'गांधी और नेहरू को यह अहसास था कि वे आंबेडकर के बिना क़ानून और संविधान नहीं
लिख सकते. इस भूमिका को निभाने के लिए वही एकमात्र सक्षम व्यक्ति थे. लेकिन, उन्होंने
इसके लिए भीख नहीं मांगी.'
शोभाराम गहरवार, जादूगर बस्ती, अजमेर, राजस्थान
'अंग्रेज़ों ने बम बनाने की हमारी जगह को चारों तरफ़ से घेर लिया था. यह जगह एक पहाड़ी के ऊपर थी, अजमेर के पास के जंगलों में. पास में ही एक झरना भी बहता था, जहां एक बाघ पानी पीने आता था. वह बाघ आता था और चला जाता था. हम कभी-कभार पिस्तौल से हवा में गोली भी दागते थे, तो इसने समझ लिया था कि इसे आना चाहिए, पानी पीना चाहिए और चुपचाप यहां से खिसक लेना चाहिए. नहीं तो हम गोली उस पर दागते, हवा में नहीं.
'लेकिन उस दिन, अंग्रेज़ों को हमारे ठिकाने का पता चल गया था और वे हम तक पहुंचने ही वाले थे. आख़िर उनका राज था उस दौर में. बचाव की प्रक्रिया में, हमने कुछ बम विस्फोट किए - मैंने नहीं, मैं तो बहुत छोटा था तब; वहां मौजूद मेरे वरिष्ठ साथियों ने - और ठीक उसी समय बाघ भी पानी पीने के लिए निकल आया था.
'बाघ ने पानी नहीं पिया और ब्रितानवी पुलिस के पीछे भागा. फिर उनमें भगदड़ मच गई. वह बाघ उनके पीछे लग गया था. उनमें से कोई पहाड़ी से नीचे गिरा, तो कोई सड़क पर धड़ाम हुआ. उस भगदड़ के दौरान दो पुलिसकर्मियों की मौत हो गई. पुलिस में इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि उस जगह पर लौटकर आती. वे हमसे डरे हुए थे. वो तौबा करते थे.'
बाघ उस भगदड़ में सुरक्षित बच निकला था. और उसके बाद भी वहां पानी पीने आता रहा.
यह क़िस्सा स्वतंत्रता सेनानी शोभाराम गहरवार सुनाते हैं, जो अब 96 वर्ष के हो चुके हैं. वह 14 अप्रैल 2022 को अजमेर में अपने घर पर हमसे बात कर रहे हैं. वह आज तक उसी दलित बस्ती में रहते हैं जहां लगभग एक सदी पहले उनका जन्म हुआ था. उन्होंने यहां से जाने की कभी नहीं सोची, और उन्हें यह चाह कभी नहीं रही कि रहने की आरामदायक जगह के बदले इस बस्ती को छोड़कर जाएं. वह दो बार नगर पार्षद रह चुके थे, और चाहते तो ऐसा आसानी से कर सकते थे. वह ब्रिटिश राज के साथ 1930 और 1940 के दशक की अपनी लड़ाई की एक ज्वलंत तस्वीर पेश करते हैं.
क्या वह क़िस्से में किसी भूमिगत बम फैक्ट्री की बात कर रहे थे?
'अरे, वह जंगल था. कोई फैक्ट्री नहीं...फैक्ट्री में तो कैंची बनती है. यहां हम [भूमिगत क्रांतिकारी] लोग बम बनाते थे.'
वह कहते हैं, 'एक बार, चंद्रशेखर आज़ाद हमसे मिलने आए थे.' साल 1930 की दूसरी छमाही का कोई वक़्त रहा होगा या 1931 के शुरुआती दिन होंगे. तारीख़ें पक्की नहीं हैं. शोभाराम दादा कहते हैं, 'मुझसे तारीख़ें मत पूछो. मेरे पास सबकुछ था. मेरे सारे दस्तावेज़, मेरे लिखे सभी नोट्स और रिकॉर्ड यहीं इस घर में मौजूद थे. साल 1975 में आई बाढ़ में मैंने सबकुछ खो दिया.'
चंद्रशेखर आज़ाद उन क्रांतिकारियों में से थे जिन्होंने 1928 में भगत सिंह के साथ मिलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन का पुनर्गठन किया था. इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को ब्रितानवी पुलिस के साथ हुई गोलीबारी के दौरान उनकी मृत्यु हो गई थी. उन्होंने प्रतिज्ञा ली हुई थी कि वह कभी ज़िंदा पकड़े नहीं जाएंगे और हमेशा 'आज़ाद' रहेंगे. इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी बंदूक में बची आख़िरी गोली से ख़ुद की जान ले ली थी. जब उनकी मृत्यु हुई, तब वह 24 वर्ष के थे.
स्वतंत्रता मिलने के बाद, अल्फ्रेड पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आज़ाद पार्क कर दिया गया था.
अट्ठानवे बरस की उम्र पार कर चुके शोभारामजी ख़ुद को गांधी और आंबेडकर दोनों का अनुयायी मानते हैं. वह कहते हैं, 'जिनके भी विचारों से मैं सहमत था उसके सिद्धांतों का पालन किया'
अजमेर में हमसे बातचीत के दौरान शोभाराम दादा कहते हैं, 'आज़ाद आए और उस जगह [बम बनाने वालों के कैंप] का दौरा किया. उन्होंने हमें बताया कि हम अपने बमों को ज़्यादा कारगर कैसे बना सकते हैं. उन्होंने हमें इसका एक बेहतर तरीक़ा सिखाया. यहां तक कि उन्होंने उस स्थान पर तिलक भी लगाया जहां स्वतंत्रता सेनानी काम करते थे. फिर उन्होंने हमसे कहा कि वह उस बाघ को देखना चाहते हैं. हमने उस रात उनसे वहीं रुकने को कहा, ताकि वह बाघ को देख सकें.
'बाघ आया और चला गया, और हमने हवा में फायरिंग की. चंद्रशेखरजी ने हमसे पूछा कि हमने गोली क्यों चलाई. हमने उन्हें बताया कि बाघ जानता है हम उसे नुक़सान पहुंचा सकते हैं, इसलिए वह यहां से चुपचाप चला जाता है.' यह उनके बीच की ऐसी व्यवस्था थी, जिसके तहत बाघ पानी पी सकता था और क्रांतिकारियों की सुरक्षा सुनिश्चित होती थी.
'लेकिन जिस दिन का क़िस्सा मैंने पहले सुनाया था उस दिन अंग्रेज़ वहां पहले ही पहुंच गए थे. और जैसा कि मैंने बताया, भगदड़ और तबाही मच गई थी.'
शोभाराम उस विचित्र लड़ाई या मुठभेड़ में अपनी व्यक्तिगत भूमिका होने का दावा नहीं करते. हालांकि, वह इन सभी घटनाओं के गवाह थे. वह बताते हैं कि जब आज़ाद वहां आए थे, तब उनकी उम्र 5 साल से ज़्यादा नहीं रही होगी. 'वह भेस बदलकर आए थे. हमारा काम बस उन्हें जंगल और पहाड़ी की उस जगह तक पहुंचाना था जहां बम बनाए जाते थे. हम दो लकड़ों ने उन्हें और उनके एक साथी को कैंप तक पहुंचाया था.'
वास्तव में, यह एक चतुर योजना थी. इस मासूम दृश्य से कोई भी झांसे में आ जाता, जिसमें एक चाचा अपने भतीजों के साथ सफ़र कर रहा था.
'आज़ाद ने कार्यशाला [यह कोई फैक्ट्री नहीं थी] देखी और हमारी पीठ थपथपाई. और हम बच्चों से कहा: “आप तो शेर के बच्चे हैं. इतने बहादुर हैं और मौत से नहीं डरते.” हमारे घरवालों ने भी कहा था, “यदि मर भी जाओ, तो कोई बात नहीं. वैसे भी तुम्हारी यह लड़ाई सिर्फ़ आज़ादी हासिल करने की है.”'
*****
'जब गोली लगी, तो मेरी जान बच गई थी और मैं स्थायी रूप से शारीरिक अक्षमता का शिकार भी नहीं हुआ. गोली मेरे पैर में लगी थी और गुज़र गई थी. देखा?’ वह हमें दाहिने पैर के घुटने से थोड़े नीचे मौजूद वह निशान दिखाते हैं जहां उन्हें गोली लगी थी. गोली उनके पैर में अटकी नहीं रही थी. लेकिन ज़ख़्म काफ़ी तगड़ा था. वह कहते हैं, 'मैं बेहोश हो गया था और वे मुझे अस्पताल लेकर गए थे.’
यह घटना 1942 के आसपास की है, जब वह 'काफ़ी बड़े' हो गए थे—क़रीब 16 साल के—और ज़मीनी कार्रवाइयों में सीधे-सीधे भाग लेने लगे थे. आज, 96 साल की उम्र में, शोभाराम गहरवार की शरीर की बनावट काफ़ी अच्छी बनी हुई है—छह फीट से अधिक की लंबाई, सेहतमंद, और छड़ी की तरह सीधी रीढ़ के साथ सक्रिय. राजस्थान के अजमेर में अपने घर पर वह हमसे बात कर रहे हैं, और नौ दशकों के अपने व्यस्त जीवन के बारे में बताते हैं. फ़िलहाल, वह उस घटना के बारे में बता रहे हैं जब उन्हें गोली लगी थी.
'एक सभा हो रही थी, और किसी ने ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ "थोड़ा बढ़-चढ़कर" बोल दिया था. इसलिए, पुलिस ने कुछ स्वतंत्रता सेनानियों को हिरासत में ले लिया. उन्होंने पलटवार किया और पुलिस को पीटना शुरू कर दिया. यह सब स्वतंत्रता सेनानी भवन [स्वतंत्रता सेनानियों का कार्यालय] में हो रहा था. निश्चित रूप से, इसे यह नाम हमने स्वतंत्रता मिलने के बाद दिया था. तब तक इसका कोई तय नाम नहीं था.
'वहां होने वाली जनसभाओं में, स्वतंत्रता सेनानी रोज़ाना लोगों को भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में बताते थे. उन्होंने ब्रिटिश राज के अत्याचारों को उघाड़कर रख दिया था. हर रोज़ पूरे अजमेर से लोग दोपहर 3 बजे वहां पहुंच जाते थे. हमें कभी किसी को बुलाना नहीं पड़ा - वे ख़ुद आते थे. यहीं पर वह उत्तेजक भाषण दिया गया था और गोलीबारी हुई थी.
'जब मुझे अस्पताल में होश आया, तो पुलिस मुझसे मिलने आई थी. उन्होंने अपना काम किया; लिखा-पढ़ी की. लेकिन उन्होंने मुझे गिरफ़्तार नहीं किया. उनका कहना था: “उसे गोली लगी है. उसके लिए इतनी सज़ा काफ़ी है.'
वह बताते हैं कि पुलिस का यह व्यवहार दया से नहीं उपजा था. अगर पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज कर लिया होता, तो उन्हें मानना पड़ता कि उन्होंने शोभाराम को गोली मारी थी. और उन्होंने ख़ुद तो कोई भड़काऊ भाषण दिया नहीं था. न ही किसी और के ख़िलाफ़ उन्होंने हिंसा की थी.
वह कहते हैं, 'अग्रेज़ बस अपनी इज़्ज़त बचाना चाहते थे. उन्हें हमारी मौत से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था. करोड़ों लोग मारे गए थे, तब जाकर इस देश को आज़ादी मिल सकी थी. बिल्कुल कुरुक्षेत्र की तरह, जहां पर सूरजकुंड योद्धाओं के रक्त से भर गया था. आपको यह बात ध्यान में रखनी चाहिए. हमें आज़ादी इतनी आसानी से नहीं मिली. हमने इसके लिए अपना ख़ून बहाया है. कुरुक्षेत्र की लड़ाई से कहीं ज़्यादा खून. आंदोलन का असर हर कहीं था. सिर्फ़ अजमेर में नहीं. हर जगह संघर्ष जारी था. मुंबई में, कलकत्ता [अब कोलकाता] में. . .
वह बताने लगते हैं, 'गोली लगने के बाद मैंने शादी न करने का फ़ैसला किया. किसे पता था कि मैं इस संघर्ष में ज़िंदा बच निकलूंगा? मैं ख़ुद को सेवा [समाज सेवा] के लिए समर्पित करने के साथ परिवार नहीं चला सका.' शोभाराम अपनी बहन शांति और उनके बच्चों व पोते-पोतियों के साथ रहते हैं. क़रीब 75 साल की शांति उनसे इक्कीस साल छोटी हैं.
'मैं आपको कुछ बताऊं?' शांति हमसे पूछती हैं. एकदम शांत चित्त और भरोसे के साथ वह अपनी बात रखती हैं. 'मेरी वजह से ही यह आदमी अब तक ज़िंदा है. मैंने और मेरे बच्चों ने जीवन भर उनकी देखभाल की है. मेरी शादी 20 साल की उम्र में हुई थी, और कुछ साल बाद मेरे पति की मृत्यु हो गई थी. मेरे पति तब 45 वर्ष के थे. मैंने शोभाराम का हमेशा ध्यान रखा है और मुझे इस बात का बहुत गर्व है. अब मेरे पोते और उनकी पत्नियां भी उनकी देखभाल करते हैं.
'कुछ समय पहले वह बहुत बीमार पड़ गए थे. ऐसा लगा कि अब बचेंगे नहीं. साल 2020 की बात है. मैंने उन्हें अपनी गोद में लिया और उनके लिए प्रार्थना की. तब वह आपको जीवित और सेहतमंद नज़र आ रहे हैं.'
*****
उन बमों का क्या हुआ जो भूमिगत कैंप में बनाए गए थे?
'जहां से भी मांग आती थी, हम वहां जाते थे. बमों की मांग काफ़ी ज़्यादा थी. मुझे लगता है कि मैं उन बमों को लेकर इस देश के कोने-कोने में गया हूं. हम ज़्यादातर ट्रेन से सफ़र करते थे. और स्टेशनों से, परिवहन के दूसरे साधन पकड़ते थे. अंग्रेज़ पुलिस भी हमसे डरती थी.'
और ये बम दिखते कैसे थे?
'कुछ ऐसे [वह अपने हाथों से छोटी गोलाकार आकृतियां बनाते हैं]. इस आकार के—ग्रेनेड की तरह. वे कई तरह के होते थे, और उनके फटने में लगने वाले समय के हिसाब से भिन्नता होती थी. कुछ तुरंत विस्फोट करते थे; कुछ में चार दिन लगते थे. हमारे लीडरों ने हमें सबकुछ बता रखा था - कैसे इसे सेट करना है, और फिर भेज देना है.
'उस दौर में हमारी काफ़ी मांग रहती थी! मैं कर्नाटक जा चुका हूं. मैसूर, बेंगलुरु, लगभग सभी जगहों पर गया हूं. देखिए, अजमेर आज़ादी की लड़ाई व भारत छोड़ो आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र था. जिस तरह कि बनारस [वाराणसी] था. गुजरात के बड़ौदा और मध्य प्रदेश के दमोह जैसे स्थानों पर भी आंदोलन तेज़ था. लोग अजमेर की ओर आशा की नज़र से देखते थे, और कहते थे कि इस शहर में आंदोलन मज़बूत है और वे यहां के स्वतंत्रता सेनानियों के नक़्शेक़दम पर चलना चाहते थे. निश्चित रूप से, यहां बहुत सारे क्रांतिकारी हुआ करते थे.'
लेकिन वे अपनी रेल यात्राएं करते कैसे थे? और हिरासत में लिए जाने से कैसे बच निकलते थे? अंग्रेज़ों को उन पर शक था कि वे डाक की पाबंदियों से बचने के लिए लीडरों के गुप्त ख़त ले आते व ले जाते थे. उन्हें यह भी मालूम था कि कुछ युवा बम लेकर भी यात्रा करते थे.
'उन दिनों डाक द्वारा भेजे गए पत्रों की जांच की जाती थी, उन्हें खोला जाता था और पढ़ा जाता था. इससे बचने के लिए, हमारे लीडरों ने नौजवानों का एक समूह बनाया और किसी ख़ास जगह चिट्ठियां पहुंचाने का हमें प्रशिक्षण दिया. "आपको यह पत्र ले जाना है और बड़ौदा में डॉ आंबेडकर को देना है." या किसी और जगह के किसी और व्यक्ति तक पहुंचाना है. हम चिट्ठियों को अपने कमर में, जांघिया में छिपाकर रखते थे.
'ब्रितानवी पुलिस हमें रोकती थी और सवाल करती थी. अगर उन्होंने हमें ट्रेन में देख लिया, तो उनका सवाल हो सकता था: “तुमने तो हमें बताया था कि तुम वहां जा रहे हो, लेकिन अब तुम कहीं और जा रहे हो." लेकिन, हमें और हमारे लीडरों को मालूम था कि ऐसा हो सकता है. इसलिए, अगर हम बनारस जा रहे होते थे, तो उस शहर से कुछ दूर पहले ही उतर जाते थे.
'हमें पहले ही बता दिया गया होता था कि डाक [चिट्ठी] का बनारस पहुंचना ज़रूरी है. हमारे लीडरों की सलाह रहती थी: “उस शहर से कुछ दूर पहले ही ज़ंजीर खींचो और ट्रेन से उतर जाओ.” और, हम ऐसा ही करते थे.
'तब रेलगाड़ियों में भाप के इंजन हुआ करते थे. हम इंजन कक्ष के अंदर जाते थे और रेल चालक को पिस्तौल दिखाकर उसे चेतावनी देते थे, "हम तुम्हें मार देंगे, उसके बाद ही मरेंगे.” फिर वह हमें कोई जगह दे देता था. सीआईडी, पुलिस, सबके सब कभी-कभार आकर गश्त लगाते थे. और उन्हें मुख्य बोगियों में आम यात्री ही बैठे मिलते थे.
'एक कार्रवाई के दौरान, जैसा बताया गया था, एक निश्चित बिंदु पर हमने ट्रेन की चेन खींच दी. ट्रेन काफ़ी देर तक रुकी रही. इसके बाद, कुछ स्वतंत्रता सेनानी रात के अंधेरे में घोड़े लेकर आए. हम उन पर सवार हुए और भाग निकले. मज़े की बात यह है कि हम उस ट्रेन से पहले ही बनारस पहुंच गए!
'एक बार मेरे नाम पर वारंट निकल गया था. विस्फोटक ले जाते समय हम पकड़े गए थे. लेकिन हमने उन्हें फेंक दिया और वहां से भाग निकले. पुलिस ने विस्फोटकों को ढूंढ निकाला, और यह जानने के लिए उनका अध्ययन किया कि हम किस तरह के विस्फोटकों का इस्तेमाल कर रहे थे. वे हमारे पीछे लग गए थे. इसलिए तय हुआ कि हमें अजमेर छोड़ देना चाहिए. मुझे [तब] बॉम्बे भेजा गया था.'
और मुंबई में आपको किसने छिपाया और आश्रय दिया?
वह गर्व से कहते हैं, 'पृथ्वीराज कपूर.’ महान अभिनेता रहे पृथ्वीराज 1941 में देश का सबसे बड़ा सितारा बनने की राह पर थे. हालांकि, इस बात की पुष्टि करना कठिन है, लेकिन यह भी माना जाता था कि वह साल 1943 में स्थापित हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे. कपूर के अलावा, बॉम्बे के थिएटर व फ़िल्म जगत के कुछ अन्य बड़े सितारे स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक थे, और यहां तक कि इसमें सक्रियता से शामिल भी थे.
'उन्होंने हमें अपने किसी रिश्तेदार त्रिलोक कपूर के पास भेजा. मुझे लगता है कि त्रिलोक कपूर ने बाद में “हर हर महादेव” नामक फ़िल्म में अभिनय भी किया था.’ शोभाराम दादा को यह नहीं पता था कि त्रिलोक वास्तव में पृथ्वीराज कपूर के छोटे भाई थे. वह अपने दौर के सबसे सफल अभिनेताओं में से भी एक थे. हर हर महादेव साल 1950 में सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म थी.
'पृथ्वीराज कपूर ने हमें थोड़े वक़्त के लिए एक कार दे दी थी, और हम बंबई में घूमते रहते थे. मैं लगभग दो महीने उस शहर में रहा. फिर हम वापस चले आए. दूसरे कामों के लिए यहां हमारी ज़रूरत थी. काश मैं आपको वारंट दिखा पाता. वह मेरे नाम पर निकला था. अन्य युवाओं के नाम पर भी वारंट निकले हुए थे.
'लेकिन 1975 में यहां आई बाढ़ ने सबकुछ नष्ट कर दिया,' वह ये बात काफ़ी अफ़सोस के साथ कहते हैं. 'मेरे सारे काग़ज़ात बह गए. बहुत से प्रमाणपत्र; जिनमें से कुछ तो जवाहरलाल नेहरू ने दिए थे. अगर आप उन काग़ज़ों को देखते, तो पागल ही हो जाते. लेकिन बाढ़ में सबकुछ बह गया.'
*****
'मैं गांधी और आंबेडकर में से किसी एक को क्यों चुनूं? जब मैं दोनों को चुन सकता हूं, है कि नहीं?'
हम अजमेर में आंबेडकर प्रतिमा के पास खड़े हैं. आज इस महान व्यक्तित्व की 131वीं जयंती है, और हम शोभाराम गहरवार को अपने साथ यहां लेकर आए हैं. इन बुज़ुर्ग गांधीवादी ने अनुरोध किया था कि हम उन्हें इस जगह लेकर आएं, ताकि वह मूर्ति पर माल्यार्पण कर सकें. इसी समय हमने उनसे पूछा कि वह दोनों व्यक्तित्वों में से किसे मानते हैं.
उन्होंने अपने घर पर हमसे जो कहा था उसे एक बार फिर दोहराया. 'देखिए, आंबेडकर और गांधी, दोनों ने ही बहुत अच्छा काम किया. एक कार को चलाने के लिए दोनों तरफ़ दो पहियों की ज़रूरत होती है. फिर यहां विरोधाभास कहां है? यदि मुझे महात्मा के कुछ सिद्धांत बेहतर लगे, मैंने उनका पालन किया. जहां मुझे आंबेडकर की शिक्षा बेहतर लगी, मैंने उसका पालन किया.'
वह बताते हैं कि गांधी और आंबेडकर, दोनों ने अजमेर का दौरा किया था. आंबेडकर की बात करें, तो 'हम रेलवे स्टेशन पर उनसे मिलते थे और माल्यार्पण करते थे. ऐसा तब होता था, जब किसी और गंतव्य के लिए निकली उनकी ट्रेन यहां रुक जाती थी.’ शोभाराम जब दोनों व्यक्तित्वों से मिले, तब उम्र में बहुत छोटे थे.
'साल 1934 में, जब मैं बहुत छोटा था, महात्मा गांधी यहां आए हुए थे. ठीक यहीं पर, जहां हम अभी बैठे हैं. इसी जादूगर बस्ती में.' शोभाराम तब क़रीब 8 साल के रहे होंगे.
'एक बार मैं हमारे लीडरों के कुछ पत्र आंबेडकर को देने के लिए बड़ौदा [अब वडोदरा] गया था. पुलिस डाकघर में हमारे पत्र खोलकर पढ़ लेती थी. इसलिए, हम महत्वपूर्ण काग़ज़ात और पत्रों को व्यक्तिगत रूप से पहुंचाते थे. जब मैं पत्र उनके पास लेकर गया, उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और पूछा, "क्या तुम अजमेर में रहते हो?"’
क्या उन्हें पता था कि शोभाराम कोली समुदाय से थे? 'हां, मैंने उनको बताया था. लेकिन उन्होंने इसके बारे में ज़्यादा बात नहीं की. वह उन बातों को समझते थे. वह काफ़ी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे. उन्होंने मुझसे कहा था कि अगर मुझे कोई ज़रूरत पड़े, तो मैं उन्हें पत्र लिख सकता हूं.'
शोभाराम दादा को 'दलित' और 'हरिजन' दोनों शब्दों से कोई परेशानी नहीं है. 'अगर कोई कोली है, तो है. हम अपनी जाति क्यों छिपाएं? हरिजन कहिए या दलित, कोई फ़र्क नहीं है. आप उन्हें जो भी बुलाएं, अंततः सब अनुसूचित जातियां ही हैं बस.'
शोभाराम गहरवार के माता-पिता श्रमिक थे. ज़्यादातर रेलवे परियोजनाओं के निर्माण-स्थलों पर मज़दूरी करते थे.
वह कहते हैं, 'हर कोई दिन में केवल एक समय भोजन करता था. मेरे परिवार में कभी किसी ने शराब नहीं पी.' वह हमें याद दिलाते हैं कि उनका परिवार उसी सामाजिक समूह से आता है 'जिससे भारत के [अब पूर्व] राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ताल्लुक़ रखते हैं. वह एक दौर में हमारे अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष भी चुने गए थे.’
शोभाराम दादा के समुदाय को शिक्षा से वंचित रखा गया था. शायद इसी वजह से उनका नाम स्कूल में देर से लिखा गया था. वह कहते हैं, 'हिंदुस्तान में उच्च जातियां - ब्राह्मण, जैन वगैरह - अंग्रेज़ों की ग़ुलाम बन गई थीं. यही लोग हमेशा से छुआछूत का पालन भी करते आए थे.
'मैं आपको बता देता हूं, अनुसूचित जाति के अधिकांश लोग यहां इस्लाम धर्म स्वीकार कर चुके होते, अगर उस समय कांग्रेस पार्टी और आर्य समाज नहीं होता. अगर हम पुराने क़ायदों पर ही चलते रहे होते, तो हमें स्वतंत्रता नहीं मिली होती.
'उस समय किसी अछूत को स्कूलों में दाख़िला तक नहीं मिलता था. वे कहते थे कि देखो ये कंजर है, या वह डोम है. इस तरह हमें अपमानित किया जाता था. हमें बहिष्कृत कर दिया गया था. क़रीब 11 साल की उम्र में जाकर मेरा नाम पहली कक्षा में लिखाया जा सका था. वह भी इसलिए, क्योंकि उस समय के आर्य समाजी लोग ईसाइयों का मुक़ाबला करने की कोशिश कर रहे थे. लिंक रोड इलाक़े के पास रहने वाले मेरी जाति के बहुत से लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया था. इसलिए, कुछ हिंदू संप्रदायों ने हमें स्वीकार करना शुरू कर दिया, यहां तक कि हमें दयानंद एंग्लो वैदिक [डीएवी] स्कूलों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित भी किया.'
हालांकि, हमारे साथ भेदभाव ख़त्म होने का नाम नहीं लेता था, और फिर कोली समाज ने अपना स्कूल शुरू किया.
'वहीं पर गांधी आए थे, सरस्वती बालिका विद्यालय में. इस स्कूल को हमारे समुदाय के वरिष्ठ लोगों ने शुरू किया था. वह आज भी चलता है. हमारे काम से गांधी बहुत प्रभावित थे. उन्होंने कहा था, "आपने बहुत अच्छा काम किया है. आपने मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा करके दिखाया है.”
'यद्यपि स्कूल को हम कोलियों ने शुरू किया था, लेकिन अन्य जातियों के छात्र भी इसमें दाख़िला लेने लगे थे. शुरुआत में सभी अनुसूचित जातियों से थे. लेकिन बाद में, अन्य समुदायों के बहुत से लोग स्कूल से जुड़े. अंत में, अग्रवालों [उच्च-जाति] ने स्कूल पर अधिकार जमा लिया. रजिस्ट्रेशन हमारे पास ही था. लेकिन उन्होंने प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया.' शोभाराम दादा अब भी स्कूल जाते हैं. या तब तक जाते थे, जब तक कि कोविड-19 महामारी ने दस्तक नहीं दी थी और सभी स्कूल बंद नहीं हो गए थे.
'हां, मैं अभी भी जाता हूं. लेकिन अब इसे उच्च-जाति के लोग चलाते हैं. उन्होंने एक बीएड कॉलेज भी खोल लिया है.
'मैंने केवल नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई की. और, मुझे इस बात का बहुत अफ़सोस है. स्वतंत्रता मिलने के बाद, मेरे कुछ मित्र आईएएस अधिकारी बन गए. बाक़ियों ने बड़ी-बड़ी सफलता हासिल की. लेकिन मैंने ख़ुद को सेवा के लिए समर्पित कर दिया था.'
शोभाराम गहरवार दलित हैं और विचारधारा से स्वघोषित गांधीवादी हैं. वह डॉ आंबेडकर से भी गहरे प्रभावित रहे हैं. वह हमें बताते हैं: 'मैं गांधीवाद और क्रांतिवाद, इन दोनों के साथ भी था. दोनों ही धाराएं गहराई से जुड़ी हुई थीं.' प्रमुख रूप से गांधीवादी होते हुए भी वह तीन राजनीतिक धाराओं से जुड़े हुए थे.
शोभाराम दादा, गांधी से बहुत प्यार करते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, लेकिन वह उन्हें आलोचना से परे नहीं मानते. ख़ासकर आंबेडकर के संबंध में.
‘आंबेडकर की चुनौती का सामना होने पर गांधी डर गए थे. गांधी को डर था कि सभी अनुसूचित जातियां बाबासाहेब के साथ खड़ी हो रही हैं. यही डर नेहरू को भी था. उन्हें चिंता थी कि इससे व्यापक आंदोलन कमज़ोर हो जाएगा. लेकिन, दोनों को यह मालूम था कि आंबेडकर असाधारण रूप से सामर्थ्यवान व्यक्ति थे. जब देश को स्वतंत्रता मिली, तो हर कोई इस टकराव को लेकर चिंतित था.
‘गांधी और नेहरू को यह अहसास था कि वे आंबेडकर के बिना क़ानून और संविधान नहीं तैयार कर सकते. इस भूमिका को निभाने के लिए वही एकमात्र सक्षम व्यक्ति थे. लेकिन, उन्होंने इसके लिए भीख नहीं मांगी. बाक़ी सबने उनसे हमारे क़ानूनों की रूपरेखा लिखने के लिए विनती की थी. वह ब्रह्मा के समान थे, जिन्होंने इस संसार की रचना की. बेहद प्रतिभाशाली और विद्वान व्यक्ति थे. लेकिन, हम हिंदुस्तानी लोग बहुत ख़राब थे. हमने 1947 से पहले और उसके बाद भी उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव किया. उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास से भी बाहर कर दिया गया. वह हमेशा से मेरे लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं, आज भी हैं.'
शोभाराम दादा आगे कहते हैं, 'मैं दिल से पक्का कांग्रेसी हूं. असली वाला कांग्रेसी.' ऐसा कहने से उनका मतलब है कि वह पार्टी की मौजूदा दशा-दिशा के आलोचक हैं. उनका मानना है कि भारत का वर्तमान नेतृत्व 'इस देश को तानाशाही में बदल देगा'. और इसलिए 'कांग्रेस को ख़ुद को पुनर्जीवित करना चाहिए और संविधान व देश को बचाना चाहिए'. वह राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की काफ़ी तारीफ़ करते हैं. 'उन्हें लोगों की चिंता है. वह हम स्वतंत्रता सेनानियों का भी ध्यान रखते हैं.' पूरे देश की तुलना में राजस्थान राज्य में स्वतंत्रता सेनानियों को सबसे अधिक पेंशन दी जाती है. गहलोत सरकार ने मार्च 2021 में इसे बढ़ाकर 50,000 रुपए कर दिया था. केंद्र सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन की सबसे बड़ी राशि 30,000 रुपए है.
शोभाराम दादा इस बात पर क़ायम रहते हैं कि वह गांधीवादी हैं. तब भी, जब आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने के बाद वह सीढ़ियों से नीचे उतर रहे हैं.
'देखिए, मुझे जो अच्छा लगा, मैं बस उसके पीछे चल पड़ा. जिनके भी विचारों से मैं सहमत था, हर उस इंसान के सिद्धांतों का पालन किया. और ऐसे बहुत सारे लोग थे. मुझे ऐसा करने में कभी किसी तरह की परेशानी नहीं नज़र आई. मैंने उनमें और कुछ ढूंढा भी नहीं.’
*****
शोभाराम गहरवार हमें स्वतंत्रता सेनानी भवन ले जा रहे हैं, जहां अजमेर के स्वतंत्रता सेनानी मिला करते थे. यह भवन भीड़भाड़ से भरे एक बाज़ार के बिल्कुल केंद्र में स्थित है. मैं इन बुज़ुर्ग सज्जन के तेज़ क़दमों के साथ तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश कर रहा हूं, जो सड़क की भीड़ को काटते हुए एक गली में मुड़ जाते हैं. वह चलने के लिए छड़ी का उपयोग नहीं करते और काफ़ी तेज़ गति से आगे बढ़ते रहते हैं.
हमारी मुलाक़ात के दौरान केवल एक बार ऐसा हुआ, जब हमने उन्हें किसी उलझन में देखा, जैसे वह कुछ समझ न पा रहे हों. ऐसा तब हुआ, जब हमने उस स्कूल का दौरा किया जिस पर उन्हें बहुत गर्व हुआ करता था. और, जब दीवार पर लिखी इबारत को हमने पढ़ा. एक सूचना, जो हाथ से पेंट करके लिखी गई थी, 'सरस्वती स्कूल बंद पड़ा है.’ इसे और कॉलेज को बंद कर दिया गया है. चौकीदार और आसपास के अन्य लोगों का कहना है कि यह बंदी स्थायी तौर पर हुई है. शायद यह जगह जल्द ही मूल्यवान ज़मीन के तौर पर देखी जाने लगेगी.
हालांकि, स्वतंत्रता सेनानी भवन पहुंचकर शोभाराम दादा ज़्यादा चिंतित नज़र आते हैं, और बीते वक़्त की यादों से घिर जाते हैं.
'15 अगस्त 1947 को जब लाल किले पर तिरंगा फहराया गया था, तब हम लोगों ने यहां झंडा फहराया था. इस भवन को हमने नई नवेली दुल्हन की तरह सजाया था. और, हम सभी स्वतंत्रता सेनानी यहां मौजूद थे. हम तब युवा थे और उस मौक़े पर आनंदविभोर थे.
'यह भवन बहुत ख़ास था. इस जगह का कोई एक मालिक नहीं था. इतने सारे स्वतंत्रता सेनानी हुआ करते थे, और हम सबने अपने लोगों के लिए बहुत काम किया. हम कभी-कभार दिल्ली जाते थे और नेहरू से मिलते थे. बाद में, हम इंदिरा गांधी से भी मिले. अब उनमें से कोई भी जीवित नहीं है.
'हमारे पास इतने सारे महान स्वतंत्रता सेनानी थे. मैंने क्रांति पक्ष के इतने सारे लोगों के साथ काम किया. और, सेवा पक्ष के भी.' वह हमें नाम गिनाते हैं.
'डॉ सारदानंद, वीर सिंह मेहता, राम नारायण चौधरी. राम नारायण, दैनिक नवज्योति के संपादक दुर्गा प्रसाद चौधरी के बड़े भाई थे. अजमेर का भार्गव परिवार था. मुकुट बिहारी भार्गव उस समिति के सदस्य थे जिसने आंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान का मसौदा तैयार किया था. उनमें से कोई भी अब नहीं रहा. गोकुलभाई भट्ट थे, हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक. उन्हें राजस्थान का गांधीजी कहा जाता था.' भट्ट कुछ समय के लिए सिरोही रियासत के मुख्यमंत्री रह चुके थे, लेकिन सामाजिक सुधार व आज़ादी की लड़ाई के लिए उन्होंने पद छोड़ दिया था. सारी बातों में, शोभाराम दादा इस बात को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का एक भी सदस्य स्वतंत्रता संग्राम में शामिल नहीं था.
'वो? उन्होंने तो उंगली भी नहीं कटाई.'
अब एक बात की चिंता शोभाराम दादा को बहुत सताती है कि स्वतंत्रता सेनानी भवन का आगे क्या होगा.
'मैं अब बूढ़ा हो गया हूं. और हर दिन यहां नहीं आ सकता. लेकिन, जब भी तबीयत ठीक रहती है, तो ज़रूर आता हूं और कोशिश करता हूं कि कम से कम एक घंटे यहीं बिताऊं. जो लोग आते हैं मैं उनसे मिलता हूं, और जितना बन पड़ता है उनकी समस्याएं सुलझाने में उनकी मदद करने की कोशिश करता हूं.
'मेरे साथ कोई नहीं है. मैं इन दिनों बिल्कुल अकेला हूं. अधिकांश स्वतंत्रता सेनानियों की मृत्यु हो चुकी है. और जो अभी तक जीवित हैं वे काफ़ी कमज़ोर हो चुके हैं और उनका स्वास्थ्य काफ़ी ख़राब है. स्वतंत्रता सेनानी भवन की देखरेख के लिए मैं अकेला बचा हूं. आज भी मैं इसे संजोता हूं, और संरक्षित करने की कोशिश करता हूं. लेकिन इस देखकर मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं. मेरे साथ कोई नहीं है, अकेला हूं.
'मैंने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र लिखा है. उनसे अपील की है कि किसी के हड़पने से पहले इस भवन को सरकार के अधीन ले लें.
'इस जगह की क़ीमत करोड़ों में है. और यह शहर के बीचोबीच स्थित है. तमाम लोग मुझे लालच देने की कोशिश करते हैं. वे कहते हैं, "शोभारामजी, आप अकेले क्या कर लेंगे? यह संपत्ति हमें दे दीजिए. हम आपको करोड़ों रुपए नकद देंगे.” मैं उनसे कहता हूं कि मेरे मरने के बाद ही वे इस इमारत पर हाथ डाल सकते हैं. मैं क्या करूं? उनकी बात कैसे मान लूं? इसकी ख़ातिर लाखों ने अपनी जान दी थी, आज़ादी के लिए क़ुर्बान हो गए. और, मैं उन पैसों का करूंगा भी क्या?
'मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं. किसी को हमारी परवाह नहीं है. स्वतंत्रता सेनानियों को कोई भी नहीं पूछता. एक किताब तक नहीं है, जो स्कूली बच्चों को बताए कि हमने आज़ादी की लड़ाई किस तरह लड़ी और इसे हासिल कैसे किया. लोग हमारे बारे में जानते ही क्या हैं?'
पेंगुइन इंडिया द्वारा शीघ्र प्रकाश्य हिंदी संस्करण से एक अंश.
अनुवाद: देवेश