इसे एक सामान्य व अपेक्षाकृत कम ख़र्चीले नवाचार का उदाहरण कहना सही होगा. लेकिन 65 वर्षीय नारायण देसाई स्वयं इसे साफ़-साफ़ अपनी कला की ‘मौत’ की तरह देखते हैं. उनकी दृष्टि में ‘यह’ शहनाई के डिज़ाइन और पुर्ज़ों में एक सुधार की तरह है, जिसे उन्हें बाज़ार की वास्तविकताओं से निपटने के लिए विवश होकर अपनाना पड़ा है. बहरहाल यह उनकी कला के बुनियादी अस्तित्व के लिए निश्चित रूप से एक बड़ा ख़तरा है.

शहनाई एक सुषिर (फूंक या हवा से बजने वाला) वाद्य है, जो विवाह, उत्सवों और स्थानीय समारोहों में बहुत लोकप्रिय है.

दो साल पहले तक देसाई द्वारा बनाई गई हरेक शहनाई के अंतिम सिरे के भीतर एक पीतली (पीतल की) घंटी हुआ करती थी. पारंपरिक रूप से हाथ से बनाई गई शहनाई के भीतर उमड़ती-घुमड़ती यह घंटी जिसे मराठी में वटी कहा जाता था, को इस सुरीले लकड़ी के वाद्य से निकलने वाले सुर के स्तर को बेहतर बनाने के उद्देश्य से शहनाई के भीतर डाला जाता था. साल 1970 के दशक में, जब नारायण अपने कैरियर में सबसे बेहतर स्थिति में थे, तब उनके पास दर्जनों की तादाद में ऐसी घंटियां हुआ करती थीं जिन्हें वह कर्नाटक के बेलगावी ज़िले के चिकोड़ी शहर से मंगाया करते थे.

बहरहाल, हाल-फ़िलहाल के सालों में दो कारणों ने उन्हें आधी सदी से भी अधिक समय से चली आ रही इस तकनीक में बदलाव लाने के लिए विवश कर दिया. एक तो पीतल की क़ीमतें बहुत तेज़ी से बढ़ीं और दूसरी चीज़ यह हुई कि ग्राहक भी एक अच्छी शहनाई का उचित मूल्य चुकाने में थोड़ी आनाकानी करने लगे.

वह कहते हैं, “लोगों ने मुझपर 300-400 रुपयों में एक शहनाई बेचने का दबाव डालना शुरू कर दिया था.” वह आगे बताते हैं कि ग्राहकों की इस मांग को पूरी करना कठिन था, क्योंकि अकेले पीतल की घंटियां इन दिनों 500 रुपए की आती हैं. ऐसी स्थिति में नारायण के हाथ से कई संभावित ऑर्डर निकल गए. आख़िरकार उन्होंने इसका एक समाधान ढूंढ़ निकाला. “मैंने गांव के मेले से प्लास्टिक की तुरहियां ख़रीदीं और उसके आख़िरी सिरे को काट कर अलग कर दिया. इस हिस्से में डली हुई घंटियां शहनाई के भीतर की घंटी से मिलती-जुलती होती थी. इसके बाद प्लास्टिक की बनी घंटियों को पीतल की घंटियों की जगह शहनाई के भीतर फिट कर दिया.

वह शिकायती लहजे में कहते हैं, “इससे आवाज़ की गुणवत्ता पर तो फ़र्क पड़ा, लेकिन लोगों को भी अब यही चाहिए.” किसी पारखी ख़रीदार के आने की सूरत में वह उसको अपने पास रखी वटी निकाल कर देना नहीं भूलते. प्लास्टिक की बनी वैकल्पिक घंटी की क़ीमत के रूप में उन्हें सिर्फ़ 10 रुपए चुकाने पड़ते हैं. अलबत्ता उन घंटियों के उपयोग के बाद उन्हें अपनी कला के साथ समझौता करने का अपराधबोध भी होता है.

Narayan shows the plastic trumpet (left), which he now uses as a replacement for the brass bell (right) fitted at the farther end of the shehnai
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Narayan shows the plastic trumpet (left), which he now uses as a replacement for the brass bell (right) fitted at the farther end of the shehnai
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प्लास्टिक की तुरही (बाएं) को दिखाते हुए नारायण देसाई, जिसका उपयोग वह शहनाई के दूसरे सिरे के भीतर लगने वाली पीतल की घंटी (बाएं) के स्थान पर करते हैं

हालांकि, साथ-साथ वह यह भी मानते हैं कि यदि उन्होंने यह समाधान नहीं खोजा होता, तो मनकापुर में शहनाई बनाने की कला अब तक मर चुकी होती. साल 2011 की जनसंख्या के अनुसार महाराष्ट्र की सीमा पर बसे उत्तरी कर्नाटक के इस छोटे से गांव की कुल आबादी मात्र 8346 है.

जहां तक उनकी स्मृति जा सकती है, शहनाई को बेलगावी के ग्रामीण इलाक़ों और पास में स्थित महाराष्ट्र में विवाह और कुश्ती प्रतियोगिता जैसे मांगलिक अवसरों पर बजाया जाता रहा है. वह गर्व के साथ बताते हैं, “आज भी हमें कुश्ती प्रतियोगिताओं में शहनाई बजाने के लिए आमंत्रित किया जाता है. यह परंपरा आज भी नहीं बदली है. शहनाई बजने से पहले दंगल शुरू नहीं हो सकती है.”

उनके पिता तुकाराम को 60 के दशक के आख़िर और 70 के दशक की शुरुआत में दूरदराज़ के ख़रीदारों से हरेक महीने कम से कम 15 शहनाई बनाने के आर्डर मिलते थे. इसके 50 साल बाद, आज नारायण को हर महीने बमुश्किल दो शहनाइयों के आर्डर मिलते हैं. वह बताते हैं, “अब बाज़ार में आधी क़ीमतों पर सस्ते विकल्प उपलब्ध हैं.”

युवा पीढ़ी अब शहनाई जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों में कम रुचि लेती है. नारायण इसके लिए ऑर्केस्ट्रा, म्यूजिक बैंड और इलेक्ट्रॉनिक संगीत के प्रति बढ़ते रुझान को भी ज़िम्मेदार मानते हैं. उनके ख़ुद के विस्तृत परिवार और संबंधियों में केवल उनका 27 वर्षीय भांजा अर्जुन जाविर ही मनकापुर का एकमात्र शहनाई वादक है. वहीं नारायण, मनकापुर के अकेले कारीगर हैं जो हाथ से शहनाई के अतिरिक्त बांसुरी बनाने की कला में भी सिद्धहस्त है.

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नारायण कभी भी स्कूल नहीं गए. शहनाई बनाने के काम में उनका आरंभिक प्रशिक्षण अपने पिता और दादा दत्तुबा के साथ गांव के मेले में घूमने के क्रम में ही शुरू हो गया था. दत्तुबा अपने समय में बेलगावी ज़िले के सबसे बेहतरीन शहनाई वादक हुआ करते थे. पारिवारिक पेशे में उनके प्रविष्ट होने की शुरुआत यही मानी जा सकती है, जब नारायण सिर्फ़ 12 साल के थे, “वह शहनाई बजाते थे और मैं नृत्य करता था. जब आप बच्चे होते हैं, तो आपके भीतर किसी भी वाद्ययंत्र को छूकर देखने कि यह एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि यह कैसे बजता है. मेरे भीतर भी यही कौतूहल था.” उन्होंने अपने ही प्रयासों से शहनाई और बांसुरी बजाना सीखा. “अगर आप इन यंत्रों को बजाना नहीं सीखेंगे, तो आप उन्हें कैसे ठीक कर पाएंगे?” उनकी चुनौती में एक मुस्कान भी है.

Some of the tools that Narayan uses to make a shehnai
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कुछ उपकरण जिनका उपयोग नारायण शहनाई बनाने के समय करते हैं

Narayan inspecting whether the jibhali ( reed) he crafted produces the right tones
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नारायण जिभाली या रीड की जांच कर रहे हैं, जिससे शहनाई बनने के बाद सही सुर निकले

जब नारायण सिर्फ़ 18 साल के थे, तभी उनके पिता चल बसे, अपने शिल्प और विरासत को बेटे के हाथों सौंपकर. बाद में नारायण ने अपने कौशल को अपने दिवंगत श्वसुर आनंद केंगर के मार्गदर्शन में निखारा, जो ख़ुद भी मनकापुर में शहनाई और बांसुरी के एक कुशल विशेषज्ञ माने जाते थे.

नारायण का परिवार होलार समुदाय से संबंध रखता है. अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध होलार समुदाय के लोग पारंपरिक रूप से शहनाई और डफली या खंजरी वादक के रूप में जाने जाते हैं. देसाई परिवार की तरह उनमें से कुछ वाद्ययंत्रों को बनाने का भी काम करते हैं. यह कला बुनियादी रूप से पुरुषों द्वारा पोषित मानी जाती है. नारायण बताते हैं, “शुरू से ही हमारे गांव में शहनाई बनाने का काम केवल पुरुष करते हैं.” उनकी मां स्वर्गीया ताराबाई एक खेतिहर मज़दूर थीं, जो साल के उन छह महीनों में गृहस्थी का सभी काम अकेले दम पर करती थीं, जब परिवार के पुरुष सदस्य विवाह या कुश्ती प्रतियोगिता जैसे आयोजनों में शहनाई बजाने चले जाते थे.

नारायण को याद है कि उनके अच्छे दिनों में वह हर साल लगभग 50 अलग-अलग गांवों में साइकिल से जात्रा पर निकलते थे. वह बताते हैं, “मैं दक्षिण की तरफ़ गोवा और कर्नाटक के बेलगावी ज़िले के गांवों और महाराष्ट्र के सांगली और कोल्हापुर तक जाया करता था.”

शहनाई की लगातार गिरती हुई मांग के बावजूद, नारायण आज भी अपने एकमात्र कमरे के घर से जुड़े 8X8 फीट के वर्कशॉप में सागवान, खैर, देवदार और कई दूसरी तरह की लकड़ियों की खुश्बुओं के बीच रोज़ाना घंटों गुज़ारते हैं.  वह कहते हैं, “मुझे यहां बैठना इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि यह मुझे मेरे बचपन की स्मृतियों में वापस ले जाता है.” दुर्गा और हनुमान की दसियों साल पुरानी तस्वीरों से गन्ने और जोवार के सूखे पत्तों से बनी दीवार अभी भी सजी हुई है. वर्कशॉप के ठीक बीच में एक उम्बर या गूलर का पेड़ लगा है जिनकी टहनियां टिन की छत की फांक से बाहर की ओर निकली हुई हैं.

यही वह जगह है जहां पिछले पांच दशकों में अपनी कारीगरी को मांजने में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के 30,000 से भी अधिक घंटे बिताए हैं और अपने हाथों से 5000 से भी ज़्यादा शहनाइयां बनाई हैं. शुरुआती दिनों में एक शहनाई बनाने में उन्हें लगभग छह घंटे का समय लग जाता था, लेकिन अब इस काम को पूरा करने में उन्हें अधिक से अधिक चार घंटे लगते हैं. उनके दिमाग़ और उनके हाथ की हरकतों में जैसे इस प्रक्रिया की एक-एक सूक्ष्म बारीकियां दर्ज हैं. “मैं अपनी नींद में भी बांसुरी बनाने का काम कर सकता हूं.”

After collecting all the raw materials, the first step is to cut a sagwan (teak wood) log with an aari (saw)
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सभी कच्चा माल एकत्र करने के बाद, पहला क़दम एक आरी की सहायता से सागवान की लकड़ी के लट्ठे को काटना होता है

Left: After cutting a wood log, Narayan chisels the wooden surface and shapes it into a conical reed.
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Right: Narayan uses a shard of glass to chisel the wood to achieve the required smoothness
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बाएं: लकड़ी के लट्ठे को काटने के बाद, नारायण उसकी सतह को तराशते हैं और उसे एक शंक्वाकार रूप देते हैं. दाएं: लकड़ी की सतह को तराशने के लिए नारायण कांच के एक टुकड़े की मदद लेते हैं, ताकि उसे अधिकतम चिकना बनाया जा सके

सबसे पहले वह सागवान के एक लट्ठे को आरी की मदद से काटते हैं. पहले वह अच्छे क़िस्म की खैर, चंदन और शीशम का इस्तेमाल करते थे. इन लकड़ियों से अच्छी आवाज़ निकलती थी. “तीस साल पहले मनकापुर और आसपास के गांवों में ये पेड़ प्रचुरता में लगे हुए थे. अब ये पेड़ दुर्लभ हो गए हैं,” वह कहते हैं. एक घन फूट खैर लकड़ी से कम से कम पांच शहनाइयां बन सकती हैं. पहले कोई 45 मिनट तक वह रंदे की सहायता से सतह को चिकना बनाते हैं. “अगर इस समय थोड़ी सी भी चूक हो जाए, तो इससे सही धुन नहीं निकलेगी,” वह समझाते हैं.

बहरहाल, नारायण को लगता है कि सिर्फ़ रंदे का उपयोग कर वह लकड़ी को आवश्यकतानुरूप चिकना नहीं कर पाए हैं. वह वर्कशॉप में चारों तरफ़ अपनी आंखें घुमाते हैं और एक सफ़ेद झोले को खींच कर बाहर निकालते हैं. झोले में हाथ डालकर वह एक कांच की एक बोतल निकालते हैं और उसे फ़र्श पर पटक देते हैं. फिर सावधानी के साथ कांच के एक टुकड़े को उठाते हैं और दोबारा लकड़ी की सतह को चिकना करने में जुट जाते हैं. अपने इस ‘जुगाड़’ पर उनको खुद भी हंसी आ जाती है.

निर्माण के अगले चरण में पर्याप्त रूप से चिकना करने के बाद उस शंक्वाकार डंडी के दोनों सिरों पर छिद्र बनाए जाते हैं. इसके लिए लोहे की जिन सलाखों का उपयोग किया जाता है उन्हें मराठी में गिरमिट कहते हैं. नारायण उन सलाखों को एक इमरी पर घिस कर पैना करते हैं, जो स्मार्टफ़ोन के आकार का एक खुरदरा पत्थर होता है. इस पत्थर को उन्होंने अपने घर से कोई दस किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के इचलकरंजी से 250 रुपए में ख़रीदा है. वह ख़ास तौर पर यह बताना नहीं भूलते कि अधिकतर काम में आने वाले धातु के उपकरण उन्होंने ख़ुद ही बनाए हैं, क्योंकि सबकुछ बाज़ार से ख़रीदना संभव नहीं है. वह बहुत सतर्कता के साथ वाद्य के दोनों सिरों पर गिरमिट से छेद करते हैं. एक छोटी सी चूक भी उनकी उंगलियों में छेद कर देने के लिए काफ़ी है, लेकिन उन्हें डर नहीं लगता है. कुछ पलों तक उन छेदों को आरपार देख कर परखने के बाद वह संतुष्ट दिखते हैं. अब वह अगले काम की तरफ़ बढ़ते हैं, अर्थात सात सुरों के (सरगम) के छेदों के लिए दाग़ लगाते हैं. शहनाई बनाने की प्रक्रिया का यह सबसे मुश्किल काम है.

वह कहते हैं, “यहां तक कि एक मिलीमीटर की भी गड़बड़ी हो गई, तो पक्का सुर नहीं निकलेगा, और इसे दुरुस्त करने की कोई तरकीब भी नहीं है.” चूक से बचने के लिए वह सुरों के छेदों पर सन्दर्भ चिन्ह अंकित करने के लिए पॉवरलूमों में काम आने वाले प्लास्टिक पिर्न का इस्तेमाल करते हैं. उसके बाद वह चुल, यानी पारंपरिक अंगीठी के पास जाते हैं, जिसमें 17 सेंटीमीटर की तीन सलाखों को गर्म किया जाता है. “मैं ड्रिलिंग मशीन का ख़र्च नहीं उठा सकता, इसलिए मैं यह पारंपरिक तरीक़ा आज़माता हूं.” इन सलाखों को काम के लिए इस्तेमाल करना सीखना कोई आसान काम नहीं था. उन घावों की पीड़ा उनकी यादों में ताज़ा हो जाती है. “हम जलने और कटने जैसी मामूली दुर्घटनाओं के अभ्यस्त हो चुके थे,” यह कहते हुए उन्होंने तीनों सलाखों को गर्म करके बारी-बारी से छेद बनाने में उनका इस्तेमाल करना बदस्तूर जारी रखा.

इस पूरी प्रक्रिया में लगभग 50 मिनट लगते है, और इस दरमियान सांस के ज़रिए धुएं की ख़ासी मात्रा उनके फेफड़ों में भर जाती है और वह बीच-बीच में लगातार खांसते भी रहते हैं. इसके बावजूद, वह एक पल के लिए भी नहीं रुकते हैं. “इस काम को तेज़ी से करना होता है, वर्ना ये सलाखें तुरंत ठंडी हो जाएंगी और उन्हें दोबारा गर्म करने से धुआं और अधिक उठेगा.”

एक बार जब सुर के लिए छेद बन जाते हैं, तब उसके बाद वह शहनाई को धोते हैं. वह गर्व के साथ बताते हैं, “यह लकड़ी जल-प्रतिरोधक है. जब मैं कोई शहनाई बनाता हूं, तब वह कम से कम बीस सालों तक टिकती है.”

Narayan uses an iron rod to drill holes as he can't afford a drilling machine. It takes him around 50 minutes and has caused third-degree burns in the past
PHOTO • Sanket Jain
Narayan uses an iron rod to drill holes as he can't afford a drilling machine. It takes him around 50 minutes and has caused third-degree burns in the past
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नारायण ड्रिलिंग मशीन का ख़र्च नहीं उठा सकते हैं, इसलिए उसकी जगह पर वह लोहे की सलाखों का उपयोग करते हैं. इन छेदों को बनाने में लगभग 50 मिनट का समय लगता है और यह कम करते हुए वह कई बार गंभीर रूप से जल भी चुके हैं

Narayan marks the reference for tone holes on a plastic pirn used in power looms to ensure no mistakes are made while drilling the holes. 'Even a one-millimetre error produces a distorted pitch,' he says
PHOTO • Sanket Jain
Narayan marks the reference for tone holes on a plastic pirn used in power looms to ensure no mistakes are made while drilling the holes. 'Even a one-millimetre error produces a distorted pitch,' he says
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नारायण सुरों के लिए सन्दर्भ चिन्ह बनाने के लिए पॉवरलूम में काम आने वाले एक प्लास्टिक पिर्न पर दाग़ लगाते हैं, ताकि यह सुनिश्चित कर सकें कि सही छेदों को बनाने में कोई चूक नहीं हो. ‘एक मिलीमीटर की गड़बड़ी भी ग़लत सुरों के निकलने का कारण बन सकती है’

इसके बाद, वह शहनाई की जिभाली या रीड को तराशने का काम शुरू करते हैं, जिसके लिए वह एक बेंत उपयोग करते हैं, जिसकी आयु लंबी होती है; और इसे मराठी भाषा में ताडाच पान कहा जाता है. इस बेंत को कम से कम 20-25 दिन तक सुखाया जाता है और उनमें से सबसे अच्छी क़िस्म की बेंत को 15 सेंटीमीटर लंबे आकार में काट लिया जाता है. बेंत के एक दर्जन डंडे वह बेलगावी के आदि गांव से 50 रुपए में ख़रीदते हैं. वह कहते हैं, “सबसे उम्दा पान (डंडी) को ढूंढ़निकालना ख़ासा चुनौतियों से भरा काम है.”

वह डंडे को बड़ी सतर्कता के साथ दो बार अर्द्धवृत्त के आकार में मोड़ते हैं, ताकि एक चतुष्कार डंडी का रूप दिया जा सके. बाद में डंडे को 30 मिनट के लिए पानी में भिगोया जाता है. तैयार हो चुकी शहनाई में यही दो मोड़ एक-दूसरे के विरुद्ध कंपन पैदा कर अपेक्षित सुर निकालते हैं. इसके बाद, वह  दोनों सिरों की आवश्यकतानुसार छंटनी करते हैं और उन्हें सूती धागे की मदद से खराद के धुरे से बांध दिया जाता है.

“जिभलीला आकार देणं कठीण असतं [डंडी को आकार देना मुश्किल काम है],” वह कहते हैं. उनकी झुर्रीदार ललाट पर लगा लाल टीका पसीने में घुल कर फैलने लगा है, लेकिन वह शहनाई की बारीकियों को पूरा करने में डूबे हुए हैं. धारदार उपकरणों से उनकी तर्जनी कई जगहों पर कट-फट गई है, लेकिन वह अपने कम को इससे बाधित नहीं होने देते हैं. वह हंस पड़ते हैं, “अगर मैं इन छोटी-मोटी बातों से घबराने लगूं, तो शहनाई कब बनाऊंगा?” डंडी बिल्कुल वैसी ही तैयार हो चुकी है जैसी वह चाहते थे. इसलिए नारायण अब उसमें प्लास्टिक की घंटिया जोड़ने में लग गए हैं. पारंपरिक दृष्टि से इन घंटियों को पीतल का बना होना चाहिए था, जिन्हें शहनाई के चौड़े सिरे पर फिट किया जाता जाता है.

नारायण जो शहनाइयां बनाते हैं मुख्य रूप से तीन लंबाइयों की होती हैं - 22, 18 और 9 इंच - जिन्हें वह क्रमशः 2000, 1500 और 400 रुपयों में बेचते हैं. वह कहते हैं, “22 और 18 इंच के लिए ऑर्डर कम ही मिलते हैं. पिछला आर्डर मुझे कोई दस साल पहले मिला था.”

Narayan soaks tadacha paan (perennial cane) so it can easily be shaped into a reed. The reed is one of the most important element of shehnais, giving it its desired sound
PHOTO • Sanket Jain
Narayan soaks tadacha paan (perennial cane) so it can easily be shaped into a reed. The reed is one of the most important element of shehnais, giving it its desired sound
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नारायण ताडाच पान (बेंत की एक पुरानी प्रजाति) को भिगोते हैं, ताकि उसे मनोनुकूल आकार दिया जा सके. शहनाई की डंडी उसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होती है. शहनाई से सही सुर निकले, इसके लिए इसके आकार का सही होना बहुत ज़रूरी है

Left: Narayan shapes the folded cane leaf into a reed using a blade.
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Right: He carefully ties the reed to the mandrel using a cotton thread
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बाएं: नारायण मुड़े हुए बेंत की पत्ती को एक ब्लेड की मदद से डंडी का आकार देते हैं. दाएं: वह डंडी को सावधानी के साथ सूती के धागे की मदद से खराद के धुरे से बांधते हैं

उनके हाथ से बनाई गई बांसुरी की मांग में भी भारी कमी आई है. “लोग अब लकड़ी की बनी बांसुरी यह कहकर नहीं ख़रीदते कि उनकी क़ीमत अधिक होती है,” इसलिए तीन साल पहले उन्होंने बांसुरी बनाने के लिए काली और नीली पीवीसी (पोलिविनाइल क्लोराइड) का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. पीवीसी की एक बांसुरी 50 रुपए में बिकती है, जबकि लकड़ी की बनी बांसुरी की क़ीमत 100 रुपए से शुरू होती है. यह क़ीमत लकड़ी की क़िस्म और आकार पर निर्भर है. बहरहाल, अपने काम में इस तरह के समझौतों से नारायण ख़ुश नहीं हैं. वह कहते हैं, “पीवीसी से बनी बांसुरी और लकड़ी की बांसुरी में कोई तुलना ही नहीं है.”

हाथ से बनी हरेक शहनाई में लगा कठोर श्रम, चुली से उठने वाले धुएं के कारण सांसों की बढ़ती घरघराहट, डंडी को झुककर तराशने के कारण पीठ में होने वाला असहनीय दर्द और इन सबके प्रतिकार में लगातार घटती हुई आमदनी आदि वे कारण हैं जिसकी वजह से नई पीढ़ी इस कला को सीखने में रुचि नहीं ले रही है. ऐसा नारायण कहते हैं.

अगर शहनाई बनाना कठिन काम है, तो उस शहनाई से संगीत की धुन निकालना भी मुश्किल काम है. साल 2021 में उन्हें कोल्हापुर के जोतिबा मन्दिर में शहनाई बजाने के लिए आमंत्रित किया गया था.  वह बताते हैं, “मैं घंटे भर में ही लड़खड़ाते हुए गिर पड़ा और मेरी शिराओं में ड्रिप चढ़ानी पड़ी.” इस घटना के बाद से उन्होंने शहनाई बजानी छोड़ दी. “यह कोई आसान काम नहीं है. किसी शहनाई-वादक का चेहरा देखिए कि कैसे अपनी हर प्रस्तुति के बाद वह सांस लेने के लिए हांफता है, और आप समझ जाएंगे कि यह कितना कठिन काम है.”

हालांकि, शहनाई बनाने के काम को छोड़ देने का उनका कोई इरादा नहीं है. वह कहते हैं, “कलेत सुख आहे [यह कला मुझे ख़ुशी देती है].”

Left: Narayan started making these black and blue PVC ( Polyvinyl Chloride) three years ago as demand for wooden flutes reduced due to high prices.
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Right: He is cutting off the extra wooden part, which he kept for margin to help correct any errors while crafting the shehnai
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बाएं: नारायण ने काली और नीली पीवीसी (पोलिविनाइल क्लोराइड) की इन बांसुरियों को बनाना कोई तीन साल पहले शुरू किया था, क्योंकि लकड़ी की बांसुरी महंगी होने के कारण, उसकी मांग में बहुत गिरावट आ गई थी. दाएं: लकड़ी के अतिरिक्त टुकड़े को काटकर अलग करते हुए नारायण. यह अतिरिक्त हिस्सा वह शहनाई को बनाने के क्रम में होने वाली किसी त्रुटि को दूर करने के उद्देश्य से रखते हैं

Left: Narayan has made more than 5000 shehnais , spending 30,000 hours on the craft in the last five decades.
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Right: Arjun Javir holding a photo of Maruti Desai, his late grandfather, considered one of the finest shehnai players in Manakapur
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बाएं: नारायण ने लगभग 5,000 से भी अधिक शहनाइयां बनाई हैं, और पिछले पांच दशकों में उन्होंने इस कला को अपने जीवन के कोई 3,000 घंटे दिए हैं. दाएं: अपने दिवंगत दादा मारुति देसाई की एक तस्वीर उठाए हुए अर्जुन जाविर. मारुति को मनकापुर के सबसे हुनरमंद शहनाईवादकों में गिना जाता था

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लंबे समय से नारायण इस सच को समझने लगे हैं कि अब वह आजीविका के लिए सिर्फ़ शहनाई और बांसुरी बनाने के काम पर निर्भर नहीं रह सकते हैं. यही वजह है कि कोई तीन दशक पहले उन्होंने अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए रंग-बिरंगी चकरी बनाने का काम भी शुरू कर दिया. “गांवों के मेलों में अभी भी चकरियों की अच्छी मांग रहती है, क्योंकि हर आदमी गेम खेलने के लिए स्मार्टफ़ोन का ख़र्च नहीं उठा सकता.” दस रुपए में एक बिकने वाली काग़ज़ की बनी यह मामूली सी चीज़ लोगों की ज़िंदगियों में ख़ुशियां भरती है - और नारायण की आमदनी में मामूली सी बढ़त हो जाती है, जिसकी उनके परिवार को बेहद ज़रूरत भी है.

आसानी से बनाई जा सकने वाली चकरियों के अलावा, वह स्प्रिंग से बने और धागे खींचने से चालू होने वालों खिलौने भी बनाते है. काग़ज़ की तह से बने बीसियों रंग-बिरंगे पक्षी भी उनकी कारीगरी का बेहतरीन नमूना हैं, जो 10 से 20 रुपए में आराम से बिक जाते हैं. वह कहते हैं, “मैं कभी किसी कला [आर्ट] स्कूल नहीं गया. लेकिन एक बार मैं काग़ज़ हाथ में ले लेता हूं, तो उसका कुछ न कुछ बनाए बिना नहीं रह सकता.”

कोविड-19 महामारी और उसकी वजह से गांव के मेलों और भीड़ पर लगे प्रतिबंध के कारण इस काम पर बहुत बुरा असर हुआ. वह बताते हैं, “दो सालों तक मैं एक भी चकरी नहीं बेच पाया.” मेरा काम मार्च 2022 के बाद ही दोबारा शुरू हुआ, जब मनकापुर में महाशिवरात्रि यात्रा फिर से शुरू हुई. हालांकि, एक बार दिल का दौरा पड़ने के बाद सेहत में आई गिरावट के कारण उनके लिए सफ़र करना अब मुश्किल काम हो गया है. अपनी चकरियां बेचने के लिए उन्हें अब एजेंटों पर निर्भर करना पड़ता है. वह कहते हैं, “अब हर चकरी की बिक्री पर मुझे एजेंट को तीन रुपए बतौर कमीशन चुकाना पड़ता है. मैं इससे बहुत ख़ुश नहीं हूं, लेकिन इससे थोड़ी आमदनी हो जाती है,” नारायण कहते हैं, जो महीने में अधिक से अधिक 5000 रुपए ही कमा पते हैं.

Left: Sushila, Narayan's wife, works at a brick kiln and also helps Narayan in making pinwheels, shehnais and flutes.
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Right: Narayan started making colourful pinwheels three decades ago to supplement his income
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बाएं: नारायण की पत्नी सुशीला एक ईंट के भट्टे पर काम करती हैं, और साथ ही चकरी, शहनाई और बांसुरी बनाने के काम में अपने पति की मदद भी करती हैं. दाएं: नारायण ने रंग-बिरंगी चकरियां बनाने का काम कोई तीस साल पहले शुरू किया, ताकि अपनी आमदनी थोड़ी बढ़ा सकें

Narayan marks the tone holes (left) of a flute using the wooden reference scale he made and then checks if it is producing the right tones (right)
PHOTO • Sanket Jain
Narayan marks the tone holes (left) of a flute using the wooden reference scale he made and then checks if it is producing the right tones (right)
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नारायण बांसुरी के सुरों वाले छेदों को (बाएं) लकड़ी से बनाए स्केल के सहारे चिन्हित करते हैं. इसके बाद, वह जांचते हैं कि छेदों से सही सुर निकल रहे हैं या नहीं

लगभग 45 के आसपास की उनकी पत्नी सुशीला एक ईंट भट्टे में काम करती हैं, और चकरी, शहनाई और बांसुरी बनाने में भी उनकी सहायता करती हैं. यह कार्यक्षेत्र युगों से पुरुषों के वर्चस्व वाला रहा है. नारायण बतलाते हैं, “अगर सुशीला ने मेरी मदद नहीं की होती, तो मेरा धंधा सालों पहले बंद हो चुका होता. परिवार को चलाने में उसका योगदान बड़ा महत्वपूर्ण है.”

उन्होंने फ्रेम में जड़ी एक तस्वीर हाथ में पकड़ रखी है, जिसमें उनके पिता और दादाजी शहनाई बजा रहे हैं. वह बड़ी विनम्रता के साथ कहते हैं, “मेरे पास हुनर के नाम पर बहुत कुछ नहीं है. मैं चुपचाप एक जगह पर बैठकर अपना काम करना जानता हूं. आम्ही गेलो म्हणजे गेली कला [मेरे साथ यह कला भी मर जाएगी].”

यह स्टोरी संकेत जैन द्वारा ग्रामीण कारीगरों पर लिखी जा रही शृंखला का हिस्सा है, और इसे मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन का सहयोग प्राप्त है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Sanket Jain

سنکیت جین، مہاراشٹر کے کولہاپور میں مقیم صحافی ہیں۔ وہ پاری کے سال ۲۰۲۲ کے سینئر فیلو ہیں، اور اس سے پہلے ۲۰۱۹ میں پاری کے فیلو رہ چکے ہیں۔

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Editor : Sangeeta Menon

سنگیتا مینن، ممبئی میں مقیم ایک قلم کار، ایڈیٹر، اور کمیونی کیشن کنسلٹینٹ ہیں۔

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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