मणिपुर के कांगपोकपी ज़िले में दो व्यक्ति कुकी-ज़ो आदिवासी परिवारों के 40 लोगों की आबादी वाले एक छोटे से गांव नाहमुन गुनफाइजांग की ओर बढ़ रहे हैं. अपने खेतों की ओर बढ़ते हुए वो घनी झाड़ियां काटते हुए पहाड़ी पर चढ़ते हैं. सितंबर 2023 के इस दिन आसमान में बादल हैं, और चारों ओर जंगली झाड़ियां उगी हैं.

महज़ कुछ साल पहले ये पहाड़ियां पोस्त ​​के पौधे (पेपेवर सोम्निफ़ेरम) के सुंदर सफ़ेद, बैंगनी-गुलाबी फूलों से ढंकी होती थीं.

साथ चल रहे एक किसान पाओलाल कहते हैं, "मैं 1990 के दशक के शुरू में गांजा [कैनेबिस सैटाइवा] उगाता था, पर तब ज़्यादा पैसे नहीं मिलते थे. साल 2000 के दशक की शुरुआत में लोगों ने इन पहाड़ियों में कानी [अफ़ीम] की खेती शुरू की. मैंने भी वह उगाया, जब तक कि कुछ साल पहले इस पर प्रतिबंध नहीं लगा दिया गया."

पाओलाल 2020 की सर्दियों का ज़िक्र कर रहे हैं, जब नाहमुन गुनफाइजांग के मुखिया एस.टी. थांगबोई किपगेन ने गांव में अफ़ीम की खेती ख़त्म करने और किसानों से इसकी खेती पूरी तरह से बंद करने का आग्रह किया. उनका निर्णय अकेला नहीं था, बल्कि राज्य में भाजपा सरकार के आक्रामक 'ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध' अभियान के तहत लिया गया था.

पोस्त से अत्यधिक नशीला मादक पदार्थ अफ़ीम बनाया जाता है. इसकी खेती मुख्य रूप से मणिपुर के पहाड़ी ज़िलों जैसे चुराचांदपुर, उखरुल, कामजोंग, सेनापति, तमेंगलोंग, चांदेल, तेंगनौपल और कांगपोकपी में की जाती है. कांगपोकपी में रहने वाले अधिकांश लोग कुकी-ज़ो जनजाति से हैं.

पांच साल पहले नवंबर 2018 में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की भाजपा सरकार ने राज्य में ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ा था. सिंह ने पहाड़ी ज़िलों के ग्राम प्रधानों और चर्चों से उन इलाक़ों में पोस्त की खेती रोकने की अपील की थी.

Left: Poppy plantations in Ngahmun village in Manipur's Kangpokpi district .
PHOTO • Kaybie Chongloi
Right: Farmers like Paolal say that Manipur's war on drugs campaign to stop poppy cultivation has been unsuccessful in the absence of  consistent farming alternatives.
PHOTO • Makepeace Sitlhou

बाएं: मणिपुर के कांगपोकपी ज़िले के नाहमुन गांव में पोस्त के बाग़ान. दाएं: पाओलाल जैसे किसानों का कहना है कि अफ़ीम की खेती रोकने का मणिपुर सरकार का ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध अभियान नाकाम रहा है, क्योंकि वह इसके विकल्प नहीं देता

कुकी-ज़ो जनजाति के स्थानीय लोगों के मुताबिक़ 'ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध' अभियान उन पर सीधा हमला है, यहां तक कि इससे मई 2023 में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और अल्पसंख्यक कुकी-ज़ो आदिवासियों के बीच ख़ूनी संघर्ष को भी बढ़ावा मिला है. हालांकि, पोस्त नागा और कुकी-ज़ो दोनों पहाड़ी ज़िलों में उगाया जाता है, लेकिन स्थानीय लोगों का आरोप है कि मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने मणिपुर में नशीले पदार्थों का कारोबार चलाने के लिए कुकियों को ज़िम्मेदार ठहराया है.

पाओलाल की तरह नाहमुन गुनफाइजांग के 30 किसान परिवारों को पोस्त की खेती छोड़कर मटर, गोभी, आलू और केले जैसी सब्ज़ियां और फल उगाने के लिए मजबूर किया गया, जिससे उन्हें अपनी पिछली कमाई का छोटा ही अंश मिल पाया. कार्यवाहक ग्राम प्रमुख सैमसन किपगेन कहते हैं, "यह उनका गला घोंटने जैसी बात थी." यहां ज़मीन समुदाय के स्वामित्व में होती है, जो गांव के मुखिया के अधीन आती है, और यह भूमिका वंशानुगत ढंग से एक परिवार निभाता चला आ रहा है. वह आगे कहते हैं, “लेकिन वे [जिन किसानों ने यह काम छोड़ा] समझते थे कि यह गांव और पर्यावरण की भलाई के लिए है.”

हालांकि, 45 साल के किसान पाओलाल कहते हैं कि सरकार की ओर से किसानों को गिरफ़्तार कर जेल में डालने की धमकी ने आख़िर यह प्रथा बंद कराई. अभियान के दौरान चेतावनी दी गई थी कि यदि ग्रामीण सहयोग नहीं करते, तो पुलिस पोस्त के खेतों को काटकर जला देगी. हाल ही में घाटी के एक नागरिक समूह ने यहां तक दावा किया था कि केंद्र पोस्त के खेतों पर हवाई हमले कराने की सोच रहा है, पर इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई.

साल 2018 के बाद से राज्य सरकार ने 18,000 एकड़ से ज़्यादा पोस्त की खेती नष्ट करने और 2,500 उत्पादक किसानों को गिरफ़्तार करने का दावा किया है. हालांकि, मणिपुर पुलिस की ख़ास विशेष इकाई नारकोटिक्स एंड अफ़ेयर्स ऑफ़ बॉर्डर के 2018 से 2022 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि कुल 13,407 एकड़ पोस्त के बाग़ान नष्ट हुए.

मणिपुर की सीमा दुनिया के सबसे बड़े पोस्त उत्पादक म्यांमार के साथ लगती है, जहां मॉर्फ़ीन, कोडीन, हेरोइन और ऑक्सीकोडोन जैसे दूसरे शक्तिशाली मादक पदार्थों की कथित बिक्री और उत्पादन होता है. इस निकटता के कारण यह राज्य नशीली दवाओं और दूसरे ग़ैरक़ानूनी चीजों के कारोबार के लिए संवेदनशील है. 2019 के सर्वेक्षण मैग्नीट्यूड ऑफ़ सब्सटेंस अब्यूज़ इन इंडिया के मुताबिक़ (सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय) पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर में इंजेक्शन से नशीली दवाएं लेने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है.

"क्या नौजवानों को बचाने के लिए नशीली दवाओं के ख़िलाफ़ युद्ध ग़लत था?" मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने दिसंबर 2023 में इंफाल में भाजपा मुख्यालय में एक बैठक के दौरान यह सवाल पार्टी कार्यकर्ताओं से पूछा था, जब जातीय संघर्ष के लिए भाजपा को ज़िम्मेदार ठहराने के आरोप लगाए जा रहे थे.

Demza, a farmer who used to earn up to three lakh rupees annually growing poppy, stands next to his farm where he grows cabbage, bananas and potatoes that he says is not enough to support his family, particularly his children's education
PHOTO • Makepeace Sitlhou

किसान डेम्ज़ा, जो पोस्त उगाकर सालाना तीन लाख रुपए तक कमा लेते थे, अपने खेत के बगल में खड़े हैं जहां वह गोभी, केले और आलू उगाते हैं. उनका कहना है कि यह उनके परिवार, ख़ासतौर पर उनके बच्चों की शिक्षा में मदद करने को काफ़ी नहीं है

विडंबना यह कि ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध के कारण ही डेम्ज़ा के बच्चों की शिक्षा रुक गई.

चार साल पहले तक डेम्ज़ा और उनका परिवार नाहमुन गनफाइजांग में पोस्त की खेती करके आराम से रह रहा था. इस पर रोक लगी तो डेम्ज़ा मिश्रित फ़सलों की खेती करने लगे और उनकी कमाई नीचे आ गई. पारी से बातचीत में डेम्ज़ा कहते हैं, "जब हम साल में दो बार [सब्ज़ियां] उगाते हैं और अच्छी उपज लेते हैं, तो हम सालाना एक लाख तक कमा पाते हैं. जबकि सिर्फ़ एक फ़सल लेकर ही पोस्त से हम साल में कम से कम तीन लाख रुपए तक कमा लेते थे."

आय में इस भारी कमी का मतलब है कि उन्हें अपने बच्चों को इंफाल में स्कूल से बाहर निकालना पड़ा. वह उनमें से केवल एक को कांगपोकपी ज़िला मुख्यालय के एक स्थानीय स्कूल में प्रवेश दिला पाए.

साल 2019 में कांगपोकपी, चुराचांदपुर और तेंगनौपल के पहाड़ी ज़िलों पर हुए एक अध्ययन में कहा गया कि ग़रीबी, खाद्य असुरक्षा और ज़रूरतें मणिपुर के आदिवासी किसानों में अफ़ीम की खेती को बढ़ावा देती हैं. इस अध्ययन का नेतृत्व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गुवाहाटी में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफ़ेसर नामजहाओ किपगेन ने किया था. उन्होंने 60 घरों का सर्वे किया और पाया कि एक हेक्टेयर भूमि पर पांच-सात किलो अफ़ीम पैदा हो जाती है, जिसे 70,000 से 150,000 रुपए प्रति किलो के बीच बेचा जाता है.

यह उन किसानों के लिए एक फ़ायदेमंद फ़सल है, जिनकी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी (मनरेगा) जैसे रोज़गार के मौक़ों तक पहुंच नहीं है.

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नवंबर अल्पसंख्यक कुकी-ज़ो जनजाति के लिए ख़ुशी का समय होता है, क्योंकि वे सालाना कुट त्योहार मनाते हैं जो पोस्त की फ़सल के कटने का समय होता है. त्योहार के दौरान समुदाय साथ आकर बड़ी दावतें करते हैं, नाचते-गाते हैं और यहां तक कि सौंदर्य प्रतियोगिताएं भी होती हैं. हालांकि, साल 2023 अलग था. मई में मैतेई समुदाय और कुकी-ज़ो के बीच ख़ूनी संघर्ष छिड़ा, जिसमें मणिपुर की 53 प्रतिशत आबादी शामिल हुई.

मार्च 2023 के अंत में मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को मैतेई समुदाय के लंबे समय से चल रहे अनुरोध कि उन्हें अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल किया जाए, पर विचार करने के निर्देश दिए थे, जो उन्हें आर्थिक लाभ और सरकारी नौकरियों के लिए कोटा देगा. इसके अलावा मैतेई मुख्य रूप से कुकी जनजातियों के क़ब्ज़े वाले पहाड़ी इलाक़ों में भी ज़मीनें ख़रीद सकेंगे. न्यायालय की सिफ़ारिश का मणिपुर के सभी आदिवासी समुदायों ने विरोध किया, जिन्हें लगा कि उनकी भूमि पर नियंत्रण ख़तरे में पड़ जाएगा.

Farmers and residents of Ngahmun village slashing the poppy plantations after joining Chief Minister Biren Singh’s War on Drugs campaign in 2020
PHOTO • Kaybie Chongloi

साल 2020 में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध अभियान में शामिल होने के बाद नाहमुन गांव के किसान और निवासी पोस्त के बाग़ान काट रहे हैं

इसके बाद पूरे राज्य में हिंसक हमलों की शृंखला शुरू हो गई, जिनमें बर्बर हत्याएं, सिर कलम करना, सामूहिक बलात्कार और आगज़नी शामिल हैं.

पारी के गांव का दौरा करने से दो महीने पहले एक भयावह घटना का वीडियो वायरल हुआ था. कांगपोकपी के बी फाइनोम गांव की दो महिलाओं को मैतेई पुरुषों की भीड़ ने नग्न करके घुमाया था. यह वारदात मई की शुरुआत में बी फाइनोम गांव पर हमले के दौरान हुई थी, जब उसे बर्बाद कर दिया गया था. वीडियो शूट करने के बाद उनके पुरुष रिश्तेदारों की हत्या कर दी गई और धान के खेतों में उन महिलाओं के साथ कथित तौर पर बलात्कार किया गया.

अब तक इस संघर्ष में अनुमानित 200 (गिनती जारी) लोग मारे जा चुके हैं, और 70,000 से ज़्यादा लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें से ज़्यादातर अल्पसंख्यक कुकी लोग हैं. उन्होंने राज्य और पुलिस पर इस गृहयुद्ध में मैतेई उग्रवादियों को बढ़ावा देने का भी आरोप लगाया है.

ख़ूनी गृहयुद्ध के केंद्र में अफ़ीम भी है. आईआईटी प्रोफ़ेसर किपगेन कहते हैं, ''नेता और नौकरशाह इस शृंखला में सबसे ऊपर हैं, उनके साथ बिचौलिए भी हैं जो किसानों से ख़रीदारी करते हैं और अच्छा-ख़ासा पैसा कमाते हैं.'' उनके मुताबिक़ पोस्त खेतों के नष्ट होने और बड़े पैमाने पर बरामदगी और गिरफ़्तारियों के बावजूद सरगना क़ानून के शिकंजे से बाहर हैं. किपगेन का कहना है कि अधिकांश किसानों को पोस्त कारोबार में मुश्किल से ही पैसे मिलते थे.

मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने इस संघर्ष के लिए कुकी-ज़ो जनजाति के ग़रीब पोस्त उत्पादकों को ज़िम्मेदार ठहराया है, जिन्हें म्यांमार के साथ लगी सीमा पार नशीले पदार्थों के व्यापार में शामिल कुकी नेशनल फ्रंट (केएनएफ़) जैसे कुकी-ज़ो हथियारबंद समूहों का समर्थन प्राप्त है. राज्य सरकार आरक्षित वनों के बड़े पैमाने पर विनाश और मैतेई-प्रभुत्व वाली घाटी में गंभीर पर्यावरण संकट के लिए पहाड़ियों में पोस्त की खेती को भी ज़िम्मेदार मानती है.

किसानों के मुताबिक़ पोस्त की खेती का चक्र पेड़ काटकर और जंगल के टुकड़ों को जलाकर ज़मीन के बड़े हिस्से की सफ़ाई से शुरू होता है, जिसके बाद कीटनाशकों, विटामिन और यूरिया का इस्तेमाल होता है. साल 2021 में प्रकाशित इस पेपर में कहा गया है कि चुराचांदपुर ज़िले में नए साफ़ हुए वृक्षारोपण स्थलों के बगल के गांवों में जलधाराएं सूखने और बच्चों के बीच पानी से होने वाली बीमारियां बढ़ी हैं. हालांकि, प्रोफ़ेसर किपगेन ने कहा कि मणिपुर में पोस्त की खेती के पर्यावरण पर हुए असर को लेकर ज़रूरी वैज्ञानिक शोध की कमी है.

Paolal harvesting peas in his field. The 30 farming households in Ngahmun Gunphaijang, like Paolal’s, were forced to give up poppy cultivation and grow vegetables and fruits like peas, cabbage, potatoes and bananas instead, getting a fraction of their earlier earnings
PHOTO • Makepeace Sitlhou

पाओलाल अपने खेत में मटर की कटाई कर रहे हैं. पाओलाल की तरह नाहमुन गुनफाइजांग के 30 किसान परिवारों को पोस्त की खेती छोड़ने और मटर, गोभी, आलू और केले जैसी सब्ज़ियां और फल उगाने के लिए मजबूर किया गया, जिससे अब उन्हें अपनी पिछली कमाई का एक ही अंश मिल पाता है

पड़ोसी देश म्यांमार में अफ़ीम पोस्त की खेती पर यूनाइटेड नेशंस ऑफ़िस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम (यूएनओडीसी) की रिपोर्ट में पाया गया है कि गैर-पोस्त उगाने वाले गांवों की तुलना में पोस्त उगाने वाले गांवों में जंगल की गुणवत्ता ज़्यादा तेज़ी से ख़राब होती है. हालांकि, पोस्त और गैर-पोस्त भूमि दोनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव 2016 से 2018 तक गिरती पैदावार के रूप में देखा गया है. तथ्य यह है कि पोस्त की खेती के पर्यावरण पर असर को लेकर कोई निर्णायक डेटा मौजूद नहीं है.

किसान पाओलाल इसके विरोध में कहते हैं, "अगर पोस्त ने मिट्टी पर असर डाला होता, तो हम यहां सब्ज़ी की खेती नहीं कर पाते." नाहमुन के दूसरे किसान कहते हैं कि पहले अपनी ज़मीन पर अफ़ीम की खेती करने के बावजूद उन्हें फल या सब्ज़ियां उगाने में कोई परेशानी नहीं हुई है.

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किसानों का कहना है कि असली समस्या उन्हें पोस्त से मिलने वाली ऊंची आय के विकल्पों की कमी होना है. सभी गांववालों को आलू के बीज बांटने के मुखिया के दावे के बावजूद पाओलाल जैसे पूर्व पोस्त किसान कहते हैं कि उन्हें कोई फ़ायदा नहीं हुआ. उन्होंने पारी को बताया, “मैं बमुश्किल बाज़ार से 100 रुपए का बीज का एक पैकेट ख़रीद पाया. इस तरह मैंने अनकाम [सब्ज़ियां] उगाईं.”

नाहमुन की सरकारी पहल में शामिल होने के एक साल बाद तांगखुल नागा-प्रभुत्व वाले उखरुल ज़िले में पेह ग्राम परिषद ने भी पहाड़ियों के पोस्त बाग़ान नष्ट कर दिए. मुख्यमंत्री ने 2021 में तुरंत उनके लिए दस लाख रुपए के इनाम की घोषणा कर दी. राज्य का बाग़वानी और मृदा संरक्षण विभाग, मणिपुर ऑर्गेनिक मिशन एजेंसी के साथ मिलकर लाभार्थियों की पहचान और कीवी और सेब के बाग़ान जैसे वैकल्पिक आजीविका देने के लिए परिषद के साथ काम कर रहा है.

इनाम के अलावा पेह गांव के अध्यक्ष मून शिमराह ने पारी को बताया कि गांव को जुताई के लिए मशीनरी और उपकरण के अलावा 20.3 लाख रुपए नक़द, 80 बैग उर्वरक, प्लास्टिक पैकेजिंग के साथ ही सेब, अदरक और किनोआ के पौधों का अतिरिक्त अनुदान भी मिला है. शिमराह कहते हैं, "वास्तव में केवल एक ही घर ने पोस्त उगाना शुरू किया था, जब तक कि ग्राम परिषद ने अपना दख़ल नहीं दिया और इसके लिए सरकार ने हमें पुरस्कृत किया है." सरकारी अनुदान से गांव के सभी 703 परिवारों को फ़ायदा होगा. यह गांव उखरुल में ज़िला मुख्यालय से 34 किलोमीटर दूर है, जहां रतालू, नींबू, संतरा, सोयाबीन, बाजरा, मक्का और धान उगाए जाते हैं.

उन्होंने कहा, “हालांकि, हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह हमें नई फ़सलों की खेती का ज़रूरी प्रशिक्षण दिलवाए और परियोजना की बारीकी से निगरानी करे. हमें पौधों के चारों ओर कांटेदार तारों की बाड़ भी चाहिए, क्योंकि हमारे पशु इधर-उधर घूमकर फ़सल ख़राब कर सकते हैं.”

नाहमुन के कार्यकारी प्रमुख किपगेन ने पारी को बताया कि उनके गांव को अनुसंधान के उद्देश्य से एक राज्य विश्वविद्यालय और विधायक से पॉल्ट्री और सब्ज़ी के बीज जैसे आजीविका विकल्पों के लिए एक बार मदद मिली, लेकिन सरकारी मदद में काफ़ी अनियमितता रही है. उन्होंने बताया, "हम 'ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध' में शामिल होने वाले पहाड़ों के पहले आदिवासी गांव थे. फिर भी लगता है कि सरकार केवल कुछ आदिवासी समुदायों को पुरस्कृत कर रही है जबकि दूसरों को नज़रअंदाज़ कर रही है."

Left: Samson Kipgen, the acting village chief,  says that switching from poppy cultivation has 'strangled' the farmers.
PHOTO • Makepeace Sitlhou
Right: Samson walks through a patch of the hill where vegetables like bananas, peas, potatoes and cabbages are grown
PHOTO • Makepeace Sitlhou

बाएं: कार्यवाहक ग्राम प्रधान सैमसन किपगेन कहते हैं कि पोस्त की खेती छोड़ने से किसानों का के हालात बदतर हो गए हैं. दाएं: सैमसन पहाड़ी के एक हिस्से से गुज़रते हैं, जहां केले, मटर, आलू और पत्तागोभी जैसी सब्ज़ियां उगाई जाती हैं

हालांकि, राज्य सरकार के सूत्र इसका दोष रोज़ी-रोटी के अधूरे विकल्पों पर नहीं, बल्कि मॉडल पर ही मढ़ते हैं. नागा और कुकी-ज़ो बहुल पहाड़ी ज़िलों में पोस्त किसानों के लिए आजीविका से जुड़े पहल की देखरेख कर रहे मणिपुर सरकार के एक सूत्र ने कहा, "पहाड़ी आदिवासी किसानों को बीज और मुर्गियां मिली हैं, पर यह ज़्यादातर गुज़ारे भर के लिए हैं."

उनका कहना था कि सब्ज़ियां उगाने या मुर्गी पालन से होने वाली आय कभी भी किसानों की पोस्त की कमाई के बराबर नहीं हो सकती, जो अनुमानित वार्षिक आय 15 लाख रुपए की तुलना में सब्ज़ियों और फलों से बमुश्किल एक लाख रुपए होती है. कम कमाई के साथ वैकल्पिक आजीविका देने से पोस्त की खेती ख़त्म नहीं होगी. नाम न छापने की शर्त पर एक सरकारी कर्मचारी ने कहा, '''ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध' अभियान पहाड़ों में सफल नहीं हुआ है. यह सिर्फ़ दिखावा है."

अफ़ीम की खेती का जबरन उन्मूलन तब तक बेमानी है, जब तक इसे स्थायी वैकल्पिक आजीविका और मनरेगा जैसी व्यापक विकास आधारित पहलों से बदला नहीं जाता. प्रोफ़ेसर किपगेन कहते हैं, ऐसा न करने से "सामाजिक तनाव बढ़ेगा और स्थानीय सरकार और किसान समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा होगी."

यहां तक कि यूएनओडीसी रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला है कि "अफ़ीम उन्मूलन के प्रयास को बनाए रखने के लिए ऐसे अवसर चाहिए जो पोस्त की खेती रुकने के बाद भी किसानों की आय का स्तर बनाए रखने में मदद करें."

नस्ली संघर्ष ने पहाड़ी आदिवासी किसानों की मुसीबतें ही बढ़ाई हैं, जो अब घाटी में व्यापार या कोई लेन-देन नहीं कर सकते.

डेम्ज़ा कहते हैं, “[वार्षिक] अफ़ीम की खेती ख़त्म होने के बाद हम खदान से रेत मैतेईयों को बेचकर अतिरिक्त आय कर लेते थे. वह काम भी अब चला गया. अगर यह [संघर्ष] चलता रहा, तो एक समय आएगा, जब हम अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाएंगे या रोज़ी-रोटी नहीं चला पाएंगे."

अनुवाद: अजय शर्मा

Makepeace Sitlhou

मेकपीस सितल्हो स्वतंत्र पत्रकार हैं और मानवाधिकार, सामाजिक मुद्दों, शासन और राजनीति पर केंद्रित रिपोर्टिंग करती हैं.

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अजय शर्मा एक स्वतंत्र लेखक, संपादक, मीडिया प्रोड्यूसर और अनुवादक हैं.

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