ہم شاعری میں ہی پوری طرح زندگی بسر کر پاتے ہیں؛ ہم نے انسانوں اور معاشرے کے درمیان جو گہری خلیج پیدا کی ہے، نظموں کے اشعار میں ہی ہم اس کے درد سے روبرو ہوتے ہیں۔ نظموں میں ہی ہماری مایوسیوں، مذمتوں، سوالوں، یادوں، خوابوں، امکانات کو جگہ ملتی ہے۔ شاعری سے ہو کر ہی ہم اپنے اندر اور باہر – دونوں دنیا سے گزر پاتے ہیں۔ یہی وجہ ہے کہ جب ہم شاعری سننا چھوڑ دیتے ہیں، تو ہم بطور انسان اور معاشرہ انسانیت سے ہاتھ دھو بیٹھتے ہیں۔

بنیادی طور پر دیہوَلی بھیلی میں لکھی گئی جتیندر وساوا کی اس نظم کو ہم یہاں اردو میں پیش کر رہے ہیں۔

جتیندر وساوا کی آواز میں، دیہولی بھیلی میں یہ نظم سنیں

कविता उनायां बोंद की देदोहो

मां पावुहूं! तुमुहुं सोवता पोंगा
बाठे बांअणे बोंद की लेदेहें
खोबोर नाहा काहा?
तुमां बारे हेरां मोन नाहां का
बारे ने केड़ाल माज आवां नाह द्याआ
मान लागेहे तुमुहूं कविता उनायां बोंद की देदोहो
मांय उनायोहो
दुखू पाहाड़, मयाल्या खाड़्या
इयूज वाटे रीईन निग्त्याहा
पेन मां पावुहूं! तुमुहुं सोवता पोंगा
बाठे बांअणे बोंद की लेदेहें
खोबोर नाहा काहा?
तुमां बारे हेरां मोन नाहां का
बारे ने केड़ाल माज आवां नाह द्याआ मोन
मान लागेहे तुमुहूं कविता उनायां बोंद की देदोहो

पेन मां पावुहू!
तुमुहू सौवता डोआं खुल्ला राखजा मासां होच
बास तुमुहू सोवताल ता ही सेका
जेहकी हेअतेहे वागलें लोटकीन सौवताल
तुमुहू ही सेका तुमां माजर्या दोर्याले
जो पुनवू चादू की उथलपुथल वेएत्लो
तुमुहू ही सेका का
तुमां डोआं तालाय हुकाय रियिही
मां पावुहू! तुमनेह डोगडा बी केहेकी आखूं
आगीफूंगा दोबी रेताहा तिहमे
तुमुहू कोलाहा से कोम नाहाँ
हाचो गोग्यो ना माये
किही ने बी आगीफूंगो सिलगावी सेकेह तुमनेह
पेन मां पावुहूं! तुमुहुं सोवता पोंगा
बाठे बांअणे बोंद की लेदेहें
खोबोर नाहा काहा?
तुमां बारे हेरां मोन नाहां का
बारे ने केड़ाल माज आवां नाह द्याआ मोन
मान लागेहे तुमुहूं कविता उनायां बोंद की देदोहो

तुमुहू जुगु आंदारो हेरा
चोमकुता ताराहान हेरा
चुलाते नाहां आंदारारी
सोवताला बालतेहे
तिया आह्लीपाहली दून्या खातोर
खूब ताकत वालो हाय दिही
तियाआ ताकात जोडिन राखेहे
तियाआ दुन्याल
मां डायी आजलिही जोडती रेहे
तियू डायि नोजरी की
टुटला मोतिई मोनकाहाने
आन मां याहकी खूब सितरें जोडीन
गोदड़ी बोनावेहे, पोंगा बाठा लोकू खातोर
तुमुहू आवाहा हेरां खातोर???
ओह माफ केअजा, माय विहराय गेयलो
तुमुहुं सोवता पोंगा
बाठे बांअणे बोंद की लेदेहें
खोबोर नाहा काहा?
तुमां बारे हेरां मोन नाहां का
बारे ने केड़ाल माज आवां नाह द्याआ मोन
मान लागेहे तुमुहूं कविता उनायां बोंद की देदोहो

چونکہ تم نے شاعری سننا بند کر دیا ہے

میرے بھائی! تم نے اپنے گھر کے
سبھی دروازے بند کر لیے ہیں
پتہ نہیں کیوں۔
تم باہر نہیں دیکھنا چاہتے
یا باہر سے کسی کو اندر نہیں آنے دینا چاہتے؟
مجھے تو لگتا ہے تم نے شاعری سننا بند کر دیا ہے۔
میں نے سنا ہے،
درد کے پہاڑ وہاں ہیں،
محبت کی ندیاں اسی راستے سے گزرتی ہیں
مگر میرے بھائی! تم نے اپنے گھر کے
سبھی دروازے بند کر لیے ہیں
پتہ نہیں کیوں۔
تم باہر نہیں دیکھنا چاہتے
یا باہر سے کسی کو اندر نہیں آنے دینا چاہتے؟
مجھے تو لگتا ہے تم نے شاعری سننا بند کر دیا ہے۔

مگر میرے بھائی!
اپنی آنکھیں کھلی رکھنا مچھلی کی طرح،
تاکہ تم خود کو دیکھ پاؤ،
جیسے دیکھتے ہیں اُلّو لٹک کر خود کو
تاکہ دیکھ پاؤ اپنے اندر کا دریا
جو کبھی پورے چاند کو دیکھ کر ٹھاٹھیں مارتا تھا
تاکہ دیکھ پاؤ کہ
تمہاری آنکھوں کے تالاب سوکھ رہے ہیں۔
میرے بھائی! تمہیں پتھر کیسے کہوں،
چنگاری چھپی ہوتی ہے اس میں بھی
تم کوئلے سے کم نہیں ہو
سچ کہا نہ میں نے؟
کہیں سے کوئی چنگاری جلا سکتی ہے تمہیں
مگر میرے بھائی! تم نے اپنے گھر کے
سبھی دروازے بند کر لیے ہیں
پتہ نہیں کیوں۔
تم باہر نہیں دیکھنا چاہتے
یا باہر سے کسی کو اندر نہیں آنے دینا چاہتے؟
مجھے تو لگتا ہے تم نے شاعری سننا بند کر دیا ہے۔

تم آسمان کا اندھیرا دیکھو،
دیکھو ٹمٹماتے تاروں کو
وہ لڑتے نہیں اندھیرے سے
خود کو جلاتے ہیں
آس پاس کی دنیا کے لیے۔
سب سے طاقتور ہوتا ہے سورج۔
اس کی طاقت جوڑ کر رکھتی ہے
اس دنیا کو۔
میری بوڑھی دادی اکثر جوڑتی رہتی ہے
اپنی دھندلی سی نظر سے،
موتیوں کی ٹوٹی مالاؤں کو۔
اور میری ماں بہت سے چیتھڑوں کو جوڑ کر
لحاف بناتی ہے، ہم سب کے لیے۔
تم آؤگے دیکھنے؟
اوہ، معاف کرنا، میں بھول گیا تھا۔
تم نے تو اپنے گھر کے
سبھی دروازے بند کر لیے ہیں۔
پتہ نہیں کیوں۔
تم باہر نہیں دیکھنا چاہتے
یا باہر سے کسی کو اندر نہیں آنے دینا چاہتے؟
مجھے تو لگتا ہے تم نے شاعری سننا بند کر دیا ہے۔

مترجم: محمد قمر تبریز

Jitendra Vasava

गुजरात के नर्मदा ज़िले के महुपाड़ा के रहने वाले जितेंद्र वसावा एक कवि हैं और देहवली भीली में लिखते हैं. वह आदिवासी साहित्य अकादमी (2014) के संस्थापक अध्यक्ष, और आदिवासी आवाज़ों को जगह देने वाली एक कविता केंद्रित पत्रिका लखारा के संपादक हैं. उन्होंने वाचिक आदिवासी साहित्य पर चार पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं. वह नर्मदा ज़िले के भीलों की मौखिक लोककथाओं के सांस्कृतिक और पौराणिक पहलुओं पर शोध कर रहे हैं. पारी पर प्रकाशित कविताएं उनके आने वाले पहले काव्य संग्रह का हिस्सा हैं.

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Illustration : Manita Kumari Oraon

मनीता कुमारी उरांव, झारखंड की कलाकार हैं और आदिवासी समुदायों से जुड़े सामाजिक व सांस्कृतिक महत्व के मुद्दों पर मूर्तियां और पेंटिंग बनाती हैं.

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Editor : Pratishtha Pandya

प्रतिष्ठा पांड्या, पारी में बतौर वरिष्ठ संपादक कार्यरत हैं, और पारी के रचनात्मक लेखन अनुभाग का नेतृत्व करती हैं. वह पारी’भाषा टीम की सदस्य हैं और गुजराती में कहानियों का अनुवाद व संपादन करती हैं. प्रतिष्ठा गुजराती और अंग्रेज़ी भाषा की कवि भी हैं.

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Translator : Qamar Siddique

क़मर सिद्दीक़ी, पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रुरल इंडिया के ट्रांसलेशन्स एडिटर, उर्दू, हैं। वह दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं।

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