“यह नरक है
भंवर है यह घूमता हुआ
एक बदसूरत हो चुकी यातना है
यह दुख है जिसके पांव में किसी नर्तकी की पायल बंधी है... ”
--- नामदेव ढसाल की कविता ‘कमाठीपुरा’ से

कई सालों में पहली बार उन सड़कों पर शांति थी जहां दिन-रात हलचल रहती. लेकिन वहां रहने वाली महिलाएं ज़्यादा समय तक काम से दूर नहीं रह सकती थीं. घर का किराया भरना था. लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चे अपने हॉस्टल से वापस आ गए थे, और रोज़मर्रा के ख़र्च बढ़ गए थे.

जुलाई महीने के बीच का वक़्त था और लगभग चार महीने बाद, 21 वर्षीय सोनी ने सेंट्रल मुंबई के कमाठीपुरा इलाक़े में, हर शाम फ़ॉकलैंड रोड के फुटपाथ पर एक बार फिर से खड़ा होना शुरू कर दिया था. वह अपनी पांच साल की बेटी ईशा को मकान मालकिन की देखभाल में छोड़कर, पास के छोटे होटलों या किसी सहेली के कमरे पर ग्राहकों से मिलने चली जाती थी. ईशा के कारण वह उन्हें अपने कमरे में नहीं ला सकती थीं. (इस स्टोरी में शामिल सभी नाम बदल दिए गए हैं.)

4 अगस्त को जब सोनी लगभग 11 बजे रात में काम से लौटी और अपने कमरे पर वापस आई, तो देखा कि ईशा रो रही है. सोनी बताती हैं, “रोज़ जब तक मैं उसके पास पहुंचती थी, तब तक वह सो चुकी होती थी, लेकिन [उस रात] वह अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए कहती रही कि दर्द हो रहा है. मुझे सबकुछ समझने में थोड़ा समय लगा…”

उस शाम सोनी काम पर थी और ईशा के साथ कथित तौर पर रेप किया गया था. दो-चार घर दूर रहने वाली एक सेक्स वर्कर उसको नाश्ता देने के बहाने अपने कमरे में ले गई थी और उसका साथी वहां इंतज़ार कर रहा था. सोनी कहती हैं, “वह नशे में था और उसने मेरी बेटी को छोड़ने से पहले किसी को कुछ नहीं बताने की चेतावनी दी. ईशा दर्द में थी, उसने घरवाली [मकान मालकिन] को भी बताया, जिसे वह अपनी नानी की तरह मानती थी. मैं ही मूर्ख हूं, जिसने यह विश्वास कर लिया कि हमारे जैसे लोग किसी पर भरोसा कर सकते हैं. अगर मेरी बेटी ने डर के कारण मुझे इस बारे में नहीं बताया होता, तब क्या होता? ईशा उन्हें जानती थी और उन पर भरोसा करती थी, इसीलिए वह उनके कमरे में गई, वरना वह अच्छी तरह से जानती है कि मेरी अनुपस्थिति में इस इलाक़े में किसी से बात नहीं करनी है.”

'I am a fool to believe that people like us can have someone to trust' says Soni, who filed a complaint at Nagpada police station after her daughter was raped
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'I am a fool to believe that people like us can have someone to trust' says Soni, who filed a complaint at Nagpada police station after her daughter was raped. Clothes hanging outside Kavita’s (Soni) room
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‘मैं मूर्ख हूं जिसने यह विश्वास कर लिया कि हमारे जैसे लोग किसी पर भरोसा कर सकते हैं’, ऐसा सोनी कहती हैं. उन्होंने घटना के बाद नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई. दाएं: उनके कमरे के बाहर कपड़े लटक रहे हैं

इलाक़े की एक पूर्व सेक्स वर्कर डॉली ने घटना के बाद, इस मामले को सुलझाने के लिए सोनी को समझाने की कोशिश की. डॉली के बारे में सोनी कहती हैं कि उसे बच्ची को लुभाने की योजना के बारे में पता था. सोनी बताती हैं, “हर कोई जानता है कि यहां लड़कियों के साथ क्या होता है. लेकिन लोग ऐसे मौकों पर आंख बंद कर लेते हैं और कई लोग हमारा मुंह बंद कराने आ जाते हैं. लेकिन मैं चुप नहीं रह सकती.”

उसी दिन, यानी 4 अगस्त को सोनी ने पास के नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई. अगले दिन लैंगिक उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम (पोक्सो), 2012 के तहत एक प्राथमिकी (एफ़आईआर) दर्ज की गई. क़ानून के प्रावधान के अनुसार, पुलिस ने राज्य की बाल कल्याण समिति से संपर्क किया, जिसे इसके बाद क़ानूनी सहायता, काउंसलिंग और सुरक्षित वातावरण में पुनर्वास जैसे दूसरी ज़िम्मेदारियां संभालनी थी. ईशा को मेडिकल जांच के लिए सरकार द्वारा संचालित जेजे अस्पताल भेजा गया. इसके बाद, 18 अगस्त के दिन, बच्ची को सेंट्रल मुंबई में स्थित सरकारी समर्थित चाइल्ड-केयर इंस्टीट्यूट ले जाया गया.

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हालांकि, इस तरह की घटनाएं बहुत आम हैं. कोलकाता के रेड-लाइट इलाक़ों में 2010 में किए गए एक अध्ययन में, जिन 101 परिवारों के साक्षात्कार लिए गए उनमें से 69 प्रतिशत की यही सोच थी कि उनके इलाक़े का माहौल उनके बच्चों, मुख्य रूप से लड़कियों के लिए ठीक नहीं है. रिपोर्ट के अनुसार, “...मांओं के साथ बातचीत में खुलासा हुआ कि जब किसी ग्राहक ने उनकी बेटियों को छुआ, छेड़छाड़ की या मौखिक रूप से मज़ाक किया, तो उन्होंने असहाय महसूस किया." और साक्षात्कार में शामिल 100 फ़ीसदी बच्चों ने कहा कि उन्होंने अपने दोस्तों, भाई-बहनों, और पड़ोस के अन्य बच्चों से यौन शोषण के मामलों के बारे में सुना है.

कामठीपुरा में हमारी बातचीत के दौरान पास में बैठी एक सेक्स वर्कर कहती हैं, “हमारे लिए यह सुनना कोई नई बात नहीं है कि उसने हमारी बेटियों में से किसी के साथ ऐसा-वैसा किया या क़रीब आने की कोशिश की या उसे अश्लील सामग्री देखने के लिए मजबूर किया. यह केवल बेटियों तक ही सीमित नहीं है, छोटे लड़कों के साथ भी ऐसा होता है. लेकिन, कोई भी अपना मुंह नहीं खोलेगा.”

साल 2018 में छपी एक और रिपोर्ट में कहा गया कि “कुछ ऐसी आबादियों में बाल यौन शोषण के ख़तरे बहुत ज़्यादा हैं जिनमें कमर्शियल सेक्स वर्कर्स के बच्चे, मानसिक स्वास्थ्य से जूझती लड़कियां, और स्कूल छोड़ चुके व मज़दूरी करने वाले किशोर लड़के और लड़कियां शामिल हैं.”

Charu too has to leave three-year-old Sheela in the gharwali’s house when she goes for work, which she resumed in August. 'Do I have a choice?' she asks
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Charu too has to leave three-year-old Sheela in the gharwali’s house when she goes for work, which she resumed in August. 'Do I have a choice?' she asks
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चारू ने अगस्त में फिर से काम शुरू किया था. वह जब काम पर निकलती हैं, तो उन्हें भी अपनी तीन साल की बच्ची शीला को घरवाली के घर पर छोड़ना पड़ता है. वह पूछती हैं, ‘मेरे पास और क्या विकल्प है ?’

संभव है कि लॉकडाउन ने उन्हें और जोख़िम में डाल दिया हो. ‘बच्चों के ख़िलाफ हिंसा को ख़त्म करने की रणनीति’ शीर्षक से छपी यूनिसेफ़ की जून, 2020 की रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल में लॉकडाउन के दो हफ़्ते के दौरान महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा संचालित आपातकालीन सेवा, चाइल्डलाइन पर आने वाले कॉलों की संख्या में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. रिपोर्ट में अलग से यह भी कहा गया है कि “बाल यौन शोषण के 94.6 प्रतिशत मामलों में, अपराधी किसी न किसी प्रकार से पीड़ित बच्चों के परिचित थे; 53.7 प्रतिशत मामलों में वे परिवार के सदस्य या रिश्तेदार/दोस्त थे.”

कमाठीपुरा में काम करने वाले कुछ एनजीओ, सेक्स वर्कर्स के बच्चों के लिए रात या दिन का शेल्टर होम (आश्रय गृह) चलाते हैं, जब उनकी माएं काम पर होती हैं. उन्होंने लॉकडाउन के दौरान बच्चों को पूरे वक़्त के लिए ठहराने की पेशकश भी की थी, हालांकि शहर के अन्य आवासीय हॉस्टल बंद कर दिए गए थे और बच्चों को घर भेज दिया गाया था. ईशा जिस शेल्टर होम में थी उन्होंने लॉकडाउन के समय भी उसे ठहराना जारी रखा था. लेकिन, सोनी उस समय काम नहीं कर रही थीं, इसलिए वह जून की शुरुआत में अपनी बेटी को घर ले आईं. जुलाई महीने में जब सोनी फिर से काम शुरू करने की जद्दोजहद करने लगीं, तो उन्होंने ईशा को वापस शेल्टर होम भेजने की कोशिश की. वह बताती हैं, “उन्होंने कोरोना के डर से उसे फिर से जगह देने से मना कर दिया."

लॉकडाउन की शुरुआत में, कुछ स्थानीय एनजीओ की ओर से थोड़ा-बहुत राशन मिला था, लेकिन खाना पकाने के लिए केरोसिन की ज़रूरत तब भी थी. और सोनी ने जब दोबारा काम शुरू करने का फ़ैसला किया, तो उस समय दो महीने का किराया 7,000 रुपए भी बकाया था. (यौन शोषण की घटना के बाद, सोनी 10 अगस्त को पास की एक दूसरी गली के कमरे में रहने चली गई. यहां किराया 250 रुपए प्रतिदिन है, लेकिन मकान मालकिन अभी ज़ोर नहीं दे रही है.)

इन वर्षों में सोनी के ऊपर घरवालियों और इलाक़े के अन्य लोगों का लगभग 50,000 रुपए का क़र्ज़ है, जिसे वह थोड़ा-थोड़ा करके चुका रही थी. इसमें से कुछ उसके पिता के इलाज के लिए थे; वह रिक्शा चलाते थे और बाद में सांस लेने में तक़लीफ़ के कारण फल बेचने लगे थे, लेकिन फरवरी, 2020 में उनका निधन हो गया. वह सवाल करती हैं, “मुझे फिर से काम शुरू करना पड़ा, वरना पैसे कौन चुकाएगा?” सोनी पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के अपने गांव में अपनी गृहिणी मां और तीन बहनों (दो पढ़ाई कर रही हैं, एक की शादी हो चुकी है) को पैसे भेजती हैं. लेकिन लॉकडाउन के बाद वह भी बंद हो गया.

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कमाठीपुरा में अन्य सेक्स वर्कर भी इसी तरह की लड़ाई लड़ती रही हैं. सोनी की ही गली में रहने वाली 30 वर्षीय प्रिया को उम्मीद है कि हॉस्टल जल्द ही उनके बच्चों को फिर से अपने यहां रखने लगेंगे. कक्षा नौ में पढ़ने वाली उनकी नौ साल की बेटी रिद्धी, लॉकडाउन शुरू होने पर मदनपुरा स्थित अपने आवासीय विद्यालय से लौटा दी गई थी.

Priya too is hoping residential schools and hostels will soon take back their kids (who are back home due to the lockdown). 'They should come and see our rooms for duri duri banake rakhne ka [social distancing]', she says, referring to the 10x10 feet room divided into three rectangular boxes of 4x6
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Priya too is hoping residential schools and hostels will soon take back their kids (who are back home due to the lockdown). 'They should come and see our rooms for duri duri banake rakhne ka [social distancing]', she says, referring to the 10x10 feet room divided into three rectangular boxes of 4x6
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प्रिया को उम्मीद है कि आवासीय विद्यालय और छात्रावास जल्द ही उनके बच्चों (जो लॉकडाउन के कारण घर वापस आ गए हैं) को फिर से अपने यहां रखने लगेंगे. वह 4x6 के तीन आयताकार बक्से में विभाजित 10x10 फीट के एक कमरे का हवाला देते हुए वह कहती हैं, "उन्हें यहां आना चाहिए और 'दूरी बनाके रखने का' जुमला सुनाने से पहले हमारे कमरों को देखना चाहिए ."

प्रिया अपनी बेटी से सख़्ती से कहती हैं, “इस कमरे से बाहर बिल्कुल नहीं निकलना, जो भी करना चाहती हो इसी कमरे में करो.” रिद्धि की आवाजाही पर प्रतिबंध कोविड के डर से नहीं है. प्रिया कहती हैं, “हम ऐसी जगहों पर रहते हैं, जहां ये लोग अगर हमारी बेटियों को खा भी जाएं, तो कोई पूछने तक नहीं आएगा,” प्रिय अपने नियमित ग्राहकों से लिए क़र्ज़ के कुछ पैसों से किसी तरह घर चला रही हैं.

लॉकडाउन परिवार के लिए मुश्किल लेकर आया था, और हालत बाद में भी बहुत बेहतर नहीं हुई है. प्रिया कहती हैं, “मेरी हालत ख़राब है, मैं किराया देने में असमर्थ हूं और मुझे काम शुरू करने की ज़रूरत है. मैं काम करते हुए रिद्धी को अपने पास नहीं रख सकती, कम से कम वह छात्रावास में सुरक्षित रहेगी.” प्रिया महाराष्ट्र के अमरावती जिले से हैं, और एक दशक से अधिक समय से कमाठीपुरा में रहती हैं.

प्रिया का 15 वर्षीय बेटा विक्रम भी उनके साथ है. लॉकडाउन से पहले वह बायकुला के एक नगरपालिका स्कूल में कक्षा 8 में पढ़ रहा था. उसकी मां जब ग्राहकों से मिलती थी, तो वह बगल के कमरे में सोता, इधर-उधर घूमता या एक एनजीओ द्वारा संचालित हेल्थ केयर सेंटर में समय बिताता था.

यहां की महिलाएं जानती हैं कि उनके बेटे भी शोषण के शिकार होते हैं या ड्रग्स और दूसरी बुरी लतों में उनके लिप्त हो जाने का ख़तरा रहता है, इसलिए उनमें से कुछ महिलाएं लड़कों को भी हॉस्टल में डाल देती हैं. प्रिया ने दो साल पहले विक्रम को एक छात्रावास में भेजने की कोशिश की थी, लेकिन वह भागकर वापस आ गया था. इस साल अप्रैल में उसने परिवार की मदद करने के लिए, मास्क और चाय बेचना, घरवालियों के घरों की सफ़ाई करना, और दूसरे जो भी काम मिल जाएं उसे करने लगा था.

प्रिया 4x6 के तीन आयताकार बक्से में बांट दिए गए 10x10 फीट के एक कमरे का हवाला देते हुए वह कहती हैं, "उन्हें यहां आना चाहिए और 'दूरी बनाके रखने का' जुमला सुनाने से पहले हमारे कमरों को देखना चाहिए." प्रत्येक यूनिट में एक बिस्तर होता है, जो जगह को पूरी तरह से घेर लेता है और दो अलमारियां होती हैं. एक कमरे में प्रिया रहती हैं, दूसरे का इस्तेमाल दूसरा परिवार करता है, और बीच वाले कमरे का उपयोग (जब वहां पर कोई अन्य परिवार नहीं होता) उनके द्वारा काम के लिए किया जाता है या वे अपनी यूनिट में ग्राहकों से मिलती हैं. कोने में किचन और वॉशरूम के लिए एक आम जगह होती है. यहां आवास और काम करने की कई यूनिट एक जैसी हैं — कुछ तो और भी छोटी हैं.

Even before the lockdown, Soni, Priya, Charu and other women here depended heavily on private moneylenders and loans from gharwalis; their debts have only grown during these last few months, and work, even with their kids back from schools and hostels in their tiny rooms, is an imperative
PHOTO • Aakanksha
Even before the lockdown, Soni, Priya, Charu and other women here depended heavily on private moneylenders and loans from gharwalis; their debts have only grown during these last few months, and work, even with their kids back from schools and hostels in their tiny rooms, is an imperative
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लॉकडाउन से पहले भी, यहां सोनी, प्रिया, चारू और अन्य महिलाएं निजी साहूकारों और घरवालियों के क़र्ज़ों पर बहुत अधिक निर्भर थीं; इन पिछले कुछ महीनों के दौरान उनके क़र्ज़े केवल बढ़े हैं, और स्कूलों तथा छात्रावासों से इन छोटे कमरों में उनके बच्चों के वापस आ जाने से, उनके लिए काम करना अनिवार्य हो गया है

प्रिया इस छोटी सी जगह के लिए पिछले छह महीने से 6,000 रुपये मासिक किराया नहीं दे पाई हैं, सिवाय उस छोटे से हिस्से को छोड़कर जो उन्होंने हाल ही में क़र्ज़ के पैसे से ले लिया था. वह बताती हैं, “हर महीने मुझे किसी चीज़ के लिए कभी 500 रुपये और कभी 1,000 रुपये लेने पड़ते थे. ऐसे में विक्रम की कमाई से मदद मिली. कई बार हम घासलेट [किरोसिन] ख़रीदने के लिए [एनजीओ और अन्य लोगों से प्राप्त] कुछ राशन [स्थानीय दुकानों पर] बेचते हैं.”

प्रिया ने 2018 में 40,000 रुपये का क़र्ज़ लिया था, जो ब्याज के साथ अब 62,000 रुपये हो गया है. और वह अब तक, उसमें से केवल 6,000 रुपये ही वापस कर पाई है. प्रिया जैसे कई लोग इस इलाक़े के निजी साहूकारों पर पूरी तरह से निर्भर हैं.

"प्रिया ज़्यादा काम नहीं कर सकती, उसे पेट के संक्रमण से दर्द बना रहता है. वह कहती हैं, “मैंने इतने गर्भपात कराए हैं कि उसी की क़ीमत चुका रही हूं, मैं अस्पताल गई थी लेकिन वे कोरोना में व्यस्त हैं और गर्भाशय के ऑपरेशन [हिस्टेरेक्टॉमी] के लिए 20,000 रुपये मांग रहे हैं, जिसका मैं भुगतान नहीं कर सकती.” लॉकडाउन में बचत के बचे-खुचे पैसे भी ख़त्म हो गए. अगस्त में उसे 50 रुपये दिहाड़ी पर अपने इलाक़े में एक घरेलू कामगार की नौकरी मिली थी, लेकिन यह नौकरी केवल एक महीने तक ही चली.

प्रिया ने अब अपनी कुछ उम्मीदें हॉस्टल के दोबारा खुलने पर लगा रखी हैं. वह कहती हैं, “मैं रिद्धी का भविष्य बर्बाद होते नहीं देख सकती."

और जैसा कि उनकी और सोनी की बेटी लॉकडाउन के दौरान अपनी मां के पास लौट आई थीं, इलाक़े में काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था (एनजीओ), प्रेरणा ने अपनी हालिया रिपोर्ट में पाया कि सेक्स वर्कर्स (30 परिवारों का साक्षात्कार किया गया) के 74 बच्चों में से 57 लॉकडाउन के दौरान अपने परिवार के साथ रह रहे थे. और किराये के कमरों में रहने वाले 18 में से 14 परिवार, इस अवधि के दौरान किराये का भुगतान करने में असमर्थ रहे हैं, जबकि 11 ने महामारी के दौरान और उधार लिया था.

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‘शोषण से उन्हें इतना आघात पहुंचता है कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि क्या सही है. यदि सेक्स वर्कर्स या उनके बच्चों के साथ कुछ भी होता है, तो ऐसे इलाक़ों में आम तौर पर लोग सोचते हैं: तो क्या हुआ? यदि बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन होता है , तो वे मां को दोषी मानते हैं

चारू की तीन साल की बेटी, शीला को भी एक गैर सरकारी संगठन द्वारा चलाए जा रहे कमाठीपुरा के आश्रय गृह से, मई में उस समय घर वापस भेज दिया गया जब वह बीमार हो गई थी. 31 वर्षीय चारू कहती हैं, “उसे कुछ एलर्जी है और चकत्ते पड़ जाते हैं. मुझे उसका सिर मुंडवाना पड़ा,” चारू के चार और बच्चे हैं; एक बेटी को किसी ने गोद ले लिया है और वह बदलापुर में है, और तीन बेटे गांव में. बिहार के कटिहार जिले में दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले रिश्तेदारों के पास रहते हैं. वह हर महीने उनके लिए 3,000 से 5,000 रुपये भेजती थी, लेकिन लॉकडाउन में उन्हें और भी क़र्ज़ लेना पड़ा है. वह कहती हैं, “मैं अब और क़र्ज़ नहीं ले सकती, मुझे नहीं पता कि इसे वापस कैसे करूंगी."

इसलिए, चारू को भी शीला को घरवाली के पास छोड़ना पड़ता है. उन्होंने अगस्त से दोबारा काम पर जाना शुरू किया है. वह पूछती हैं, “मेरे पास और क्या विकल्प है?”

हालांकि, इन महिलाओं की ज़्यादा आमदनी नहीं हो रही है. सोनी कहती हैं, “एक हफ्ते में मुझे सिर्फ़ एक या दो ग्राहक मिल रहे हैं.”  किसी ज़माने में चार या पांच होते थे, लेकिन अब यह मुश्किल हो गया है. पहले यहां की महिलाएं एक दिन में 400 से 1,000 रुपये तक कमा सकती थीं, और केवल मासिक धर्म आने पर, बीमार पड़ने पर या जब उनके बच्चे घर वापस आ जाते थे, सिर्फ़ तभी छुट्टियां लेती थीं. सोनी कहती हैं, “अब तो एक दिन में 200-500 रुपये भी हमारे लिए बड़ी बात है.”

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मजलिस लीगल सेंटर की वकील और सेंटर के राहत प्रोजेक्ट की प्रोग्राम मैनेजर, जेसिंता सलडन्हा कहती हैं, “हम बहुत से वंचित परिवारों को देख रहे हैं, जो अगर बाहर निकलें और अपने मुद्दों को उठाएं, तो उन पर विचार भी नहीं किया जाएगा.” यह संस्था मुंबई में यौन हिंसा से जूझने वाले लोगों को सामाजिक-क़ानूनी सहायता प्रदान करती है. जेसिंता और उनकी टीम अब ईशा के मामले को संभाल रही है. “सोनी वास्तव में साहसी थी, जो खुलकर सामने आई. ऐसे अन्य परिवार भी पीड़ित हो सकते हैं, जो बोलते नहीं हैं. रोज़ी-रोटी का सवाल बहुत बड़ा है. इन बड़े मुद्दों के पीछे कई कारण छिपे होते हैं.”

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ऊपर की तरफ़ बाएं: प्रिया का कमरा; बिस्तर के ठीक ऊपर, सामान के लिए दो ख़ाने (शेल्फ) बने हुए हैं. ऊपर की तरफ़ दाएं: तीन छोटी यूनिट वाले प्रत्येक कमरे में रसोई के बर्तन और पीने के पानी की बोतल रखने के लिए एक आम जगह होती है, और इसके पीछे नहाने के लिए एक छोटी जगह होती है, जहां पर्दे के रूप में साड़ी या दुपट्टा लगा होता है. नीचे: सेंट्रल मुंबई का कमाठीपुरा इलाक़ा

वह कहती हैं कि सेक्स वर्कर्स के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए एनजीओ, वकील, काउंसलर और अन्य लोगों के एक बड़े नेटवर्क को साथ आना चाहिए. सलडन्हा कहती हैं, “उनके साथ हुआ शोषण उन्हें इतना आघात पहुंचाता है कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि क्या सही है. यदि यौनकर्मियों या उनके बच्चों के साथ कुछ भी होता है, तो ऐसे इलाक़ों में आम तौर पर लोग सोचते हैं: तो क्या हुआ? यदि बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वे मां को दोषी मानते हैं.”

इस बीच, ईशा के मामले में दोषी शख़्स पॉक्सो के तहत 5 जुलाई से बंद है, जबकि सह-अभियुक्तों (अपहरण करने के लिए, उसकी सहयोगी, घरवाली, और पूर्व सेक्स वर्कर) के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दायर किया जाना बाक़ी है. उन्हें अभी हिरासत में नहीं लिया गया है. पॉक्सो क़ानून के तहत मुख्य आरोपी को कम से कम दस साल की सज़ा होती है, लेकिन इसे आजीवन कारावास तक भी बढ़ाया जा सकता है. इसमें मृत्युदंड का भी प्रावधान है, साथ ही जुर्माना भी होता है, जो ‘न्याय संगत और उचित होगा और पीड़ित को चिकित्सा ख़र्च और पुनर्वास के लिए भुगतान किया जाएगा’. इसमें यह भी प्रावधान है कि राज्य, शोषण झेलने वाले बच्चे और उसके परिवार को 3 लाख रुपये तक का मुआवज़ा देगा.

नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु के सेंटर फॉर चाइल्ड एंड लॉ की फ़रवरी 2018 की रिपोर्ट कहती है कि शोषण के शिकार बच्चों के परिवारों (जिन्होंने पॉक्सो अधिनियम के तहत मामले दर्ज कराए हैं) की प्राथमिक चुनौती यही होती है कि उन्हें “क़ानूनी व्यवस्था सहित दूसरी प्रणालियों पर पूरा भरोसा नहीं है.” रिपोर्ट में कहा गया है कि सिस्टम, शोषण के शिकार बच्चे को “इंसाफ़ में देरी, सुनवाई के टलने, और अदालत का बार-बार चक्कर लगवाकर,” उसका दोबारा शोषण करता है.

सलडन्हा इस बात से सहमत हैं. “[बच्चे का] बयान चार बार दर्ज किया जाता है, पहले पुलिस स्टेशन में, फिर मेडिकल जांच के दौरान, और दो बार अदालत में [मजिस्ट्रेट को और जज के सामने]. कई बार ऐसा भी होता है, जब बच्चों को इतना आघात पहुंचता है कि वे सभी आरोपियों के नाम नहीं ले सकते, जैसा कि ईशा के मामले में भी हुआ. उसने अब जाकर घरवाली [जिसने अपराध ण रोका या ण उसकी रिपोर्ट की] की मिली-भगत के बारे में मुंह खोला.”

इसके अलावा, वह बताती हैं कि क़ानूनी प्रक्रिया में मामला दायर करने से लेकर, अंतिम फ़ैसले तक बहुत समय लगता है. विधि और न्याय मंत्रालय के जून, 2019 के अंत तक के आंकड़ों के अनुसार, पॉक्सो अधिनियम के तहत कुल 160,989 मामले लंबित थे, जिनमें से 19,968 मामलों के साथ महाराष्ट्र (उत्तर प्रदेश के बाद) दूसरे नंबर पर है.

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काम पर लौटने के बावजूद, अभी इन महिलाओं की आमदनी ज़्यादा नहीं हो रही है

सलडन्हा कहती हैं, “लोड बहुत ज़्यादा है और कई और मामले हर दिन जुड़ते रहते हैं. हम सभी चाहते हैं कि इस प्रक्रिया में तेज़ी लाई जाए, जिसके लिए और अधिक न्यायाधीशों की या शायद काम के घंटे बढ़ाने की ज़रूरत है.” वह चिंतित हैं कि अदालतें पिछले छह महीनों के मामलों का निपटारा कैसे करेंगी. इसके अलावा, मार्च 2020 से पहले के मामले भी हैं, जिनकी सुनवाई लॉकडाउन के कारण रोक दी गई थी.

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सोनी मुश्किल से 16 साल की थी, जब उसके दोस्त ने उसे कोलकाता में बेच दिया था. उसकी जब शादी हुई थी, तब वह मात्र 13 साल की थी. “पति के साथ मेरा हमेशा झगड़ा होता था [जो एक कपड़े के कारख़ाने में सहायक के रूप में काम करता था] और मैं अपने माता-पिता के घर भाग जाया करती थी. इसी तरह के झगड़े के बाद, एक बार मैं स्टेशन पर बैठी थी और मेरे दोस्त ने कहा कि वह मुझे एक सुरक्षित जगह पर ले जाएगा.” उस दोस्त ने एक मैडम के साथ सौदा करने के बाद, सोनी को शहर के रेड-लाइट इलाक़े में छोड़ दिया. उसकी बेटी ईशा तब मुश्किल से एक साल की थी और उसके साथ ही थी.

सोनी चार साल पहले मुंबई के कमाठीपुरा आ गई. वह कहती हैं, “मुझे घर जाने का मन करता है. लेकिन मैं न तो यहां की रही, न वहां की. यहां [कमाठीपुरा में] मैंने क़र्ज़ लिया है जिसे मुझे वापस चुकाना है, और मेरे गृहनगर में लोग मेरे धंधे के बारे में जानते हैं, यही वजह है कि मुझे वहां से आना पड़ा.”

ईशा को जबसे चाइल्ड केयर इंस्टीट्यूट में भेजा गया है, तब से वह (कोविड से जुड़ी पाबंदियों के कारण) उससे मिलने में असमर्थ रही है, और वीडियो कॉल पर उससे बात करती है. वह कहती हैं, “मेरे साथ जो कुछ हुआ, मैं पहले से ही उसे सहन कर रही हूं. मैं पहले से ही एक बर्बाद महिला हूं, लेकिन कम से कम उन्हें मेरी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद नहीं करनी चाहिए. मैं नहीं चाहती कि वह मेरी तरह जीवन गुज़ारे और उन चीजों से गुज़रे जो मैंने झेला है. मैं उसके लिए लड़ रही हूं, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि भविष्य में उसे यह महसूस हो कि कोई भी उसके लिए खड़ा नहीं हुआ, जैसे कि मेरे लिए कोई नहीं खड़ा हुआ था.”

यौन शोषण करने वाले की गिरफ़्तारी के बाद से, उसकी पार्टनर (जो कथित रूप से बच्ची के यौन शोषण में सहायक थी) सोनी को परेशान करती रहती है. सोनी बताती हैं, “वह झगड़ा करने के लिए मेरे कमरे में घुस आती है और उसके आदमी को जेल भिजवाने के लिए शाप देती है. वे कहते हैं कि मैं उससे बदला ले रही हूं, कुछ लोग कहते हैं कि मैं शराब पीती हूं और एक लापरवाह मां हूं. यही गनीमत है कि वे कम से कम मुझे मां कह रहे हैं.”

कवर फ़ोटो: चारू और उनकी बेटी शीला (फोटो: आकांक्षा)

अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Aakanksha

آکانکشا (وہ صرف اپنے پہلے نام کا استعمال کرتی ہیں) پاری کی رپورٹر اور کنٹینٹ ایڈیٹر ہیں۔

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Translator : Qamar Siddique

قمر صدیقی، پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا کے ٹرانسلیشنز ایڈیٹر، اردو، ہیں۔ وہ دہلی میں مقیم ایک صحافی ہیں۔

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