भारत में हालिया दशक में स्कूलों में दाख़िला लेने वाले बच्चों की संख्या 30 करोड़ बढ़ी है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता कैसी है? हर साल जनवरी में, एक नागरिक रिपोर्ट कार्ड (एएसईआर या शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट) प्रस्तुत किया जाता है, जो इस बात पर गौर करता है कि बच्चे स्कूल में बच्चे क्या सीख रहे हैं - क्या वे पढ़ सकते हैं, और मूल पाठ का मतलब समझ पाते हैं, और क्या वे अंकों की पहचान कर पाते हैं?
रिपोर्ट के गुणात्मक नतीजे सरकारी आंकड़ों के लिए किसी मारक औषधि की तरह हैं. एएसईआर सभी स्कूली छात्रों में बुनियादी शिक्षा के स्तर की परख करता है, और पता लगाता है कि क्या वे कक्षा 2 के पाठ पढ़ सकते हैं और गणित के सवाल हल कर सकते हैं. साल 2008 के सर्वे में पाया गया था कि 44 प्रतिशत स्कूली बच्चे कक्षा 2 के स्तर के गणित के सवाल नहीं हल कर पाते हैं, और उन्हें घटाना या भाग देना नहीं आता.
ग़ैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ के नेतृत्व में तीन महीने तक चलने वाले इस सर्वेक्षण में 30,000 से भी अधिक वॉलंटियर एक साथ काम करते हैं, जिनमें छात्रों और वैज्ञानिकों से लेकर, निवेश बैंकर और अचार बनाने वाले लोग भी शामिल रहे हैं. ये वॉलंटियर भारत के क़स्बों और गांवों में जाकर बच्चों की परख करते हैं और स्कूलों के बुनियादी ढांचे का परीक्षण करते हैं. इस साल 3 लाख घरों के लगभग 7 लाख बच्चे इस सर्वेक्षण का हिस्सा बने थे.
जब ‘प्रथम’ के प्रशिक्षक स्वामी अलोने ने नौ वर्षीय गीता ठाकुर का इम्तिहान लिया, तो संख्याओं पर एक नज़र डालते ही कक्षा 4 की यह छात्रा रोने लगी. इसके बाद, 39 में से 27 को घटाने में उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा, और अंततः उसने उत्तर दिया - 116. इसका एक कारण हो सकता है कि उसके स्कूल में सिर्फ़ एक ही शिक्षक पढ़ाते हैं, जबकि नियमानुसार चार शिक्षकों का होना अनिवार्य है.
छतीसगढ़ राज्य ने पिछले एक दशक में शिक्षकों की पूर्णकालिक नौकरियां लगभग ख़त्म कर दीं, और सरकारी स्कूलों में कम वेतन पर अनुबंधित रूप से रखे गए अयोग्य सहायक शिक्षकों पर शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से निर्भर बना दिया है. क़रीब 21 वर्षीय नवन कुमार ने स्नातक किया है, और संविदा शिक्षक बनने के लिए आवेदन किया है. जब सर्वेक्षकों ने उनकी परीक्षा ली, तो वह 919 में 9 से भाग नहीं दे पाए. अलोने कहते हैं: “हमने कई गांवों में यह देखा कि शिक्षक ख़ुद भी गणित के आसान सवाल हल नहीं कर पाते, और इसलिए बच्चे भी ग़लत सीखते हैं.”
भारत को विश्व में सबसे ज़्यादा निरक्षरों का देश कहा जाता है, और यहां के 30 करोड़ से भी ज़्यादा लोग न तो पढ़-लिख सकते हैं, और न ही संख्याओं की पहचान या उसे जोड़-घटा सकते हैं. इस साल, एएसईआर वयस्क महिलाओं में भी साक्षरता के स्तर की परख कर रहा है, ताकि यह समझा जा सके कि क्या मां और बच्चे की शिक्षा के बीच कोई परस्पर संबंध है. धान की खेती करने वाली क़रीब 55 वर्षीय हीरामती ठाकुर का स्कूल बचपन में छुड़ा दिया गया था, उनकी शादी करवाने के लिए. उनके बच्चे वयस्क उम्र के हैं, और उनकी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है. इस साल राष्ट्रीय प्रौढ़ साक्षरता मिशन के तहत दाख़िला लेने के बाद, हीरामती अब किताब के पाठ रुक-रुक कर पढ़ लेती हैं. वह कहती हैं, “अगर कोई ग़रीब आदमी आज पढ़-लिख नहीं सकता, तो उसकी ज़िंदगी कुली की ज़िंदगी तक ही सिमट कर रह जाती है. जब भी मेरे पास खाली समय होता है, मैं किताब लेकर पढ़ने बैठ जाती हूं.” वह मुस्कुराती हैं और सर्वेक्षकों से पूछती हैं: “क्या मुझे अब नौकरी मिल सकती है?”
तीन कमरे की इमारत में गांव का स्कूल चलता है और यहां कक्षा 1-7 तक की पढ़ाई होती है. स्कूल में पीने के पानी या शौचालय की व्यवस्था नहीं है. (आदिवासी कल्याण विभाग के एक पदाधिकारी का कहना था, “उसका प्रपोज़ल चल रहा है”). सोमवार की इस सुबह स्कूल में कोई शिक्षक भी मौजूद नहीं था.
राज्य भर में, हज़ारों संविदा शिक्षक अपने वर्तमान वेतन में 4,000-6,000 रुपए की बढ़ोतरी की मांग के साथ हड़ताल पर हैं. ऐसे में 25 वर्षीय माधव जाधव और सत्य प्रकाश जैसे बीएड के छात्र शिक्षकों की जगह बच्चों को हफ़्ते में तीन दिन पढ़ा रहे हैं. एक छोटे से कमरे में कक्षा 1-3 के बच्चों को साथ पढ़ाया जा रहा था. जाधव का कहना था, “बच्चों की शिक्षा का स्तर काफ़ी निचले पायदान पर है, और वे सामान्य से सवाल भी हल नहीं कर पाते हैं. इन पर बहुत ध्यान देने की ज़रूरत है.”
स्टोरी की लेखक ने छतीसगढ़ की राजधानी रायपुर से क़रीब 290 किलोमीटर दूर स्थित बस्तर के परचनपाल गांव में चल रहे सर्वेक्षण के दौरान, भारत के सरकारी स्कूलों की ख़राब स्थिति जानने के लिए वहां सप्ताहांत गुज़ारा था.
अनुवादः नेहा कुलश्रेष्ठ