“पंखे वाले [पवनचक्की], ब्लेड वाले [सौर ऊर्जा फ़ार्म] हमारे ओरणों पर क़ब्ज़ा करते जा रहे है,” सौंटा गांव में रहने वाले सुमेर सिंह भाटी कहते हैं. वह किसान और चरवाहे हैं, और उनका घर जैसलमेर ज़िले में देगराय ओरण के निकट है.
ओरण एक प्राकृतिक उपवन होता है, जिसे एक साझा संपत्ति और संसाधन माना जाता है. यहां कोई भी आ-जा सकता है. हरेक ओरण के एक देवता होते हैं, जिन्हें आसपास के ग्रामीण पूजते हैं और आसपास की भूमि वहां रहने वाले समुदायों द्वारा अतिक्रमण-मुक्त रखी जाती है. ओरण के पेड़ नहीं काटे जा सकते हैं, केवल सूखकर गिर चुकी लकड़ियों को ही जलावन के लिए ले जाया जा सकता है, और उस ज़मीन पर किसी तरह का निर्माण कार्य नहीं किया जाता. ओरण के जलकुंडों को भी पवित्र माना जाता है.
हालांकि, सुमेर सिंह बताते हैं, “उन्होंने [अक्षय ऊर्जा कंपनियों ने] सदियों पुराने पेड़ काट डाले और घासें और झाड़ियां उखाड़ दी हैं. ऐसा लगता है कि कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है.”
सुमेर सिंह के इस ग़ुस्से में दरअसल जैसलमेर के सैकड़ों गांवों में रहने वाले निवासियों का रोष शामिल है, जिन्हें यह लगता है कि ओरणों पर अक्षय ऊर्जा (आरई) कंपनियों ने जबरन अपने अधिकार जमा लिए हैं. वह कहते है कि पिछले पन्द्रह सालों में इस ज़िले की हज़ारों हेक्टेयर ज़मीनें बिजली के हाई टेंशन तार और माइक्रो ग्रिड वाली पवनचक्कियां सौर ऊर्जा के संयंत्रों के हवाले कर दी गई हैं. इन सबने वहां की स्थानीय पारिस्थितिकी को बुरी तरह से बाधित किया है, और उनके रोज़गारों पर असर डाला है जो लोग इन जंगलों पर निर्भर हैं.
“पशुओं के घास चरने की कोई जगह नहीं बची है. मार्च के महीने में ही घास सूख चुकी है और अब हमारे मवेशियों के लिए चारे के नाम पर सिर्फ केर और केजरी के पेड़ों के पत्ते बचे हैं. पशुओं को पेट भर खाना नहीं मिलता है और इसलिए कम दूध देते हैं. जो पशु एक दिन में पांच लीटर दूध देते थे, अब वे मुश्किल से दो लीटर दूध ही देते हैं,” पशुपालक जोरा राम कहते हैं.
अर्द्धशुष्क घास के मैदान वाले ओरण स्थानीय समुदायों के लाभ की दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं. ये पशुओं के लिए हरी घास, चारा, पानी और अपने आसपास के इलाक़ों में रहने वाले हज़ारों लोगों को जलावन की लकड़ी उपलब्ध कराते हैं.
जोरा राम कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से उनके ऊंट अधिक दुबले और कमज़ोर हो गए हैं. “पहले हमारे ऊंट एक दिन में 50 अलग-अलग क़िस्मों की घास और पत्तियां खाया करते थे,” वह बताते हैं. हालांकि, हाई टेंशन तार ज़मीन से 30 मीटर ऊपर से गुज़रते हैं, लेकिन उनके नीचे लगे पेड़-पौधे 750 मेगावाट ऊर्जा के प्रभाव के कारण कांपते हैं और डरे हुए पशु ऐसे भागते हैं जैसे उनके पीछे कोई शिकारी दौड़ रहा हो. “ज़रा एक शावक ऊंट की कल्पना कीजिए, जिसने अपने मुंह में एक पौधा रखा हो,” जोरा राम अपना सर हिलाते हुए कहते हैं.
उनके और रासला पंचायत में रहने वाले उनके भाई मसिंघा राम के पास कुल 70 ऊंट हैं. घास के मैदानों की खोज में उनके पशुओं का झुण्ड जैसलमेर ज़िले में एक दिन में 20 से भी अधिक किलोमीटर की यात्रा करता है.
मसिंघा राम कहते हैं, “दीवारें ऊंची हो गई हैं, हमारे घास के मैदानों से गुज़रते हुए हाई टेंशन तारों और खंभों [पवन ऊर्जा] ने हमारे ऊंटों का उस जगह घास चरना मुश्किल कर दिया है. वे खंभे डालने के लिए खोदे गए गड्ढों में गिर कर चोटिल हो जाते हैं. बाद में उनके घावों में संक्रमण हो जाता है. इन सोलर प्लेटों का हमारे लिए कोई उपयोग नहीं है.”
दोनों भाई राईका चरवाहा समुदाय से आते हैं और पिछली कई पीढ़ियों से ऊंट पालन का काम करते रहे हैं, लेकिन “पेट भरने के लिए अब हमें मज़दूरी करने की नौबत आ पड़ी है,” क्योंकि अब बेचने के लिए पर्याप्त दूध का उत्पादन नहीं हो पाता है. वे कहते हैं कि दूसरे रोज़गार बहुत सहजता से उपलब्ध नहीं हैं. “परिवार का एक ही आदमी काम करने बाहर जा सकता है.” शेष बचे लोग चरवाही का अपना पुश्तैनी काम ही जारी रख सकते हैं.
ऐसा नहीं कि सिर्फ़ ऊंट पालने वाले चरवाहे ही परेशान हैं, सभी पशुपालकों को इन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
कोई 50 किलोमीटर या उससे थोड़ी कम दूरी पर 10 बजे सुबह के आसपास चरवाहे नजमुद्दीन ने जैसलमेर ज़िले के गंगाराम ढाणी ओरण में प्रवेश किया है. उनकी 200 भेड़ और बकरियां खाने के लिए घासों के गुच्छों की उम्मीद में उछलकूद मचा रही हैं.
क़रीब 55 की उम्र के इस चरवाहे का घर नाटी गांव में है. वह आसपास अपनी नज़रें घुमाते हैं और कहते हैं, “आसपास एकमात्र यही ओरण का टुकड़ा बचा रह गया है. चराई के लिए खुले घास के मैदान तो इस इलाक़े में कहीं भी मिलने से रहे.” वह अनुमान लगाते हुए बताते हैं कि चारा ख़रीदने में एक साल में औसतन 2 लाख रुपए ख़र्च करते हैं.
साल 2019 के आकलन के अनुसार राजस्थान में लगभग 1.4 करोड़ मवेशी हैं, और यहां सबसे अधिक संख्या में बकरियां (2.8 करोड़), 70 लाख भेड़ें और बीस लाख ऊंट हैं. इन साझा संसाधनों के समाप्त होने के कारण इन सभी मवेशियों पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ा है.
स्थितियां अभी और ख़राब होने के आसार हैं.
इंट्रा-स्टेट ट्रांसमिशन सिस्टम ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर स्कीम के दूसरे चरण में, एक अनुमान के अनुसार 10,750 सर्किट किलोमीटर (सीकेएम) ट्रांसमिशन लाइन बिछाए जाने हैं. इस परियोजना को 6 जनवरी, 2022 को आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति (सीसीईए) की स्वीकृति मिल चुकी है और इसे सात राज्यों में क्रियान्वित किया जाना है, जिसमें राजस्थान भी शामिल है. नई और अक्षत ऊर्जा के केन्द्रीय मंत्रालय (एमएनआरई) के 2021-2022 की वार्षिक रिपोर्ट में इसका उल्लेख है.
यह केवल चरागाहों के निरंतर कम होने का मामला नहीं है. “जब आरई कंपनियां आती हैं, तो सबसे पहले वे पूरे क्षेत्र के सभी पेड़ों को काट डालती हैं. परिणाम यह होता है कि स्थानीय प्रजाति के सभी कीड़े-मकोड़े, पतंगे, पक्षी, तितलियां आदि सभी मर जाते हैं और पूरा पारिस्थितिकी-चक्र बाधित हो जाता है. चिड़ियों और कीट-पतंगों के प्रजनन करने की जगहें भी नष्ट कर दी जाती हैं,” पार्थ जगानी, जो एक स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्त्ता हैं, कहते हैं.
और सैकड़ों किलोमीटर लंबी बिजली की लाइनों के चलते हवा में पैदा हुए अवरोध के कारण हज़ारों की संख्या में पक्षी मारे जा रहे हैं, जिनमें राजस्थान का राज्य पक्षी जीआईबी भी शामिल है. पढ़ें: संवेदनहीन सत्ता के शिकार गोडावण पंछी
सौर प्लेटों के आने से यहां का तापमान लगातार बढ़ा है. भारत में गर्मी की भयानक लहरें देखी जा रही हैं; राजस्थान के रेगिस्तान की जलवायु में, सालाना तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाता है. न्यूयॉर्क टाइम्स के जलवायु परिवर्तन पर आधारित पोर्टल के डेटा से पता चलता है कि अब से 50 साल बाद जैसलमेर के कैलेंडर में 'अत्यधिक गर्म दिनों' वाला एक अतिरिक्त महीना जुड़ जाएगा - 253 दिनों से बढ़कर 283 दिन.
डॉ. सुमित डूकिया स्पष्ट करते हैं कि पेड़ों के कटने से होने वाले नुक़सान सोलर पैनलों से उत्सर्जित होने वाली गर्मी के कारण कई गुना बढ़ जाते हैं. डॉ. डूकिया एक संरक्षण जीव वैज्ञानिक हैं जो दशकों से ओरणों में आने वाले बदलावों का अध्ययन कर रहे हैं. “कांच की प्लेटों के प्रतिबिंबीय प्रभावों के कारण स्थानीय पर्यावरण के तापमान में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है.” वह कहते है कि मौसम बदलने की स्थिति में अगले पचास सालों में तापमान में 1 से 2 डिग्री बढ़ोतरी की उम्मीद की जाती है, “लेकिन अब यह गति बहुत तेज़ी से बढ़ी है और कीट-पतंगों की स्थानीय प्रजातियां विशेष रूप से परागण के लिए ज़रूरी पतंगे तापमान में असामान्य वृद्धि के कारण उस क्षेत्र को छोड़ देने के लिए बाध्य हैं.”
एमएनआरई की रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर 2021 में राजस्थान में छह अन्य सोलर पार्क बनाने की योजना को सहमति मिली है. महामारी के दौरान राजस्थान ने अक्षत ऊर्जा (आरई) की अपनी क्षमता में सबसे अधिक विकास किया और 2021 के सिर्फ़ 9 महीने (मार्च से दिसंबर) में ऊर्जा-उत्पादन में 4,247 मेगावाट का अपना योगदान दिया.
स्थानीय लोगों के कथनानुसार यह एक गुप्त कारवाई थी: “जब लॉकडाउन के कारण पूरी दुनिया ठप थी, यहां काम लगातार जारी रहा,” स्थानीय कार्यकर्त्ता पार्थ कहते हैं. पवनचक्कियों की क्षितिज तक जाती लंबी क़तार को दिखाते हुए वे कहते हैं, “देवीकोट से देगराय मंदिर तक जाने वाली इस 15 किलोमीटर लंबी सड़क की दोनों तरफ लॉकडाउन से पहले कुछ भी नहीं बना था.”
यह सब कैसे हुआ, उसे विस्तार से बताते हुए नारायण राम कहते हैं, “वे पुलिस जैसी लाठियां अपने साथ लेकर आए. सबसे पहले उन्होंने हमें खदेड़ा और उसके बाद अपनी मर्ज़ी की करने लगे. उन्होंने पेड़ काट डाले और ज़मीनें चौरस कर दीं.” वह रासला पंचायत में रहते हैं और यहां देगराय माता मन्दिर के आसपास के क्षेत्रों से जुटे अन्य बुजुर्गों के साथ बैठे हैं. इस मंदिर में प्रतिष्ठित देवी ही ओरणों की देखभाल करती हैं.
“ओरणों को हम उसी भक्तिभाव से देखते हैं जैसे अपने मन्दिरों को देखते हैं. उनसे हमारी आस्था जुड़ी हुई है. हमारे पशु यहां घास चरते हैं. ये जंगली जानवरों और पक्षियों का बसेरा हैं. हमारे लिए यहां के जलकुंड पवित्र हैं. यह हमारे लिए हमारी देवी के तरह हैं. ऊंट, बकरियां, भेड़ें, सभी इनका इस्तेमाल करते हैं,” वह कहते हैं.
इस संवाददाता द्वारा जैसलमेर के ज़िला कलेक्टर का मंतव्य जानने की अनेक कोशिशों के बाद भी उनसे मिलने का समय नहीं मिल पाया. एमएनआरई के अधीन आने वाले सौर ऊर्जा राष्ट्रीय संस्थान से संपर्क करने का भी कोई सूत्र नहीं मिल पाया, और एमएनआरई से ईमेल के माध्यम से पूछे गये प्रश्नों का भी कोई उत्तर इस रपट के प्रकाशित होने तक नहीं मिल पाया है.
राज्य विद्युत् निगम के एक स्थानीय अधिकारी ने बताया कि इस विषय पर बातचीत करने के लिए वह अधिकृत नहीं हैं, लेकिन उसने यह ज़रूर बताया कि उसे किसी भी पॉवर ग्रिड द्वारा किसी परियोजना या उसकी प्रक्रिया को विलंबित करने के संबंध में किसी तरह का कोई दिशा निर्देश नहीं प्राप्त हुआ है.
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जितनी आसानी से आरई कंपनियों ने राजस्थान में प्रवेश कर ज़मीनों पर अपना क़ब्ज़ा जमाया, उस प्रवृति की जड़ें औपनिवेशिक काल के उस पारिभाषिकी में तलाशी जा सकती हैं, जिसके अनुसार वे सभी ज़मीनें ‘बंजर-भूमि’ हैं जिनसे राजस्व प्राप्त नहीं होता है. इनमें अर्द्धशुष्क खुले सवाना और घास के मैदान भी शामिल हैं.
यद्यपि वरिष्ठ वैज्ञानिकों और संरक्षणवादियों ने इस ग़लत श्रेणीबद्धता का सार्वजनिक विरोध किया, लेकिन भारत सरकार ने 2005 से प्रकाशित होने वाले वेस्टलैंड एटलस में इस संबंध में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं समझी. इस एटलस का पांचवां संस्करण 2019 को प्रकाशित हो चुका है, लेकिन उसे पूरी तरह डाउनलोड नहीं किया जा सकता है.
वेस्टलैंड एटलस 2015-16 के अनुसार भारत की 17 प्रतिशत भूमि को घास के मैदान के रूप में वर्गीकृत किया गया है. आधिकारिक रूप से घास के मैदान, और झाड़ीदार और कंटीले वनक्षेत्रों को ‘बंजर’ या ‘अनउपजाऊ ज़मीन’ की श्रेणी में रखा गया है.
“भारत शुष्क भूमि पारिस्थिकी तंत्र को संरक्षण, आजीविका के साधन और जैव-विविधता की दृष्टि से उपयोगी होने की बात स्वीकार नहीं करती है. ऐसे में ये ज़मीनें पारिस्थितिकी में परिवर्तन और उसे अपूरणीय क्षति पहुँचाने की दृष्टि से एक सुलभ माध्यम बन जाती हैं,” संरक्षण वैज्ञानिक डॉ. अबी टी. वनक कहते हैं, जो घास के मैदानों के इस ग़लत वर्गीकरण के विरोध में पिछले दो से भी अधिक दशकों से लड़ रहे हैं.
“एक सोलर फ़ार्म उस स्थान को भी बंजर बना देती है, जो पहले से बंजर नहीं थी. आप एक सोलर फ़ार्म की स्थापना करने के लोभ में एक जीवंत पारिस्थितिकी की हत्या कर डालते हैं. बेशक आप ऊर्जा का उत्पादन करते हैं, लेकिन क्या यह एक हरित ऊर्जा है?” वह पूछते हैं. उनके अनुसार राजस्थान की 33 प्रतिशत भूमि खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र (ओएनई) का हिस्सा है और किसी भी दृष्टि में यह बंजरभूमि नहीं है, जैसा कि इसे वर्गीकृत किया गया है.
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के पर्यावरणविद एम. डी. मधुसूदन के साथ साझा रूप से लिखे गए एक शोधपत्र में लिखते हैं, “ओएनई के अधीन भारत की 10 प्रतिशत भूमि होने के बावजूद केवल 5 प्रतिशत भूमि ही इसके ‘प्रोटेक्टेड एरिया’ अर्थात सुरक्षित क्षेत्र (पीए) के अनधीन आती है.” इस शोधपत्र का शीर्षक भारत के अर्द्धशुष्क सार्वजनिक प्राकृतिक पारिस्थितिकी-तंत्र के क्षेत्र और उसके वितरण का मानचित्रण है.
इन महत्वपूर्ण घास के मैदानों के कारण ही चरवाहा जोरा राम यह कहते है, “सरकार हमसे हमारा भविष्य छीन रही है. अपने समुदाय को सुरक्षित बचाने के लिए हमें अपने ऊंटों को सुरक्षित बचाने की ज़रूरत है.”
साल 1999 में पूर्व के बंजर क्षेत्र विकास विभाग का नाम बदलकर भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) कर दिया गया, जिससे चीज़ें और अधिक बिगड़ गईं.
वनक कहते हैं, “सरकार की इस बारे में समझ तकनीक-केन्द्रित है. वह स्थितियों की अभियांत्रिकी और एकरूपता पर अधिक ध्यान दे रही है.” अशोका ट्रस्ट फ़ॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड दी एनवायरनमेंट (एटीआरईई) में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत वनक कहते हैं, “स्थानीय पारिस्थितिकी का ध्यान नहीं रखा जा रहा है, और हम आम लोगों के साथ उनकी भूमि के संबंधों की उपेक्षा कर रहे हैं.”
सौंटा गांव के कमल कुंवर कहते हैं, “ओरण से अब केर सांगड़ी लाना असंभव हो गया है.” क़रीब 30 साल की कंवर खासकर इस बात से बहुत आक्रोशित हैं कि स्थानीय केर लकड़ियों को अंधाधुंध जलाए जाने के कारण अब उनकी पसंदीदा बेरी और फलियां भी उनके लिए दुर्लभ हो गई हैं.
डीओएलआर द्वारा संचालित अभियान में ‘ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर बढ़ाने’ जैसे कार्यक्रम भी शामिल किए गए हैं, लेकिन आरई कंपनियों को ज़मीन पर अधिकार देकर, चारागाहों के सार्वजनिक उपयोग पर प्रतिबन्ध लगा कर और गैर वनीय लकड़ी के उत्पादों (एनटीएफपी) को अप्राप्य बना कर उक्त कर्यक्रम के विपरीत कारवाई की गई है.
कुंदन सिंह जैसलमेर ज़िले के मोकला गांव के एक पशुपालक हैं. उम्र में 25 साल के कुंदन बताते हैं कि उनके गांव में लगभग 30 परिवार हैं, जो खेती और पशुपालन करते हैं. उनके लिए अपने पशुओं के चारा की व्यवस्था करना अब बहुत कठिन काम हो गया है. “उनहोंने [आरई कंपनियों ने] चारदीवारी खड़ी कर दी है और हम अपने पशुओं को घास चराने भीतर दाख़िल नहीं हो सकते हैं.”
जैसलमेर ज़िले का 87 प्रतिशत इलाक़ा ग्रामीण क्षेत्र घोषित किया गया है, और यहां रहने वाले 60 प्रतिशत लोग कृषिक्षेत्र में कम करते हैं और उनके पास पशु हैं. “इलाक़े के सभी घरों में अपना पशुधन है,” सुमेर सिंह कहते हैं. “मैं ख़ुद भी अपने पशुओं को पर्याप्त खाना नहीं खिला पाता हूं.”
पशु मुख्य रूप से घास खाते हैं. 2014 में पैटर्न ऑफ़ प्लांट स्पेसिज डाईवर्सिटी नाम से प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार राजस्थान में 375 क़िस्मों की घासें पाई जाती हैं. ये घासें यहां की अल्पवृष्टि के अनुरूप खुद को जीवित और ताज़ा रखने में समर्थ हैं.
हालांकि, जब आरई कंपनियों ने इन भूमियों का अधिग्रहण किया, “यहां की मिट्टी असंतुलित हो गई. स्थानीय पौधों के सभी झुरमुट कई-कई दशक पुराने हैं, और यहां का पारिस्थितिकी-तंत्र भी सैकड़ों साल पुराना है. आप उनके साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते! उनको हटाने का मतलब मरुस्थलीकरण की बढ़ावा देना है,” वनक अपनी चिंता व्यक्त करते हैं.
इंडिया स्टेट ऑफ़ फारेस्ट रिपोर्ट 2021 के अनुसार, राजस्थान के पास 3.4 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन है, लेकिन इनमें मात्र 8 प्रतिशत ज़मीन ही वनक्षेत्र के रूप में चिह्नित हैं, क्योंकि जब उपग्रहों का उपयोग डेटा संग्रह के लिए किया जाता है, तो केवल पेड़ों से ढंकी भूमि को ही ‘वनक्षेत्र’ के रूप में मान्य समझते हैं.
लेकिन इस राज्य के वनक्षेत्र घास पर निर्भर अनेक पशु-प्रजातियों की आश्रयस्थली भी हैं जिनमें से बहुतों पर विलुप्ति का संकट भी मंडरा रहा है. इनमें से लेसर फ्लोरिकन प्रजाति, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, इंडियन ग्रे वुल्फ़, गोल्डन जैकाल, इंडियन फॉक्स, इंडियन गजेल, ब्लैकबक, स्ट्राइप्ड हाइना, कैरेकल, डीजर्ट कैट, इंडियन हेजहॉग और अनेक दूसरी प्रजातियां प्रमुख हैं. इसके अतिरिक्त डेज़र्ट मॉनिटर लिज़ार्ड और स्पाइनी-टेल्ड लिज़ार्ड जैसी प्रजातियों को भी तत्काल संरक्षित किए जाने की ज़रूरत है.
संयुक्तराष्ट्र ने 2021-2030 के दशक को पारिस्थितिकी तंत्र बहाली दशक घोषित किया है: “पारिस्थितिकी तंत्र बहाली का आशय उन पारिस्थितिकी तंत्रों के आरोग्य में सहयोग से है जो या तो नष्ट हो चुके हैं या तेज़ी से क्षतिग्रस्त होते जा रहे हैं. साथ ही, इसका उद्देश्य उन पारिस्थितिकी तंत्रों को संरक्षित करना है जो अभी भी सुरक्षित बचे हैं.” आईयूसीएन के नेचर 2023 कार्यक्रम में ‘पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली’ को प्राथमिकता की दृष्टि से शीर्ष पर रखा गया है.
भारत की सरकार ‘घास के मैदानों को बचाने’ और ‘खुले वन पारिस्थितिकी’ के उद्देश्य से विदेश से चीतों को मंगवा रही है या यह कहा जा सकता है कि जनवरी 2022 में 224 करोड़ की लागत वाली चीता आयात योजना की घोषणा की गई. लेकिन चीते अपनी हिफाज़त करने में ख़ुद भी बहुत कामयाब नहीं हो पाए हैं. आयातित की गए 20 चीतों में 5 की अब तक मौत हो चुकी है. यहां जन्मे तीन शावक भी जीवित नहीं रह पाए हैं.
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ओरणों के मामले में एक अच्छी ख़बर तब सुनने में आई, जब 2018 में अपने एक आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “...शुष्क इलाक़ों में जहां बहुत कम हरियाली होती है, घास के मैदानों और उस पारिस्थितिकी को वनक्षेत्र का दर्जा दिया जाना चाहिए.”
हालांकि, ज़मीनी स्तर पर कुछ भी नहीं बदला है और आरई कंपनियों के साथ लगातार अनुबंध किए जा रहे हैं. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अमन सिंह, जो इन वनों को वैधता दिलवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, ने “निर्देश और हस्तक्षेप” की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को एक आवेदन दिया है. न्यायालय ने 13 फ़रवरी 2023 को एक नोटिस जारी करते हुए राजस्थान सरकार से कारवाई करने के लिए कहा है.
“सरकार के पास ओरणों के लिए पर्याप्त डेटाबेस उपलब्ध नहीं है. राजस्व के कागज़ात भी अद्यतन नहीं हैं, और उनमें अनेक ओरणों का उल्लेख नहीं है. उनको अतिक्रमित किया जा चुका है,” कृषि अवाम पारिस्थितिकी विकास संगठन के संस्थापक अमन कहते हैं. यह संगठन सामूहिक भूमि, ख़ासकर ओरणों को पुनर्जीवित करने के लिए कृतसंकल्पित हैं.
वह कहते हैं कि ओरणों को ‘मानित वन’ का दर्जा देकर उसे क़ानूनन अधिक सुरक्षित बनाया जाना चाहिए, ताकि उन्हें उत्खनन, सौर और पवन संयंत्रों, शहरीकरण और अन्य ख़तरों से बचाया जा सके. “अगर उन्हें राजस्व की दृष्टि से बंजर भूमि की श्रेणी में रहने दिया गया, तब दूसरे उद्देश्यों से उन्हें आवंटित किए जाने का ख़तरा उनपर बना रहेगा,” वह निष्कर्ष के रूप में कहते हैं.
किंतु राजस्थान सौर ऊर्जा नीति, 2019 द्वारा सौर ऊर्जा संयंत्रों और कंपनियों को कृषियोग्य भूमि के अधिग्रहण का अधिकार दे दिए जाने से ओरणों पर स्थानीय लोगों की परंपरागत दावेदारी पहले की तुलना में और कमज़ोर हुई है. आरई कंपनियों और सरकार दोनों का एकमात्र उद्देश्य अधिकतम सीमा का विकास करना है और इस उद्देश्य को पाने के लिए उनके सामने भूमि परिवर्तन से संबंधित किसी प्रकार का कोई नियंत्रण और प्रतिबंध जैसा दवाब नहीं है.
“भारत के पर्यावरण क़ानूनों में हरित ऊर्जा की कोई पड़ताल नहीं कर रही हैं,” वन्यजीव जैववैज्ञानिक और नई दिल्ली के गुरु गोबिंद सिंह इन्द्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सुमित डूकिया कहते हैं. वह कहते हैं, “लेकिन सरकार कोई भी क़दम उठाने में असहाय है, क्योंकि क़ानून आरई के समर्थन में है.”
डूकिया और पार्थ आरई संयंत्रों द्वारा उत्सर्जित नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरों की भारी मात्रा से चिंतित हैं. “आरई कंपनियों को ये पट्टे 30 साल की अवधि के लिए दिए गए हैं लेकिन पवन चक्कियों और सोलर पैनलों की उम्र 25 साल होती है. उन्हें कौन नष्ट करेगा और यह काम कहां होगा,” डूकिया सवाल करते हैं.”
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“सिर सांठे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण [अगर जान देकर भी एक पेड़ बचाया जा सका, तो यह लाभ का सौदा होगा].” राधेश्याम बिश्नोई एक स्थानीय कहावत दोहराते हैं, जो “पेड़ों के साथ हमारे संबंधों को बयान करता है.” वह धोलिया के निवासी हैं और भादरिया ओरण के पास ही रहते हैं. बिश्नोई, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, जिसे स्थानीय लोग गोडवण भी कहते हैं, के संरक्षण के समर्थन में उठने वाली अग्रणी और मज़बूत आवाज़ के रूप में पहचाने जाते हैं.
“कोई 300 साल पहले जोधपुर के राजा ने एक किला बनाने का फ़ैसला लिया था और उन्होंने अपने मंत्री से क़रीब के गांव खेतोलाई से लकड़ी लाने का आदेश दिया. मंत्री ने आदेश का पालन करते हुए सैनिकों को वहां भेज दिया. लेकिन जब वे वहां पहुंचे तो बिश्नोई लोगों ने उन्हें पेड़ काटने से रोक दिया. मंत्री ने घोषणा की, “पेड़ों और उनसे चिपके लोगों को काट डालो.”
स्थानीय किंवदंती कहती है कि अमृता देवी के अधीन सभी ग्रामीणों ने एक-एक पेड़ को गोद लिया था. लेकिन सैनिकों ने इसकी परवाह न करते हुए 363 लोगों को जान से मार डाला.
“पर्यावरण के लिए अपनी जान कुर्बान कर देने का वही जज़्बा हमारे भीतर आज भी ज़िंदा है,” वह कहते हैं.
सुमेर सिंह बताते हैं कि देगराय में 60,000 बीघा में फैले ओरण में से 24,000 बीघा एक मंदिर के ट्रस्ट के अधीन है. बाक़ी के 36,000 बीघा को सरकार द्वारा ट्रस्ट को हस्तांतरित नहीं किया गया, और 2004 में सरकार ने उस ज़मीन को पवनऊर्जा कंपनियों को आवंटित कर दिया. लेकिन हमने अपनी लड़ाई लड़ी और आज भी डटे हुए हैं,” सुमेर सिंह कहते हैं.
वह यह भी बताते हैं कि जैसलमेर की दूसरी जगहों के छोटे ओरणों का अस्तित्व बचने का तो सवाल ही नहीं है. बंजर भूमि के रूप में श्रेणीबद्ध होने के कारण आरई कंपनियां आसानी से उन्हें अपना निवाला बना रही हैं.
“यह ज़मीन पथरीली लगती है,” सौंटा में अपने खेतों में नज़र घुमाते हुए वह कहते हैं. “लेकिन हम यहां बाजरे की सबसे उन्नत और पौष्टिक क़िस्म उगाते हैं.” मोकला गांव के क़रीब के डोंगर पीरजी ओरण में केजरी, केर, जाल और बेर के छिटपुट पेड़ हैं. ये यहां मनुष्यों और पशुओं दोनों के लिए ज़रूरी आहार हैं और स्थानीय जायकों का अभिन्न हिस्सा भी हैं.”
“बंजर भूमि!” सुमेर सिंह इस वर्गीकरण को ही संदेह की दृष्टि से देखते हैं. “ये ज़मीनें उन स्थानीय भूमिहीनों को देकर देखिए जिनके पास आजीविका का कोई दूसरा विकल्प नहीं है. ये ज़मीनें उनके हवाले कर दीजिए. वे इनपर रागी और बाजरा उगा सकते हैं और हर आदमी का पेट भर सकते हैं.”
मांगीलाल जैसलमेर और खेतोलाई के बीच हाईवे पर एक छोटी सी दुकान चलाते हैं. वह कहते हैं, “हम ग़रीब लोग हैं. अगर कोई हमें हमारी ज़मीन के बदले पैसे देने की पेशकश करेगा, तो हम कैसे मना कर सकते हैं?”
स्टोरी की रिपोर्टर इस रपट में सहयोग करने के लिए बायोडाईवर्सिटी कोलैबरेटिव के सदस्य डॉ. रवि चेल्लम का आभार प्रकट करती हैं.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद