यह स्टोरी जलवायु परिवर्तन पर आधारित पारी की उस शृंखला का हिस्सा है जिसने पर्यावरण रिपोर्टिंग की श्रेणी में साल 2019 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड जीता है.

“क्या आपके गांव में बारिश हो रही है?” यह काराभाई आल थे, जो उत्तर गुजरात के बनासकांठा ज़िले से फ़ोन पर बात कर रहे थे. यह बातचीत इस साल जुलाई के अंतिम सप्ताह में हो रही थी. उन्होंने आधी उम्मीद के साथ अपना फ़ैसला सुनाया, “यहां पर बारिश नहीं हो रही है. अगर बारिश होती है, तो हम घर जाएंगे."

वह इतने चिंतित थे कि उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ पड़ता महसूस नहीं हो रहा था कि वह 900 किलोमीटर दूर, पुणे शहर के एक ऐसे व्यक्ति से बात कर रहे हैं जो किसान नहीं है. काराभाई का बारिश पर पूरा ध्यान मॉनसून की केंद्रीयता से पैदा होता है, जिससे वह उनका परिवार जीवित रहने के लिए हर साल जूझता रहता है.

अपने बेटे, बहू, दो पोते और एक भाई तथा उसके परिवार के साथ अपने वार्षिक प्रवास के लिए, 75 वर्षीय इस पशुचारक को अपना गांव छोड़े 12 महीने बीत चुके थे. चौदह सदस्यीय यह समूह अपनी 300 से अधिक भेड़ों, तीन ऊंटों और रात में उनके झुंड की रखवाली करने वाले कुत्ते - विछियो - के साथ रवाना हुआ था. और उन 12 महीनों में उन्होंने अपने जानवरों के साथ कच्छ, सुरेंद्रनगर, पाटन, और बनासकांठा ज़िलों में 800 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय की थी.

गुजरात के तीन क्षेत्रों से होकर गुज़रने वाला 800 किलोमीटर का मार्ग, जिसे काराभाई आल का परिवार हर साल तय करता है. स्रोत: गूगल मैप्स

काराभाई की पत्नी, डोसीबाई, और स्कूल जाने वाले उनके सबसे छोटे पोते-पोतियां कच्छ, गुजरात के रापर तालुका के जटवाड़ा गांव में अपने घर पर ही ठहरे हुए थे. इस क़बीले का संबंध रबारी समुदाय (उस ज़िले में ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध) से है. ये लोग अपनी भेड़-बकरियों के लिए चारागाहों की तलाश में हर साल 8-10 महीने के लिए अपना गांव छोड़ देते हैं. ये ख़ानाबदोश पशुपालक एक सामान्य वर्ष में, दीवाली (अक्टूबर-नवंबर) के तुरंत बाद निकल जाते हैं और जैसे ही अगला मानसून शुरू होने वाला होता है, अपने घर लौट आते हैं.

इसका मतलब यह है कि वे बारिश के मौसम को छोड़कर, साल भर चलते रहते हैं. वापस लौटने के बाद भी, परिवार के कुछ सदस्य अपने घरों के बाहर ही रहते हैं और भेड़ों को जटवाड़ा के बाहरी इलाक़े में चराने ले जाते हैं. ये मवेशी गांव के भीतर नहीं रह सकते, उन्हें खुली जगह और चरने के लिए मैदान की ज़रूरत होती है.

जब मार्च के शुरू में हम काराभाई को ढूंढते हुए सुरेंद्रनगर ज़िले के गवाना गांव के एक सूखे खेत में उनसे मिले, तो उनके शब्द थे,  “मुझे लगा कि गांव के पटेलों ने हमें यहां से भगाने के लिए आपको भेजा है." यह स्थान अहमदाबाद शहर से लगभग 150 किलोमीटर दूर है.

उनके संदेह का एक आधार था. समय जब कठिन हो जाता है, जैसा कि दीर्घकालिक सूखे के दौरान, तो ज़मीनों के मालिक इन पशुपालकों और उनके मवेशियों के झुंड को अपने इलाक़े से भगा देते हैं - वे अपने स्वयं के मवेशियों के लिए घास और फ़सलों के ठूंठ को बचाना चाहते हैं.

काराभाई ने हमें बताया था, “इस बार का दुषकाल [सूखा] बहुत ही बुरा है. यही वजह है कि हम पिछले साल अखाड़ [जून-जुलाई] के महीने में रापर से निकल गए, क्योंकि वहां बारिश नहीं हुई थी.” उनके शुष्क गृह ज़िले में पड़ रहे सूखे ने उन्हें समय से पहले ही अपने वार्षिक प्रवास की शुरुआत करने पर मजबूर कर दिया था.

उन्होंने हमें बताया, “जब तक मानसून शुरू न हो जाए, हम अपनी भेड़ों के साथ घूमते रहते हैं. अगर बारिश नहीं हुई, तो हम घर नहीं जाते हैं! मालधारी की यही ज़िंदगी है." ‘मालधारी’ गुजराती के दो शब्दों - माल (पशुधन) और धारी (संरक्षक) - से मिलकर बना है.

नीता पांड्या कहती हैं, “गुजरात के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में 2018-19 का सूखा इतना गंभीर रहा कि जो पशुचारक लगभग 25 साल पहले अपने गांव में बैठ गए थे, वे भी चारागाहों, चारे, और आजीविका की तलाश में दोबारा पलायन करने लगे." वह अहमदाबाद की एक गैर-लाभकारी मालधारी ग्रामीण अभियान समूह (मालधारी रूरल एक्शन ग्रुप, एमएआरएजी) की संस्थापक हैं, जो 1994 से पशुचारकों के बीच सक्रिय है.

PHOTO • Namita Waikar
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आल परिवार की 300 भेड़ें एक बंजर भूमि में फैली हुई हैं, जो कभी ज़ीरा का खेत हुआ करता था, और काराभाई (दाएं) अपने गांव जटवाड़ा में एक दोस्त से फ़ोन पर बात करके पता लगा रहे हैं कि घर पर सबकुछ ठीक है या नहीं

इस मालधारी परिवार के निवास स्थान, कच्छ में 2018 में बारिश मात्र 131 मिलीमीटर हुई थी, जबकि कच्छ का ‘सामान्य’ वार्षिक औसत 356 मिमी है. लेकिन यह कोई स्वच्छंद वर्ष नहीं था. इस ज़िले में मानसून एक दशक से अधिक समय से अनियमित रहा है. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के आंकड़े बताते हैं कि 2014 में ज़िले में बारिश घटकर 291 मिलीमीटर पर पहुंच गई, 2016 में 294 मिमी बारिश हुई, लेकिन 2017 में बढ़कर 493 मिमी हो गई. चार दशक पहले - 1974-78 - इसी तरह की पांच साल की अवधि एक विनाशकारी वर्ष (1974 में 88 मिमी) और चार क्रमिक वर्षों को दिखाती है, जिसमें वर्षा ‘सामान्य’ औसत से ऊपर रही.

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल के हिमांशु ठक्कर वर्षों की गलत प्राथमिकताओं के चलते गुजरात में आसन्न जल संकट नामक 2018 की रिपोर्ट में लिखते हैं कि पिछले तीन दशकों में, राज्य की उत्तरोत्तर सरकारों ने नर्मदा बांध के काम को कच्छ, सौराष्ट्र, तथा उत्तर गुजरात के सूखाग्रस्त क्षेत्रों की जीवन रेखा के रूप में आगे बढ़ाया है. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर इन क्षेत्रों को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है. उन्हें शहरी इलाक़ों, उद्योगों, और मध्य गुजरात के किसानों की आवश्यकताएं पूरी हो जाने के बाद ही केवल बचा हुआ पानी मिलता है.

स्रोत: भारतीय मौसम विभाग की विशेष रूप से निर्मित वर्षा सूचना प्रणाली और डाउन-टू-अर्थ एनवी स्टैट्स इंडिया-2018

ठक्कर ने हमें फ़ोन पर बताया, “नर्मदा के पानी का इस्तेमाल इन क्षेत्रों के किसानों और पशुपालकों के लिए किया जाना चाहिए. कुएं के पुनर्भंडारण तथा लघु बांध के लिए अतीत में अपनाए गए कार्यक्रमों को फिर से शुरू किया जाना चाहिए.”

मालधारी अपने मवेशियों को खिलाने के लिए सामूहिक चारागाह भूमि और गांव के घास के मैदानों पर निर्भर हैं. उनमें से अधिकांश के पास ज़मीन नहीं है और जिनके पास है, वे वर्षा आधारित फ़सलें उगाते हैं; जैसे कि बाजरा, जिससे उन्हें भोजन और उनके मवेशियों को चारा मिलता है.

काराभाई ने ज़ीरा के एक खाली खेत की ओर इशारा करते हुए, मार्च में कहा था, “हम दो दिन पहले यहां आए थे और आज वापस जा रहे हैं. यहां [हमारे लिए] ज़्यादा कुछ नहीं है." यह सूखा और बहुत गर्म भी था. 1960 में, जब काराभाई एक किशोर थे, तो सुरेंद्रनगर ज़िले में साल के लगभग 225 दिनों में तापमान 32 डिग्री सेल्सियस के पार चला जाता था. आज ऐसे दिनों की संख्या 274 या उससे ज़्यादा होगी, यानी 59 वर्षों में कम से कम 49 गर्म दिनों की वृद्धि - न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा इस साल जुलाई में ऑनलाइन प्रकाशित, जलवायु और ग्लोबल वार्मिंग पर एक इंटरैक्टिव उपकरण से की गई गणना से यही पता चलता है.

सुरेंद्रनगर, जहां हम इन पशुपालकों से मिले, वहां के 63 प्रतिशत से अधिक कामकाजी लोग कृषि कार्य करते हैं. पूरे गुजरात में यह आंकड़ा 49.61 फ़ीसदी है. यहां उगाई जाने वाली प्रमुख फ़सलें हैं: कपास, ज़ीरा, गेहूं, बाजरा, दालें, मूंगफली, और अरंडी. कटाई के बाद उनकी फ़सल का ठूंठ भेड़ों के लिए अच्छा चारा होता है.

वर्ष 2012 में की गई पशुधन की गिनती के अनुसार, गुजरात के 33 ज़िलों में कुल 17 लाख भेड़ों की आबादी में से अकेले कच्छ में 570,000 या उससे अधिक भेड़ें हैं. इस समुदाय के साथ काम कर रहे गैर-लाभकारी संस्था एमएआरएजी के मुताबिक़, ज़िले के वागड़ उप-क्षेत्र में, जहां से काराभाई आते हैं, उनके जैसे लगभग 200 रबारी परिवार हैं जो हर साल कुल 30,000 भेड़ों के साथ उस 800 किलोमीटर की दूरी को तय करते हैं. वे अपने घरों से हमेशा 200 किलोमीटर के दायरे में चलते हैं.

परंपरागत रूप से, मवेशियों के ये झुंड अपने गोबर और मूत्र से खेतों में फ़सल कटाई के बाद खाद प्रदान करते थे. बदले में, किसान इन पशुपालकों को बाजरा, चीनी, और चाय दिया करते थे. लेकिन जलवायु की तरह ही, पारस्परिक रूप से लाभप्रद सदियों पुराना यह संबंध अब गंभीर परिवर्तन से गुज़र रहा है.

काराभाई, पाटन ज़िले के गोविंद भारवाड़ से पूछते हैं, 'आपके गांव में कटाई हो चुकी है? क्या हम उन खेतों में रुक सकते हैं?'

काराभाई ने गोविंद भारवाड़ से पूछा (जो हमारे साथ मौजूद थे), “आपके गांव में कटाई हो चुकी है? क्या हम उन खेतों में रुक सकते हैं?”

गोविंद कहते हैं, “वे दो दिनों के बाद फ़सल काटेंगे." वह एमएआरएजी टीम के सदस्य और पाटन ज़िले के सामी तालुका के धनोरा गांव के एक कृषि-पशुपालक हैं. “इस बार, मालधारी लोग खेतों से गुज़र तो सकते हैं, लेकिन ठहर नहीं सकते. यह हमारी पंचायत का फ़ैसला है, क्योंकि यहां पानी और चारे की भारी कमी है.”

यही वह जगह है जहां से काराभाई और उनका परिवार आगे चल पड़ा - पाटन की ओर. घर लौटने से पहले, वे तीन प्रमुख क्षेत्रों: कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात का चक्कर लगा चुके होंगे.

बदलते मौसम और जलवायु की परिस्थितियों के बीच, एक चीज़ जो हमेशा स्थिर रहती है, वह है उनका आतिथ्य - रास्ते में बनाए गए उनके अस्थायी घरों में भी. काराभाई की बहू, हीराबेन आल ने परिवार के लिए बाजरे की रोटियों का ढेर लगाया था और सभी के लिए गर्म चाय बनाई थी. आप ने कहां तक पढ़ाई की है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “मैं ख़ुद कभी स्कूल नहीं गई." इतना कहकर वह बर्तन धोने लगीं. जितनी बार वह खड़ी हुईं, परिवार के बुज़ुर्गों की मौजूदगी के कारण उन्होंने अपनी काली चुनरी से घूंघट कर लिया, और काम करने के लिए ज़मीन पर बैठते ही अपने चेहरे से चुनरी हटा ली.

परिवार की भेड़ें मारवाड़ी नस्ल की हैं, जो गुजरात और राजस्थान की मूल निवासी हैं. एक साल में, वे लगभग 25 से 30 मेढ़ें बेचते हैं; प्रत्येक लगभग 2,000 से 3,000 रुपए में. भेड़ का दूध उनके लिए आय का एक अन्य स्रोत है, हालांकि इस झुंड से आय अपेक्षाकृत कम होती है. काराभाई कहते हैं कि 25-30 भेड़ें उन्हें रोज़ाना लगभग 9-10 लीटर दूध देती हैं. स्थानीय छोटी डेरियों से प्रत्येक लीटर के लगभग 30 रुपए मिलते हैं. बिना बिके दूध से यह परिवारा छाछ बना लेता है और उससे निकलने वाले मक्खन से घी.

काराभाई मज़े से कहते हैं, “घी पेट मा छे! [घी, पेट में है!]. इस गर्मी में चलने से पैर जल जाते हैं, इसलिए इसे खाने से मदद मिलती है.”

और ऊन बेचना? इस सवाल के जवाब में काराभाई ने उदासी से कहा, “दो साल पहले तक, लोग प्रत्येक जानवर का ऊन 2 रुपए में ख़रीदते थे. अब कोई भी इसे ख़रीदना नहीं चाहता. ऊन हमारे लिए सोने जैसा है, लेकिन हमें इसे फेंकना पड़ता है." उनके लिए और लाखों अन्य पशुपालकों, भूमिहीनों, छोटे, और सीमांत किसानों के लिए, भेड़ (और बकरियां) उनकी दौलत और उनकी आजीविकाओं का केंद्र हैं. अब यह दौलत कम होती जा रही है.

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13 वर्षीय प्रभुवाला आल अगले सफ़र के लिए ऊंट को तैयार कर रहे हैं, जबकि उनके पिता वालाभाई (दाएं) भेड़ को घेरना शुरू कर देते हैं. इस बीच प्रभुवाला की मां, हीराबेन (नीचे बाएं) चाय पीने के लिए विराम लेती हैं, जबकि काराभाई (बिल्कुल दाएं) पुरुषों को आगे चलने के लिए तैयार करते हैं

भारत में 2007 और 2012 की पशुधन गणना के बीच के पांच वर्षों में भेड़ों की संख्या में 6 मिलियन से ज़्यादा की कमी आई - 71.6 मिलियन से घटकर 65 मिलियन पर पहुंच गई. यह 9 फ़ीसदी की गिरावट है. गुजरात में भी तेज़ी से गिरावट आई है, जहां लगभग 300,000 की कमी होने के बाद अब यह संख्या केवल 1.7 मिलियन रह गई है.

कच्छ में भी कमी देखने को मिली, लेकिन यहां पर इस पशु ने अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया है, जो कि शायद मालधारियों द्वारा अच्छी देखभाल का नतीजा है. यहां पर 2007 की तुलना में 2012 में लगभग 4,200 कम भेड़ें थीं.

पशुधन की 2017 की गणना के आंकड़े छह महीने तक बाहर नहीं आएंगे, लेकिन काराभाई का कहना है कि वह गिरावट की प्रवृत्ति को देख रहे हैं और भेड़ों की संख्या में कमी के कई मिले-जुले कारण बताते हैं. वह कहते हैं, “जब मैं 30 साल का था, तो आज से कहीं ज़्यादा घास और पेड़-पौधे हुआ करते थे, भेड़ों को चराने में कोई समस्या नहीं थी. अब जंगल और पेड़ काटे जा रहे हैं, और घास के मैदान सिकुड़ रहे हैं, छोटे होते जा रहे हैं. गर्मी भी बहुत ज़्यादा है.” साथ ही, अनियमित मौसम तथा जलवायु परिवर्तन के लिए मानव गतिविधि को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.

वह कहते हैं, “सूखे के वर्षों में जैसे हमें परेशानी होती हैं, वैसे ही भेड़ें भी परेशानी झेलती हैं. घास के मैदानों के सिकुड़ने का मतलब है कि उन्हें घास और चारे की तलाश में और भी ज़्यादा चलना और भटकना होगा. भेड़ों की संख्या भी शायद कम हो रही है, क्योंकि कुछ कमाने के लिए लोग ज़्यादा जानवरों को बेच रहे होंगे.”

अपने झुंड के लिए घास और चराई के मैदान के सिकुड़ने के बारे में उनकी बात सही है. सेंटर फ़ॉर डेवलपमेंट आल्टरनेटिव्स, अहमदाबाद की प्रोफ़ेसर इंदिरा हिरवे के अनुसार, गुजरात में लगभग 4.5 प्रतिशत भूमि चारागाह या चराई की भूमि है. लेकिन आधिकारिक डेटा, जैसा कि वह बताती हैं, इन ज़मीनों पर बड़े पैमाने पर अवैध अतिक्रमण को कारक नहीं मानता. इसलिए असली तस्वीर छिपी रहती है. मार्च 2018 में, सरकार ने इससे संबंधित सवालों के जवाब में राज्य की विधानसभा में यह स्वीकार किया था कि 33 जिलों में 4,725 हेक्टेयर गौचर (चराई) भूमि का अतिक्रमण हुआ है. हालांकि, कुछ विधायकों ने हमला बोलते हुए कहा था कि यह आंकड़ा बहुत ही कम करके पेश किया गया है.

ख़ुद सरकार ने स्वीकार किया था कि 2018 में, राज्य के अंदर 2,754 गांव ऐसे थे जहां चराई की भूमि बिल्कुल भी नहीं थी.

गुजरात औद्योगिक विकास निगम द्वारा उद्योगों को सौंपी गई भूमि में भी वृद्धि हुई है - इसमें से कुछ भूमि राज्य द्वारा अधिग्रहित की गई. इसने 1990 और 2001 के बीच, अकेले एसईज़ेड के लिए उद्योगों को 4,620 हेक्टेयर भूमि सौंप दी. ऐसी भूमि 2001-2011 की अवधि के अंत तक बढ़कर 21,308 हेक्टेयर हो गई थी.

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काराभाई, जटवाड़ा जाने वाली सड़क पर और (दाएं) उस गांव में आल परिवार के घर के बाहर अपनी पत्नी डोसीबाई आल और पड़ोसी रत्नाभाई धागल के साथ

सुरेंद्रनगर में, मार्च महीने के इस दिन का तापमान जैसे ही बढ़ा, काराभाई ने पुरुषों से आग्रह किया, “दोपहर होने को है, आ जाओ, चलना शुरू करते हैं!” पुरुषों ने आगे चलना शुरू किया और भेड़ें उनके पीछे आने लगीं. सातवीं कक्षा तक स्कूल जा चुका काराभाई के समूह का एकमात्र सदस्य, उनका 13 वर्षीय पोता, प्रभुवाला, खेत के किनारे लगी झाड़ियों को पीटता है और वहां घूम रही भेड़ों को हांककर झुंड में ले आता है.

तीनों महिलाओं ने रस्सी की चारपाई, दूध के स्टील वाले डिब्बे और अन्य सामान पैक किए. प्रभुवाला ने दूर के एक पेड़ से बंधे ऊंट को खोला और उस जगह ले आया जहां उसकी मां, हीराबेन ने अपने सफ़र का घर, और रसोई को इकट्ठा कर लिया था, ताकि ये सारा सामान ऊंट की पीठ पर लादा जा सके.

पांच महीने बाद, अगस्त के मध्य में, हम काराभाई से दोबारा रापर तालुका में सड़क पर मिले और जटवाड़ा गांव में स्थित उनके घर गए. उनकी पत्नी, 70 वर्षीय डोसीबाई आल ने हमें बताया और सभी के लिए चाय बनाई, “10 साल पहले तक मैं भी परिवार के साथ यात्रा करती थी. भेड़ और बच्चे हमारी दौलत हैं. उनकी अच्छी तरह से देखभाल की जानी चाहिए, यही मैं चाहती हूं.”

उनके एक पड़ोसी, भैय्याभाई मकवाना शिकायत करने लगे कि सूखा अब अक्सर पड़ने लगा है. “अगर पानी नहीं है, तो हम घर नहीं लौट सकते. पिछले छह वर्षों में, मैं केवल दो बार घर आया.”

एक अन्य पड़ोसी, रत्नाभाई धागल ने दूसरी चुनौतियों के बारे में बताया, “मैं दो साल के सूखे के बाद घर लौटा और पाया कि सरकार ने हमारी गौचर भूमि को चारों ओर से घेर दिया था. हम दिन भर घूमते हैं लेकिन हमारे माल को पर्याप्त घास नहीं मिल पाती है. हम क्या करें? उन्हें चराने ले जाएं या क़ैद कर दें? पशुपालन एकमात्र काम है, जो हम जानते हैं और उसी पर ज़िंदगी गुज़ारते हैं.”

अनियमित मौसम और जलवायु परिवर्तन में वृद्धि से थक चुके काराभाई कहते हैं, “सूखे के कारण काफ़ी दुख झेलना पड़ता है. खाने के लिए कुछ भी नहीं है और जानवरों, या पक्षियों के लिए भी पानी तक नहीं है.”

अगस्त में हुई बारिश ने उन्हें थोड़ी राहत दी. आल परिवार के पास संयुक्त रूप से लगभग आठ एकड़ वर्षा-आधारित भूमि है, जिस पर उन्होंने बाजरा बोया है.

पशुओं के चरने और पशुपालकों के प्रवासन की प्रक्रिया को कई कारकों के संयोजन ने प्रभावित किया है - जैसे कि राज्य में विफल या अपर्याप्त मानसून, आवर्ती सूखा, सिकुड़ते घास के मैदान, तेज़ी से औद्योगीकरण और शहरीकरण, वनों की कटाई और चारा तथा पानी की उपलब्धता में कमी. मालधारियों के जीवन के अनुभव से पता चलता है कि इनमें से कई कारक मौसम और जलवायु में बदलाव के लिए ज़िम्मेदार हैं. अंततः, इन समुदायों का आवागमन गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है, और वह समय-सारणी बदल रही है जिस पर उन्होंने सदियों तक अमल किया है.

काराभाई विदा होते समय कहते हैं, “हमारी सभी कठिनाइयों के बारे में लिखना. और हम देखेंगे कि क्या इससे कोई बदलाव आता है. अगर नहीं, तो भगवान तो है ही.”

लेखिका इस स्टोरी को रिपोर्ट करने में अहमदाबाद और भुज के मालधारी रूरल एक्शन ग्रुप (एमएआरएजी) की टीम का उनके समर्थन और ज़मीनी सहायता प्रदान करने के लिए धन्यवाद करना चाहती हैं.

पारी का जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग का प्रोजेक्ट, यूएनडीपी समर्थित उस पहल का एक हिस्सा है जिसके तहत आम अवाम और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों को दर्ज किया जाता है.

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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Reporter : Namita Waikar

नमिता वाईकर एक लेखक, अनुवादक, और पारी की मैनेजिंग एडिटर हैं. उन्होंने साल 2018 में ‘द लॉन्ग मार्च’ नामक उपन्यास भी लिखा है.

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Editor : P. Sainath

पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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Translator : Qamar Siddique

क़मर सिद्दीक़ी, पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रुरल इंडिया के ट्रांसलेशन्स एडिटर, उर्दू, हैं। वह दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं।

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