भोजपुरी, बांग्ला और हिंदी का इस्तेमाल करते हुए मीना यादव, दक्षिणी कोलकाता के एक बहुसांस्कृतिक केंद्र लेक मार्केट में ग्राहकों को देखती हैं, अपने दोस्तों से बात करती हैं, और पता पूछने वाले अजनबियों को रास्ता दिखाती हैं. प्रवासी कामगार के रूप में कोलकाता में रोज़मर्रा के जीवन में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बताते वह कहती हैं, “भाषा के लिहाज़ से कोलकाता में कोई समस्या नहीं आती.”
“यह सिर्फ़ कहने का बात है कि बिहारी लोग बिहार में रहेगा. सच तो ये है कि हाड़ तोड़ देने वाला सारा शारीरिक श्रम हम ही करते हैं. सामान ढोने वाले, भिश्ती, और कुली सब बिहारी हैं. ये काम करना बंगालियों के बस की बात नहीं है. आप न्यू मार्केट, हावड़ा, सियालदह जाइए...आपको बिहारी लोग भारी बोझ उठाते नज़र आएंगे. लेकिन, इतनी मेहनत के बाद भी उन्हें सम्मान नहीं मिलता. जबकि बिहारी सबको बाबू कहकर बात करते हैं...लेकिन दूसरे लोग उन्हें छोटा समझते हैं. आम का गूदा बंगालियों को मिलता है, और हमारे हिस्से सिर्फ़ गुठली आती है.”
मीना यादव अपनी भाषा और सामाजिक पहचान को बड़ी सावधानी से साथ लेकर चलती हैं.
वह आगे बताती हैं, “चेन्नई में हमें बातचीत करने में बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा. वे हिंदी या भोजपुरी का जवाब नहीं देते हैं. वे अपनी भाषा में बोलते हैं जो हमको नहीं आती. लेकिन यहां ये परेशानी नहीं है.” बिहार के छपरा की निवासी यह 45 वर्षीय मकई विक्रेता कहती है, “देखिए, कोई एक बिहारी भाषा नहीं है. घर में हम 3-4 भाषाओं में बात करते हैं. कभी भोजपुरी, कभी हिंदी, कभी दरभंगिया [मैथिली], तो कभी बांग्ला. लेकिन हम ज़्यादातर दरभंगिया में बात करना पसंद करते हैं.”
वह किसी बहुभाषाविद के अंदाज़ में कहती हैं, “हम आरा और छपरा की बोली भी बोलते हैं. इसमें कोई समस्या वाली बात नहीं है. हम जिस भी भाषा में बात करना चाहते हैं उसमें करते हैं.” लेकिन उन्हें यह भी पता है कि इन सभी भाषाओं के ज्ञान का उनके असाधारण कौशल से कुछ लेना-देना नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की मेज़बानी करने वाली संस्था यूनेस्को के महानिदेशक 'दुनिया को उसकी बहुलता में अभिव्यक्त करने के तरीक़ों का जश्न' मनाने की बात करते हैं. वहीं, भाषा के सवाल पर मीना की राय बिल्कुल साफ़ है. उन्हें अपने मालिकों, नौकरी देने वालों, ग्राहकों, और साथ रहने वाले समुदायों के हिसाब से भाषा सीखने की ज़रूरत पड़ती है. वह कहती हैं, "इतनी भाषाएं जानना अच्छी बात हो सकती है, लेकिन हम इन्हें इसलिए सीखते हैं, ताकि गुज़ारा चला सकें."
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के मौक़े पर, पारी ने मीना जैसे ग़रीब प्रवासी कामगारों से बातचीत की, जो ख़ुद के देश में बाहरियों की तरह देखे जाते हैं, और अपनी मातृभाषा से दूर हो गए हैं. हमने उस भाषाई दुनिया के भीतर झांकने की कोशिश की जिसे उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने के दौरान गढ़ा, और उसे अपने भीतर जिलाए रखने की कोशिश करते हैं.
पुणे में प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करने वाले शंकर दास, जब असम के कछार ज़िले के बरखोला ब्लॉक में घर लौटते हैं, तो उन्हें एक अजीबोग़रीब चुनौती का सामना करना पड़ता है. अपने गांव जरैल्तला में जब वह बड़े हो रहे थे और बांग्ला-भाषी लोगों से घिरे हुए थे. इसके चलते, वह राज्य की आधिकारिक भाषा असमिया नहीं सीख पाए. जब वह क़रीब 20-22 साल के थे, तो घर छोड़कर पुणे चले गए. पुणे में बिताए डेढ़ दशक में उन्होंने अपनी हिन्दी को सुधारा और मराठी सीखी.
क़रीब 40 वर्षीय शंकर बताते हैं, “मैं मराठी बहुत अच्छी तरह जानता हूं. मैंने पुणे का तो हर छोर नाप चुका हूं. लेकिन मुझे असमिया नहीं आती. समझ में तो आती है, लेकिन मैं बोल नहीं पाता.” कोविड महामारी के दौर में नौकरी गंवाने से पहले, वह पुणे के एक कारखाने के गार्ड का काम करते थे. नौकरी छूट जाने के बाद उनके लिए असम लौटना और नौकरी ढूंढना मजबूरी बन गई. लेकिन, जरैल्तला में उन्हें कोई काम नहीं मिला, तो फिर वह गुवाहाटी चले गए. लेकिन, असमिया के बिना वहां काम कहां से मिलता.
भाषा के सवाल पर मीना की राय बिल्कुल साफ़ है. वह कहती हैं, 'इतनी भाषाएं जानना अच्छी बात हो सकती है, लेकिन हम इन्हें इसलिए सीखते हैं, ताकि गुज़ारा चला सकें'
वह बताते हैं, "असमिया के बिना यहां बस पकड़ पाना भी मुश्किल है, नौकरी देने वालों से बात करना तो भूल ही जाइए. मैं पुणे वापस जाने की सोच रहा हूं. मुझे काम भी मिल जाएगा और भाषा की कोई समस्या भी नहीं आएगी. उन्हें अब अपने घर में परदेसी जैसा महसूस होता है.
वहीं, गुवाहाटी से क़रीब दो हज़ार किलोमीटर दूर, देश की राजधानी दिल्ली में क़रीब 13 साल का प्रफुल्ल सरीन स्कूल की पढ़ाई जारी रख पाने के लिए हिन्दी सीखने की जद्दोजहद कर रहा है. एक दुर्घटना में पिता की मृत्यु होने के बाद उसे अपनी बुआ के साथ रहने के लिए, झारखंड के गुमला के पाहन टोली के अपने घर से 1,300 किलोमीटर दूर दिल्ली के मुनिरका गांव में आना पड़ा. वह बताता है, ''यहां आने के बाद मुझे अकेलापन महसूस हुआ. सब हिन्दी बोलते हैं, किसी को मुंडारी आती ही नहीं.”
दिल्ली आने से पहले उसने अपने गांव के स्कूल में थोड़ी-बहुत हिन्दी और अंग्रेज़ी सीखी थी, लेकिन उसके लिए इन भाषाओं में कोई बात समझ पाना या ख़ुद को अभिव्यक्त करना मुश्किल था. दिल्ली में दो साल की स्कूली शिक्षा पूरी करने और बुआ द्वारा लगाए ट्यूशन में पढ़ने के बाद, उसके मुताबिक़, "स्कूल में या दोस्तों के साथ खेलते हुए थोड़ी-बहुत हिन्दी बोल लेते हैं. लेकिन घर पर मैं बुआ से मुंडारी में ही बात करता हूं. यह मेरी मातृभाषा है.”
दिल्ली से 1,100 किलोमीटर दूर स्थित छत्तीसगढ़ में, 10 साल की प्रीति स्कूल नहीं जाना चाहती. वह अपने माता-पिता के साथ रहती है, लेकिन उस भाषा से दूर हो गई है जिसमें उसे महसूस होता है कि वह अपने घर में है.
लता भोई (40 वर्ष) और उनके पति सुरेंद्र भोई (60 वर्ष) मलुआ कोंध आदिवासी जनजाति से हैं. वे उड़ीसा के कालाहांडी के केंदुपाड़ा गांव से काम करने रायपुर आए हैं, और यहां के एक निजी फ़ार्महाउस की देखरेख करते हैं. उन्हें छत्तीसगढ़ी भाषा इतनी आती है कि वे स्थानीय खेतिहर मज़दूरों के साथ बात कर सकें. लता कहती हैं, “हम 20 साल पहले रोज़ीरोटी की तलाश में यहां आए थे. मेरा पूरा परिवार ओडिशा में रहता है. सभी ओड़िया बोलते हैं. लेकिन मेरे बच्चे हमारी भाषा में पढ़ या लिख नहीं सकते, उन्हें सिर्फ़ बोलना आता है. यहां तक कि मैं भी ओड़िया सिर्फ़ बोल सकती हूं, लिखना और पढ़ना मुझे भी नहीं आता. लेकिन घर पर हम ओड़िया ही बोलते हैं. उनकी सबसे छोटी बेटी प्रीति को हिन्दी कविताएं बहुत पसंद हैं, लेकिन उसे स्कूल जाने से नफ़रत है.
वह कहती है, “मैं स्कूल में अपने सहपाठियों के साथ छत्तीसगढ़ी में बात करने की कोशिश करती हूं. लेकिन मैं अब यहां पढ़ना नहीं चाहती, क्योंकि स्कूल के मेरे दोस्त मुझे ‘ओड़िया-ढोड़िया’ कहकर चिढ़ाते हैं.” छत्तीसगढ़ी में ढोड़िया गैर-विषैले सांपों की एक प्रजाति को कहते हैं, जो स्वभाव से काफ़ी डरपोक होते हैं. उसके माता-पिता, अनुसूचित जनजाति कोटे के तहत प्रीति को ओडिशा के एक सरकारी आवासीय स्कूल में पढ़ने भेजना चाहते हैं.
कम उम्र में ही अपने माता-पिता, अपनी ज़मीन और भाषा से बिछड़ जाने की पीड़ा, लगभग हर प्रवासी के जीवन की कहानी का हिस्सा रही है.
क़रीब 21 वर्षीय नागेंद्र सिंह को रोज़गार की तलाश में महज़ आठ साल की उम्र में अपना घर छोड़ना पड़ा था, और एक क्रेन सेवा देने वाली कंपनी में सफ़ाई का काम करते थे. वह उत्तर प्रदेश के कुशीनगर ज़िले के जगदीशपुर गांव से हैं, जहां भोजपुरी बोली जाती थी. वह कहते हैं, "यह हिन्दी से काफ़ी अलग भाषा है. अगर हम भोजपुरी में बोलने लगें, तो आप समझ नहीं पाएंगे." यहां 'हम' कहने से उनका मतलब, ख़ुद के अलावा उत्तरी बेंगलुरु के एक निर्माण स्थल पर उनके साथ रहने वाले दो और सहकर्मियों से है. पेंटिंग का काम करने वाले 26 वर्षीय अली, 18 वर्षीय मनीष और नागेंद्र अलग-अलग उम्र, गांव, जाति और धर्म से ताल्लुक़ रखते हैं, लेकिन उनकी मातृभाषा भोजपुरी ने उन्हें एकजुट कर रखा है.
किशोरावस्था के दौरान ही उन्होंने अपना घर और गांव छोड़ दिया था. अली कहते हैं, "अगर आपके पास हुनर है, तो कोई समस्या नहीं होती है." मैं दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, यहां तक कि सऊदी अरब भी गया हूं. मैं आपको अपना पासपोर्ट दिखा सकता हूं. मैंने वहां अंग्रेज़ी और हिंदी सीखी. भाषा सीखना बहुत आसान है, यह कहते हुए नागेंद्र बातचीत में शामिल हो जाते हैं. वह कहते हैं, “जहां भी काम होता है हम वहां जाते हैं. गांव का कोई लड़का बुला लेता है, हम आ जाते हैं.”
नागेंद्र के एक सहकर्मी, 57 वर्षीय सुब्रमण्यम मदुरई से हैं और उन्हें सिर्फ़ तमिल आती है. नागेंद्र उनकी ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "अब जैसे ये चाचा हैं. इनसे बात करते हुए हम सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल करते हैं. जब हमें उन्हें कुछ बताना होता है, तो हम बढ़ई को बताते हैं और वह चाचा को बताते हैं. लेकिन आपस में हम भोजपुरी में ही बात करते हैं. शाम को जब मैं वापस अपने कमरे पर लौटता हूं, तो मैं अपना खाना बनाते हुए भोजपुरी गाने सुनता हूं.” इतना कहते हुए वह अपना पसंदीदा गाना सुनाने के लिए फ़ोन निकालने लगते हैं.
पसंद के भोजन, संगीत, त्योहार, और जिन मान्यताओं को हम अपनी संस्कृति से जोड़कर देखते हैं, हमारी भाषा में अक्सर उनकी झलक देखने को मिलती है. और इसलिए, जब पारी ने बहुत से लोगों से उनकी मातृभाषा के बारे में पूछा, तो वे लोग बात करते हुए अपनी संस्कृति की ओर बह चले.
बिहार के परतापुर गांव के 39 वर्षीय बसंत मुखिया पिछले दो दशक से मुंबई में घरेलू सहायक के तौर पर काम कर रहे हैं. जब भी उनके सामने उनकी मातृभाषा मैथिली का ज़िक्र आता है, तो उनका मन घर के खाने और गीतों की यादों से घिर आता है. वह बताते हैं “मुझे सत्तू और चूड़ा बहुत पसंद है.” कुछ चीज़ें तो उन्हें मुंबई में मिल जाती हैं, लेकिन वह कहते हैं कि "इनमें मेरे गांव जैसा स्वाद नहीं है." उदासी भरी मुस्कान के साथ वह आगे बताते हैं, “हमारे यहां हर शनिवार को हम दोपहर के भोजन में खिचड़ी और शाम के नाश्ते में भूजा खाते हैं. भूजे को भूने हुए चूड़े, भुनी हुई मूंगफली और भुने हुए काले चने को प्याज, टमाटर, हरी मिर्च, नमक, सरसों के तेल और अन्य मसालों के साथ मिलाकर बनाया जाता है. मुंबई में मुझे पता भी नहीं चलता कि कब शनिवार आता है, और चला जाता है.”
दूसरी बात जो उनके दिमाग़ में आती है वह है उनके गांव में होली खेलने का तरीक़ा. बसंत कहते हैं, “दोस्त उस दिन बिना पहले से कुछ बताए घर में घुस आते हैं. हम रंगों के साथ बेतहाशा होली खेलते हैं. और फिर खाने में मालपुआ मिलता है. हम फगुआ गाते हैं.” वह अपनी गैर-मातृभाषा में अपने गांव के ये क़िस्से कहानी सुना रहे थे, लेकिन इसके बावजूद भी ये दृश्य जीवंत हो उठे थे.
वह अफ़सोस जताते हुए कहते हैं, “अपने यहां के और अपनी भाषा बोलने वाले लोगों के साथ त्योहार मनाने का मज़ा ही कुछ और है.”
इलाहाबाद के अमिलौटी गांव के रहने वाले राजू, इस बात से पूरी तरह सहमत नज़र आते हैं. वह पिछले 30 वर्षों से पंजाब में काम करते हैं. वह अहीर समुदाय से आते हैं और उनके घर में अवधी बोली जाती है. जब वह पहली बार अमृतसर आए थे, तो उन्हें यहां जमने में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा. वह ख़ुशी से बताते हैं, "लेकिन आज मैं धाराप्रवाह पंजाबी बोलता हूं और हर कोई मुझे पसंद करता है."
पंजाब के तरन तारन ज़िले के पट्टी गांव में, एक बगीचे की रखवाली करने वाले राजू अपने गांव के त्योहारों को याद करते हैं. काम के बोझ के चलते अक्सर वह अपने गांव नहीं जा पाते हैं. वह कहते हैं, "यहां अपने त्योहारों को मनाना बहुत मुश्किल है. क़रीब 100 लोग कोई त्योहार मनाएं, तो लोग उसमें शामिल होने आ सकते हैं, लेकिन मुझे बताइए कि अगर उसे केवल दो या चार लोग मनाएंगे, तो कौन शामिल होगा?"
भारत के एक दूसरे छोर पर, काम की तलाश में अपने पति के साथ राजस्थान से केरल आईं 38 वर्षीय शबाना शेख़ भी इसी सवाल से जूझती हैं. वह पूछती हैं, “हम अपने त्योहार अपने गांव में मनाते हैं और इसे मनाने में कोई शर्म भी नहीं आती है. लेकिन हम उन्हें यहां केरल में कैसे मनाएं? दिवाली के दौरान केरल में ज़्यादा रोशनी नहीं होती है. लेकिन, राजस्थान में हम त्योहार के दौरान मिट्टी के दीये जलाते हैं. यह दिखने में बहुत सुंदर लगते हैं.” ऐसा कहते हुए उनकी आंखें यादों के दीयों से रौशन हो उठती हैं.
हमने जिन प्रवासियों से बात की उनमें से हर एक की भाषा, संस्कृति और स्मृतियां आपस में काफ़ी हद तक गुथी हुई थीं. लेकिन घर से दूर, दूरदराज़ के इलाकों में रहते हुए उन्होंने इन्हें जिलाए रखने के तरीक़े भी खोज लिए हैं.
क़रीब 60 साल के हो चुके मशरू रबारी का नागपुर, वर्धा, चंद्रपुर या यवतमाल के कुछ जगहों को छोड़कर, कोई स्थायी पता नहीं है. वह मूल रूप से गुजरात के कच्छ से हैं और मध्य विदर्भ में पशुपालक का काम करते हैं. वह कहते हैं, "एक मायने में तो मैं वरहाड़ी हूं." उन्होंने परंपरागत रबारी पोशाक पहना हुआ है. ऊपर उन्होंने बांधे जाने वाला कुर्ते जैसा कपड़ा पहना हुआ है, नीचे धोती, और सिर पर एक सफ़ेद पगड़ी है. वह विदर्भ की स्थानीय संस्कृति से गहराई से जुड़े हैं और ज़रूरत पड़ने पर अच्छी तरह से स्थानीय गालिया भी दे सकते हैं! इसके बावजूद भी उन्होंने अपने मातृभूमि की परंपराओं और संस्कृति के साथ अपने संबंधों को जीवित रखा है. जब वह एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं, तो उनके ऊंटों की पीठ पर लदे ढेर सारे सामान के अलावा बहुत सी लोककथाएं, विरासत में मिले ज्ञान, गीत, जानवरों के बारे में पारंपरिक ज्ञान, पारिस्थितिकी और बहुत सी बातें भी उनकी गठरी में बंधी चलती हैं.
झारखंड के सनाउल्ला आलम (25 साल) कर्नाटक के उडुपी में उत्खनन संचालक के तौर पर काम करते हैं. वह कार्यस्थल के अकेले कामगार हैं जो धाराप्रवाह हिन्दी बोलते हैं. अपनी भाषा और अपने लोगों से जुड़ाव क़ायम रखने का उनका एकमात्र ज़रिया मोबाइल फ़ोन है. इसी से वह अपने परिवार और दोस्तों से हिन्दी या झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर और संथाल परगना में बोली जाने वाली भाषा खोरठा में बात करते हैं.
झारखंड के एक अन्य प्रवासी कामगार, 23 वर्षीय सोबिन यादव भी अपने परिचितों के साथ संपर्क में बने रहने के लिए मोबाइल का सहारा लेते हैं. वह कुछ साल पहले "क्रिकेटर धोनी के घर से लगभग 200 किलोमीटर दूर" स्थित मझगांव से काम की तलाश में चेन्नई आए थे. चेन्नई के एक भोजनालय में काम करने के दौरान उन्हें बहुत मुश्किल से हिन्दी बोलने का मौक़ा मिलता है. वह रोज़ शाम को फ़ोन पर अपनी पत्नी से अपनी मातृभाषा में बात करते हैं. वह तमिल में बोलते हुए हमें बताते हैं, “मैं अपने मोबाइल पर हिंदी में डब की गई तमिल फ़िल्में भी देखता हूं. सूर्या मेरा पसंदीदा अभिनेता है.”
"हिन्दी, भोजपुरी बोल ल…आ अंग्रेज हउआ त अंग्रेज़ी बोल ल. लेकिन एहिजा काम नईखे आई. ई कश्मीर ह. एहिजा दिल क बोली काम आई [हिन्दी, उर्दू, भोजपुरी…या अंग्रेज़ हो, तो अंग्रेज़ी बोल लो. लेकिन ये भाषाएं यहां काम नहीं आएगी. ये कश्मीर है. यहां बस दिल की बोली काम आती है.]" बिहार के मोतिहारी ज़िले के रहने वाले 53 वर्षीय राजमिस्त्री विनोद कुमार ने जब यह बात कही, तब वह कश्मीर के बारामुला ज़िले के पट्टन इलाक़े में साजिद गनी के घर की रसोई में बैठकर दोपहर का खाना खा रहे थे. हाल-फ़िलहाल में वह साजिद के लिए काम कर रहे हैं. विनोद कहते हैं, “कहीं और देखा है मज़दूर और मालिक को साथ खाना खाते? इनको शायद पता भी नहीं है कि हमारी जात क्या है. हमारा छुआ तो पानी भी न पीते उधर के लोग, यहां ये साथ में बिठाकर खिला खा रहे हैं, वह भी अपनी रसोई में.”
इस बात को 30 साल हो गए, जब विनोद पहली बार कश्मीर आए थे. "हम 1993 में पहली बार कश्मीर आए थे मज़दूरी करने. ज़्यादा पता नहीं था कि कश्मीर कैसा है. तब मीडिया नहीं था. अख़बार में कुछ आता भी हो तो क्या मालूम रहता. पढ़े-लिखे भी थे नहीं. कोई ठेकेदार पूछा तो चल दिए. रोटी कमाना था न.”
उस दौर को याद करते हुए वह बताते हैं, “तब मुझे अनंतनाग में काम मिला था. जिस दिन वहां पहुंचे उसी दिन सब बंद हो गया अचानक. कई दिन तक कोई काम नहीं मिला. जेब में पैसा नहीं था. लेकिन, यहां गांव का लोग बहुत मदद किया. हम लोग 12 लोग आए थे साथ में. गांववालों ने सबको बिठाकर खिलाया. कौन करता है इतना सबकुछ, बिना किसी स्वार्थ के?" इस बीच साजिद, विनोद की थाली में चिकन का एक और पीस डालने की कोशिश करते हैं, और विनोद मना करते हुए साजिद को थोड़ा डपट देते हैं.
वह आगे कहते हैं, "हमको कश्मीरी ज़रा भी नहीं बुझाता है, लेकिन यहां सबको हिन्दी समझ आता है. ऐसे ही काम चल जाता है."
हमने उनसे पूछा, “और, मां-बोली भोजपुरी? उसका क्या?”
वह जवाब देते हैं, “उसका क्या?” अब अपने गांव का लोग यहां आता है जब, तो उनसे तो भोजपुरिए में बात होता है. यहां किससे करेंगे? रऊंए बताईं [आप ही बताइए]...?" थोड़े मज़ाक़िया ढंग से वह हंसते हुए आगे कहते हैं, "ई साजिद भाई को थोड़ा बहुत भोजपुरी सिखा दिए हैं. का हो साजिद भाई? कइसन बानीं?"
"ठीक बा", साजिद कहते हैं.
विनोद ज़ोर से हंसते हैं, "थोड़ा ऊपर-नीचे हो जाता है. अगली बार देखिएगा, अपना भैवा रितेश [भोजपुरी अभिनेता] का गाना सुनाएगा."
इस स्टोरी को कवर किया है: दिल्ली से मोहम्मद क़मर तबरेज़ ने; पश्चिम बंगाल से स्मिता खटोर ने; कर्नाटक से प्रतिष्ठा पांड्या और शंकर एन. केंचनूर ने; कश्मीर से देवेश ने; तमिलनाडु से राजासंगीतन ने; छत्तीसगढ़ से निर्मल कुमार साहू ने; असम से पंकज दास ने; केरल से राजीव चेलानाट ने, महाराष्ट्र से स्वर्णकांता और जयदीप हार्दिकर ने; और, पंजाब से कमलजीत कौर ने; इसका संपादन प्रतिष्ठा पांड्या ने किया है, जिसमें मेधा काले, स्मिता खटोर, जोशुआ बोधिनेत्र और संविति अय्यर ने संपादकीय सहयोग किया. बिनाइफ़र भरूचा ने तस्वीरों की एडिटिंग की है, और श्रेया कात्यायिनी ने वीडियो एडिट किया है.
इलस्ट्रेशन: लाबनी जंगी
अनुवाद: अमित कुमार झा