“पंद्रह, सोलह, अट्ठारह ...” खंडू माने, अठ्ठ्या की पीठ पर टंगी बोरी में कच्ची ईंटे गिनकर रख रहे हैं. और फिर वह गधे से कहते हैं: “चल...फर्रर...फर्रर...” अठ्ठ्या और बोझ लादे दो दूसरे गधे वहां से 50 मीटर दूर भट्टी की तरफ़ बढ़ने लगते हैं, जहां उन ईंटों को आग में पकाने के लिए उतारा जाता है.

खंडू कहते हैं, “बस एक घंटे और; उसके बाद हम आराम करेंगे.” लेकिन अभी तो सुबह के नौ ही बजे हैं! हमारे चेहरे पर विस्मय के भावों को देखकर वह बताते हैं: “हमने रात को एक बजे से काम शुरू किया था. तब बिल्कुल अंधेरा था. हमारी पाली सुबह 10 बजे ख़त्म हो जाती है. रातभर हे असंच चालू आहे [हम पूरी रात काम करते रहे हैं].”

खंडू की टोली के चार गधे भट्टी से लौट आए है. उनकी पीठ की बोरियां खाली हो चुकी है. वह दोबारा अपनी गिनती शुरू करते हैं: “चौदह, सोलह, अट्ठारह....”

फिर वह अचानक आवाज़ लगाते हैं, “रुको...” वह अपनी टोली के एक गधे को हिंदी में आदेश देते हैं. वह हंसते हुए कहते हैं, “हमारे स्थानीय गधे मराठी समझते हैं, लेकिन यह नहीं समझता. यह राजस्थान से आया है. हमें उसे हिंदी में आदेश देना होता है”. फिर वह इस बात का नमूना दिखाने लगते हैं: रुको. गधा वहीं ठिठक कर रुक जाता है. चलो. वह चलने के लिए उद्यत हो जाता है.

अपने चौपाए दोस्तों के प्रति खंडू का प्रेम उसके लिए फ़ख्र की बात है. “लिम्बू और पंधर्या घास चरने गए हैं, और मेरा सबसे प्यारा बुलेट भी. वह लंबी और सुंदर होने के साथ ही बहुत फुर्तीली भी है !“

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खंडू माने, सांगली शहर के बाहरी इलाक़े में स्थित सांगलीवाड़ी के जोतिबा मंदिर क्षेत्र के पास एक ईंट भट्ठे पर अठ्ठ्या की पीठ पर ईंटें लादते हैं

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बाएं: कर्नाटक के बेलगाम ज़िले की अथनी तालुका के जोतिबा मंदिर के पास स्थित भट्ठे पर विलास कुडची और रवि कुडची गन्ने के सूखे अवशेषों का भार उठा रहे हैं, जिसका उपयोग ईंट बनाने के लिए किया जाएगा. दाएं: ईंटों का बोझा लेकर एक चक्कर लगाने के बाद और ईंटें लेने के लिए लौट रहे गधे

हम उनसे सांगलीवाडी के पास के एक ईंट भट्ठे पर मिले थे जो महाराष्ट्र के सांगली शहर के बाहरी इलाक़े में बसा हुआ है. इस इलाक़े में जोतिबा मंदिर के आसपास अनेक ईंट भट्ठे है. तक़रीबन 25 तो हमने ख़ुद गिने.

ईंट बनाने में काम आने वाली गन्नों के सूखे अवशेषों से भरी बोरियों की मीठी ख़ुशबू भट्टी से उठने वाले धुएं के साथ मिल कर सुबह की हवा में घुल गई है. हरेक भट्ठों पर हमें मर्द, औरतें, बच्चे, और गधे रातदिन काम में जुटे हुए दिख रहे हैं. कुछ मज़दूर मिट्टी मिला रहे, जबकि कुछ उस मिट्टी को ईंट के सांचे में में डाल रहे हैं. कुछ मज़दूर उन ईंटों को ढोने में व्यस्त हैं, जबकि दूसरे उन्हें उतार कर क़तारों में रख रहे हैं.

गधों का आना-जाना जारी है. वे दो ...या चार ....या छह की जोड़ियों में अपना काम निपटा रहे हैं....

खंडू बताते हैं, “हम पिछली अनेक पीढ़ियों से गधे पालने का काम करते हैं. मेरे मां-बाप ने यही काम किया, मेरे दादा-दादी ने भी यही काम किया, और अब मैं भी यही कर रहा हूं.” सांगली शहर से कोई 150 किलोमीटर दूर, सोलापुर के पंढरपुर ब्लॉक के मूल निवासी खंडू, उनका परिवार और उनके गधे सांगली के अपने गांव वेलापुर से हर साल नवंबर-दिसंबर से लेकर अप्रैल-मई के बीच ईंट बनाने के सीज़न में अपने गांव से यहां चले आते है.

वहीं हमें खंडू की पत्नी माधुरी भी दिखीं, जो गधों द्वारा लाई गईं कच्ची ईंटों को उतारने और क़तारों में रखने के काम में व्यस्त हैं. उनकी दोनों बेटियां - 9 साल की श्रावणी और 13 साल की श्रद्धा - उन गधों का उनके गंतव्यों के बीच लाने-ले जाने का काम कर रही हैं. लड़कियों का 4-5 वर्षीय भाई अपने पिता के पास बैठा चाय-बिस्कुट खा रहा है.

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बाएं: माधुरी माने उतारी गईं ईंटों की एक जोड़ी एक मज़दूर की ओर फेंकती है, जो फिर उन्हें एक पंक्ति में रख देता है. दाएं: माधुरी और उनके बच्चे ईंट भट्ठे पर बने बेहद तंग घर में. इस अस्थायी संरचना की छत के लिए एस्बेस्टस शीट लगाई गई है, और दीवारें ढीले-ढाले तरीक़े से रखे ईंटों से बनाई गई हैं. यहां शौचालय की सुविधा मौजूद नहीं है, और न ही दिन में बिजली आती है

माधुरी एक बार में दो ईंटें उतारती हुई बताती हैं, “श्रावणी और श्रद्धा सांगली के एक आवासीय विद्यालय में पढती थीं, लेकिन हमें उनकी पढ़ाई रोक देनी पड़ी, ताकि वे हमारी मदद कर सकें. हमने एक पति-पत्नी को काम में हमारी मदद करने के लिए भाड़े पर रखा था. उन्होंने हमसे 80,000 रुपए एडवांस में ले लिए और भाग निकले. अब हमें ही अगले दो महीनों में सारा काम पूरा करना है.” इतना कहने के बाद वह लपक कर अपने काम पर लौट जाती हैं.

हर ईंट जो माधुरी उतार रही हैं, वज़न में कम से कम दो किलो की हैं. वे उन ईंटों को एक दूसरे मज़दूर की तरफ़ उछालती हैं, जो क़तारों में रखी ईंटों के ऊंचे ढेर पर खड़ा है.

“दस... बारह... चौदह...” वह झुककर ईंटों को लपकते हुए गिन रहा है, और उन्हें तेज़ी से क़तारबद्ध करते हुए रखता जा रहा है. इन कच्ची ईंटों को भट्टी में पकाया जाना है.

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हर रोज़ ठीक आधी रात के बाद से सुबह के दस बजे तक खंडू, माधुरी और उनके बच्चे साथ मिलकर लगभग 15,000 ईंटों को लादते और उतारते हैं. इस काम में उनके 13 गधों की टोली उनकी मदद करती है, जो तक़रीबन हर रोज़ 2,300 किलो के बराबर ईंटें उठाते हैं. अपने साथ चलने वाले मज़दूरों के साथ एक दिन में ये पशु कुल 12 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं.

खंडू का परिवार भट्ठी तक पहुंचाई गईं प्रत्येक 1,000 ईंटों के बदले 200 रुपए कमाता है. इसे ईंट भट्ठा मालिक द्वारा छह महीने तक काम करने के लिए भुगतान किए गए अग्रिम पैसों में ही समायोजित कर दिया जाता है. पिछले सीज़न में, खंडू और माधुरी को अग्रिम भुगतान के रूप में 2.6 लाख रुपए मिले थे - प्रति गधे के हिसाब से 20,000 रुपए.

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माधुरी और उनके पति खंडू (पीली टी-शर्ट में) अपने गधों द्वारा ढोई गई ईंटों को उतारते हैं और उन्हें क़तार में रखने वाले मज़दूरों को पकड़ाते हैं

सांगली से 75 किलोमीटर दूर स्थित कोल्हापुर ज़िले के भांबवडे में दो ईंट भट्ठों के मालिक विकास कुंभार, जो क़रीब 25 साल के हैं, कहते हैं, “हम आमतौर पर प्रति जानवर के हिसाब से 20,000 रुपए गिनते हैं. चरवाहों को किए जाने वाले सभी भुगतान अग्रिम तौर पर कर दिए जाते हैं. जितने ज़्यादा गधे, उतना ही ज़्यादा अग्रिम भुगतान.

पूरा सौदा छह महीने के अंतराल में उठाई गईं ईंटों के मेहनताने से सभी तरह के अग्रिम भुगतान और क़र्ज़े के पैसों को घटाकर निकलने वाली राशि के आधार पर तय होता है. विकास कहते हैं, “हम उनके द्वारा कुल उत्पादन, खानपान के लिए दिए गए साप्ताहिक ख़र्चे (प्रति परिवार 200 से 250 रुपए), और दूसरे ख़र्चों के एवज़ में भुगतान करते हैं.” वह विस्तार से बताते हैं कि अगर कोई मज़दूर कुल अग्रिम भुगतान के बराबर काम नहीं कर पाता है, तो बकाया पैसा उस पर क़र्ज़ रहता है, जिसे उसे अगले साल चुकाना होता है. खंडू और माधुरी जैसे कुछ मज़दूर अग्रिम भुगतान का एक हिस्सा भाड़े पर मदद करने वाले मज़दूरों को चुकाने के लिए सुरक्षित रखते हैं.

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इस इलाक़े में सक्रिय पशुकल्याण संगठन ‘एनिमल राहत’ के एक कार्यकर्त्ता बताते हैं, “सांगली ज़िले में पलूस और म्हैसाल के बीच तक़रीबन 450 ईंट भट्ठे हैं, जो कृष्णा नदी के किनारे बने हुए है.” सांगलीवाडी 80-85 लंबे इस नदी तट के लगभग बीचोंबीच पड़ता है. उनके साथ काम करने वाला एक आदमी बताता है, “भट्ठों पर 4,000 से भी अधिक गधे काम करते हैं.” वे दोनों नियमित रूप से गधों की सेहत की जांच करने आते रहते हैं. उनका संगठन आकस्मिक स्थिति के लिए एक एंबुलेस सेवा भी चलाता है और गंभीर रूप से बीमार पशुओं की देखभाल करता है.

जिस समय काम की पाली बदलती है, हम बहुत से गधों को जोतिबा मंदिर के क़रीब नदी की तरफ़ भागते हुए देखते हैं. उनकी देखभाल करने वाले युवा उम्र के लड़के मोटरसाइकिल और साइकिलों पर सवार होकर उनको घास चराने ले जाते हैं. उसी समय अधिकतर गधे इलाक़े की कचरों वाली जगहों पर लीद करते हैं. शाम तक उनकी देखभाल करने वाले उन्हें लेकर लौट जाते हैं. हालांकि, खंडू, माधुरी और गधे रखने वाले कई दूसरे मज़दूर यह दावा करते हैं कि अपने मवेशियों के चारे की व्यवस्था वे ख़ुद करते हैं, लेकिन हमें उनका चारा कहीं नहीं दिखा.

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बाएं: गधों के एक समूह को उनका चरवाहा चराने के लिए ले जा रहा है, जो अपनी मोटरसाइकल पर जानवरों के पीछे चल रहा है. दाएं: चरवाहों को पशुचिकित्सा सहायता प्रदान करने वाले एक गैर सरकारी संगठन का एक कार्यकर्ता, जगू माने के एक गधे को इंजेक्शन लगा रहा है

जनाबाई माने (45 वर्ष) बताती हैं, “हम दो गुंठा (लगभग 0.5 एकड़) खेती की ज़मीन को हर साल अपने पशुओं को घास और कडबा (जवार के सूखे हुए पुआल) खिलाने के लिए किराए पर लेते हैं.” हर छह महीने के लिए 2,000 रुपया किराए के रूप में चुकाना पड़ता है. लेकिन, हमारा जीवन उन पर ही निर्भर है. अगर उनको खाना नहीं मिलेगा, तो हम ठीक से कैसे खा सकेंगे?”

टिन की छत वाले अपने घर में बैठकर हमसे बातचीत करते हुए उन्होंने अपना दोपहर का खाना ख़त्म किया. घर की दीवारें एक-दूसरे पर ऐसे ही सहेज कर रखी हुई ईंटों से बनी हैं, और कमरे के फर्श को ताज़े गोबर से लीपा गया है. वह हमसे प्लास्टिक की चटाई पर बैठने का आग्रह करती हैं. जनाबाई कहती हैं, “हम फलटन (ज़िला सतारा) से आते हैं, लेकिन मेरे गधों के लिए वहां पर कोई काम नहीं है. इसलिए, पिछले 10-12 सालों से हम सांगली में काम करते आ रहे हैं. जिथे त्यांना काम, तिथे आम्ही (जहां काम मिलता है, हम वहां जाते हैं).” सात सदस्यों का उनका परिवार साल भर सांगली में ही रहता है, जबकि खंडू और उनका परिवार केवल ईंट बनाने के सीज़न में ही वहां आते हैं.

जनाबाई और उनके परिवार ने अभी हाल में ही सांगली शहर के बाहरी इलाक़े में 2.5 गुंठा (कोई 0.6 एकड़ ज़मीन) ख़रीदी है. वह कहती हैं, “हर मौसम में आने वाली बाढ़ मेरे मवेशियों के लिए जानलेवा साबित होती है. इसलिए हमने पहाड़ियों के पास की ज़मीन ख़रीदी है. हम वहां एक ऐसा घर बनाएंगे जिसका निचला तल गधों के रहने के लिए होगा और पहली मंज़िल पर हमारा परिवार रहेगा.” उनका पोता उनकी गोद में आ बैठता है. वह बेहद ख़ुश दिख रहा है. वह बकरियां भी पालती हैं; हम उनके मिमियाने की आवाज़ सुनते हैं. वे शायद अपने चारे का इंतज़ार कर रही हैं. वह कहती हैं, “मेरी बहन ने मुझे तोहफ़े में एक मादा बकरी दी थी. मेरे पास अब कुल जमा 10 बकरियां हो गई हैं.” जनाबाई की आवाज़ में एक ख़ुशी झलक रही है.

वह शिकायती लहजे में बोलती हैं, “गधों को पालना अब रोज़-बरोज़ मुश्किल होता जा रहा है. कभी हमारे पास 40 गधे हुआ करते थे. एक गुजरात से आया गधा दिल का दौरा पड़ने से मर गया, और हम उसे बचा नहीं पाए.” अब उनके पास 28 गधे बचे हैं. सांगली से एक चिकित्सक छह महीने में एक या दो बार उनकी जांच करने के लिए आते हैं. लेकिन पिछले तीन महीनों में ही परिवार को अपने चार गधों की जानें गंवानी पड़ी. तीन गधे घास चरने के क्रम में कोई ज़हरीली चीज़ खाने से मरे, और एक दुर्घटना में मारा गया. जनाबाई बताती हैं, “हमारे पिता की पीढ़ी के लोग आयुर्वेदिक चिकित्सा जानते थे, लेकिन हम नहीं जानते हैं. अब हम सामान्यतः एक दुकान में जाते हैं और दवाओं की बोतलें ख़रीद लाते हैं.”

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बाएं: जनाबाई माने और उनके परिवार के पास सांगली में 28 गधे हैं. 'अब गधों को पालना मुश्किल होता जा रहा है.' दाएं: उनके बेटे सोमनाथ माने दिन का काम शुरू करने से पहले गधों का हालचाल लेते हैं

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महाराष्ट्र में अनेक समूह गधों को जिलाने और पालने का काम करते है. इनमें कैकाड़ी, बेलदार, कुंभार, और वडार समुदाय प्रमुख हैं. कैकाड़ी समुदाय जिससे खंडू, माधुरी, और जनाबाई आते हैं, ख़ानाबदोश आदिवासी थे जिन्हें अंगेजों ने ‘अपराधी’ घोषित कर रखा था. साल 1952 में अपराधी जनजाति अधिनियम के उन्मूलन के साथ ही इन्हें भी ‘अपराधियों’ की सूची से मुक्त कर दिया गया. लेकिन अभी भी वे समाज में संशय की दृष्टि से देखे जाते हैं. पारंपरिक रूप से, कैकाड़ी समुदाय के लोग टोकरियां और झाड़ू बनाते थे. विदर्भ क्षेत्र के आठ ज़िलों को छोड़कर महाराष्ट्र के वृहत्तर हिस्से में कैकाड़ी समुदाय को आज भी ‘विमुक्त जाति’ के रूप सूचीबद्ध किया गया है. विदर्भ में इसे अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है.

मवेशियों के रूप में गधा पालन करने वाले कैकाड़ी समुदाय के अधिकतर लोग अपने पशु पुणे ज़िले के जेजुरी या अहमदनगर ज़िले के मढी से ख़रीदते हैं. कुछ लोग गुजरात और राजस्थान के गधा बाज़ार भी जाते हैं. जनाबाई कहती हैं, “एक जोड़ी गधे 60,000 से 120,000 रुपए में मिलते हैं. वह आगे बताती हैं कि “वैसे गधे जिनके अभी दांत न निकले हों, अधिक महंगे मिलते हैं,” क्योंकि दांतों से उनकी उम्र का पता चलता है. गधे के पहले जोड़ी दांत उनके जन्म लेने के कुछ हफ़्ते बाद ही दिखने लगते हैं, लेकिन बाद में दांत गिर जाते हैं और युवावस्था में उग आए नए दांतों से स्थानांतरित कर दिए जाते हैं, जो स्थायी होते हैं. तब गधे तक़रीबन पांच साल के हो चुके होते हैं.

बहरहाल, पिछले दशक से भारतीय गधों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है, और यह बात चिंताजनक है. साल 2012 से लेकर 2019 के बीच उनकी संख्या में 61.2 प्रतिशत कमी दर्ज की गई है. मवेशियों की गणना के मुताबिक़, साल 2012 में 3.2 लाख की तुलना में 2019 में वे घटकर सिर्फ़ 1.2 लाख ही रह गए हैं. महाराष्ट्र, जो गधों की संख्या के मामले में दूसरे स्थान पर है, वहां 2019 की गणना के अनुसार गधों की कुल संख्या 17,572 दर्ज की गई, जो 2012 के मुक़ाबले 40 फ़ीसदी कम थी.

तेज़ी से आई इस गिरावट ने जानवरों के कल्याणार्थ गठित एक स्वयंसेवी संगठन ब्रूक इंडिया ने पत्रकार शरत के वर्मा को एक खोजी क़िस्म का ‘ शोध अध्ययन ’ करने के लिए उत्साहित किया. उनके अध्ययन ने इस गिरावट के लिए अनेक कारणों को ज़िम्मेदार बताया. मसलन मवेशियों के उपयोग में आई कमी, उनका पालन करने वाले समुदायों द्वारा व्यवसाय परिवर्तन, यातायात की आधुनिक प्रणाली का विकास, चारागाहों के लिए सिकुड़ती हुई ज़मीनें, पशुओं का अवैध वध, और मवेशियों की चोरी.

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बाएं: एक चरवाहा अपने गधे को दुलार रहा है. दाएं: मिराज क़स्बे के लक्ष्मी मंदिर इलाक़े में स्थित एक भट्ठे पर ईंट उतारता एक मज़दूर

सांगली के ब्रूक इंडिया के कार्यक्रम समन्वयक डॉ. सुजीत पवार कहते हैं, “दक्षिणी राज्यों में, ख़ासकर आंध्रप्रदेश के गुंटूर क्षेत्र में गधों के मांस की काफ़ी मांग है.” वर्मा के शोध में ऐसी अनेक टिप्पणियां हैं जो आंध्रप्रदेश के अनेक ज़िलों में मांस के लिए गधों के अंधाधुंध वध के बारे में बताती हैं. सस्ता होने के अलावा, मान्यता है कि गधे के मांस में औषधीय गुण भी पाए जाते हैं और यह मदों में पुरुषत्व को बढ़ाता है.

पवार अलग से यह बात जोड़ते हैं कि गधों की चमड़ी की तस्करी कर उन्हें चीन भेजा जाता है. एक पारंपरिक चीनी औषधि ‘एजियाओ’ में प्रयुक्त होने वाला यह मुख्य तत्व है, और इसीलिए इसकी बहुत अधिक मांग है. ब्रूक इंडिया द्वारा जारी किये गए रिपोर्ट में गधों के अवैध वध और गधों की चोरी में गहरा संबंध बताया गया है. रिपोर्ट इस नतीजे पर भी पहुंचती है कि गधों की चमड़ी के अवैध व्यापार में बढ़ोतरी की मुख्य वजह चीन में इसकी तेज़ मांग है. इन्हीं सब कारणों से यह पशु भारत में तेज़ी से विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं.

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बाबासाहेब बबन माने (45 साल) छह साल पहले अपने सभी 10 गधों को चोरी में गंवा चुके थे. “उसके बाद ही मैंने ईंट मज़दूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया. अब पहले की तुलना में मेरी आमदनी बहुत कम हो गई है.” गधों के मालिक प्रत्येक 1,000 ईंटों को लादने-उतारने के एवज़ में रोज़ 200 रुपए कमाते हैं, जबकि ढुलाई करने वाले मज़दूर सिर्फ़ 180 रुपए ही कमा पाते हैं. गधा मालिकों को 20 रुपए अधिक इसलिए दिए जाते हैं, ताकि वे मवेशियों को चारा खिला सकें. यह बात हमें माधुरी ने बताई थी. हम बाबासाहेब से एक भट्ठे पर मिले, जो सांगलीवाड़ी से कोई 12 किलोमीटर की दूरी पर मिराज क़स्बे के लक्ष्मी मंदिर इलाक़े के पास स्थित था. चोरी की एक वारदात को याद करते हुए वह बताते हैं, “एक बार म्हैसाल फाटा में एक व्यापारी के 20 गधे चोरी हो गए.” यह घटना उस भट्ठे से केवल 10 किलोमीटर दूर घटी थी. “मुझे लगता है उन्होंने गधों को नशे की कोई दवा खिला दी थी और किसी बड़ी सवारी में उठा के भाग गए थे.” दो साल पहले जनाबाई के गधों में से सात की चोरी उस वक़्त हो गई, जब वे चरने के लिए खेतों में गए थे.

सांगली, सोलापुर, बीड, और महाराष्ट्र के दूसरे ज़िलों में गधों की चोरी की वारदातें तेज़ी से बढ़ी हैं. इससे महाराष्ट्र के मवेशी पालकों की आर्थिक मुश्किलें बढ़ी हैं. बाबासाहेब और जनाबाई वैसे ही मवेशी पालक हैं जिनकी कमाई गधों की संख्या पर निर्भर है. मिराज में ईंट भट्ठे पर काम करने वाले जगू माने कहते हैं, ''चोरों ने मेरे झुंड से पांच गधों को चुरा लिया.'' इससे उन्हें क़रीब 2 लाख रुपए का नुक़सान हुआ था. वह पूछते हैं, "मैं इस नुक़सान की भरपाई कैसे करूंगा?"

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बाएं: बाबू विट्ठल जाधव (पीली शर्ट में) मिराज में एक भट्ठे पर ईंटों के ढेर पर बैठे सुस्ता रहे हैं. दाएं: कैकाड़ी समुदाय का एक 13 वर्षीय लड़का रमेश माने, घास और सूखे डंठलों से भरे एक खेत में अपने गधों को चरते हुए देख रहा है

हालांकि, पवार को यह लगता है कि शायद मवेशी पालक भी अपनी स्थिति के प्रति थोड़े लापरवाह हैं. वे अपने गधों की टोलियों दिन भर के लिए बाहर खुला छोड़ देते हैं और उनपर कोई निगरानी नहीं रखता. “उनकी सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं होती है. वे केवल भट्ठे पर काम करने के समय अपने गधों को वापस लाते हैं. अधिकतर चूकें इसी अवधि में होती हैं, जब चोर इस लापरवाही को भांप लेते हैं.”

बाबासाहेब से बातचीत के क्रम में हमारी नज़र बाबू विट्ठल जाधव पर पड़ती है, जो अपने चार गधों पर से ईंटें उतार रहे हैं. बाबू (60 साल) भी कैकाड़ी समुदाय से आते हैं और पिछले 25 सालों से ईंट भट्ठे पर काम कर रहे हैं. मूलतः सोलापुर ज़िले के मोहोल ब्लॉक के पाटकुल से ताल्लुक़ रखने वाले बाबू साल में छह महीने के लिए मिराज चले आते हैं. वह थके हुए दिखते हैं, और सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं. यह सुबह के कोई 9 बजे का वक़्त है. वह बाबासाहेब और दो महिला मज़दूरों से हंसी-मज़ाक़ करने लगते हैं. अब बाबू की पाली ख़त्म होने का वक़्त हो चुका है और उनकी पत्नी की पाली शुरू होने वाली है. उनके पास छह गधे हैं, और वे सब थके हुए और कमज़ोर दिखते हैं. ऐसा लगता है कि उनसे जम कर काम लिया जा चुका है. दो गधों के पैर चोटिल भी हैं. उन्हें अभी कुछ घंटे और काम करना है, तब उनकी पाली ख़त्म होगी.

उन्हें महीने में केवल अमावस्या को एक दिन की छुट्टी मिलती है. इसलिए, हर कोई बहुत निचुड़ चुका और थक चुका होता है. जोतिबा मंदिर में आई माधुरी बताती हैं, “अगर हम छुट्टी लेंगे, तो ईंटों को भट्ठों पर पकाने कौन ले जाएगा? अगर हम सूखी हुई ईंटों को नहीं ढोएंगे, तो नई ईंटों को कहां रखेंगे, क्योंकि इसके लिए भट्ठे में पर्याप्त जगह नहीं है. इसलिए, हमारे लिए छुट्टी लेना असंभव है. हमें छह महीने में सिर्फ़ एक बार अमावस्या के दिन छुट्टी मिलती है.”. अमावस्या के दिन भट्ठे में इसलिए छुट्टी रहती है, क्योंकि इसे अशुभ दिन माना जाता है. इसके अलावा, मज़दूरों और गधों को हिंदू त्योहारों के मौक़े पर सिर्फ़ तीन दिन छुट्टियां मिलती हैं: शिवरात्रि, शिमगा (शेष भारत में होली), और पारंपरिक नया साल; जिसे गुढी पाड़वा के नाम से मनाया जाता है.

दोपहर के समय तक अधिकतर मज़दूर भट्ठे के क़रीब बने अपने अस्थायी कामचलाऊ घरों में लौट आते हैं. श्रावणी और श्रद्धा पास के एक नलके पर कपड़े धोने गई हैं. खंडू माने अपने गधों को चराने निकल गए हैं. माधुरी अब परिवार के लिए खाना बनाएंगी. वह खाने के बाद भयानक गर्मी के बावजूद थोड़ी देर तक सोएंगी. आज के लिए भट्टी बंद हो चुकी है. माधुरी बताती हैं, “हमें ठीकठाक आमदनी हो जाती है और खाने की भी कोई कमी नहीं है. लेकिन हम बिल्कुल भी सो नहीं पाते है.”

रितायन मुखर्जी पूरे देश में घूम-घूमकर ख़ानाबदोश चरवाहा समुदायों पर केंद्रित रिपोर्टिंग करते हैं. इसके लिए उन्हें सेंटर फ़ॉर पेस्टोरलिज़्म से एक स्वतंत्र यात्रा अनुदान प्राप्त हुआ है. सेंटर फ़ॉर पेस्टोरलिज़्म ने इस रिपोर्ताज के कॉन्टेंट पर कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं रखा है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Photographs : Ritayan Mukherjee

रितायन मुखर्जी, कोलकाता के फ़ोटोग्राफर हैं और पारी के सीनियर फेलो हैं. वह भारत में चरवाहों और ख़ानाबदोश समुदायों के जीवन के दस्तावेज़ीकरण के लिए एक दीर्घकालिक परियोजना पर कार्य कर रहे हैं.

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Text : Medha Kale

मेधा काले पुणे में रहती हैं और महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर काम करती रही हैं. वह पारी के लिए मराठी एडिटर के तौर पर काम कर रही हैं.

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Translator : Prabhat Milind

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.

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