दिल्ली में सर्दियों की एक अलसाई दोपहर थी. जब क़मर ने तक़रीबन एक हज़ार किलोमीटर दूर अपनी मां को फ़ोन मिलाया, तो जनवरी का सूरज बरामदे में बुलाए किसी मेहमान की तरह पसरा था. शमीमा ख़ातून (75) से बातें करते वह मानो बिहार के सीतामढ़ी ज़िले के बर्री फुलवरिया गांव में अपने बचपन के घर में दाख़िल हो गए थे.
अगर आपने उस दोपहर टेलीफ़ोन लाइन के दोनों ओर की आवाज़ें सुनी होतीं, तो आपको यक़ीनन कुछ अजीब सा महसूस होता. साफ़ उर्दू में उन्होंने पूछा था, “अम्मी ज़रा ये बताइएगा कि बचपन में जो मेरे सर पे ज़ख्म होता था न, उसका इलाज कैसे करते थे?”
“सीअर में जो हो जाहई-तोरोहू होला रहा-बतखोरा कहा हाई ओको इधर. रेह, चिकनी मिट्टी लगाके धोलिया रहा, मगर लागा हाई बहुत. ता छूट गेलई [खोपड़ी पर जो दिखता है, तुम्हें भी पता है. उसे यहां बटखोरा कहते हैं. मैंने तुम्हारा सिर को रेह [खारी मिट्टी] और चिकनी मिट्टी से धोया था, पर काफ़ी दर्द होता है. आख़िर तुम्हें इससे छुटकारा मिल ही गया था],” वह अपने घरेलू उपचार के बारे में बताकर हंस देती हैं. उनकी भाषा क़मर की भाषा से बिल्कुल जुदा है.)
उनकी बातचीत में कुछ भी असामान्य नहीं था. क़मर और उनकी मां हमेशा एक-दूसरे से इसी तरह अलग-अलग भाषाओं में बात करते हैं.
अगले दिन पारीभाषा की बैठक में उन्होंने कहा, “मैं उनकी बोली समझता हूं पर बोल नहीं सकता. मैं कहता हूं कि उर्दू मेरी 'मातृभाषा' है, लेकिन मेरी मां अलग भाषा बोलती हैं.'' इस बैठक में हम अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर अपनी कहानी के विषय को लेकर बातचीत कर रहे थे. वह आगे कहते हैं, ''किसी को भी उनकी भाषा के नाम के बारे में पता नहीं है. न अम्मी को, न मेरे परिवार में किसी को. यहां तक कि उन्हें भी नहीं जो यही बोलते हैं.'' काम की तलाश में गांव छोड़कर निकलने वाले वह, उनके पिता और उनका भाई कभी वह भाषा नहीं बोलते. क़मर के बच्चों की तो बात ही और है. वे अपनी दादी की भाषा नहीं समझ सकते.
वह आगे बताते हैं, “मैंने इस बारे में और जानने की कोशिश की. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक भाषाविद मोहम्मद जहांगीर वारसी इसे 'मैथिली उर्दू' कहते हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के प्रोफेसर रिज़वानुर रहमान का कहना है कि बिहार के इस इलाक़े के मुसलमान आधिकारिक तौर पर उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं, पर घर में उनकी बोली अलग है. लगता है कि मां की भाषा उर्दू, फ़ारसी, अरबी, हिंदी और मैथिली का मिश्रण है, जो उस इलाक़े में विकसित हो गई है. ”
मां की भाषा जो हर आने वाली पीढ़ी के साथ लुप्त हो रही है.
पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती! क़मर ने हमें शब्दों की खोज में लगा दिया. हम सभी ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं के खोए हुए कुछ शब्दों के निशान खोजने, उन्हें ढूंढ़ने और उन संकेतों को पकड़ने का फ़ैसला लिया जो इस नुक़सान के बारे में बता सकें. इससे पहले कि हमें पता चलता, हम बोर्हेस के एलेफ़ को पढ़ रहे थे.
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पहली बार इस पर राजा बात करते हैं. वह कहते हैं, ''तमिल में एक लोकप्रिय मुहावरे के बारे में एक तिरुकुरल दोहा कहा गया है.''
“मयिर नीप्पिन वाला कवरिमा अन्नार
उइरनीप्पर मानम वरिन [
कुरल# 969
]
इसका अनुवाद यह है: जब हिरन के शरीर से बाल नोंचा जाता है, तो वह मर जाता है. उसी तरह जो लोग अपना सम्मान खो देते हैं वे शर्म से मर जाते हैं.
राजा झिझकते हुए कहते हैं, “इस दोहे में मनुष्य के स्वाभिमान की तुलना हिरन के बाल से की गई है. कम से कम मू. वरतरासनर का किया अनुवाद तो यही कहता है. लेकिन बाल तोड़ने से हिरन क्यों मरेगा? बाद में इंडोलॉजिस्ट आर बालकृष्णन के लेख 'सिंधु घाटी में तमिल गांवों के नाम' पढ़ने पर मुझे समझ आया कि इस दोहे में 'कवरिमा' का उल्लेख है जो तमिल में याक है, न कि 'कवरिमान' यानी हिरन.
“याक? लेकिन ऊपरी हिमालय में मिलने वाला यह जानवर तमिल कविता में क्या कर रहा है, जो देश के दूसरे छोर पर रहने वाले लोगों की भाषा है? आर बालकृष्णन इसे सभ्यताओं के प्रवास के ज़रिए समझाते हैं. उनके अनुसार सिंधु घाटी के लोग अपने मूल शब्दों, जीवनशैली, स्थानीय नामों के साथ दक्षिण की ओर गए होंगे.''
राजा कहते हैं, “एक अन्य विद्वान वी. अरसु का तर्क था कि किसी को राष्ट्र-राज्य या देश के आज के विचार से भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की कल्पना नहीं करनी चाहिए. वह कहते हैं कि यह संभव है कि पूरा भारतीय उपमहाद्वीप कभी द्रविड़ भाषाएं बोलने वाले लोगों से आबाद रहा. उत्तर में सिंधु घाटी से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक पूरे महाद्वीप में रहने के बाद इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि तमिलों के पास हिमालय में रहने वाले जानवर के लिए एक शब्द है."
राजा ताज्जुब में भरकर कहते हैं, "कवरिमा शब्द एक अजूबा है! दिलचस्प बात यह है कि प्रसिद्ध तमिल शब्दकोश क्रिआ में कवरिमा शब्द नहीं है."
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हममें से कई लोगों के पास ऐसे शब्दों की कहानियां थीं, जो अब शब्दकोशों में नहीं मिलते. जोशुआ ने इसे नाम दिया है, मानकीकरण की राजनीति.
“सदियों से बंगाल के किसान, कुम्हार, गृहणियां, कवि और शिल्पकार अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं राढ़ी, वरेंद्री, मानभूमि, रंगपुरी आदि में बातचीत करते-लिखते आ रहे थे. लेकिन 19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में बांग्ला पुनर्जागरण के साथ बांग्ला ने अपनी अधिकांश क्षेत्रीय और अरबी-फ़ारसी शब्दावली खो दी. संस्कृत पर ज़ोर और एंग्लोफ़ोनिक, यूरोपीय शब्दों और मुहावरों के प्रवाह के साथ-साथ मानकीकरण और आधुनिकीकरण की एक के बाद लहरें चलीं. इसने बांग्ला से उसका बहुलवादी प्रकृति छीन ली. तब से संताली, कुरमाली, राजबोंग्शी, कुरुख और अन्य आदिवासी भाषाओं में गहराई में मौजूद या उधार लिए शब्द मिटाए जा रहे हैं."
यह कहानी केवल बंगाल तक सीमित नहीं है. भारत की हर भाषा में एक पुरानी कहावत की समकक्ष मौजूद है- बार गौ ए बोली बडाले (हर 12 से 15 किलोमीटर पर अलग भाषा सुनने को मिलती है). और उपनिवेशवाद के दौरान, स्वतंत्रता के बाद और उसके बाद राज्यों के भाषाई विभाजन के दौरान भारत का हर राज्य नुक़सान के एक जैसे दौर से गुज़रा. भारत में राजभाषा की कहानी ऐतिहासिक रूप से सांस्कृतिक और राजनीतिक उलझावों से भरी रही है.
जोशुआ कहते हैं, ''मैं बांकुरा से हूं, जो पुराने मल्लभूम साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था. इस इलाक़े में कई भाषाई समूह रहते रहे हैं. इसका नतीजा यह होता है कि भाषाओं, रीति-रिवाज़ों और चीज़ों में निरंतर आदान-प्रदान चलता रहता है. इस क्षेत्र की हर भाषा में कुरमाली, संताली, भूमिज और बिरहोरी के अनगिनत उधार लिए गए शब्द और विभक्तियां मिलती हैं.
जोशुआ आगे जोड़ते हैं, “लेकिन मानकीकरण और आधुनिकीकरण के नाम पर आड़ा [भूमि], जुमड़ाकुचा [जली हुई लकड़ी], काकती [कछुआ], जोढ़ (धारा), अगड़ा [खोखला], बिलाती बेगन [टमाटर] और कई दूसरे शब्द औपनिवेशिक कलकत्ता के उच्चवर्गीय उच्च-जाति समूह के लोगों द्वारा तैयार बेहद संस्कृतनिष्ठ और यूरोपीय वाक्यांशों से लगातार बदले जा रहे हैं.''
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लेकिन किसी शब्द के ग़ायब होने के बाद क्या खो जाता है? क्या शब्द पहले लुप्त होता है या अर्थ? या क्या वह संदर्भ होता है, जो भाषा में शून्य पैदा कर देता है? इस नुक़सान के बाद बची हुई खाली जगह में क्या कुछ नया सामने नहीं आता?
जब एक नया शब्द, 'उड़ालपूल' [फ्लाइंग ब्रिज] फ्लाईओवर के लिए नया बंगाली शब्द बन जाता है, तो हम कुछ खोते हैं या हासिल करते हैं? और क्या इस प्रक्रिया में जो खो गया, वह अब जोड़े गए से कहीं अधिक होता है? स्मिता तेज़ी से सोच रही हैं.
वह बांग्ला का एक पुराना शब्द घुलघुली याद करती हैं. इसका अर्थ था हवा और रोशनी के लिए छत के नीचे बने पारंपरिक रोशनदान. वह कहती हैं, ''अब हमारे पास वे नहीं हैं. लगभग 10 सदी पहले एक बुद्धिमान महिला खना ने अपना बंगाली कहावती दोहों का संग्रह खनार बचन लिखा था. इसमें उन्होंने ग़ज़ब की व्यावहारिकता के साथ खेती, सेहत और चिकित्सा, मौसम विज्ञान, घर बनाने के बारे में लिखा है.
आलो हावा बेंधो ना
रोगे भोगे मोरो ना.
बिना हवा-रोशनी वाला कमरा
न बनाओ.
वरना बीमारी से तुम बस मर सकते हो.
पीड़े
ऊंचू
मेजे खाल
तार दुक्खो सोर्बो काल
फ़र्श नीचा है बाहर की
धरती से
कभी नहीं छिपता विषाद-दुर्भाग्य इससे.
स्मिता आगे कहती हैं, "हमारे पूर्वजों को खना की अक़्लमंदी पर भरोसा था और वो घरों में घुलघुली के लिए जगह छोड़ते थे, लेकिन आज के समय आम लोगों को जिन सरकारी सामाजिक सुरक्षा के तहत हाउसिंग प्रोजेक्ट्स में घर मिलते हैं, उनमें इस पारंपरिक ज्ञान के लिए कोई जगह नहीं. दीवार में जड़ी अलमारियां और कुलुंगी के नाम से जाने जाने वाली आले, खुली जगहें जिन्हें चाताल कहते हैं, पुराने पड़ चुके विचार हैं. घुलघुलियां ग़ायब हो चुकी हैं, और बोलचाल से यह शब्द भी विदा हो चुका है.”
लेकिन यह सिर्फ़ शब्द या घुलघुली ही नहीं है जिनका उन्हें आज के इस दौर में दुख है, जब घर ख़ुद कबूतरखानों में तब्दील हो चुके हैं. स्मिता उस नाज़ुक संबंध के टूटने का भी शोक जता रही हैं, जो कभी दूसरे प्राणियों, प्रकृति, अनगिनत गौरैयाओं के साथ हुआ करता था जो कभी उन रोशनदानों में अपने छोटे-छोटे घोंसले बनाते थे.
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कमलजीत कहते हैं, ''मोबाइल टावरों का कहर, बाहर से अलग-थलग पक्के मकान, हमारी बंद रसोइयां, हमारे खेतों में कीटनाशकों का बहुत अधिक इस्तेमाल, ये सभी हमारे घरों, बगीचों और गीतों से घरेलू गौरैया की घटती मौजूदगी के लिए ज़िम्मेदार हैं.''
एकदम! वो भाषाई और पारिस्थितिक विविधता के बीच एक ख़ास रिश्ते को समझाती हैं. पंजाबी कवि वारिस शाह की कुछ पंक्तियां उद्धृत करते हुए वह कहती हैं:
“चिड़ी चुकदी नाल जा तूरे
पां
धी,
पैयां दुद्ध दे विच मधानियां नीं."
गौरैया के बोलते ही निकलते
हैं मुसाफ़िर,
जैसे स्त्री दूध से मक्खन निकालती हैं.
एक वक़्त था जब किसान अपने दिन की शुरुआत और मुसाफ़िर अपनी यात्रा की शुरुआत गौरैया की चहचहाहट से करते थे. वे हमारे क़ुदरती छोटे-मोटे अलार्म-सिस्टम थे. आजकल मेरी नींद फ़ोन पर उनकी चहचहाहट की रिकॉर्डेड आवाज़ से खुलती है. किसान इन परिंदों के व्यवहार के आधार पर मौसम की भविष्यवाणी करते थे, और अपने फ़सल-चक्र की योजना बनाते थे. उनके पंखों की ख़ास हलचल किसान के लिए शुभ होती थी- किसानी का शगुन.
चिड़ियां खंभ खिलेरे,
वस्स
ण
मींह बहुतेरे.
गौरैया जब अपने पंख फैलाए
आकाश से मूसलाधार बारिश आए.
कोई ताज्जुब नहीं है कि हम आज बड़े पैमाने पर जैविक विनाश के बीच में हैं. पौधों, जानवरों और पक्षियों की प्रजातियों के लुप्त होने के साथ-साथ हमें अपनी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता में भी बड़ी गिरावट देखनी पड़ रही है. 2010 में पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया में डॉ. गणेश देवी ने बताया था कि भारत में भाषाएं चिंताजनक दर पर मर रही हैं, पिछले 60 साल में क़रीब 250 भाषाएं मर चुकी हैं.
जब पक्षी विज्ञानी पंजाब में गौरैयाओं की घटती तादाद को लेकर मुखर हैं, तो कमलजीत को शादी के समय गाया जाने वाला एक पुराना लोकगीत याद आता है.
साडा चिड़ियां दा चंबा वे
बाबुल असां उड्ड जाणा
हम बिल्कुल गौरैया की
तरह हैं,
हमें अपना घोंसला छोड़कर उड़ जाना है
वह कहती हैं, "हमारे लोकगीतों में गौरेया निरंतर मिलती थीं. अफ़सोस अब ऐसा नहीं है."
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पंकज कहते हैं, जलवायु संकट और प्रवासन की तरह लुप्त हो रही आजीविका भी भाषा से जुड़ी है. “आजकल रंगिया, गोरेश्वर और असम में हर जगह बाज़ार में सस्ते मशीन से बने गमछा [पारंपरिक तौलिया, स्कार्फ़ या पगड़ी के रूप में इस्तेमाल होने वाला पतला-मोटा सूती कपड़ा] और चादर-मेखेला [पारंपरिक तौर पर लपेटा जाने वाला और महिलाओं का कमर में पहना जाने वाला कपड़ा] से भरे हैं, जो दूसरे राज्यों से आते हैं. असम में पारंपरिक हथकरघा उद्योग ख़त्म हो रहा है और इसके साथ हमारे मूल उत्पाद और बुनाई से जुड़े शब्द भी ख़त्म हो रहे हैं.”
अक्षय दास 72 साल के हैं और उनका परिवार आज भी असम के भेहबारी गांव में हथकरघा बुनाई करता है. वह कहते हैं कि हुनर खो चुका है. “युवा लोग काम के लिए गांव से लगभग 60 किलोमीटर दूर गुवाहाटी की ओर पलायन करते हैं. बुनाई की परंपरा से दूर वे 'सेरेकी' जैसे शब्द नहीं जानते होंगे.'' अक्षय एक बांस की करधनी का ज़िक्र कर रहे हैं जिसका उपयोग जोटर नामक चरखे की मदद से मोहुरा [रील] के चारों ओर छोटे-छोटे लूपों में धागा लपेटने के लिए किया जाता है.
पंकज कहते हैं, “मुझे एक बिहू गाना याद है. सेरेकी घुरादी नास [घूमती सेरेकी की तरह नृत्य]. जिस युवा को इसका संदर्भ नहीं पता, वह इसके बारे में क्या बताएगा?" अक्षय की 67 वर्षीय भाभी बिलाती दास [उनके दिवंगत बड़े भाई नारायण दास की पत्नी] एक गाना गा रही थीं:
तेतेलिर तोलोते, कपूर
बोई असिलो, सोराये सिगिले हुटा.
मैं इमली के पेड़ के नीचे
बुनाई कर रही थी, पक्षियों ने धागे तोड़ दिए हैं.
उन्होंने मुझे ताना-बाना बुनने की प्रक्रिया समझाई और कहा कि जैसे-जैसे बाज़ार में नए उपकरणों और मशीनों की बाढ़ आ रही है, कई स्थानीय उपकरण और तकनीकें ग़ायब हो रही हैं.
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निर्मल रहस्यमय हंसी के साथ कहते हैं, ''हम सर्वनाश इस्तेमाल करने लगे हैं.''
निर्मल ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की, "हाल ही में मैं छत्तीसगढ़ में अपने गांव पटनदार में एक तरह के अभियान पर गया था. हम जो पूजा कर रहे थे उसके लिए मैं दूब [बरमूदा घास] ढूंढ़ रहा था. मैं सबसे पहले पिछवाड़े के किचन गार्डन में गया लेकिन मुझे दूब [साइनोडॉन डेक्टाइलॉन] का एक पत्ता नहीं मिला. तो मैं खेतों में गया.
“यह फ़सल कटने से कुछ महीने पहले का समय था. वह समय था जब नई धान की बालियां दूधिया मीठे रस से भर जाती हैं और किसान पूजा करने के लिए अपने खेतों में आते हैं. वे भी उसी पवित्र घास का उपयोग करते हैं. मैं खेतों में गया, लेकिन मेरे पैरों के नीचे जिस मिट्टी पर मखमल जैसी घास के गुच्छों पर चमकती ओस की बूंदें होनी चाहिए थी, वह सूखी थी. बरमूदा घास, सामान्य घास, कंडी [हरा चारा], सब कुछ ग़ायब था. हर एक ब्लेड सूख चुका था, जलकर कुरकुरा हो गया था!”
"जब मैंने खेत में काम कर रहे किसी व्यक्ति से पूछा, तो उसने कहा, 'सर्वनाश' डाला गया है, इसलिए [क्योंकि नाश छिड़का गया है]'" मुझे यह समझने में थोड़ा समय लगा कि वह एक निश्चित ब्रांड नाम के किसी कीटनाशी का ज़िक्र कर रहा था. उसने न तो निंदा नाशक [खरपतवार नाशक] कहा, जैसा छत्तीसगढ़ी में कहते हैं, या उड़िया में घास मारा जो हम अक्सर बोलते हैं, या कुछ हिंदी भाषी क्षेत्रों की तरह खरपतवार नाशक और चारामार नहीं कहा. उन सबके स्थान पर 'सर्वनाश' शब्द आ गया!”
हर इंच ज़मीन का दोहन करने और इसे अपने अस्तित्व के लिए उत्पादक क्षेत्र में बदलने के मानवकेंद्रित तर्क ने रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और प्रौद्योगिकियों को कृषि पर हावी होने दिया है. निर्मल कहते हैं कि एक किसान जिसके पास बमुश्किल एक एकड़ ज़मीन है, संभावना है कि वह भी पारंपरिक उपकरणों के बजाय ट्रैक्टर किराए पर ले ले.
वह व्यथित होकर कहते हैं, “दिन-रात ट्यूबवेल पानी खींच रहे हैं और हमारी धरती माता को बंजर बना रहे हैं. माटी महतारी, उसके गर्भ [ऊपरी मिट्टी] को हर छह महीने में गर्भधारण करने के लिए मजबूर किया जाता है. वह कब तक सर्वनाश जैसे विषैले रसायनों को सहन कर पाएगी? ज़हर से भरी फ़सलें जल्द ही इंसान के ख़ून में अपना रास्ता बना लेंगी. मैं आ रहे सर्वनाश को महसूस कर सकता हूं.
“जहां तक भाषा की बात है,” निर्मल आगे कहते हैं, “एक मध्यम आयु के किसान ने एक बार मुझसे कहा था, नागर [हल], बखर [निराई करने का उपकरण], कोपर [मिट्टी के ढेले तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला लकड़ी का डंडा], इनके अब कोई नाम भी नहीं जानता. और डौंरी बेलन [बैल चालित रोलर-थ्रेशर], तो पूरी तरह दूसरी ही दुनिया की बात है."
''बिल्कुल मेतिकंबा की तरह,'' शंकर कहते हैं.
वह याद करते हैं, "मुझे याद है कि कर्नाटक के उडुपी में वंडसे गांव में हमारे आंगन में मेतिकंबा खंभा हुआ करता था. इसका शाब्दिक अर्थ कृषि का ध्रुव था. हम उसमें एक बेंच - हदीमंच बांध देते थे. चावल को अलग करने के लिए हम धान की घास को उस पर पटकते थे. बचा हुआ अनाज निकालने के लिए हम उसमें एक बैल भी बांधते थे और उसे धान की घास पर घुमाते थे. अब वह खंभा गायब हो चुका है. आधुनिक कटाई मशीनों के साथ यह प्रक्रिया आसान हो गई है.”
“किसी के घर के सामने मेतिकंबा होना गर्व की बात होती थी. साल में एक बार हम इसके लिए पूजा करते थे और कुछ अच्छे भोजन का आनंद लेते थे! खंभा, पूजा, दावत, शब्द, एक पूरी दुनिया ही चली गई."
*****
स्वर्ण कांता कहती हैं, “भोजपुरी में एक गाना है, हरदी हरदपुर जइहा ए बाबा, सोने के कुदाली हरदी कोरिह ए बाबा [पिताजी, कृपया मेरे लिए हरदपुर से हल्दी लाओ, सोने की कुदाली से हल्दी खोदो]. यह भोजपुरी भाषी इलाक़ों में शादियों में उबटन समारोह के दौरान गाया जाता था. पहले लोग अपने रिश्तेदारों के घर जाकर जांता [चक्की] से हल्दी पीसते थे. अब उनके घरों में चक्कियां नहीं हैं और वह रिवाज़ भी ख़त्म हो गया है.
शहरी भारत में जिस तरह सांस्कृतिक क्षति महसूस की जा रही है, उसके बारे में स्वर्ण कांता कहती हैं, 'एक दिन मैंने और मेरे दूर के चचेरे भाई की पत्नी ने देखा कि कैसे उबटन गीत के साथ कई भोजपुरी शब्द जुड़े हैं, कोदाल [कुदाल], कोड़ना [खुदाई], उबटन [हल्दी से स्नान], सिंहोरा [कुमकुम का डब्बा], दूब [बरमूदा घास], जो अब नहीं सुनाई पड़ते."
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हम सभी अपने-अपने अलग-अलग स्थानों, संस्कृतियों, वर्ग की जगहों की बात कर रहे हैं. और फिर भी हम सभी शब्दों की उसी क्षति और उनके सिकुड़ते हुए अर्थों के बारे में चिंतित हैं, जिस तरह वे हमारी अपनी जड़ों, पर्यावरण, प्रकृति, हमारे गांवों, हमारे जंगलों के साथ हमारे कमज़ोर होते रिश्ते के बारे में हैं. कहीं न कहीं हमने 'प्रगति' नामक एक बहुत ही अलग खेल खेलना शुरू कर दिया है.
खेलों की बात करें, तो समय के साथ वे भी लुप्त हो चुके हैं. सुधामयी और देवेश इसी बारे में बात कर रहे हैं. सुधामयी कहती हैं, “अगर आप मुझसे उन खेलों के बारे में पूछते हैं, जो बच्चे अब नहीं खेलते तो मैं आपको एक सूची दे सकती हूं. गच्चकायलु या वल्लंची, जिसमें आप कंकड़ को हवा में उछालते हैं और हथेली के पीछे पकड़ते हैं. ओमनगुंटलु, कौड़ियों या इमली के बीजों और मेज पर रखी दो पंक्तियों में 14 छेदों या गड्ढों के साथ खेला जाता है. कल्लगंटलु जो पकड़ने का खेल है, जिसमें पीछा करने वाले की आंखों पर पट्टी बांधी जाती है, और भी बहुत कुछ.”
देवेश कहते हैं, ''मेरे पास 'सतीलो' जैसे खेलों से जुड़ी यादें हैं. उसमें दो टीमें होती हैं और सात पत्थर एक के ऊपर एक रखे होते हैं. एक टीम पत्थर के टॉवर को निशाना बनाती है और गेंद फेंकती है, और दूसरी टीम को बाहर निकले बिना टॉवर को फिर से बनाना होता है. जब हम लड़के बोर हो जाते थे तो हम 'गेना भड़भड़' नाम का एक खेल ईजाद करते थे. कोई अंतिम लक्ष्य नहीं होता था, न कोई टीम होती थी. सभी बस गेंद से एक दूसरे को निशाना बनाते थे! इसे खेलने से किसी को चोट लग सकती थी, इसलिए इसे 'लड़कों का खेल' कहा जाता था. लड़कियां गेना भड़भड़ नहीं खेलती थीं.”
सुधामयी कहती हैं, ''मैंने जो भी खेल बताए उनमें कोई कभी नहीं खेला. मैंने उनके बारे में केवल अपनी नानी गजुलवर्ती सत्य वेदम से सुना है. वह कोलकलुरु में मेरे गांव से क़रीब 17 किलोमीटर दूर चिनगादेलवरु की रहने वाली थीं. मैं उस बारे में ज़्यादा नहीं जानती पर मुझे इन खेलों के बारे में उनकी कहानियां याद हैं. इस बारे में वह मुझे खाना खिलाते या सुलाते समय बात करती थीं. मैं खेल नहीं पाई, मुझे स्कूल जाना पड़ता था!”
देवेश कहते हैं, "हमारे इलाक़े की लड़कियां पत्थर के चिप्स के साथ 'गुट्टे' या 'विष-अमृत' खेलती थीं. इसका उद्देश्य दूसरी टीम को पकड़ना या बचाना होता था. मुझे 'लंगड़ी टांग' नाम का खेल भी याद है, जिसमें खिलाड़ी ज़मीन पर बने नौ खानों के भीतर एक पैर पर कूदते थे, यानी हॉप्सकॉच का एक संस्करण कह लें.
देवेश कहते हैं, “बच्चे हाथों में डिजिटल उपकरण लेकर बड़े हुए हैं, जिन्होंने उनका बचपन और उनकी भाषा दोनों छीन ली हैं. आज बाखिरा में मेरा 5 साल का भतीजा हर्षित, और गोरखपुर में मेरी 6 साल की भतीजी भैरवी इन खेलों के नाम तक नहीं जानते.''
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लेकिन क्या कुछ मात्रा में यह नुक़सान अपरिहार्य नहीं है? प्रणति मन ही मन इस पर बहस कर रही हैं. क्या कुछ क्षेत्रों में बदलाव ख़ुद-ब-ख़ुद हमारी भाषा नहीं बदल देते? वैज्ञानिक ज्ञान में तेज़ी से प्रगति, जैसे कई बीमारियों, उनके कारणों और रोकथाम के बारे में लोगों के बीच उसकी जागरूकता बढ़ने से उनके देखने का तरीक़ा बदल जाता है. या कम से कम जिस तरह वे उन्हें पहचानते हैं, वह बदल जाता है. उड़ीसा में स्थानीय भाषाओं में आई एक ख़ास वैज्ञानिक शब्दावली को कोई और कैसे समझे?
वह कहती हैं, “गांवों में एक समय हमारे पास बीमारियों के लिए अलग-अलग नाम थे. चेचक बड़ी मां थी, चिकनपॉक्स छोटी मां थी, दस्त या तो बदी, हैजा, या अमाशय था, टायफ़ायड आंतरिक ज्वर था. हमारे पास डायबिटीज़ के लिए शब्द था बहुमूत्र, आर्थराइटिस के लिए गांठीबात, और लैप्रसी यानी बड़ा रोग. लेकिन आज लोग धीरे-धीरे इन उड़िया शब्दों को किनारे करके अंग्रेज़ी शब्दों को अपनी शब्दावली में जगह दे रहे हैं. क्या यह दुख का विषय होना चाहिए? कह नहीं सकती."
हम जानते हैं, चाहे हम भाषाविद हों या नहीं, भाषा स्थिर नहीं होती. यह एक नदी है जो स्थानों में, सामाजिक समूहों और समय में निरंतर बहती रहती है. जो निरंतर परिवर्तनशील है, फैल रही है, आत्मसात करती है, जुड़ती है, लुप्त होती है, अविष्कृत होती है. तो फिर इस क्षति और स्मृति को लेकर इतना हंगामा क्यों? क्या थोड़ा-बहुत भूल जाना अच्छा नहीं है?
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मेधा कहती हैं, “मैं उन कई सामाजिक संरचनाओं के बारे में सोच रही हूं जो हमारी भाषाओं के पीछे छिपी होती हैं. मुर्दाद मटन जैसे शब्द को देखें. हम अक्सर इसका इस्तेमाल किसी 'अड़ियल' इंसान के लिए करते हैं, जो किसी भी बात या स्थिति से प्रभावित नहीं होता, जैसे मुर्दाद मटन या मृत मांस जिसे कई गांवों में दलितों को खाने के लिए मजबूर किया जाता था, जहां से यह शब्द आया है.”
राजीव मलयालम के बारे में सोचने लगते हैं. वह कहते हैं, ''एक समय केरल में निचली जाति के लोगों के आवास को चेट्टा यानी फूस का घर कहते थे. यह दुर्व्यवहार का शब्द भी बन गया क्योंकि इसका तात्पर्य ऐसे घरों में रहने वाले निचली जाति के लोगों से था. उन्हें अपने घरों को पुरा या विदु कहने की इजाज़त नहीं थी, जो ऊंची जातियों के घरों के लिए आरक्षित थे. उनके नवजात शिशु ऊंची जाति के लोगों की तरह उन्नी नहीं थे, बल्कि चेक्कन यानी बिगड़ैल थे. यहां तक कि ऊंची जाति के लोगों की मौजूदगी में उन्हें खुद को अदियान यानी 'आपका आज्ञाकारी सेवक' कहना पड़ता था. इन शब्दों का अब उपयोग नहीं किया जाता.''
मेधा कहती हैं, ''कुछ शब्दों और प्रयोगों का हमेशा के लिए लुप्त हो जाना अच्छा है. मराठवाड़ा के दलित नेता और वकील एकनाथ आव्हाड अपनी आत्मकथा [जेरी पिंटो द्वारा अनूदित स्ट्राइक अ ब्लो टु चेंज द वर्ल्ड] में उस भाषा के बारे में बताते हैं जो उनके और उनके दोस्तों ने बनाई थी. वे मातंग और दूसरी दलित जातियों से थे और बेहद ग़रीबी में रहे थे, भोजन चुराते थे. उनकी गुप्त भाषा उन्हें जीवित रहने, एक-दूसरे को सचेत करने और पकड़े जाने से पहले भागने में मदद करने के लिए थी. 'जीजा' [आव्हाड का प्यार से बुलाए जाने वाला नाम] कहते हैं कि 'इस भाषा को भूल जाना चाहिए. किसी को भी इसके बारे में पता न चले और इसे दोबारा इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए.’''
“सोलापुर ज़िले के सांगोला के दीपाली भुसनर और वकील नितिन वाघमारे ने कई शब्दों और कहावतों की सूची बनाई है, जैसे काय मांग गरुड्यासराखा रहतुय? [आप मांग या गरुड़ी की तरह क्यों दिखते हैं?] यह प्रयोग बेहद ग़रीबी और जातिगत भेदभाव के बीच रहने वाले दलितों में निजी देखभाल और स्वच्छता की कमी के बारे में बताता है. मगर जातिगत ऊंच-नीच में उलझी भाषा में किसी व्यक्ति की तुलना पारधी, मांग, महार से करना बेहद अपमान की बात थी. हमें ऐसे शब्दों को ख़त्म करना होगा.”
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कुछ तो ऐसा होगा जिसे बचाया जाना चाहिए. हमारी भाषाओं का संकट कोई काल्पनिक नहीं है. अगर यह जैसे पैगी मोहन के शब्दों में 'कोयला खदान में पहली कैनरी' जैसा है, तो क्या इससे भी बुरा कुछ आने वाला है? क्या हम इंसान के रूप में, संस्कृति के रूप में अपनी विविधता के बड़े पैमाने पर विलुप्त होने की ओर बढ़ रहे हैं? क्या इसकी शुरुआत भाषाओं से हो रही है? और यह कहां जाकर रुकेगा, मुक्ति कहां मिलेगी?
जयंत परमार (69 वर्षीय) कहते हैं, ''और कहां, अपनी भाषा के सिवाय.'' वह उर्दू में लिखने वाले दलित गुजराती कवि हैं.
वह भाषा के साथ अपने और अपनी मां दहिबेन परमाररिश्ते के बारे में कहते हैं, ''उर्दू के बहुत सारे शब्द थे, जिनका इस्तेमाल मां अपनी गुजराती में करती थीं. एक ख़ास बर्तन लाने के लिए वह मुझसे कहती थीं, “जा, कड़ो लै आव खावा कधू. मुझे नहीं पता कि उस तरह के बर्तन अब होते हैं या नहीं, जिनमें हम चावल मिलाकर खाते थे. ग़ालिब को पढ़ने के बाद मुझे अहसास हुआ कि यह शब्द है कड़ा.''
"इस तरह के कई वाक्य होते थे जैसे "तारा 'दीदार' तो जो," [बस अपनी शक्ल-सूरत पर ध्यान दो], "तरु 'खामिस' धोवा आप [मुझे शर्ट धोने को रखने दो], "मोनमथी एक 'हरफ' कधतो नाथी [क्या आप अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं बोल सकते?]'' या वह कहती, ''मुल्लाने त्यंथि 'गोश' लाई आव [जाओ मुल्ला के घर से कुछ गोश ले आओ]. यह शब्द गोश्त है लेकिन बोलचाल की भाषा में हम इसे गोश कहते हैं. ये शब्द जो हमारी बोली का हिस्सा थे, अब भुलाए जा रहे हैं. जब भी मैं उर्दू कविताओं में ये शब्द देखता हूं तो मुझे वहां अपनी मां की छवि दिखाई देती है.”
अब चीज़ें अलग हैं, जलवायु, शहर का भूगोल. वह कहते हैं, “तब सभी समुदायों के लोग अहमदाबाद की चारदीवारी के अंदर एक साथ रहते थे. संस्कृति सांप्रदायिक नहीं थी. दीवाली के दौरान हमारे मुस्लिम दोस्तों को हमारे घरों से मिठाइयां और नमकीन मिलता था. हम एक दूसरे को गले लगाते थे. हम सभी मुहर्रम के दौरान ताज़िया जुलूस देखने जाते थे. उनमें से कुछ सुंदर, बारीक़ी से सजाए गए गुंबद होते थे. छोटे बच्चे उनके नीचे से गुज़रते थे और उनकी ख़ुशी और सेहत की दुआ मांगते थे.”
आदान-प्रदान हुआ करता था, एक सच्चा, खुला आदान-प्रदान. वे कहते हैं, ''अब हम अलग जलवायु में रह रहे हैं और यह हमारी भाषाओं में दिखता है, लेकिन कविता में उम्मीद बाक़ी है. मैं मराठी, पंजाबी, बंगाली जानता हूं और इनमें से कई शब्द उर्दू में ले आता हूं. क्योंकि मेरा मानना है कि केवल कविता में ही इन्हें बचाया जा सकता है.”
शब्द क्या हैं, इंसान
के अनुभवों का संसार ही तो हैं.
यह कहानी अलग-अलग जगहों से और पारीभाषा सदस्यों - देवेश (हिंदी), जोशुआ बोधिनेत्र (बांग्ला), कमलजीत कौर (पंजाबी), मेधा काले (मराठी), मोहम्मद क़मर तबरेज़ (उर्दू), निर्मल कुमार साहू (छत्तीसगढ़ी), पंकज दास (असमिया), प्रणति परिदा (उड़िया), राजसंगीतन (तमिल), राजीव चेलनाट (मलयालम), स्मिता खटोर (बांग्ला), स्वर्ण कांता (भोजपुरी), शंकर एन. केंचनुरु (कन्नड़), और सुधामयी सत्तेनपल्ली (तेलुगु) के योगदान से संभव हो पाई है.
हम जयंत परमार (उर्दू में लिखने वाले गुजराती दलित कवि), आकांक्षा, अंतरा रमन, मंजुला मस्तिकट्टे, पी, साईनाथ, पुरुषोत्तम ठाकुर, रीतायन मुखर्जी, संकेत जैन और उनके योगदान के लिए उनके आभारी हैं.
यह कहानी प्रतिष्ठा पांड्या ने पी. साईनाथ, प्रीति डेविड, स्मिता खटोर और मेधा काले के सहयोग से संपादित की है. अनुवाद सहयोग- जोशुआ बोधिनेत्र, फ़ोटो संपादन और लेआउट - बिनाइफ़र भरुचा.
अनुवाद: अजय शर्मा और देवेश