हैं. कल मेरे पास एक प्लास्टिक कवर था, बारिश होने पर मैं उसके नीचे बैठी थी."

जयम्मा और उनके पति दोनों भेड़ पालते हैं. उनके दो बेटे (दोनों की उम्र 20 से 30 साल के बीच है) बेंगलुरु में कारखानों में काम करते हैं. वे कहती हैं, "जब उनकी शादी होगी, तो उनकी पत्नियों को भी उस दौरान बाहर सोना पड़ेगा, क्योंकि हमने हमेशा अपने रिवाज़ों का पालन किया है. चीज़ें सिर्फ़ इसलिए नहीं बदलेंगी, क्योंकि मुझे यह पसंद नहीं है. अगर मेरे पति और गांव के दूसरे लोग इस रिवाज़ को ख़त्म करना चाहेंगे, तो मैं उन दिनों (माहवारी) में अपने घर में रहना शुरू कर दूंगी.”

कुनिगल तालुका के डी. होसहल्ली गांव के काडूगोल्ला टोले की दूसरी महिलाओं को भी ऐसा करना पड़ता है. 35 वर्षीय लीला एम.एन. (बदला हुआ नाम), जो गांव में ही एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं, बताती हैं, "मेरे गांव में, माहवारी आने पर महिलाएं पहली तीन रातों के लिए बाहर रहती हैं और चौथे दिन की सुबह लौटती हैं." वे माहवारी आने पर खुद भी बाहर ही रहती हैं. वे आगे कहती हैं, "ये एक आदत की तरह है. लोग भगवान के डर से इस रिवाज़ को बंद नहीं करना चाहते हैं. रात में घर के पुरुष सदय (भाई, दादा या पति) एक दूरी बनाकर घर के भीतर से या बाहर रहकर औरतों की निगरानी करते हैं. चौथे दिन भी अगर औरतों की माहवारी नहीं रुकती, तो वे घर के भीतर दूसरे सदस्यों से दूर रहती हैं. पत्नियां अपने पतियों के साथ नहीं सोती हैं. लेकिन, हम घर में काम करते हैं."

हालांकि, हर महीने काडूगोल्ला गांवों की औरतों का निर्वासित होकर घर के बाहर रहना एक नियम बन गया है, लेकिन माहवारी के दौरान या प्रसूता औरतों को सबसे अलग-थलग करने की ये प्रथा क़ानून के अनुसार प्रतिबंधित है. कर्नाटक अमानवीय कुप्रथा एवं काला जादू उन्मूलन व निवारण अधिनियम, 2017 ऐसी 16 प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाता है. इसमें, "मासिक धर्म आने पर या प्रसव के बाद औरतों को गांवों में आने से रोकने या अलग-थलग करने, जबरन निर्वासित करने संबंधी महिला विरोधी प्रथा" शामिल है. इस क़ानून के अनुसार इसका उल्लघंन करने पर 1 साल से 7 साल की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है.

हालांकि, इस क़ानून के लागू होने के बावजूद काडूगोल्ला समुदाय की आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भी इस रिवाज़ का पालन करती हैं, जबकि उन पर सामुदायिक स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी है. डी. शरदम्मा (बदला हुआ नाम) एक आशा कार्यकर्ता हैं, और वे हर महीने माहवारी के दौरान बाहर खुले आसमान के नीचे रहती हैं.

Jayamma (left) sits and sleeps under this tree in the Kadugolla hamlet of D. Hosahalli during her periods.  Right: D. Hosahalli grama panchayat president Dhanalakshmi K. M. says, ' I’m shocked to see that women are reduced to such a level'
PHOTO • Tamanna Naseer
Jayamma (left) sits and sleeps under this tree in the Kadugolla hamlet of D. Hosahalli during her periods.  Right: D. Hosahalli grama panchayat president Dhanalakshmi K. M. says, ' I’m shocked to see that women are reduced to such a level'
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बाएं: डी. होसहल्ली गांव की काडूगोल्ला बस्ती की जयम्मा माहवारी के दौरान इस पेड़ के नीचे बैठती और सोती हैं. दाएं: डी. होसहल्ली ग्राम पंचायत की अध्यक्ष धनलक्ष्मी के. एम. कहती हैं, 'मैं हैरान हूं कि महिलाओं की स्थिति इतने नीचे जा चुकी है.'

शरदम्मा, जिनकी उम्र 40 के आस पास है, कहती हैं, "गांव में हर कोई यही करता है. चित्रदुर्ग (पड़ोसी जिला) में, जहां मैं पली-बढ़ी हूं, लोगों ने इस रिवाज़ को मनाना बंद कर दिया है क्योंकि उन्हें लगा कि महिलाओं का बाहर रहना सुरक्षित नहीं है. यहां सभी को लगता है कि अगर हम इस रिवाज़ को नहीं मानेंगे तो भगवान हमें सज़ा देंगे. मैं भी इस समुदाय से हूं, इसलिए मैं भी इसका पालन करती हूं. मैं अकेले कुछ बदल नहीं सकती. और मुझे बाहर रहने के दौरान कभी कोई परेशानी नहीं हुई."

इस प्रथा का चलन काडूगोल्ला समुदाय के सरकारी कर्मचारियों के घरों में भी है. डी. होसहल्ली पंचायत में काम करने वाले 43 वर्षीय मोहन एस. (बदला हुआ नाम) के परिवार में भी इस प्रथा का पालन किया जाता है. उनके भाई की पत्नी, जिनके पास एमए और बीएड की डिग्री है, पिछले साल दिसंबर में मां बनीं, तो उन्हें घर के बाहर अपने बच्चे के साथ एक झोपड़ी में दो महीने के लिए रहना पड़ा. वह झोपड़ी ख़ासतौर पर उन्हीं के लिए बनवाई गई थी. मोहन कहते हैं, "उन्होंने एक निश्चित अवधि के बाद ही हमारे घर के भीतर प्रवेश किया." उनकी 32 वर्षीया पत्नी भारती (बदला हुआ नाम) भी उनसे सहमति जताते हुए कहती हैं, "मैं भी माहवारी के दौरान कुछ भी नहीं छूती. मैं नहीं चाहती कि सरकार इस व्यवस्था में कोई बदलाव करे. वे हमारे रहने के लिए एक कमरा बनवा सकते हैं, ताकि हमें पेड़ों के नीचे न सोना पड़े."

*****

समय के साथ ऐसे घरों को बनाने की कोशिश की गई है. 10 जुलाई 2009 में प्रकाशित एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, कर्नाटक सरकार ने हर काडूगोल्ला गांव के बाहर एक महिला भवन बनाने का आदेश जारी किया था, जहां एक समय में 10 महिलाएं रह सकें.

इस आदेश के जारी होने से पहले जयम्मा के डी. होसहल्ली गांव की स्थानीय पंचायत ने सीमेंट का एक कमरा बनवाया था. कुनिगल तालुका के पंचायत सदस्य कृष्णप्पा जी.टी. कहते हैं कि वह कमरा उनके बचपन के दौरान करीब 50 साल पहले बनवाया गया था. गांव की महिलाएं कुछ सालों तक पेड़ों के नीचे सोने की बजाय, उस कमरे का इस्तेमाल करती रहीं. अब इस खंडहरनुमा कमरे के चारों ओर खरपतवार और पेड़-पौधे हैं.

इसी तरह अरलालासंद्र गांव के काडूगोल्ला टोले में भी एक कच्ची दीवार का कमरा इसी कारण बनवाया गया था, जो अब उपयोग में नहीं है. अनु कहती हैं, "चार से पांच साल पहले ज़िले के कुछ अधिकारी और पंचायत के कुछ सदस्य हमारे गांव आए थे. उन्होंने (माहवारी के दौरान) बाहर रह रहीं औरतों को घर जाने के लिए बोला था. उन्होंने कहा कि बाहर रहना अच्छा नहीं है. हमारे कमरा खाली करने के बाद ही वे वापस गए. उनके जाने के बाद सभी लोग वापस कमरे में आ गए. कुछ महीनों के बाद वे फिर से आए और हमसे माहवारी के दौरान घर के भीतर ही रहने को कहा, और कमरा तोड़ने लगे. पहले कम से कम हम बिना किसी परेशानी के टॉयलेट का इस्तेमाल कर सकते थे."

साल 2014 में पूर्व महिला एवं बाल कल्याण मंत्री उमाश्री ने काडूगोल्ला समुदाय की इस मान्यता के ख़िलाफ़ बोलने की कोशिश की थी. सांकेतिक विरोध दर्ज कराते हुए उन्होंने डी. होसाहल्ली गांव के काडूगोल्ला टोले में महावारी के दौरान महिलाओं के रहने के लिए बनवाए गए कमरे के कुछ हिस्सों को तोड़ दिया. कुनिगल तालुका के पंचायत सदस्य कृष्णप्पा जी. टी. कहते हैं, "उमाश्री मैडम ने हमारी औरतों को माहवारी के दौरान घरों के भीतर रहने को कहा. जब वे हमारे गांव का दौरा करने आई थीं, तो कुछ लोग उनकी बात से सहमत थे; लेकिन किसी ने इस प्रथा को मानना बंद नहीं किया. वे पुलिस की सुरक्षा के साथ आई थीं और उन्होंने दरवाज़े और कमरे के कुछ हिस्सों को तोड़ दिया. उन्होंने हमारे क्षेत्र के विकास का वादा किया था, लेकिन यहां कुछ भी नहीं हुआ."

A now-dilapidated room constructed for menstruating women in D. Hosahalli. Right: A hut used by a postpartum Kadugolla woman in Sathanur village
PHOTO • Tamanna Naseer
A now-dilapidated room constructed for menstruating women in D. Hosahalli. Right: A hut used by a postpartum Kadugolla woman in Sathanur village
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बाएं: डी. होसहल्ली गांव में महावारी के दौरान महिलाओं के रहने के लिए बनवाया गया कमरा, जो अब खंडहर जैसा है. दाएं: सथानूर गांव में प्रसव के बाद काडूगोल्ला महिलाएं इस झोपड़ी में रहती हैं.

फिर भी, धनलक्ष्मी के.एम. (वे काडूगोल्ला समुदाय की नहीं हैं), जो इस साल फरवरी में डी. होसहल्ली ग्राम पंचायत की अध्यक्ष चुनी गई हैं, महिलाओं के लिए अलग कमरा बनाने के सुझाव पर विचार कर रही हैं. वे कहती हैं, "मैं हैरान हूं कि महिलाओं का दर्जा इतना नीचे जा चुका है कि वे प्रसव और माहवारी जैसे नाज़ुक समय में अपने घर के बाहर रहने को मजबूर हैं. कम से कम मैं उनके लिए अलग घर बनवाना चाहती हूं. दुःख की बात ये है कि पढ़ी-लिखी युवा लड़कियां भी इस प्रथा का पालन कर रही हैं. मैं कोई बदलाव कैसे ला सकती हूं, जब वे ख़ुद बदलाव का विरोध कर रही हैं?"

ज़िला पिछड़ा कल्याण विभाग के पी.बी. बासवराजू कहते हैं, "अब कमरों और अन्य मुद्दों पर बहस बंद होनी चाहिए. अगर अलग कमरे औरतों की मदद करते भी हैं, तो भी हम चाहते हैं कि वे लोग इस प्रथा को मानना बंद कर दें. हम काडूगोल्ला समुदाय की औरतों से बात करके उन्हें इस अंधविश्वासी प्रथा को रोकने के लिए समझाते हैं. अतीत में हम इसके ख़िलाफ़ जागरूकता अभियान चला चुके हैं."

अरलालासंद्र गांव के पास के इलाक़े में रहने वाले के. अर्केश, जो सेंट्रल रिज़र्व पुलिस फोर्स के सेवानिवृत अधिकारी (इंस्पेक्टर जनरल) हैं, का मानना है कि माहवारी के दौरान महिलाओं के अलग रहने के लिए कमरे बनवाना इस समस्या का समाधान नहीं है. वे कहते हैं, "कृष्ण कुटीर (इन कमरों को इसी नाम से बुलाया जाता है) इस प्रथा को वैधता प्रदान कर रहे थे. महिलाओं के अपवित्र होने जैसी किसी मान्यता को पूरी तरह ख़ारिज़ किया जाना चाहिए, न कि इसे बढ़ावा देना चाहिए."

वे आगे कहते हैं, "इस तरह की पिछड़ी मान्यताएं बेहद क्रूर हैं. लेकिन, सामाजिक दबाव ऐसा है कि महिलाएं संगठित होकर इसके विरुद्ध लड़ाई नहीं करती हैं. सती प्रथा को केवल सामाजिक क्रांति के जरिए ही बंद कराया जा सका था. उस समय बदलाव की एक चाह थी. चुनावी राजनीति के चलते हमारे नेता इन विषयों पर कोई बात नहीं करते हैं. ऐसे में राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, और समुदाय के सदस्यों के द्वारा किसी साझा प्रयास की आवश्यकता है."

*****

लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक दैवीय आपदा और सामाजिक कलंक का भय इस प्रथा को आगे बढ़ाता रहेगा.

अरलालासंद्र गांव के काडूगोल्ला टोले में रहने वाली अनु कहती हैं, "अगर हम इस प्रथा का पालन नहीं करेंगे, तो हमारे साथ बहुत बुरा कुछ घट सकता है. बहुत साल पहले हमने सुना कि तुमकुर में एक औरत ने माहवारी के दौरान बाहर रहने से मना कर दिया. जिसके कारण उसके घर में रहस्यमयी ढंग से आग लग गई."

Anganwadi worker Ratnamma (name changed at her request; centre) with Girigamma (left) in Sathanur village, standing beside the village temple. Right: Geeta Yadav says, 'If I go to work in bigger cities in the future, I’ll make sure I follow this tradition'
PHOTO • Tamanna Naseer
Anganwadi worker Ratnamma (name changed at her request; centre) with Girigamma (left) in Sathanur village, standing beside the village temple. Right: Geeta Yadav says, 'If I go to work in bigger cities in the future, I’ll make sure I follow this tradition'
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सथानूर गांव की गिरिगम्मा (बाएं), आंगनबाड़ी कार्यकर्ता रतनम्मा (बदला हुआ नाम, बीच में) गांव के मंदिर के पास खड़ी हैं. दाएं: गीता यादव कहती हैं, 'अगर भविष्य में मैं काम करने के लिए बड़े शहरों में गई, तो वहां इस परंपरा का पालन ज़रूर करूंगी.'

डी. होसहल्ली ग्राम पंचायत के साथ काम करने वाले मोहन एस. कहते हैं, "भगवान चाहते हैं कि हम ऐसे ही रहें. अगर हम उनके आदेशों के अनुसार नहीं चलेंगे, तो हमें उसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. अगर इस व्यवस्था को रोका जाता है, तो बीमारियां फैलेंगी, हमारी बकरियां और भेड़ें मर जाएंगी. हमें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, लोगों को बहुत नुक़्सान उठाना पड़ेगा. इस व्यवस्था को समाप्त नहीं होना चाहिए. हम नहीं चाहते कि इसमें बदलाव हो."

रामनगर ज़िले के सथानूर गांव के काडूगोल्ला टोले की गिरिगम्मा कहती हैं, "मांड्या ज़िले में एक औरत को माहवारी के दौरान घर के भीतर रहने पर सांप ने काट लिया था." यहां, सरकार द्वारा बनवाए गए एक पक्के कमरे, जिसके साथ एक बाथरूम भी है, में अभी तक महिलाएं माहवारी के दौरान रहती हैं. गांव की मुख्य सड़क से लगी हुई एक संकरी गली सीधा इस कमरे तक ले जाती है.

तीन साल पहले अपनी पहली माहवारी के बुरे अनुभवों को याद करते गीता यादव कहती हैं, "मैंने रोते हुए अपनी मां से कहा कि वे मुझे यहां न भेजे. पर उन्होंने मेरी बात नहीं मानी. अब, साथ में हमेशा ही कोई आंटी (अन्य औरतें जिन्हें माहवारी हो रही है) होती हैं, इसलिए अब मैं शांति से सो पाती हूं. मैं माहवारी के दौरान स्कूल से सीधा इस कमरे में आती हूं. काश यहां सोने के लिए पलंग होता और हमें फर्श पर सोना नहीं पड़ता." गीता अभी 16 साल की हैं और ग्यारवीं कक्षा में पढ़ रही हैं, आगे कहती हैं, "अगर भविष्य में काम करने के लिए बड़े शहरों में गई, तो मैं अलग कमरे में रहूंगी और किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाऊंगी. मैं इस परंपरा का पालन करूंगी. इसे हमारे गांव में बहुत महत्त्व दिया जाता है."

महज़ 16 साल की उम्र में गीता इस परंपरा को आगे ले जाने की बात करती हैं, 65 वर्षीय गिरिगम्मा का कहना है कि उनके समुदाय में महिलाओं के पास शिकायत करने का कोई कारण नहीं है, जब उन्हें उन दिनों में आराम करने का मौका दिया जाता है. वे कहती हैं, "हम ख़ुद भी धूप और बारिश में घर के बाहर रहे हैं. कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि मुझे तूफ़ान के वक़्त दूसरी जाति के लोगों के घर जाकर आश्रय लेना पड़ा, क्योंकि मुझे हमारी जाति के किसी भी आदमी के घर जाने की मनाही थी. कभी-कभी हम ज़मीन पर पड़े पत्तों पर खाना खाते थे. अब महिलाओं के पास अलग बर्तन हैं. हम कृष्ण अनुयायी हैं, आखिर यहां की महिलाएं इस परंपरा का पालन कैसे नहीं करेंगी?"

29 साल की रत्नम्मा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "हम इन तीन-चार दिनों में सिर्फ़ चुपचाप बैठते हैं, खाना खाते हैं, और सो जाते हैं. नहीं तो हम खाना बनाने, सफ़ाई करने, और बकरियों की देखभाल के लिए सारा दिन दौड़ना पड़ता है. जब हम माहवारी के दौरान अलग कमरे में रहते हैं, तो हमें इन सारे कामों से छुट्टी मिल जाती है." रत्नम्मा कनकपुरा तालुका (सथानूर गांव भी इसी तालुका के अंतर्गत स्थित है) के कब्बाल ग्राम पंचायत में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं.

A state-constructed room (left) for menstruating women in Sathanur: 'These Krishna Kuteers were legitimising this practice. The basic concept that women are impure at any point should be rubbished, not validated'. Right: Pallavi segregating with her newborn baby in a hut in D. Hosahalli
PHOTO • Tamanna Naseer
A state-constructed room (left) for menstruating women in Sathanur: 'These Krishna Kuteers were legitimising this practice. The basic concept that women are impure at any point should be rubbished, not validated'. Right: Pallavi segregating with her newborn baby in a hut in D. Hosahalli
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बाएं: सथानूर में माहवारी के दौरान महिलाओं के प्रवास के लिए सरकार द्वारा बनवाया गया एक कमरा: 'ये कृष्ण कुटीर इस प्रथा को वैधता प्रदान कर रहे थे. महिलाओं के अपवित्र होने जैसी किसी मान्यता को पूरी तरह ख़ारिज़ किया जाना चाहिए, न कि इसे बढ़ावा देना चाहिए.' दाएं: डी. होसहल्ली में एक झोपड़ी में पल्लवी अपने नवजात बच्चे के साथ अलग रहती हुई.

हालांकि, गिरिगम्मा और रत्नम्मा अलगाव की इस प्रथा को फ़ायदे के तौर पर देखती हैं, लेकिन इस परंपरा के चलते बहुत सी दुर्घटनाएं और मौतें हुई हैं. दिसंबर 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, तुमकुर में अपनी मां के साथ एक झोपड़ी में रह रहे नवजात शिशु को भारी बारिश के चलते ज़ुकाम हो गया और उससे उसकी मौत हो गई. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, साल 2010 में मांड्या के मद्दुर तालुका के काडूगोल्ला टोला में महज़ दस दिन के एक बच्चे को एक कुत्ते उठा ले गया.

डी. होसहल्ली गांव के काडूगोल्ला टोले की पल्लवी जी. इन ख़तरों को ख़ारिज़ करते हुए कहती हैं, "कई सालों में ऐसे दो या तीन मामले आते हैं, इससे मुझे कोई समस्या नहीं है. ये झोपड़ी काफ़ी आरामदायक है. मुझे क्यों डर लगेगा? माहवारी के दौरान मैं हमेशा अंधेरे में बाहर रही हूं. ये मेरे लिए कोई नई बात नहीं है." 22 साल की पल्लवी एक गृहिणी हैं और उन्होंने इसी साल फरवरी में अपने पहले बच्चे को जन्म दिया है.

पल्लवी के पति तुमकुर में एक गैस फ़ैक्ट्री में काम करते हैं. वे अपने बच्चे के साथ एक झोपड़ी में सोती हैं, जो एक दूसरी झोपड़ी से कुछ मीटर की दूरी पर है, जिसमें उनकी मां या दादा उनका साथ देने के लिए रहते हैं. उनकी झोपड़ी के ठीक सामने एक पंखा और एक बल्ब लगा हुआ है और बाहर लकड़ियों पर पानी गर्म करने के लिए एक भगौना रखा हुआ है. पल्लवी और उनके बच्चे का कपड़ा झोपड़ी के ऊपर सुखाने के लिए पसारा हुआ है. दो महीने और तीन दिन के बाद मां और बच्चे को घर के भीतर प्रवेश दिया जाएगा, जो उनकी झोपड़ी से 100 मीटर की दूरी पर है.

कुछ काडूगोल्ला परिवार मां और बच्चे को घर के भीतर प्रवेश देने से पहले एक भेड़ की बलि देते हैं. सामान्यतः शुद्धिकरण से जुड़ा एक कर्मकांड किया जाता है, और झोपड़ी और सभी कपड़ों, मां और बच्चे से जुड़ी सभी चीज़ों की सफ़ाई की जाती है. गांव के बुज़ुर्ग दूर से ही उन्हें सलाह देते हैं. फिर उन्हें एक स्थानीय मंदिर में नामकरण संस्कार के लिए ले जाया जाता है. वहां वे पूजा करते हैं और खाना खाते हैं, फिर उन्हें घर के भीतर प्रवेश कराया जाता है.

*****

हालांकि, इस प्रथा के विरोध के किस्से भी मौजूद हैं.

अरलालासंद्र गांव के काडूगोल्ला बस्ती में रहने वाली 45 साल की डी. जयलक्ष्मा माहवारी के दौरान अपने घर के भीतर ही रहती हैं, जबकि उनके समुदाय के दूसरे सदस्य बार-बार उन पर इस परंपरा-पालन का दबाव डालते हैं. वे एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं. वे अपने चारों बच्चों के पैदा होने के बाद अस्पताल से सीधा घर वापिस आ गईं, जिसके कारण पड़ोसी काडूगोल्ला परिवार उनसे नाराज़ हो गए.

Aralalasandra village's D. Jayalakshmma and her husband Kulla Kariyappa are among the few who have opposed this practice and stopped segeragating
PHOTO • Tamanna Naseer
Aralalasandra village's D. Jayalakshmma and her husband Kulla Kariyappa are among the few who have opposed this practice and stopped segeragating
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अरलालासंद्र गांव की डी. जयलक्ष्मा और उनके पति कुल्ला करियप्पा उन कुछ लोगों में से एक हैं जिन्होंने इस प्रथा का विरोध किया है

जयालक्ष्मा कहती हैं, "जब मेरी शादी हुई थी, तो इस गांव की सभी औरतें माहवारी के दौरान छोटी सी झोपड़ी में रहती थीं या कभी-कभी पेड़ों के नीचे रहती थीं. मेरे पति ने इस प्रथा का विरोध किया. मैं अपने मायके में भी इस परंपरा को निभाना पसंद नहीं करती थी. इसलिए, मैंने इसका पालन करना बंद कर दिया. लेकिन, हमें अभी तक इसके लिए गांव वालों से ताने सुनने पड़ते हैं." जयालक्ष्मा ने दसवीं तक पढ़ाई की है. उनकी तीनों बेटियां (जिनकी उम्र 19 साल से 23 साल तक है) भी माहवारी के दौरान घर से बाहर नहीं जाती हैं.

जयालक्ष्मा के पति कुल्ला करियप्पा (60 साल) एक सेवानिवृत लेक्चरर हैं, जिनके पास एमए और बीएड की डिग्रियां हैं. वे कहते हैं, "ये (गांव वाले) लोग हमें ताना देते थे, परेशान करते थे. जब भी हमें किसी परेशानी का सामना करना पड़ता था, वे हमसे कहते थे कि इसका कारण हमारा परंपरा को नहीं निभाना है. हमसे कहा जाता था कि हमारे साथ बहुत बुरा हो सकता है. कभी-कभी वे हमारी उपेक्षा भी करते थे. पिछले कुछ सालों से क़ानून के डर से लोग हमारी उपेक्षा अब नहीं करते. जब भी गांववालों ने मुझसे सवाल करते हुए परंपरा निभाने को कहा, तो मैंने यही कहा कि एक शिक्षक होने के नाते मैं ऐसा नहीं कर सकता. हमारी लड़कियों को ये कहकर बरगलाया जा रहा है कि उन्हें हमेशा ही त्याग करना होगा."

अरलालासंद्र में रहने वाली 30 साल की अमृता (बदला हुआ नाम), जो दो बच्चों की मां हैं, जयालक्ष्मा की तरह ही इस प्रथा का पालन करना नहीं चाहती हैं, लेकिन वे ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं. वे कहती हैं, "ऊपर के कुछ लोगों (अधिकारी या नेता) को ही हमारे गांव के बुज़ुर्गों को समझाना पड़ेगा. जब तक ऐसा नहीं होता, मेरी पांच साल की बेटी को भी (बड़े होकर) यही करना पड़ेगा. मुझे उससे इसके लिए कहना पड़ेगा. मैं अकेले इस प्रथा को बंद नहीं करवा सकती."

देश भर में ग्रामीण इलाक़ों की किशोर लड़कियों और युवा औरतों पर आधारित 'पारी' और काउंटर मीडिया ट्रस्ट का ये रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट 'पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के एक पहल का हिस्सा है, जो आम लोगों के अनुभवों और उनकी आवाज़ों के ज़रिए हाशिए पर खड़े ज़रूरी, लेकिन पिछड़े समुदायों की स्थितियों को समझने और दर्ज करने की कोशिश करता है.

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अनुवाद: प्रतिमा

Tamanna Naseer

Tamanna Naseer is a freelance journalist based in Bengaluru.

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Illustration : Labani Jangi

Labani Jangi is a 2020 PARI Fellow, and a self-taught painter based in West Bengal's Nadia district. She is working towards a PhD on labour migrations at the Centre for Studies in Social Sciences, Kolkata.

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Editor and Series Editor : Sharmila Joshi

Sharmila Joshi is former Executive Editor, People's Archive of Rural India, and a writer and occasional teacher.

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