सत्यप्रिया के बारे में इस रपट की शुरुआत करने से पहले मैं अपनी पेरिअम्मा के बारे में बताना चाहूंगा. जब मैं सिर्फ़ 12 साल का था और कक्षा 6 में पढ़ता था, तब मैं अपने पेरिअप्पा और पेरिअम्मा [पिता के भाई और उनकी पत्नी] के घर में रहता था. मैं उन्हें अम्मा और अप्पा [मां और पिता जी] ही कहता था. वे मेरी देखभाल अच्छी तरह से करते थे और मेरा परिवार अक्सर हमारी छुट्टियों में उनके घर आता-जाता रहता था.

पेरिअम्मा [चाची] मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं. वे हमारी ज़रूरतों का पूरा ध्यान रखती थीं, हमें पूरे दिन कुछ न कुछ खिलाती रहती थीं, और वह भी बिल्कुल समय पर. जब मैंने स्कूल में अंग्रेज़ी सीखना शुरू किया, मेरी चाची ही मुझे बुनियादी चीज़ें पढ़ाती थीं. वे रसोई में काम करती रहती थीं और मैं अपने सवालों के साथ उनके पास जाता रहता था. मुझे बहुत सारे शब्दों का उच्चारण करना नहीं आता था, लेकिन उन्होंने मुझे धीरे-धीरे वह सब सिखाया. तबसे ही मैं उनको बहुत पसंद करता था.

जब स्तन कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई, तो यह कहा जा सकता है कि ज़िंदगी जीने से पहले ही मृत्यु ने उनको अपने पास बुला लिया. मैं उनके बारे में बहुत कुछ कह सकता हूं, लेकिन फ़िलहाल इतना ही.

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चाची के गुज़रने के बाद मैंने सत्यप्रिया से पूछा था कि क्या वे मेरी चाची का फ़ोटोग्राफ़ देखकर उनकी तस्वीर बना सकती हैं. मेरे मन में कलाकारों के प्रति ईर्ष्या की भावना आमतौर पर नहीं रहती, लेकिन सत्या का काम देखकर मुझे वाकई जलन हुई. इतने धैर्य और बारीकी से यह काम केवल वही कर सकती थीं. उनकी शैली अतियथार्थवादी है और उनकी कला की तुलना किसी हाईरेजोल्यूशन पोट्रेट से की जा सकती है.

सत्या से मेरा परिचय इंस्टाग्राम के ज़रिए हुआ. जब मैंने नमूने के लिए उनको तस्वीर भेजी, तो उसके पिक्सल ख़राब हो गए थे. हम आश्वस्त नहीं थे कि उस तस्वीर को देखकर अच्छा चित्र बनाया जा सकता है. मुझे तो यह असंभव ही लग रहा था.

कुछ दिनों के बाद मैंने मदुरई में सफ़ाईकर्मियों के बच्चों के लिए एक फ़ोटोग्राफ़ी वर्कशॉप आयोजित की थी. यह मेरी पहली वर्कशॉप थी और सत्या से मैं व्यक्तिगत तौर पर पहली बार वहीं मिला. वे अपने साथ मेरी चाची का रेखाचित्र लेकर आई थीं. उनका प्रयास बेहद शानदार था और मैं उनके काम से गहरे तौर पर प्रभावित हुए बिना रह नहीं पाया.

पहले ही वर्कशॉप में अपनी प्यारी चाची का रेखाचित्र हासिल करना मेरे जीवन का एक यादगार अनुभव था. मैंने उसी वक़्त यह तय कर लिया था कि मैं सत्या की कला के बारे कभी कुछ ज़रूर लिखूंगा. मैंने उनका बनाया जो भी काम देखा था उन सबने मुझे बेहद प्रभावित किया था और मैं उन्हें इंस्टाग्राम पर फॉलो करने लगा. उनके प्रति मेरे मन में प्रशंसा का भाव तब और बढ़ गया, जब मैं उनके घर गया जो उनके बनाए चित्रों से भरा हुआ था. फ़र्श पर, दीवारों पर, हर जगह उनकी चित्रकला नज़र आती थीं.

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अपने स्टूडियो में काम करतीं सत्यप्रिया. उनकी शैली अतियथार्थवादी है, और उनकी बनाई गई तस्वीरें किसी हाईरेजोल्यूशन पोट्रेट की याद दिलाती हैं

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सत्यप्रिया का घर उनके बनाई कलाकृतियों से भरा हुआ है. अपनी हर चित्रकला का फाउंडेशन तैयार करने में उन्हें पांच घंटे तक लग जाते हैं

जब सत्यप्रिया मुझे अपनी कहानी सुनाने लगीं, तो मुझे आभास हो रहा था कि नेपथ्य से उनकी पेंटिंग्स बोल रही हैं.

“मैं सत्यप्रिया हूं. मैं मदुरई में रहती हूं और 27 साल की हूं. मेरे पेंटिंग की शैली अतियथार्थवादी है. मैं वास्तव में चित्र बनाना नहीं जानती हूं. जब मैं कॉलेज में थी, तब मुझे एक नाकाम प्रेम से गुज़रना पड़ा था. अपने ब्रेक-अप से बाहर निकलने और जीवन को नए सिरे से जीने के लिए मैंने चित्र बनाना शुरू किया. मैंने कला को अपने पहले प्रेम के अवसाद को दूर करने के लिए इस्तेमाल किया. कला मेरे लिए सिगरेट या शराब के नशे की तरह थी – यह मेरे अवसाद से बाहर निकलने का एक रास्ता थी.

चित्रकला ने मुझे राहत दी. मैंने अपने घरवालों को बता दिया कि आगे से मैं सिर्फ़ रेखाचित्र ही बनाउंगी. मैं नहीं जानती, यह कहने की हिम्मत मैंने कैसे जुटाई. पहले मैं आईएएस या आईपीएस [सिविल सर्विस] ऑफ़िसर बनना चाहती थी, इसलिए मैंने यूपीएससी [यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन] की परीक्षाएं भी दीं. लेकिन मैंने दोबारा इसके लिए प्रयास नहीं किया.

छोटी उम्र से ही मुझे अपनी शक्ल-सूरत के लिए भेदभाव का सामना करना पड़ा. स्कूल, कॉलेजऔर  एनसीसी (नेशनल कैडेट कॉर्प्स) के कैंप में दूसरे लोग मुझे नीचा दिखाते थे, मुझसे अच्छा बर्ताव नहीं करते थे. मेरे स्कूल के प्रिंसिपल व टीचर मुझे जानबूझकर हर वक़्त डांटते-फटकारते रहते थे.

जब मैं कक्षा 12 में थी, तो लड़कियों द्वारा इस्तेमाल की जा चुकी सेनेटरी नैपकिन्स लापरवाहीपूर्वक फेंके जाने के कारण स्कूल की नालियां जाम हो गई थीं. हमारी प्रिंसिपल को सिर्फ़ कक्षा 5, 6 और 7 की छात्रों, या उन नई लड़कियों को बुलाना चाहिए था, जिन्हें नया-नया मासिक स्राव होना शुरू हुआ था, और उन्हें बताना चाहिए था कि नैपकिन को सही तरीक़े से कैसे नष्ट किया जाता है.

लेकिन मुझे निशाना बनाया गया. जब सुबह की प्रार्थना के बाद कक्षा 12 को योग करने के लिए रोका गया, तब उन्होंने कहा, ‘केवल ऐसी [मेरे जैसी] लड़कियां ही ऐसा काम [नालियां गंदा] करती हैं.’ मैं अचकचा गई. भला मैं नालियों को कैसे गंदा कर सकती हूं?

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बाएं: स्कूली लड़की का एक चित्र. दाएं: पारी में प्रकाशित स्टोरी से लिया गया रीता अक्का का चित्र

स्कूल में मुझ पर अक्सर इसी तरह से निशाना साधा जाता था. ऐसा कई बार हुआ. यहां तक कि कक्षा 9 में बच्चे जब प्रेम-संबंधों में पकड़े जाते थे, तो उसे भी मेरी ही ग़लती मानी जाती थी. वे मेरे माता-पिता को बुला कर उनसे कहते थे कि मैंने ही ऐसे संबंधों में उनकी मदद की थी और मैंने ही दोनों को एक-दूसरे से मिलाया था. वे मेरे माता-पिता पर दबाव डालते थे कि ‘मेरी करतूत’ के लिए माफ़ी मांगते हुए उन्हें एक पत्र लिखकर दें. वे मुझसे कहते थे कि मैं अपने घर से गीता लेकर आऊं और उसपर हाथ रखकर कसम खाऊं कि मैं झूठ नहीं बोल रही.

स्कूल में ऐसा एक दिन भी नहीं गुज़रा जब मैं बिना रोए घर लौटी होऊं. घर में मुझसे कहा जाता था कि ज़रूर मैंने ही कोई ग़लती की होगी या कुछ कहा होगा. आख़िरकार मैंने घरवालों को भी कुछ बताना बंद कर दिया.

मेरे मन में एक असुरक्षा-बोध पैदा हो गया.

कॉलेज में भी मेरे दांतों के कारण मेरा मज़ाक़ उड़ाया जाता था और मेरी नकल उतारी जाती थी. आप ध्यान से देखें, तो फ़िल्मों में भी लोग ऐसी ही ऊटपटांग हरकतें करते हैं. क्यों? मैं भी तो बाक़ी लोगों की तरह ही इंसान थी. लोग इन हरकतों को सामान्य समझते हैं, क्योंकि हर कोई ये काम करता है. वे इस बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं समझते हैं कि उनके इस व्यवहार से किसी इंसान पर क्या असर पड़ता होगा, इससे उनकी भावनाओं को कितनी चोट पहुंचती होगी, या उनके चिढ़ाने से किसी के भीतर कैसी हीन-भावना पैदा होती होगी.

आज भी ऐसी घटनाएं मेरे ऊपर गहरा असर डालती हैं. यहां तक कि जब कोई मेरी फ़ोटो भी लेता है, तो मैं ख़ुद में असुरक्षित अनुभव करने लगती हूं. पिछले 25-26 सालों से मैं यही महसूस कर रही हूं. किसी इंसान के शरीर का मज़ाक़ उड़ाना बहुत सामान्य बात मानी जाने लगी है.

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मैं अपना चित्र क्यों नहीं बनाती? मैं अपना पक्ष ख़ुद नहीं रखूंगी, तो और कौन रखेगा?

मैं सोचती थी मेरे जैसी शक्ल वालों का चित्रित करना कैसा होगा?

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सत्यप्रिया की बनाई ख़ुद की पेंटिंग और ब्रश व अन्य चीज़ें, जिनका इस्तेमाल वे चित्रकला बनाने के लिए करती हैं

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ख़ुद के चित्र के बारे में अपने नज़रिए को उत्साहपूर्वक साझा करतीं सत्यप्रिया

शुरू में मैंने सुंदर चेहरों की तस्वीरें बनाईं. लेकिन बाद में मैंने यह महसूस किया कि हम लोगों के बारे केवल उनकी सुंदरता के कारण नहीं, बल्कि उनकी जाति, धर्म, प्रतिभा, पेशा, जेंडर और सेक्सुअलिटी के कारण भी राय बनाते हैं. अगर इसलिए मैंने ग़ैर-परंपरागत सुंदरता को अपना विषय बनाकर अपनी कलाकृतियां बनाईं. कला में अगर हम ट्रांसवीमेन के प्रतिनिधित्व के लिहाज़ से सोचें, तो चित्रों में सिर्फ़ उन्हें नुमाइंदगी मिलती है जो महिलाओं की तरह दिखते हैं. दूसरे ट्रांसवीमेन की तस्वीरें कौन बनाएगा? यहां हर एक चीज़ का एक पैमाना है, और इन पैमानों में मेरी कोई रुचि नहीं है. मैं यह सोचती हूं कि मैं लोगों को अपनी कला में क्यों शामिल करती हूं; मैं चाहती हूं मेरी कला में दिखने वाले लोग ख़ुश रहें.

अक्षमताओं से जूझते लोगों को अपनी कला का विषय कोई नहीं बनाता है. निःशक्त लोगों ने बहुत से महत्वपूर्ण काम किए हैं लेकिन उन पर कला कभी भी केंद्रित नहीं रही है.

क्या इसकी वजह यह है कि कला संबंध सुन्दरता से है और हर व्यक्ति इसे सुंदरता के संदर्भ में ही देखता है? मैं कला को आम लोगों के सरोकार के रूप में देखती हूं और इसे उनके जीवन की वास्तविकताओं को दिखाने का माध्यम मानती हूं. बहुत से लोग कहते हैं, ‘ओह, लेकिन आप तो सिर्फ़ फ़ोटोग्राफ़ देखकर तस्वीर बना देती हैं.’ हां, मैं सिर्फ़ फ़ोटोग्राफ़ देखकर तस्वीर बनाती हूं. अतियथार्थवाद (हाइपररियलिज्म) फ़ोटोग्राफ़ी से ही निकला था. कैमरे के अविष्कार और फ़ोटोग्राफ़ी की शुरुआत के बाद ही यह शैली विकसित हुई.

मैं दूसरों से कहना चाहती हूं, ‘इन लोगों को देखिए, इन्हें जानने-समझने की कोशिश कीजिए.’

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एक तस्वीर में सही-सही बारीकियां उकेरने में सत्यप्रिया को 20 से 45 दिन लग जाते हैं

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ये चित्र कुलसईं उत्सव पर बनाए गए हैं

अक्षमताओं से जूझते लोगों को सामान्यतः हम कैसे दिखाते हैं? हम उन्हें ‘विशेष’ बताकर छोटा कर देते हैं. किसी को भी इस दृष्टि से देखने की क्या ज़रूरत है कि वह कोई ‘विशेष’ इंसान है? वे भी हमारी तरह सामान्य इंसान हैं. उदाहरण के लिए, अगर हम कोई काम करने में समर्थ हैं, और कोई दूसरा उस काम को नहीं कर सकता है, तो हम ऐसी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है कि उस इंसान तक भी चीज़ों की पहुंच रहे. हम सिर्फ़ इतनी सी बात के लिए उन्हें ‘विशेष आवश्यकताओं’ वाले इंसान के रूप में देखें, तो क्या यह ठीक होगा? हम उनके लिए समावेशी प्रबंध कर वो जैसे हैं उन्हें वैसा नहीं रहने दे सकते?

उनकी भी अपनी इच्छाएं और ज़रूरतें हैं. जब सामान्य शारीरिक क्षमता वाले लोगों को बाहर निकलने को नहीं मिलता, बर्दाश्त नहीं कर पाते. शारीरिक दृष्टि से अक्षमता से जूझते लोगों को ऐसा नहीं लगता होगा? क्या उस इंसान को किसी मनोरंजन की आवश्यकता नहीं है? क्या उस इंसान के भीतर शिक्षित होने की कामना नहीं होती? क्या उनके मन में सेक्स और प्रेम से जुड़ी कामनाएं नहीं होती होंगी? हम उनकी कोई परवाह नहीं करते; हम उन्हें जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं. शरीर से अक्षम लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई कलाकृति नहीं है. कथित मुख्यधारा के मीडिया में उनकी कोई चर्चा नहीं होती है. हम समाज को यह कैसे याद दिलाएं कि उनका भी कोई अस्तित्व है और उनकी भी कुछ ज़रूरतें हैं?

अब आप [पलनी कुमार] ही छह सालों से भी ज़्यादा समय से सफ़ाईकर्मियों के लिए काम कर रहे हैं. क्यों? केवल इसीलिए कि जब हम एक ही विषय पर लगातार काम करते हैं, तो धीरे-धीरे दूसरे लोग भी इस बारे में जानने लगते हैं. किसी भी विषय के अस्तित्व को दर्ज करने का एक विशेष महत्व है – किसी की तक़लीफ़ हो, लोक कला हो, या इंसान की अक्षमताएं और लाचारियां हों. हमारी सभी कलाएं समाज के लिए सहारे के रूप में होनी चाहिए. मैं कला को इसी सपोर्ट सिस्टम के रूप में देखती हूं. यह लोगों की कहानियां कहने का माध्यम है. हम शारीरिक रूप से अक्षमता से जूझते किसी बच्चे को क्यों नहीं दिखाएं? उसकी मुस्कुराहट को क्यों नहीं दिखाएं? क्या यह ज़रूरी है कि ऐसा कोई बच्चा हमेशा उदास और दुःख में डूबा हुआ दिखे?

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दाएं: एक ख़ानाबदोश जनजाति के बच्चे. बाएं: शारीरिक रूप से अक्षमता से जूझता एक इंसान

अनीता अम्मा पर केंद्रित अपने प्रोजेक्ट में वे हमारे साथ काम करना जारी नहीं रख पाईं, क्योंकि हमें कहीं से कोई आर्थिक या भावनात्मक मदद नहीं मिल सकी. उन्हें बहुत सारी परेशानियों से गुज़रना पड़ रहा था. हमें इस विषय पर लोगों को जागरूक करना था, तभी हम लोगों से आर्थिक मदद ले सकते थे. जब हम यह करते हैं, तब हम लोगों के सामने आर्थिक मदद करने का प्रस्ताव रख सकते हैं. भावनात्मक मदद का भी उतना ही महत्व है. मैं अपनी कला का उपयोग इसी उद्देश्य से करना चाहती हूं.

मैं माध्यम के रूप में सफ़ेद और काले रंगों का उपयोग करती हूं, क्योंकि ये रंग मुझे लोगों को उस रूप में दिखाने के मौक़े देते हैं जैसा मैं लोगों को दिखाना चाहती हूं. यह देखने वालों को विषय से भटकने नहीं देते हैं. हम [मॉडल या विषय के] मूल तत्व और भावनाओं को इन दो रंगों के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप से रेखांकित कर सकते हैं.

मेरी पसंदीदा कलाकृति वह है जो मैंने अनीता अम्मा पर बनाई है. मैंने अनीता अम्मा के पोट्रेट पर बहुत गंभीरता से मेहनत की है और इससे मेरी भावनाएं जुड़ी हुई हैं. जब मैं इस पोट्रेट पर काम कर रही थी, तब मेरा दिल भीतर से गहरी पीड़ा अनुभव करता था. मेरे उपर इसका गहरा असर पड़ा था.

सेप्टिक टंकियों में दम घुटने से मरने की दुर्घटनाएं आज भी होती है. मृतकों के घरवालों के जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है. इसे लेकर जागरूकता का भारी अभाव है. यह काम [हाथ से मैला साफ़ करना] कुछ ख़ास जाति से संबंध रखने वाले लोगों से उनकी इच्छा के विरुद्ध जबरन कराया जाता है. वे अपने आत्मसम्मान की क़ीमत पर यह काम करते हैं. इसके बाद भी समाज उनको हेय दृष्टि से देखता है. सरकार उनके लिए स्थितियां बेहतर बनाने का प्रयास नहीं करती है. उनकी ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है.

एक समकालीन कलाकार के तौर पर मेरी कला मेरे आसपास के समाज और उसके सरोकारों को अभिव्यक्त करती है.

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‘मैं सफ़ेद और काले रंगों को माध्यम के रूप में इस्तेमाल करती हूं, क्योंकि ये रंग मुझे लोगों को उस रूप में दिखाने के मौक़े देते हैं जैसा मैं लोगों को दिखाना चाहती हूं. यह देखने वालों को विषय से भटकने नहीं देते हैं. हम [मॉडल या विषय के] मूल तत्व और भावनाओं को इन दो रंगों के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप से रेखांकित कर सकते हैं,’ सत्यप्रिया कहती हैं

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‘एक समकालीन आर्टिस्ट के रूप में मेरी कला मेरे आसपास के समाज और उसके सरोकारों को अभिव्यक्त करती है’

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स्तन कैंसर से ग्रस्त रहीं महिलाओं और शारीरिक रूप से अक्षमता से जूझते लोगों के पोट्रेट, जिन्हें सत्यप्रिया ने बनाया है

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

M. Palani Kumar

ایم پلنی کمار پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا کے اسٹاف فوٹوگرافر ہیں۔ وہ کام کرنے والی خواتین اور محروم طبقوں کی زندگیوں کو دستاویزی شکل دینے میں دلچسپی رکھتے ہیں۔ پلنی نے ۲۰۲۱ میں ’ایمپلیفائی گرانٹ‘ اور ۲۰۲۰ میں ’سمیُکت درشٹی اور فوٹو ساؤتھ ایشیا گرانٹ‘ حاصل کیا تھا۔ سال ۲۰۲۲ میں انہیں پہلے ’دیانیتا سنگھ-پاری ڈاکیومینٹری فوٹوگرافی ایوارڈ‘ سے نوازا گیا تھا۔ پلنی تمل زبان میں فلم ساز دویہ بھارتی کی ہدایت کاری میں، تمل ناڈو کے ہاتھ سے میلا ڈھونے والوں پر بنائی گئی دستاویزی فلم ’ککوس‘ (بیت الخلاء) کے سنیماٹوگرافر بھی تھے۔

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Sathyapriya

ستیہ پریہ، مدورئی کی آرٹسٹ ہیں اور انتہائی حقیقت پسندانہ طرز میں پینٹنگ کرتی ہیں۔

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Editor : Priti David

پریتی ڈیوڈ، پاری کی ایگزیکٹو ایڈیٹر ہیں۔ وہ جنگلات، آدیواسیوں اور معاش جیسے موضوعات پر لکھتی ہیں۔ پریتی، پاری کے ’ایجوکیشن‘ والے حصہ کی سربراہ بھی ہیں اور دیہی علاقوں کے مسائل کو کلاس روم اور نصاب تک پہنچانے کے لیے اسکولوں اور کالجوں کے ساتھ مل کر کام کرتی ہیں۔

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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