जब मैं तारपा बजाता हूं, तो हमारे वारली लोगों का शरीर उन्मत्त हो जाता है [उन पर देवी आ जाती है]. एक घंटे तक उनका शरीर ठीक वैसे ही हिलता रहता है, जैसे कोई पेड़ हवा के साथ हिलता है.

तारपा बजाते समय, मैं सवरी देवी और उनकी साथियों का आह्वान करता हूं. और जो मेरी विनती सुन लेता है लोग उसके वश में आ जाते हैं.

यह सब आस्था की बात है. 'मानल त्यचा देव, नाहि त्यचा नाही' [मानो तो भगवान, नहीं तो नहीं]. मेरे लिए मेरा तारपा ही मेरा भगवान है. तो मैं हाथ जोड़कर इसकी पूजा करता हूं.

मेरे परदादा नवश्या तारपा बजाते थे.

उनके बेटे ढाकल्या ने इसे बजाया.

ढाकल्या के बेटे लाडक्या ने भी इसे बजाया.

लाडक्या मेरे पिता थे.

Bhiklya Dhinda’s father Ladkya taught him to play and make tarpa from dried palm toddy tree leaves, bamboo and bottle gourd. ‘It requires a chest full of air. One has to blow in the instrument and also make sure that your body has enough air to breathe,’ says Bhiklya baba
PHOTO • Siddhita Sonavane
Bhiklya Dhinda’s father Ladkya taught him to play and make tarpa from dried palm toddy tree leaves, bamboo and bottle gourd. ‘It requires a chest full of air. One has to blow in the instrument and also make sure that your body has enough air to breathe,’ says Bhiklya baba
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भिकल्या धिंडा के पिता लाडक्या ने उन्हें ताड़ के पेड़ के सूखे पत्तों, बांस और लौकी से तारपा बनाना और बजाना सिखाया था. भिकल्या बाबा कहते हैं, ' इसके लिए छाती में हवा भरनी होती है. फिर वाद्य यंत्र में फूंक मारनी होती है और यह भी देखना होता है कि आपका शरीर पर्याप्त सांस खींच सके'

ब्रिटिश शासन का वक़्त था. हमें आज़ादी नहीं मिली थी. हमारे गांव वालवंडे में बड़े लोगों (उच्च जाति) के बच्चों के लिए केवल एक स्कूल हुआ करता था. ग़रीबों के लिए कोई स्कूल नहीं था. मैं उस समय 10-12 साल का था. मैं मवेशियों की देखभाल करता था. मेरे माता-पिता सोचते थे, 'गाइमागे गेला तर रोटी मिलल. शालेत गेला तर उपाशी रहल’ [अगर मैंने मवेशियों की देखभाल की, तो रोटी मिलती रहेगी, अगर स्कूल गया तो भूखा रहूंगा]. मेरी मां को सात बच्चे पालने थे.

मेरे पिता कहते, ‘जब मवेशी चर रहे होते हैं, तो तुम्हारे पास कोई काम नहीं होता. तुम तारपा क्यों नहीं बजाते? यह तुम्हारे शरीर [सेहत] के लिए अच्छा है और इससे मनोरंजन भी होगा.’ इस आवाज़ के कारण कीड़े मवेशियों के आसपास नहीं आएंगे.

जब मैं जंगल में या चारागाहों में होता, तो उसे बजाने लगता. लोग शिकायत करते, ‘धिंड्या का बेटा सारे दिन क्यांव-क्यांव करता रहता है.’ एक दिन मेरे पिता ने कहा, ‘जब तक मैं ज़िंदा हूं, मैं तुम्हारे लिए तारपा बनाऊंगा. मेरे जाने के बाद कौन बनाएगा?’ इस तरह मैंने यह कला सीखी.

तारपा बनाने के लिए आपको तीन चीज़ें चाहिए. माड़ के पेड़ (ताड़) की पत्तियां 'ध्वनि' [गुंजायमान सींग वाला आकार] बनाने के लिए. बांस [बेंत] के दो टुकड़े लगते थे, एक नर और एक मादा. नर वाले टुकड़े को लय बनाए रखने के लिए थपथपाना होता है. तीसरी चीज़ जो आपको चाहिए वह है हवा को भरने के लिए दुधी [लौकी]. जब मैं फूंक मारता हूं, तो दोनों नर-मादा टुकड़े एकसाथ आ जाते हैं और सबसे आकर्षक ध्वनि पैदा होती है.

तारपा एक परिवार की तरह है. एक नर होता है और दूसरा मादा. जब मैं कुछ हवा फूंकता हूं, वो एक हो जाते हैं और तब जो आवाज़ निकलती है वो जादुई होती है. वह पत्थर की तरह बेजान होता है. मेरी सांस से वह जीवित हो जाता है और एक आवाज़ और संगीत का सुर निकालता है. इसके लिए हवा से भरी हुई छाती चाहिए. व्यक्ति को वाद्ययंत्र में फूंकना होता है और यह भी सुनिश्चित करना होता है कि आपके शरीर में सांस लेने के लिए पर्याप्त हवा हो.

यह ईश्वर का कमाल ही है कि हम ऐसा वाद्ययंत्र बना सकते हैं. यह ईश्वरीय है.

मेरे पिता कहा करते थे, ‘जब मवेशी चर रहे होते हैं, तो तुम्हारे पास कोई काम नहीं होता. तुम तारपा क्यों नहीं बजाते? यह तुम्हारे शरीर [सेहत] के लिए अच्छा है और इससे मनोरंजन भी होगा’

वीडियो देखें: ‘मेरा तारपा मेरा देवता है’

*****

मेरे माता-पिता और बूढ़े लोग हमें कई कहानियां सुनाते थे. अगर मैं उन्हें आज बताऊं, तो लोग मुझे बेइज़्ज़त करने लगेंगे. मगर वो हमें हमारे पुरखों ने सुनाई थीं.

ब्रह्मांड को बनाने के बाद देवता चले गए. तो वारली कहां से आए?

कंदराम देहल्या से.

देवताओं ने कंदराम देहल्या के लिए उनकी मां के पास कुछ दही रखा था. उसने दही तो खाया ही, वह भैंस भी खा गया. उसकी मां नाराज़ हो गई और उसे घर से बाहर निकाल दिया.

हमारे पूर्वज बताते थे कि कैसे पहला वारली कंदराम देहल्या यहां पहुंचा.

कंदराम देहल्यालहून

पळसोंड्याला परसंग झाला
नटवचोंडीला नटलं
खरवंड्याला खरं झालं
शिणगारपाड्याला शिणगारलं
आडखडकाला आड झालं
काटा खोचाय कासटवाडी झालं
कसेलीला येऊन हसलं
आन् वाळवंड्याला येऊन बसलं.
गोऱ्याला जान खरं जालं
गोऱ्याला रहला गोंद्या
चांद्या आलं, गंभीरगडा आलं.

Kandram Dehlyalahun

Palsondyala parsang jhala
Natavchondila Natala
Kharvandyala khara jhala
Shingarpadyala shingarala
Aadkhadakala aad jhala
Kata khochay Kasatwadi jhala
Kaselila yeun hasala
Aan Walwandyala yeun basala.
Goryala jaan khara jaala
Goryala rahala Gondya
Chandya aala, Gambhirgada aala

यह कविता पालघर ज़िले के जवहार ब्लॉक में गांव-बस्तियों के नामों के साथ तुकबंदी वाले शब्दों के खेल की तरह है.

Left: Bhiklya Dhinda with his wife, Tai Dhinda.
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Right: He says, ' Tarpa is just like a family. There is a male and a female. When I blow some air, they unite and the sound that you get is magical. Like a stone, it is lifeless. But with my breath it comes alive and produces a sound, a musical note’
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बाएं: भिकल्या धिंडा अपनी पत्नी ताई धिंडा के साथ. ' तारपा बिल्कुल परिवार की तरह है. एक नर और एक मादा होता है. जब मैं हवा फूंकता हूं, तो वे साथ हो जाते हैं और आपको जो ध्वनि मिलती है वह जादुई होती है. यह पत्थर की तरह बेजान होता है. पर मेरी सांस के साथ यह जीवंत हो उठता है और एक ध्वनि, संगीतमय सुर पैदा करता है'

वारली परिवार की तरह यहां कई समुदाय रहते हैं. राजकोली, कोकना, कातकरी, ठाकुर, महार, चंभार...मुझे याद है कि मैं महाराजा [जवहार के राजा] के दरबार में काम करता था. वह अपने दरबार में सभी लोगों के साथ करवल के पत्तों पर भोजन करते थे. मैं वहां काम करता था और इस्तेमाल हो चुकी पत्तियों को फेंक देता था. सभी बिरादरियों के लोग वहां इकट्ठा होते थे और एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे. किसी को भी दूसरे से कम नहीं समझा जाता था. यह मैंने वहां सीखा और कातकरी या मुसलमान के हाथों पानी पीना शुरू किया. राजकोली वारलियों का छुआ पानी नहीं लेते हैं. हमारे लोग कातकरी, चंभार या ढोर कोली का छुआ पानी नहीं पीते. अभी भी नहीं पीते. मगर मेरा कभी भी ऐसे भेदभाव में विश्वास नहीं रहा.

देखिए, कोई भी जो हिरवा देव और तारपा की पूजा करता है, वारली आदिवासी होता है.

हम साथ-साथ त्योहार मनाते हैं. जब नया चावल आता है, हम उसे परिवार में बांटते हैं, पड़ोसियों को देते हैं और उसे पहले गांवदेवी के पास ले जाते हैं, जो हमारी ग्राम देवी है. पहला निवाला उन्हें खिलाने के बाद ही हम खाते हैं. आप इसे अंधश्रद्धा के रूप में सोचेंगे. मगर ऐसा नहीं है. यह हमारी श्रद्धा है, हमारी आस्था है.

नई फसल आने पर हम अपनी स्थानीय देवी गांवदेवी के मंदिर में जाते हैं. हमने उसके लिए मंदिर क्यों बनवाया और उसे यहां क्यों लाए? हम उनसे प्रार्थना करते हैं, 'हमारे बच्चों, रिश्तेदारों, मवेशियों और कामगारों को स्वस्थ और अच्छा रखे. हमारे खेत और बगीचे फलें-फूलें. जो लोग नौकरी में हैं उन्हें सफलता मिले. हमारे परिवारों और हमारे जीवन में अच्छे दिन आएं.' हम आदिवासी मंदिर जाते हैं और अपने देवता से प्रार्थना करते हैं, उसका नाम लेते हैं और अपनी इच्छाएं जताते हैं.

Bhiklya baba in the orchard of dudhi (bottle gourd) in his courtyard. He ties each one of them with stings and stones to give it the required shape. ‘I grow these only for to make tarpa . If someone steals and eats it, he will surely get a kestod [furuncle] or painful throat’ he says
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भिकल्या बाबा अपने आंगन में दुधी [लौकी] के बगीचे में. वह उनमें से हरेक को ज़रूरी आकार देने के लिए सुतली और पत्थरों से बांधते हैं. वह कहते हैं, 'मैं इन्हें केवल तारपा बनाने के लिए उगाता हूं. यदि कोई इसे चुराकर खाता है, तो उसे निश्चित रूप से केसतोड [फोड़ा] या गले में दर्द हो जाएगा'

तारपा की हमारे जीवन में अहम भूमिका है

वाघबारस पर हम सवरी देवी का त्योहार मनाते हैं. आप उन्हें शबरी के नाम से जानते हैं, जिन्होंने भगवान राम को आधे खाए हुए बेर दिए थे. हमारी कहानी अलग है. सवरी देवी वन में राम की प्रतीक्षा कर रही थीं. वह सीता के साथ वहां आए थे. सवरी ने उनसे मुलाक़ात कर उन्हें बताया कि वह हमेशा से उनका इंतज़ार कर रही हैं और अब जब उन्हें देख लिया है, तो जीने के लिए और कुछ नहीं बचा है. उन्होंने अपना जीवड़ा [दिल] निकाला और उनके हाथों में रख दिया और फिर हमेशा के लिए चली गईं.

उनके प्रेम और समर्पण का उत्सव मनाने के लिए हम तारपा को पहाड़ियों और जंगलों में ले जाते हैं. वहां वन में कई देवता रहते हैं. तंगडा सवरी, गोहरा सवरी, पोपटा सवरी, तुंबा सवरी और घुंगा सवरी. ये सभी सवरी देवी के मित्र हैं. ये प्रकृति के देवता हैं. ये जीवित हैं. अब भी हैं. हम उनकी पूजा करने लगे. मैं तारपा बजाता हूं और उन्हें उत्सव में बुलाता हूं. जिस तरह हम किसी को नाम से बुलाते हैं, उसी तरह मैं हर सवरी के लिए अलग-अलग धुनें बजाता हूं. उनमें से हरेक के लिए धुनें बदलती रहती हैं.

*****

साल 2022 की बात है. मैं सभी जगह के आदिवासियों के साथ मंच पर था – नंदुरबार, धुले, बड़ोदा...मेरे सामने बैठे लोगों ने मुझसे कहा कि मैं साबित करूं कि मैं आदिवासी हूं.

मैंने उन्हें बताया कि इस धरती पर आकर इसकी मिट्टी का परीक्षण करने वाला पहला व्यक्ति आदिवासी था और वह इंसान मेरा पूर्वज था. मैंने कहा कि हमारी संस्कृति वह ध्वनि है जो हम अपनी सांसों से पैदा करते हैं. जो हम अपने हाथों से बजाते हैं उसी को आप चित्रकला में देखते हैं. चित्रकला बाद में आई. श्वास और संगीत शाश्वत हैं. ध्वनियां ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय से ही मौजूद हैं.

अंत में मैंने यह कहा कि यह तारपा एक जोड़े का प्रतिनिधित्व करता है, नर मादा का और मादा नर का समर्थन करती है. तारपा ऐसे ही काम करता है. एक सांस उन्हें एकजुट करती है और सबसे जादुई ध्वनि पैदा करती है.

मेरे जवाब ने मुझे पहला स्थान दिलाया. मेरे राज्य को पहला स्थान मिला!

मैं हाथ जोड़कर अपने तारपा से कहा करता था, 'हे देवता, मैं आपकी सेवा करता हूं, आपकी पूजा करता हूं. बदले में तुम्हें भी मेरा ख़याल रखना चाहिए. मैं उड़ना चाहता हूं. मुझे हवाई जहाज़ में बैठा दो.' और आपको यक़ीन नहीं आएगा, मेरा तारपा मुझे हवाई जहाज़ पर ले गया. भिकल्या लाडक्या धिंडा ने हवाई जहाज़ में यात्रा की. मैं बहुत सी जगहों पर गया. मैं आलंदी, जेजुरी, बारामती, सन्या [शनि] शिंगणापुर गया...मैंने दूर-दूर तक यात्राएं कीं. यहां से कोई भी 'गोमा' [गोवा] की राजधानी पणजी नहीं गया है. लेकिन मैं वहां गया. मुझे वहां से एक सर्टिफ़िकेट मिला है.

Left: The many tarpas made by Bhiklya baba.
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Right: He has won many accolades for his tarpa playing. In 2022, he received the prestigious Sangit Natak Akademi Award and was felicitated in Delhi. One wall in his two-room house is filled with his awards and certificates
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बाएं: भिकल्या बाबा के बनाए तारपा. दाएं: उन्हें तारपा वादन के लिए कई बार प्रशंसा और पुरस्कार मिले हैं. साल 2022 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला और उन्हें दिल्ली में सम्मानित किया गया. उनके दो कमरे के घर की एक दीवार उनके पुरस्कारों और प्रमाणपत्रों से भरी हुई है

बताने को मेरे पास बहुत सी चीज़ें हैं, पर मैं बताता नहीं. मैं 89 साल का हूं और बहुत सारी कहानियां हैं, लेकिन मैं उन्हें कभी नहीं बताता. मैंने उन्हें अपने दिल में छिपा रखा है. कई रिपोर्टर और पत्रकार आते हैं और मेरी कहानी लिखते हैं. वे किताबें छापते हैं और दुनिया को बताते हैं कि उन्होंने मुझे प्रसिद्ध बना दिया है. कई संगीतकार आते हैं और मेरा संगीत चुराने की कोशिश करते हैं. इसलिए मैं हर किसी से नहीं मिलता. आप भाग्यशाली हैं कि आप मुझसे मिले.

मुझे संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला. समारोह दिल्ली में था. जब मुझे पुरस्कार मिला, तो मेरी आंखें भर आईं. मेरे पिता ने मुझे कभी स्कूल नहीं भेजा था. वह सोचते थे कि उस शिक्षा से मुझे पता नहीं नौकरी मिलेगी या नहीं. लेकिन उन्होंने मुझसे कहा था कि 'यह वाद्य यंत्र हमारा देवता है.' यह सचमुच एक देवता है. इसने मुझे सब कुछ दिया. इसने मुझे मानवता सिखाई. दुनिया भर में लोग मेरा नाम जानते हैं. मेरा तारपा एक डाक लिफ़ाफ़े पर छपा है. यदि आप अपने फ़ोन पर मेरे नाम का बटन दबाएंगे, तो आपको मेरा वीडियो दिखाई देगा...और क्या चाहिए? कुएं के मेंढक को नहीं पता होता कि उसके बाहर क्या है. लेकिन मैं उस कुएं से बाहर निकला...मैंने दुनिया देखी.

आजकल युवा तारपा की धुनों पर नहीं नाचते. उन्हें डीजे मिल गया है. बजाने दो. लेकिन मुझे एक बात बताओ, जब हम खेत से अपनी फ़सल काटते हैं, जब हम गांवदेवी को नए चावल का प्रसाद चढ़ाते हैं, जब हम उसका नाम लेते हैं और उससे प्रार्थना करते हैं, तो क्या हम डीजे बजाएंगे? उन क्षणों में वहां सिर्फ़ तारपा होता है, और कुछ नहीं.

दस्तावेज़ीकरण में मदद के लिए आरोहण की माधुरी मुकने का तह-ए-दिल से शुक्रिया.

साक्षात्कार, ट्रांसक्रिप्शन और अंग्रेज़ी अनुवाद: मेधा काले
फ़ोटो और वीडियो: सिद्धिता सोनावने

यह कहानी पारी की लुप्तप्राय भाषा परियोजना का हिस्सा है जिसका मक़सद देश की संकटग्रस्त भाषाओं का दस्तावेज़ीकरण करना है.

वारली एक इंडो-आर्यन भाषा है जो भारत में गुजरात, दमन और दीव, दादरा और नगर हवेली, महाराष्ट्र, कर्नाटक और गोवा के वारली या वर्ली आदिवासी बोलते हैं. यूनेस्को के भाषा एटलस ने वारली को भारत में संभावित रूप से लुप्तप्राय भाषाओं में से एक के बतौर दर्ज किया है.

हमारा लक्ष्य महाराष्ट्र में बोली जाने वाली वारली भाषा का दस्तावेज़ीकरण करना है.

अनुवाद: अजय शर्मा

Bhiklya Ladkya Dhinda

بھکلیہ لاڈکیہ دھنڈا، پالگھر ضلع کے جوہار بلاک کے وال ونڈے گاؤں کے انعام یافتہ وارلی تارپا بجانے والے فنکار ہیں۔ سال ۲۰۲۲ میں انہیں سنگیت ناٹک اکیڈمی ایوارڈ سے سرفراز کیا گیا۔ وہ ۸۹ سال کے ہیں۔

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Photos and Video : Siddhita Sonavane

سدھیتا سوناونے ایک صحافی ہیں اور پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا میں بطور کنٹینٹ ایڈیٹر کام کرتی ہیں۔ انہوں نے اپنی ماسٹرز ڈگری سال ۲۰۲۲ میں ممبئی کی ایس این ڈی ٹی یونیورسٹی سے مکمل کی تھی، اور اب وہاں شعبۂ انگریزی کی وزیٹنگ فیکلٹی ہیں۔

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Translator : Ajay Sharma

Ajay Sharma is an independent writer, editor, media producer and translator.

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