“पटना में पतंगबाजी के मुकाबला हफ्ता भर चलत रहे. लखनऊ, दिल्ली आउर हैदराबाद से पतंग उड़ावे खातिर लोग आवे. एगो उत्सव के माहौल रहत रहे,” सईद फैजान रजा के कहनाम बा. गंगा किनारे टहलत-टहलत ऊ बतावत जात रहस. सोझे नदी में खुलल आसमान लउकत रहे, जहंवा कबो हजारन पतंग (तिलंगी) उड़ावल जात रहे.
पटना में गंगा किनारे पड़े वाला दुलीघाट के पुरान बशिंदा, रजा के कहनाम बा पतंगबाजी में कुलीन वर्ग से लेके तवायफ ले, समाज के हर तबका पतंग उड़ावल, पेंच लड़ावल पसंद करत रहे. ऊ एक के बाद एक, कइएक नाम गिनावे लगलन- “बिस्मिल्लाह जान (तवायफ) एकर सरपरस्त रहस. मीर अली जामिन आ मीर कैफियत अली जइसन लोग पतंग-साजी (गुड्डी बनावे के काम) आउर पतंग-बाजी (गुड्डी उड़ावे के खेल) के उस्ताद (मास्टर) में से रहे.”
पटना के गुरहट्टा आउर अशोक राजपथ पर ख्वाजाकलां के बीच के इलाका में कबो पतंग ब्यापारी के भरमार रहे. ओह लोग के दोकान में सामने रखल रंग-बिरंग के पतंग लोग के लुभावत रहे. पटना में बनल तिलंगी के मांझा (तागा) आम मांझा से मोट रहत रहे. ई रूई आउर रेसम मिलाके बनत रहे. एकरा नख भी बोलल जाला,” ऊ इहो बतइलन.
मासिक पत्रिका बल्लू के सन् 1986 के एगो प्रति के हिसाब से पटना पतंग खातिर मशहूर रहे. “जेकरा आपन भविष्य बनावे के जल्दी रहत रहे, ओकरा एह जमीन पर पटना में तिलंगी बनावे के काम में हाथ आजमावे के चाहीं. बजार में हर दसमा दोकान पतंग के बा. रउआ लागी के पूरा शहरे पतंग उड़ावेला. हीरा के आकार के पतंग चिरई के पांख जेतना हलका होखेला. एकर पूंछ ना होखे आउर एकरा बहुते हलका रेसम के तागा से उड़ावल जाला.”
आज सौ बरिस से जादे बीत गइल. केतना कुछ बदल गइल, बाकिर पटना के पतंग के रूप-रंग ना बदलल. उहे शोख, चंचल आउर सुंदर पतंग- ई पतंग बिना पूंछ वाला पतंग बा. “दुम तो कुत्ते की न होती है जी, तिलंगी की थोड़े (दुम त कुकुर के होखेला नू, तिलंगी के थोड़े),” तिलंगी बनावे वाली शबीना हंसत कहली. सत्तर पार कर चुकल शबीना के नजर अब कमजोर पड़े लागल बा. एहि से ऊ अब पतंग ना बनावस.
पटना आजो पतंग बेचे आउर बनावे के गढ़ बा. पतंग आउर एकरा से संबंधित सामान सभ इहंई से बिहार के कोना-कोना आउर पड़ोस के राज्य सभ में जाला. इहंवा के परेती (लटाई) आउर तिलंगी दुनो सिलिगुड़ी, कोलकाता, मालदा, रांची, हजारीबाग जौनपुर, काठमांडू, उऩ्नाव, झांसी, भोपाल आउर इहंवा ले कि पुणे आउर नागपुर भी भेजल जाला.
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“तिलंगी बनाने के लिए भी टाइम चाहिए और उड़ाने के लिए भी (तिलंगी बनावे खातिर टाइम चाहीं आउर उड़ावे खातिर भी),” आपन स्वर्गीय बाऊजी के हवाला देत अशोक शर्मा कहलन. “आज शहर में लोग लागे समये त दूभर हो गइल बा.”
शर्मा तेसर पीढ़ी के पतंग बनावे आ बेचे वाला बाड़न. माटी के देवाल आउर माटिए के छत वाला उनकर सौ बरिस पुरान दोकान पटना शहर के बीच में पड़ेला. दोकान बिहार के सबले पुरान चर्च- अशोक राजपथ पर पादरी के हवेली से कोई 100 मीटर के दूरी पर होई. ऊ परेती (लटाई, पतंग से जुड़ल तागा थाम के रखे वाला बांस के रील) बनावे वाला उस्ताद में से एगो बाड़न. पतंग खातिर मांझा चाहे नख अब चीन से आवेला, आउर कारखाना में बनल रहेला. एहि चलते ई पहिले से जादे पातर आउर हलका रहेला.
सोझे बइठल शर्माजी के हाथ बाझल बा. उनका एक घंटा में 150 लटाई बनावे के ऑर्डर पूरा करे के बा.
लटाई बनावल- सखत लकड़ी के पट्टी मोड़े, बांधे के काम पतंग बनावे से अलग बा. एकरा सब लोग ना बना सके. शर्मा जी आपन मास्टरी खातिर जानल जालन. दोसर पतंग कारीगर के उलट ऊ पतंग, चाहे रील बनावे के काम केहू दोसरा के ना देस, अपने बनावेलन, आउर अपने बेचल पसंद करेलन.
अन्हार में डूबल छोट कमरा पतंग आउर लटाई से भरल बा. बस पाछू के एगो छोट छेद से अंजोर आ रहल बा. उहंवा शर्मा जी के 30 बरिस के पोता कौटिल्य कुमार शर्मा बइठ के हिसाब-किताब देख रहल बाड़न. अइसे त ई काम परिवार में कइएक पीढ़ी से होखत आवत बा, शर्मी जी के कहनाम बा कि अब एह काम में उनकर बेटा आ पोता लोग के कवनो दिलचस्पी नइखे रह गइल.
बारह बरिस के रहस, तबे से ऊ पतंग आउर लटाई बनावे के सीखे लगलन. “दुकान पर आके बैठ गए, फिर कैसा बचपन कैसी जवानी? सब यहीं बीत गया. तिलंगी बनाई बहुत मगर उड़ाई नहीं (दोकान पर आके बइठ गइनी. फेरु कइसन लरिकाई कइसन जवानी. सभ इहंई बीत गइल. तिलंगी बनइऩी बहुत, मगर उड़इनी एक्को ना),” तिलंगी बनावे में माहिर उस्ताद कहलन.
“पतंग बनावे के काम शहर के धनाढ्य आउर कुलीन लोग के आसरे होखत रहे. ओह लोग के आर्शीवाद पतंग बनावे वाला खातिर बरदान रहे,” अशोक शर्मा कहलन. “पटना में महाशिवरात्रि तक पतंगबाजी खूब होखेला. बाकिर आजकल त संक्रांति (फसल कटाई पर्व जब पतंगबाजी के परंपरा बा) पर कवनो ग्राहक मिलल मुस्किल हो गइल बा.”
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पतंग मोटा-मोटी समचतुर्भुज, चाहे हीरा के आकार के होखेला. दसकन पहिले एकरा कागज से बनावल जात रहे. बाकिर अब पतंग के कारोबार पर पिलास्टिक छा गइल बा. दामो आधा रह गइल. कागज के पतंग आसानी से फाट जाला आउर एकर बनाई महंगा पड़ेला काहे कि कागज संभारल मुस्किल होखेला. एगो मामूली कागज के पतंग 5 रुपइया, त पिलास्टिक के 3 रुपइया में बिकाला.
देखे में ई जादे करके 12 x12 आ 10 x 10 इंची के होखेला, बाकिर 18 x 18 आ 20 x 20 इंची के पतंग भी बनेला. जइसे-जइसे साइज बढ़ेला, ओइसे-ओइसे दामो बढ़ेला. कवनो कार्टून, चाहे सिनेमा के हस्ती, हीरो-हीरोइन, चाहे डायलॉग वाला पतंग 25 रुपइया में बिकाला. आउर बिहार के बाहिर से आवे वाला आउर स्पेशल डिजाइन वाला पतंग के दाम 80 से 100 रुपइया पड़ जाला. अब त तीली आउर खड्डा, आउर लेई (भात से बनल गोंद) के क्वालिटी भी सुधर रहल बा.
संजय जयसवाल के पतंग बनावे के कारखाना में लकड़ी काटे वाला मसीन आउर कइएक ठो बास, पतंग बनावे वाला सामग्री, 8 वर्ग फीट वाला कमरा में हर तरफ बिखरल बा. एह कमरा में एक्को खिड़कियो नइखे.
मन्नान नाम से जानल जाए वाला संजय के कहनाम बा, “हमनी के वर्कशॉप के नाम नइखे धइल.” उनका एह बात से कवनो दिक्कत नइखे काहेकि संभवत: उनकरे इहंवा से शहर भर में पतंग भेजल जाला. “बेनाम है, गुमनाम थोड़े है (हमनी बेनाम बानी, गुमनाम थोड़ही बानी),” अइसन बोलके ऊ उहंवा मौजूद आपन मजूर सभ संगे हंसे लगलन.
मोहल्ला दीवान के गुरहट्टा इलाका में मन्नान के करखाना जहंवा बा ऊ एगो खुलल इलाका बा. एह में बांस के खंभा के सहारे ऐस्बेस्टस के शेड लागल बा. बगले में एगो छोट कमरा बा. उनका इहंवा कोई 11 लोग काम करेला. एकरा अलावे कुछ ऊपर के काम मेहरारू लोग के भी देवल जाला. “ऊ लोग घर से जरूरत के हिसाब से काम पूरा करके देवेला.”
पचपन बरिस के मोहम्मद शमीम इहंवा के सबले अनुभवी कारीगर बाड़न. पटना के छोटी बजार से आवे वाला शमीम बतइलन कि ऊ पतंग बनावे के लुर कोलकाता के एगो उस्ताद (मास्टर) से सिखलन. ऊ कोलकाता, इलाहाबाद, मुंबई आ बनारस में काम कर चुकल बाड़न. आउर अब स्थायी काम के तलाश में एह शहर पहुंचलन.
तीली सटावत बतइलन, इहंवा ऊ 22 बरिस से बाड़न. उनकरा बांस के तीली मोड़े आउर ओकरा लेई संगे चिपकावे में मास्टर मानल जाला. शमीम एक दिन में कोई 1,500 पीस तइयार कर लेवेलन, बाकिर ई त रेस बा.
“कोशिश होता है कि दिन का 200 रुपया तक कमा लें तो महीने का 6,000 बन जाएगा. (इहे सोचिला कि दिन के 200 रुपइया के कमाई हो जाव, त महीना के 6,000 हो जाई),” शमीम कहलन. 1,500 पतंग खातिर तीली चिपकावे के काम करेलन आउर फेरु सांझ ले एकरा में टेप लगा के ठीक करेलन. ऊ इहो बतइलन, “इस हिसाब से 200-210 रुपए बन जाते हैं (एह तरीका से रोज के 200 से 210 रुपइया बन जाला).”
पारी अबकी बरिस मई में उहंवा गइल, त गरमी पहिलहीं 40 डिग्री पार रहे. एतना गरमियो में पंखा बाहर रखल रहे कि कहीं पतंग बनावे वाला पिलास्टिक शीट उड़े ना लागे.
पिलास्टिक के छोट-छोट चौकुठ आकार में काटत-काटत सुनील कुमार मिश्रा रूमाल से आपन पसीना पोंछे लगलन. ऊ हमनी के बतइलन, “गुड्डी बनावे के काम से परिवार के गुजारा ना चल सके. इहंवा केहू 10,000 रुपइया महीना से जादे ना कमा पावे.”
हाजीगंज मोहल्ला के रहे वाला सुनील लरिकाइए से गुड्डी बनत देखके बड़ भइल बाड़न. ई इलाका कबो शहर में पतंग बनावे खातिर मशहूर रहे. लरिकाई में सिखल काम कोविड-19 घरिया फूल के धंधा चौपट भइला पर काम आइल. ऊ अब पतंग बनावे के काम करे लगलन.
अइसे त सुनील नियमित मजूर बाड़न, बाकिर उनको महीना पर ना, बाकिर पतंग के गिनती के हिसाब से पइसा मिलेला. ऊ कहेलन, “नौ बजे भोर से आठ बजे रात ले सभे कोई इहे कोसिस में रहेला कि उनकर हजार पीस बन जाव.”
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मुस्लिम मेहरारू लोग बड़ तादाद में घर बइठल पतंग बनावे के काम करेला. केहू पूरा पतंग बनावेला, त केहू ओकर कवनो हिस्सा तइयार करेला. आयशा परवीन आपन चार सदस्य के परिवार पाले खातिर गुड्डी बनावे के सिखली. पछिला 16 बरिस से आयशा आपन दू लरिकन आउर घरवाला संगे एक कमरा-रसोई वाला घर में गुड्डी बना रहल बाड़ी. उनकरा इयाद आवत बा, “कुछ समय पहिले ले हम एक हफ्ता में 9,000 से जादे गुड्डी तइयार कर लेत रहीं. अब त 2,000 गुड्डी के ऑर्डर मिलल भी बड़ बात बा.”
ऊ कहेली, “एगो पतंग सात हिस्सा में बनेला, आउर हर हिस्सा के कारीगर अलग होखेला.” एगो कारीगर पिलास्टिक शीट के जरूरत के हिसाब से काटी. एहि बीच दू ठो दोसर कारीगर बांस के काट के छोट-छोट तीली आउर खड्डा तइयार करी. तीली लमहर आउर पातर, खड्डा तनी मोट आउर छोट होखेला. दोसर कारीगर लोग खड्डा के चौकुठ काटल पिलास्टिक पर साटी आउर आगे भेज दी. उहंवा एगो कारीगर एकरा पर मोड़ल तीली साट दीही.
आखिर में दू ठो कारीगर लोग छेद बनाई आउर ओह में कन्ना बांधी. बांधे से पहिले कारीगर एकरा जांची आउर साटे खातिर लेई लगाई.
पिलास्टिक के शीट काटे वाला के 1,000 पतंग खातिर 80 रुपइया मिलेला. उहंई बांस काटे वाला के 100. आगे के काम करे वाला के एतने पतंग खातिर 50 रुपइया. जदि मजूर लोग बिना बीच में सुस्तइले, मिल के रोज 9 बजे भोर से 12 घंटा काम करे, त 1,000 पतंग बन सकेला.
आयशा बतावत बाड़ी, “सात गो लोग मिलके जे पतंग तइयार करेला, ऊ एगो पतंग बजार में दू से तीन रुपइया में बिका जाला.” 1,000 पतंग बनावे में 410 रुपइया खरचा आवेला. आउर पइसा सात लोग में बंटाला. ऊ कहेली, “हम रुखसाना (उनकर लइकी) के पतंग बनावे के धंधा में ना आवे देवे के चाहीं.”
बाकिर दोसर मेहरारू कारीगर तरहा, उहो घर से कमाई करके खुस बाड़ी. बाकिर उनकर कमाई बहुते कम होखे के चिंता बा. “बाकिर पहिले काम त नियमित आवत रहे.” आयशा के 2,000 पतंग में खड्डा साटे आउर कन्ना बांधे खातिर 180 रुपइया मिलेला. 100 गुड्डी में ई दुनो काम करे में उनका 4 से 5 घंटा लाग जाला.
तमन्ना दीवान मोहल्ला के उहे इलाका में रहेली आउर गुड्डी (पतंग) बनावेली. पचीस बरिस के तमन्ना कहेली, “ई काम जादे करके मेहरारुए लोग करेला काहेकि पतंग उद्योग में सबले कम मजूरी एहि काम में बा. खड्डा चाहे तीली चिपकावल कवनो बड़ बात नइखे. बाकिर 1,000 ठो खड्डा खातिर एगो मेहरारू के 50, त 1,00 तीली खातिर एगो मरद के 100 रुपइया मिलेला.”
पटना आजो पतंग बनाई आ सप्लाई के गढ़ बा. इहंवा के पतंग आउर एकरा से जुड़ल समान पूरा बिहार आउर सिलिगुड़ी, कोलकाता, मालदा, काठमांडू, रांची, झांसी, भोपाल, पुणे आ नागपुर जइसन पड़ोसी राज्य में भेजल जाला
आयशा के 17 बरिस के रूखसाना खड्डा मास्टर बाड़ी. ऊ बांस के पातर छड़ी के फिसले वाला पातर पिलास्टिक पर साटेली. ग्यारहवीं के कॉमर्स स्टूडेंट पढ़ाई के बीच में आपन माई के पतंग बनावे में मदद करेली.
पतंग बनावे के लुर ऊ आपन माई से 12 बरिस के उमिर में सिखली. आयशा कहेली, “छोट रहस त पतंग संगे खेलस आउर एह में अच्छा रहस.” ऊ अब लइकी के पतंग उड़ावे ना देवे के चाहस, काहेकि कि ई मरद लोग के खेल बा. मोहल्ला दीवान के शीशमहल इलाका में आपन किराया के कमरा के घुसे वाला दरवाजा लगे आयशा तुरंते बनल पतंग सभ संभार के रखत बाड़ी. ऊ लोग ठिकेदार शफीक के बाट जोहत रहे. ऊ अइहन आउर सभे पतंग ले जइहन.
आयशा मोहल्ला दीवान के शीशमहल इलाका के आपन किराया के घर के घुसे वाला दरवाजा लगे नया बनल पतंग सभ सजा रहल बाड़ी. रुखसाना पतंग के काम पूरा करे में लागल बाड़ी. ऊ लोग ठिकेदार शफीक के आवे के इंतिजारी ताकत बा.
आयशा कहेली, “हमनी के 2,000 पतंग के ऑर्डर मिलल रहे. बाकिर हम आपन लइकी के बतावे के भुला गइनी आउर ऊ बचल सामान से 300 आउर पतंग बना लेली.”
“चिंता के कवनो बात नइखे. एकरा अगिला ऑर्डर में खपा लेहल जाई,” उनकर लइकी रूखसाना बतकही के बीच में टोकत कहली.
“जदि दोसर ऑर्डर आई,” आयशा कहली.
कहानी मृणालिनी मुखर्जी फाउंडेशन (एमएमएफ) फेलोशिप के मदद से लिखल गइल बा.
अनुवाद: स्वर्ण कांता