इन सबकी शुरुआत काग़ज़ के एक टुकड़े और एक अजनबी इंसान के सवाल से हुई थी.

कमलेश डांडोलिया, जो तब 12 साल के थे, रातेड़ गांव में अपने घर के नज़दीक एक पर्यटक गेस्टहाउस के पास घूम रहे थे, तभी उनकी नज़र एक परदेसी पर पड़ी. “उसने पूछा कि क्या मैं भारिया जानता हूं.” इससे पहले कि कमलेश जवाब दे पाते, “उस आदमी ने मुझे एक काग़ज़ पकड़ा दिया और पढ़ने को कहा.”

वह अजनबी इंसान मौक़े का फ़ायदा उठा रहा था - यहां तामिया ब्लॉक की पातालकोट घाटी में भारिया समुदाय के तमाम लोग रहते हैं, जो मध्य प्रदेश में विशेष पिछड़ी जनजाति समूह ( पीवीटीजी ) के तौर पर सूचीबद्ध है. कमलेश, भारिया समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं और समुदाय की भाषा - भरियाटी धाराप्रवाह बोल लेते थे.

छोटी उम्र के बालक ने आत्मविश्वास के साथ काग़ज़ को पढ़ना शुरू किया. इसमें उनके समुदाय के बारे में सामान्य जानकारियां लिखी हुई थीं. और चूंकि लिपि देवनागरी थी, “मुझे यह आसान लगा.” दूसरे खंड में, जिसमें सामानों के नाम लिखे थे, कमलेश लड़खड़ाने लगे. “शब्द तो निश्चित तौर पर भरियाटी में लिखे थे,” वह याद करते हैं, “उनकी ध्वनियां मैं जानता था, लेकिन शब्द अजनबी सुनाई दे रहे थे.”

वह एक मिनट के लिए ठहरते हैं और स्मृति पर ज़ोर देते हैं, ताकि कुछ याद कर सकें. “कोई एक शब्द था, जो किसी जंगली जड़ीबूटी [औषधीय पौधा] का नाम था. काश मैंने उसे लिख लिया होता,'' वह निराशा में अपना सिर हिलाते हुए कहते हैं. “अब मुझे वह शब्द या उसका अर्थ याद नहीं आ रहा है.”

इस कठिनाई ने कमलेश को सोचने पर मजबूर कर दिया: “मैंने सोचा कि भरियाटी के और कितने शब्द होंगे जो मुझे नहीं आते.” वह जानते थे कि उन्हें धाराप्रवाह भरियाटी आती है - वह अपने दादा-दादी से भरियाटी में बात करते बड़े हुए थे, जिन्होंने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया था. “किशोरावस्था तक मैं सिर्फ़ यही भाषा बोलना जानता था. मुझे अब भी धाराप्रवाह हिंदी बोलने में परेशानी होती है,” वह हंसते हुए कहते हैं.

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बाएं: कमलेश डांडोलिया (29) किसान हैं और भाषा के संग्रहण व संरक्षण में लगे हुए हैं, और विशेष पिछड़ी जनजाति समूह (पीवीटीजी) भारिया समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं. दाएं: मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा ज़िले के रातेड़ गांव में उनका घर

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बाएं: पातालकोट घाटी में प्रवेश करते समय तामिया ब्लॉक का नाम लिखा मिलता है. सतपुड़ा की पहाड़ियों में स्थित इस घाटी के 12 गांवों में भारिया समुदाय के लोग रहते हैं. तस्वीर में नज़र आते इस स्थान पर स्थानीय लोग जमा होते हैं, जो अक्सर घर वापस जाने के लिए साझा टैक्सियों का इस्तेमाल करते हैं. दाएं: कमलेश के घर के बाहर की सड़क मध्य प्रदेश के कई लोकप्रिय पर्यटन स्थलों की ओर जाती है

मध्य प्रदेश में भारिया समुदाय के लगभग दो लाख लोग रहते हैं (अनुसूचित जनजातियों की सांख्यिकीय प्रोफ़ाइल, 2013 ), लेकिन केवल 381 लोगों ने भरियाटी को अपनी मातृभाषा बताया है. हालांकि, यह जानकारी भारतीय भाषा जनगणना द्वारा प्रकाशित 2001 के आंकड़ों से ली गई है, और इसके बाद इससे जुड़ी कोई जानकारी नहीं मिलती है, क्योंकि 2011 की जनगणना में भरियाटी को अलग से सूचीबद्ध नहीं किया गया. यह भाषा अनाम मातृभाषाओं की श्रेणी में छिपी हुई है, जो अक्सर उन भाषाओं को नज़रअंदाज कर देती है जिन्हें 10,000 से कम लोग बोलते हैं.

सरकार द्वारा जारी इस वीडियो के मुताबिक़, किसी ज़माने में यह समुदाय महाराष्ट्र के राजाओं के कुली हुआ करते थे. नागपुर के मुधोजी द्वितीय (जिन्हें अप्पा साहेब के नाम से भी जाना जाता है) को तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान साल 1818 की लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा और वहां से भागना पड़ा. बहुत से भारिया लोगों ने भी ऐसा ही किया और मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, बैतूल और पचमढ़ी के जंगलों में बस गए.

आज यह समुदाय अपनी पहचान भारिया (या भारती) बताता है. उनका पारंपरिक पेशा झूम खेती का था. उन्हें औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों का भी व्यापक ज्ञान था, जिसकी वजह से लोग साल भर उनके गांव आते रहते हैं. “वे हमसे जड़ी-बुट्टी ख़रीदने के लिए यहां आते हैं. कई बुज़ुर्गों के पास अब लाइसेंस है और वे कहीं भी जाकर इन औषधीय पौधों को बेच सकते हैं,” कमलेश बताते हैं.

हालांकि, भाषा की तरह ही इन पौधों का ज्ञान भी, “अब गांव के बुज़ुर्गों तक ही सीमित है," वह आगे कहते हैं.

युवा पीढ़ी, जिसने पारंपरिक ज्ञान नहीं हासिल किया है, भुरटे (भुट्टे का भरियाटी शब्द) की खेती और चारक (चिरौंजी के लिए भरियाटी शब्द), महू (महुआ), आंवला और जलावन की लकड़ियों जैसे मौसमी वन उत्पादों के सहारे पूरे साल गुज़ारा चलाते हैं.

समुदाय के सड़कों की हालत भी बहुत ख़राब है, जबकि महादेव मंदिर और राजा खोह की गुफा जैसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल उनकी घाटी में हैं. समुदाय के लोग मुख्यतः सतपुड़ा पर्वत शृंखला की तलहटी में स्थित पातालकोट इलाक़े में बसे 12 गांवों में रहते हैं. यहां के बच्चे शिक्षा हासिल करने के लिए आमतौर पर इंदौर जैसे नज़दीकी शहरों के आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं.

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बाएं: कमलेश (सबसे बाएं) घर के बाहर अपने परिवार के साथ बैठे हैं. उनके भाई की पत्नी व बेटे संदीप (केसरिया बनियान में) और अमीत, कमलेश की मां फुल्लेबाई (सबसे दाएं); और दादी सुक्तिबाई (गुलाबी ब्लाउज़ में). दाएं: समुदाय का पारंपरिक पेशा झूम खेती का रहा है. आज की युवा पीढ़ी भुट्टे की खेती करती है और गुज़ारे के लिए जलावन की लकड़ियों जैसे मौसमी वन उपज इकट्ठा करती है

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क़रीब दस साल बाद, वयस्क हो चुके कमलेश मध्य भारत की पहाड़ियों में अपनी गाय और बकरियां चरा रहे थे, जब एक बार फिर उनकी मुलाक़ात एक अजनबी से हुई. वह उस क्षण को याद करके मुस्कुराने लगते हैं जब उन्हें महसूस हुआ था कि वक़्त ख़ुद को दोहरा रहा है. उस अजनबी ने कमलेश से कुछ पूछने के लिए अपनी कार रोकी थी, तो उन्होंने मन ही मन सोचा, “शायद वह भी मुझसे पढ़वाने के लिए कागत [काग़ज़] पकड़ाएगा!”

खेती में घरवालों की मदद करने के लिए कमलेश ने 12वीं में पढ़ाई छोड़ दी थी; घरवालों के पास उनके और उनके सात भाई-बहनों की कॉलेज व स्कूल की फ़ीस भरने के लिए पैसे नहीं थे. गांव में एक प्राथमिक स्कूल था, जहां 5वीं तक पढ़ाई होती थी. उसके बाद, घर के लड़के तामिया और आसपास के शहरों के आवासीय विद्यालय में पढ़ने चले गए, जबकि लड़कियों की पढ़ाई छूट गई.

उस अजनबी ने 22 वर्षीय कमलेश से पूछा कि क्या वह अपनी मातृभाषा को संरक्षित करना चाहेंगे, ताकि अगली पीढ़ी को यह पता रहे कि भरियाटी कैसे बोली जाती है. इस सवाल ने उन्हें गहरे प्रभावित किया और वह तुरंत इसके लिए राज़ी हो गए.

वह अजनबी कोई और नहीं, देहरादून में स्थित भाषा विज्ञान संस्थान के भाषा शोधकर्ता पवन कुमार थे, जो भरियाटी का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए वहां आए थे. वह पहले ही कई दूसरे गांवों की यात्रा कर चुके थे, जहां उन्हें इस भाषा का कोई धाराप्रवाह वक्ता नहीं मिला. पवन कुमार तीन-चार साल तक इस इलाक़े में रहे और “हमने कई कहानियां डिजिटल तौर पर प्रकाशित की और भरियाटी में एक किताब भी छापी,” कमलेश बताते हैं.

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बाएं: कमलेश पेशे से किसान हैं. खेती में घरवालों की मदद करने के लिए कमलेश ने 12वीं में पढ़ाई छोड़ दी थी. दाएं: कमलेश की दादी सुक्तिबाई डांडोलिया, जो लगभग 80 साल की हैं, केवल भरियाटी बोलना जानती हैं और उन्होंने ही कमलेश को यह भाषा सिखाई थी

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बाएं: भरियाटी की वर्णमाला, जिसे कमलेश और भाषा विकास टीम ने तैयार किया है. दाएं: उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं, जिनमें भरियाटी में वर्तनियों से जुड़ी मार्गदर्शिका भी शामिल है

कमलेश की सहमति के बाद पहला काम एक ऐसी जगह को ढूंढना था जहां वह बिना किसी परेशानी के काम कर सकें. “यहां बहुत शोर-शराबा होता था, क्योंकि टूरिस्टों [पर्यटक] का आना-जाना लगा रहता था.” उन्होंने भारिया भाषा विकास टीम बनाने के लिए दूसरे गांव जाने का फ़ैसला किया.

एक महीने के भीतर ही कमलेश और उनकी टीम ने भरियाटी की वर्णमाला सफलतापूर्वक तैयार कर दी, “मैंने हर अक्षर के सामने दिए गए चित्र बनाए.” बुज़ुर्गों ने शब्दों के चुनाव में मदद की. लेकिन वह यहीं नहीं रुके. शोधकर्ता की मदद से उनकी टीम वर्णमाला की 500 से ज़्यादा प्रतियां प्रिंट कराने में कामयाब रही. दो समूहों में विभाजित होकर वे मोटरसाइकिल से नरसिंहपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा और होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) सहित कई अलग-अलग शहरों के प्राथमिक स्कूलों और आंगनबाड़ियों में इन चार्टों को वितरित करने लगे. कमलेश पारी को बताते हैं, “मैंने अकेले ही तामिया, हर्रई और यहां तक ​​कि जुन्नारदेव के 250 से ज़्यादा प्राथमिक स्कूलों और आंगनबाड़ियों में गया होऊंगा."

दूरियां बहुत ज़्यादा थीं, और कभी-कभी तो वे 85 किलोमीटर दूर तक भी गए. “हम तीन-चार दिन घर पर नहीं आते थे. हम किसी के भी घर रुक जाते थे रात में, और सुबह वापस चार्ट बांटने लगते.”

कमलेश कहते हैं कि प्राथमिक स्कूल के ज़्यादातर शिक्षक, जिनसे वे मिले, उनके समुदाय के बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे, "लेकिन वे हमारी कोशिशों की बहुत सराहना करते थे, जिससे हमें उन गांवों तक पहुंचने में मदद मिली जहां अब भरियाटी नहीं बोली जाती है.”

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अरीया (मधेछी के नाम से भी जाना जाता है) दीवार में बने ताख या आले को कहते हैं, जिसका इस्तेमाल रोज़मर्रा के सामान रखने के लिए किया जाता है. बच्चों को आसपास की वस्तुओं की पहचान कराने में मदद करने के लिए, कमलेश ने इसका इस्तेमाल भरियाटी वर्णमाला में किया है

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बाएं: कमलेश आख़िरी कुछ बचे चार्ट पेपर दिखाते हैं, जिनका इस्तेमाल उन्होंने भरियाटी भाषा का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए किया था, और अब एक बॉक्स में बंद हैं. कई अन्य चार्ट कोरोना महामारी के दौरान खो गए थे. दाएं: ये चार्ट पेपर सामूहिक चर्चाओं के बाद तैयार किए गए थे, और इनमें स्वास्थ्य और स्वच्छता से जुड़े संदेश शामिल हैं

एक साल पूरा होते-होते कमलेश और उनकी भाषा विकास टीम ने भरियाटी भाषा में कई किताबें पूरी कर लीं. उनमें से एक वर्तनियों से जुड़ी मार्गदर्शिका थी, तीन स्वास्थ्य पर केंद्रित और तीन नैतिक कहानियों की किताबें शामिल थीं. “शुरुआत में हमने सबकुछ काग़ज़ पर लिखा,” अपने घर के एक बॉक्स में सहेजकर रखे गए कुछ रंग-बिरंगे चार्ट पेपर निकालते हुए वह बताते हैं. बाद में समुदाय के प्रयासों से भरियाटी में एक वेबसाइट की शुरुआत की गई.

रातेड़ के अपने घर में हमसे बातचीत करने के क्रम में वह बताते हैं, “हम वेबसाइट के दूसरे चरण की प्रक्रिया के लिए बहुत उत्साहित थे. मैं पॉकेट बुक, लोकगीत, बच्चों के लिए पहेलियां और शब्द से जुड़े खेल, और बहुत सी दूसरी चीज़ें उस पर साझा करने वाला था...लेकिन महामारी ने सारी योजना पर पानी फेर दिया.” टीम की सभी गतिविधियों को स्थगित कर देना पड़ा. सबसे बुरा तो तब हुआ, जब कमलेश के फ़ोन को रिसेट करने के क्रम में उसमें सुरक्षित रखा सभी डेटा डिलीट हो गया. “सब चला गया,” वह निराशा के साथ कहते हैं. “हम हाथ से लिखी हुई कॉपी भी नहीं सुरक्षित रख पाए.” उनके पास स्मार्टफ़ोन भी नहीं था; इसी साल उन्होंने ईमेल करना सीखा है.

जो कुछ भी बचा रह पाया था उसे उन्होंने दूसरे गांव के अपनी टीम के सदस्यों के हवाले कर दिया. वह बताते हैं कि अब उन सदस्यों के साथ उनका कोई संपर्क नहीं है, “पता नहीं उनके पास भी वे चीज़ें अभी तक सुरक्षित हैं या नहीं.”

हालांकि, सिर्फ़ महामारी के चलते ही उनका काम नहीं बाधित हुआ. वह बताते हैं कि भरियाटी के दस्तावेज़ीकरण में सबसे बड़ी अड़चन समुदाय के युवाओं और बुज़ुर्गों में रुचि की कमी है. “बुज़ुर्गों को लिखना नहीं है और बच्चों को बोलना नहीं है,” वह शिकायती स्वर में कहते हैं. “धीरे-धीरे मैं भी निराश होने लगा और एक दिन इस काम को पूरी तरह रोक दिया.”

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कमलेश और उनकी भरियाटी भाषा विकास टीम के प्रयासों के कारण भरियाटी और अंग्रेज़ी में एक बहुभाषीय वेबसाइट की शुरुआत हुई

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वेबसाइट की शुरुआत के पहले दौर में कमलेश और टीम ने अपने समुदाय, भाषा और आजीविका से संबंधित जानकारियों के साथ-साथ अपने द्वारा लिखी लिखी गई अनेक पुस्तकें – जिनमें एक वर्तनियों से जुड़ी मार्गदर्शिका, स्वास्थ्य से जुड़ी और नैतिक शिक्षा की कहानियां शामिल थीं, को अपलोड किया

कमलेश की टीम में उनके साथ खेती करने वाले किसान शामिल थे, जो अपना अधिकतर समय खेतों में गुज़ारते थे. वह बताते हैं कि दिन भर खेतों में कड़ा श्रम करने के बाद वे शाम में घर लौटने के बाद खाकर जल्दी सो जाते थे. एक सीमा के बाद उन्होंने भी इस काम में रुचि लेना कम कर दिया.

“यह सब मैं अकेले तो नहीं कर सकता था,” कमलेश कहते हैं. “यह एक आदमी का काम है भी नहीं.”

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गांव की सड़कों से गुज़रते हुए कमलेश एक घर के सामने रुक जाते हैं. “जब कभी मैं अपने दोस्तों से मिलता हूं, हम अक्सर दिव्लू भैया के बारे में बातें करते हैं.

दिव्लू बगदारिया 48 वर्षीय लोक नर्तक और गायक हैं, और अक्सर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भारिया समुदाय की नुमाइंदगी करते हैं. “वह अकेले व्यक्ति हैं जो इस बात की गंभीरता को समझते हैं कि हमारी संस्कृति के लिए हमारी भाषा कितनी ज़रूरी है,” कमलेश कहते हैं.

पारी की टीम दिव्लू से रातेड़ में उनके घर के बाहर मिली. वह अपने पोते-पोतियों को भरियाटी में एक गीत गाकर सुना रहे थे, जो अपनी मां के लौटने के इंतज़ार में थे. उनकी मां जंगल से जलावन की लकड़ियां लाने गई थी.

“लिखना और बोलना दोनों ही ज़रूरी है,” दिव्लू, कमलेश की ओर देखते हुए बोलते हैं. “हो सकता है कि जिस तरह अंग्रेज़ी और हिंदी भाषा विषयों के रूप में पढ़ाई जाती है उसी तरह भरियाटी और दूसरी आदिवासी मातृ-भाषाएं भी कभी वैकल्पिक विषयों की तरह पढ़ाई जाने लगें?” वह अपने सबसे छोटे छावा (पोते) को कमलेश द्वारा बनाई गई वर्णमाला दिखाने लगते हैं.

उनका पोता चार्ट में धडुओं (बंदर) की तरफ़ इशारा करता हुआ हंसने लगता है. दिव्लू कहते हैं, “जल्दी ही यह भारिया सीख जाएगा.”

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बाएं: कमलेश की टीम के सदस्य 48 वर्षीय दिव्लू बगदारिया (बाएं) लोकनर्तक और गायक हैं, जो प्रायः मध्यप्रदेश सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भारिया समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. दाएं: दिव्लू अपने पोते अमृत के साथ भरियाटी वर्णमाला देख रहे हैं

कमलेश इतनी आसानी से आश्वस्त नहीं होते हैं. उन्होंने समुदाय के साथ काम करने के क्रम में कठिन चुनौतियों का सामना किया है. “अगर वह आवासीय स्कूलों में जाने लगेगा, तो वह भरियाटी कभी नहीं बोलेगा. केवल हमारे साथ यहां रहकर ही भरियाटी बोल सकेगा,” अपनी भाषा को सहेजने के लिए चिंतित कमलेश कहते हैं.

“वैसे तो 100 में से 75 प्रतिशत विलुप्त ही हो चुकी है हमारी भाषा,” कमलेश कहते हैं. “हम भरियाटी में चीज़ों के असली नाम तक भूल चुके हैं. धीरे-धीरे सबकुछ हिंदी में मिल चुका है.”

जबसे लोग अधिक यात्राएं करने लगे हैं, और बच्चे स्कूल जाने लगे हैं, तबसे वे हिंदी के शब्दों और अभिव्यक्तियों के साथ घर लौटने लगे हैं और अपने माता-पिता से हिंदी में ही बातचीत करने लगे हैं. अब तो पुरानी पीढ़ी भी अपने बच्चों की तरह ही बातचीत करने लगी है, और भरियाटी में बोलने का प्रचलन कम होने लगा है.

“स्कूलों की शुरुआत के बाद तो मैं भी कम भरियाटी बोलने लगा, क्योंकि मेरा अधिकतर समय उन दोस्तों के साथ व्यतीत होने लगा जो हिंदी बोलते थे. धीरे-धीरे मेरी भी आदत बन गई,” कमलेश बताते हैं. वे हिंदी और भरियाटी दोनों बोलना जानते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वह कभी भी एक भाषा बोलते हुए दूसरी भाषा का इस्तेमाल नहीं करते हैं. “मैं उन्हें एक-दूसरे से नहीं मिलाता हूं, जैसा कि दूसरे लोग आमतौर पर करते हैं. इसकी वजह यह है कि मैं भरियाटी बोलने वाली दादी के साथ पला-बढ़ा.”

कमलेश की दादी सुक्तिबाई 80 पार कर चुकी हैं, लेकिन अभी भी हिंदी नहीं बोलती हैं. वह बताते हैं कि अब उनकी दादी हिंदी समझने भले लगी हैं, लेकिन बोल अब भी नहीं पाती हैं. उनके भाई-बहन अधिक नहीं बोलते हैं, क्योंकि “उनको संकोच होता है. वे हिंदी में ही बातचीत करना पसंद करते हैं.”  उनकी पत्नी अनीता भी अपनी मातृभाषा में बातचीत नहीं करती हैं, लेकिन वह उन्हें प्रोत्साहित करते हैं.

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कमलेश बताते हैं कि लोग बाहर गए और उन्होंने दूसरी भाषाएं सीखीं. इस प्रक्रिया में वे भरियाटी में चीज़ों के वास्तविक नाम भूलते गए

“भरियाटी का इस्तेमाल ही क्या है? क्या यह हमें रोज़गार देने में सक्षम है? सिर्फ़ अपनी भाषा बोलने से घर चलता है?” अपनी भाषा को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रहे ये दोनों इंसान इन सवालों से जूझते रहे हैं.

“हम चाहकर भी हिंदी की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं,” व्यवहारिक दृष्टि से सोचने वाले दिव्लू कहते हैं. “फिर भी हमें अपनी भाषा को जीवित रखने की कोशिश करनी चाहिए.”

कमलेश प्रतिवाद करते हुए कहते हैं, “इन दिनों अपनी पहचान साबित करने के लिए आधार या ड्राइविंग लाइसेंस की ज़रूरत पड़ती है.”

लेकिन दिव्लू हार नहीं मानते. “अगर कोई इन काग़ज़ातों के बिना तुमसे तुम्हारी पहचान साबित करने के लिए कहे, तो तुम कैसे करोगे?”

कमलेश हंसते हैं और कहते हैं, “मैं भरियाटी में बात करूंगा.”

“बिल्कुल ठीक. भाषा से भी हमारी पहचान है,” दिव्लू दृढ स्वर में बोलते हैं.

अपने पेंचीदा इतिहास के कारण भरियाटी का भाषागत वर्गीकरण अभी भी अनिश्चितताओं से घिरा हुआ है. कभी द्रविड़ मूल की दिखती इस भाषा में अब स्पष्ट इंडो-आर्यन लक्षण देखे जा सकते हैं. विशेष रूप से शब्दावलियों और ध्वनि-विज्ञान के विष्लेषण की दृष्टि से इसका उद्भव मध्य भारत में हुआ प्रतीत होता है, और द्रविड़ व इंडो-आर्यन – दोनों भाषा-परिवारों से इसका निकट संबंध स्पष्ट परिलक्षित होता है. इसके वर्गीकरण की यह अस्पष्टता इस बात को रेखांकित करती हैं कि समय के साथ-साथ इस पर आर्य और द्रविड़ दोनों भाषाओं का गहरा प्रभाव पड़ा है. यही कारण है कि भाषा-शास्त्रियों के लिए इसका स्पष्ट वर्गीकरण बहुत आसान काम नहीं है.

रिपोर्टर, परार्थ समिति की मंजिरी चांदे और रामदास नागरे तथा पल्लवी चतुर्वेदी का धन्यवाद करती हैं. इसके अलावा, खालसा कॉलेज के शोधकर्ता व व्याख्याता अनघ मेनन और आईआईटी कानपुर के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग में कार्यरत भाषाविद् व सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. चिन्मय धारुडकर ने भी जानकारी साझा की.

अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की मदद से पारी ने ‘लुप्तप्राय भाषा परियोजना’ शुरू की है. परियोजना का मक़सद भारत की संकटग्रस्त भाषाओं का, उन्हें बोलने वाले आम अवाम व उनके जीवन अनुभवों के ज़रिए दस्तावेज़ीकरण करना है.

अनुवाद: देवेश & प्रभात मिलिंद

Ritu Sharma

ریتو شرما، پاری میں معدومیت کے خطرے سے دوچار زبانوں کی کانٹینٹ ایڈیٹر ہیں۔ انہوں نے لسانیات سے ایم اے کیا ہے اور ہندوستان میں بولی جانے والی زبانوں کی حفاظت اور ان کے احیاء کے لیے کام کرنا چاہتی ہیں۔

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پریتی ڈیوڈ، پاری کی ایگزیکٹو ایڈیٹر ہیں۔ وہ جنگلات، آدیواسیوں اور معاش جیسے موضوعات پر لکھتی ہیں۔ پریتی، پاری کے ’ایجوکیشن‘ والے حصہ کی سربراہ بھی ہیں اور دیہی علاقوں کے مسائل کو کلاس روم اور نصاب تک پہنچانے کے لیے اسکولوں اور کالجوں کے ساتھ مل کر کام کرتی ہیں۔

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دیویش ایک شاعر صحافی، فلم ساز اور ترجمہ نگار ہیں۔ وہ پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا کے لیے ہندی کے ٹرانسلیشنز ایڈیٹر کے طور پر کام کرتے ہیں۔

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Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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