सारी ज़िंदगी
मैं इस नाव को खेता रहा हूं, दिन-रात
नज़र के सामने किनारा भी नहीं.
इतना विशाल समंदर है
और फिर आता है तूफ़ान;
नहीं मिलता किनारे का पता
जहां मैं पहुंच पाऊं.
लेकिन
मैं ये पतवार नहीं छोड़ सकता.
और उन्होंने पतवार नहीं छोड़ी. जीवन के आख़िरी पलों में भी नहीं, जब वह फेफड़ों के कैंसर से हारी हुई जंग लड़ रहे थे.
यह उनके लिए बहुत तक़लीफदेह समय था. उन्हें अक्सर सांस लेने में दिक़्क़त होती थी. जोड़ों में दर्द रहता था. अनीमिया, वज़न में कमी जैसी और भी कई समस्याएं थीं. वह बहुत देर तक बैठने पर थकान महसूस करने लगते थे. मगर वजेसिंह पारगी अपने अस्पताल के कमरे में हमसे मिलने और जीवन व कविता के बारे में बात करने को तैयार थे.
उनके आधार कार्ड के मुताबिक़ उनका जन्म दाहोद ज़िले के इटावा गांव में एक ग़रीब भील आदिवासी समुदाय में हुआ था. मगर ज़िंदगी उनके प्रति कभी दयालु नहीं रही.
चिस्का भाई और चतुरा बेन के सबसे बड़े बेटे के बतौर अपने बड़े होने के अनुभवों का ज़िक्र करते हुए वजेसिंह एक लय में बस एक शब्द दोहराते जाते हैं, "ग़रीबी...ग़रीबी." फिर एक संक्षिप्त विराम आता है. अपना चेहरा दूसरी ओर घुमाकर वह अपनी धंसी हुई आंखें रगड़ते हैं, मगर बचपन की उन ज़िद्दी छवियों से छुटकारा पाने में विफल रहते हैं जो उनकी नज़रों के आगे तेज़ी से तैरती रहती हैं. “खाने के लिए घर में कभी पैसे नहीं होते थे.”
ख़त्म हो जाएगा जीवन
मगर हर रोज़ खटने की यह आदत नहीं जाएगी.
रोटी का घेरा
बहुत बड़ा है
इतना कि धरती छोटी पड़ जाती है.
भूख में जीने वालों से ज़्यादा
किसे मालूम
एक रोटी का मोल,
जो ले जाती है न जाने किन अंधेरों में.
वजेसिंह, दाहोद के कायज़र मेडिकल नर्सिंग होम में अस्पताल के बिस्तर पर बैठे-बैठे हमें अपनी कविताएं पढ़कर सुनाते हैं, जहां उनका इलाज चल रहा था
वजेसिंह स्वीकार करते हैं, ''मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए, पर हमारे माता-पिता ऐसे थे जिन पर हम गर्व नहीं कर सकते थे.'' उनका पहले से कमज़ोर शरीर गहरी पीड़ा और शर्म के बोझ तले और सिकुड़ जाता है, "मुझे पता है कि मुझे ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, पर लगता है कि बस शब्द निकल आए." दाहोद के कायज़र मेडिकल नर्सिंग होम के छोटे से कमरे के एक कोने में टिन के स्टूल पर बैठी उनकी लगभग 85 वर्षीय बूढ़ी मां मुश्किल से ही कुछ सुन पाती हैं. “मैंने अपने माता-पिता को केवल संघर्ष करते देखा. मां और पिता खेतों में मज़दूरी करते थे.” उनकी दो बहनें, चार भाई और माता-पिता गांव में एक छोटे, एक कमरे वाले, ईंट और मिट्टी के बने घर में रहते थे. यहां तक कि जब वजेसिंह रोज़गार की तलाश में इटावा छोड़कर अहमदाबाद आए, तब भी वह थलतेज चॉल में एक छोटे से किराए की जगह में रहते थे. उस जगह उनके सबसे क़रीबी दोस्त भी शायद ही कभी गए हों.
खड़ा होता हूं,
तो छत से टकराता हूं
सीधा लेटता हूं,
तो दीवार से लड़ जाता हूं.
फिर भी किसी तरह काट ली सारी उम्र
यहीं, सिमटकर.
और मेरे काम क्या आई?
मां के कोख में पलटने की
आदत.
अभाव और ग़रीबी की कहानी अकेले वजेसिंह की नहीं है. यह उस इलाक़े की पुरानी और आम कहानी है, जहां कवि का परिवार रहता है. दाहोद ज़िले में क़रीब 74 फ़ीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति की है, जिनमें से 90 फ़ीसदी खेतीबाड़ी में लगी रहती है. मगर खेतों का छोटा आकार और कम उत्पादकता, ख़ासकर शुष्क और सूखे वाली ज़मीन से समुचित आय नहीं हो पाती. और ताज़ा बहुआयामी ग़रीबी का सर्वेक्षण देखें, तो इस इलाक़े में ग़रीबी दर राज्य की तुलना में सबसे ज़्यादा 38.27 प्रतिशत है.
वजेसिंह की मां चतुराबेन मां के बतौर अपने जीवन के बारे में बताती हैं, "घनी तकली करी ने मोटा करिया से ए लोकोने धंधा करी करी ने. मझूरी करीने, घेरनु करीने, बिझानु करीने खवाड्यु छ. [मैंने कड़ी मेहनत की. घर पर काम किया, दूसरों के यहां काम किया और किसी तरह उन्हें कुछ खाने के लिए लाकर दिया.]” कभी-कभी वे केवल ज्वार के दलिया पर गुज़ारा करते थे, भूखे स्कूल जाते थे. वह कहती हैं, बच्चों को पालना कभी आसान नहीं था.
गुजरात के वंचित समुदायों की आवाज़ को जगह देने वाली पत्रिका, निर्धार के 2009 के अंक में दो भाग में लिखे अपने संस्मरण में वजेसिंह बड़े दिल वाले एक आदिवासी परिवार की कहानी सुनाते हैं. जोखो दामोर और उनका परिवार उन युवा लड़कों को खाना खिलाने के लिए भूखा रहता है, जो उस शाम उनके घर आने वाले थे. इस घटना के बारे में वह बताते हैं कि उनमें से पांच साथी स्कूल से लौटते हुए भारी बारिश में फंस गए थे और उन्होंने जोखो के घर शरण ली थी. वजेसिंह कहते हैं, "भादरवो हमारे लिए हमेशा भुखमरी का महीना होता था." भादरवो गुजरात में प्रचलित हिंदू विक्रम संवत कैलेंडर का 11वां महीना है, जो अमूमन ग्रेगोरियन कैलेंडर में सितंबर के साथ मेल खाता है.
“घर में रखा अनाज ख़त्म हो जाता था. खेत की उपज अभी तैयार नहीं होती थी और इसलिए खेत हरे होने पर भी भूखे रहना हमारी नियति बन जाती थी. उन महीनों में केवल कुछ इक्का-दुक्का घरों में ही आपको दिन में दो बार चूल्हा जलता मिलता था. और अगर पिछले साल सूखा पड़ा हो, तो कई परिवारों को उबला हुआ या भुना हुआ महुआ खाकर गुज़ारा करना पड़ता था. भीषण ग़रीबी एक अभिशाप थी, जिसमें हमारे समुदाय का जन्म हुआ था.''
वजेसिंह कहते हैं कि मौजूदा पीढ़ी के उलट उन दिनों लोग अपना घर-गांव छोड़कर मज़दूरी की तलाश में खेड़ा, वड़ोदरा या अमदाबाद के लिए पलायन करने के बजाय भूख से तड़पकर मरना पसंद करते थे. समुदाय में शिक्षा को ज़्यादा महत्व हासिल नहीं था. “चाहे हम जानवर चराने जाएं या स्कूल, सब बराबर था. यहां तक कि हमारे माता-पिता और शिक्षक भी बस इतना ही चाहते थे- बच्चे पढ़ना-लिखना सीख जाएं. बस इतना ही. कौन यहां ज़्यादा पढ़कर दुनिया पर राज करना चाहता था!”
हालांकि, वजेसिंह के कुछ सपने थे - पेड़ों के साथ उछलकूद करने, परिंदों से बातें करने, समुद्र के पार परियों के पंखों पर उड़ने के. उन्होंने उम्मीद थी - देवताओं द्वारा उन्हें मुसीबतों से बचाने की, सच की जीत और झूठ की हार देखने की, ईश्वर के कमज़ोरों के पक्ष में खड़े होने की, बिल्कुल वैसे ही जैसे उनके दादाजी की बताई कहानियों में होता था. लेकिन ज़िंदगी इस काल्पनिक कहानी से एकदम उलट निकली.
फिर भी उम्मीद का वह बीज
कभी सूखा नहीं
जो बचपन में दादा ने बोया था -
कि कोई चमत्कार हो सकता है.
इसीलिए मैं जी रहा हूं
यह असहनीय जीवन
आज भी, हर रोज़,
इस उम्मीद में
कि कोई चमत्कार होने वाला है.
यही उम्मीद उन्हें जीवन भर अपनी शिक्षा के लिए संघर्ष करने को मजबूर करती रही. एक बार जब वह तक़रीबन संयोग से शिक्षा की राह पर आ गए, तो उन्होंने इसे जुनून के साथ जारी रखा. तब भी, जब उन्हें स्कूल पहुंचने के लिए छह से सात किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था या छात्रावास में रहना पड़ता था या भूखे सोना पड़ता था या भोजन के लिए घर-घर भटकना पड़ता था या प्रधानाध्यापक के लिए शराब की बोतल ख़रीदनी पड़ती थी. उन्हें यह पता था कि वह अपनी शिक्षा जारी रखेंगे, जबकि गांव में कोई उच्चतर माध्यमिक विद्यालय नहीं था, दाहोद आने-जाने के लिए कोई परिवहन का साधन नहीं था और दाहोद में जगह किराए पर लेने के लिए पैसे तक नहीं थे. उन्होंने तब भी पढ़ाई जारी रखी, जब ख़र्चे पूरा करने के लिए मिस्त्री का काम करना पड़ा, रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर रातें गुज़ारनी पड़ीं, भूखे सोना-जागना पड़ा और बोर्ड परीक्षा में बैठने से पहले तैयार होने के लिए सार्वजनिक बाथरूम का इस्तेमाल करना पड़ा.
वजेसिंह ने ठान लिया था कि वह ज़िंदगी से हार नहीं मानेंगे:
अक्सर जीने के क्रम में
मुझे चक्कर आते हैं
दिल तेज़ी से धड़कता है
और मैं भहरा पड़ता हूं.
फिर भी हर बार
मेरे भीतर उठ खड़ा होता है
जीने की चाह में धड़कता, न मरने का संकल्प
और ख़ुद को अपने पैरों पर वापस खड़ा पाता हूं
एक बार फिर से जीने को तैयार होता हूं.
जिस असली शिक्षा का उन्होंने सबसे अधिक आनंद लिया, वह तब शुरू हुई, जब उन्होंने गुजराती में बी.ए. की पढ़ाई के लिए नवजीवन आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज में दाख़िला लिया. स्नातक की डिग्री पूरी करके उन्होंने मास्टर्स के लिए पंजीकरण कराया. हालांकि, एम.ए. के पहले साल के बाद वजेसिंह ने पढ़ाई छोड़ दी और इसके बजाय बी.एड करने का फ़ैसला किया. उन्हें पैसे की ज़रूरत थी और वह शिक्षक बनना चाहते थे. जैसे ही उन्होंने अपना बी.एड. किया, तभी एक लड़ाई में वजेसिंह को गोली लग गई, जो इस युवा आदिवासी के जबड़े और गर्दन को चीरती हुई निकल गई. यह दुर्घटना उनके जीवन को बदलने वाली साबित हुई, क्योंकि इस चोट के कारण वजेसिंह की आवाज़ पर भी असर पड़ा. सात साल के इलाज और 14 सर्जरी और बड़े क़र्ज़ के बाद भी वह इससे कभी नहीं उबर पाए.
यह उनके लिए दोहरा झटका था. वह ऐसे समुदाय में जन्मे थे जिसकी पहले ही कोई सुनवाई नहीं थी, अब क़ुदरत से मिली उनकी ख़ुद की आवाज़ भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. उन्हें शिक्षक बनने का सपना छोड़ना पड़ा और मज़दूरी करनी पड़ी. उन्होंने सरदार पटेल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इकोनॉमिक एंड सोशल रिसर्च में संविदा पर काम किया, और बाद में प्रूफ़ रीडिंग का काम करने लगे. प्रूफ़रीडर के बतौर अपने काम के दौरान वजेसिंह अपने पहले प्रेम, यानी अपनी भाषा से फिर जुड़ पाए. इस दौरान उन्हें पिछले दो दशकों में लिखा गया बहुत कुछ पढ़ने को मिला.
और उन्होंने क्या पाया?
वह बड़े उत्साह से कहते हैं, ''मैं आपको खुलकर बताता हूं कि मैं भाषा के बारे में क्या सोचता हूं. गुजराती साहित्यकार भाषा को लेकर पूरी तरह लापरवाह हैं. कवि शब्दों के प्रयोग को लेकर कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाते. उनमें से ज़्यादातर केवल ग़ज़लें लिखते हैं और उन्हें केवल भावनाओं की परवाह है. वे सोचते हैं कि यही अहम है. शब्द का क्या है, वो तो वहीं हैं." शब्दों की सूक्ष्म समझ, उन्हें बरतने का तरीक़े और कुछ अनुभवों को बयान करने की उनकी शक्ति को वजेसिंह अपनी कविताओं में लाए, जो दो खंडों में संकलित हैं. ये कविताएं मुख्यधारा के साहित्य से दूर और लोगों के लिए अनजान ही रही हैं.
उन्हें कभी एक कवि के रूप में क्यों नहीं देखा गया, इस बात का वह तर्क देते हैं, "मुझे लगता है कि आपको और ज़्यादा लगातार लिखना होता है. अगर मैं एक या दो कविताएं लिखूं, तो कौन परवाह करेगा? ये दोनों संग्रह हाल के हैं. मैंने प्रसिद्धि पाने के लिए नहीं लिखा. मैं नियमित रूप से लिख भी नहीं पाया. मुझे लगता है कि मैंने बहुत गंभीरता से भी नहीं लिखा. भूख हमारे जीवन के साथ गहरे गुथी हुई थी, इसलिए मैंने उसके बारे में ही लिखा. वह सहज अभिव्यक्ति बन गई थी.” वह पूरी बातचीत के दौरान ख़ुद को ज़्यादा भाव नहीं हैं - न किसी को दोष देते हैं, न पुराने घाव कुरेदने को तैयार, न ही अपने हिस्से की रोशनी का दावा करने को तैयार. लेकिन उन्हें इसका पता पूरी तरह था कि...
कोई निगल गया है
हमारे हिस्से का प्रकाश,
और हम
सूरज के साथ जलते रहते हैं
ज़िंदगी भर
और फिर भी कभी कुछ
रौशन नज़र नहीं आता.
प्रूफ़रीडर के रूप में उनका पेशेवर जीवन पूर्वाग्रहों, उनके हुनर को कम करके आंकने और भेदभावपूर्ण व्यवहार की घटनाओं से भरा रहा. एक बार एक मीडिया हाउस में 'ए' ग्रेड के साथ प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी उन्हें 'सी' ग्रेड के साथ पास होने वालों को मिलने वाले वेतन से भी कम मेहनताने पर एक पद की पेशकश की गई थी. वजेसिंह परेशान थे; उन्होंने इस फ़ैसले के पीछे के सिद्धांतों पर सवाल उठाया और अंत में उस पेशकश को ठुकरा दिया.
अहमदाबाद में उन्होंने अलग-अलग मीडिया घरानों के साथ बहुत कम पैसों पर छोटे-मोटे अनुबंध पर काम किया. किरिट परमार जब अभियान के लिए लिखते थे, तब उनकी पहली मुलाक़ात वजेसिंह से हुई. वह कहते हैं, ''2008 में जब मैं अभियान से जुड़ा, तब वजेसिंह संभव मीडिया में कार्यरत थे. आधिकारिक तौर पर वह एक प्रूफ़रीडर थे, लेकिन हमें पता था कि जब हम उन्हें कोई लेख देते, तो वह उसे संपादित कर देते थे. वह लेख की संरचना और उसे आकार देने के लिए उसकी सामग्री पर काम करते थे. भाषा के मामले में भी उनके काम का तरीक़ा अद्भुत था. मगर उस आदमी को कभी उसका हक़ नहीं मिला, वह अवसर नहीं मिला जिसका वह हक़दार था.''
संभव मीडिया में वह महीने में बमुश्किल 6,000 रुपए कमाते थे. वह जो पैसा कमाते, वह कभी भी उनके परिवार की देखभाल, उनके भाई-बहनों की शिक्षा और अहमदाबाद में जीवन जीने के लिए काफ़ी नहीं होता था. उन्होंने ‘इमेज प्रकाशन’ के साथ फ्रीलांस काम करना शुरू कर दिया और दफ़्तर में सारा दिन काम करने के बाद फिर घर से काम करते थे.
उनके 37 वर्षीय सबसे छोटे भाई मुकेश पारगी कहते हैं, ''जबसे हमने अपने पिता को खोया है, तब से वही मेरे पिता थे, भाई नहीं. सबसे मुश्किल वक़्त में भी वजेसिंह ने मेरी शिक्षा का सारा ख़र्च उठाया. मुझे याद है कि वह थलतेज में एक टूटे हुए छोटे से कमरे में रहते थे. उनके कमरे की टिन की छतों पर, हम रात भर कुत्तों को इधर-उधर भागते सुनते थे. वह जो 5,000-6,000 रुपए कमाते थे, उसमें वह मुश्किल से अपना ख़याल रख पाते थे, पर उन्होंने दूसरे काम सिर्फ़ इसलिए किए, ताकि वह हमारी शिक्षा का ख़र्च उठा सकें. मैं इसे नहीं भूल सकता.”
पिछले पांच-छह वर्षों में वजेसिंह अहमदाबाद में एक निजी कंपनी से जुड़ गए थे, जो प्रूफ़रीडिंग सेवाएं देती थी. वजेसिंह ने बताया था, “मैंने जीवन में ज़्यादातर समय अनुबंध पर काम किया. सबसे ताज़ा मामला सिग्नेट इन्फ़ोटेक का है. गांधीजी के नवजीवन प्रेस के साथ उनका एक अनुबंध था, और इसलिए मैंने उनकी प्रकाशित किताबों पर काम करना बंद कर दिया. नवजीवन से पहले मैंने दूसरे प्रकाशनों के साथ काम किया था. लेकिन गुजरात में किसी भी प्रकाशक के पास प्रूफ़रीडर का कोई स्थायी पद नहीं होता."
मित्र और लेखक किरिट परमार के साथ बातचीत में वह कहते हैं, “गुजराती में अच्छे प्रूफ़रीडर ढूंढना मुश्किल होने की एक वजह है कम पारिश्रमिक. प्रूफ़रीडर भाषा का संरक्षक और हिमायती होता है. आख़िर हम कैसे उसके काम का सम्मान नहीं करते और उसे उचित भुगतान क्यों नहीं करते? हम एक लुप्तप्राय प्रजाति बनते जा रहे हैं. और यह नुक़सान गुजराती भाषा का नहीं, तो फिर किसका है.” वजेसिंह ने गुजराती मीडिया हाउसों की दयनीय स्थिति देखी थी, जो भाषा का सम्मान नहीं करते थे और जिनके लिए हर पढ़-लिख सकने वाला प्रूफ़रीडर बनने के लिए काफ़ी होता था.
वजेसिंह कहते हैं, ''साहित्य जगत में एक ग़लत सोच चलती है, वह यह कि एक प्रूफ़रीडर के पास ज्ञान, क्षमताएं या रचनात्मकता नहीं होती.'' दूसरी ओर वह गुजराती भाषा के संरक्षक बने रहे. किरिट भाई याद करते हैं, "गुजरात विद्यापीठ ने कोश में शामिल किए जाने वाले 5,000 नए शब्दों के लिए सार्थ जोड़नी कोश [एक प्रसिद्ध शब्दकोश] का पूरक छापा था और उसमें भयानक ग़लतियां थीं, न केवल वर्तनी की, बल्कि तथ्यात्मक त्रुटियां थीं और विवरण ग़लत थे. वजेसिंह ने इन सभी बातों को सावधानीपूर्वक दर्ज किया और जवाबदेही के लिए तर्क दिए. मुझे आज गुजरात में ऐसा कोई नहीं दिखता, जो वजेसिंह जैसा काम कर सके. उन्होंने राज्य बोर्ड की कक्षा 6, 7, 8 की पाठ्यपुस्तकों में मिली ग़लतियों के बारे में भी लिखा."
अपनी सारी प्रतिभा और क्षमताओं के बावजूद वजेसिंह के लिए दुनिया एक प्रतिकूल जगह ही बनी रही. हालांकि, वह उम्मीद और सहनशीलता के साथ लिखते रहे. वह जानते थे कि उन्हें अपने संसाधनों के सहारे ही जीना होगा. उनका भगवान से बहुत पहले ही भरोसा उठ चुका था.
मैं अपने एक हाथ में
भूख लिए पैदा हुआ
और दूसरे में मज़दूरी,
तुम ही कहो, मैं तीसरा हाथ कहां से लाऊं
और तुम्हारी पूजा करूं, प्रभु?
वजेसिंह की ज़िंदगी में अक्सर कविता ने ईश्वर की जगह ले ली. उनके साल 2019 में आगियानूं अजवालूं (जुगनू की रोशनी) और 2022 में झाकल ना मोती (ओस की बूंदों के मोती) नामक कविता संग्रह प्रकाशित हुए और मातृभाषा पंचमहाली भीली में उनकी कुछ कविताएं छपीं.
अन्याय, शोषण, भेदभाव और अभाव से भरे जीवन पर लिखी गई उनकी कविताओं में आक्रोश या ग़ुस्से का कोई संकेत नहीं मिलता. न कोई शिकायत. वह कहते हैं, “मैं किससे शिकायत करता? समाज से? हम समाज से शिकायत नहीं कर सकते. वह हमारी गर्दन मरोड़ देगा.”
कविता के ज़रिए वजेसिंह को निजी परिस्थितियों से ऊपर उठने और मानवीय स्थितियों के बारे में हक़ीक़त से जुड़ने का मौक़ा मिला. उनके अनुसार मौजूदा समय में आदिवासी और दलित साहित्य की नाकामी की वजह उसमें व्यापकता की कमी होना है. वह कहते हैं, “मैंने कुछ दलित साहित्य पढ़ा और मुझे लगा कि इसमें व्यापक मानवीय जुड़ाव की कमी है. इसमें हम पर हुए अत्याचारों के बारे में शिकायत मिलती है. मगर इसके बाद क्या? अभी आदिवासियों की आवाज़ उठ रही है. वे भी अपनी ज़िंदगी के बारे में ख़ूब लिखते हैं. लेकिन बड़े सवाल कभी नहीं उठाए जाते.''
दाहोद के कवि और लेखक प्रवीण भाई जादव कहते हैं, “जब मैं बड़ा हो रहा था, तो किताबें पढ़ते हुए सोचता था कि हमारे समुदाय, हमारे क्षेत्र से कोई कवि क्यों नहीं है. साल 2008 में मुझे पहली बार एक संग्रह में वजेसिंह का नाम मिला. आख़िर उस शख़्स को ढूंढने में मुझे चार साल लग गए! और उससे मुझे मिलने में थोड़ा समय और लगा. वह मुशायरों में जाने वाले कवि नहीं थे. उनकी कविताएं हमारे दर्द, हाशिए पर पड़े लोगों की ज़िंदगी के बारे में बात करती हैं."
वजेसिंह के भीतर कविता उनके कॉलेज के वर्षों के दौरान फूटी. किसी गंभीर तलाश या प्रशिक्षण के लिए उनके पास समय नहीं था. वह बताते हैं, ''मेरे दिमाग़ में पूरे दिन कविताएं घूमती रहती हैं. वे मेरे वजूद की बेचैन अभिव्यक्ति हैं, जिसे कभी-कभी शब्द मिलते हैं और जो कभी-कभी बचकर भी निकल जाती है. इसमें से बहुत कुछ अकथ ही रह गया है. मैं किसी लंबी प्रक्रिया को अपने दिमाग़ में नहीं रख पाता. इसीलिए मैंने यह रूप-संरचना चुनी. और अभी भी बहुत सी कविताएं अलिखित रह गई हैं.”
जानलेवा बीमारी - फेफड़े के कैंसर ने पिछले दो साल में अलिखित कविताओं के ढेर में और इज़ाफ़ा कर दिया. और अगर कोई वजेसिंह के जीवन और कष्टों के बावजूद उनकी उपलब्धियां देखे, तो उसे अहसास होना शुरू होता है कि क्या-क्या अलिखित रह गया. 'जुगनुओं की टिमटिमाती रोशनी' जिसे उन्होंने न केवल अपने, बल्कि अपने समुदाय के लिए भी संभालकर रखा था, अलिखित छूट गई है. बिना किसी सुरक्षात्मक सीप के खिलने वाले उनके 'ओस की बूंद के मोती' अलिखित रह गए हैं. एक क्रूर और कठोर दुनिया में करुणा और सहानुभूति बनाए रखने वाली आवाज़ के चमत्कारी गुण अलिखित ही रह गए. हमारी भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों की सूची में वजेसिंह पारगी का नाम अलिखित ही रह गया है.
मगर वजेसिंह क्रांति के कवि नहीं थे. उनके लिए शब्द चिंगारी भी नहीं थे.
मैं पड़ा इंतज़ार करता हूं
हवा के उस एक झोंके का
क्या हुआ जो मैं राख का ढेर हूं,
मैं आग नहीं हूं
नहीं जला सकता घास का एक तिनका भी.
लेकिन मैं उनकी आंखों में ज़रूर पड़ जाऊंगा
और गडूंगा,
उनमें से एक को तो मजबूर कर दूंगा
आंखें रगड़कर लाल करने को.
और अब वह हमें अपनी क़रीब 70 अप्रकाशित कविताओं के साथ छोड़कर जा चुके हैं, जो हमारी आंखों में गड़ने और विवेक को हिलाकर रख देने की पूरी क्षमता रखती हैं. हम भी हवा के उस झोंके का इंतज़ार कर रहे हैं.
झूलड़ी*
जब मैं बच्चा था
बापा ने मुझे झूलड़ी लाकर दी थी
पहली बार धोने के बाद वह सिकुड़ गई,
उसका रंग चला गया,
और धागे ढीले पड़ गए.
अब मुझे वह पसंद नहीं थी.
मैं झुंझलाया -
मैं यह झूलड़ी नहीं पहनूंगा.
मां ने सिर पर हाथ फेरा
और मुझे मनाया,
“इसे पहनो, जब तक फट न जाए, बच्चे.
फिर हम नया ला देंगे, ठीक है?”
आज यह शरीर उसी झूलड़ी की तरह लटक गया है
जिससे मुझे नफ़रत थी.
हर तरफ़ झुर्रियां लटक रही हैं,
शरीर के जोड़ तो गोया पिघलने लगे हैं,
मैं सांस भरता हूं, तो कांपता हूं
और मेरा दिमाग़ झुंझलाता है -
मुझे अब यह शरीर नहीं चाहिए!
जब मैं इस देह की गिरफ़्त से छूटने को हूं,
मुझे मां और उसकी मीठी बातें याद आती हैं -
“इसे पहनो, जब तक फट न जाए, बच्चे!
एक बार यह चला गया, तो...
गुजराती की उनकी अप्रकाशित कविता से अनूदित.
*झूलड़ी एक पारंपरिक कढ़ाई वाला ऊपरी परिधान है, जिसे आदिवासी समुदायों के बच्चे पहनते हैं.
लेखिका, वजेसिंह पारगी को हार्दिक आभार व्यक्त करती हैं, जिन्होंने मृत्यु से कुछ दिन पहले हमसे बात की. इस लेख को संभव बनाने में मदद के लिए मुकेश पारगी, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता कांजी पटेल, निर्धार के संपादक उमेश सोलंकी, वजेसिंह के मित्र और लेखक किरिट परमार और गलालियावाड प्राइमरी स्कूल के शिक्षक सतीश परमार का भी धन्यवाद.
इस लेख में प्रयुक्त सभी कविताएं वजेसिंह पारगी ने गुजराती में लिखी थीं और प्रतिष्ठा पंड्या ने उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है. इन कविताओं का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद देवेश ने किया है.
अनुवाद:
कविता: देवेश
स्टोरी टेक्स्ट: अजय शर्मा