“पश्चिम बंगाल के लोग डुली बनाना नहीं जानते हैं.”

छह फीट ऊंचे और चार फीट चौड़े इस विशालकाय “धान धोरार डुली” जिसका उपयोग धान रखने के काम में आता है, के बारे में बबन महतो विस्तार से बताने लगते हैं.

हम भी पहली बार में इसकी बनावट को नहीं समझ पाए थे, पड़ोसी राज्य बिहार से आया यह कारीगर अपनी बात को आगे बढ़ाता हुआ कहता है, “ डुली बनाना उतना आसान है भी नहीं.” इसके लिए कारीगरों को अलग-अलग प्रक्रियाओं से गुज़रना होता हैं: “बहुत से काम होते हैं – कंदा साधना, काम साधना, तल्ली बिठाना, उसे खड़ा करना, बुनाई करना, तेरी चढ़ाना [बांस को आड़ा-तिरछा रखना, उसका वृताकार ढांचा बनाना, टोकरी के लिए स्टैंड बनाना, उसकी बुनावट और बंधनों को पूरा करना आदि].”

PHOTO • Shreya Kanoi
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बबन महतो बांस की टोकरियां बनाने के बिहार से पलायन कर पश्चिम बंगाल के अलीपुरदुआर ज़िले में आए हैं. बुनने से पहले उन्हें तैयार करने के लिए वे बांस (दाएं) को फाड़ने के बाद कड़ी धूप (बाएं) में सुखाते हैं

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टोकरियों को बुनते हुए बबन की उंगलियां तेज़ी से घूमती हैं (बाएं). वे लगातार टोकरियों (दाएं) को घुमाते रहते हैं, ताकि उनके संतुलन को परखा जा सके

बबन (52) इस काम को पिछले चार दशकों से कर रहे हैं. “बचपन से मेरे मां-बाप ने मुझे सिर्फ़ यही काम सिखाया है. उन्होंने भी केवल यही काम किया. सभी बिंद लोग डुली ही बनाते हैं. वे छोटी टोकरियां भी बनाते हैं, मछलियां पकड़ते हैं और नावें खेने का काम करते हैं.”

बबन, बिहार के बिंद समुदाय से आते हैं, जो (जाति जनगणना 2022-23) के अनुसार राज्य में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (इबीसी) के रूप में सूचीबद्ध है. बबन के अनुसार, अधिकतर डुली कारीगर बिंद समुदाय से संबंध रखते हैं, लेकिन कानू और हलवाई समुदाय के कुछ लोग भी इस काम को करते हैं. ये दोनों जातियां भी इबीसी श्रेणी के अंतर्गत सूचीबद्ध हैं, और दशकों से बिंदों के सानिध्य में रहते आने के कारण उन्होंने इस कौशल को सीख लिया है.

“मैं अपने हाथ के अनुमान पर काम करता हूं. अगर मेरी आंखें मुंदी हों, या बाहर अंधेरा हो, तब भी मेरे हाथ में वह कौशल है कि वे मुझे रास्ता बताती रहेगी,” वे कहते हैं.

सबसे पहले वे लंबे बांस को आड़ा काट लेते हैं, फिर 104 की संख्या में उन्हें लचीली कमानियों में चीर लेते हैं. यह एक दक्षतापूर्वक किया जाने वाला काम है. उसके बाद अच्छी तरह से नाप-जोख करने के बाद बांस के वृताकार फ्रेम की परिधि तैयार की जाती है. एक डुली की परिधि आमतौर पर “छ या सात हाथ” (मोटामोटी 9 से 10 फीट) की होती है. यह उसमें संग्रह किए जाने वाले धान की मात्रा पर निर्भर है. एक ‘हाथ’ लंबाई नापने की वह इकाई है जो मध्यमा ऊंगली के अग्रभाग से लेकर कुहनी के बराबर होती है. यह इकाई आमतौर पर पूरे भारत के कारीगर और शिल्पियों के बीच लंबाई नापने की इकाई के तौर पर बहुप्रचलित है और यह लगभग 18 इंच के बराबर मानी जाती है.

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सही कच्चे माल की तलाश में कारीगर ख़ुद बांसों के झुरमुट में जाते हैं (बाएं) और उन्हें काटकर अपने साथ काम करने के स्थान (दाएं) पर ले जाते हैं

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डुली के लिए वृत्ताकार आधार तैयार करते बबन, जो तक़रीबन तीन फ़ीट चौड़ा है. इस आधार को बांस की आड़ी-तिरछी कमानियों को बुनकर तैयार किया गया है

पारी की टीम बबन से अलीपुरदुआर ज़िले (पहले जलपाईगुड़ी) में बातचीत कर रही है. पश्चिम बंगाल का यह उत्तरी मैदानी भाग बिहार में भगवानी छपरा में स्थित उनके घर से कोई 600 किलोमीटर दूर हैं, जहां से वे प्रतिवर्ष काम करने आते हैं. वे यहां कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) के महीने में पहुंचते हैं, जब ख़रीफ़ के मौसम में धान की फ़सल कटने के लिए तैयार हो चुकी होती है. अगले दो महीनों के लिए वे यहीं रुकेंगे, और डुली बनाकर उन्हें बेचेंगे.

वे अकेले नहीं हैं. “अलीपुरदुआर और कूचबिहार के सभी हाटों [साप्ताहिक बाज़ारों] में हमारे भगवानी छपरा गांव से आए डुली बनाने वाले कारीगर मिल जाएंगे,” पूरन साहा कहते हैं. वे ख़ुद भी डुली बनाने वाले कारीगर हैं, जो हर साल बिहार से कूच बिहार ज़िले में खागड़ाबाड़ी शहर के दोदिअर हाट आ जाते हैं. यहां पहुंचने वाले ज़्यादातर अप्रवासी कारीगर पांच से दस की संख्या में एक साथ टेंट के कामचलाऊ डेरों में अपना गुज़ारा करते हैं.

बबन जब पहली बार पश्चिम बंगाल आए, तब वे सिर्फ़ 13 साल के थे. वे अपने गुरु राम प्रबेश महतो के साथ आए थे. “मैंने लगातार 15 साल तक अपने गुरु के साथ यात्रा की. उसके बाद ही मैं डुली बनाने की कला को ठीक से समझ पाया,” बबन कहते हैं, जो डुली बनाने वाले कारीगरों के परिवार से आते हैं.

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अलीपुरदुआर के मथुरा में एक साप्ताहिक हाट में टोकरी बनाने वालों का एक समूह, जो अपने कामचलाऊ टेंटनुमा डेरों के सामने खड़ा है. ये कारीगर यहीं रहते हैं और डुली बनाते व् बेचते हैं.

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सुबह उठकर बबन सबसे पहले आग जलाते हैं. ठंड इतनी अधिक है कि इन कामचलाऊ डेरों के भीतर सो पाना बहुत मुश्किल काम है, इसलिए उन्होंने बाहर सड़क पर निकलकर आग के क़रीब बैठना ही बेहतर समझा है. “मैं रोज़ सुबह 3 बजे ही जाग जाता हूं. रात में मुझे ठंड लगती है. सर्दियों के कारण मैं बिस्तर से बाहर निकल पड़ता हूं. बाहर निकलकर आग जलाता हूं और उसके पास बैठ जाता हूं,” एक घंटे के बाद वे अपना काम शुरू करते हैं, जबकी बाहर अंधेरा तब भी पूरी तरह छंटा नहीं होता है. लेकिन स्ट्रीट लाइट की मद्धिम रौशनी काम की शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है.

वे कहते हैं कि डुली टोकरी बनाने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण काम सही क़िस्म के बांस का चुनाव होता है, “तीन साल पुराना बांस इस काम के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि इसे आसानी से चीरा जा सकता है, और यह पर्याप्त रूप से मोटा होता है,” बबन कहते हैं.

सटीक नापजोख करके बांस के वृत्ताकार फ़्रेम को बनाना एक मुश्किल काम है, और इसके लिए वे दाओ (दरांती) का उपयोग करते हैं. अगले 15 घंटों के लिए वे सिर्फ़ भोजन करने और बीड़ी पीने के लिए ही विश्राम लेंगे.

एक बढ़िया डुली 5 फीट ऊंची होती है और उसका दायरा 4 फीट का होता है. बबन अपने बेटे की मदद से एक दिन में दो डुली बना सकते हैं. डुली तैयार हो जाने के बाद वे उन्हें अलीपुरदुआर ज़िले के साप्ताहिक मथुरा हाट में सोमवार के दिन बेचने जाते हैं. “जब मैं हाट जाता हूं, तब मेरे पास अलग-अलग आकारों की डुली होती हैं. उनमें 10 मन, 15 मन, 20 मन, 25 मन तक धान समा सकता है.” एक मन 40 किलोग्राम के बराबर होता है. बबन ग्राहकों की मांग के अनुसार डुली का आकार तय करते हैं. इस तरह 10 मन की क्षमता वाले एक डुली में 400 किलोग्राम धान समा सकता है. बबन ग्राहकों की मांग के अनुसार डुली बनाते हैं कि वे कितने वज़न की डुली बनवाना चाहते हैं. डुली का आकार उनमें रखे जाने वाले धान की मात्रा के अनुसार 5 से 8 फीट के बीच कुछ भी हो सकता है.

वीडियो देखें: बबन महतो और बांस की विशालकाय टोकरियां

मेरे मां-बाप ने मुझे बचपन में ही डुली बनाना सिखा दिया था. वे ख़ुद भी केवल यही काम जानते थे

“फ़सल काटे जाने के मौसम में हमें एक डुली के 600 से 800 रुपए तक मिल जाते हैं. सीज़न जब ख़त्म होने लगता है, तब मांग में भी कमी आ जाती है. ऐसे में मुझे उसी सामान को सस्ते में बेचना पड़ता है. अतिरिक्त कमाई के लिए मैं टोकरी को ख़ुद पहुंचा भी देता हूं, और इसके बदले मुझे 50 रुपए अलग से मिल जाते हैं.

एक डुली का वज़न आठ किलो तक होता है और बबन अपने माथे पर एक साथ तीन दुलियां (लगभग 25 किलो) उठा सकते हैं. “क्या मैं कुछ देर के लिए अपने माथे पर 25 किलो का बोझ नहीं उठा सकता हूं?” वे इस लहजे में पूछते हैं, मानो कहना चाहते हों कि उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है.

अपनी दुकान लगाने के लिए जब बबन साप्ताहिक हाट से गुज़रते हैं, तो वे बिहार से आए अपने गांव के दूसरे साथियों को देखकर सिर हिलाते हुए आगे बढ़ते हैं. वे उन दुकानों की तरफ़ इशारा करते हैं जो उनके समुदाय के सदस्यों की हैं, या स्थानीय बंगालियों की हैं जो स्वभाव से सहयोगपूर्ण हैं. “ सब जान-पहचान के हैं, ” वे कहते हैं. “अगर मेरे पास एक भी पैसा नहीं हो, और मुझे चावल. दाल और रोटी खाने का मन हो, तो ये मेरे लिए सारी चीज़ें जुटा देंगे. वे एक बार भी मुझसे यह नहीं पूछेंगे कि मेरे पास पैसे हैं या नहीं.”

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बबन माथे पर एक डुली उठाए हुए हैं, जिसे उन्हें अपने ग्राहक (बाएं) के घर पहुंचाना है, जो उनके (दाएं) पीछे-पीछे साइकिल से चल रहा है

उनके घुमंतु जीवन ने उन्हें मातृभाषा भोजपुरी के अलावा कई दूसरी भाषाएं भी धाराप्रवाह बोलने का हुनर सिखाया है. वे हिंदी, बंगाली, और असमिया बोल सकते हैं और मेचिया भाषा समझ सकते हैं – जो अलीपुरदुआर ज़िले के गांव दक्षिण चकोआखेती (पूर्व में जलपाईगुड़ी में स्थित) में रहने वाले मेच समुदाय की भाषा है.

वे बताते हैं कि वे प्रतिदिन 10 रुपए में दो गिलास ख़राब खरीद कर पीते हैं, क्योंकि, “दिन भर की हड्डी तोड़ मेहनत के बाद मेरा पूरा शरीर दुखने लगता है. शराब मेरे दर्द को थोड़ा कम कर देती है.”

हालांकि, उनके साथ आए दूसरे बिहारी एक साथ रहते हैं, लेकिन बबन को ख़ुद के सहारे रहना अधिक पसंद है: “अगर मुझे 50 रुपए का खाना खाना है और मेरे साथ दूसरे लोग भी हैं, तो वे कहेंगे, ‘मुझे भी मेरा हिस्सा चाहिए!’ इसीलिए मैंने अकेले खाने का तय किया. इस तरह से मैं जो कुछ खाता हूं वह मेरा होता है, और जो कुछ भी मैं कमाता हूं वह भी मेरा होता है.”

वे कहते हैं कि बिहार में बिंद समुदाय के लोगों के लिए रोज़गार के बहुत कम मौक़े हैं, इसलिए वे पीढ़ियों से इसी तरह विस्थापितों का जीवन जीते रहे हैं. बबन के बेटे अर्जुन लगभग 30 के हो चुके हैं. अर्जुन महतो भी अपने बचपन से ही पिता के साथ यात्राएं करते थे, लेकिन अब वे मुंबई में एक पेंटर के तौर पर काम करते हैं. “हमारे गृहराज्य बिहार में इतने अवसर नहीं हैं कि हमें अच्छी आमदनी हो सके. यहां केवल बालू की ठेकेदारी ही एकमात्र उद्यम है...और पूरा का पूरा बिहार उस पर निर्भर नहीं रह सकता है.”

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हर साल अक्टूबर से लेकर दिसंबर के बीच, बबन पश्चिम बंगाल में अलीपुरदुआर के हाईवे किनारे रहते और काम करते हैं

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बाएं: तिरपाल का कामचलाऊ डेरा, जहां बबन रहते भी हैं और डुली भी बनाते हैं. बाएं: उनका बेटा चंदन पिता द्वारा नापजोख और बुनियादी बुनावट के बाद टोकरियों को अंतिम रूप से तैयार करते हैं

चंदन, जो बबन की आठ संतानों में सबसे छोटे हैं, इस साल (2023) अपने पिता के साथ यहां आए हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल के चाय बग़ानों से होकर असम जाने वाले नेशनल हाईवे–17 के किनारे अपना कामचलाऊ डेरा बनाया है. उनका घर तीन तरफ़ से तिरपाल से घिरा हुआ एक गैराजनुमा कमरा है, जिसकी छत टीन की बनी हुई है. कमरे में मिट्टी का एक चूल्हा, एक बिस्तर और थोड़ी सी खाली जगह है जिसमें डुली टोकरियां रखी जाती हैं.

शौच के लिए बाप-बेटे दोनों ही सड़क किनारे की खुली जगहों का उपयोग करते हैं, और पानी के लिए पास के हैंडपंप पर निर्भर हैं. “मुझे इन स्थितियों में रहने में कोई परेशानी नहीं होती है. मैं हमेशा अपने काम के सुर में रहता हूं,” बबन कहते हैं. वे बाहर के हिस्से में डुली बनाते और बेचते हैं और भीतर के हिस्से में खाना पकाते और सोते हैं.

जब उनके वापस घर लौटने का समय आता है, तब बांस के इस कारीगर के लिए ये भावुकतापूर्ण क्षण होते हैं: “मां, जो मेरी मलकिन हैं, ने मुझे अपने घर के बगीचे में उपजाया गया एक गुच्छा तेज-पत्ता साथ ले जाने के लिए दिया है.”

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धान जमा करने के लिए प्लास्टिक की बोरियों के आगमन और प्रसंस्करण व भंडारण के नए तरीक़ों ने डुली के कारीगरों की आजीविका पर गहरा असर डाला है. “पिछले पांच सालों में इस इलाक़े में नई खुली चावल की मिलों के कारण हमारे धंधे पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा है. अब किसान पहले की तरह भंडारण करने के बजाय अपना धान खेत से प्रसंस्करण के लिए सीधे मिलों में बेच देते. लोगों ने धान को जमा करने के लिए प्लास्टिक की बोरियों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.” बिहार से आए डुली के कई कारीगर पारी से बातचीत करते हुए बताते हैं.

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बाएं: इस साल (2024) डुली के कारीगर अपनी सभी टोकरियां नहीं बेच पाए हैं. दाएं: अब डुली की तुलना में किसान बस्ता (प्लास्टिक की बोरी) का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि वे सस्ता होने के साथ-साथ भंडारण के लिए अधिक सुविधाजनक होते हैं

अन्य छोटे आकार की टोकरियां बनाना भी एक विकल्प है, लेकिन वे स्थानीय कारीगरों के साथ संबंध ख़राब नहीं करना चाहते हैं जो ख़ुद भी इन्हें बनाते हैं. उन्होंने तो अनुरोधपूर्वक यह कह भी रखा है, “देखो भाई, यह मत बनाओ, अपना बड़ा वाला डुली बनाओ…हमलोग के पेट में लात मत मारो.”

कूच बिहार और अलीपुरदुआर ज़िलों के सभी हाटों में 20 रुपए में एक बस्ता (प्लास्टिक की बोरी) आ जाता है, जबकि एक डुली की क़ीमत 600 से लेकर 1,000 रुपए के बीच होती है. एक बस्ते में 40 किलो चावल आता है, जबकि एक डुली में 500 किलोग्राम तक चावल समा सकता है.

सुशीला राय एक धान उगाने वाली किसान हैं और भंडारण के लिए डुली को बेहतर मानती हैं. अलीपुरदुआर  के दक्षिण चकोआखेती गांव की वासी 50 वर्षीय सुशीला कहती हैं, “अगर हम धान को प्लास्टिक की बोरियों में जमा करंगे, तो उनमें काले कीड़े [चावल के घुन] लग जाएंगे. इसलिए हम डुली का इस्तेमाल करते हैं. हम पूरे साल भर की अपनी खपत के लिए बड़ी मात्रा में चावल का स्टॉक रखते हैं.”

पश्चिम बंगाल देश का सबसे बड़ा चावल-उत्पादक राज्य है (भारत के कुल चावल-उत्पादन का 13 प्रतिशत यहीं से आता है). कृषि और कृषक कल्याण विभाग की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2021-22 में राज्य में 167.6 लाख टन चावल का उप्तादन हुआ.

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बाएं: बबन एक अधूरी बनी डुली के साथ धान के खेत से गुज़र रहे हैं, जिसकी कटाई हो चुकी है. दाएं: इन टोकरियों को कटे हुए धान को जमा करने के लिए उपयोग किया जाता है. यह धान अगले साल किसान के अपने उपभोग में काम आएगा. इस पर गोबर का लेप लगाया हुआ है, ताकि टोकरी के सारे छेद भर जाएं और चावल के दाने उनसे गिरें नहीं

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मध्य-अक्टूबर से दिसंबर तक पश्चिम बंगाल में रहने के बाद बबन एक छोटी अवधि के लिए अपने घर बिहार लौट जाएंगे. फ़रवरी आते ही वे चाय बग़ानों में काम करने के लिए असम जाएंगे और अगले छह से आठ महीनों तक चाय की पत्तियां तोड़ने के मौसम में वहीँ रहेंगे. “असम में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां मैं नहीं गया हूं...डिब्रूगढ़, तेजपुर, तिनसुकिया, गोलाघाट, जोरहाट, गुवाहाटी,” वे बड़े शहरों के नाम दोहराते हुए कहते हैं.

असम में बांस की जो टोकरियां वे बनाते हैं उन्हें ढोको कहा जाता है. डुली से तुलना की जाए, तो ढोको की ऊंचाई बहुत कम होती है – ज़्यादा से ज़्यादा तीन फीट. ये चाय की पत्तियां तोड़ने के समय इस्तेमाल में आती हैं. एक महीने में वे कोई 400 ऐसी टोकरियां बनाते हैं. ये टोकरियां सामान्य तौर पर चाय बग़ानों के ऑर्डर पर बनाई जाती हैं, जो बबन जैसे कारीगरों के लिए बांस उपलब्ध कराने और रहने की व्यवस्था भी करती हैं.

“बांस का काम किया, गोबर का काम किया, माटी का काम किया, खेती में काम किया, आइसक्रीम का भी काम किया,” पूरे साल के अपने कामों का ब्योरा देते हुए हरफ़नमौला बबन बताते हैं.

अगर असम में टोकरियों की मांग में कमी आ जाती है, तब बबन विकल्प के रूप में राजस्थान या दिल्ली चले जाते हैं और वहां सड़कों पर घूम-घूमकर आइसक्रीम बेचते हैं. गांव में दूसरे कई लोग भी यही काम करते हैं, इसलिए वे भी उनके साथ लग जाते हैं. “राजस्थान, दिल्ली, असम, बंगाल – मेरी पूरी ज़िंदगी इन्हीं जगहों के चक्कर लगाती हुई कट रही है,” वे कहते हैं.

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बाएं: डुली का आधार बनाने के लिए कारीगर को सावधानी से नापजोख करनी पड़ती है. यह एक ऐसा कौशल है जिसे सीखने में लंबा समय लगता है. आधार या पेंदे पर ही टोकरी का संतुलन निर्भर करता है. दाएं: तैयार डुली ग्राहक को देते हुए बबन. वे अपनी कारीगरी में इतने दक्ष हो चुके हैं कि एक डुली बनाने में उन्हें सिर्फ़ एक दिन का वक़्त लगता है

कई दशकों से यह काम करने के बाद भी बबन एक निबंधित कारीगर नहीं हैं और न उनके पास हस्तकला विकास आयुक्त (टेक्सटाइल मंत्रालय के अधीन) के कार्यालय द्वारा निर्गत कोई आर्टिज़न पहचान-पत्र ही है. यह पहचान पत्र कारीगरों को एक औपचारिक पहचान देता है, ताकि वे विभिन्न सरकारी योजनाओं और ऋणों, पेंशन, और पुरस्कार संबंधी का अर्हताओं के साथ ही कौशल-उन्नयन तथा ढांचागत सहायता का लाभ उठा सकें.

“हमारे जैसे अनेक कारीगर हैं, लेकिन हम ग़रीबों के बारे में कौन सोचता है? हर आदमी को बस अपनी जेब भरनी है,” बबन कहते हैं, जिनके पास अपने नाम का कोई बैंक खाता तक नहीं है. “मैंने अपने आठ बच्चों को बड़ा किया. अब जब तक मेरे हाथ-पांव चलेंगे, मैं कमाऊंगा और खाऊंगा. मुझे इससे अधिक और क्या चाहिए? और, इससे अधिक कोई कर भी क्या सकता है?”

यह स्टोरी मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन (एमएमएफ़) से मिली फ़ेलोशिप के तहत लिखी गई है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Shreya Kanoi

শ্রেয়া কানোই, কারুশিল্প এবং জীবিকার পরস্পর সম্পৃক্ত অবস্থান বিষয়ে ডিজাইন গবেষক হিসেবে কাজ করছেন। তিনি ২০২৩ সালের পারি-এমএমএফ ফেলো৷

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Photographs : Gagan Narhe

গগন নারহে কমিউনিকেশন ডিজাইন বিষয়ে অধ্যাপনা করেন। বিবিসি দক্ষিণ এশিয়ার ভিজ্যুয়াল সাংবাদিক হিসেবে তিনি ইতিপূর্বে কাজ করেছেন।

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শ্রেয়া কানোই, কারুশিল্প এবং জীবিকার পরস্পর সম্পৃক্ত অবস্থান বিষয়ে ডিজাইন গবেষক হিসেবে কাজ করছেন। তিনি ২০২৩ সালের পারি-এমএমএফ ফেলো৷

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Editor : Priti David

প্রীতি ডেভিড পারি-র কার্যনির্বাহী সম্পাদক। তিনি জঙ্গল, আদিবাসী জীবন, এবং জীবিকাসন্ধান বিষয়ে লেখেন। প্রীতি পারি-র শিক্ষা বিভাগের পুরোভাগে আছেন, এবং নানা স্কুল-কলেজের সঙ্গে যৌথ উদ্যোগে শ্রেণিকক্ষ ও পাঠক্রমে গ্রামীণ জীবন ও সমস্যা তুলে আনার কাজ করেন।

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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