यह जादू के किसी अनोखे खेल की तरह है. डी. फ़ातिमा अपनी दुकान के पिछले हिस्से में रखे गए एक नीले बक्से को खोलकर उसमें से एक-एक कर अपना ख़ज़ाना निकालती हैं. उसमें रखी हुई सभी मछलियां किसी कलाकृति की तरह दिखती हैं – बड़ी और भारी-भरकम मछलियां, जो कभी तूतुकुडी से दूर गहरे समुद्र में तैरती होंगी, लेकिन जिन्हें अब कुशल हाथों, नमक और कड़ी धूप की मदद से सुखाकर संरक्षित कर लिया गया है.
फ़ातिमा एक कट्ट पारई मीन (रानी मछली) उठाती हैं और उन्हें अपने चेहरे के नज़दीक लाती हैं. मछली की लंबाई उनके ख़ुद के कद के आधी है और उसका गला उनके हाथों के बराबर चौड़ा है. मछली के मुंह से लेकर उसकी पूंछ तक काटे जाने का गहरा निशान है, जहां से उन्होंने नमक भरने के पहले एक धारदार चाकू की मदद से स्थूल मांस को चीर कर भीतर की सभी अंतड़ियां और दूसरे अंदरूनी अंग निकाल दिए हैं. नमक भरी हुई कट्ट पारई को इतनी कड़ी धूप में सूखने के लिए डाला गया है, जो किसी भी चीज़ को सुखा डालने का माद्दा रखती है – चाहे वह मछली हो, धरती हो या फिर जीता-जागता आदमी हो...
उनके चेहरे और हथेलियों की लकीरें इस मुश्किल कहानी को बयान करती हैं. लेकिन अचानक वह कोई दूसरी कहानी शुरू कर देती हैं. यह किसी और युग की कहानी है – उस युग की जब उनकी आची (दादी) मछलियों में नमक लगाने और उन्हें बेचने का काम करती थीं. वह शहर भी कोई और था और वे रस्ते भी कोई और थे. तब सड़क से लगकर बहने वाली नहर कुछेक फीट ही चौड़ी हुआ करती थी. उस नहर के ठीक बगल में उनका पुराना घर था. लेकिन 2004 में आई सुनामी ने उनके और आसपास के दूसरे सभी घरों को नेस्तनाबूद कर दिया. हालांकि, उनसे नए घर का वादा किया गया, लेकिन एक मुश्किल थी. नया घर “रोम्भ दूरम [बहुत दूर]” था. दूरी को अंदाज़ से बताने के लिए वह अपने माथे को एक तरफ़ झुकाती हुई इशारतन अपना एक हाथ उपर उठाती हैं. बस से उन्हें लगभग आधे घंटे का समय लगा, और उन्हें मछली ख़रीदने के लिए वैसे भी समुद्र तट पर आना ही था.
नौ साल बाद फ़ातिमा और उनकी बहनें अपने पुराने मुहल्ले तेरेसपुरम में फिर से लौट आईं, जो तूतुकुड़ी शहर का बाहरी इलाक़ा है. उनका घर और दुकान - दोनों उस नहर के बगल में हैं जिसे अब चौड़ा कर दिया गया है, जिसका पानी अब बहुत धीमी रफ़्तार में बहता है. दोपहर काफ़ी स्थिर और शांत है – उतनी ही स्थिर और शांत जितनी ये सूखी हुई मछलियां हैं. इन औरतों का नमक और धूप में सना हुआ जीवन इन्हीं पर टिका हुआ है.
शादी होने से पहले फ़ातिमा (64) अपनी दादी के मछली के व्यापार में हाथ बंटाती थीं. कोई बीस साल पहले अपने पति की मौत के बाद वह इस व्यवसाय में दोबारा लौट आईं. फ़ातिमा को वह दृश्य याद है, जब सिर्फ़ आठ साल की उम्र में वह जाल से तट पर उतारी गई मछलियों के ढेर देखा करती थीं. वे मछलियां इतनी ताज़ा होती थीं कि पानी से निकाले जाने के बाद भी उनके भीतर देर तक जीवन का स्पंदन उपस्थित रहता था, जिसके कारण वे देर तक तड़पती रहती थीं. लगभग 56 साल बाद अब उनका स्थान “आइस मीन (मछली)” ने ले लिया है, वह बताती हैं. अब नौकाएं बर्फ़ लादकर समुद्र में जाती हैं और वापसी में उसी बर्फ़ में पैक मछलियों के साथ तट पर लौट आती हैं. बड़ी मछलियों की बिक्री लाखों रुपए में होती है. "उस समय, हम आने और पैसे में कारोबार करते थे. सौ रुपए बड़ी रक़म हुआ करती थी, अब हज़ारों और लाखों में यह कारोबार होता है."
उनकी आची के ज़माने में महिलाएं कहीं भी बेरोक-टोक घूमा करती थीं. उनके माथे पर ताड़ के पत्ते की टोकरियों में सूखी हुई मछलियां भरी होती थीं, और “वे आराम से 10 किलोमीटर तक पैदल घूमती हुईं पट्टिकाडु [छोटी बस्तियों] में अपना माल बेचा करती थीं.” अब वे एल्युमीनियम के बर्तन में अपनी सूखी मछलियों को रखती हैं और उन्हें बेचने के लिए बसों से आती-जाती हैं. अब वे आसपास के गांवों के साथ-साथ पड़ोस के ब्लॉकों और ज़िलों तक चली जाती हैं.
“कोरोना से पहले हम तिरुनेलवेली रोड और तिरुचेंदुर रोड के गांवों तक जाया करते थे,” पारी ने अगस्त 2022 में जब फ़ातिमा से मुलाक़ात की थी, तब उन्होंने अपने हाथ से हवा में एक काल्पनिक नक्शा बनाते हुए हमें समझाने का प्रयास किया था. “अब हम सोमवार के दिन केवल एराल क़स्बे के संतई [साप्ताहिक बाज़ार] तक ही जाते हैं.” वह अपनी यात्रा का हिसाब जोड़कर बताती हैं: बस डिपो तक ऑटो से आने जाने का किराया और बस में बास्केट रखने के लिए पूरा टिकट जोड़कर कुल जमा दो सौ रुपए. “फिर, बाज़ार में बैठने के लिए मुझे पांच सौ रुपए की फ़ीस अलग देनी होती है. हम कड़ी धूप में [खुले आसमान के नीचे] बैठते हैं. फिर भी उनके मुताबिक़ यह अधिक महंगा सौदा नहीं है, क्योंकि वह साप्ताहिक बाज़ार में पांच से लेकर सात हज़ार की सूखी मछली बेच लेती हैं.
लेकिन महीने का मतलब सिर्फ़ चार सोमवार ही नहीं होते. फ़ातिमा इस व्यापार की मुश्किलों और बारीकियों को अच्छी तरह समझती हैं. “बीस-पच्चीस साल पहले तक मछुआरों को तूतुकुडी से समुद्र में अधिक दूर जाना नहीं पड़ता था. उन्हें पास में ही बड़ी मात्रा में मछलियां मिल जाती थीं. लेकिन अब तो उन्हें समुद्र में दूर जाना पड़ता है, और वहां भी बहुत अधिक मछलियां उपलब्ध नहीं हैं.”
अपने निजी अनुभवों के आधार पर, मछलियों के भंडार में आई इस कमी का कारण बताने में फ़ातिमा मिनट भर का भी समय नहीं लेती हैं, “उस समय लोग मछली पकड़ने के लिए रात में निकलते थे और दूसरे दिन शाम तक लौट आते थे. अब मछुआरे एक बार 15-20 दिनों के लिए निकलते हैं और कन्याकुमारी पार करते हुए सीलोन और अंडमान तक चले जाते हैं.“
यह एक बड़ा क्षेत्र है, जहां समस्याओं की कोई कमी नहीं है. तूतुकुड़ी में मछलियों के भंडार दिन-प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं, और इसपर फ़ातिमा या किसी का भी कोई नियंत्रण नहीं है. उलटे उनका जीवन ही इन समस्याओं के नियंत्रण में है, और साथ-साथ उनकी रोजीरोटी भी.
जिस बारे में फ़ातिमा बात करती हैं उसका संबंध अत्यधिक मात्रा में मछलियों को पकड़ने की प्रवृत्ति से है. यह इतना सामान्य सवाल है कि आप केवल एक बार गूगल में तलाशिए, और एक सेकेण्ड से भी कम समय में आपको लगभग 1.8 करोड़ जवाब मिल जाएंगे. इसका एक कारण यह है कि संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के अनुसार, “वैश्विक स्तर पर वर्ष 2019 में पशु प्रोटीन का 17 प्रतिशत और कुल प्रोटीन का 7 प्रतिशत का स्रोत जलीय खाद्य था.” इसका अर्थ है कि प्रति वर्ष हम समुद्र से “80 से 90 मैट्रिक टन वन्य समुद्री भोजन प्राप्त करते हैं,” ‘अमेरिकन कैच एंड फोर फिश’ के लेखक पॉल ग्रीनबर्ग कहते हैं. यह बेहद चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि जैसा ग्रीनबर्ग कहते हैं, “यह चीन के कुल मानवीय भार के समतुल्य है.”
यहां एक बिंदु ध्यान देने योग्य है कि सभी मछलियां ताज़ा नहीं खाई जाती हैं. कई दूसरे मांसों और सब्ज़ियों की तरह इन्हें भी भविष्य में उपभोग के लिए संरक्षित कर रखा जाता है, और इसके लिए उनमें नमक मिलाने के बाद उन्हें धूप में सुखाने की प्राचीन विधि अपनाई जाती है.
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हम चिड़ियों के उन झुंडों को भगाने के लिए उनके पीछे दौड़ते हैं
जो शार्क के मांस के चर्बीदार टुकड़ों के लालच में आती हैं
जिन्हें हमने धूप में सूखने के लिए फैलाया है.
तुम्हारी अच्छाइयों का हम क्या करें?
हमसे मच्छी की बू आती है! चले जाओ यहां से!
नट्रीनई 45 , नेतल तिनई (समुद्र तट के गीत)
इन पंक्तियों को लिखने वाला कवि अज्ञातनाम है, लेकिन इन्हें नायिका की सहेली नायक से कहती है.
यह कालातीत उत्कृष्ट पंक्तियां 2,000 साल पुराने तमिल संगम साहित्य का एक हिस्सा है. इसमें समुद्रतट से नमक लदे वाहनों पर यात्रा करने वाले व्यापारियों के अनेक रोचक सन्दर्भ देखे जा सकते हैं. क्या नमक मिलाकर कड़ी धूप में खाद्यों को सुखाने का ऐसा कोई अन्य उदाहरण अतीत में मिलता है?
“बिल्कुल मिलता है,” खाद्य-अध्ययन के विद्वान डॉ. कृष्णेंदु राय कहते हैं, “जावक-उन्मुख, विशेष रूप से समुद्री जल-कृषि क्षेत्र का शायद मछली पकड़ने के काम के साथ एकदम भिन्न संबंध था. इसका एक कारण नौका बनाने की कारीगरी और इसमें प्रयुक्त होने वाला कुशल श्रम था. इस काम के लिए ये दोनों बुनियादी शर्तें थीं. ये दोनों ही कौशल मुख्य रूप से मछुआरा समाज से आए, जैसा कि हम बहुत बाद के वर्षों में वाइकिंग, जेनोइज़, वेनिशियन, पुर्तगीज़ और स्पेनिश मामलों में देख सकते हैं.
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में बतौर प्रोफेसर कार्यरत डॉ. राय आगे कहते हैं, “प्रशीतन के पहले मछली के बहुमूल्य प्रोटीन को सुरक्षित बचाने का एकमात्र उपाय उनमें नमक मिलाना, धूमन [स्मोकिंग], वायु शुष्कीकरण [एयर ड्राईंग] और किण्वन [फिश सॉस के लिए] था, ताकि वे जहाज़ की लंबी यात्राओं के दौरान ख़राब नहीं हों. इसलिए भूमध्य के आसपास के रोमन साम्राज्य में गरुम [किण्वित फिश सॉस] का विशेष महत्व था. रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद वह भी धीरे-धीरे दृष्टि से ओझल हो गया.”
जैसा कि एफएओ की एक दूसरी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, “तमिलनाडु में सामान्यतः एक कुटीर प्रसंस्करण प्रचलित है, जो आमतौर पर क्षति पहुंचाने वाले बैक्टीरिया और एंजाइम को नष्ट करने और रोगाणुओं की वृद्धि और प्रसरण के प्रतिकूल स्थिति-निर्माण के सिद्धांत पर आधारित है.”
एफ़एओ की रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “नमक मिलाकर धूप में सुखाना मछलियों को संरक्षित रखने की एक सस्ती प्रक्रिया है. मछलियों में नमक मिलाने की दो सामान्य विधियां हैं – ड्राई साल्टिंग, जिसमें मछलियों पर सीधे नमक लगाया जाता है, और दूसरी ब्राइनिंग, जिसमें नमक और पानी के घोल में मछलियों को कई महीनों तक डुबोकर रखा जाता है.”
सुदीर्घ और स्वर्णिम इतिहास, और प्रोटीन का सस्ता और सुलभ स्रोत होने के बाद भी करुवाडु को लोकप्रिय संस्कृति में एक उपहास की वस्तु के रूप में देखा जाता है. इसका जीवंत उदाहरण तमिल सिनेमा में देखा जा सकता है. आस्वाद के पदानुक्रम में इसकी स्थिति कहां है? इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है.
डॉ. राय कहते हैं, “इस पदानुक्रम के नेपथ्य में एक विविधआयामी सोच काम करती है. जहां कहीं किसी भी रूप में ब्राह्मणवाद के समानांतर क्षेत्रीयतावाद का विस्तार एक वर्चस्ववादी रूप में हुआ है, वहां पानी और विशेष रूप से लवणीय जल पर निर्भर जीवन और आजीविका से संबंधित विरोध और संदेह हम प्रायः देख सकते हैं...चूंकि क्षेत्र और पेशे का आंशिक संबंध जाति से भी था, इसलिए मछली पकड़ने के काम को हीन और उपेक्षित मान लिया गया.”
डॉ. राय कहते हैं, “मछली वह अंतिम वन्यजीव है जिसे हम पकड़ते और ख़ूब खाते हैं. यह बहुत मूल्यवान या तिरष्कृत दोनों हो सकता है. संस्कृतनिष्ठ भारत के अनेक हिस्सों में इसे तिरष्कृत माना जाता था जहां कृषियोग्य भूमि, मन्दिर और जलीय आधारभूत साधनों में संबंधित निवेश के साथ क्षेत्रीयतावाद, पारिवारिक जीवन और अन्न उत्पादन को एक आर्थिक और सांस्कृतिक वस्तु के रूप में बहुमूल्य समझा जाता है.”
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धूप के बीच एक छोटी सी छाएदार जगह में सहायपुरणी एक पूमीन [मिल्क फिश] तैयार कर रही है. सर्र ...सर्र...सर्र – अपने धारदार चाकू से वह तेरेसपुरम ऑक्शन सेंटर में तीन सौ में ख़रीदी गई तीन किलो की एक मछली के शल्क साफ़ कर रही हैं. वह जहां बैठकर काम करती हैं वह जगह फ़ातिमा की दुकान के ठीक सामने नहर के उस पार है. नहर में पानी कम और कीचड़ ज़्यादा है, इसलिए उसका रंग धूसर दीखता है. मछली के शल्क उड़कर इधरउधर बिखर रहे हैं – कुछ शल्क पूमीन मछली के आसपास गिर रहे हैं और कुछ अपनी चमक बिखेरते हुए छिटककर दो फीट दूर मुझसे आ टकराते हैं. मेरे कपड़ों पर पड़े शल्कों को देख कर वह हंसती हैं. उनकी यह हंसी बहुत छोटी, लेकिन भोली है. उनको देखकर हम भी उनकी हंसी में शामिल हो जाते हैं. सहायपुरणी अपना काम जारी रखती हैं. वह दो बार बड़ी सफ़ाई से चाकू चलाती हैं और दोनों पंख मछली से अलग हो जाते हैं. उसके बाद वे मछली को गर्दन से काटती हैं और दरांती की मदद से माथे को अलग देती हैं. तड़...तड़...तड़ - छह बार - और मछली का धड़ और माथा एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं.
उनके पीछे बंधा एक सफ़ेद कुत्ता सब देख रहा है. गर्मी के कारण उसकी जीभ बाहर लटक रही है. सहायपुरणी उसके बाद आंतों को निकालती हैं और अंदरूनी हिस्से की अच्छे से सफ़ाई करती है. फिर वह चाक़ू की मदद से मछली की मांसपेशियों में छोटी और पतली लकीरें बनाती हैं. एक हाथ से वह मुट्टी में भरकर नमक लेती हैं और उसे मछली के भीतर-बाहर अच्छी तरह से मलती हैं. नमक के सफ़ेद और बारीक दानों को गुलाबी मांस के चीरे गए हिस्सों में भरा जाता है और इस तरह से मछली अब सुखाए जाने के लिए तैयार होती है. वह अपनी दरांती और चाकू को साफ़ करने के बाद अपने हाथों को धोती हैं और उन्हें कपड़े से पोंछ कर सुखाती हैं. “आइए,” वह कहती हैं, और हम उनके पीछे-पीछे उनके घर तक पहुंच जाते है.
तमिलनाडु की समुद्री मत्स्य जनगणना 2016 के अनुसार राज्य में मछली के व्यापार में 2.62 लाख महिलाएं और 2.74 लाख पुरुष शामिल हैं. यह जनगणना इस बात का भी रहस्योद्घाटन करती है कि 91 प्रतिशत समुद्री मछुआरों के परिवार ग़रीबी रेखा (बीपीएल) के नीचे आते हैं.
धूप से हटकर बैठने के बाद मैं सहायपुरणी से पूछती हूं कि वह एक दिन में कितना कमा लेती हैं. “यह पूरी तरह आंड वर [यीशु] की इच्छा पर निर्भर है. हम सब उसकी मेहरबानी से ही ज़िंदा हैं.” हमारी बातचीत में यीशु का ज़िक्र बार-बार होता है. “अगर उसकी कृपा से हमारी सभी सूखी मछलियां बिक जाएं, तो हम साढ़े दस बजे सुबह तक घर लौट आएंगे.”
उनका यह मौन स्वीकरण उनके काम करने की जगह पर भी यथावत बना रहता है. मछलियों को सुखाने के लिए उन्हें जो जगह दी गई है वह नहर के बगल में है. इस जगह को किसी भी दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता है, लेकिन उनके पास और उपाय ही क्या है? यहां वह सिर्फ़ कड़ी धूप से ही नहीं, बल्कि बेवक़्त होने वाली बारिश से भी परेशान रहती है. “अभी हाल-फ़िलहाल की बात है, नमक मिलाने के बाद मैंने मछली को सूखने के लिए धूप में रखा था और थोड़ी देर सुस्ताने के घर पहुंची ही थी...अचानक एक आदमी भागता हुआ आया और उसने बताया कि बारिश हो रही है. मैं जल्दी से दौड़ी, लेकिन आधी मछलियां भींग चुकी थी. आप छोटी मछलियों को नहीं बचा सकते, वे ख़राब हो जाती हैं.”
सहायपुरणी जो अब 67 साल की हो चुकी हैं, ने मछली सुखाने का काम अपनी चिति – यानी मां की छोटी बहन से सीखा था. लेकिन, वह बताती हैं कि मछली का कारोबार बढ़ने के बाद भी सूखी हुई मछलियों की खपत में गिरावट आई है. “इसका कारण है कि जो लोग मछली खाना चाहते हैं वे आराम से ताज़ा मछलियां ख़रीद सकते हैं. बल्कि कई बार वे सस्ती भी मिल जाती हैं. इसके अलावा, आप रोज़-रोज़ एक ही चीज़ नहीं खाना चाहेंगे. चाहेंगे क्या? अगर आप हफ़्ते में दो दिन मछली खाएंगे, तो आप एक दिन बिरयानी खाएंगे, दूसरे दिन सांभर, रसम, सोया बिरयानी, और इस तरह दूसरी चीज़ें भी ...”
असली वजह अलबत्ता परस्पर-विरोधी चिकित्सकीय परामर्श है. “ करुवाडु नहीं खाइए, इसमें बहुत अधिक नमक होता है. डॉक्टर कहते हैं इससे ब्लडप्रेशर बढ़ता है. इसलिए, लोग इससे परहेज़ करने लगे हैं.” जब वह डॉक्टर के मशविरे और कारोबार में गिरावट के बारे में बात करती हैं, तो साथ-साथ अपने माथे को भी हिलाती-डुलाती रहती हैं. अपने निचले होंठ को व्यापार की अनिश्चितता को व्यक्त करने की एक विशेष भंगिमा में वह बार-बार बाहर की ओर धकेलती हैं. उनके चेहरे पर पर बच्चों सी अभिव्यक्ति दिखती है, जिसमें निराशा और विवशता दोनों के भाव मिलेजुले हैं.
जब करुवाडु तैयार हो जाता है, तब वह उसे अपने घर के एक दूसरे कमरे में रखती हैं. इस कमरे का उपयोग व्यापार के कामों के लिए ही होता है. “बड़ी मछलियां कई महीनों तक सुरक्षित रहती हैं,” वह कहती हैं. उन्हें अपने हुनर पर भरोसा है. जिस तरह से वह मछलियों के अंदरूनी हिस्सों की सफ़ाई कर उनमें नमक भरती हैं, उससे उनका अधिक दिनों तक टिकना लगभग निश्चित हो जाता है. “ग्राहक इसे कई-कई हफ़्तों तक रख सकते हैं. अगर इन पर थोड़ी हल्दी और नमक मल कर अख़बार में लपेट दिया जाए, और एक वायु-रोधक डिब्बे में बंद कर दिया जाए तो इन मछलियों को फ्रिज़ में लंबे समय तक रखा जा सकता है.”
उनकी मां के ज़माने में भोजन में करुवाडु अधिक खाया जाता था. सूखी हुई मछलियों को तलकर उनको बाजरे के दलिया के साथ खाया जाता था. “एक बड़े से पतीले में कुछ सहजन के टुकड़े, कटे हुए बैंगन और मछली को मिलाकर तरी बनाई जाती थी और उसे दलिया पर उड़ेल कर खाया जाता था. लेकिन अब हर एक चीज़ ‘बनी-बनाई’ बिकती है,” वह हंसकर कहती हैं, “है न? अब तो बाज़ार में चावल भी ‘तैयार’ मिलता है, और लोग उसके साथ अलग से वेजिटेबल कूटु [दाल को मिला कर पकी हुई सब्ज़ी] और तले हुए अंडे खाते हैं. क़रीब 40 साल पहले मैंने वेजिटेबल कूटु का नाम भी नहीं सुना था.”
सामान्यतः सहायपुरणी रोज़ सुबह 4:30 बजे घर से निकल जाती हैं और 15 किलोमीटर के दायरे में पड़ने वाले आसपास के गांवों में बस से जाती हैं. “गुलाबी बसों पर सफ़र करने के हमें पैसे नहीं देने होते हैं,” महिलाओं के लिए बस की मुफ़्त यात्रा से संबंधित तमिलनाडु सरकार की योजना का हवाला देती हुई वह कहती हैं, जिसकी घोषणा मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने 2021 में की थी. “लेकिन अपनी टोकरी के लिए हमें पूरी टिकट कटानी होती है. यह 10 रुपए भी हो सकता है या 24 रुपए भी.” कई बार वह कंडक्टर को दस का नोट पकड़ा देती हैं. “तब वह थोड़ी इज़्ज़त से पेश आता है,” वह हंस पडती हैं.
अपने गंतव्य तक पहुंचने के बाद सहायपुरणी को गांव में घूम-घूम कर मछली बेचनी होती है. यह मुश्किल और थकाने वाला काम है, वह बताती हैं. इस धंधे में प्रतियोगिता भी है. “जब हम ताज़ा मछलियां बेचते थे, तब स्थिति ज़्यादा बदतर थी. पुरुष अपनी टोकरियां दोपहिए वाहन पर लेकर आते थे, और जब तक हम दो घरों में घूमते, तब तक वे दस घरों के चक्कर लगा चुके होते थे. उनके वाहनों के कारण उनके मेहनत में कटौती हो जाती थी. दूसरी तरफ़, हम पैदल चल-चलकर न केवल थक जाते थे, बल्कि कमाई के मामले में भी उनसे मात खा जाते थे.” इसलिए उन्होंने करुवाडु बेचने का काम नहीं छोड़ा.
अलग-अलग मौसमों में सूखी मछलियों की मांग भी अलग-अलग होती है. “गांवों में जब त्यौहार मनाए जाते हैं, तब लोग कई दिनों तक या कई बार हफ़्तों तक मांसाहार को वर्जित मानते हैं. चूंकि इस परंपरा को बहुत सारे लोग मानते हैं, तो इसका असर हमारे व्यापार पर पड़ना भी स्वाभाविक है.” सहायपुरणी कहती हैं, “हालांकि यह नई प्रवृत्ति है. पांच साल पहले इतनी अधिक संख्या में लोग धार्मिक वर्जनाओं को नहीं मानते थे.” त्यौहार में, और त्यौहार के बाद जब कुटुंबों के सहभोज के लिए बकरों की बलि चढ़ाई जाती है, तब लोग संबंधियों को दावत देने के लिए बड़ी मात्रा सूखी मछलियों का ऑर्डर देते हैं. “कई बार तो वे एक किलो मछली भी ख़रीदते हैं,” उनकी बेटी नैंसी (36) बताती हैं.
व्यापार की दृष्टि से ख़राब महीनों में उनका परिवार क़र्ज़ पर निर्भर रहता है. नैंसी, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, कहती हैं, “दस पैसे का ब्याज, प्रतिदिन का ब्याज, साप्ताहिक ब्याज, मासिक ब्याज. मानसून और मछली पकड़ने पर प्रतिबंध के दिनों में हम इसी तरह अपना गुज़ारा करते हैं. कईयों को तो साहूकार के यहां या बैंक में अपना जेवर भी रेहन रखना पड़ जाता है. लेकिन हमें क़र्ज़ लेना ही पड़ता है.” उनकी मां उनके वाक्य को पूरा करती हैं, “अनाज ख़रीदने के लिए.”
करुवाडु के व्यापार में लगने वाला श्रम और उससे होने वाला लाभ एक बराबर नहीं है. उस सुबह सहायपुरणी ने नीलामी में जितनी मछली [ सालई मीन या सार्डिन की एक भरी हुई टोकरी] 1,300 रुपए में ख़रीदी थी उससे उनको 500 रुपए का लाभ होगा. इस लाभ के बदले उन मछलियों की सफ़ाई करने, नमक मिलाने और उन्हें सुखाने में उन्हें दो दिन मेहनत करनी होगी. उसके बाद उन्हें बस में लादकर दो दिनों तक बेचना होगा. इस हिसाब से उनकी रोज़ की कमाई केवल 125 रुपए होती है. है कि नहीं? मैं उनसे जानना चाहती हूँ.
वह सहमति में अपना सिर हिलाती हैं. इस बार उनके चेहरे पर कोई मुस्कुराहट नहीं है.
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तेरेसपुरम में करुवाडु के व्यापार का अर्थशास्त्र और उससे संबंधित मानवीय संसाधनों का परिदृश्य एक अनिश्चितता की स्थिति में है. हमारे पास तमिलनाडु समुद्री मत्स्य जनगणना के कुछ आंकड़े उपलब्ध हैं. तूतिकोरिन ज़िले में मछली के संरक्षण और प्रसंस्करण के काम में लगे कुल 465 व्यक्तियों में 79 लोग तेरेसपुरम में यह काम करते हैं. पूरे राज्य के मछुआरों में केवल नौ प्रतिशत आबादी ही इस व्यवसाय में है, जिसमें महिलाओं की संख्या हैरतअंगेज तरीक़े से 87 प्रतिशत है. एफ़एओ रिपोर्ट के मुताबिक़ यह वैश्विक आंकड़े की तुलना में बहुत अधिक है. दुनिया में “लघु-स्तरीय मत्स्यिकी के क्षेत्र में कार्यरत श्रमशक्ति का लगभग आधा हिस्सा महिलाओं के योगदान पर निर्भर है.”
इस व्यवसाय में लाभ और हानि की ठीक-ठीक गणना एक कठिन काम है. एक बड़ी पांच-किलो के वज़न की मछली जो एक हज़ार रुपए में बिकनी चाहिए थी, वह थोड़ी सी पिलपिली हो जाने पर केवल चार सौ रुपए में मिल जाती है. महिलाएं इन मछलियों को ‘गुलुगुलु’ कहती हैं और उंगली के सांकेतिक दबाव से उस मछली के पिलपिले होने का भाव प्रकट करती हैं. ताज़ा मछली के ख़रीदारों द्वारा छांट दिए जाने के बाद करुवाडु तैयार करने वाली इन महिलाओं के लिए ये लाभ का सौदा है. इन्हें तैयार करने में समय भी कम लगता है.
फ़ातिमा की बड़ी मछली, जो पांच किलो की है, एक घंटे में तैयार हो जाती है. इतने ही वज़न के बराबर की छोटी मछलियां इससे दोगुना समय लेती हैं. नमक की आवश्यकता में भी अंतर हो जाता है. बड़ी मछलियों को अपने वज़न से आधा नमक की ज़रूरत होती है, जबकि छोटी और कड़क-ताज़ा मछलियों को अपने वज़न के आठवें हिस्से के बराबर नमक की ज़रूरत पड़ती है.
मछलियों को सुखाने का कारोबार करने वाले नमक सीधे उप्पलम या नमक के खेतों से ख़रीदते हैं. इसकी मात्रा इस बात पर निर्भर है कि ख़रीदार के यहां नमक की खपत कितनी है. नमक की एक खेप की क़ीमत उसकी मात्रा के अनुसार 1,000 रुपए से 3,000 रुपए होती है. नमक की बोरियों को तिपहिया साईकिल या ‘कुट्टियानई’ (जिसका शाब्दिक अर्थ ‘छोटा हाथी’ होता है) पर लादकर मंगाया जाता है. यह दरअसल एक छोटा टेंपो ट्रक होता है. नमक को घर के क़रीब ही नीले प्लास्टिक के लंबे ड्रम में भरकर रखा जाता है.
फ़ातिमा बताती हैं कि करुवाडु बनाने की विधि उनकी दादी के ज़माने से बहुत नहीं बदली है. मछलियों में चीरे लगाए जाते हैं, उन्हें साफ़ किया जाता है, और उनकी शल्कें हटाई जाती हैं. उसके बाद उनपर नमक लपेटकर उन्हें कड़ी धूप में सुखाया जाता है. वह निपुणता के साथ अपना काम करती हैं. इस बात के आश्वासन के साथ वह मुझे मछलियों से भरी टोकरियां दिखाती हैं. एक टोकरी में काटकर सुखाई हुई करुवाडु हैं, जिन पर हल्दी पाउडर पोता गया है. एक किलो करुवाडु 150 से 200 रुपए प्रति किलो की दर से बिकेगा. कपड़े की एक गठरी में ऊलि मीन (बाराकुडा) और उसके नीचे प्लास्टिक की एक बाल्टी में सूखी हुई सालई करुवाडु (सूखी हुई सार्डिन) रखी है. बगल के स्टाल से उनकी बहन फ्रेडरिक ऊंची आवाज़ में कहती है, “अगर हमारा काम ‘नाक्रे मूक्रे (गंदा/मैला-कुचैला) होगा, तो हमारी मछली कौन ख़रीदेगा? बहुत सारे लोग, यहां तक कि पुलिस वाले भी हमारे ख़रीदार हैं. अपने करुवाडु के कारण हमने अपनी एक साख बनाई है.”
इन बहनों ने घाव और दर्द भी कम नहीं सहा है. फ्रेडरिक मुझे अपनी हथेलियां दिखाती हैं. उन हथेलियों में चाकू से कटने के ढेरों बड़े-छोटे निशान हैं. हरेक निशान उनके अतीत के बारे में कुछ कहता है. ये निशान उनकी हथेलियों की उन लकीरों से बिल्कुल भिन्न हैं जो उनका भविष्य बयान करती हैं.
“मछली लाने का काम मेरे बहनोई का है, हम चारों बहनें उनको सुखाती और बेचती हैं,” अपने स्टाल के भीतर छाया में बैठने के बाद फ़ातिमा बताती हैं. “उनकी चार सर्जरियां हो चुकी हैं, वह अब समुद्र में नहीं जाते हैं. इसलिए तेरेसपुरम ऑक्शन सेंटर या तूतुकुड़ी के मुख्य बंदरगाह से हज़ारों रुपयों की मछलियों की खेप वही ख़रीदकर लाते हैं. वह जिस मात्रा और मूल्य में मछलियां लाते हैं, उसे एक कार्ड में लिख लेते हैं. मैं और मेरी बहनें उनसे ही मछली ख़रीदती हैं और बदले में उन्हें उनका कमीशन चुका देती हैं. हम उन्हीं मछलियों का करुवाडु बनाते हैं. फ़ातिमा अपने बहनोई को “मापिल्लई” कहकर बुलाती हैं, जो आमतौर पर दामाद को कहा जाता है, और अपनी छोटी बहनों को वे “पोन्नु” कहती हैं. सामान्यतः छोटी लड़कियों को यही कहकर बुलाया जाता है.
उनमें सभी 60 से ऊपर की उम्र की हैं.
फ्रेडरिक अपने नाम का तमिल रूप इस्तेमाल करती हैं – पेट्री. अपने पति के देहांत के बाद वह एक अकेली ही पिछले 37 से काम कर रही हैं. अपने पति जॉन ज़ेवियर को भी वह मापिल्लई ही कहकर बुलाती हैं. “मानसून के महीनों में हम मछलियों को नहीं सुखा पाती हैं. ऐसे में हमारा गुज़ारा भी मुश्किल से हो पाता है, और मजबूरन हमें ऊंचे ब्याजदर पर क़र्ज़ लेना पड़ता है – प्रति महीने एक रुपए पर 5 से 10 पैसे की दर पर,” वह बताती हैं. इस तरह साल भर में उन्हें 60 से 120 प्रतिशत तक ब्याज चुकाना पड़ता है.
धीमी रफ़्तार में बहती नहर के किनारे अपने कामचलाऊ स्टाल के बाहर बैठीं फ़ातिमा कहती हैं कि उन्हें एक नए आइसबॉक्स की आवश्यकता है. “मुझे एक बड़ा आइसबॉक्स [बर्फ़ का बक्सा] चाहिए, जिसका ढक्कन मज़बूत हो और जिसमें मैं मानसून के मौसम में अपनी अपनी ताज़ा मछलियां रखकर बेच सकूं. हम हमेशा अपनी जान-पहचान वालों से तो उधार तो नहीं ले सकते हैं, क्योंकि सबका व्यापार नुक़सान में है. किसके पास इतने पैसे हैं? कई बार तो एक पैकेट दूध ख़रीदना भी मुश्किल हो जाता है.”
सूखी मछलियों से जो कमाई होती है वह घरेलू ज़रूरतों, खाने-पीने और इलाज में ख़र्च हो जाते हैं. ख़र्चे का आख़िरी कारण बताते हुए उनकी आवाज़ में थोड़ा अतिरिक्त बल दिखता है – “प्रेशर और सुगर की गोलियां.” जिन महीनों में मछली पकड़ने वाली नावों पर प्रतिबन्ध लगा होता है, उन्हें अनाज ख़रीदने के लिए पैसे उधार लेने पड़ते हैं. “अप्रैल और मई के दौरान मछलियां अंडे देती हैं, इसलिए उन्हें पकड़ने पर प्रतिबन्ध लगा होता है. और, मानसून के महीनों में – अक्टूबर से जनवरी तक – नमक मिलने और मछली को सुखाने में परेशानी आती है. हमारी आमदनी इतनी नहीं है कि हम बचत कर सकें या बुरे दिनों के लिए पैसे बचा सकें.”
फ्रेडरिक को विश्वास है कि एक नया आइसबॉक्स, जिसकी क़ीमत लगभग 4,500 रुपए है, और लोहे का एक तराजू व एल्युमीनियम की एक कठौत उनकी ज़िंदगी बदल देगी. “यह मैं सिर्फ़ अपने लिए नहीं, बल्कि सबके लिए चाहती हूं. यदि हमें ये सब मिल जाएं, तो हम बाक़ी चीजों को संभाल लेंगे,” वह कहती हैं.
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तमिलनाडु के संदर्भ में हाथ द्वारा उपजाई गई और प्रसंस्कृत फ़सलों (ख़ास तौर पर बूढी महिला श्रमिकों द्वारा) में एक अदृश्य मूल्य निहित होता है, जो उनका समय और उनके श्रम की तुलना में न्यूनतम आर्थिक भुगतान है.
मछली सुखाने का व्यापार इससे भिन्न नहीं है.
“लैंगिकता के आधार पर अभुक्त [न चुकाया हुआ] श्रम, इतिहास में कोई नई घटना नहीं है. यही कारण है कि पूजा-अर्चना, उपचार-विधि, पाककला, पढ़ाई आदि की व्यवसायिकता और अपवचन, जादूटोना और अन्धविश्वास से जुड़ी दूसरी कहानियों जैसी स्त्री-द्वेषी मानसिकता साथ-साथ विकसित हुई है,” डॉ राय विस्तार से बताते हैं. संक्षेप में, स्त्री के अभुक्त श्रम को तर्कसंगत और उचित ठहराने के लिए अतीत के ढेरों मनगढ़ंत और रूढ़ मिथकों का सहारा लेने में कोई कसर नहीं उठा रखी गई है. “उद्यम का निर्माण और विखंडन कोई संयोगवश नहीं, बल्कि आवश्यक घटना है. यही कारण है कि आज भी पेशेवर शेफ़ पौरुष-प्रदर्शन की एक भोंडी नकल प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे हमेशा घरेलू पाक-विधियों को परिष्कृत और उन्नत करने का दावा करते हैं. इससे पहले यही काम पुरोहित वर्ग करता था. चिकित्सकों ने भी यही किया, और प्राध्यापकों ने तो यह किया ही है.”
तूतुकुड़ी क़स्बे की दूसरी तरफ़ एक कुटीर नमक निर्माता एस. रानी की रसोई में हम प्रत्यक्षतः करुवाडु कोडम्बू (तरी) कप पकता हुआ देखते हैं. कोई साल भर पहले सितंबर 2021 में हमने उन्हें खेत में नमक बनाते हुए देखा था. तब इतनी अधिक गर्मी थी कि धरती भी तप रही थी और पानी को तो किसी ने जैसे उबाल दिया था. तब वह नमक के चमकते हुए दानों की फ़सल तैयार कर रही थीं.
रानी, जो करुवाडु ख़रीदती हैं, वह उनके पड़ोस में तैयार होती है और वह स्थानीय नमक की मदद से बनी होती है. उसकी तरी बनाने के लिए वह नींबू की गोलाई के बराबर इमली पानी में घुलने डाल देती हैं. उसके बाद वह एक नारियल तोड़ती हैं, और एक दरांती की मदद से आधे नारियल का गूदा निकाल लेती हैं. उस गूदे को काटकर वह उन टुकड़ों को एक बिजली से चलने वाले मिक्सर में डाल देती हैं और उनको एकदम बारीक पीस लेती हैं. खाना पकाने के साथ-साथ रानी बातचीत भी करती रहती हैं. मेरी तरफ़ देखती हुई वह कहती हैं, “करुवाडु कोडम्बु एक दिन बाद खाने पर भी उतना ही स्वादिष्ट लगता है. दलिया के साथ इसका मेल मज़ेदार है.”
इसके बाद वे सब्ज़ियों को धोती और काटती हैं – दो सहजन, कच्चे केले, बैंगन और तीन टमाटर. कुछ करी पत्ते और एक पैकेट मसाला पाउडर को शामिल किए जाने के बाद सामग्रियों की सूची पूरी हो जाती है. मछली की गंध पाकर एक बिल्ली भूख के चलते म्याऊं की आवाज़ निकाल रही है. रानी पैकेट खोलती हैं और उसमें से कई तरह की करुवाडु निकालती हैं – नगर, असलकुट्टि, पारई और सालई. “मैंने यह चालीस रुपए में ख़रीदा है,” वह बताती हैं, और आज की तरी बनाने के लिए उनमें से आधी मछली निकाल लेती हैं.
आज एक और व्यंजन भी पक रहा है. रानी बताती हैं कि यह उन्हें बहुत पसंद है – करुवाडु अवियल. इसे वह इमली, प्याज, हरी मिर्च, टमाटर और करुवाडु मिलाकर पकाती हैं, और इसमें मसाले, नमक और खटाई का बहुत संतुलित उपयोग होता है. यह एक लोकप्रिय व्यंजन है, और इसे श्रमिक आमतौर पर कलेवा के रूप में नमक के खेतों में ले जाना पसंद करते हैं. रानी और उनकी सहेलियां आपस में व्यजनों की विधियां साझा करती हैं. जीरे, लहसुन, सरसों और हींग को एक साथ कूटा जाता है और मिश्रण को टमाटर और इमली के उबलते हुए सूप में मिला दिया जाता है. आख़िर में, कुटी हुई काली मिर्च और सूखी हुई मछली मिला दी जाती है. रानी बताती हैं, “इसे मिलगुतन्नी कहते हैं. यह उन स्त्रियों के लिए बहुत लाभप्रद है जिन्होंने अभी-अभी बच्चे जने हैं, क्योंकि इनमे औषधीय मसाले डाले गए हैं.” इसे स्तनपान करने वाली महिलाओं के लिए भी अच्छा बताया गया है. करुवाडु मिलाए बिना यदि मिलगुतन्नी पकाई जाए, तो उस व्यंजन को रसम कहते हैं जो तमिलनाडु के बाहर भी लोकप्रिय है. ब्रिटिश बहुत पहले ही इस व्यंजन को अपने साथ लेते गए, और अनेक उपमहादेशों में यह ‘मुलिगटॉनी’ सूप के नाम से उपलब्ध मिलता है.
रानी करुवाडु को पानी भरे एक बर्तन में दल देती हैं, और मछली को साफ़ करती हैं. वह मछली के पंख, माथा और पूंछ निकाल देती हैं. “यहां हर कोई करुवाडु खाता है,” सामाजिक कार्यकर्ता उमा माहेश्वरी कहती हैं. “बच्चे इसे इसी तरह पसंद करते हैं, और मेरे पति जैसे कुछ लोगों को स्मोक्ड पसंद है. करुवाडु को लकड़ी के चूल्हे में राख में दबा कर पकाया जाता है, और अच्छी तरह से पक जाने के बाद इसे गरम-गरम ही खाया जाता है. “इसकी गंध अद्भुत होती है. सुट्ट करुवाडु एक विशिष्ट व्यंजन है,” उमा बताती है.
जब तक कोडम्बू में उबाल नहीं आ जाता, रानी अपने घर के बाहर एक प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठी रहती हैं. हम गपशप करते हैं. मैं रानी से फ़िल्मों में करुवाडु का मज़ाक़ उड़ाए जाने के बारे में पूछती हूं. वह मुस्कुराती हैं और कहती हैं, “कुछ जातियां मांस-मछली नहीं खाती हैं. उन्हीं जातियों के लोग जब फ़िल्में बनाते हैं, तो ऐसे दृश्य उनमें डाल देते हैं. कुछ के लिए यह नातम [दुर्गन्धयुक्त] है. हमारे लिए यह मणम [सुगंधयुक्त] है.” और इस बात के साथ ही तूतुकुड़ी के नमक के खेतों की 'रानी' करुवाडु से संबंधित इस विवाद का निपटारा कर देती हैं ...
इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद