गीता देवी बगल में खड़ी अपनी दोस्त सकुनी को स्नेह के साथ देखते हुए कहती हैं, “हम जहां भी जाते हैं, साथ जाते हैं.”

वे दोनों पास के जंगल में साल (शोरिया रोबस्टा) के पत्ते इकट्ठा करने जाती हैं, जिससे वे दोना और पत्तल बनाती हैं और उन्हें पास के शहर डाल्टनगंज में बेचने जाती हैं, जो पलामू ज़िले में आता है.

गीता और सकुनी देवी कोपे गांव की एक छोटी सी बस्ती नदीटोला में पिछले 30 सालों से रह रही हैं. झारखंड राज्य के बहुत से ग्रामीणों की तरह गीता और सकुनी अपनी आजीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं.

जंगल में उन्हें 7 से 8 घंटे बिताने पड़ते हैं. जब उनके मवेशी चरने के बाद वापस घर लौटने को होते हैं, तभी वे भी घर लौटती हैं. दोने और पत्तलों के लिए पर्याप्त पत्तियां इकट्ठा करने में उन्हें दो दिन तक का समय लग जाता है. जंगल में समय बड़ी तेज़ी से बीत जाता है, जिसमें वे काम के बीच में थोड़ी-थोड़ी देर का विश्राम भी लेती हैं. इस दौरान वे अपने परिवार और स्थानीय घटनाओं के बारे में चर्चा करती हैं.

गीता हर रोज़ अपनी पड़ोसी के आवाज़ देने का इंतज़ार करती हैं, “निकलिहें...” थोड़े देर बाद दोनों साथ में निकलती हैं और अपने साथ सीमेंट के पुराने बोरों से बने एक बैग में पानी का बोतल, छोटी सी कुल्हाड़ी और पुराना कपड़ा साथ लेकर चलती हैं. वे हेहेगड़ा जंगल की तरफ़ बढ़ती हैं, जो झारखंड के पलामू टाइगर रिज़र्व के बफ़र जोन (मध्यवर्ती इलाक़े) में स्थित है.

वे दोनों दोस्त अलग-अलग समुदायों से ताल्लुक़ रखती हैं. गीता एक भुइयां दलित हैं और सकुनी उरांव जनजाति की हैं. जब हम उनके साथ चलने को हुए, तो गीता ने हमें हिदायत देते हुए कहा, “यहां अकेले मत आना. कभी-कभी जंगली जानवर भी यहां आते हैं. हमने यहां तेंदुओं को आते देखा है!” यहां सांप और बिच्छू का भी ख़तरा बहुत है. सकुनी बताती हैं, “कई बार हाथियों से हमारा सामना हुआ है.” पलामू टाइगर रिज़र्व में 73 तेंदुए और क़रीब 267 हाथी ( वन्यजीवों की गणना, 2021 ) हैं.

Sakuni (left) and Geeta Devi (right), residents of Kope village in Latehar district, have been friends for almost three decades. They collect sal leaves from Hehegara forest and fashion the leaves into bowls and plates which they sell in the town of Daltonganj, district headquarters of Palamau
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
Sakuni (left) and Geeta Devi (right), residents of Kope village in Latehar district, have been friends for almost three decades. They collect sal leaves from Hehegara forest and fashion the leaves into bowls and plates which they sell in the town of Daltonganj, district headquarters of Palamau
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

लातेहार ज़िले के कोपे गांव की रहने वाली सकुनी (बाएं) और गीता देवी (दाएं) की दोस्ती क़रीब तीन दशक पुरानी है. वे हेहेगड़ा जंगल से साल के पत्ते इकट्ठा करती हैं और उनसे दोने और पत्तल बनाकर पलामू ज़िले के डाल्टनगंज शहर में बेचती हैं

सर्दी की यह सुबह कोहरे की चादर में लिपटी है और गीता व सकुनी ने केवल एक पतली सी शॉल ओढ़ी हुई है. दोनों की उम्र 50 से ऊपर है. वे पहले लातेहार ज़िले के मनिका ब्लॉक में स्थित अपने घर के पास से बहकर जाने वाली औरंगा नदी को पार करती हैं. सर्दियों में पैदल ही नदी को पार किया जा सकता है, क्योंकि इस दौरान नदी में पानी बहुत कम होता है. लेकिन मानसून के दौरान नदी के उस पार जाने के लिए औरतों को गले तक पानी में डूब कर जाना पड़ता है.

एक बार किनारे पर पहुंचने के बाद, क़रीब 40 मिनट तक पैदल चलना पड़ता है. सुनसान जंगल में केवल उनके चप्पल से आने वाली टक-टक-टक की आवाज़ सुनाई पड़ती है. वे महुआ के एक बड़े से पेड़ की तरफ़ जा रही हैं, जो साल के पेड़ों से भरे इस इलाक़े में एक लैंडमार्क की तरह है.

सकुनी बताती हैं, “जंगल अब पहले की तरह नहीं रहा. पहले ये काफ़ी सघन था. हमें पहले इतनी दूर तक नहीं आना पड़ता था.” ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच के आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 और 2022 के बीच झारखंड ने 5.62 किलो हेक्टेयर वनक्षेत्र खो दिया है.

जंगल से जुड़े कुछ दशकों पहले के अपने अनुभवों को याद करते हुए सकुनी बताती हैं, “उस समय दिन का कोई भी पहर हो, जंगल में कम से कम 30-40 लोग मौजूद होते थे. अब तो ज़्यादातर मवेशी और बकरी चराने वाले व जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने वाले लोग ही यहां आते हैं.”

गीता बताती हैं कि यहां तक कि चार साल पहले तक कई औरतें इस काम में लगी हुई थीं, लेकिन इससे होने वाली आमदनी इतनी कम है कि उन्होंने ये काम छोड़ दिया. वे दोनों अपने गांव की कुछ चंद महिलाओं में से हैं जो अब भी यह काम कर रही हैं.

इसलिए भी महिलाओं ने इस काम को छोड़ना शुरू कर दिया था, क्योंकि जंगल से जलाऊ लकड़ियां इकट्ठा करना अब प्रतिबंधित है. सकुनी बताती हैं, “2020 में लॉकडाउन के दौरान यह प्रतिबंध लगाया गया.” शुरू में झारखंड सरकार ने जलाऊ लकड़ियों को इकट्ठा करने पर शुल्क लेना शुरू कर दिया था. हालांकि, बाद में सरकार ने इस फ़ैसले को बदल दिया, लेकिन गांववाले बताते हैं कि सूखी लकड़ियां बेचने के लिए उन्हें अब भी शुल्क देना पड़ता है.

In the area known as Naditola, Geeta lives with her large family of seven and Sakuni with her youngest son (right) Akendar Oraon
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
In the area known as Naditola, Geeta lives with her large family of seven and Sakuni with her youngest son (right) Akendar Oraon
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

नदीटोला इलाक़े में, गीता सात लोगों के बड़े से परिवार के साथ रहती हैं, और सकुनी अपने सबसे छोटे बेटे अकेंदर उरांव (दाएं) के साथ रहती हैं

दोनों सखी अपने और अपने परिवार के गुज़ारे के लिए जंगल जाती हैं. क़रीब 20 साल की उम्र से सकुनी यह काम कर रही हैं. वह बताती हैं, “मेरी बहुत छोटी उम्र में शादी हो गई थी.” और बाद में जब उनके शराबी पति ने उन्हें छोड़ दिया, तो उन्हें अपने और अपने तीन बेटों के लिए पैसे कमाने का कोई न कोई तरीक़ा ढूंढना ही था. वह बताती हैं, “उस समय काम मिलना बहुत मुश्किल था. पत्ते और दतुवन [दातुन] बेचकर मैंने किसी तरह अपने बच्चों को संभाला.”

सकुनी अब 17 साल के अपने सबसे छोटे बेटे अकेंदर उरांव के साथ दो कमरों के एक कच्चे मकान में रहती हैं. उनके दो बड़े बेटों की शादी हो चुकी है और वे उसी गांव में अलग-अलग घरों में रहते हैं.

उनके घर से कुछ ही दूरी पर गीता अपने परिवार के साथ मिट्टी के बने एक घर में रहती हैं. गीता के परिवार में उनके अलावा 7 और सदस्य हैं: एक बेटी, तीन बेटा, एक बहू और दो पोते. उनके पति की 5 साल पहले मौत हो गई थी. गीता की सबसे छोटी बेटी उर्मिला देवी 28 साल की हैं और वो भी अपनी मां की तरह दोना बेचती हैं, लेकिन गीता देवी अपनी बेटी के लिए एक अलग ही भविष्य का सपना संजोए हुए हैं. गीता कहती हैं, “मैंने अपनी बड़ी बेटी की शादी एक ग़रीब परिवार में की थी. मैं ऐसा अपनी छोटी बेटी के साथ नहीं करूंगी. अगर मुझे दहेज भी देना पड़े, तो मैं दूंगी.”

छोटी उम्र से ही काम करने वाली और सात भाई-बहनों में सबसे छोटी गीता कभी स्कूल नहीं जा पाईं. वह पूछती हैं, “अगर मैं स्कूल जाती, तो घर का काम कौन करता?” उनकी सुबह जल्दी शुरू हो जाती है. सुबह 4 बजे के लगभग वह कई घरेलू कामों को जल्दी-जल्दी निपटाने में लग जाती हैं. जैसे खाना पकाना, सफ़ाई करना. और जंगल जाने से पहले वह मवेशियों (एक गाय और दो बैल) को चरने के लिए छोड़ देती हैं. उनकी दोस्त की दिनचर्या भी लगभग ऐसी ही है, लेकिन जहां गीता के काम में उनकी बहू उनका हाथ बंटाती है, वहीं सकुनी को सारा काम अकेले करना होता है.

*****

जंगल के मध्यवर्ती क्षेत्र में पहुंचने के बाद, दोनों औरतें अपना थैला उतारकर नीचे रख देती हैं. इतनी ठंडी सुबह में भी कई किमी पैदल चलने के कारण वे पसीने से तर-बतर हो गई हैं, और अपनी साड़ी के पल्लू से अपने माथे और गले को पोंछ रही हैं.

काम शुरू करने से पहले वे अपने साथ लाए पुराने कपड़े से एक थैला बना लेती हैं, जिसमें वे पत्ते जमा करेंगी. साड़ी के पल्लू को अपनी कमर में खोंसकर और पीठ पर थैला लटकाए वे अब अपना काम शुरू करने के लिए तैयार हैं.

Every morning, Sakuni and Geeta cross the Auranga river near their home and make their way on foot to the forest. Even four years ago, there were many women involved in the craft of dona and pattal -making, but poor earnings has deterred them from continuing. The friends are among the last women in their village still engaged in this craft
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
Every morning, Sakuni and Geeta cross the Auranga river near their home and make their way on foot to the forest. Even four years ago, there were many women involved in the craft of dona and pattal -making, but poor earnings has deterred them from continuing. The friends are among the last women in their village still engaged in this craft
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

हर सुबह, सकुनी और गीता अपने घर के पास से बहने वाली औरंगा नदी पार करके और कई किमी पैदल चलकर जंगल पहुंचती हैं. चार साल पहले तक बहुत सी औरतें दोना और पत्तल बनाने के काम में लगी हुई थीं, लेकिन इससे होने वाली आमदनी बहुत कम होने की वजह से उन्होंने ये काम छोड़ दिया. ये दोनों दोस्त अपने गांव की कुछ चंद महिलाओं में हैं जो अभी भी इस काम में लगी हुई हैं

The two women also cut and collect branches of the sal tree which they sell as datwan( a stick to clean teeth), sometimes with help from family members . One bundle of datwan costs 5 rupees. 'People don’t even want to pay five rupees for the datwan. They bargain,' says Sakuni
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
The two women also cut and collect branches of the sal tree which they sell as datwan( a stick to clean teeth), sometimes with help from family members . One bundle of datwan costs 5 rupees. 'People don’t even want to pay five rupees for the datwan. They bargain,' says Sakuni
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

दोनों महिलाएं साल के पेड़ की शाखाओं को काटने और उन्हें इकट्ठा करने का भी काम करती हैं, जिससे वे दातुन बनाकर बाज़ार में बेचती हैं, जिसमें उनके परिवार के लोग भी कभी-कभी मदद कर देते हैं. एक बंडल दातुन 5 रुपए में बिकता है. सकुनी कहती हैं, ‘लोग दातुन के लिए 5 रुपए भी नहीं देना चाहते. वे इसमें भी मोलभाव करते हैं’

वे अपने बाएं हाथ से शाखों को पकड़ कर दाएं हाथ से बड़ी-बड़ी अंडाकार पतियों को तोड़ती हैं. सकुनी अपने साथी को सावधान करते हुए कहती हैं, “इस पेड़ में माटा [लाल चींटियां] हैं, थोड़ा देखकर.”

गीता अपने थैले में पत्तियां भरते हुए कहती हैं, “हम अच्छी पत्तियों को इकट्ठा करते हैं, जिसमें छेद कम हों.” वे छोटी शाखाओं से पत्तियां तोड़ती हैं, लेकिन जब पत्तियां उनकी पहुंच से दूर होती हैं, तो उन्हें पेड़ पर चढ़ना पड़ता है और कुल्हाड़ी का इस्तेमाल करना पड़ता है.

साल के पेड़ आमतौर पर धीरे-धीरे बड़े होते हैं, और लगभग 164 फीट की ऊंचाई तक बढ़ते हैं. लेकिन इस जंगल में साल के पेड़ों की उम्र काफ़ी कम है, जिनकी ऊंचाई लगभग 30-40 फीट है.

सकुनी एक पेड़ पर चढ़ने के लिए तैयार हैं, जो क़रीब 15 फीट ऊंचा है. वह अपनी साड़ी को उठाकर घुटने के बीच बांध लेती हैं. गीता उन्हें कुल्हाड़ी पकड़ाती हैं. वह एक शाख की ओर इशारा करके बताती हैं, “ये वाला काटो.” शाखाओं को एक लंबाई में काटा जाएगा और फिर उसे दातुन की तरह इस्तेमाल किया जाएगा, जिसे वे बाद में बेचेंगी.

गीता एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक जाने के लिए अपनी कुल्हाड़ी से झाड़ियों को साफ़ करते हुए कहती हैं, “इसकी एकदम सही मोटाई होनी चाहिए. साल की टहनियां बहुत अच्छी होती हैं, क्योंकि ये जल्दी नहीं सूखतीं. इसे आप 15 दिनों तक भी रख सकते हैं.”

पत्तियां और टहनियां इकट्ठा करना आसान नहीं है. गीता कहती हैं, “सर्दियों का महीना सबसे कठिन होता है; हमारे हाथ सुन्न पड़ जाते हैं. कुल्हाड़ी को कसकर पकड़ने के बाद मेरे हाथों में दर्द शुरू हो जाता है.”

They collect leaves for 7-8 hours a day, twice a week. T his time, on the second day, they are joined by Geeta's son Ajit and daughter-in-law Basanti (right) who have brought along their baby. If the baby cries, the three of them take turns soothing her
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
They collect leaves for 7-8 hours a day, twice a week. T his time, on the second day, they are joined by Geeta's son Ajit and daughter-in-law Basanti (right) who have brought along their baby. If the baby cries, the three of them take turns soothing her
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

दोनों सखी हफ़्ते में दो दिन पत्तियां इकठ्ठा करने जंगल जाती हैं और दिन भर 7-8 घंटे यह काम करती हैं. दूसरे दिन, गीता के साथ उनका बेटा अजीत और उनकी बहू बसंती (दाएं) भी आए हैं, और उनके साथ उनकी बच्ची भी है. जब भी बच्ची रोती है, तो उनमें से कोई एक उसे संभालने की कोशिश करता है

Left: Eight years ago, Ajit migrated to Punjab, where he works as a daily wage labourer, earning Rs. 250 a day.
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
Right:  Work stops in the evening when they spot the cattle heading home after grazing. On the third day, Geeta and Sakuni return to the forest to collect the sacks and make their way to Hehegara station from where they catch a train to Daltonganj
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

बाएं: आठ साल पहले अजीत पंजाब चले गए थे, जहां वह दिहाड़ी मज़दूरी करते थे और हर रोज़ 250 रुपए कमाते थे. दाएं: शाम के वक़्त जब उनके मवेशी चरने के बाद वापस लौटने को होते हैं, तो वे अपना काम रोक देते हैं. तीसरे दिन, गीता और सकुनी थैला उठाने के लिए जंगल आते हैं और उन्हें लेकर हेहेगड़ा स्टेशन पहुंचते हैं, जहां से वे डाल्टनगंज जाने के लिए ट्रेन पकड़ते हैं

फरवरी और मार्च के महीनों में जब साल के पत्ते झड़ने लगते हैं, तो अप्रैल-मई में नई पत्तियों के आने तक उनका काम रुक जाता है. इस दौरान, सकुनी महुआ चुनने का काम करती हैं. इस साल (2023) की शुरुआत में, उन्होंने जंगल से 100 किलो महुआ इकट्ठा किए थे और उन्हें सुखाकर 30 रुपए प्रति किलो की दर पर एक स्थानीय व्यापारी को बेचा था. इसके हरे फलों से शराब बनाई जाती है, और फल के बीजों से खाद्य तेल तैयार किया जाता है.

गीता इस दौरान कुछ भी नहीं कमातीं, और घर का ख़र्च उनके बेटों की आमदनी से चलता है जो दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. उनके घर में जो महुआ का पेड़ है उससे उनकी घरेलू ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं.

*****

जंगल में तीन दिनों तक मेहनत करने के बाद, गीता और सकुनी पर्याप्त मात्रा में पत्ते इकट्ठा कर लेती हैं और अपने थैलों को डाल्टनगंज लेकर जाती हैं. इन थैलों का भार लगभग 30 किलो होता है और हेहेगड़ा स्टेशन तक पहुंचने के लिए उन्हें 30 मिनट तक पैदल चलना पड़ता है. गीता हंसते हुए कहती हैं, “इस बार मैं अपने साथ और ज़्यादा दातुन लेकर चल रही हूं.” थैले टांगने के साथ-साथ उन्होंने पीठ पर गर्म कंबल भी ओढ़ा हुआ है.

हेहेगड़ा स्टेशन पर एक पेड़ के नीचे जगह तलाशकर वे दोनों बैठ जाती हैं और दोपहर 12 बजे की ट्रेन का इंतज़ार करती हैं, जो उन्हें डाल्टनगंज लेकर जाएगी.

सकुनी ट्रेन के दरवाज़े से लगी हुई सीट के पास अपना सामान रखती हैं और इस रिपोर्टर को एक ज़रूरी बात बताती हैं, “जो लोग पत्ता-दातुन बेचते हैं उन्हें टिकट नहीं लेना पड़ता.” यह धीमी पैसेंजर ट्रेन 44 किमी की दूरी तय करने में लगभग तीन घंटे का समय लेगी. सकुनी ठंडी सांस भरते हुए कहती हैं, “केवल इस यात्रा में ही सारा दिन बर्बाद हो जाता है.”

ट्रेन चलने लगी है और गीता अपने 2.5 एकड़ ज़मीन के बारे में बताती हैं, जिस पर वह मानसून के सीज़न में धान और मक्का तथा सर्दियों के दौरान गेहूं, जौ और चने की खेती करती हैं. वह कहती हैं, “इस साल धान की फ़सल अच्छी नहीं हुई, लेकिन हमने 250 किलो मक्का 5,000 रुपए में बेचा.”

सकुनी देवी के पास लगभग एक एकड़ ज़मीन है, जिस पर वह ख़रीफ़ और रबी के सीज़न में खेती करती हैं. वह बताती हैं, “इस बार मैंने खेती नहीं की. मैंने धान की फ़सल बोई थी, लेकिन उससे कोई उपज नहीं हुई.”

Carrying the loads on their heads, the two women walk for around 30 minutes to get to the station. The slow passenger train will take three hours to cover a distance of 44 kilometres. 'A whole day wasted on the journey alone,' Sakuni says
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
Carrying the loads on their heads, the two women walk for around 30 minutes to get to the station. The slow passenger train will take three hours to cover a distance of 44 kilometres. 'A whole day wasted on the journey alone,' Sakuni says
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

अपने सिर पर बोझ उठाए दोनों औरतें स्टेशन तक पहुंचने के लिए 30 मिनट पैदल चलती हैं. धीमी पैसेंजर ट्रेन 44 किमी की दूरी तीन घंटे में तय करेगी. सकुनी कहती हैं, ‘केवल इस यात्रा में ही पूरा दिन बर्बाद हो जाता है’

On the train, Geeta and Sakuni Devi talk about farming. Geeta owns 2.5 acres of land where she cultivates paddy and maize during the monsoons and wheat, barley and chickpeas during winter. Sakuni Devi owns around an acre of land, where she farms in both kharif and rabi seasons. While they chat, they also start making the donas
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
On the train, Geeta and Sakuni Devi talk about farming. Geeta owns 2.5 acres of land where she cultivates paddy and maize during the monsoons and wheat, barley and chickpeas during winter. Sakuni Devi owns around an acre of land, where she farms in both kharif and rabi seasons. While they chat, they also start making the donas
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

ट्रेन में गीता और सकुनी देवी खेती के बारे में बात करती हैं. गीता के पास 2.5 एकड़ ज़मीन है, जिस पर वह मानसून के दौरान धान और मक्का और सर्दियों के दौरान गेहूं, जौ और चने की खेती करती हैं. सकुनी देवी के पास लगभग एक एकड़ ज़मीन है, जहां वह ख़रीफ़ और रबी दोनों सीज़न में खेती करती हैं. बात करते-करते वे दोना बनाने लगती हैं

बात करते-करते वे अपने हाथों से दोना बनाना शुरू कर देती हैं - चार से छह पत्तों को एक-दूसरे के ऊपर व्यवस्थित करके और उन्हें बांस की पट्टियों से सिल देती हैं. ये पत्तियां कई बार मोड़ने के बाद भी टूटती नहीं हैं, इसलिए इनसे पत्तल बनाना काफ़ी आसान हो जाता है. सकुनी बताती हैं, “अगर पत्तियां बड़ी हों, तो दो पत्तियों से एक दोना बनाया जा सकता है. वरना एक दोना बनाने में चार से छह पत्तियों का इस्तेमाल करना पड़ता है.”

वह किनारों को मोड़कर उन्हें गोल आकार देने की कोशिश करती हैं, ताकि जब इसमें खाना परोसा जाए, तो वह गिरे नहीं. गीता देवी कहती हैं, “अगर इसमें रसदार सब्ज़ी या दाल भी परोसें, तो इससे कुछ बाहर नहीं रिसेगा.”

बारह दोने का एक बंडल 4 रुपए में बिकता है और हर एक बंडल में लगभग 60 पत्तों का इस्तेमाल होता है. लगभग 1,500 पत्तियों को तोड़ने, उनसे दोना और पत्तल बनाने और शहर जाकर बेचने के बाद 100 रुपए की आमदनी होती है.

वे 10-10 का एक बंडल बनाकर दातुन और पोला (साल की पत्तियां) भी बेचती हैं. दातुन का एक बंडल 5 रुपए और पोला का बंडल 10 रुपए में बिकता है. सकुनी बताती हैं, “लोग दातुन ख़रीदने के लिए 5 रुपए भी नहीं देना चाहते, और मोलभाव करते हैं.”

शाम पांच बजे ट्रेन डाल्टनगंज पहुंचती है. स्टेशन के बाहर, सड़क किनारे, गीता ज़मीन पर नीले रंग की पॉलिथीन शीट बिछाती हैं और दोनों फिर से दोना बनाने का काम फिर से शुरू कर देती हैं. वे पत्तल बनाने का ऑर्डर भी लेती हैं. एक पत्तल बनाने में 12-14 पत्ते लगते हैं और वे 1.5 रुपए में एक पत्तल बेचती हैं. इनका इस्तेमाल गृह प्रवेश या नवरात्रि या मंदिरों में खाना बांटने जैसे ख़ास अवसरों के दौरान किया जाएगा. सौ या उससे ज़्यादा पत्तल के ऑर्डर को पूरा करने के लिए कई लोग मिलकर काम करते हैं.

Outside Daltonganj station, Geeta spreads a blue polythene sheet on the ground and the two resume the task of crafting donas. The women also take orders for pattals or plates. Their 'shop' is open 24x7 but they move into the station at night for safety. They will stay here until all their wares are sold
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
Outside Daltonganj station, Geeta spreads a blue polythene sheet on the ground and the two resume the task of crafting donas. The women also take orders for pattals or plates. Their 'shop' is open 24x7 but they move into the station at night for safety. They will stay here until all their wares are sold
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

डाल्टनगंज स्टेशन के बाहर, गीता ज़मीन पर नीले रंग की एक पॉलिथीन शीट बिछाती हैं और दोनों फिर से दोना बनाने का काम शुरू कर देती हैं. वे पत्तल बनाने का ऑर्डर भी लेती हैं. उनकी ‘दुकान’ 24 घंटे खुली रहती है, लेकिन सुरक्षा के लिहाज़ से वे रात के समय स्टेशन के अंदर चली जाती हैं. जब तक उनके सारे दोने बिक नहीं जाते, वे यहीं रहती हैं

Left: Four to six leaves are arranged one upon the other and sewn together with strips of bamboo to make the dona . They fold the edges to create a circular shape so that when food is served, it won’t fall out. A bundle of 12 donas sells for four rupees.
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla
Right: Bundles of datwan are bought by passengers from the night train.
PHOTO • Ashwini Kumar Shukla

बाएं: दोना बनाने के लिए चार से छह पत्तों को एक-दूसरे के ऊपर व्यवस्थित करके और उन्हें बांस की पट्टियों से सिल दिया जाता है. वह किनारों को मोड़कर उन्हें गोल आकार देने की कोशिश करती हैं, ताकि जब इसमें खाना परोसा जाए, तो वह गिरे नहीं. बारह दोने का एक बंडल 4 रुपए में बिकता है. दाएं: रात की ट्रेन में चढ़े यात्री दातुन के बंडल ख़रीदते हैं

गीता और सकुनी देवी तब तक यहीं रहेंगी, जब तक उनका सारा सामान बिक नहीं जाता. सकुनी बताती हैं कि कभी-कभी इसमें एक दिन से ज़्यादा लग जाता है, और यहां तक कि आठ दिन तक का समय भी लग सकता है, "अगर दोने बेचने वाले और लोग आ जाते हैं." ऐसे मौक़ों पर, प्लास्टिक की नीली शीट रात के समय उनका बिस्तर बन जाती है, और जो कंबल वे साथ रखती हैं, उनके काम आते हैं. अगर उन्हें यहां कुछ दिनों तक रुकना पड़ता है, तो वे दिन में दो बार सत्तू खाती हैं, जिस मद में हर रोज़ 50 रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं.

उनकी 'दुकान' चौबीसों घंटे खुली रहती है और रात की ट्रेन पकड़ने वाले यात्री उनसे दातुन ख़रीदते हैं. शाम के वक़्त गीता और सकुनी स्टेशन के अंदर चली जाती हैं. डाल्टनगंज छोटा सा शहर है, और यह स्टेशन उनके लिए सुरक्षित ठिकाना बन जाता है.

*****

तीन दिन बाद, गीता ने 30 बंडल दोने और 80 बंडल दातुन बेचकर 420 रुपए कमाए हैं, जबकि सकुनी को 25 बंडल दोने और 50 बंडल दातुन बेचकर 300 रुपए मिले हैं. कमाए हुए पैसों के साथ दोनों पलामू एक्सप्रेस में चढ़ती हैं, जो देर रात को रवाना होती है और अगली सुबह उन्हें बरवाडीह छोड़ेगी. वहां से हेहेगड़ा जाने के लिए उन्हें लोकल ट्रेन पकड़नी होगी.

सकुनी अपनी कमाई से ख़ुश नहीं हैं. वह अपना सामान समेटते हुए कहती हैं, “इस काम में मेहनत बहुत ज़्यादा है और पैसा काफ़ी कम.”

लेकिन उन्हें दो-चार दिन में फिर से यह चक्कर लगाना पड़ेगा. गीता कहती हैं, "इसी से मेरा गुज़ारा चलता है. जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं, यह काम करती रहूंगी.''

यह स्टोरी मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन (एमएमएफ़) से मिली फ़ेलोशिप के तहत लिखी गई है.

अनुवाद: प्रतिमा

Ashwini Kumar Shukla

अश्विनी कुमार शुक्ला, झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार हैं, और नई दिल्ली के भारतीय जन संचार संस्थान (2018-2019) से स्नातक कर चुके हैं. वह साल 2023 के पारी-एमएमएफ़ फ़ेलो हैं.

की अन्य स्टोरी Ashwini Kumar Shukla
Editor : Sarbajaya Bhattacharya

सर्वजया भट्टाचार्य, पारी के लिए बतौर सीनियर असिस्टेंट एडिटर काम करती हैं. वह एक अनुभवी बांग्ला अनुवादक हैं. कोलकाता की रहने वाली सर्वजया शहर के इतिहास और यात्रा साहित्य में दिलचस्पी रखती हैं.

की अन्य स्टोरी Sarbajaya Bhattacharya
Translator : Pratima

प्रतिमा एक काउन्सलर हैं और बतौर फ़्रीलांस अनुवादक भी काम करती हैं.

की अन्य स्टोरी Pratima