शिल्पकार अपनी कुल्हाड़ी को अपने माथे की ऊंचाई तक उठाता है और उससे लकड़ी के कुंदे पर मारता है. उसकी आवाज़ से कोई दस फीट दूर बैठी मैं चिहुंक उठती हूं. उसकी पीठ से लुढ़ककर पसीने की बूंदें सूती के कच्छे के ऊपर उसकी कमर से लिपटे तौलिए को भिगोने लगती हैं. ठक! वह लकड़ी पर दोबारा कुल्हाड़ी चलाता है. लकड़ी के फटते ही खपच्चे छिटककर दूर-दूर तक जाते हैं. शिल्पकार का नाम एम. कामाची है. बहुत पहले वह एक खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करते थे. वह अपनी गर्दन उठाए बिना मुझसे बात करते हैं, लेकिन उनकी आंखें कुल्हाड़ी की धार पर टिकी हैं.
कामाची पिछले 30 सालों से तंजावुर के एक बहुत पुराने बग़ान - शिवगंगई पूंगा - के निकट बने शेड के नीचे अपना वर्कशॉप चलाते रहे हैं. वह फ़िलहाल 67 साल के हैं, और लगभग 150 वर्ष पुराना यह बग़ान उनकी उम्र से दोगुना से भी ज़्यादा बड़ा है. पास में बना विशाल मंदिर - बृहदीश्वर कोविल - 1,100 साल पुराना है. जिस वाद्ययंत्र को वह आकार दे रहे हैं, ग्रंथों में उसके उल्लेख का इतिहास इन सबसे कहीं अधिक पुराना हैं. कामाची कटहल की लकड़ी के चार फुट के कुंदे से वीणई बना रहे हैं, जिसे आम तौर पर वीणा के नाम जाना जाता है.
कुंदे को स्थिर रखने के लिए वह अपने दाएं पैर का पंजा उस कुंदे के गड्ढे में डाले रखते हैं, जो तैयार हो जाने के बाद एक दिन वीणा का कुडम (अनुनादक) बनेगा. इसी हिस्से से आवाज़ गूंजकर दूर तक फैलती है. छावनी में धूल फैली है और यहां गर्मी भी है. कामाची का काम भारी और मेहनत से भरा है. अपनी मेहनत के बदले वह रोज़ाना लगभग 600 रुपए कमा लेते हैं. यह कारीगरी का काम है. कुल्हाड़ी की हर चोट के साथ उनके गले से घुरघुराहट की आवाज़ निकलती है. बीच-बीच में वह एक मोटे से तौलिए की मदद से अपने चेहरे पर छलक आए पसीने को पोछते रहते हैं.
कुछ घंटों तक लगातार छीलते रहने के बाद वह 30 किलोग्राम भारी कुंदे का वज़न लगभग 20 किलोग्राम कर देते हैं, और अब यह पट्टरई (कार्यशाला) में भेजे जाने के लिए पूरी तरह तैयार है, जहां इसे कारीगरों द्वारा चिकना करने के बाद पॉलिश किया जाएगा. कोई महीने भर बाद वाद्ययंत्र पूरी तरह से तैयार होकर किसी संगीतज्ञ के गोद की शोभा बढ़ाएगा और इससे कर्णप्रिय सुर फूटेंगे.
वीणा की उत्पत्ति तंजावुर में हुई थी. सरस्वती वीणा, जो तंजावुर वीणा का एक पुराना संस्करण है, भारत का राष्ट्रीय वाद्ययंत्र है, और ‘वैदिक युग’ से इसे मृदंगम और बांसुरी के साथ तीन ‘ दिव्य वाद्यों ’ में एक होने का गौरव प्राप्त है.
मृदंगम, कंजीरा, तविल, उडुक्कई आदि जैसे थाप से बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों की तरह, वीणा की अपनी यात्रा की शुरुआत पनरुती के बग़ानों से होती है. पनरुती, कडलूर का एक छोटा सा शहर है, जो अपने मीठे और गूदेदार कटहलों के कारण मशहूर है. लेकिन कटहल के साथ भारत के इन पुराने और प्रतिष्ठित वाद्ययंत्रों के संबंध के बारे में अधिक लोगों को नहीं पता है.
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“मुझे सुनने के पश्चात वह रुकने के लिए सहमत हो
गया,
बिल्कुल उस हाथी की तरह जिसे अंकुश से नहीं,
लेकिन
याल की ध्वनि से नियंत्रित किया जा सकता हो.”
तंजावुर की वीणा को भौगोलिक संकेतक (जीआई टैग) - जो इसे 2013 में प्राप्त हुआ - दिलाने के लिए दिए गए आवेदन (‘ स्टेटमेंट ऑफ़ केस ’) में तार वाद्य के इतिहास से संबंधित अनेक संदर्भ देखे जा सकते हैं, जो संगम काल (लगभग 2,000 साल पहले) तक जाते हैं. उस काल में वीणा जिस रूप में थी उसे ‘याल’ कहा जाता था.
“जिस चारण मुझसे कहा था
कि अगर तुम दूसरी औरतों के पास गए, तो वह मुझसे कुछ भी नहीं
छुपाएगा
और उसने कई बार अपनी याल की कसमें खाईं थीं,
क्या वह आएगा और तुम्हारी गर्दन पर उन औरतों की चूड़ियों से पड़ी
खरोंचों को देखेगा, जो तुम्हारी झूठी बातों का भरोसा करते हुए
तुम्हारे साथ होने को राज़ी हुईं?”
कलितोकई 71, संगम कविता में सहवासनी ने नायक से शिकायत की.
भौगोलिक संकेत से संबंधित दस्तावेज़ के अनुसार
कटहल की लकड़ी कच्ची सामग्रियों की श्रेणी में रखा जाने सामान है, जो उसमें इसके निर्माण
संबंधी तमाम विवरण मिलते हैं. इसमें वर्णित है कि चार-फुट लंबी वीणा “एक गोल और उभारदार
वाद्ययंत्र है, जिसकी गर्दन लंबी और मोटी है और इसके अंतिम सिरे पर नक्काशी करके एक
ड्रेगन का माथा बनाया गया होता है.”
अपने विवरण की तुलना में वीणा कहीं अधिक सुंदर दिखती है. इसमें जगह-जगह पर नक्काशी की गई होती है. ड्रेगन का माथा - जिसे याली भी कहते हैं - सुगढ़ और रंगीन होता है. लकड़ी की बनी गर्दन में 24 स्थिर घुंडियां लगी होती हैं और चार तने हुए तार बंधे होते हैं, जिनसे सभी राग बजाए जाते हैं. ‘विशिष्ट’ वीणा के ‘कुडम’ की डिज़ाइन जटिल और भिन्न होती है, और उनकी क़ीमत सामान्य वीणा से कम से कम दोगुनी ज़्यादा होती है.
मनुष्य के हाथों द्वारा एक वाद्ययंत्र में तब्दील होने से कोई 30 से 50 साल पहले पलामरम (कटहल के वृक्ष) तमिलनाडु के कडलूर ज़िले के पनरुती के आसपास के गांवों में पैदा हो रहे हैं. मवेशियों की तरह ही पेड़ भी एक निवेश है. ग्रामीण जनसंख्या उन्हें शेयर बाज़ार के स्टॉक जैसा मानती है, जिसका मूल्य स्वतः बढ़ता जाता है और जिसे बाद में बेचकर ख़ासा मुनाफ़ा कमाया जा सकता है. पनरुती शहर में कटहल के व्यापारी आर. विजयकुमार (40) बताते हैं कि जब तने की गोलाई आठ हाथ की हो जाती है और पेड़ 7 से 9 फीट ऊंचा हो जाता है, तो “ सिर्फ़ उसकी लकड़ी कम से कम 50,000 रुपए में बिकती है.”
जब तक संभव होता है, तब तक किसान पेड़ों को नहीं काटते हैं. “लेकिन कई बार पैसों की बहुत ज़रूरत पड़ जाती हैं. घर-परिवार में किसी की शादी हो या कोई बीमार पड़ गया हो, तो हम कुछ बड़े पेड़ बेच डालते हैं,” 47 वर्षीय कटहल के किसान के. पट्टुसामी बताते हैं. “इससे लाख-दो लाख मिल जाते हैं. किसी भी संकट से निपटने के लिए और कल्याणम [शादी] को संपन्न करने के लिए यह पर्याप्त होता है...”
कुंदों को तंजावुर ले जाने से पहले उसका सबसे अच्छा हिस्सा मृदंगम बनाने के लिए अलग रख लिया जाता है. मृदंगम थाप से बजाया जाने याला वाद्ययंत्र है. सुपरिचित संगीतज्ञ, लेखक, वक्ता और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता टी. एम. कृष्णा ने अपनी किताब सेबेस्टियन एंड संस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ मृदंगम* मेकर्स में इस वाद्य को बनाने वाले गुमनाम कारीगरों के बारे में लिखा है.
लेकिन पहले इस वाद्ययंत्र “मृदंगम 101”, जैसा कि कृष्णा ने इसे नाम दिया है, की बात कर लेते हैं. मृदंगम एक “दोतरफ़ा गोलाकार ढोल है, और कर्नाटिक* संगीत और भरतनाट्यम की प्रस्तुतियों में थापों की मदद से बजाया जाने वाला वाद्य है. यह कटहल की लकड़ी से बनाया गया एक खोखला गुंजायमान वाद्ययंत्र है.” इसके दोनों सिरों को तीन-तीन तहों से बंद किया जाता है.
कृष्णा लिखते हैं कि कटहल की लकड़ी मृदंगम बनाने के लिए सबसे “पवित्र वस्तु” मानी जाती है. “यदि कटहल का पेड़ मंदिर के निकट लगा हो, तो इसकी पवित्रता और बढ़ जाती है. मंदिर की घंटियों की ध्वनि और वैदिक मन्त्रोच्चारों से लकड़ी में दैवीय गुण समाहित होते हैं, और वाद्य के अनुनाद की दिव्यता अतुलनीय रूप से बढ़ जाती है. मणि अय्यर जैसे कलाकार ऐसे पवित्र की लकड़ी प्राप्त करने के लिए किसी भी सीमा तक चले जाते हैं.
कुप्पुसामी आसारी, जो अपने परिवार में यह वाद्ययंत्र बनाने वाली तीसरी पीढ़ी के कलाकार हैं, कृष्णा से बताते हैं, “ऐसी मान्यता है कि किसी गिरिजा या मंदिर या कोई सड़क ही सही, जहां लोगबाग़ आते-जाते या बोलते-बतियाते हैं या जहां घंटियां बजती हैं, वहां के पेड़ वातावरण के तरंगों को अपने भीतर समाहित कर लेते हैं और अच्छी ध्वनियां निकालते हैं.”
बहरहाल कृष्णा पाते हैं कि “जहां एक तरफ़ मृदंगम वादक जहां यह मानते हैं कि वैदिक मंत्रोच्चारों और मंदिर की घंटियों में दैवीय प्रभाव होते हैं, वहीं लकड़ी के शिल्पकार सामान्यतः अपनी सार्वभौमिक और उदार आस्था के कारण सकारात्मक तरंगों की खोज की बात करते हैं.”
अप्रैल 2022 में, मैं कटहल के किसानों और व्यापारियों से मिलने के उद्देश्य से पनरुती शहर गई थी. दोपहर के समय जब मैं चहलकदमी करती हुई कुप्पुसामी आसारी के व्यस्त वर्कशॉप में पहुंची, तो मैंने पाया कि यह एक साथ परंपरागत और आधुनिक दोनों है. वहां तरह-तरह के खराद और मशीनें थीं, और पुराने ज़माने के उपकरण और देवी-देवताओं की तस्वीरें भी लगी थीं. यह सब कमोबेश कुप्पुसामी के मृदंगम बनाने के तौर-तरीक़ों से मिलता-जुलता था.
“पूछिए, आप जो पूछना चाहती हैं,” कुप्पुसामी कहते हैं. वह थोड़ी जल्दी में हैं; वह एक व्यस्त आदमी हैं. “आप क्या जानना चाहती हैं?” कटहल की लकड़ी ही क्यों, मैं पूछती हूं. “क्योंकि पलामरम की लकड़ी इसके लिए सबसे उपयुक्त है,” वह कहते हैं. “यह हल्की होती है और इससे निकलने वाली नादम [धुन] बहुत अच्छी होती है. यहां हम थाप से बजने वाले सभी वाद्ययंत्र बनाते हैं. वीणा को छोड़कर सभी कुछ.” कुप्पुसामी एक बहुत प्रतिष्ठित शिल्पकार हैं. “आप हमारे बारे में टी. एम. कृष्णा की किताब में भी पढ़ सकती हैं,” वह गर्व से कहते हैं. “उसमें खराद मशीन पर काम करते हुए मेरी एक फ़ोटो भी है.”
कुप्पुसामी, चेन्नई के एक उपनगर माधवरम में प्रशिक्षण लिया था और उनके पास लगभग “50 साल का अनुभव है.” उन्होंने 10 साल की उम्र से सीखना शुरू किया था. वह अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं, और लकड़ी में कारीगरी करने में उनकी गहरी रुचि है. “उस समय सभी काम हाथ से ही किए जाते थे. मेरे पिता पलामरम पर काम करते थे, और वंडि सक्करम [गाड़ी के पहिए] पर चढ़ाकर उसे भीतर से खोखला करते थे. दो लोग मिलकर पहिए को घुमाते थे, और अप्पा उसे भीतर से खुरचते थे.” लेकिन उनके परिवार ने जल्दी ही तकनीक को अपना लिया. “हम समय के साथ बदलते रहे.”
सामान्यतः दूसरे शिल्पकारों की तुलना में वह आधुनिक यंत्रों को लेकर बेहद उत्साहित रहते हैं. “देखिए, पहले मृदंगम के बिचले हिस्से को खोखला करने में आपका पूरा दिन लग जाता था. अब खराद मशीन की मदद से यह न केवल जल्दी हो जाता है, बल्कि अधिक अच्छी तरह होता है. काम भी ज़्यादा सफ़ाई से होता है.” पनरुती में खराद मशीन का उपयोग करने के मामले में वह अग्रणी शिल्पकार रहे है, और उन्होंने 25 साल पहले ही अपने वर्कशॉप में मशीन लगा लिया था. उनको देखकर ही कई दूसरे लोगों ने इस विचार को दूसरे शहरों में आज़माया.
“साथ-ही-साथ,” वह बताते हैं कि “मैंने चार-पांच दूसरे शिल्पकारों को थाप से बजाए जाने वाले वाद्यों को बनाना सिखाया. जब वे अच्छी तरह काम सीख गए, तब उन्होंने अपनी अलग दुकानें खोल लीं और अब चेन्नई के मयलापुर के उसी फुटकर व्यापारी से व्यापार करते हैं जिन्हें मैं सप्लाई करता हूं. वे अपना परिचय मेरे सहायक के रूप में देते हैं. ऐसे में वह दुकानदार मुझसे फ़ोन करके पूछता है: ‘आपने कितने लोगों को सिखाया है?’” मुझे यह कहानी सुनाते हुए कुप्पुसामी हंस पड़ते हैं.
उनके बेटे सबरीनातन ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. “मैंने उससे कहा कि नाप-जोख करना और वाद्ययंत्रों को बनाना सीख ले. अगर उसकी कहीं नौकरी लग भी जाएगी, तो कारीगर रखकर वह इस काम को जारी रख सकता है. है कि नहीं?”
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“आसारी मूलतः विश्वकर्मा समुदाय के सदस्य हैं. वे पदार्थों की कला से संबंधित लोग हैं, जो धातु, पत्थर और लकड़ियों पर शिल्पकारी करते हैं. इस समुदाय के बहुत से लोग अब अपनी रचनात्मक तलाश से अलग होकर अपने पेशे से मिलता-जुलता और जाति-आधारित मज़दूरी का काम अपना चुके हैं, और नई पीढ़ी के युवा सामाजिक रूप से किसी सम्मानजनक पेशे की ओर उन्मुख हो चुके हैं,” अपनी किताब सेबेस्टियन एंड संस में टी. एम. कृष्णा लिखते हैं.
“जब हम अनुवांशिक और जाति आधारित पेशे की बात करते हैं, हमें थोड़ा सतर्क होने की आवश्यकता है कि हम इसे ज्ञान के निर्माण के संदर्भ में अंतरपीढ़ीगत सातत्यता के रूप में एक रूमान की तरह महसूस नहीं करें, क्योंकि हमारी सामाजिक संरचना में सभी लोग और सभी पेशे एक बराबर नहीं हैं,” कृष्णा रेखांकित करते हैं. “जातिगत विशेषाधिकार वाले परिवारों में हस्तांतरित किए जाने वाले काम को, और इस तरह की जाति-सीमित साझेदारी का स्थायित्व का संरक्षण ज्ञान माना जाता है. इस अभ्यास में लोगों का कभी शोषण नहीं हुआ. वे पेशे और काम जिन्हें शोषित और वंचित समुदाय के लोग पीढ़ियों से करते आ रहे हैं, को ज्ञान नहीं माना जाता है, और न ही इन पेशों से जुड़े लोगों को ज्ञान का निर्माण करने वाला समझा जाता है. उन्हें नीची दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें कोई मूल्य नहीं समझा जाता, और उनके काम को मात्र शारीरिक श्रम की श्रेणी में रखा जाता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जो लोग ये काम करते हैं उन्हें जातिगत शोषण और हिंसा का सामना करना पड़ता है. बहुत से मामलों में सामाजिक परिस्थितियों के कारण लोग विकल्पहीन हो जाते हैं और विवश होकर पारिवारिक जाति-आधारित पेशे को अपना लेते हैं.”
“इस देश में वाद्ययंत्र बनाने वाले शिल्पकारों की कभी बात भी की जाती है, तो तकनीकी शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है,” कृष्णा कहते हैं . “उन्हें महज़ एक मिस्त्री माना जाता है, जो किसी निर्माण-स्थल पर अपना काम करता है. मुख्य कर्ताधर्ता वाद्ययंत्र बजाने वाले को माना जाता है, और उसी को आर्किटेक्ट कहा जाता है. श्रेय देने में यह कंजूसी या अनुदारता का मुख्य कारण जाति है.”
कुप्पुसामी बताते हैं कि मृदंगम बनाने के काम में पुरुषों का वर्चस्व रहा है. “इस काम में गिनती की महिलाएं हैं, जो मुख्यतः चमड़े का काम करती हैं. लेकिन लकड़ी का सारा काम केवल पुरुषों द्वारा ही किया जाता है. लकड़ी उस पेड़ से लाई जाती है जिसमें अब कटहल नहीं फलते. “वे उन पेड़ों को ‘क्लोज’ कर देते हैं जो बूढ़े हो चुके हैं और अब नहीं फलते,” कुप्पुसामी कहते हैं. “और काटे गए हर दस पेड़ के बदले वे 30 पेड़ लगाते हैं.”
कुप्पुसामी चुनिंदा विवरण वाली लकड़ी को ही इस्तेमाल करते हैं. निजी तौर पर वह उन पेड़ों को पसंद करते हैं जो लगभग 9 या 10 फीट लंबे, स्थूल और मज़बूत होते हैं, और जो सड़क के किनारे या बाड़े के क़रीब लगे होते हैं. उनके हिसाब से पेड़ का निचला हिस्सा अधिक बेहतर होता है, जो अपेक्षाकृत गहरे रंग का होता है. इससे अनुनाद की दृष्टि से सबसे बढ़िया वाद्य बनता है.
एक दिन में वह छह मृदंगम के लिए लकड़ी को काटकर उसे आकार दे लेते हैं. लेकिन वाद्य को पूरी तरह बनाकर तैयार करने में उन्हें दो दिन अलग से लगते हैं. उनको इस काम में बहुत कम आमदनी होती है. अगर एक मृदंगम बनाने में उन्हें 1,000 रुपयों की भी कमाई हो जाए, तो उनके लिए यह संतोष की बात है, वह बताते हैं. उन्हें “मज़दूरों को इस काम के लिए 1,000 रुपए चुकाना पड़ता है. आप नहीं जानती यह कितनी मेहनत वाला काम है, वर्ना वे काम करने नहीं आएंगे.”
लकड़ी पूरे साल उपलब्ध नहीं रहती है. वह बताते हैं कि जब तक पेड़ों पर फल आते रहते हैं, तब तक कोई उन्हें नहीं काटता है. इसलिए उन्हें “मुझे लकड़ी स्टॉक में रखनी पड़ती है.” वह 25,000 रुपए की दर से 20 कुंदा ख़रीदने के लिए पांच लाख रुपयों का निवेश करते हैं. और यहां वह सरकार द्वारा हस्तक्षेप किए जाने की ज़रूरत को महसूस करते हैं. “अगर सरकार हमें लकड़ी ख़रीदने के लिए क़र्ज़ या अनुदान दे...तो यह बहुत अच्छी बात होती!”
कुप्पुसामी बताते हैं कि मृदंगम की मांग अच्छीख़ासी है. घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाज़ारों में इसकी अच्छी खपत है. “एक महीने में मैं लगभग 50 मृदंगम और 25 तविल बेचता हूं.” असल समस्या अच्छी क़िस्म की लकड़ी की उपलब्धतता और चार महीने तक उसे रखने की है. कुप्पुसामी कहते हैं, “सबसे अच्छी लकड़ी पनरुती के कटहल की होती है, जो सबसे अधिक मांग में रहती है.” इसका श्रेय वह इस इलाक़े की लाल मिट्टी की गुणवत्ता को देते हैं.
“लकड़ी के दस फीट लंबे लट्ठे - जिसकी क़ीमत लगभग 25,000 हज़ार रुपए होती है - से आप बमुश्किल तीन अच्छे मृदंगम बना सकते हैं.” हर काटी गई लकड़ी से संगीत नहीं पैदा होती है. उनसे कुप्पुसामी ज़्यादा से ज़्यादा छोटी उडुक्कई (हाथ में लेकर थाप से बजाया जाने वाला छोटा सा वाद्ययंत्र) बना पाते हैं.
एक अच्छे “कट्टई” की क़ीमत “एट्टु रूबा” होती है, कुप्पुसामी बताते हैं. “कट्टई” (लकड़ी या लट्ठ) शब्द का उपयोग वह मृदंगम के लकड़ी के बने गोलाकार हिस्से के संदर्भ में करते हैं, जबकि “एट्टु रूबा” का मतलब 8,000 होता है. वह बताते हैं कि यह “ओनाम नंबर” (गुणवत्ता की दृष्टि से श्रेष्ठतम) होता है, और ग्राहक इसे कभी लौटाते नहीं हैं. अन्यथा, यदि लकड़ी फट जाए, यदि नादम [ध्वनि] अच्छी न हो, तो ग्राहक उसे पक्का वापस पटक जाते हैं!”
आमतौर पर एक मृदंगम लंबाई में 22 या 24 इंच का होता है. वह बताते हैं कि इस वाद्य को सामान्यतः एक माइक्रोफोन के साथ बजाया जाता है. “कुतु [थिएटर] में जहां इसे माइक के बिना बजाया जाता है, वहां मृदंगम की लंबाई 28 इंच तक होती है, और उसका एक मुंह संकरा और दूसरा मुंह अधिक चौड़ा होता है. उसकी थाप की आवाज़ दूर तक सुनी जा सकती है, क्योंकि आवाज़ की यात्रा की गति बहुत तेज़ होती है.”
कुप्पुसामी लकड़ी के ढांचे की सप्लाई चेन्नई की एक म्यूजिकल कंपनी को करते हैं. प्रति महीने उनके ऑर्डरों की संख्या अनुमानतः 20 से 30 के बीच होती है. जब लकड़ी के ढांचे उन तक पहुंच जाते हैं, तो वे उन्हें चमड़े का काम करने वालों को दे देते हैं, जिससे मृदंगम को अंतिम रूप मिलता है. इस प्रक्रिया में 4,500 रुपए अतिरिक्त लगते हैं. “उसके बाद उन्हें ज़िप लगे एक झोले में रखा जाता है,” यह बताते हुए कुप्पुसामी का हाथ मृदंगम के ऊपर लगे एक काल्पनिक ज़िप को खोलने सा उपक्रम करता है.
एक अच्छी क़िस्म के मृदंगम की क़ीमत लगभग 15,000 रुपए होती है. कुप्पुसामी याद करते हैं कि किसी ज़माने में वे 50 और 75 रुपए में बिकते थे. “मेरे पिताजी मुझे लेकर मद्रास [अब चेन्नई] के मयलापुर जाया करते थे. हम वहां गुरुओं को मृदंगम की डिलीवरी करते थे. वे हमें करारे नकदी नोटों में क़ीमत अदा करते थे! तब मैं एक छोटा बच्चा था,” वह मुस्कुराते हैं.
कारईकुडी मणि, उमयालपुरम शिवरामन जैसे कर्नाटिक संगीत के महान मृदंगम वादकों ने कुप्पुसामी से अपने वाद्ययंत्र लिए हैं. “बहुत से विद्वान यहां आए हैं और उन्होंने हमसे अपना वाद्ययंत्र ख़रीदा.” वह जब यह बताते हैं, तो उनके स्वर में एक गौरव की झलक स्पष्ट महसूस की जा सकती है.
कुप्पुसामी हमें थाप से बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों से जुड़ी हुई अनेक कथाएं सुनाते हैं. उनकी कहानियों में पुरातन और आधुनिक दौर का दिलचस्प अन्तर्विरोध दिखता है. “क्या आप स्वर्गीय पालघाट मणि अय्यर को जानती हैं? उनका वाद्ययंत्र इतना भारी-भरकम हुआ करता था कि उसे उठाने के लिए उन्हें अलग से एक आदमी रखना पड़ता था!” भारी-भरकम मृदंगम की बहुत मांग रहती थी, क्योंकि उसकी आवाज़ बहुत “गनीर, गनीर” (ऊंची और स्पष्ट) थी. आज की पीढ़ी यह ज़हमत उठाने के लिए कतई तैयार नहीं होती, कुप्पुसामी बताते हैं.
“जब बाहर देश ले जाना होता है, तो लोगों को हल्के वाद्ययंत्र चाहिए होते हैं. वे उन्हें मेरे पास लेकर आते हैं और मैं उनका वज़न 12 से छह किलो तक कम कर देता हूं.” मैं पूछती हूं कि यह कैसे संभव है. “हम मृदंगम के खोखले पेट से लकड़ियां खुरचकर बाहर निकाल देते हैं,” वह बताते हैं. “हम उनका बीच-बीच में वज़न करते रहते हैं, जब तक कि वे छह किलो कम नहीं हो जाते हैं.”
आप कह सकते है कि मृदंगम का पेट काट लिया जाता है...
वह मृदंगम के अलावा थाप से बजाए जाने वाले दूसरे वाद्ययंत्र भी दुनिया भर में भेजते हैं. “मैं पिछले 20 सालों से उरुमि मेलम [दो-माथे वाले ड्रम] मलेशिया भेज रहा हूं. सिर्फ़ कोविड के समय हम ऐसा नहीं कर सके...”
कुप्पुसामी बताते हैं कि कटहल की लकड़ी मृदंगम, तविल, तबेला, वीणा, कंजीरा, उडुक्कई, पम्बई...जैसे वाद्ययंत्र बनाने के लिए सबसे उपयुक्त होती है. “मैं थाप से बजने वाले कोई 15 वाद्ययंत्र बना सकता हूं.”
वह दूसरे वाद्ययंत्र बनाने वाले शिल्पकारों के नामों से भी अवगत हैं. उनमें से वे कुछ के नाम और पते भी जानते हैं. “ओह, आप नारायणन से मिल चुकी हैं, जो वीणा बनाते हैं? वह तंजावुर के साउथ मेन स्ट्रीट में रहते हैं. वही न? वह हमारे परिचित हैं.” वीणा बनाना बहुत बारीक काम है, कुप्पुसामी बताते हैं. “एक बार मैं एक वीणा बनाते हुए देख रहा था. आसारी लकड़ी के नक्काशी किए हुए कुंदे पर काम कर रहे थे. मैं चुपचाप बैठ गया और उन्हें दो घंटे तक देखता रहा. कभी वह लकड़ी को काट रहे थे, कभी उसे आकार दे रहे थे, कभी उसे मिला रहे थे, फिर दोबारा काट कर आकार दे रहे थे...और वह घंटों यही करते रहे. यह देखना अद्भुत था...और मज़ेदार भी...”
*****
मैं वीणा बनाने वाले कारीगरों से 2015 में तंजावुर में एम. नारायणन के वर्कशॉप में पहली बार मिली थी. अगस्त 2023 में उन्होंने मुझे दोबारा आमंत्रित किया. “क्या आपको घर याद है? यह वही घर है जिसके बाहर एक पेड़ लगा हुआ है,” उन्होंने कहा. उनका इस तरह कहना आपको अजीब लग सकता है, लेकिन पुन्गई (करंज-इंडियन बीच) का वह पेड़ संभवतः साउथ मेन स्ट्रीट का एकमात्र पेड़ था. घर का पहला तल सीमेंट के बनी वीणा से सुसज्जित था. उनके घर के पिछले हिस्से में बना वर्कशॉप कमोबेश उसी अवस्था में था जैसा मैंने पहली बार देखा था. सीमेंट की बनी शेल्फ़ पर औज़ार रखे थे और दीवारों पर फ़ोटो और कैलेंडर टंगे हुए थे. वर्कशॉप की फर्श पर वीणा पड़ी थीं जो अभी बनाए जाने की प्रकिया में थीं.
जब वीणा शिवगंगई पूंगा से यहां आती है, तब वह स्थूल और भद्दे आकार के किसी लकड़ी के टुकड़े की तरह दिखती है. लेकिन वर्कशॉप तक पहुंचने के बाद औज़ार बदल जाते हैं, काम का तरीक़ा बदल जाता है, और स्वाभाविक है कि इसका परिणाम भी बदल जाता है. खोखले पेट वाले 16 इंच के लकड़ी के एक टुकड़े से नारायणन और उनके सहायक छीलने के बाद 14.5 इंच की मोटाई वाला कटोरा बनाते हैं, जिसके दीवारों की मोटाई केवल आधा इंच होती है. वह बताते हैं कि ऐसा करने के लिए वह एक कंपास का इस्तेमाल करते हैं, ताकि लकड़ी पर एक वृत्त बनाने के बाद उसे एक उल्ली (छीनी) की मदद से अतिरिक्त लकड़ी को छिलकर निकाला जा सके.
उनसे संगीत निकल पाए, इसके लिए लकड़ी को रुक-रुककर छिलना पड़ता है. रुकना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इससे लकड़ी को सूखने और तैयार होने में मदद मिलती है. बाहर-भीतर से अच्छी तरह सूख जाने के बाद लकड़ी का वज़न भी कम हो जाता है. फिर शिवगंगई पूंगा से आई लकड़ी के आकार को 30 ईंच से काटकर तंजावुर में 20 ईंच का कर दिया जाता है. वीणई पट्टरई में लकड़ी को और तब तक छीला जाता है, जब तक वह उठाने लायक आठ किलो के वज़न की न हो जाए.
अपने वर्कशॉप के ठीक सामने अपने घर में बैठे हुए नारायणन मेरे हाथ में एक वीणा रखते है. वह कहते हैं, “इसे उठाइए.” यह सुघड़ और ठीक-ठाक भारी है. इसके हर हिस्से को अच्छी तरह से चिकना करके पॉलिश किया गया है. “ये सारे काम हाथ से ही किए गए हैं,” नारायणन कहते हैं. उनकी आवाज़ में एक अभिमान झलकता है.
“वीणा केवल तंजावुर में ही बनाई जाती हैं, और यहां से उन्हें पूरी दुनिया में भेजा जाता है. हमारे पास भौगोलिक संकेतक [जीआई] है, जिसके लिए हमने आवेदन किया था. वकील संजय गांधी की मदद से वह हमें मिल गया,” नारायणन बताते हैं.
इस वाद्ययंत्र का निर्माण केवल कटहल की लकड़ी से होता है. “इसका चयन इसलिए किया जाता है क्योंकि पलामरम सभी जलवायु के अनुरूप ख़ुद को ढाल लेता है. तंजावुर में आज का तापमान 39 डिग्री सेल्सियस है. और जब आप इसे यहां बना कर अमेरिका ले जाते हैं जहां तापमान शून्य डिग्री भी हो सकता है, तब भी यह ठीक से काम करेगा. और जब आप इसे अधिक गरम इलाके में ले जाएंगे – मिसाल के रूप में पश्चिम एशिया – तब भी यह ठीक काम करेगा. सब जगह यह अच्छी तरह से बजता है. यह एक दुर्लभ गुण हैजिसके कारण हम कटहल की लकड़ी का उपयोग करते हैं.”
“आप यह काम आम की लकड़ी के साथ नहीं कर सकते हैं. आम की लकड़ी की बनी किवाड़ जो गर्मियों में आराम से बंद हो सकती है. लेकिन मानसून में? तब उसे जोर से पटकना पड़ता है... साथ ही आप उसे कितनी भी बारीकी से बना लें, आप उसमें वह सुन्दरता पैदा नहीं कर सकते हैं जो आपको कटहल की लकड़ी में मिलती है.” इसके अलावा पलामरम में बहुत महीन छेद होते हैं, नारायणन बताते हैं. यह छेद बाल से भी पतले होते हैं. “यह लकड़ी को साँस लेने में मदद करते हैं.”
कटहल की लकड़ी की पैदावार बड़े पैमाने पर संभव है. “लेकिन जैसा कि मैं जानती हूं, पट्टूकोट्टाई [तंजावुर ज़िला] के आसपास के कुछ इलाकों में और गंधर्वकोट्टाई [पडूकोट्टाई ज़िला] लोगों ने बहुत सारे पेड़ काट डाले हैं और उस तुलना में कम संख्या में वृक्षारोपण हुए हैं. बगान मालिकों ने अपनी ज़मीनें हाउसिंग प्लॉट्स के रूप में बेच डाले हैं, और पैसे बैंक में जमा कर दिए हैं,” नारायणन कहते हैं, “बिना पेड़ों के छाए की कोई जगह नहीं बची रही है. संगीत को भूल जाइए, मेरी ही गली को देखिये. एक सिर्फ मेरा पेड़ ही बचा रहा है...बाकी सभी पेड़ काट दिए गये हैं.”
कटहल की नई लकड़ी का रंग पीला होता है. जैसे-जैसे यह पुराना होता जाता है और सूखता है, यह रक्तिम होता जाता है. ऐसी लकड़ी से निकलने वाली ध्वनि-तरंग बेहतरीन होती है. इसीलिए नारायणन के मुताबिक पुरानी वीणाई की मांग बहुत अधिक है. “और यही कारण है कि वे बाज़ारों में नहीं बिकती हैं,” वे हंसते हुए कहते हैं, “क्योंकि जिनके पास वे हैं वे उन्हें मरम्मत करवा कर अपने पास ही रखना पसंद करते हैं. अपने परिवार से बाहर किसी को नहीं देना चाहते हैं.”
अपनी बनाई हुई वीणा में नारायणन थोड़ी आधुनिकता का पुट देते हैं. “इन घुंडियों को देखिए, सामान्यतः ये गिटार में लगते हैं, लेकिन हमने इसे यहां इसलिए लगाया है कि तारों को ट्यून करने और कसने में आसानी हो.” हालांकि, वह इसे सिखाने में आए बदलावों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं, और इसे शार्टकट का तरीका मानते हैं, क्योंकि गुरु शिष्यों को धुन की पिच को ठीक करना नहीं सिखाते हैं. वह वीणा को ट्यून कर इसे विस्तारपूर्वक समझाना चाहते हैं. कटहल की लकड़ी और धातु के तारों के मेल से एक सुंदर संगीत फूट पड़ता है, और हमारी बातचीत के लिए एक पार्श्व-संगीत का काम करता है.
बहुत से अन्य शिल्पकारों की तरह नारायणन अपने बनाये हुए वाद्य को बजाना भी जानते हैं. “थोड़ा-बहुत बजा लेता हूं,” अपने दाएं हाथ से तारों के साथ खेलते हुए वह उदार बनने का प्रयास करते हैं. उनके बाएं हाथ की उंगलियों के पोर घुंडियों पर ऊपर-नीचे घूमते रहते हैं, “मैं बस इतना जानता हूं कि यह पता कर सकूं कि ग्राहकों को क्या चाहिए.”
उनकी गोद में एक एकांत वीणा रखी है, जिसे लकड़ी के एक ही टुकड़े से बनाया गया है. वह उसे सावधानीपूर्वक उठाते हैं, जैसे मां ने अपने सोते बच्चे को कोमलता से पकड़ रखा हो. “किसी ज़माने में हम सजावट के लिए हिरन के सींगों का उपयोग करते थे. अब हम बॉम्बे से मंगाए गए प्लास्टिक के हाथी दांत लगाते हैं...”
अगर कोई एक इंसान ही पूरी वीणा को बनाए, तो उसे सामान्यतः 25 दिन लग जाएंगे. “इसलिए हम अलग-अलग लोगों से अलग-अलग काम कराते हैं और बाद में उन्हें एक साथ जोड़ देते हैं. इस तरह हम एक महीने में दो से तीन वीणा बना लेते हैं. उनकी क़ीमत 25,000 से लेकर 75,000 रुपयों के बीच कुछ भी सकती है.”
अन्य कारीगरों की तरह नारायणन भी पनरुती से अपने लिए लकड़ियां मंगाते हैं. वह कहते हैं, “या तो लकड़ी ख़रीदने हम ख़ुद वहां जाते हैं या बेचने वाले हमें यहां दे जाते है. क़रीब 40 से 50 साल की उम्र का पेड़ हमारे लिए सबसे मुफ़ीद होता है. वह पूरी तरह से परिपक्व होता है. व्यापारी हमें 10 फुट का ऊंचा पेड़ क़रीब 20,000 रुपयों में बेचते हैं, जिससे हम एकांत वीणा बना सकते हैं. हालांकि, कुछ मोलतोल की गुंजाइश भी रहती है. लकड़ी ख़रीदने के बाद हम शिवगंगई पूंगा में उसे आकार और आकृति में ढलवाते हैं.” हालांकि, लकड़ी का धंधा एक जोखिम भरा व्यापार होता है, नारायणन बताते हैं. “कई बार बारीक दरारों से होकर पानी पेड़ के भीतर दाख़िल हो जाता है और पूरी लकड़ी को बर्बाद कर देता है. हमें यह बात पेड़ काटे जाने के बाद ही मालूम पड़ती है!”
नारायणन के अनुमान के अनुसार, तंजावुर में लगभग दस वीणा निर्माता हैं, जिनका यह पूर्णकालिक पेशा है. इसके अलावा कई अन्य शिल्पकार भी हैं जो इस काम को अंशकालिक रूप से करते हैं. सभी शिल्पकार मिलकर महीने में कोई 30 वीणा बना लेते हैं. जब लकड़ी का एक लट्ठा तंजावुर पहुंचता है, तो उसे वाद्ययंत्र बनने में लगभग 30 दिन लगते हैं. “निश्चित तौर पर इन वाद्ययंत्रों की अच्छी-ख़ासी मांग है,” नारायणन कहते हैं.
“चिट्टीबाबू और शिवनंदम जैसे अनेक बड़े कलाकारों ने मेरे पिता से वाद्ययंत्र ख़रीदे हैं. प्रशिक्षु कलाकारों की नई खेप भी इसमें गहरी रुचि ले रही है. लेकिन उनमें से ज़्यादातर युवा चेन्नई में संगीत की दुकानों से अपनी चीज़ें ख़रीदते हैं. कुछ सीधे यहां भी आते हैं और किसी ख़ास डिज़ाइन या विशेषता वाले वाद्यों की मांग करते हैं.” नारायणन को यह अच्छा लगता है.
उन्हें अच्छा लगेगा कि व्यापार आगे बढ़े. “मैंने यह काम 45 सालों तक किया. मेरे दोनों बेटे इस व्यवसाय में नहीं आना चाहते हैं. वे पढ़े-लिखे हैं और नौकरी करते हैं. पता है, क्यों?” वह मायूसी के साथ थोड़ा ठिठकते हैं. “मेरे घर में काम कर रहा यह राजमिस्त्री रोज़ का 1,200 रुपए कमाता है, और मैं दिन में दो बार इसके लिए लिए दो वडे और एक कप चाय भी मंगवाता हूं. लेकिन हमारी इतनी मेहनत के बाद भी हमें आधे पैसे ही मिलते हैं. हमें आराम नसीब नहीं, हमारे काम के घंटे भी निश्चित नहीं हैं. यह बढ़िया काम है, लेकिन केवल बिचौलियों को इससे अच्छी कमाई हो रही है. मैं दस गुना दस फुट के वर्कशॉप में काम करता हूं. आपने ख़ुद है न? सबकुछ हाथ से करना पड़ता है. इसके बाद भी हमें बिजली बिल का भुगतान व्यावसायिक दर पर करना पड़ता है. हमने अधिकारियों को यह समझाने की बहुत कोशिशें की हैं कि यह एक कुटीर उद्योग है – लेकिन हम उन्हें कोई ज्ञापन देने में समर्थ नहीं रहे, जिससे कोई समाधान निकल सके...”
नारायणन लंबी सांस भरते हैं. उनके घर के पीछे बने वर्कशॉप में एक बूढ़ा कारीगर रगड़कर कुडम को चिकना बनाने में जुटा हुआ है. छीनी, ड्रिल और ब्लेड की मदद से वह कटहल की लकड़ी में संगीत भर रहा है...
इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद