साल 2023 के फरवरी महीने की 28 तारीख़ चल रही है और शाम के 6 बज चुके हैं. ख़ूबसूरत नज़र आते खोलदोडा गांव का सूरज जैसे ही ढलता है, 35 साल के रामचंद्र दोड़के लंबी रात की तैयारी में जुट जाते हैं. वह लंबी दूरी तक रोशनी फेंकने वाली अपनी शक्तिशाली 'कमांडर' टॉर्च को जांचते हैं और अपना बिस्तर तैयार कर लेते हैं.
उनके सामान्य से घर के भीतर उनकी पत्नी जयश्री रात का खाना - दाल और एक रसदार मिश्रित सब्ज़ी बना रही हैं. बाजू के घर में, उनके 70 वर्षीय चाचा दादाजी दोड़के भी रात की तैयारियों में व्यस्त हैं. उनकी पत्नी शकुबाई चावल और चपाती पका रही हैं. सुगंधित क़िस्म के इस चावल को वे अपने खेत में ही उगाते हैं.
रामचंद्र कहते हैं, "हम लोग बस तैयार हैं. खाना तैयार होते ही निकल पड़ेंगे." उनके मुताबिक़, जयश्री और शकुबाई उन दोनों को रात का खाना बांधकर देने वाली थीं.
दादाजी और रामचंद्र, दोड़के परिवार की दो पीढ़ियां हैं. यह परिवार माना समुदाय (राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध) से संबंधित है, और आज मेरे मेज़बान हैं. दादाजी ख़ुद एक किसान और कीर्तनकार हैं और बाबासाहेब आंबेडकर के पक्के अनुयायी हैं. रामचंद्र अपने परिवार के पांच एकड़ खेत की देखभाल करते हैं, क्योंकि उनके पिता - दादाजी के बड़े भाई - भीकाजी बहुत बीमार हैं और खेती नहीं कर सकते. भीकाजी कभी गांव के 'पुलिस पाटिल' हुआ करते थे, जो गांववालों और पुलिस के बीच संपर्क का काम करते थे.
हम नागपुर ज़िले की भिवापुर तहसील के इस गांव से कुछ मील दूर रामचंद्र के खेत में जा रहे हैं, जहां वह जंगली जानवरों से फ़सलों की रक्षा के लिए जागली यानी रात की पहरेदारी करते हैं. रामचंद्र का बड़ा बेटा - नौ साल का आशुतोष हमारे सात लोगों के इस समूह में शामिल है.
शहरी लोगों के लिए यह खेल सरीखा होगा, पर मेरे मेज़बानों के लिए यह तक़रीबन पूरे सालभर की उनकी दिनचर्या है. उनकी रबी की फ़सलें - मिर्च, तूर, गेहूं और काला चना पककर तैयार हैं, जिनकी देखभाल ज़रूरी है.
दादाजी का खेत दूसरी तरफ़ है, लेकिन हम रामचंद्र
की ज़मीन पर रात बिताने जाएंगे. रात का भोजन हम खेत में शायद अलाव के इर्द-गिर्द करेंगे.
सर्दी की ठिठुरन ख़त्म हो रही है और आज रात का तापमान 14 डिग्री सेल्सियस के आसपास
रहने की संभावना है. रामचंद्र कहते हैं कि दिसंबर और जनवरी भयानक रूप से ठंडे थे और
रात में तापमान 6-7 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता था.
रात में निगरानी के लिए परिवार के कम से कम एक सदस्य का खेत पर होना ज़रूरी है. इस तरह चौबीसों घंटे काम करने और रात में सर्दी झेलने की वजह से कई गांववाले बीमार पड़ चुके हैं. रामचंद्र उनकी समस्याओं को सूचीबद्ध करते हुए कहते हैं कि नींद पूरी न होने, तनाव और ठंड से उन्हें बुख़ार आ जाता है और सिरदर्द होता है.
हमारे निकलने के समय दादाजी ने अपनी पत्नी को अपनी सर्वाइकल बेल्ट लाने के लिए कहा है. वह बताते हैं, "डॉक्टर ने मुझे इसे हर समय पहनने को कहा है."
मैंने पूछा कि उन्हें गर्दन के सहारे के लिए सर्वाइकल बेल्ट की ज़रूरत क्यों है?
“हमारे पास इस बारे में बात करने को पूरी रात पड़ी है, ज़रा थम जाओ.”
हालांकि, रामचंद्र हंसते हुए कहते हैं: ''कुछ महीने पहले बुढ़ऊ अपने खेत में 8 फुट ऊंचे मचान से गिर गए थे. वह क़िस्मतवाले हैं, नहीं तो आज हमारे बीच नहीं होते.”
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खोलदोडा, नागपुर से क़रीब 120 किलोमीटर दूर भिवापुर तहसील में आलेसुर ग्राम पंचायत का हिस्सा है. चंद्रपुर ज़िले की चिमूर तहसील के जंगल इसकी सीमा से सटे हुए हैं - यानी ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व (टीएटीआर) का उत्तर-पश्चिमी छोर.
महाराष्ट्र के पूर्वी क्षेत्र विदर्भ के जंगलों के सैकड़ों गांवों की तरह खोलदोडा में भी जंगली जानवरों का काफ़ी आतंक है. गांववालों को अक्सर अपनी फ़सल और मवेशी गंवाने पड़ते हैं. अधिकांश खेतों में बाड़ लगी है, पर रात की पहरेदारी उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी है.
दिनभर लोग खेत में रोज़मर्रा के कामों में लगे रहते हैं, फ़सलों की देखभाल करते हैं. मगर रात होते ही, ख़ासकर फ़सल की कटाई के सीज़न में, हर घर से लोग जंगली जानवरों से अपनी खड़ी फ़सलें बचाने के लिए खेत में पहुंच जाते हैं. अगस्त से मार्च तक, जब खेतीबाड़ी होती है और दूसरे समय भी यही चलता है.
दिन में जब मैं खोलदोडा पहुंचा, तो अजीब तरह का सन्नाटा पसरा था. किसी भी खेत में कोई नहीं था. हर खेत नायलॉन की साड़ियों से घिरा था. शाम 4 बजे का वक़्त था और इधर-उधर कुछ कुत्तों को छोड़कर गांव की गलियां भी खाली और सुनसान दिखाई पड़ रही थीं.
दादाजी के घर पहुंचते ही जब मैंने पूछा कि गांव में सन्नाटा क्यों है, तो उन्होंने बताया, “दोपहर दो से साढ़े चार बजे तक सभी सो जाते हैं, क्योंकि इस बात का कोई भरोसा नहीं होता कि हम रात को सो पाएंगे या नहीं.”
वह कहते हैं, “वे (किसान) पूरे दिन खेतों के चक्कर काटते रहते हैं. यह 24 घंटे की ड्यूटी की तरह है."
जैसे ही शाम होती है, गांव में फिर से जान आ जाती है - महिलाएं खाना बनाना शुरू कर देती हैं, पुरुष रात की पहरेदारी के लिए तैयार होते हैं और गायें अपने चरवाहों के साथ जंगल से घर लौट आती हैं.
सागौन और दूसरे पेड़ों वाले घने जंगलों से घिरा खोलदोडा, ताडोबा इलाक़े का हिस्सा है, जिसमें लगभग 108 परिवार (जनगणना 2011) रहते हैं. इनमें से ज़्यादातर छोटे और सीमांत किसान हैं, जो दो मुख्य सामाजिक श्रेणियों से जुड़े हैं: माना आदिवासी और महार दलित. कुछ अन्य जातियों के परिवार हैं.
यहां जोत क़रीब 110 हेक्टेयर की है, और खेतों की उपजाऊ मिट्टी अधिकांशत: बारिश पर निर्भर है. धान, दालें उगाई जाती हैं और कुछ में गेहूं, बाजरा और सब्ज़ियां लगाई जाती हैं. यहां के किसान अपने खेतों पर काम करते हैं, साथ ही थोड़ी-बहुत वनोपज और दिहाड़ी मज़दूरी करके भी गुज़ारा करते हैं. कुछ युवक आजीविका कमाने के लिए शहर चले गए हैं, क्योंकि खेती अब उनका सहारा नहीं रही. दादाजी का बेटा नागपुर में पुलिस कांस्टेबल है. गांव के कुछ लोग मज़दूरी के लिए भिवापुर जाते हैं.
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जब तक हमारा रात का खाना तैयार हो रहा है, हम गांव का मूड जानने के लिए जल्दी से उसका चक्कर काट लेते हैं.
हमारी मुलाक़ात तीन महिलाओं से होती है - शकुंतला गोपीचंद नन्नावरे, शोभा इंद्रपाल पेंदाम और परबता तुलसीराम पेंदाम. सभी की उम्र 50 से ज़्यादा है. वे अपने खेत की ओर जाने की जल्दी में हैं. उनके साथ एक कुत्ता है. जब मैं पूछता हूं कि घर का काम, खेत में मेहनत-मज़दूरी और रात की पहरेदारी कितना मुश्किल है, तो शकुंतला बताती हैं, "हम डरे हुए हैं, लेकिन क्या कर सकते हैं?" रात में एक-दूसरे के आसपास रहकर सहारा देते हुए वे अपने-अपने खेतों का चक्कर लगाएंगी.
हमने दादाजी के घर के सामने गांव की मुख्य सड़क पर गुणवंत गायकवाड़ को अपने दोस्तों से बातें करते देखा. उनमें से एक ने चुटकी ली, "अगर आप भाग्यशाली हुए, तो आपको बाघ दिखाई पड़ जाएगा." गायकवाड़ कहते हैं, ''हम तो नियमित रूप से बाघों को खेतों में आते-जाते देखते हैं.''
हम गांव के उप-सरपंच राजहंस बनकर से उनके घर पर मिले. वह रात का खाना खा रहे हैं, जिसके बाद वह खेत के लिए निकल जाएंगे. वह दिनभर के काम से थककर चूर हो चुके हैं - बनकर, पंचायत के प्रशासनिक काम करते हैं.
अब हम सुषमा घुटके से मिलते हैं, जो फ़िलहाल महिला 'पुलिस पाटिल' हैं और अपने पति महेंद्र के साथ मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठकर खेत की ओर जा रही हैं. उन्होंने रात का खाना, कुछ कंबल, लकड़ी का डंडा और दूर तक रोशनी फेंकने वाली टॉर्च पकड़ रखी है. हम दूसरों को भी टॉर्च, लकड़ी के डंडे और कंबल लिए अपने खेतों की ओर पैदल जाते देखते हैं.
"चला आमच्या बरोबर," सुषमा मुस्कुराते हुए हमें अपने साथ उनके खेत में आने को आमंत्रित करती हैं. वह कहती हैं, "आप रात को बहुत शोर-शराबा सुनेंगे. इसको सुनने के लिए कम से कम ढाई बजे तक जागते रहना."
जंगली सूअर, नीलगाय, हिरन, सांभर, मोर, खरगोश -ये सभी रात में भोजन के लिए निकलते हैं. वह कहती हैं, कभी-कभी उन्हें बाघ और तेंदुआ भी दिखाई देता है. वह मज़ाक़ में कहती हैं, "हमारे खेत पशु फार्म हैं.”
कुछ घर दूर रहने वाले स्थानीय राजनीतिक नेता आत्माराम सवसाखले (55) रात की पहरेदारी की तैयारी में हैं. उनके पास 23 एकड़ की पैतृक ज़मीन है. वह बताते हैं कि उनके खेत पर काम करने वाले पहले से खेत पर पहुंच चुके होंगे. कहते हैं, “चूंकि मेरा खेत बड़ा है, इसलिए इसकी रखवाली करना मुश्किल होता है.” उनके खेत पर कम से कम छह-सात मचान हैं, जहां से फ़सल के हर बड़े हिस्से पर नज़र रखी जाती है. फ़िलहाल, उनके खेत में गेहूं और काले चने की फ़सल खड़ी है.
रात साढ़े आठ बजे तक, खोलदोडा के परिवार रात का समय बिताने के लिए अपने दूसरे ठिकाने - यानी खेतों में आ गए हैं.
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रामचंद्र ने अपने पूरे खेत में कई मचान बनवाए हैं, जहां से आप एक-दूसरे को सुन तो सकते हैं, पर देख नहीं सकते. आप यहां आराम से झपकी ले सकते हैं. ये मचान लकड़ी से बने चबूतरे हैं, जो सात-आठ फीट ऊंचे हैं, जिनके ऊपर सूखी घास या तिरपाल की छतरी होती है. इनमें से कुछ मचान पर दो व्यक्ति बैठ सकते हैं, मगर ज़्यादातर में केवल एक ही आदमी बैठ सकता है.
वास्तव में भिवापुर के इस हिस्से में, जो जंगलों से सटा है, आपको ऐसे ग़ज़ब के ठिकाने देखने को मिलेंगे, जो वहां रात बिताने वाले किसानों की वास्तुकला का नमूना पेश करते हैं.
वह मुझसे कहते हैं, “आप किसी भी ठिकाने को चुन लें.” मैं खेत के ठीक बीच में तिरपाल की चादर वाला एक अड्डा चुनता हूं. खेत में अभी चना लगा हुआ है और फ़सल की कटाई होने वाली है. मुझे शक है कि फूस की छतरी वाले ठिकाने पर चूहे होंगे. मेरे चढ़ने से मचान हिलता है. रात के साढ़े नौ बजे हैं और हमें रात का भोजन करना है. हम सीमेंट के खलिहान में अलाव के चारों तरफ़ बैठ गए हैं. तापमान गिर रहा है. घना अंधेरा है, लेकिन आसमान साफ़ है.
दादाजी खाने के वक़्त बातचीत करना शुरू करते हैं:
"चार महीने पहले आधी रात को मेरा मचान अचानक ढह गया था और मैं सात फ़ीट की उंचाई से सिर के बल नीचे गिरा. मेरी गर्दन और पीठ में बुरी तरह से चोटें आईं थीं."
यह रात क़रीब ढाई बजे की बात थी. शुक्र है कि जिस सतह पर वह गिरे, ज़्यादा सख़्त नहीं थी. वह बताते हैं कि वह कई घंटे वहां पड़े सदमे और दर्द से छटपटाते रहे. लकड़ी का एक लट्ठा, जिस पर मचान खड़ा किया गया था, गिर गया था, क्योंकि वहां की मिट्टी ढीली हो गई थी.
"मैं हिल नहीं सकता था और मेरी मदद के लिए वहां कोई नहीं था." लोग रात को खेत में अकेले ही होते हैं, भले ही आसपास लोग अपने-अपने खेतों की रखवाली कर रहे हों. वह बताते हैं, "मुझे लगा था कि मैं मर जाऊंगा."
अलसुबह, वह आख़िरकार खड़े हो पाने में कामयाब हुए और गर्दन व पीठ में गंभीर दर्द के बावजूद दो-तीन किलोमीटर की दूरी तय करके घर पहुंचे. "घर पहुंचने के बाद, मेरा पूरा परिवार और पड़ोसी मदद के लिए दौड़ पड़े." दादाजी की पत्नी शकुबाई घबरा गई थीं.
रामचंद्र उन्हें भिवापुर क़स्बे में एक डॉक्टर के पास ले गए, जहां से उन्हें एंबुलेंस में नागपुर के एक निजी अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया. उनके बेटे ने अस्पताल में भर्ती कराने की व्यवस्था की.
एक्स-रे और एमआरआई स्कैन में आघात का तो पता चला, लेकिन सौभाग्य से हड्डी नहीं टूटी थी. मगर गिरने के बाद से, लंबे और दुबले-पतले शरीर वाले दादाजी को ज़्यादा देर बैठने या खड़े रहने पर चक्कर आ जाते हैं, इसलिए वह लेट जाते हैं. और भजन गाते हैं.
वह मुझे बताते हैं, “मैंने यह क़ीमत रात की पहरेदारी के एवज़ में चुकाई, पर क्यों? इसलिए कि अगर मैंने अपनी फ़सलों की रखवाली न की, तो ये जंगली जानवर मेरे खेत में कटाई लायक उपज भी नहीं छोड़ेंगे.”
दादाजी कहते हैं कि जब वह छोटे थे, तो रात की पहरेदारी की कोई ज़रूरत नहीं होती थी. पिछले 20 साल में जानवरों के हमलों में तेज़ी आई है. वह कहते हैं कि न केवल जंगल सिकुड़ गए हैं, जंगली जानवरों को भी पर्याप्त भोजन-पानी नहीं मिल रहा है और उनकी तादाद भी बढ़ गई है. और इसलिए, हज़ारों किसान अपनी रातें खेतों पर बिताते हैं, चौकसी करते हैं, रात के इन हमलावरों से अपनी फ़सलें बचाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि खड़ी फ़सलों को निगलने के लिए जंगली जानवर इंतज़ार करते रहते हैं.
हादसे, ऊपर से गिर जाना, जंगली जानवरों के साथ ख़तरनाक टकराव, नींद की कमी की वजह से मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं और सामान्य बीमारियां - यह खोलदोडा और विदर्भ के बड़े हिस्से में किसानों के लिए सामान्य बात हो चुकी है, जो पहले ही संकटग्रस्त किसानों की समस्याएं और बढ़ा रही हैं.
पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण इलाक़ों में अपनी यात्राओं के दौरान मैं ऐसे किसानों से मिला, जो स्लीप एपनिया के कारण तनाव में थे. स्लीप एपनिया एक तरह की बीमारी है, जब सोते समय सांस रुक जाती है और फिर चलने लगती है.
रामचंद्र अफ़सोस के साथ कहते हैं, "यह शरीर को बहुत नुक़सान पहुंचाता है - हमें दिन में और रात को भी बिना ज़्यादा नींद के काम करना पड़ता है. कई बार ऐसा होता है जब हम अपने खेत को एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ सकते.”
वह कहते हैं कि यदि आप यहां का चावल, दाल या काला चना खा रहे हैं, तो ये वह अनाज है जो जंगली जानवरों के हमलों से बच गया है, क्योंकि किसी ने रातों की नींद हराम करके कहीं न कहीं अपनी फ़सल बचाने में कामयाबी पाई होगी.
रामचंद्र कहते हैं, "हम अलार्म बजाते हैं, आग जलाते हैं, खेतों में बाड़ लगाते हैं, लेकिन अगर आप रात में खेत पर नहीं हैं, तो बहुत मुमकिन है कि आप वह सबकुछ गंवा देंगे जो आपने लगाया है."
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रात के खाने के बाद हम अपनी टॉर्चें चमकाते हुए रामचंद्र के पीछे एक सीध में चलना शुरू करते हैं, जो स्याह अंधेरे में खेतों की भूलभुलैया में हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं.
रात के 11 बजे हैं और हम समय-समय पर कुछ दूर लोगों को चिल्लाते हुए सुनते हैं - “ओय…ओय…ईईई," जो जानवरों को डराने और खेतों पर अपनी मौजूदगी जताने के लिए चिल्ला रहे हैं.
अन्य दिनों में अकेले होने पर रामचंद्र हर घंटे लंबा-भारी डंडा लेकर खेत का चक्कर लगाते हैं. विशेष रूप से वह दो बजे से चार बजे के बीच सतर्क रहते हैं, जब उनके मुताबिक़ जानवर सर्वाधिक सक्रिय होते हैं. बीच-बीच में वह झपकी लेने की कोशिश करते हैं, पर सतर्क भी रहते हैं.
आधी रात के आसपास एक ग्रामीण अपनी बाइक पर खेत में आता है और हमें बताता है कि आलेसुर में पूरी रात कबड्डी टूर्नामेंट चलेगा. हम खेल देखने जाने का फ़ैसला करते हैं. दादाजी रामचंद्र के बेटे के साथ खेत पर ही रुक जाते हैं और हम बाक़ी लोग खेत से 10 मिनट की दूरी पर आलेसुर चले जाते हैं.
रात की पहरेदारी के बीच, किसान आलेसुर ग्राम पंचायत में आयोजित कबड्डी का खेल देखने के लिए इकट्ठा होते हैं
रास्ते में हमें जंगली सुअरों का एक झुंड सड़क पार करते हुए मिला, जिसके पीछे दो गीदड़ थे. थोड़ी देर बाद, जंगल के साथ लगे हिस्से में हमने हिरनों का एक झुंड देखा. अभी तक बाघ का कोई पता नहीं चला था.
आलेसुर में आसपास के गांवों के दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों के बीच कबड्डी का कांटे का मुक़ाबला देखने के लिए भारी भीड़ जमा है. उनका उत्साह देखने लायक है. टूर्नामेंट में 20 से अधिक टीमें हिस्सा ले रही हैं और मैच सुबह तक चलेंगे. फ़ाइनल सुबह 10 बजे होगा. ग्रामीण रात भर अपने खेतों और प्रतियोगिता स्थल के बीच घूमते रहेंगे.
लोग एक बाघ की मौजूदगी के बारे में सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं. उनमें से कोई एक रामचंद्र से कहता है, "तुम सावधान रहना." आलेसुर के एक ग्रामीण ने उसे शाम को देखा था.
बाघ का दिखना एक तरह का रहस्य है.
कुछ देर बाद हम वापस रामचंद्र के खेत में आ गए. रात के दो बज रहे हैं और उनका बेटा आशुतोष खलिहान के पास चारपाई पर सो गया है. दादाजी चुपचाप बैठे उसकी निगरानी कर रहे हैं और अलाव जला रहे हैं. हम थके हुए हैं, लेकिन अभी तक नींद नहीं आई है. हम खेत का एक और चक्कर लगाते हैं.
रामचंद्र ने 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी, और कहते हैं कि अगर कोई दूसरा काम होता, तो वह खेती ही न करते. उन्होंने अपने दोनों बच्चों को नागपुर के एक बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया है, क्योंकि वह नहीं चाहते कि उनके बच्चे खेती करें. आशुतोष छुट्टियां मनाने घर आया है.
अचानक सभी दिशाओं से चीख-पुकार की आवाज़ें आने लगीं. किसान थाली पीट रहे हैं, और ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर रहे हैं. जानवरों को डराने के लिए वे ऐसा बार-बार करेंगे.
मेरे चौंकने वाले हाव-भाव देखकर दादाजी मुस्करा देते हैं. रामचंद्र भी मुस्कराने लगते हैं. वह कहते हैं, "यह आपको अजीब लग सकता है, लेकिन रात भर यही होता है. किसान कुछ जानवरों की मौजूदगी का संकेत देने के लिए चिल्लाते हैं, जो दूसरे खेतों में जा सकते हैं.” क़रीब 15 मिनट बाद हंगामा ख़त्म हुआ और फिर से सब शांत हो गया.
लगभग साढ़े तीन बजे सितारों से जगमगाते आकाश के नीचे हम अलग होते हैं और अपने झूलते हुए मचानों पर आ जाते हैं. मेरे चारों ओर कीड़ों की आवाज़ तेज़ हो जाती है. मैं अपनी पीठ के बल लेट गया हूं. मचान पर बस मेरे लायक ही जगह है. फटी हुई सफ़ेद तिरपाल की चादर हवा के झोंके से लहरा रही है. मैं तारे गिनता हूं और थोड़ी देर के लिए सो जाता हूं. दिन निकलने तक मैं लोगों के चिल्लाने की रुक-रुक कर आती आवाज़ें सुनता रहा. मचान पर अपने ठिकाने से मैं अपने चारों ओर दूधिया सफ़ेद ओस से ढके हरे-भरे खेतों को देखता हूं.
रामचंद्र और दादाजी पहले से ही जगे हुए हैं. दादाजी खेत के इकलौते नारंगी के पेड़ से कुछ फल तोड़ते हैं और घर ले जाने के लिए मुझे सौंप देते हैं.
रामचंद्र तेज़ गति से अपने खेत का एक चक्कर लगाते हैं, और जांचते हैं कि किसी जानवर ने उनकी फ़सल को छुआ तो नहीं. मैं उनके पीछे-पीछे चलता हूं,
हम सुबह सात बजे गांव लौटते हैं. वह कहते हैं कि वह भाग्यशाली हैं कि रात में कोई नुक़सान नहीं हुआ.
बाद में, दिन के वक़्त रामचंद्र को मालूम चल पाएगा कि पिछली रात जंगली जानवर किसी और के खेत में घुसे थे या नहीं.
मैं अपने मेज़बान से विदा लेता हूं, और वह मुझे अपने खेत में उगे चावल के ताज़ा आटे का एक पैकेट भेंट करते हैं. यह सुगंधित चावल है. इसकी फ़सल कटने तक रामचंद्र ने कई रातें खेत में पहरेदारी करते बिताई हैं.
हम गाड़ी चलाकर खोलदोडा को पीछे छोड़ते हुए खेतों से गुज़रते हैं, और मुझे खेतों से चुपचाप घर लौटते पुरुष व महिलाएं नज़र आती हैं. मेरा रोमांचक सफ़र पूरा हो गया है. उनका कमरतोड़ दिन तो बस अभी शुरू हुआ है.
अनुवाद: अजय शर्मा