चेन्नई में आयोजित हुए तमिलनाडु राज्य के गणतंत्र दिवस समारोह में रानी वेलु नचियार उन मशहूर ऐतिहासिक शख़्सियतों में से थीं जिन पर चर्चाएं भी खूब हुईं और जिनकी तस्वीर ख़ूब उतारी गईं. उन्हें वी.ओ. चिदंबरम पिल्लई, सुब्रमण्यम भारती, और मरुथू बंधु जैसी तमिल शख़्सियतों के साथ एक झांकी में देखा गया.
'स्वतंत्रता संग्राम में तमिलनाडु' का प्रतिनिधित्व करने वाली उस झांकी को केंद्र सरकार की 'विशेषज्ञ' समिति द्वारा नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड के लिए अस्वीकार कर दिया गया था. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने की अपील भी की, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं हुई. आख़िरकार, इसे चेन्नई में राज्य के गणतंत्र दिवस पर हुए समारोह में जगह दी गई, जो सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रही.
केंद्र की 'विशेषज्ञ' समिति द्वारा दिए गए अन्य कारणों के अलावा एक कारण ये भी दिया गया कि इन शख़्सियतों को 'राष्ट्रीय स्तर पर कोई नहीं जानता.' अक्षया कृष्णमूर्ति इससे असहमत हैं. उनका विश्वास है कि उनका 'वेलु नचियार' के साथ व्यक्तिगत तौर पर गहरा जुड़ाव है, जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और 1796 में अपनी मृत्यु तक शिवगंगा (अब तमिलनाडु का एक ज़िला) पर शासन किया.
वह कहती हैं, "मेरे जीवन का सबसे यादगार पल वह था, जब मैंने 11वीं कक्षा में अपने स्कूल समारोह में वेलु नचियार की मुख्य भूमिका निभाई."
अक्षया आगे कहती हैं, "लेकिन ये केवल अभिनय और नृत्य से जुड़ी बात नहीं थी." उन्होंने अपने भीतर 'वीरमंगई' की ताक़त और साहस को महसूस किया. रानी वेलु नचियार को गीतों और बोलों में वीरमंगई के नाम से पुकारा जाता रहा है. अक्षया एक प्रशिक्षित शास्त्रीय नृत्यांगना हैं. वह बताती हैं कि स्कूल प्रतियोगिता के दिन वह अस्वस्थ थीं और उन्हें नहीं पता था कि उस दिन अभिनय कर पाएंगी या नहीं. लेकिन उन्होंने अपनी पूरी क्षमता लगा दी.
जब वह मंच से उतरीं, तो बेहोश हो गईं. उन्हें अस्पताल ले जाया गया, और वहां उन्हें सलाइन ड्रिप चढ़ाया गया. "हम दूसरे स्थान पर रहे. अपने आईवी लाइन (ड्रिप की सुई) वाले हाथों से मैंने अपना पुरस्कार लिया." इस घटना ने उन्हें अपनी क्षमता पर भरोसा करना सिखाया. उनके भीतर "साहस" ने जन्म लिया, और इसके बाद उन्होंने मोटरसाइकल और कार चलाना सीखा.
अक्षया अपने परिवार में स्नातक की शिक्षा हासिल करने वाली पहली सदस्य हैं. वह एक एंटरप्रेन्योर (व्यवसायी), इनोवेटर (अन्वेषक), और मोटिवेशनल स्पीकर है.
महज़ 21 साल की उम्र में वह यह सब करती हैं.
अक्षया अपने माता-पिता, छोटे भाई, बुआ, एक कुत्ते, और कई पक्षियों (बडगरिगर्स या आम तोते) के साथ तमिलनाडु के इरोड ज़िले में सत्यमंगलम के पास अपने गृहनगर अरियप्पमपलयम में रहती हैं. राज्य के नक्शे में देखें तो ये एक बेहद छोटी जगह है. लेकिन बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन में स्नातक कर चुकीं अक्षया इस इलाक़े को एक दिन राष्ट्रीय पटल पर उभरते हुए देखना चाहती हैं.
कोयंबटूर, करूर, और तिरुपुर सहित तमिलनाडु के इस पूरे क्षेत्र का इतिहास ये है कि यहां कमज़ोर वर्ग ने उद्यमिता का विकास किया है. अक्षया, जिनके मां-बाप दसवीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए, उसी पुरानी परंपरा को आगे लेकर चल रही हैं.
जब अक्टूबर 2021 में पारी ने अक्षया से मुलाक़ात की, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "मेरी उम्र, मेरी ताक़त भी है और कमज़ोरी भी." हम हल्दी किसान तिरु मूर्ति के खेतों से वापस लौटकर उनकी बैठक में चाय पीने बैठे थे, और बज्जी (पकौड़े) खा रहे थे. हमारी मुलाक़ात यादगार थी. अपने बड़े और सुनहरे सपनों के बारे में बड़ी मुखरता से बात करते हुए अक्षया अपने छोटे बालों को अपने चेहरे से झटकती जा रही थीं.
उनकी पसंदीदा उद्धरण भी इसी को लेकर है, "आज ही मन का काम करो और अपने सपनों को जियो." वह कॉलेजों में दिए गए अपने प्रेरक भाषणों में इस उद्धरण का खूब प्रयोग करती हैं. वह अपने जीवन, अपने व्यवसाय में इसका उपयोग करती हैं, जबकि वह अपने ब्रैंड 'सुरुकुपई फूड्स' को स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं. तमिल में सुरुकुपई शब्द 'डोरी वाली थैली' के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो हमें पुराने दौर की याद दिलाने के साथ-साथ मितव्ययिता का गुण सिखाती है, और सबसे बड़ी बात तो ये है कि यह पर्यावरण के अनुकूल भी है.
उनमें अपने दम पर कुछ कर गुज़रने का जज़्बा पहले से ही है. "कॉलेज में मैंने और मेरे दोस्तों ने उलियिन उरुवम ट्रस्ट की स्थापना की, जो मूर्तिकार के हथौड़े के नाम पर आधारित था. यह छात्रों के नेतृत्व में चलाया जा रहा एक संगठन है, जिसे हमने छोटे शहरों के छात्रों को जीवन में आगे बढ़ने में मदद करने के लिए स्थापित किया था. हमारा सपना है कि हम 2025 तक 2025 नेताओं को तैयार करें." यह मुश्किल सा जान पड़ने वाला सपना लगता है. लेकिन यह अक्षया की महत्त्वाकांक्षा के सामने बहुत छोटा है.
वह हमेशा से एक व्यवसायी बनना चाहती थीं, लेकिन मार्च 2020 में तालाबंदी की घोषणा के बाद उनके सामने बहुत थोड़े से विकल्प रह गए थे. वह स्नातक का उनका आख़िरी साल था. इसी दौरान वह तिरु मूर्ति से मिलीं, जो सत्यमंगलम के पास उप्पुपल्लम गांव में जैविक कृषि करते हैं. वह उनके परिवार के पुराने दोस्त और उनकी घरेलू उपकरणों की दुकान के ग्राहक थे. अक्षया बताती हैं, "वे लोग एक-दूसरे को तब से जानते हैं, जब पापा रेडियो कैसेट की दुकान चलाते थे."
तिरु मूर्ति, जिन्हें अक्षया 'अंकल' कहकर बुलाती हैं, हल्दी का व्यवसाय करते हैं, और हल्दी और हल्दी से बनाए अपने उत्पाद वह सीधा अपने ग्राहकों को उत्पाद बेचते हैं. अक्षया को लगा कि वह उनके उत्पाद की पैकेजिंग करके उसे बेच सकती हैं. तिरु मूर्ति ने उनका हौसला बढ़ाते हुए कहा, "एडुतु पन्नुंगा. यानी इसे लो और करो." अक्षया मुस्कुराते हुए बताती हैं कि "अंकल उनके व्यवसाय को लेकर बहुत सकारात्मक थे." और इस तरह सुरुकुपई फूड्स की शुरुआत हुई.
अपनी नई कंपनी के साथ वह जिस पहली प्रदर्शनी में गईं, वह काफ़ी उत्साहवर्धक थी. टैन फूड '21 एक्सपो के नाम से यह प्रदर्शनी फरवरी 2021 में मदुरई में आयोजित की गई थी. क़रीब 2 हज़ार लोग उसके स्टॉल पर आए थे. मार्केट रिसर्च और उनकी प्रतिक्रियाओं से उसे ब्रैंडिंग और पैकेजिंग का महत्त्व समझ में आया.
अक्षया बताती हैं, "ग्राहकों का हमारे ब्रैंड नाम के साथ व्यक्तिगत जुड़ाव था. इसके अलावा हमारा व्यवसाय भी अनोखा था. उससे पहले तक, हल्दी केवल प्लास्टिक के पैकेटों में बेची जाती थी. किसी ने उसे काग़ज़ के पैकेट में, डोरी वाली थैली में बिकते हुए नहीं देखा था!" न तो एफएमसीजी की बड़ी कंपनियों और न ही ऑर्गेनिक स्टोर्स ने ऐसे किसी आइडिया के बारे में सोचा था. उनका ये सरल सा आइडिया काफ़ी सफल रहा. और अब वह और आगे बढ़ना चाहती थीं.
अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने तमाम लोगों और संगठनों से सलाह मांगी. उनमें उनके गुरु और पोटन सुपर फूड्स के डॉ. एम. नचिमुत्तु और शनमुगा सुंदरम भी शामिल हैं. और मदुरई एग्री बिज़नेस इनक्यूबेशन फ़ोरम (एमएबीआईएफ) ने उन्हें ट्रेडमार्क और एफएसएसएआई प्रमाणन प्राप्त करने में मदद की. और हां, अक्षया को जब भी समय मिलता है, वह सेल्फ़-हेल्प (स्वयं सहायता) से जुड़ी किताबें ज़रूर पढ़ती हैं. उनकी पढ़ी आख़िरी किताब थी: '
एटीट्यूड इज़ एवरीथिंग.'
अक्षया कहती हैं, "बीबीए की पढ़ाई से मुझे ऐसी शिक्षा या व्यावहारिक कुशलता हासिल नहीं हुई है कि मैं अपना एक व्यवसाय शुरू कर सकूं." वह शिक्षा व्यवस्था की समस्याओं पर बात करते हुए पूछती हैं, "कॉलेज में हमें बैंकों के साधारण लेन-देन के बारे में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? बीबीए के कोर्स में बैंक से ऋण लेने के बारे में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? ऐसा क्यों है कि शिक्षकों और प्रशासकों को वास्तविक जीवन का कोई अनुभव नहीं होता है?"
वह अपनी ओर से इन कमियों को भरने की कोशिशें कर रही हैं. "मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है."
इसे अच्छे से करने के लिए वह हर रोज़ एक सूची बनाती हैं. और दिन भर से जुड़ा कोई लक्ष्य पूरा हो जाने पर उसे सूची से हटा देती हैं. "मैं अपनी डायरी में दिन भर के कामों के बारे में लिखती हूं. अगर दिन बीतते-बीतते कोई काम अधूरा रह जाता है, तो उसे मैं अगले दिन की सूची में डाल देती हूं." किसी काम के अधूरा रह जाने पर उन्हें "अफ़सोस" होता है, और बाद में वह और भी ज़्यादा मेहनत करती हैं.
अपनी कोशिशों से उन्होंने अपने पोस्ट ग्रेजुएशन के तीन सेमेस्टर की फ़ीस जुटा ली है. उनके विषय का चुनाव भी बड़ा दिलचस्प है. वह गर्व से बताती हैं, "मैं डिस्टेंस एजुकेशन के माध्यम से सोशल वर्क (सामाजिक कार्य) में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हूं. एक सेमेस्टर की फ़ीस 10 हज़ार रुपए है और परीक्षा शुल्क के लिए 5 हज़ार रुपए अलग से जमा करने हैं. शुरुआत में पापा ने मुझे 5 हजार रूपये दिए. उसके बाद मैंने अपनी फ़ीस ख़ुद भरी है." फ़ीस के बाक़ी पैसे उन्हें अपने बिज़नेस में हुए 40 हज़ार के मुनाफ़े से हासिल हुए हैं, जिसके लिए उन्होंने दस हज़ार रुपए का निवेश किया था.
उनके ग्राहक उनसे थोक में सामान ख़रीदते हैं. और वह उन्हें कई विकल्पों की सुविधाएं देती है. वर्तमान में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय विकल्प एक गिफ्ट हैंपर है, जिसे विवाह निमंत्रण के लिए लोगों को भेजा जा सकता है. इस हैंपर में जैविक हल्दी से बने ढेर सारे उत्पाद शामिल होते हैं. उनका मानना है कि शायद वह पहली (और इकलौती) उद्यमी है, जिसने ऐसी किसी सुविधा का विकल्प सामने रखा है. हर गिफ्ट हैंपर में एक डोरी वाली थैली होती है, हल्दी के पैकेट होते हैं, 5 ग्राम के कई पैकेट होते हैं, जिसमें स्थानीय प्रजाति के बैंगन, टमाटर, भिंडी, हरी मिर्च, और पालक के बीज होते हैं, और उसके साथ एक धन्यवाद पत्र होता है."
अक्षया बताती हैं, "जब लोग अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को किसी शादी का निमंत्रण देने उनके पास जाते हैं, तो वे निमंत्रण पत्र के साथ गिफ्ट हैंपर भी उन्हें देते हैं. ये तरीक़ा शुभ और स्वस्थ तो है ही, पर्यावरण के भी अनुकूल है." जब उनके ग्राहक किसी बड़े तोहफ़े की मांग करते हैं, और उसके लिए अधिक क़ीमत भी चुकाने को तैयार होते हैं, तो अक्षया सुंदर कांच की बोतलों में बड़ी मात्रा में हल्दी पाउडर पैक करती हैं. वह कई शादियों में इन पैकेजों की आपूर्ति कर चुकी हैं, और मौखिक प्रचार के माध्यम से उन्हें कई और ऑर्डर मिल चुके हैं. "आख़िरी ऑर्डर ऐसे 200 गिफ्ट हैंपरों के लिए था, जहां हर एक हैंपर की क़ीमत 400 रुपए थी."
सत्यमंगलम की अपनी यात्रा के कई महीनों बाद, मैंने अक्षया से फ़ोन पर बात की. बीच कॉल में उन्होंने अचानक कहा: "बैंक मैनेजर मुझे बुला रहा है." एक घंटे बाद उन्होंने मुझे बताया कि यह एक निरीक्षण से जुड़ा काम था. उन्हें एक सार्वजनिक बैंक से दस लाख रुपए का ऋण मिला है. उन्होंने इस ऋण का आवेदन ख़ुद किया था, उसके लिए सारे दस्तावेज़ स्वयं तैयार किए थे, और बिना किसी जमानत के उन्हें यह ऋण 9 प्रतिशत की ब्याज दर पर मिला है. वह ऋण के पैसों से एक उद्योग खड़ा करना चाहती हैं, जहां मशीन की सहायता से हल्दी को पीसा और पैक किया जा सकता है. वह अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाना चाहती हैं. और तेज़ी से.
वह बताती हैं, "मेरे पास एक टन हल्दी पाउडर का एक ऑर्डर आया है. इसलिए मुझे व्यापारियों से बाज़ार में बिकने वाली हल्दी ख़रीदनी पड़ी." मशीनों का इंतज़ाम करना कठिन है. "कॉलेज में मैंने विज्ञापन देने के बारे में सीखा था. लेकिन पूरी तरह से स्वचालित मशीनों में लगे सेंसर और पेपर पुलिंग और रोल प्लेसिंग के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानती. अगर ये काम ठीक से नहीं किया गया, तो पूरा माल बेकार चला जाएगा.”
उन्होंने ऐसी कई चीज़ों की सूची बनाई है, जिसे लेकर गलतियां हो सकती हैं, लेकिन उनका मानना है कि यह जोख़िम उठाया जा सकता है. उनका मानना है कि मशीन लेने के बाद, जिसे चलाने के लिए वह पार्ट टाइम सहायक रखना चाहती हैं, निकट भविष्य में उनका कारोबार बढ़कर एक महीने में 2 लाख रुपए के टर्नओवर तक पहुंच जाएगा. और इस तरह से उनका मुनाफ़ा उनकी कॉलेज डिग्री से जुड़ी नौकरियों की तुलना में कहीं ज़्यादा हो जाएगा.
फिर भी, अक्षया का काम उसके व्यक्तिगत लाभ से कहीं बढ़कर है. उसकी कोशिशें कृषि उद्योगों के ढांचे को पलट रही हैं, जहां ज्यादातर व्यापार पुरुषों और बड़ी निजी कंपनियों के अधीन है.
कृषि जननी, कंगायम में स्थित एक सामाजिक उद्यम है, जो लाभदायी और पुनर्संयोजन पर आधारित कृषि पारिस्थितिकी के लिए काम करता है. उसकी संस्थापक और सीईओ ऊषा देवी वेंकटचलम का कहना है, "जहां हल्दी की फ़सलें उगाई जा रही हैं, वहीं पास में स्थानीय स्तर पर उसका प्रसंस्करण हो रहा है, यह अपने आप में एक बहुत अच्छी ख़बर है. साथ ही, कृषि-प्रसंस्करण उद्योगों में युवा महिलाओं की उपस्थिति अभी बहुत कम है. मशीनीकरण और केंद्रीकरण के नाम पर महिलाओं की भूमिका को, ख़ासकर कटाई के बाद प्रसंस्करण के दौरान, धीरे-धीरे बहुत सीमित कर दिया जाता है."
ऊषा बताती हैं, "खाद्य आपूर्ति शृंखला से जुड़ी एक बहुत बड़ी समस्या ये है कि वह ज़रूरत से ज़्यादा केंद्रीकृत है और उसके कारण मूर्खतापूर्ण ढंग से प्रसंस्करण से जुड़े फ़ैसले लिए जाते हैं, जैसे अमेरिका में पैदा किए गए सेब को पॉलिशिंग के लिए दक्षिण अफ्रीका ले जाया जाएगा और अंत में बिक्री के लिए वह भारतीय बाज़ार में लाया जाएगा. महामारी के बाद की दुनिया में यह मॉडल टिकाऊ नहीं है. और फिर जब आप परिवहन की लागत को इसमें जोड़ लें, तो पाएंगे कि इससे जुड़ा जलवायु संकट इसे कितनी गंभीर समस्या बना देता है." उदाहरण के लिए बिजली और ईंधन की खपत में.
हो सकता है कि आगे चलकर अक्षया की योजनाएं इन सभी मुद्दों पर काम न करें. लेकिन हल्दी से चॉकलेट और चिप्स बनाने का उनका ये अनूठा प्रयोग पारंपरिक बाज़ार में हलचल पैदा करने को काफ़ी है. कम से कम स्थानीय स्तर पर, उन्हें ऐसा लगता है कि इसे बढ़ावा दिया जा सकता है.
मेरे यह पूछने पर कि क्या ये कुछ ख़ास लोगों की पसंद तक सीमित उत्पाद नहीं है; अक्षया कहती हैं, "मुझे लगता है कि इसके ग्राहक मौजूद हैं. लोग पेप्सी और कोला पीते हैं. लेकिन उन्हें नन्नारी शरबत और पनीर सोडा भी पसंद है." वह पक्के भरोसे के साथ कहती हैं, "हल्दी के उत्पाद भी ऐसे ही लोकप्रिय हो जाएंगे. और स्वास्थ्य के लिए भी अच्छे साबित होंगे."
वह ग्रामीण बाज़ारों में आने वाली उछाल पर अपनी नज़र गड़ाए हुई हैं, जिसके 2025 तक अपने चरम पर पहुंचने की संभावना है. "उसके लिए इन उत्पादों को कम मात्रा में उपलब्ध कराने के साथ-साथ सस्ता भी करना होगा. हल्दी के बड़े पैकेट महंगे होते हैं, जहां 250 ग्राम के एक पैकेट की क़ीमत 165 रुपए होती है. इसलिए मैंने इसे एक बार उपयोग में आने वाले पैकेट के रूप में तैयार किया है.”
अपने पारिवारिक दुकान की आलमारी से वह एक सुरुकुपई पैकेट निकालती हैं, जिसमें 6 ग्राम हल्दी फेस पैक के 12 पेपर पैकेट हैं. "ग्राहक इस पूरे सेट को 120 रुपए में ख़रीद सकते हैं, या फिर दस रुपए में एक पैकेट ले जा सकते हैं." बड़ी थैली मोटे सूती कपड़े की बनी है. ये पैकेट बायोडिग्रेडेबल हैं, यानी इनका जैविक रूप से निम्नीकरण संभव है. ये काग़ज़ से बने हुए पैकेट हैं, जिसकी नमी के स्तर को नियंत्रित रखने के लिए प्लास्टिक की बहुत पतली परत लगाई गई है.
इन्हें बनाने का सारा काम तिरु मूर्ति ने किया है. इसके ऊपर लगा सफ़ेद रंग का लेबल अक्षया ने तैयार किया है. वह इसकी ख़ूबी गिनाते हुए बताती हैं, "यह कूड़े की समस्या को तो कम करता ही है, नमी को भी नियंत्रित रखता है. सिर्फ़ दस रुपए में कोई ग्राहक इसका इस्तेमाल कर सकता है." वह लगातार बोलती जाती हैं. "मेरे पास हमेशा इतनी ऊर्जा होती है." वह हंस देती है.
उन्हें अपने माता-पिता का सहयोग भी मिल रहा है. उनकी होम एप्लायंस की दुकान (उनके पास दो स्टोर हैं) वह सबसे पहली जगह थी, जहां उनके उत्पादों की बिक्री शुरू हुई. और वे उनके फ़ैसलों और उनके कैरियर के चुनाव का सम्मान करते हैं. जब वह अपना कारोबार शुरू कर रही थीं, तब भी घरवालों ने उनका समर्थन किया था.
कुछ साल पहले जब उन्होंने कुलदेवता के लिए अपना सिर मुंडवा लिया, तो लोगों ने बड़ी तीखी प्रतिक्रियाएं दी थीं. लेकिन उनके मां-बाप उनके साथ खड़े रहे और उन्होंने कहा कि उनकी बेटी हर तरह से सुंदर लगती है. अक्षया बताती हैं, "मैंने ऐसा किया, क्योंकि मैं लगातार बीमार पड़ रही थी. मैं चाहती थी कि मैं अपने बाल कैंसर पीड़ितों को दान कर दूं, लेकिन तब मैं ऐसा नहीं कर सकी. अपना सिर मुंडवाने के बाद मुझमें आत्मविश्वास आया. मुझे ये समझ आ गया कि मेरी पहचान मेरे बालों से नहीं जुड़ी है. और मैं ख़ुश हूं कि मेरे माता-पिता मुझसे हर हाल में प्यार करते हैं."
और वे उनके सपनों के साथ खड़े हैं. स्नातक में उनके साथ पढ़ने वाली कुल 60 महिला सहपाठियों में से ज़्यादातर की अब शादी हो चुकी है. "तालाबंदी के कारण उन्होंने लड़कियों की शादी कर दी. उनमें से कुछ नौकरियां करती हैं. लेकिन किसी ने अपना व्यवसाय नहीं शुरू किया है."
उषा देवी वेंकटचलम का मानना है कि अक्षया की सफलता इस तस्वीर को पलट सकती है. वह कहती हैं, "सबसे बड़ी बात तो ये है कि इस इलाक़े में पैदा हुई एक युवा लड़की, जिसकी महत्त्वाकांक्षाएं राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने की है, स्थानीय स्तर पर एक प्रसंस्करण इकाई स्थापित करने की दिशा में क़दम बढ़ा रही है, यही अपने-आप में सबसे ज़्यादा प्रेरणादायी बात है. और इससे अन्य लोग, ख़ासकर उनके साथी कुछ सीखेंगे."
अक्षया आगे चलकर एमबीए करना चाहती हैं. "कई लोग पहले एमबीए करते हैं और फिर अपना बिज़नेस शुरू करते हैं. लेकिन मेरे मामले में ये उल्टा है." और उन्हें लगता है कि ऐसा करना उनके लिए अच्छा रहेगा. वह अपने गृहनगर में रहकर ही अपने ब्रांड को और मज़बूत बनाना चाहती हैं. उनकी अपनी एक वेबसाइट है, इंस्टाग्राम और लिंकडिन पर अकाउंट है. इन प्लैटफ़ॉर्म पर वह हैशटैग (#टर्मरिकचाय जैसे अन्य हैशटैग) लगाकर अपनी रेसिपी पोस्ट करती हैं, और एफपीओ और निर्यातकों से जुड़ना चाहती हैं. उनका कहना है, "किसान अपना सारा ध्यान खेतों पर लगाए रख सकते हैं और मुझ जैसे लोग उनके कृषि उत्पादों को ख़रीदने के लिए आगे आ सकते हैं." इस तरह से खेत, बाज़ार, और घर के बीच की दूरी को प्रभावी ढंग से पाटा जा सकता है.
वह दृढ़ता से कहती हैं, "आजकल, सबकुछ आपकी कहानी पर निर्भर करता है. अगर ग्राहक मेरे पैकेज को अपने घर पर रखते हैं, और बचत के पैसे जमा करने के लिए उस थैली का इस्तेमाल करते हैं, तो हमारा ब्रैंड लगातार उनके ध्यान में बना रहेगा." और उसके बदले, जैसा कि उन्हें लगता है, तमिलनाडु की हल्दी दूर-दूर तक पहुंचेगी. बहुत दूर तक...
इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.
कवर फ़ोटो: एम पलानी कुमार
अनुवाद: प्रतिमा