“ओसोब वोट-टोट छारो. संध्या नामार आगे अनेक काज गो.. . [क्या वोट! अंधेरा होने से पहले एक हज़ार काम पड़े हैं पूरे करने को..] मालती माल अपने बग़ल की ख़ाली ज़मीन की तरफ़ इशारा करते हुए कहती हैं, "आओ, बैठो अगर तुम्हें यह गंध बर्दाश्त हो सके तो." वह मुझे महिलाओं के एक समूह में शामिल होने के लिए बुला रही हैं, जो गर्मी और धूल से बेपरवाह, प्याज़ के एक बड़े ढेर के आसपास बैठकर काम कर रही हैं. मैं लगभग एक सप्ताह से इस गांव में घूम रही हूं, इन महिलाओं के साथ वक़्त बिता रही हूं, और उनसे आने वाले चुनावों के बारे में सवाल पूछ रही हूं.

अप्रैल के शुरुआती दिन हैं. पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के इस हिस्से में पारा हर दिन 41 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. शाम पांच बजे भी इस माल पहाड़िया झुग्गी-बस्ती में झुलसा देने वाली गर्मी पड़ रही है. आसपास के पेड़ों पर एक पत्ता भी नहीं हिलता. कच्ची प्याज़ की भारी और तीखी गंध हवा में तैरती रहती है.

महिलाएं अपने डेरे से बमुश्किल पचास मीटर की दूरी पर एक खुली जगह के बीच में, प्याज़ के ढेर के आसपास घेरा बनाकर बैठी हैं. वे हंसिए का इस्तेमाल करके प्याज़ को तनों से अलग करने में व्यस्त हैं. चिलचिलाती दोपहर की गर्मी, कच्चे प्याज़ की झांझ के साथ मिलकर उनके चेहरे पर कुछ इस तरह उतर आई है कि उनके चेहरे चमक उठे हैं. यह चमक सिर्फ़ कड़ी मेहनत के बदले हासिल होती है.

साठ की उम्र पार कर चुकी मालती कहती हैं, "यह मेरा देस [गांव] नहीं है. पिछले सात या आठ सालों से हम यहां आ रहे हैं." वह और समूह की महिलाएं जो माल पहाड़िया आदिवासी समुदाय से हैं, आधिकारिक तौर पर राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध हैं और उन्हें सबसे कमज़ोर आदिवासी समूहों में से एक गिना जाता है.

वह कहती हैं, "हमारे गांव गोआस कालिकापुर में कोई काम ही नहीं मिलता है." मुर्शिदाबाद ज़िले के रानीनगर I ब्लॉक में गोआस के 30 से अधिक परिवार अब बिशुरपुकुर गांव के किनारे अस्थायी झोपड़ियों में रह रहे हैं और आसपास के खेतों में काम करते हैं.

उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें 7 मई को होने वाले लोकसभा चुनाव में मतदान के लिए अपने गांव लौटना था. गोआस कालिकापुर, बिशुरपुकुर गांव से लगभग 60 किलोमीटर दूर है.

PHOTO • Smita Khator
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बाएं: माल पहाड़िया और संताल समुदाय की आदिवासी महिलाएं आसपास की बस्तियों से मुर्शिदाबाद के बेलडांगा I ब्लॉक में खेतों में काम करने आती हैं. मालती माल (दाएं,खड़ी हुईं) अपने पैर सीधा कर रही हैं, जो लंबे समय तक बैठे रहने के कारण दर्द कर रहे हैं

रानीनगर I ब्लॉक से बेलडांगा I ब्लॉक में उनके डेरे तक, माल पहाड़िया समुदाय के लोग तालुका के भीतर काम की तलाश में पलायन करते रहते हैं, जो इस ज़िले में प्रवासी श्रमिकों के अनिश्चितताओं से घिरे जीवन को दर्शाता है.

माल पहाड़िया आदिवासियों के डेरे पश्चिम बंगाल के कई ज़िलों में बिखरे हुए हैं, और अकेले मुर्शिदाबाद में उनकी 14,064 की आबादी रहती है. झारखंड के दुमका के एक विद्वान और समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रामजीवन अहारी कहते हैं, "हमारे समुदाय का मूल निवास राजमहल पहाड़ियों के आसपास के इलाक़ों में हैं. हमारे लोग झारखंड [जहां राजमहल पर्वत शृंखला स्थित है] और पश्चिम बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में पलायन कर गए हैं."

रामजीवन इसकी पुष्टि करते हैं कि पश्चिम बंगाल के उलट झारखंड में, माल पहाड़िया विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) के रूप में पंजीकृत हैं. वह कहते हैं, "विभिन्न राज्यों में एक ही समुदाय की अलग-अलग स्थिति, समुदाय पर प्रत्येक सरकार के रुख को दर्शाती है."

"यहां के लोगों को अपने खेतों में काम कराने के लिए हमारी ज़रूरत पड़ती है," मालती समझाती हैं कि वे क्यों अपने घर से दूर इस डेरे में ठिकाना बनाए हुए हैं. वह कहती हैं, "बुआई और कटाई के सीज़न में हम एक दिन में 250 रुपए तक कमा लेते हैं.” वह बताती हैं कि कभी-कभी उन्हें किसी किसान से उपज में से एक छोटा हिस्सा भी मिल जाता है.

मुर्शिदाबाद के स्थानीय खेतों में काम करने वाले मज़दूरों की बहुत कमी है, क्योंकि ज़िले से बड़ी संख्या में दिहाड़ी मज़दूर काम की तलाश में बाहर पलायन कर जाते हैं. आदिवासी मज़दूर कुछ हद तक इस कमी को पूरा करते हैं. बेलडांगा I ब्लॉक के खेतिहर मज़दूर एक दिन की मज़दूरी का 600 रुपए लेते हैं. जबकि प्रवासी आदिवासी मज़दूर, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं शामिल हैं, उसकी आधी मज़दूरी पर काम करती हैं.

पतली-दुबली और सिर्फ़ 19 साल की उम्र में प्याज़ काटने का काम करने वाली अंजलि माल बताती हैं, "एक बार खेतों से प्याज़ उखाड़े जाने के बाद गांव में लाए जाते हैं, उसके बाद हम अगला काम करते हैं.”

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बाएं: अंजलि माल अपनी अस्थाई झोपड़ी के सामने हैं. वह चाहती हैं कि उनकी बेटी स्कूल जाए, जिसका मौक़ा उन्हें नहीं मिला. दाएं:पश्चिम बंगाल और उसके बाहर भेजने के लिए प्याज़ की बोरियां भरकर ट्रक में लादी जा रही हैं

वे प्याज़ को फड़िया (बिचौलियों) को बेचने और राज्य में व राज्य से बाहर भेजने के लिए तैयार करते हैं. "हम हंसिए की मदद से प्याज़ के तने को उससे अलग करते हैं. छिलके, मिट्टी और जड़ को फेंक देते हैं. फिर हम उन्हें इकट्ठा करते हैं और बोरे में भरते हैं." क़रीब 40 किलो के एक बोरे के वे 20 रुपए कमाते हैं. "हम जितना ज़्यादा काम करते हैं, उतना ज़्यादा कमाते हैं. इसलिए हम हर समय काम करते रहते हैं. यह खेतों में मज़दूरी करने से थोड़ा अलग है," जहां काम के घंटे तय होते हैं.

सदन मंडल, सुरेश मंडल, धोनू मंडल और राखोहोरी बिस्वास सभी पचास की उम्र के क़रीब हैं और बिशुरपुकुर के उन कुछ किसानों में से हैं जो आदिवासियों को काम पर रखते हैं. वे कहते हैं कि पूरे साल बीच-बीच में खेतिहर मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती रहती है. यह मांग फसल के मौसम में सबसे अधिक होती है. किसान हमें बताते हैं कि ज़्यादातर माल पहाड़िया और संताल आदिवासी महिलाएं इस इलाक़े के गांवों में काम करने आती हैं. और वे सभी इस बात पर एकमत नज़र आते हैं: " उनके बिना हमारे लिए किसानी करना असंभव है."

यह बहुत मेहनत वाला काम है. "हमें मुश्किल से खाना बनाने का वक़्त मिल पाता है...." मालती प्याज़ पर काम करते हुए कहती हैं. "बेला होए जाए. कोनोमोते डूटो चाल फूटिए नी. खाबार- दाबारेर अनेक दाम गो." [खाना खाने में बहुत देर हो जाती है. हम किसी तरह थोड़ा सा चावल उबाल लेते हैं. यहां खाने-पीने की चीज़ें बहुत महंगी हैं.]" जब खेतों का दिनभर का काम ख़त्म होता है, तो महिलाओं को घर के काम में जुटना पड़ता है: झाड़ू, कपड़े, साफ़-सफ़ाई, नहाना और फिर रात के खाने की तैयारी.

वह कहती हैं, "हमें हर वक़्त कमज़ोरी महसूस होती है." हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफ़एचएस-5) हमें बताता है कि ऐसा क्यों है. इसके मुताबिक़, ज़िले की सभी महिलाओं और बच्चों में अनीमिया का स्तर बढ़ता जा रहा है. साथ ही, यहां 5 साल से कम उम्र के 40 फ़ीसदी बच्चे विकास संबंधी परेशानियों का सामना कर रहे हैं.

क्या उन्हें यहां राशन नहीं मिलता?

"नहीं. हमारा राशन कार्ड हमारे गांव के लिए है. हमारे परिवार के सदस्य हमारा राशन ले लेते हैं. जब हम अपने घर जाते हैं, हम थोड़ा अनाज अपने साथ वापस ले आते हैं," मालती बताती हैं. वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के उन प्रावधानों का ज़िक्र कर रही हैं जिसकी वे हक़दार हैं. वह कहती हैं, "हम कोशिश करते हैं कि यहां कुछ न ख़रीदें और जितना संभव हो बचाएं और वापस अपने परिवार को भेज दें."

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बिशुरपुकुर की माल पहाड़िया बस्ती, जहां प्रवासी खेतिहर मज़दूरों के 30 परिवार रहते हैं

महिलाएं यह जानकर हैरान हैं कि ' वन नेशन वन राशन कार्ड ' (ओएनओआरसी) जैसी राष्ट्रव्यापी खाद्य सुरक्षा योजनाएं वास्तव में उनके जैसी आंतरिक प्रवासियों को लाभ पहुंचा सकती हैं. मालती पूछती हैं, "हमें आज तक किसी ने इसके बारे में नहीं बताया. हम पढ़े-लिखे नहीं हैं. हमें कैसे मालूम चलेगा?"

अंजलि कहती हैं, "मैं कभी स्कूल नहीं गई. जब मैं पांच साल की थी, मेरी मां गुज़र गईं. पिता ने हम तीन बेटियों को छोड़ दिया. हमारे पड़ोसियों ने हमें पाला." तीनों बहनों को छोटी उम्र से बतौर खेतिहर मज़दूर काम करना पड़ा और किशोर उम्र में ही उनका विवाह हो गया. अंजलि 19 साल की हैं और उनकी 3 साल की बेटी (अंकिता) है. वह कहती हैं, "मैंने कभी पढ़ाई नहीं की. किसी तरह सिर्फ़ नाम-सोई [हस्ताक्षर] करना जानती हूं." और वह बताती हैं कि समुदाय में ज़्यादातर बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है. उनकी पीढ़ी के बहुत से बच्चे निरक्षर हैं.

“मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी को मेरी तरह मुश्किलें हों. काश अगले साल मैं उसका स्कूल में दाख़िला करा पाती. वरना वह कुछ नहीं सीख पाएगी.” जब वह बोलती हैं, तो उनकी चिंता साफ़ झलकती है.

कौन सा स्कूल? बिशुरपुकुर प्राथमिक विद्यालय?

वह कहती हैं, "नहीं. हमारे बच्चे यहां स्कूल नहीं जाते. यहां तक कि छोटे बच्चे भी 'खिचुरी स्कूल' [आंगनवाड़ी] नहीं जाते." शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) होते हुए भी, समुदाय के साथ जो भेदभाव है वह अंजलि के शब्दों में छिपा नज़र आता है. "ज़्यादातर बच्चे जो आप अपने आसपास देख रही हैं वो स्कूल नहीं जाते. उनमें से कुछ जो कालिकापुर में हैं वो जाते हैं. लेकिन वे हमारी मदद करने यहां आते रहते हैं और इसलिए उनकी कक्षाएं छूट जाती हैं."

साल 2022 के एक अध्ययन में पाया गया है कि सामान्य रूप से माल पहाड़ियों और विशेष रूप से समुदाय की महिलाओं के बीच साक्षरता दर क्रमशः 49.10% और 36.50% के चिंताजनक स्तर पर है. पश्चिम बंगाल में आदिवासियों की राज्यव्यापी साक्षरता दर पुरुषों के बीच 68.17% और महिलाओं के बीच 47.71% है.

मैंने देखा कि पांच या छह साल की उम्र की लड़कियां अपनी मां और दादी को प्याज़ इकट्ठा करने और उन्हें बेंत की टोकरियों में रखने में मदद करती हैं. किशोरावस्था के दो लड़के बारी-बारी से टोकरियों से प्याज़ को प्लास्टिक की बड़ी बोरियों में डाल रहे हैं. काम का बंटवारा उम्र, जेंडर और काम में लगने वाली मेहनत को ख़्याल में रखकर किया गया है. अंजलि आसान करके समझाती हैं, "जोतो हात, तोतो बोस्ता, तोतो टाका [जितने अधिक हाथ, उतना अधिक काम, उतना अधिक पैसा]."

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डेरे के बच्चे स्कूल नहीं जाते. यहां तक कि जो बच्चे अपने गांव में पढ़ाई करते हैं उन्हें भी स्कूल छोड़ना पड़ता है, जब वे समय-समय पर मदद के लिए यहां आते हैं

अंजलि पहली बार लोकसभा चुनाव में वोट करने जा रही हैं. “मैंने ग्राम पंचायत चुनाव में मतदान किया है. लेकिन बड़े चुनाव के लिए पहली बार करूंगी!” वह मुस्कराती हैं. "मैं जाऊंगी. इस डेरे के हम सभी लोग वोट देने अपने गांव जाएंगे. वरना वे हमें भूल जायेंगे…”

क्या आप अपने बच्चों के लिए शिक्षा की मांग करेंगी?

"किससे मांगे करें?" अंजलि कुछ देर के लिए चुप होती हैं, और फिर अपने ही सवाल का जवाब देती हैं. "हमारा बिशुरपुकुर में वोट नहीं है. इसलिए यहां कोई हमारी परवाह नहीं करता. और हम वहां पूरे साल गोआस में रहते नहीं हैं, इसलिए वहां भी हमारी कोई सुनवाई नहीं है. आमार ना एखानेर, ना ओखानेर [हम ना यहां के हैं न वहां के]."

वह कहती हैं कि उन्हें इस बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है कि चुनाव में उम्मीदवारों से क्या उम्मीद की जानी चाहिए. “मैं अंकिता को उस वक़्त स्कूल में दाख़िला दिलाना चाहता हूं, जब वह पांच साल की हो जाए. और तब मैं उसके साथ गांव में रहना चाहती हूँ. मैं यहां वापस नहीं आना चाहती. पर कौन जानता है?" वह गहरी सांस लेती हैं.

“हम काम के बिना ज़िंदा नहीं रह सकते,” एक और युवा मां मधुमिता माल (19) अंजलि के संदेह को दोहराते हुए कहती हैं. वह अपनी आवाज़ में दर्दभरी निश्चितता के साथ पूर्वानुमान लगाते हुए कहती हैं, "अगर हमारे बच्चों को स्कूलों में नहीं भेजा जाएगा, तो वे हमारे जैसे रह जाएंगे." युवा मांओं को राज्य द्वारा संचालित आश्रम छात्रावास , या शिक्षाश्री जैसी विशेष योजनाओं की जानकारी नहीं है; न ही केंद्र द्वारा संचालित एकलव्य मॉडल डे बोर्डिंग स्कूल (ईएमडीबीएस) की उन्हें ख़बर है, जिसका उद्देश्य आदिवासी बच्चों के बीच शिक्षा को बढ़ावा देना है.

यहां तक कि बहरामपुर निर्वाचन क्षेत्र, जिसके अंतर्गत बिशुरपुकुर गांव आता है, में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने भी 1999 से आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए न के बराबर काम किया है. यह उनके 2024 के घोषणापत्र में है कि वे ग़रीबों, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए हर ब्लॉक में आवासीय विद्यालय का वादा कर रहे हैं. लेकिन महिलाओं तक इनमें से किसी भी चीज़ के बारे में जानकारी नहीं पहुंच रही है.

मधुमिता कहती हैं, ''अगर कोई हमें इनके बारे में नहीं बताएगा, तो हमें कभी मालूम नहीं चलेगा.''

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बाएं: मधुमिता माल अपने बेटे अविजीत माल के साथ अपनी झोपड़ी में. दाएं: मधुमिता की झोपड़ी के भीतर रखे प्याज़

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बाएं: सोनामोनी माल अपनी झोपड़ी के बाहर बच्चे के साथ. दाएं: सोनामोनी माल के बच्चे झोपड़ी के अंदर दिख रहे हैं. इन माल पहाड़िया झोपड़ियों में एक चीज़ बहुतायत में है और वह है प्याज़, जो फ़र्श पर पड़ी हुई हैं और ऊपर छत से लटकी हुई हैं

सोनामोनी माल (19) कहती हैं, "दीदी, हमारे पास सारे कार्ड हैं - मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड, रोज़गार कार्ड, स्वास्थ्य साथी बीमा कार्ड, राशन कार्ड." वह भी काफ़ी कम उम्र में मां बन गई थीं, और अपने दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के लिए परेशान हैं. “मैं वोट देती, लेकिन इस बार मेरा नाम मतदाता सूची में नहीं है.”

वोट दिए आबार की लाभ होबे? [वोट देंगे तो क्या मिलेगा?] मैं सदियों से वोट करती आ रही हूं,'' 70 साल की उम्र की सावित्री माल (बदला हुआ नाम) ने महिलाओं के बीच ठहाका लगाते हुए कहा.

“मुझे केवल 1,000 रुपए की वृद्धावस्था पेंशन मिलती है और कुछ नहीं. हमारे गांव में कोई काम नहीं है, लेकिन वहां हमारा वोट है,” सत्तर वर्षीय सावित्री शिकायत करती हैं. "अब तीन साल से, उन्होंने हमें हमारे गांव में "एकशो दीनार काज" नहीं दिया है." उनका मतलब '100 दिन के काम' से है, जैसा कि मनरेगा योजना को स्थानीय तौर पर जाना जाता है.

प्रधानमंत्री आवास योजना का ज़िक्र करते हुए अंजलि कहती हैं, ''सरकार ने मेरे परिवार को एक घर दिया है. लेकिन मैं इसमें नहीं रह सकती, क्योंकि हमारे पास वहां कोई काम नहीं है. वह कहती हैं, "अगर हमारे पास 100 दिन का काम (मनरेगा) होता, तो हम यहां नहीं आते."

बेहद सीमित आजीविका विकल्पों ने इस बड़े पैमाने पर भूमिहीन समुदाय के तमाम लोगों को दूरदराज़ के स्थानों पर पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया है. सावित्री हमें बताती हैं कि गोआस कालिकापुर के अधिकांश युवा काम की तलाश में बेंगलुरु या केरल तक जाते हैं. एक निश्चित उम्र के बाद पुरुष अपने गांव के क़रीब काम करना पसंद करते हैं, लेकिन वहां पर्याप्त खेतिहर रोज़गार नहीं हैं. कई लोग अपने ब्लॉक, रानीनगर I में ईंट भट्ठों पर काम करके पैसे कमाते हैं.

सावित्री कहती हैं, "जो महिलाएं ईंट भट्ठों पर काम नहीं करना चाहतीं, वे छोटे बच्चों के साथ दूसरे गांवों में जाती हैं. इस उम्र में मैं भट्टे [भट्टों] में काम नहीं कर सकती. मैं यहां आने लगी हूं, ताकि पेट में कुछ डालने का जुगाड़ कर सकूं. हमारे डेरे में मेरे जैसे बुज़ुर्गों के पास कुछ बकरियां भी हैं. मैं उन्हें चराने के लिए ले जाती हूं,” वह आगे कहती हैं. जब भी उनके समुदाय में किसी के लिए संभव होता है, वे “अनाज वापस लाने के लिए गोआस जाते हैं. हम ग़रीब हैं; हम कुछ भी नहीं ख़रीद सकते.”

प्याज़ का सीज़न ख़त्म होने पर क्या होता है? क्या वे गोआस लौट जाएंगे?

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एक बार प्याज़ उखाड़े जाने के बाद, खेतिहर मज़दूर प्याज़ को साफ़ करते हैं, छांटते हैं, पैक करते हैं और उन्हें बेचने के लिए तैयार करते हैं

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बाएं: मज़दूर खेतों के पास बैठकर दोपहर का खाना खाते हैं. दाएं: मालती माल अपनी बकरी और अपने द्वारा पैक की गई प्याज़ की बोरियों के साथ

अंजलि कहती हैं, "प्याज़ काटने और पैक करने के बाद, तिल, जूट और थोड़ा खोरार धान [शुष्क मौसम में उगाए जाने वाला धान] बोने का समय होता है.” यहां तक कि बच्चों सहित “ज़्यादा से ज़्यादा आदिवासी कुछ पैसा कमाने के लिए समुदाय के इस डेरे में आते हैं." वह कहती हैं साल के इस समय से जून के मध्य तक, खेती के काम में बढ़ोतरी होती है.

युवा खेत मज़दूर बताते हैं कि फसल चक्रों के बीच खेतिहर रोज़गार में कमी आ जाती है, जिससे उन्हें कम दिनों का दिहाड़ी का काम मिलता है. लेकिन अलग-अलग कामों की उपलब्धता के अनुसार पलायन करने वाले मज़दूरों के विपरीत वे वहीं पर रहते हैं और अपने गांव नहीं लौटते. अंजलि कहती हैं, “जोगारेर काज, ठीके काज [राजमिस्त्री के सहायक के रूप में काम करना, ठेकेदारी का काम करना], जो भी हम कर पाते हैं करते हैं. हमने ये झोपड़ियां बनाई हैं और यहीं रहते हैं. हर झोपड़ी के लिए हम ज़मीन के मालिक को 250 रुपए महीना देते हैं."

सावित्री कहती हैं, "यहां कभी कोई हमारा हालचाल लेने नहीं आता. कोई नेता, या कोई भी...तुम ख़ुद देखो."

मैं झोपड़ी की ओर एक संकरी कच्ची सड़क से होते हुए गुज़रती हूं. क़रीब 14 साल की सोनाली मुझे रास्ता दिखा रही है. वह अपनी झोपड़ी में 20 लीटर की बाल्टी में पानी लेकर जा रही है. "मैं तालाब में नहाने गई और इस बाल्टी को भर लिया. हमारी बस्ती में पानी नहीं है. तालाब गंदा है. क्या करूं?" वह जिस तालाब का ज़िक्र कर रही है वह डेरे से क़रीब 200 मीटर दूर है. यह वही जगह है जहां मानसून में कटी हुई जूट की फसल को गलाया - तने से रेशों को अलग करना - जाता है. यह पानी इंसानों के लिए हानिकारक बैक्टीरिया और रसायनों से संक्रमित है.

वह गीले कपड़े बदलने के लिए झोपड़ी में जाते हुए कहती है, "यह हमारा घर है. यहां मैं अपने बाबा के साथ रहती हूं." मैं बाहर इंतज़ार करती हूं. बांस की टहनियों और जूट की लकड़ियों से बना कमरा, अंदर से मिट्टी और गाय के गोबर की परतों से ढंका हुआ है, और निजता जैसी कोई चीज़ नहीं है. तिरपाल की चादरों से ढंकी बांस की फांकों और पुआल की छत बांस के खंभों पर टिकी हुई है.

अपने बालों में कंघी करते हुए सोनाली ने हिचक के साथ पूछा, "आप अंदर आना चाहोगी?" लकड़ियों के बीच की दरारों से झांकती ढलते दिन की रोशनी में, 10x10 फ़ीट की झोपड़ी के अंदर का हिस्सा खाली दिखता है. वह कहती है, "मां मेरे भाई-बहनों के साथ गोआस में रहती है." उसकी मां रानीनगर I ब्लॉक में एक ईंट भट्टे में काम करती हैं.

"मुझे अपने घर की बहुत याद आती है. मेरी मौसी भी अपनी बेटियों के साथ यहां आती हैं. मैं रात को उनके साथ सोती हूं." सोनाली कहती है, जिसे खेतों पर काम करने के लिए 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी.

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बाएं: सोनाली माल अपनी झोपड़ी के बाहर बहुत शौक़ से फोटो खिंचवाती है. दाएं: उसके डेरे के अंदर रखा सामान. दुनिया के इस छोर पर, कड़ी मेहनत से सफलता हासिल करना संभव नहीं

जब सोनाली तालाब पर धोए हुए कपड़े बाहर टांगने जाती हैं, तो मैं झोपड़ी में चारों तरफ़ देखती हूं. कोने में एक अस्थायी बेंच पर कुछ बर्तन, आसपास मंडराते चूहों से चावल और बाक़ी ज़रूरत की चीज़ों को बचाकर रखने के लिए ढक्कन वाली एक प्लास्टिक की बाल्टी, अलग-अलग आकार के कुछ प्लास्टिक के पानी के डिब्बे रखे हैं और मिट्टी के फ़र्श पर चूल्हा बना हुआ है. यही यहां का रसोईघर है.

कुछ कपड़े यहां-वहां टंगे हैं, दूसरे कोने में दीवार में अटका हुआ एक कांच और कंघी, मोड़ कर रखी हुई एक प्लास्टिक की चटाई, एक मच्छरदानी और एक पुराना कंबल – सभी कुछ एक दीवार से दूसरी दीवार पर तिरछे टिके बांस पर रखा है. एक चीज़ जो भरपूर मात्रा में है, और एक पिता व उसकी किशोर बेटी की कड़ी मेहनत का सुबूत है, वह है प्याज़ - जो फ़र्श पर पड़ी हुई है, ऊपर छत से लटकी हुई है.

सोनाली अंदर आते हुए कहती है, "आइए मैं आपको अपना शौचालय दिखाती हूं." मैं उसके पीछे-पीछे चलती हूं. कुछ झोपड़ियां पार करने के बाद हम डेरे के कोने में 32 फ़ीट की एक संकरी सी जगह पहुंचे. अनाज भरने वाली बोरी को सिलकर बनी हुई एक शीट से, उनके खुले 4x4 फ़ीट के 'शौचालय' की दीवार बनी हुई है. वह कहती है, "यहां पर हम पेशाब करते हैं और शौच के लिए हम यहां से थोड़ी दूर खुली जगह का इस्तेमाल करते हैं." जैसे ही मैं एक क़दम आगे बढ़ने की कोशिश करती हूं, वो मुझे आगे न जाने के लिए सावधान करती है कि ऐसा न हो कि मेरा पैर मल पर पड़ जाए.

डेरे में स्वच्छता सुविधाओं की कमी मुझे ' मिशन निर्मल बांग्ला ' के रंगीन सचित्र संदेशों की याद दिलाती हैं, जो मैंने इस माल पहाड़िया डेरे की ओर जाते समय देखे थे. पोस्टरों में राज्य सरकार की स्वच्छता परियोजना के विज्ञापन के साथ-साथ, माड्डा ग्राम पंचायत के खुले में शौच से मुक्त होने का भी दावा किया गया है.

अपनी शर्म और हिचक को किनारे करते हुए सोनाली कहती हैं, "माहवारी के वक़्त इतनी मुश्किल होती है. हमें अक्सर संक्रमण हो जाता है. हम पानी के बिना कैसे काम चलाएं? और तालाब का पानी गंदगी और कीचड़ से भरा हुआ है."

आपको पीने का पानी कहां से मिलता है?

“हम एक निजी आपूर्तिकर्ता से पानी ख़रीदते हैं. वह 20 लीटर के जार को दोबारा भरने के लिए 10 रुपए लेता है. वह शाम को आता है और मुख्य सड़क पर इंतज़ार करता है. हमें उन बड़े जारों को अपनी झोपड़ियों तक लेकर आना पड़ता है.”

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बाएं: डेरे का वह हिस्सा जिसका उपयोग शौचालय के रूप में किया जाता है. दाएं: बिशुरपुकुर गांव में मिशन निर्मल बांग्ला के भित्ति चित्र माड्डा ग्राम पंचायत के खुले में शौच से मुक्त होने का दावा करते हैं

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बाएं: प्रदूषित तालाब, जिसका उपयोग माल पहाड़िया खेतिहर मज़दूर नहाने, कपड़े धोने और बर्तन साफ़ करने के लिए करते हैं. दाएं: समुदाय को पीने का पानी निजी जल आपूर्तिकर्ता से ख़रीदना पड़ता है

"क्या आप मेरी दोस्त से मिलेंगी?" वह अपनी आवाज़ में अचानक आई ख़ुशी के साथ पूछती है. "यह पायल है. यह मुझसे बड़ी है, लेकिन हम दोस्त हैं." सोनाली ने मुझे अपनी नवविवाहित 18 वर्षीय सहेली से मिलवाया, जो अपनी झोपड़ी में ज़मीन पर बैठी है और रात का खाना तैयार कर रही है. पायल माल के पति बेंगलुरु में निर्माण स्थलों पर एक प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करते हैं.

पायल कहती हैं, "मैं आती-जाती रहती हूं. मेरी सास यहां रहती हैं." वह बताती हैं, "गोआस में बहुत अकेलापन है. इसलिए मैं यहां आकर उनके साथ रहती हूं. मेरे पति को गए अब काफ़ी समय हो गया है. नहीं पता वो कब वापस लौटेंगे. शायद वोट डालने के लिए आएं." सोनाली ने बताया कि पायल गर्भवती हैं और उन्हें पहले ही पांच महीने हो चुके हैं. पायल शरमा जाती हैं.

क्या आपको यहां दवाएं और ज़रूरी ख़ुराक मिल जाती है?

वह जवाब देती हैं, "हां, मुझे एक आशा दीदी आयरन की दवा देती हैं. मेरी सास मुझे [आईसीडीएस] केंद्र ले गईं. उन्होंने मुझे कुछ दवाइयां दीं. अक्सर मेरे पैरों में सूजन हो जाती है और बहुत दर्द होता है. यहां हमारे पास इलाज करवाने के लिए कोई नहीं है. एक बार प्याज़ का काम ख़त्म होने के बाद मैं वापस गोआस जाऊंगी."

किसी भी आपात स्थिति में चिकित्सीय सहायता के लिए महिलाएं यहां से लगभग 3 किलोमीटर दूर बेलडांगा शहर जाती हैं. रोज़मर्रा की दवाओं और प्राथमिक चिकित्सा की किसी भी ज़रूरत के लिए उन्हें मकरमपुर बाज़ार जाना पड़ता है, जो डेरे से लगभग एक किलोमीटर दूर है. पायल और सोनाली दोनों के परिवारों के पास स्वास्थ्य साथी कार्ड हैं, लेकिन उनका कहना है कि "आपातकालीन स्थितियों में, इलाज कराने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है."

हमारी बातचीत के दौरान डेरे के बच्चे हमारे आसपास दौड़ते रहते हैं. क़रीब 3 साल के अंकिता और मिलन और 6 साल का देबराज, हमें अपने खिलौने दिखाते हैं. इन नन्हें जादूगरों ने अपनी कल्पनाशक्ति के सहारे ख़ुद के हाथों से 'जुगाडू खिलौने' बनाए हैं. "हमारे पास यहां टीवी नहीं है. मैं कभी-कभी बाबा के मोबाइल पर गेम खेलता हूं. मुझे कार्टून देखने को नहीं मिलता,” अर्जेंटीना की फ़ुटबॉल टीम की नीली और सफ़ेद टी-शर्ट में देबराज ने अपनी शिकायत दर्ज कराई.

डेरे के सारे बच्चे कुपोषित नज़र आते हैं. पायल कहती हैं, "उन्हें हमेशा बुख़ार या पेट की कोई परेशानी बनी रहती है. सोनाली कहती हैं, "और मच्छर एक बड़ी समस्या हैं." मधुमिता बात में शामिल होती हैं और हंसते हुए कहती हैं, "एक बार हम मच्छरदानी के अंदर घुस जाएं, तो फिर आसमान भी गिर पड़े, हम उससे बाहर नहीं निकलते."

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बाएं: सोनाली माल के साथ बाईं तरफ़ पायल माल हैं, और दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद हंसी मज़ाक़ के कुछ पल साझा कर रही हैं. पायल अभी-अभी 18 साल की हुई हैं और अभी मतदाता के तौर पर पंजीकृत नहीं हैं

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बाएं: भानु माल काम करने की जगह पर. वह कहती हैं, ‘कुछ हड़िया [चावल को सड़ाकर बनी पारंपरिक शराब] और भुजिया लाओ. मैं तुम्हें पहाड़िया गाना सुनाऊंगी.' दाएं: प्रवासी डेरों के बच्चे अपनी कल्पनाओं के सहारे खिलौने बनाते हैं

मैं एक बार फिर से उनसे चुनाव के बारे में पूछने की कोशिश करती हूं. "हम वोट देने जाएंगे. लेकिन आप जानती हैं, यहां हमसे मिलने कोई नहीं आता. हम इसलिए जाते हैं, क्योंकि हमारे बुज़ुर्ग सोचते हैं कि मतदान ज़रूरी है,'' मधुमिता खुलकर बोलती हैं. यह उनका भी पहला मतदान है. पायल का नाम अभी तक मतदाता सूची में नहीं आया है, क्योंकि वह अभी-अभी 18 साल की हुई हैं. सोनाली कहती हैं, ''चार साल बाद मैं भी इनके जैसी हो जाऊंगी. तब मैं भी वोट डालूंगी. लेकिन इनकी तरह मैं इतनी जल्दी शादी नहीं करूंगी.'' एक बार फिर से हंसी-मज़ाक़ का दौर शुरू हो जाता है.

मैं डेरे से निकलने लगती हूं, और इन युवा महिलाओं की हंसी, बच्चों के खेलकूद का शोर फीका पड़ने लगता है, और प्याज़ काटने वाली महिलाओं की ऊंची आवाज़ गूंजती सुनाई देती हैं. उन्होंने दिन का काम ख़त्म कर लिया है.

मैंने पूछती हूं, "क्या आपके डेरे में कोई है, जो माल पहाड़िया भाषा बोलता हो?"

भानु माल चिढ़ाते हुए कहती हैं, "हड़िया [चावल सड़ाकर बनी पारंपरिक शराब] और भुजिया लाओ. मैं तुम्हें पहाड़िया गाना सुनाऊंगी.”  यह 65 वर्षीय विधवा खेतहिर मज़दूर अपनी भाषा में कुछ पंक्तियां सुनाती हैं और फिर प्यार से कहती हैं, "अगर तुम्हें हमारी भाषा सुनने का मन है, तो तुम गोआस आना."

“क्या आप भी पहाड़िया बोलती हैं?” मैं अंजलि की ओर मुड़ती हूं, जो अपनी भाषा के बारे में यह असामान्य प्रश्न सुनकर थोड़ी हतप्रभ दिखती हैं. “हमारी भाषा? नहीं, गोआस में केवल बूढ़े लोग ही हमारी भाषा बोलते हैं. यहां लोग हम पर हंसते हैं. हम अपनी भाषा भूल गए हैं. हम केवल बांग्ला बोलते हैं.”

अंजलि डेरे की ओर जा रही बाक़ी महिलाओं के साथ शामिल हो जाती हैं. वह कहती हैं, “गोआस में हमारा घर है, हमारी दुनिया है, और यहां हमें काम मिलता है. आगे भात...वोट, भाषा सब तार पोरे [पहले भात, फिर वोट, भाषा और बाक़ी बात].''

अनुवाद: शोभा शमी

Smita Khator

اسمِتا کھٹور، پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا (پاری) کے ہندوستانی زبانوں کے پروگرام، پاری بھاشا کی چیف ٹرانسلیشنز ایڈیٹر ہیں۔ ترجمہ، زبان اور آرکائیوز ان کے کام کرنے کے شعبے رہے ہیں۔ وہ خواتین کے مسائل اور محنت و مزدوری سے متعلق امور پر لکھتی ہیں۔

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Editor : Pratishtha Pandya

پرتشٹھا پانڈیہ، پاری میں بطور سینئر ایڈیٹر کام کرتی ہیں، اور پاری کے تخلیقی تحریر والے شعبہ کی سربراہ ہیں۔ وہ پاری بھاشا ٹیم کی رکن ہیں اور گجراتی میں اسٹوریز کا ترجمہ اور ایڈیٹنگ کرتی ہیں۔ پرتشٹھا گجراتی اور انگریزی زبان کی شاعرہ بھی ہیں۔

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Translator : Shobha Shami

Shobha Shami is a media professional based in Delhi. She has been working with national and international digital newsrooms for over a decade now. She writes on gender, mental health, cinema and other issues on various digital media platforms.

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