कन्निसामी उत्तरी तमिलनाडु में थिरूवल्लूर ज़िले के तटवर्ती इलाकों में बसे गांवों की सीमाओं की रक्षा करते हैं. मछुआरा समुदायों के यह संरक्षक देवता उसी समुदाय के किसी आम आदमी जैसा दिखते हैं, जो भड़कीले रंगों वाली क़मीज़ें पहनते हैं और वेटि (सफ़ेद धोती) के साथ-साथ माथे पर एक टोपी भी धारण करते है. मछुआरे समंदर में प्रवेश करने से पहले उनकी पूजा करते हैं और अपनी सुरक्षित वापसी के लिए प्रार्थना करते हैं.

मछुआरा समुदाय कन्निसामी के विभिन्न अवतारों की पूजा करता है और यह पूजा उत्तरी चेन्नई से लेकर पलवेरकाडु (पुलिकट के नाम से मशहूर) के इलाक़े की एक लोकप्रिय परंपरा रही है.

एन्नुर कुप्पम के मछुआरे लगभग सात किलोमीटर की यात्रा करके कन्निसामी की मूर्तियां ख़रीदने के उद्देश्य से अतिपट्टु आते हैं. एक वार्षिकोत्सव के रूप में यह त्यौहार हर साल जून में मनाया जाता है और पूरे एक हफ़्ते तक चलता रहता है. साल 2019 में अपनी एक यात्रा के क्रम में मुझे इस गांव के मछुआरों की एक टोली में शामिल होने का अवसर मिला था. हम उत्तरी चेन्नई के एक थर्मल पॉवर प्लांट (ताप विद्युत संयंत्र) के क़रीब कोसस्तलैयार नदी के तट पर उतरे, और उसके बाद अतिपट्टु गांव की तरफ़ पैदल निकल पड़े.

गांव में हम एक दोमंज़िले घर में पहुंचे, जिसमें कन्निसामी की बहुत सी मूर्तियां फ़र्श पर क़तारों में रखी हुई थीं. उन मूर्तियों को सफ़ेद कपड़ों में लपेटकर रखा गया था. क़रीब 40-45 की उम्र का एक आदमी मूर्तियों के आगे खड़ा होकर कपूर जला रहा था और उसने सफ़ेद धारियों वाली एक क़मीज़ के साथ एक वेटि (सफ़ेद धोती) लपेट रखी है. उसकी ललाट पर तिरुनीर [पवित्र भभूती] टीका लगा हुआ है. उन मूर्तियों को मछुआरों के कंधे पर रखने से पहले वह इसी तरह सभी मूर्तियों की पूजा करते हैं.

Dilli anna makes idols of Kannisamy, the deity worshipped by fishing communities along the coastline of north Tamil Nadu.
PHOTO • M. Palani Kumar

दिल्लि अन्ना, कन्निसामी की मूर्तियां बनाते हैं. उत्तरी तमिलनाडु के तटीय इलाक़ों में मछुआरा समुदायों के लोग इस देवता की पूजा-उपासना करते हैं

दिल्लि अन्ना के साथ यह मेरी पहली मुलाक़ात है और स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि मैं उनसे बातचीत नहीं कर पा रहा हूं. मैं उन्हीं मछुआरों के साथ वापस लौट जाता हूं जिनके साथ मैं वहां आया था. उनके कंधों पर मूर्तियां रखी हैं. वहां से कोसस्तलैयार नदी का तट चार किलोमीटर दूर है, और फिर तीन किलोमीटर नाव की सवारी करने के बाद हम वापस एन्नुर कुप्पम गांव पहुंच जाते हैं.

गांव लौटने के बाद मछुआरे उन मूर्तियों को एक मंदिर के पास एक क़तार में रखते हैं. वहां उन मूर्तियों की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है. शाम घिरने के बाद दिल्लि अन्ना कुप्पम पहुंचते हैं. धीरे-धीरे गांव के बाक़ी लोग भी मूर्तियों के आसपास इकट्ठा होने लगते हैं. दिल्लि अन्ना उन मूर्तियों पर लिपटे सफ़ेद कपड़े को हटा देते हैं, और माई [काजल] की सहायता से कन्निसामी की आंखों की पुतलियां बनाते हैं. यह उन मूर्तियों की आंखों के खोले जाने का एक प्रतीकात्मक संकेत है. उसके बाद वह एक मुर्गे की बलि चढ़ाते हैं. यह माना जाता है कि ऐसा करने से दुष्ट आत्माएं दूर रहती हैं.

इन सभी कर्मकांडों के संपन्न हो जाने के बाद, कन्निसामी की मूर्तियों को गांव के मुहाने पर ले जाया जाता है.

एन्नोर के इस तटीय और दलदली भूक्षेत्र ने मेरा परिचय अनेक लोगों से कराया है, और उन लोगों में दिल्लि अन्ना एक ख़ास आदमी हैं. उन्होंने अपना पूरा जीवन कन्निसामी की मूर्तियां बनाने के लिए समर्पित कर दिया है. जब मैं मई 2023 में दिल्लि अन्ना से मिलने के उद्देश्य से वापस अतिपट्टु गया, मुझे उनकी आलमारी में घर की कोई दूसरी वस्तु या सजावट का कोई अन्य सामान नहीं दिखा. उसमें केवल केवल मिट्टी, भूसी और मूर्तियां रखी थीं. उनके पूरे घर में ही मिट्टी की सोंधी महक फैली हुई थी.

कन्निसामी की मूर्ति बनाने के लिए सबसे पहले गांव के सीमाने से लाई गई गीली मिट्टी को चिकनी मिट्टी के साथ मिलाया जाता है. “ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से देवता की शक्ति पूरे गांव को अपने अधीन ले लेती है,” 44 साल के दिल्लि अन्ना कहते हैं. “पीढ़ियों से मेरा परिवार कन्निसामी की मूर्तियां बनाने का ही काम कर रहा है. जब मेरे पिता यह काम करते थे तब मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. साल 2011 में जब वह चल बसे, तब मेरे सभी परिचितों और संबंधियों ने मुझसे कहा कि मेरे पिता के बाद मुझे ही इस काम को आगे बढ़ाना है...यही कारण है कि मैं यह काम करने लगा. यहां मेरे अलावा कोई अन्य इंसान इस काम को नहीं करता है.”

The fragrance of clay, a raw material used for making the idols, fills Dilli anna's home in Athipattu village of Thiruvallur district.
PHOTO • M. Palani Kumar

मूर्तियां बनाने में काम आने वाली चिकनी मिट्टी की सोंधी महक से तिरुवल्लूर ज़िले के अतिपट्टु गांव में दिल्लि अन्ना का महकता हुआ घर

Dilli anna uses clay (left) and husk (right) to make the Kannisamy idols. Both raw materials are available locally, but now difficult to procure with the changes around.
PHOTO • M. Palani Kumar
Dilli anna uses clay (left) and husk (right) to make the Kannisamy idols. Both raw materials are available locally, but now difficult to procure with the changes around.
PHOTO • M. Palani Kumar

कन्निसामी की मूर्तियां बनाने के लिए दिल्लि अन्ना चिकनी मिट्टी (बाएं) और भूसी (दाएं) का उपयोग करते हैं. दोनों चीज़ें आसपास के इलाक़ों में उपलब्ध हैं, लेकिन इस बदलते दौर में उन्हें हासिल कर पाना अब पहले की तरह आसान नहीं रहा

दिल्लि अन्ना 10 दिनों में 10 मूर्तियां तैयार कर सकते हैं. वह औसतन आठ घंटे तक उन मूर्तियों पर रोज़ाना एक साथ काम करते हैं. साल में वह लगभग 90 मूर्तियां बनाते हैं. “एक मूर्ति बनाने के लिए मुझे 10 दिन काम करना पड़ता है. पहले हमें मिट्टी काटते हैं, फिर उससे कंकड़-पत्थर निकालकर मिट्टी की सफ़ाई करते हैं. उसके बाद मिट्टी में रेत और भूसी मिलाते हैं,” दिल्लि अन्ना विस्तार से पूरी प्रक्रिया समझाते हैं. मूर्ति के ढांचे को मज़बूती देने के लिए भूसी का उपयोग किया जाता हैं, और उसके बाद उस पर मिट्टी की अंतिम परत चढ़ाई जाती है.

“मूर्ति बनाने की शुरुआत से लेकर उसे पूरी करने की प्रक्रिया तक मैं अकेले काम करता हूं. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं मदद करने के लिए कोई सहायक रख सकूं,” वह कहते हैं. “यह पूरा काम एक छावनी के नीचे होता है, क्योंकि सीधी धूप पड़ने से मिट्टी ठीक से नहीं चिपक पातीं और सूखने के बाद टूट जाती है. जब मूर्ति सूख जाती है, तब मैं उसे आग में तपाकर तैयार कर लेता हूं. इस पूरे काम में सामान्यतः 18 दिन लग जाते हैं.”

दिल्लि अन्ना अतिपट्टु के आसपास के गांवों, ख़ासकर एन्नुर कुप्पम, मुगतिवार कुप्पम, तालनकुप्पम, काट्टुकुप्पम, मेट्टूकुप्पम, पल्तोट्टिकुप्पम, चिन्नकुप्पम, पेरियकुलम आदि में मूर्तियों की आपूर्ति करते हैं.

त्योहारों के समय इन गांवों के लोग कन्निसामी की मूर्तियां अपने गांवों के सीमाने पर स्थापित करते हैं. कुछ लोग कन्निसामी के पुरुष रूप की मूर्तियों की पूजा करते हैं, तो कुछ लोग कन्निसामी के स्त्रीरूप के उपासक होते हैं. देवीरूप में कन्निसामी पापाति अम्मन, बोम्मति अम्मन, पिचई अम्मन जैसे विविध नामों से जानी जाती हैं. ग्रामीण यह भी चाहते हैं कि उनकी ग्रामदेवी घोड़े अथवा हाथी पर सवार हों और बगल में एक कुत्ते की मूर्ति हो. ऐसी मान्यता है कि रात के अंधेरे में देवतागण आते हैं और अपना खेल खेलते हैं. अगली सुबह प्रमाण के रूप में ग्रामदेवी के पैरों में पड़ी दरार देखी जा सकती है.

“कई स्थानों पर मछुआरे हरेक साल कन्निसामी की नई मूर्तियां स्थापित करते हैं, तो कुछ जगहों पर उन मूर्तियों को दो, तीन या फिर चार सालों के बाद बदला जाता है,” दिल्लि अन्ना कहते हैं.

Dilli anna preparing the clay to make idols. 'Generation after generation, it is my family who has been making Kannisamy idols'.
PHOTO • M. Palani Kumar

मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी तैयार करते दिल्लि अन्ना. ‘पिछली कई पीढ़ियों से हमारा परिवार कन्निसामी की मूर्तियां बनाने का काम कर रहा है’

The clay is shaped into the idol's legs using a pestle (left) which has been in the family for many generations. The clay legs are kept to dry in the shade (right)
PHOTO • M. Palani Kumar
The clay is shaped into the idol's legs using a pestle (left) which has been in the family for many generations. The clay legs are kept to dry in the shade (right)
PHOTO • M. Palani Kumar

वह एक मूसल की मदद से मिट्टी से मूर्ति के पांव बनाते हैं (बाएं). यह मूसल उनके परिवार में पीढ़ियों से है. मिट्टी के पांवों को छावनी के नीचे सूखने के लिए डाल दिया गया है (दाएं)

हालांकि, इन गांवों के मछुआरों में मूर्तियों की मांग न तो बंद हुई है और न उसमें कोई कमी ही आई है, लेकिन दिल्लि अन्ना इस बात से परेशान हैं कि जिस पारंपरिक व्यवसाय को वह पिछले तीन दशकों से करते आ रहे हैं, उसे आगे कौन बढ़ाएगा. उनके लिए अब यह एक ख़र्चीला काम बन चुका है: “सभी चीज़ें महंगी हो गई हैं...अगर मैं ग्राहकों को मूर्ति बनाने में आए ख़र्चों के हिसाब से पैसे मांगता हूं, तो वे मुझसे सवाल करते हैं कि मैं अधिक क़ीमत क्यों मांग रहा हूं. लेकिन यह बात सिर्फ़ हमें ही पता है कि इस काम में हमें कितनी मुश्किलें आती हैं.”

उत्तरी चेन्नई के समुद्री तटों पर थर्मल पॉवर प्लांटों की निरंतर बढ़ती हुई संख्या से ज़मीनी पानी खारा होता जा रहा है, जिसके कारण इस इलाक़े में कृषि से संबंधित गतिविधियों में बहुत कमी आई है और मिट्टी की गुणवत्ता पर इसका बुरा असर पड़ रहा है. कच्चे माल की कमी के कारण दिल्लि अन्ना शिकायती लहजे में कहते हैं, “इन दिनों मुझे कहीं भी चिकनी मिट्टी मिलने में परेशानी आ रही है.”

वह बताते हैं कि चिकनी मिट्टी की ख़रीदारी बहुत महंगा सौदा है. “मैं अपने घर के पास का खेत खोदकर मिट्टी निकालता हूं और गड्ढे को रेत से भर देता हूं.” उनके मुताबिक़ चिकनी मिट्टी की तुलना में रेत सस्ती पड़ती है.

चूंकि वह अतिपट्टु के एकमात्र मूर्तिकार हैं, इसलिए सार्वजनिक स्थलों की खुदाईकर चिकनी मिट्टी हासिल करने के लिए पंचायत के साथ अकेले मोल-भाव करना उनके लिए आसान काम नहीं है. “अगर मूर्ति बनाने वाले परिवारों की संख्या 10 - 20 होती, तो हम आसपास के तालाबों या झील के क़रीब मिट्टी खोद सकते थे और तब शायद पंचायत हमें मुफ़्त में इसकी इजाज़त दे देती. लेकिन चूंकि मैं अब अकेला मूर्तिकार बचा हूं, इसलिए मैं उनपर दबाव नहीं डाल सकता, और मजबूर होकर मुझे अपने घर के आसपास से ही चिकनी मिट्टी की व्यवस्था करनी पड़ती है.”

मूर्तियों को बनाने के लिए दिल्लि अन्ना को जिस भूसी की ज़रूरत पड़ती है वह भी अब आसानी से नहीं उपलब्ध है, क्योंकि अब दिनोंदिन हाथ से धान काटना कम होता जा रहा है. “मशीनों से होने वाली कटाई से हमें पर्याप्त मात्रा में भूसी नहीं मिलती है. भूसी है तो हमारा काम है, नहीं तो हमारा काम ठप हो जाता है,” वह कहते हैं. “मैं उन किसानों की खोज करता रहता हूं जो हाथों से फ़सल काटते हैं. मैंने तो गुलदस्ते और चूल्हे बनाने भी बंद कर दिए हैं. इन चीज़ों की अभी भी बहुत मांग है, लेकिन मैं उन्हें बनाने में समर्थ नहीं हूं.”

The base of the idol must be firm and strong and Dilli anna uses a mix of hay, sand and clay to achieve the strength. He gets the clay from around his house, 'first, we have to break the clay, then remove the stones and clean it, then mix sand and husk with clay'.
PHOTO • M. Palani Kumar

मूर्ति के आधार का मज़बूत और दृढ होना बहुत ज़रूरी है. इस मज़बूती के लिए दिल्लि अन्ना फूस, रेत और चिकनी मिट्टी के मिश्रण का प्रयोग करते हैं. वह चिकनी मिट्टी अपने घर के आसपास से खोदकर लाते हैं, ‘पहले हम मिट्टी को भुरभुरा होने तक तोड़ते हैं, फिर उससे कंकड़-पत्थर बीनकर मिट्टी की सफ़ाई करते हैं. अंत में चिकनी मिट्टी में रेत और भूसी मिलाते हैं’

The idol maker applying another layer of the clay, hay and husk mixture to the base of the idols. ' This entire work has to be done in the shade as in in direct sunlight, the clay won’t stick, and will break away. When the idols are ready, I have to bake then in fire to get it ready'
PHOTO • M. Palani Kumar
The idol maker applying another layer of the clay, hay and husk mixture to the base of the idols. ' This entire work has to be done in the shade as in in direct sunlight, the clay won’t stick, and will break away. When the idols are ready, I have to bake then in fire to get it ready'
PHOTO • M. Palani Kumar

दिल्लि अन्ना मूर्ति की बुनियाद पर चिकनी मिट्टी, भूसी और फूस के मिश्रण की एक और परत चढ़ा रहे हैं. ‘यह पूरा काम छांव में करना होता है, क्योंकि सीधी धूप पड़ने से मिट्टी ठीक से नहीं चिपकती हैं और टूट भी सकती है. मूर्ति बन जाने के बाद मैं उसे आग में तपाकर अंतिम रूप से तैयार करता हूं’

अपनी आमदनी के बारे में वह बताते हैं: “एक गांव से एक मूर्ति के बदले मुझे 20,000 रुपए मिलते हैं, लेकिन ख़र्च काटने के बाद मेरे हिस्से सिर्फ़ 4,000 रुपए ही आते हैं. अगर मैं चार गांवों के लिए मूर्तियां बनाता हूं, तो मैं 16,000 रुपए कमाता हूं.”

अन्ना केवल गर्मी के मौसम - फरवरी से जुलाई के महीनों - में ही मूर्तियां बनाते हैं. आडि [जुलाई] में जब उत्सव आरंभ होता है, तब लोग मूर्तियां ख़रीदने पहुंचने लगते हैं. “छह या सात महीनों में कड़ी मेहनत करके मैं जितनी मूर्तियां बनाता हूं, वह सब का सब एक महीने में बिक जाता है. अगले पांच महीने तक मेरे पास कोई पैसा नहीं आता है. जब मैं मूर्ति बेचूंगा, तभी मुझे पैसे मिलेंगे.” दिल्लि अन्ना यह बताना नहीं भूलते कि वह इसके सिवा और कोई काम नहीं करते हैं.

वह सुबह 7 बजे अपने काम में लग जाते हैं और 8 घंटे तक काम करते हैं. उन्हें सूखती हुई मूर्तियों पर लगातार नज़र रखनी होती है, वरना वे टूट भी सकती हैं. अपनी हुनर के प्रति वह कितने समर्पित हैं, यह बताने के लिए वह मुझे एक छोटा सा वाक़या सुनाते हैं, “एक बार रात में सांस न ले पाने के कारण मुझे बहुत तेज़ दर्द उठा. रात एक बजे मैं साइकिल चलाता हुआ एक अस्पताल जा पहुंचा. डॉक्टरों ने मुझे ग्लूकोज़ [नस के माध्यम से दिया जाने वाला तरल] चढ़ाया. मेरा भाई मुझे उसी सुबह जांच-पड़ताल के लिए दूसरे अस्पताल ले गया, लेकिन स्वास्थ्यकर्मियों ने कहा कि रात 11 बजे से पहले यह संभव नहीं.” दिल्लि अन्ना को जांच कराए बिना लौटने का फ़ैसला लेना पड़ा, क्योंकि, “मुझे मूर्तियों पर नज़र रखनी थी.”

कोई 30 साल पहले दिल्लि अन्ना के परिवार के पास काट्टुपल्ली गांव की छोटी सी बस्ती चेपाक्कम में चार एकड़ ज़मीन थी. वह बताते हैं, “उस समय मेरा घर एक गणेश मंदिर से लगे चेपाक्कम सीमेंट फैक्ट्री के क़रीब था. हमने अपनी ज़मीन के पास घर इसलिए बनाया था कि हम खेती कर सकें.” जब भूजल खारा हो गया, तब उन्हें खेती का काम बंद कर देना पड़ा. उसके बाद उन्होंने अपना घर बेच दिया और अतिपट्टु आ गए.

A mixture of clay, sand and husk. I t has become difficult to get clay and husk as the increase in thermal power plants along the north Chennai coastline had turned ground water saline. This has reduced agricultural activities here and so there is less husk available.
PHOTO • M. Palani Kumar

मिट्टी, रेत और भूसी का मिश्रण. उत्तरी चेन्नई के तटवर्ती इलाक़ों में थर्मल पॉवर प्लांटों की तादाद बढ़ने और ज़मीनी पानी के खारा होने के साथ-साथ चिकनी मिट्टी और भूसी मिलना भी कम होता गया. इस कारण यहां कृषि से संबंधित गतिविधियां कम हो गईं और भूसी का अभाव होने लगा

Dilli anna applies an extra layer of the mixture to join the legs of the idol. His work travels to Ennur Kuppam, Mugathivara Kuppam, Thazhankuppam, Kattukuppam, Mettukuppam, Palthottikuppam, Chinnakuppam, Periyakulam villages.
PHOTO • M. Palani Kumar

दिल्लि अन्ना, मूर्ति के पांवों को जोड़ने के लिए मिश्रण की एक अतिरिक्त परत चढ़ा रहे हैं. उनकी बनाई हुई मूर्तियां एन्नुर कुप्पम, मुगतिवार कुप्पम, तालनकुप्पम, काट्टुकुप्पम, मेट्टूकुप्पम, पल्तोट्टिकुप्पम, चिन्नकुप्पम, पेरियकुलम जैसे सुदूर गांवों तक जाती हैं

“हम चार भाई-बहन हैं, लेकिन इस परंपरा को जारी रखने वाला मैं अकेला हूं. मैंने शादी नहीं की है. इतनी कम आमदनी में मैं अपने परिवार या बच्चे का ख़याल कैसे रख सकता हूं?” वह सवाल करते हैं. दिल्लि अन्ना को इस बात का भय है कि अगर वह कोई दूसरा काम करने लगेंगे, तब मछुआरा समुदायों के लिए इन मूर्तियों को बनाने वाला कोई नहीं होगा. “मैंने यह कला अपने पुरखों से विरासत के रूप में सीखी है, मैं इसे छोड़ नहीं सकता हूं. अगर मछुआरों के पास ये मूर्तियां नहीं होंगी, तो उनको मुश्किलों से गुज़रना होगा.”

दिल्लि अन्ना के लिए मूर्तिकला केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि एक उत्सव है. उनको याद है कि उनके पिता के समय में वे एक मूर्ति 800 या 900 रुपए में बेचते थे. मूर्ति ख़रीदने आए हरेक व्यक्ति को हम सम्मानपूर्वक भोजन कराते थे. वह यादों के गलियारे में भटकते हुए कहते हैं, “हमारे घर में इतनी रौनक हुआ करती थी, मानो यह कोई शादी का घर हो.”

आग में पकने के समय मूर्तियां नहीं टूटें, दिल्लि अन्ना के लिए इससे अधिक ख़ुशी की कोई दूसरी बात नहीं होती है. मिट्टी की बनी ये मूर्तियां उनकी निकटतम साथी हैं. “मुझे महसूस होता है कि जब मैं इन मूर्तियों को बनाता हूं, तो मेरे साथ कोई इंसान रहता है. मुझे लगता है कि ये मूर्तियां मुझसे बातचीत करती हैं. मेरे मुश्किल वक़्त में मुझे इनका ही सहारा होता है. लेकिन मुझे इस बात की चिंता है कि मेरे बाद इन मूर्तियों को कौन बनाएगा?”

‘This entire work has to be done in the shade as in direct sunlight, the clay won’t stick and will break away,' says Dilli anna.
PHOTO • M. Palani Kumar

दिल्लि अन्ना कहते हैं, ‘मूर्ति बनाने का पूरा काम छांव में होता है, क्योंकि अगर इनपर सीधी धूप पड़ेगी, तो मिट्टी अच्छी तरह से नहीं चिपकेगी. इस वजह से मूर्ति टूट भी सकती है’

Left: Athipattu's idol maker carrying water which will be used to smoothen the edges of the idols; his cat (right)
PHOTO • M. Palani Kumar
Left: Athipattu's idol maker carrying water which will be used to smoothen the edges of the idols; his cat (right)
PHOTO • M. Palani Kumar

बाएं: पानी उठाकर लाता अतिपट्टु का यह मूर्तिकार. इस पानी के उपयोग से मूर्तियों की सतह को चिकना किया जाएगा. दाएं: दिल्लि अन्ना की बिल्ली

The elephant and horses are the base for the idols; they are covered to protect them from harsh sunlight.
PHOTO • M. Palani Kumar

हाथी और घोड़े इन मूर्तियों के आधार होते हैं. कड़ी धूप से बचाने के लिए इन मूर्तियों को ढंक कर रखा जाता है

Dilli anna gives shape to the Kannisamy idol's face and says, 'from the time I start making the idol till it is ready, I have to work alone. I do not have money to pay for an assistant'
PHOTO • M. Palani Kumar
Dilli anna gives shape to the Kannisamy idol's face and says, 'from the time I start making the idol till it is ready, I have to work alone. I do not have money to pay for an assistant'
PHOTO • M. Palani Kumar

कन्निसामी की मूर्ति की मुखाकृति को आकार देते हुए दिल्लि अन्ना कहते हैं, ‘मूर्ति बनाने की शुरुआत करने से लेकर इसके बनकर तैयार हो जाने तक मैं अकेला ही काम करता हूं. मेरे पास इतने पैसे नहीं है कि मैं अपनी मदद करने के लिए किसी सहायक को रख सकूं’

The idols have dried and are ready to be painted.
PHOTO • M. Palani Kumar

मूर्तियां अच्छी तरह से सूख गई हैं और अब रंगे जाने लिए तैयार हैं

Left: The Kannisamy idols painted in white.
PHOTO • M. Palani Kumar
Right: Dilli anna displays his hard work. He is the only artisan who is making these idols for the fishing community around Athipattu
PHOTO • M. Palani Kumar

बाएं: सफ़ेद रंग से रंगी हुईं कन्निसामी की मूर्तियां. दाएं: अपने कड़े श्रम को प्रदर्शित करते दिल्लि अन्ना. अतिपट्टु और उसके आसपास के इलाक़ों में मछुआरा समुदायों के लिए मूर्तियां बनाने वाले वह एकमात्र मूर्तिकार हैं

Dilli anna makes five varieties of the Kannisamy idol
PHOTO • M. Palani Kumar

दिल्लि अन्ना, कन्निसामी की पांच प्रकार की मूर्तियां बनाते हैं

The finished idols with their maker (right)
PHOTO • M. Palani Kumar
The finished idols with their maker (right)
PHOTO • M. Palani Kumar

अपने निर्माणकर्ता (दाएं) के साथ तैयार मूर्तियां

Dilli anna wrapping a white cloth around the idols prior to selling
PHOTO • M. Palani Kumar

बेचने से पहले मूर्तियों पर सफ़ेद कपड़ा लपेटते दिल्लि अन्ना

Fishermen taking the wrapped idols from Dilli anna at his house in Athipattu.
PHOTO • M. Palani Kumar

अतिपट्टु में दिल्लि अन्ना के घर से कपड़ों में लिपटी हुई मूर्तियों को ले जाते मछुआरे

Fishermen carrying idols on their shoulders. From here they will go to their villages by boat. The Kosasthalaiyar river near north Chennai’s thermal power plant, in the background.
PHOTO • M. Palani Kumar

मूर्तियों को अपने कंधों पर उठाकर ले जाते मछुआरे. यहां से वे नाव पर सवार होकर अपने-अपने गांव जाएंगे. पीछे उत्तरी चेन्नई के थर्मल पॉवर प्लांट के क़रीब से बहती कोसस्तलैयार नदी दिख रही है

Crackers are burst as part of the ritual of returning with Kannisamy idols to their villages.
PHOTO • M. Palani Kumar

कन्निसामी की मूर्तियों को साथ लेकर गांव लौटते समय पटाखे फोड़े जाने की भी परंपरा है

Fishermen carrying the Kannisamy idols onto their boats.
PHOTO • M. Palani Kumar

कन्निसामी की मूर्तियों को अपनी नावों पर लेकर जाते मछुआरे

Kannisamy idols in a boat returning to the village.
PHOTO • M. Palani Kumar

गांव लौटती नाव, जिस पर कन्निसामी की मूर्तियां रखी हुई हैं

Fishermen shouting slogans as they carry the idols from the boats to their homes
PHOTO • M. Palani Kumar

मूर्तियों को नावों से उतारकर अपने घरों में ले जाते समय जय-जयकार करते मछुआरे

Dilli anna sacrifices a cock as part of the ritual in Ennur Kuppam festival.
PHOTO • M. Palani Kumar

मुर्गे की बलि देते दिल्लि अन्ना. यह एन्नुर कुप्पम त्यौहार की परंपरा का एक हिस्सा है

Now the idols are ready to be placed at the borders of the village.
PHOTO • M. Palani Kumar

अब मूर्तियां गांव के सीमाने पर स्थापित किए जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं


अनुवाद: प्रभात मिलिंद

M. Palani Kumar

एम. पलनी कुमार पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के स्टाफ़ फोटोग्राफर हैं. वह अपनी फ़ोटोग्राफ़ी के माध्यम से मेहनतकश महिलाओं और शोषित समुदायों के जीवन को रेखांकित करने में दिलचस्पी रखते हैं. पलनी को साल 2021 का एम्प्लीफ़ाई ग्रांट और 2020 का सम्यक दृष्टि तथा फ़ोटो साउथ एशिया ग्रांट मिल चुका है. साल 2022 में उन्हें पहले दयानिता सिंह-पारी डॉक्यूमेंट्री फ़ोटोग्राफी पुरस्कार से नवाज़ा गया था. पलनी फ़िल्म-निर्माता दिव्य भारती की तमिल डॉक्यूमेंट्री ‘ककूस (शौचालय)' के सिनेमेटोग्राफ़र भी थे. यह डॉक्यूमेंट्री तमिलनाडु में हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा को उजागर करने के उद्देश्य से बनाई गई थी.

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Editor : S. Senthalir

एस. सेंतलिर, पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया में बतौर सहायक संपादक कार्यरत हैं, और साल 2020 में पारी फ़ेलो रह चुकी हैं. वह लैंगिक, जातीय और श्रम से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर लिखती रही हैं. इसके अलावा, सेंतलिर यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टमिंस्टर में शेवनिंग साउथ एशिया जर्नलिज्म प्रोग्राम के तहत साल 2023 की फ़ेलो हैं.

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Photo Editor : Binaifer Bharucha

बिनाइफ़र भरूचा, मुंबई की फ़्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र हैं, और पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया में बतौर फ़ोटो एडिटर काम करती हैं.

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Translator : Prabhat Milind

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.

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