छत्तीसगढ़ के रायपुर ज़िले के धमतरी से क़रीब 5 किमी दूर स्थित लोहरसी गांव की प्राथमिक कन्याशाला कई मायनों में ख़ास है. यूं तो बाहर से देखने भर से पता चल जाता है कि यह एक पुराना स्कूल है: इसके परिसर में स्थित पीपल के पेड़ का घेरा ही बता देता है कि उसकी उम्र 80 या 90 साल से कम नहीं है. अंदर जाकर यहां की छात्राओं से मिलने पर स्कूल के वर्तमान से रूबरू होने का मौक़ा मिलता है और उनकी सक्रियता को देखकर नज़र आता है कि स्कूल का माहौल कितना बेहतर है.

इस स्कूल की स्थापना देश की आज़ादी के 29 साल पहले, साल 1918 में हुई थी. क़रीब 96 साल बाद भी स्कूल में छात्राओं के नाम के रजिस्टर सहेज कर रखे गए हैं. स्कूल की शिक्षक नीलिमा नेताम बताती हैं कि उन्हें एक पुराने लकड़ी के बॉक्स में रखा रजिस्टर मिला था, जिसे दीमक चाट गए थे. इसमें स्कूल के स्थापना वर्ष से लेकर, उस समय के अध्यापक-अध्यापिकाओं और बच्चों के बारे में जानकारियां दर्ज थीं. उन्होंने रजिस्टर पर नया कवर चढ़ा दिया है, और इस तरह के दस्तावेज़ को सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि इसमें स्कूल का बहुमूल्य इतिहास दर्ज है.

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क़रीब सौ साल पुराने इस स्कूल का प्रवेश द्वार

हमने भी उन तमाम दस्तावेज़ों में से कुछ को देखा, जिनमें से एक है ‘प्रमोशन बुक’. इस रजिस्टर के कुछ हिस्सों को दीमक चाट गए हैं, जिसके चलते कुछ नाम और सूचनाएं उतनी स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन बाक़ी सब सही-सलामत है. लिखावट से पता चलता है कि क़लम को स्याही में डुबोकर लिखा गया है - अक्षर थोड़े मोटे हैं, लेकिन लिखावट बेहद सुंदर है.

रजिस्टर में लिखे नाम कुछ इस तरह थे - बनीन बाई तेलिन, सोना बाई कोस्टीन, दुरपत बाई लोहारिन, रामसीर बाई कलारिन, सुगंधीन बाई गोंडिन - नाम के साथ उन छात्राओं की जाति भी लिखी हुई है. हो सकता है कि ऐसा इसलिए हुआ हो, क्योंकि यह रजिस्टर आज के प्रिंटेड रजिस्टर से जैसा नहीं है, जिसमें नाम के लिए अलग, अभिभावक के नाम के लिए अलग, और जाति के लिए अलग कॉलम बना होता है; इसमें सबकुछ हाथ से ही लिखना होता था.

उन दस्तावेज़ों से यह भी पता चलता है कि उस समय कौन-कौन से विषय हुआ करते थे. जैसे, साहित्य में संवाद, कहानी, नाटक, गद्य, अभिव्यक्ति, शब्दसंग्रह, कविता, श्रुतलेख, कवितार्य, श्रुतिलिपि, और अनुलेखन. गणित में गिनती, योगांतर, सूत्र, इबारती, पहाड़ा, लेखन, मूलक्रिया इत्यादि. शाला के एक शिक्षक ज्योतिष विश्वास का कहना है, “उस समय बहुअंगी शिक्षण प्रचलन में था.”

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पुराने रजिस्टर के पन्ने, जिसके कुछ हिस्से दीमक खा गए हैं

रजिस्टर से मालूम चलता है कि बहुत सारी लड़कियों ने प्यूबर्टी (तरुणाई) आने के बाद स्कूल छोड़ दिया था. यह बात उनके स्कूल छोड़ने की वजह के तौर पर लिखी हुई है. इसके अलावा, कई बच्चियों के स्कूल छोड़ने की वजह पलायन और ग़रीबी को बताया गया है. उस समय, इस स्कूल में लोहरसी के आलावा आमडीऔर मुजगहन गांव की बच्चियां भी यहां पढ़ने आती थीं.

इन दस्तावेज़ों के अध्ययन से उस समय के समाज के बारे में कई जानकारी मिलती है. साल 1918 के रजिस्टर से यह पता चलता है कि तब इस प्राथमिक शाला का नाम पुत्री शाला था, जो बाद में बदलकर प्राथमिक कन्याशाला किया गया. साल 1918 में यहां 64 लड़कियां पढ़ती थीं, जबकि आज कुल छात्राओं की तादाद 74 है; इनमें से एक अनुसचित जाति, 12 अनुसूचित जनजाति, और 21 पिछड़े वर्गों से हैं. स्कूल में तीन शिक्षक पढ़ाते हैं.

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ड्यूटी पर तैनात शिक्षकों की सूची

रजिस्टर से मालूम चलता है कि बहुत सारी लड़कियों ने प्यूबर्टी (तरुणाई) आने के बाद स्कूल छोड़ दिया था. यह बात उनके स्कूल छोड़ने की वजह के तौर पर लिखी हुई है. इसके अलावा, कई बच्चियों के स्कूल छोड़ने की वजह पलायन और ग़रीबी को बताया गया है

इस स्कूल का इतिहास तो दिलचस्प है ही, इसका वर्तमान भी काफ़ी चमकदार और उम्मीदों से भरा नज़र आता है. मध्यान्ह भोजन के समय, यहां के शिक्षकों और छात्राओं के बीच विभिन्न विषयों पर चर्चा की जाती है. बच्चियां स्कूल के शिक्षकों से काफ़ी घुली-मिली नज़र आती हैं, और उनके बीच मित्रवत संबंध हैं. छात्राओं ने कई सामूहिक गीत सीखे हैं, जिन्हें वे एक साथ गाती हैं - हिंदी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी में भी. कक्षाओं की दीवारों पर पक्षियों और जानवरों के रंगीन चित्र बने हुए हैं. इन्हें शिक्षक ज्योतिष विश्वास ने पेंट किया है. उनका कहना है, “ये चित्र पाठ्य पुस्तकों पर आधारित हैं, और इनसे बच्चों के लिए पढ़ना, लिखना, सोचना, और समझना आसान होता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन तस्वीरों को शिक्षकों और छात्राओं ने मिलकर बनाया है.”

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कक्षाओं में कहानी, नाटक, गद्य, कविता और संवाद पढ़ाए जाते हैं

फ़िलहाल, सुनील कुमार यदु यहां के मुख्य शिक्षक हैं. उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि आगे चलकर यहां की अधिक से अधिक छात्राएं नवोदय स्कूल पढ़ने जाएं और वे उन्हें इस पड़ाव के लिए तैयार कर रहे हैं.

इस शाला की सबसे पुरानी इमारत को मरम्मत की ज़रूरत है. या उसकी जगह नई इमारत भी बनायी जा सकती है, जिससे यहां ज़्यादा खुली जगह भी मिल जाए. इसके बाद भी, इस शाला के इतिहास को जानकर और इन छात्राओं और शिक्षकों के उत्साह को देखकर अच्छा लगता है. इस स्कूल की ज़्यादातर छात्राएं ग़रीब घरों से हैं, जिनके पांव में चप्पल भी नहीं है. लेकिन, उनके हौसले से ज़ाहिर होता है कि आने वाले दिनों में वे इस स्कूल का नाम रोशन करेंगी.

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बाएं: मध्यान्ह भोजन के लिए हुए अवकाश की अवधि के दौरान छात्राएं. दाएं: स्थापना के समय इस स्कूल का नाम 'पुत्री शाला’ था, जिसे बाद में बदलकर कन्या प्राथमिक शाला कर दिया गया था

Purusottam Thakur

Purusottam Thakur is a 2015 PARI Fellow. He is a journalist and documentary filmmaker and is working with the Azim Premji Foundation, writing stories for social change.

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