पश्चिम बंगाल के बांकुरा ज़िले के पंचमुड़ा गांव के बुद्धदेब कुम्भकार अपने काम और ज़िंदगी के बारे में बात करते हैं, जो कुम्हार का काम करने वाले अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी से हैं. इस क्षेत्र के कुम्हार टेराकोटा के लाल घोड़े बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं.

यह फ़िल्म आपको बुद्धदेब दादा के रोज़मर्रा की दिनचर्या और मुश्किलों से अवगत कराती है, जिसमें मिट्टी निकालने के लिए गड्ढा खोदना, अपने पैरों से उसे रौंदना, मिट्टी को घोड़े के अलग-अलग अंगों में ढालना, और फिर बहुत ध्यान से उन्हें जोड़ना और घोड़े को सजाने का काम शामिल है. फिर वह मिट्टी के घोड़े को भट्टी में तब तक पकाते हैं, जब तक वह पक के लाल न हो जाए.

बाद में मिट्टी के घोड़ों को एजेंटों को बेच दिया जाता है, जो उन्हें चंद पैसों में कुम्हार से ख़रीदकर कोलकाता, बांकुरा, बिष्णुपुर, दुर्गापुर और यहां तक कि दिल्ली के बड़े बाज़ारों में ज़्यादा क़ीमत में बेचते हैं.

महीने के अंत में बुद्धदेब के हाथ सिर्फ़ 3,000 रुपए की कमाई ही आती है.

अनुवाद: नेहा कुलश्रेष्ठ

Kavita Carneiro

कविता कार्नेरो, पुणे की स्वतंत्र फ़िल्मकार हैं और पिछले एक दशक से सामाजिक मुद्दों से जुड़ी फ़िल्में बना रही हैं. उनकी फ़िल्मों में रग्बी खिलाड़ियों पर आधारित फ़ीचर-लंबाई की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ज़फ़र & तुडू शामिल है. हाल में, उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी लिफ्ट सिंचाई परियोजना पर केंद्रित डॉक्यूमेंट्री - कालेश्वरम भी बनाई है.

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Translator : Neha Kulshreshtha

नेहा कुलश्रेष्ठ, जर्मनी के गॉटिंगन विश्वविद्यालय से भाषा विज्ञान (लिंग्विस्टिक्स) में पीएचडी कर रही हैं. उनके शोध का विषय है भारतीय सांकेतिक भाषा, जो भारत के बधिर समुदाय की भाषा है. उन्होंने साल 2016-2017 में पीपल्स लिंग्विस्टिक्स सर्वे ऑफ़ इंडिया के द्वारा निकाली गई किताबों की शृंखला में से एक, भारत की सांकेतिक भाषा(एं) का अंग्रेज़ी से हिंदी में सह-अनुवाद भी किया है.

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