"एसडीएम [उप-विभागीय मजिस्ट्रेट] जून में आए और कहा, ‘यह आपके विस्थापन का नोटिस है’."
बाबूलाल आदिवासी अपने गांव गहदरा के प्रवेश द्वार के पास एक बड़े बरगद के पेड़ की ओर इशारा करते हैं - जहां पर सामुदायिक बैठकें होती हैं - और इसी स्थान पर यहां के लोगों का नसीब एक झटके में बदल गया.
मध्य प्रदेश में पन्ना टाइगर रिज़र्व (पीटीआर) और उसके आसपास के 22 गांवों के हज़ारों निवासियों को बांध और नदी-जोड़ो परियोजना के चलते अपना घर और ज़मीन छोड़ने को कहा गया है. परियोजना को पर्यावरण से जुड़ी निर्णायक मंज़ूरी 2017 में ही मिल गई थी और अब राष्ट्रीय उद्यान में पेड़ों की कटाई शुरू हो गई है. ज़मीन से बेदख़ली का आसन्न संकट सर उठाने लगा है.
इस परियोजना की तैयारी दो दशक से ज़्यादा समय से चल रही थी. इसके तहत, केन और बेतवा नदियों को 218 किलोमीटर लंबी नहर से जोड़ने के लिए 44,605 करोड़ रुपए ( चरण 1 ) आवंटित किए गए हैं.
इस परियोजना की काफ़ी आलोचना होती रही है. क़रीब 35 वर्षों से जल से जुड़े मुद्दों पर कार्यरत वैज्ञानिक हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ''इस परियोजना का कोई मतलब नहीं बनता है, और इसके पीछे जलविज्ञान संबंधी तर्क भी नहीं मिलते हैं. मसलन, केन नदी में अतिरिक्त पानी है ही नहीं. परियोजना का कोई विश्वसनीय मूल्यांकन या अध्ययन नहीं किया गया है, सिर्फ़ पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष सामने रख दिए गए हैं.”
ठक्कर, साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स ऐंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के समन्वयक हैं. वह साल 2004 के आसपास जल संसाधन मंत्रालय (अब जल शक्ति) द्वारा नदियों को जोड़ने के मुद्दे पर गठित विशेषज्ञों की समिति के सदस्य रह चुके हैं. उनका कहना है कि परियोजना का आधार ही चौंकाने वाला है: "नदियों को जोड़ने से जंगल, नदी, जैव विविधता पर भारी पर्यावरणीय और सामाजिक असर देखने को मिलेगा. यहां के साथ-साथ बुंदेलखंड और तमाम अन्य इलाक़ों के लोग निर्धनता के शिकार होंगे."
बांध के 77 मीटर ऊंचे जलाशय में 14 गांव डूब जाएंगे. इतना ही नहीं, इसकी वजह से बाघों का मुख्य निवास स्थान डूब जाएगा, और वन्यजीवन के लिए अहम क्षेत्र कट जाएंगे, और इसलिए बाबूलाल के गहदरा जैसे आठ गांवों की ज़मीन को सरकार ने मुआवज़े के रूप में वन विभाग को सौंप दिया है.
फ़िलहाल, सबकुछ अपनी चाल में घटता जा रहा है. लाखों ग्रामीणों, ख़ासतौर पर आदिवासियों को चीतों, बाघ , अक्षय ऊर्जा, बांधों और खदानों के बदले में लगातार विस्थापित किया जा रहा है.
अपने 51वें वर्ष में क़दम रख चुके प्रोजेक्ट टाइगर की शानदार सफलता - 3,682 (बाघों की जनगणना, 2022) - की क़ीमत भारत के वन समुदायों ने चुकाई है, जो यहां के मूल निवासी हैं. ये समुदाय देश के सबसे वंचित नागरिकों में आते हैं.
साल 1973 तक भारत में नौ टाइगर रिज़र्व थे और आज 53 हैं. साल 1972 से, हर एक बाघ के बदले में हमने औसतन 150 आदिवासियों को जंगल से विस्थापित किया है. यह आंकड़ा भी काफ़ी कम करके निकाले गए आकलन की उपज है.
बात यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती - 19 जून, 2024 को राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा जारी पत्र में लाखों और लोगों को विस्ठापित करने की बात कही गई. पत्र के अनुसार, प्राथमिकता के हिसाब से देश के 591 गांवों को विस्थापित होना पड़ेगा.
पन्ना टाइगर रिज़र्व (पीटीआर) में बिल्ली प्रजाति के बाघ और चीते जैसे 79 जानवर हैं और जब बांध बनने के बाद मुख्य वन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा डूब रहा है, तो उन्हें मुआवज़ा मिलना ही चाहिए. इसलिए, गहदरा में बाबूलाल को ज़मीन और घर बाघों के लिए छोड़ना पड़ेगा.
सीधे शब्दों में कहें: 'मुआवज़ा’ वन विभाग को दिया जा रहा है, न कि विस्थापित हो रहे ग्रामीणों को, जो हमेशा के लिए अपने घर खो रहे हैं.
पन्ना की उप वन अधिकारी अंजना तिर्की कहती हैं, ''हम दोबारा जंगल लगाएंगे. हमारा काम इसे घास के मैदान में बदलना और वन्य जीवन का प्रबंधन करना है.” वह परियोजना के कृषि-पारिस्थितिकी से जुड़े पहलुओं पर टिप्पणी करने से इंकार कर देती हैं.
हालांकि, नाम न छापने की शर्त पर अधिकारी स्वीकार करते हैं कि 60 वर्ग किलोमीटर के घने और जैव विविधता वाले जंगल की भरपाई के लिए वे सिर्फ़ वृक्षारोपण कर सकते हैं. और यह सब यूनेस्को द्वारा पन्ना को बायोस्फीयर रिज़र्व के वैश्विक नेटवर्क में शामिल करने के ठीक दो साल बाद हो रहा है. इस प्राकृतिक वन के लगभग 46 लाख पेड़ों (साल 2017 में वन सलाहकार समिति की बैठक में पेश किए गए अनुमान के अनुसार) को काटने के क्या नुक़सान होंगे, इसका आकलन भी नहीं किया गया है.
बाघ जंगल के अकेले बदनसीब जानवर नहीं हैं. भारत के तीन घड़ियाल अभयारण्यों में से एक अभयारण्य इस प्रस्तावित बांध से कुछ किलोमीटर नीचे की ओर ही स्थित है. यह इलाक़ा भारतीय गिद्धों के पलने के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्थान है - जो आईयूसीएन की गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षियों की सूची में शामिल हैं. इसके अलावा, तमाम बड़े शाकाहारी व मांसाहारी जानवर भी अपना निवास स्थान खोने वाले हैं.
बाबूलाल छोटे किसान हैं, जिनके पास कुछ बीघे की वर्षा आधारित ज़मीन है. इसी के सहारे वह अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं. "चूंकि यहां से जाने की कोई तारीख़ नहीं दी गई थी, इसलिए हमने सोचा कि कुछ मकई लगा लेते हैं, ताकि अपना पेट पाल सकें." जैसे ही उनके और गांव के सैकड़ों अन्य लोगों के खेत तैयार हुए, वन रेंजर आ गए. “उन्होंने हमें रुकने को कहा. उनका कहना था, 'अगर तुम हमारी बात नहीं सुनोगे, तो हम ट्रैक्टर लाएंगे और तुम्हारे खेतों को कुचल देंगे’.”
पारी को अपनी परती ज़मीन दिखाते हुए वह कहते हैं, “न तो उन्होंने हमें हमारा पूरा मुआवज़ा दिया है, जिससे हम यहां से जा सकें, न ही वे हमें यहां रहने और बुआई करने की अनुमति देते हैं. हम सरकार से पूछ रहे हैं - जब तक हमारा गांव यहां है, हमें खेती करने दीजिए...नहीं तो हम खाएंगे क्या?”
पुश्तैनी घरों का छूटना एक और बड़ा झटका है. काफ़ी परेशान दिख रहे स्वामी प्रसाद परोहर ने पारी को बताया कि उनका परिवार 300 वर्षों से ज़्यादा समय से गहदरा में रहता आ रहा है. “हमें खेती से, और साल भर मिलने वाले महुआ, तेंदू जैसे वन उपजों से आमदनी होती थी…अब हम कहां जाएंगे? कहां जाकर मरेंगे? कहां डूबेंगे...किसे मालूम?” इस 80 साल के बुज़ुर्ग को चिंता इसकी भी है कि आने वाली पीढ़ियों का जंगल से नाता टूट जाएगा.
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नदी जोड़ो परियोजना, 'विकास' के नाम पर सरकार द्वारा ज़मीन हड़पने की नवीनतम परियोजना है.
अक्टूबर 2023 में जब केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना (केबीआरएलपी) को अंतिम मंज़ूरी मिली, तो भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ज़ोर-शोर से इसका स्वागत किया. उन्होंने इसे "बुंदेलखंड के लोगों के लिए सौभाग्यशाली दिन बताया, जो पिछड़े रह गए थे." उन्होंने अपने राज्य के उन हज़ारों किसानों, चरवाहों, जंगल में रहने वाले आदिवासियों और उनके परिवारों का कोई ज़िक्र नहीं किया जो इस परियोजना के चलते बेघर हो जाएंगे. न ही उन्होंने यह देखा कि मंज़ूरी इस आधार पर दी गई थी कि बिजली उत्पादन पीटीआर के बाहर होगा, लेकिन यह भी अब अंदर ही चल रहा है.
अतिरिक्त पानी वाली नदियों को अपर्याप्त पानी वाली नदी घाटियों से जोड़ने का विचार 1970 के दशक में आया था और राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (एनडब्ल्यूडीए) बनाया गया. इसने देश में नदियों के बीच 30 लिंक - नहरों की 'माला' - जोड़ने की संभावना का अध्ययन करना शुरू किया.
केन मध्य भारत में स्थित कैमूर की पहाड़ियों से निकलती है और गंगा बेसिन का हिस्सा है, और उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में यमुना से मिलती है. अपनी 427 किलोमीटर लंबी यात्रा के दौरान यह पन्ना टाइगर रिज़र्व से होकर गुज़रती है. अभ्यारण्य के अंदर ढोडन गांव में बांध बनना है.
केन के सुदूर पश्चिमी इलाक़े में बेतवा नदी बहती है. केबीएलआरपी का मक़सद केन नदी के ‘अतिरिक्त’ पानी को पानी की 'कमी' से जूझती बेतवा नदी की ओर भेजना है. दोनों नदियों को जोड़ने से आर्थिक रूप से पिछड़े इलाक़े व वोटबैंक - बुंदेलखंड के पानी की कमी से जूझते क्षेत्रों की 343,000 हेक्टेयर ज़मीन की सिंचाई होने की उम्मीद है. हालांकि, वैज्ञानिकों का कहना है कि इस परियोजना में बुंदेलखंड के पानी को बेतवा के ऊपरी बेसिन के इलाक़ों में भेजा जाएगा, यानी बुंदेलखंड के बाहर.
डॉ. नचिकेत केलकर के अनुसार, इस धारणा पर सवाल उठाया जाना ज़रूरी है कि केन नदी के पास अतिरिक्त पानी है. केन नदी पर पहले से बने बांधों - बरियारपुर, गंगऊ और पवई - के ज़रिए सिंचाई की व्यवस्था हो जानी चाहिए थी. वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के इकालजिस्ट (परिस्थितिकी-विज्ञानी) नचिकेत कहते हैं, "कुछ साल पहले जब मैंने केन नदी के किनारे के बांदा और आसपास के इलाक़ों का दौरा किया था, तो बार-बार यह सुनने को मिल रहा था कि सिंचाई का पानी उपलब्ध नहीं है."
साल 2017 में नदी के साथ यात्रा करने वाले एसएएनडीआरपी के शोधकर्ताओं ने एक रिपोर्ट में लिखा था, "...केन अब हर जगह पूरे साल नहीं बहती...लंबे हिस्से में वह प्रवाहहीन नज़र आती है और उसमें पानी भी नहीं होता."
केन नदी में ख़ुद सिंचाई के पानी की कमी है, इसलिए उससे जितना भी पानी बेतवा नदी में जाएगा वह उसके अपने सिंचित क्षेत्र को मुश्किल में डाल देगा. यह बात नीलेश तिवारी कहते हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन पन्ना में बिताया है. उनका कहना है कि बांध को लेकर लोगों में बहुत ग़ुस्सा है, क्योंकि इससे मध्य प्रदेश-वासियों का स्थायी नुक़सान होगा, और इसका फ़ायदा पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश को पहुंचेगा.
“बांध बनने से लाखों पेड़, हज़ारों जानवर डूब जाएंगे. जंगल में रहने वाले आदिवासी अपनी आज़ादी खो देंगे, वे बेघर हो जाएंगे. लोग नाराज़ हैं, लेकिन सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है,'' तिवारी कहते हैं.
“कहीं पर वे राष्ट्रीय उद्यान बनाते हैं, कभी इस नदी पर बांध बनाते हैं, तो कभी उस नदी पर…और लोग विस्थापित होते हैं, उजड़ जाते हैं…” जनका बाई कहती हैं, जिनका घर साल 2015 में पीटीआर के विस्तार ने लील लिया.
गोंड आदिवासियों के गांव उमरावन की निवासी जनका की उम्र 50 साल से ज़्यादा है, और वह पिछले एक दशक से उचित मुआवज़े के लिए लड़ रही हैं. वह कहती हैं, “सरकार को हमारे और हमारे बच्चों के भविष्य की कोई चिंता नहीं है. उन्होंने हमें बेवक़ूफ़ बनाया है.” वह बताती हैं कि बाघों को बसाने के लिए ली गई उनकी ज़मीन पर अब एक रिसॉर्ट बनेगा. "देखिए, हमें बाहर निकालने के बाद, उन्होंने पर्यटकों के आने और ठहरने के लिए इस ज़मीन का सर्वेक्षण किया है."
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साल 2014 के दिसंबर महीने में, एक सार्वजनिक सुनवाई के दौरान केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना की घोषणा की गई थी.
हालांकि, स्थानीय लोगों का कहना है कि कोई सार्वजनिक सुनवाई नहीं हुई थी, केवल बेदख़ली का नोटिस मिला था और मौखिक वादे किए गए थे. यह भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम , 2013 (लारा) के नियमों का उल्लंघन है. इस अधिनियम के तहत अनिवार्य है: "भूमि अधिग्रहण के मामलों की घोषणा आधिकारिक राजपत्र, स्थानीय समाचार पत्र और संबंधित सरकारी वेबसाइटों पर स्थानीय भाषा में की जानी चाहिए." सूचना दिए जाने के बाद, इस मक़सद से बुलाई गई बैठक में ग्राम सभा को सूचित किया जाना चाहिए.
“सरकार ने अधिनियम में बताए गए किसी भी तरीक़े से लोगों को सूचित नहीं किया था. हमने उनसे कई बार पूछा है, 'अधिनियम की किस धारा के तहत ऐसा किया जा रहा है',” सामाजिक कार्यकर्ता अमित भटनागर कहते हैं. इस साल जून महीने में, उन्होंने ग्राम सभा के हस्ताक्षर के सबूत देखने की मांग उठाते हुए ज़िला कलेक्टर के कार्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन किया था. तब प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया गया था.
आम आदमी पार्टी के सदस्य अमित भटनागर सवाल करते हैं, "पहले हमें बताएं कि आपने [सरकार ने] ग्राम सभा की कौन सी बैठक बुलाई थी, क्योंकि बैठक तो आपने की नहीं थी. दूसरी बात, क़ानून के मुताबिक़ इस योजना के लिए लोगों की सहमति लेनी ज़रूरी है, जो उन्होंने ली नहीं. और तीसरी व सबसे अहम बात, अगर ग्रामीण अपनी ज़मीन छोड़कर जाने को तैयार हैं, तो आप उन्हें भेज कहां रहे हैं? आपने इस संबंध में कुछ भी नहीं बताया, न कोई नोटिस या सूचना दी.”
न सिर्फ़ लारा क़ानून के नियमों की उपेक्षा की गई, बल्कि सरकारी अधिकारियों ने सार्वजनिक मंचों से वादे भी किए. ढोडन निवासी गुरुदेव मिश्रा का कहना है कि हर कोई ठगा महसूस कर रहा है. “अधिकारियों ने कहा था, 'हम आपको ज़मीन के बदले ज़मीन देंगे, घर के बदले पक्का मकान देंगे, आपको रोज़गार मिलेगा.' आपको अपनी बिटिया की तरह विदा किया जाएगा’.”
गुरुदेव गांव के सरपंच रह चुके हैं, और एक अनौपचारिक बैठक में पारी से बात कर रहे हैं. वह कहते हैं, “हम सिर्फ़ वही मांग रहे हैं जो सरकार ने वादा किया था, जो छतरपुर के ज़िला कलेक्टर, मुख्यमंत्री, केबीआरएलपी परियोजना के अधिकारियों ने यहां आकर हमसे वादा किया था. लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया."
पीटीआर के पूर्वी हिस्से में स्थित गहदरा में हालात कुछ अलग नहीं हैं. “पन्ना के कलेक्टर ने कहा था कि हम आपको फिर से उसी तरह बसाएंगे जैसे पहले बसे हुए थे. सब आपकी सुविधा के हिसाब से किया जाएगा. हम आपके लिए गांव को फिर से खड़ा करेंगे,” अस्सी साल के परोहर कहते हैं. "लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया और अब हमें यहां से जाने के लिए कहा जा रहा है."
मुआवज़े की राशि भी स्पष्ट नहीं है और कई अलग-अलग आंकड़े बताए जाते हैं - 18 वर्ष से ज़्यादा आयु के हर पुरुष को 12 से 20 लाख रुपए दिए जाने की बात की जाती है. लोग पूछते हैं: “क्या यह राशि प्रति व्यक्ति के हिसाब से मिलेगी या एक परिवार को दी जाएगी? जिन घरों की मुखिया महिलाएं हैं उनका क्या होगा? और क्या वे हमें ज़मीन का मुआवज़ा अलग से देंगे? हमारे जानवरों का क्या होगा? हमें कुछ भी साफ़-साफ़ नहीं बताया गया है.”
सरकार के कामों में झूठ और अस्पष्टता होने के चलते, पारी ने जिस भी गांव का दौरा किया वहां किसी को नहीं पता था कि उन्हें कब और कहां जाना है या घर, ज़मीन, मवेशियों और पेड़ों के लिए कितना मुआवज़ा मिलेगा या उसकी दर क्या होगी. सभी 22 गांवों के लोग असमंजस की स्थिति में जीने को मजबूर हैं.
ढोडन गांव में, जो बांध बनने के बाद डूब जाएगा, अपने घर के बाहर बैठे कैलाश आदिवासी काफ़ी चिंतित नज़र आते हैं. वह अपनी ज़मीन के मालिकाना हक़ को साबित करने के लिए, पिछली रसीदें और आधिकारिक काग़ज़ात दिखाते हैं. “वे कहते हैं कि मेरे पास पट्टा [मालिकाना हक़ से जुड़ा आधिकारिक दस्तावेज़] नहीं है. लेकिन ये रसीद मेरे पास हैं. मेरे पिता, उनके पिता, और उनके पिता...सभी के पास यह ज़मीन थी. मेरे पास सारी रसीदें हैं.”
वन अधिकार अधिनियम, 2006 के मुताबिक़, आदिवासी या जंगल में रहने वाली जनजातियों को "किसी भी स्थानीय प्राधिकरण या राज्य सरकार द्वारा जारी किए गए वन भूमि के पट्टों या अनुदान का मालिकाना हक़ मिलने की अनुमति है."
इसके बावजूद, कैलाश को मुआवज़ा देने से इंकार किया जा रहा है, क्योंकि उनके काग़ज़ 'पूरे’ नहीं हैं. “अब हमें नहीं समझ आ रहा कि इस ज़मीन और घर पर हमारा हक़ है या नहीं. हमें नहीं बताया जा रहा कि मुआवज़ा मिलेगा या नहीं. वे हमें भगाना चाहते हैं. कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.”
बांध बनने के बाद 14 गांव डूबने वाले हैं और आठ अन्य गांवों की ज़मीन को सरकार ने मुआवज़े के रूप में वन विभाग को सौंप दिया है
पड़ोस के गांव पालकोहा के जुगल आदिवासी अकेले में बात करना पसंद करते हैं. गांव की भीड़भाड़ से दूर जाते हुए वह बताते हैं, “पटवारी कहता है कि हमारे पास आपके पट्टे का कोई रिकॉर्ड नहीं है. आधे लोगों को कुछ मुआवज़ा मिला है, और बाक़ियों को कुछ नहीं मिला." उन्हें डर है कि अगर वह हर साल की तरह काम की तलाश में पलायन करते हैं, तो कोई भी मुआवज़ा पाने से चूक जाएंगे और उनके सातों बच्चों का भविष्य ख़तरे में पड़ जाएगा.
“जब छोटा था, तो मैं अपनी ज़मीन पर काम करता था और हम जंगल में जाते थे,” वह याद करते हैं. लेकिन पिछले 25 सालों में, टाइगर रिज़र्व बन चुके जंगल में घुसने पर पाबंदी लग जाने के कारण उनके जैसे आदिवासियों के पास दिहाड़ी मज़दूरी के लिए पलायन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.
विस्थापित होने के कगार पर खड़े गांवों की महिलाएं अपना उचित मुआवज़ा पाने के लिए अड़ी हुई हैं. “[प्रधानमंत्री] मोदी हमेशा कहते रहते हैं कि 'महिलाओं के लिए यह योजना लाए हैं...महिलाओं के लिए वह योजना लाए हैं.' हमें वो सब नहीं चाहिए. हमें अपना हक़ चाहिए,” पालकोहा की किसान सुन्नी बाई कहती हैं, जो रविदास (दलित) समुदाय से ताल्लुक़ रखती हैं.
“केवल पुरुषों को ही मुआवज़ा क्यों मिल रहा है और महिलाओं को क्यों कुछ नहीं मिल रहा. सरकार ने यह क़ानून किस आधार पर बनाया है?” एक बेटे और दो बेटियों की मां सुन्नी बाई पूछती हैं. “अगर कोई महिला और उसका पति अलग हो जाएं, तो फिर वह अपने बच्चों और ख़ुद को कैसे पालेगी? क़ानून में इन चीज़ों का ध्यान रखना चाहिए...आख़िर, वह भी तो वोट देती है.”
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स्थानीय लोग पारी से कहते हैं, "जल, जीवन, जंगल और जानवरों के लिए हम लड़ रहे हैं."
ढोडन गांव की निवासी गुलाब बाई हमें अपने घर का बड़ा आंगन दिखाती हैं और कहती हैं कि घर के मुआवज़े में आंगन और रसोई को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि वे रहने के लिए बने कमरों की 'दीवारों' के बाहर आते हैं. लेकिन 60 साल की यह बुज़ुर्ग पीछे हटने को राज़ी नहीं हैं. “मेरे जैसे आदिवासियों को शासन से कभी कुछ नहीं मिला है. मैं यहां से लेकर भोपाल तक लड़ूंगी. मेरे पास ताक़त है. मैं पहले भी लड़ चुकी हूं. मुझे कोई डर नहीं है. मैं आंदोलन के लिए तैयार हूं.”
साल 2017 में, केबीआरएलपी के ख़िलाफ़ ग्राम सभाओं के साथ छोटे पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए थे. इसके बाद, आंदोलन ने तेज़ी पकड़ी और 31 जनवरी, 2021 को 300 से अधिक लोग लारा क़ानून के उल्लंघन के ख़िलाफ़ छतरपुर ज़िला कलेक्टर के कार्यालय पर विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हुए. साल 2023 में, गणतंत्र दिवस के मौक़े पर, जल सत्याग्रह में पीटीआर के 14 गांवों के हज़ारों लोगों ने अपने संवैधानिक अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ आवाज उठाई.
स्थानीय लोगों का कहना है कि उनके ग़ुस्से की आंच प्रधानमंत्री तक पहुंच गई है, जिन्होंने पिछले साल बांध के उद्घाटन के लिए ढोडन न आने का फ़ैसला किया था, लेकिन संवाददाता इस दावे की पुष्टि नहीं करतीं.
परियोजना से जुड़े विवादों और विरोध प्रदर्शनों के बीच, अगस्त 2023 में शुरू हुई टेंडर की प्रक्रिया पर असर पड़ा और कोई भी टेंडर लेने के लिए आगे नहीं आया. इसलिए, इसकी तारीख़ छह महीने बढ़ा दी गई.
सरकार के कामों में झूठ और अस्पष्टता होने के चलते, पारी ने जिस भी गांव का दौरा किया वहां किसी को नहीं पता था कि उन्हें कब और कहां जाना है या घर, ज़मीन, मवेशियों और पेड़ों के लिए कितना मुआवज़ा मिलेगा, कब मिलेगा या उसकी दर क्या होगी
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केलकर कहते हैं, "मध्य भारत में ज़्यादा लोग जलवायु परिवर्तन की बात नहीं करते हैं, लेकिन हम अत्यधिक बारिश के साथ-साथ सूखे में भी तेज़ी से बढ़ोतरी देख रहे हैं. इनसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का संकेत मिलता है. इसके कारण मध्य भारत की अधिकांश नदियों में तेज़ प्रवाह देखा जा रहा है, लेकिन यह टिकता नहीं है. इनसे अतिरिक्त पानी होने की धारणा को बल मिल सकता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से जुड़े अनुमानों के हिसाब से यह स्पष्ट है कि इस तरह के प्रवाह अल्पकालिक हैं.”
केलकर चेतावनी देते हैं कि अगर इन अल्पकालिक बदलावों को नदियों को जोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो भविष्य में इस इलाक़े में और ज़्यादा गंभीर सूखा पड़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.
ठक्कर भी चेताते हैं कि प्राकृतिक वन के बड़े हिस्से के नष्ट होने से जल विज्ञान संबंधी प्रभाव बड़ी ग़लती के रूप में सामने आएंगे. “सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की रिपोर्ट ने इस पर रौशनी डाली है, लेकिन उस रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार तक नहीं किया.”
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मुंबई द्वारा साल 2023 में नेचर कम्युनिकेशन में नदियों को जोड़ने के मसले पर प्रकाशित एक शोधपत्र भी ख़तरे की ओर आगाह करता है: “स्थानांतरित जल द्वारा सिंचाई में बढ़ोतरी करने से भारत में पहले से ही जलसंकट से जूझते इलाक़ों में सितंबर में औसत वर्षा 12% तक कम हो जाती है... मानसून के बाद सितंबर में कम बारिश होने के कारण नदियां सूख सकती हैं, जिससे पूरे देश में पानी का संकट बढ़ सकता है और नदियों को जोड़ने का कोई फ़ायदा नहीं रह जाएगा.''
हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि राष्ट्रीय जल विकास अधिकरण (एनडब्ल्यूडीए), जिसके तत्वावधान में यह परियोजना चल रही है, ने जो भी डेटा इस्तेमाल किया है उसे राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए वैज्ञानिकों के साथ साझा नहीं किया जा रहा है.
साल 2015 में, जब बांध बनने की संभावना वास्तविक रूप लेने लगी, तो ठक्कर और एसएएनडीआरपी के अन्य लोगों ने पर्यावरण मूल्यांकन समिति (ईएसी) को कई पत्र लिखे थे. 'ग़लतियों से भरा केन-बेतवा ईआईए & सार्वजनिक सुनवाई में गड़बड़ियां' शीर्षक के एक पत्र में लिखा गया था, “परियोजना का पर्यावरण प्रभाव आकलन मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण और अधूरा है और इसकी सार्वजनिक सुनवाई में कई तरह के उल्लंघन किए गए हैं. ऐसे आधे-अधूरे अध्ययन के साथ अंजाम दी रही परियोजना को मंज़ूरी देना न केवल ग़लत होगा, बल्कि क़ानूनी रूप से भी इसका समर्थन नहीं किया जा सकता.''
इस बीच 15-20 लाख से ज़्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं. विस्थापन की तलवार लटक रही है और मुआवज़े को लेकर कुछ भी साफ़ नहीं है. खेती बंद हो गई है. दिहाड़ी मज़दूरी के लिए पलायन करने वालों को डर लगा रहता है कि कहीं उन्हें मुआवज़े से बाहर न कर दिया जाए.
सुन्नी बाई संक्षेप में सबकुछ बयान कर देती हैं: “हम सबकुछ खो बैठे हैं. वे हमसे छीनकर ले जा रहे हैं. उन्हें हमारी मदद करनी चाहिए. इसके बजाय वे कहते हैं, 'इतना मुआवज़ा मिलेगा, फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर करो, पैसे लो और जाओ'.”
अनुवाद: देवेश