धूल के गुबार के बीच इंजिन के फुट-फुट करने की आवाज़ के साथ अदैकलसेल्वी अपनी बाइक पर सवार होकर पहुंचती हैं. उन्होंने एक नीली साड़ी पहनी हुई है, उनकी नाक में एक बड़ी सी नथ है और उनके चेहरे पर एक खिली हुई मुस्कान है. कुछ मिनट पहले ही उन्होंने मिर्च के खेत पर हमें अपने बंद पड़े घर पर इंतज़ार करने के लिए कहा था. यह भरी दोपहर का समय है और अभी मार्च का ही महीना है. खड़ी धूप में हमारी परछाईयां छोटी हो चुकी हैं, लेकिन कड़ी गर्मी ने हमारी प्यास का क़द बढ़ा दिया है. अमरूद के पेड़ की ठंडी छांह में बाइक खड़ी करने के बाद अदैकलसेल्वी लपककर घर का मुख्य दरवाज़ा खोलती हैं और हमें भीतर आने को कहती हैं. गिरिजा से घंटे की आवाज़ सुनाई पड़ती है. वह हमें पीने के लिए पानी का गिलास देती हैं और हम बातचीत करने के लिए बैठ जाते हैं.
हम उनकी बाइक से बातचीत की शुरुआत करते हैं. बाइक की सवारी छोटे से गांव की उनकी उम्र की किसी औरत के लिए बहुत सामान्य बात नहीं है. अदैकलसेल्वी ( 51 साल) हंसती हुई बोलती हैं, “यह बड़े काम की चीज़ है." उन्होंने इसे चलाना बहुत जल्दी सीख लिया था. वह बताती हैं, "जब मैं आठवीं में पढ़ती थी, तभी मेरे भाई ने मुझे बाइक चलाना सिखाया था. चूंकि मुझे साइकल चलाना आता था, इसलिए मेरे लिए यह मुश्किल काम नहीं था.”
वह बताती हैं कि अगर यह दोपहिया नहीं होती, तो उनकी ज़िंदगी और भी कठिन होती. “मेरे पति कई सालों से घर से दूर रहे. वह प्लंबर का काम करते थे - पहले सिंगापुर में और उसके बाद दुबई और क़तर में. मैंने अकेले ही अपनी बेटियों की परवरिश की और खेती-बाड़ी भी संभाला.”
जे. अडैकलसेल्वी शुरू से ही एक किसान हैं. वह फ़र्श पर पालथी मारकर बैठी हुई हैं, उनकी पीठ बिल्कुल सीधी तनी हुई है और उनके दोनों हाथ उनके घुटनों पर टिके हुए हैं. उन्होंने दोनों कलाइयों पर सिर्फ़ एक-एक चूड़ियां पहनी हुई हैं. वह शिवगंगई ज़िले के कालयारकोइल में एक कृषक परिवार में पैदा हुई थीं, जो यहां मुदुकुलतुर ब्लॉक के उनके छोटे से गांव पी. मुतुविजयपुरम से सड़क के रास्ते कोई डेढ़ घंटे की दूरी पर है. “मेरे भाई शिवगंगई में रहते हैं जहां उनके पास बहुत से बोरवेल हैं, और यहां मुझे सिंचाई के लिए 50 रुपए प्रति घंटे की दर पर पानी ख़रीदना पड़ता है.” रामनाथपुरम में पानी एक बड़ा व्यवसाय है.
जब अदैकलसेल्वी की बेटियां छोटी थीं, उन्होंने उन्हें हॉस्टल में डाल दिया था. उन्हें खेत पर अपना काम निपटाने के बाद बेटियों की देखभाल करने घर लौटना पड़ता था, और फिर दोबारा अपने खेत पर जाना पड़ता था. इस तरह से उनका घर चलता था. अभी वह छह एकड़ ज़मीन पर खेती करती हैं. एक एकड़ की जुताई वह ख़ुद करती हैं और बाक़ी के पांच एकड़ उन्होंने पट्टे पर दे रखे हैं. “धान, मिर्च, और कपास की फ़सल बाज़ार के लिए और धनिया, भिंडी, बैंगन, लौकी, और छोटे प्याज मेरी रसोई के लिए ...”
वह बड़े से कमरे में बनाए गए मचान की तरफ़ इशारा करती हैं. धान की बोरियां यहीं रखी जाती हैं, ताकि वह चूहे की पहुंच से दूर रहें. और मिर्चें रसोई में बने मचान पर रखी जाती हैं.” इसी तरह समय-समय पर कमरे बदलते रहते हैं. कोई बीस साल पहले जब यह घर बनकर तैयार हो रहा था, तब इन छोटी-छोटी सुविधाओं को भी उन्होंने ख़ुद ही डिज़ाइन किया था, एक संकोच के साथ मुस्कुराती हुई वह हमें बताती हैं. घर के मुख्य दरवाज़े पर नक्काशी से मदर मैरी की तस्वीर बनाने का विचार भी उनका ही था. लकड़ी पर की गई इस सुंदर नक्काशी में मैरी फूलों के ऊपर खड़ी दिखती हैं. कमरे की भीतरी दीवारें पिस्ता हरे रंग की हैं और उनपर फूलों की सजावट की गई है. परिवार के सदस्यों की तस्वीरें और यीशु और मैरी के पोट्रेट भी उन दीवारों पर टंगे हुए हैं.
सजावट के साथ-साथ घर में पर्याप्त भंडारण की सुविधाओं का भी पूरा ख़याल रखा गया है, ताकि फ़सलों की अच्छी क़ीमत मिलने तक उन्हें सुरक्षित रखा जा सके. अधिकतर मौक़ों पर यह योजना कारगर सिद्ध होती है. धान का सरकारी ख़रीद मूल्य 19.40 रुपए था.
दूसरी तरफ़, स्थानीय कमीशन एजेंट ने केवल 13 रुपए की पेशकश की थी. वह सवाल करती हैं, “मैंने सरकार को दो क्विंटल [200 किलोग्राम] धान बेचा. वे मिर्च भी क्यों नहीं ख़रीद लेते?”
उनका कहना है कि मिर्च की खेती करने वाला हरेक किसान अपने फ़सल की स्थिर और अच्छी क़ीमत चाहता है. “धान के विपरीत मिर्च को अधिक बरसात और जमा पानी की ज़रूरत नहीं होती है. इस साल बरसात उस समय हुई जब उसकी ज़रूरत नहीं थी. बीज में अंकुर निकल चुके थे और छोटे-छोटे पौधे भी दिखने लगे थे. पौधों में फूल आने से पहले अगर हल्की बारिश हुई होती, तो फ़सलों को ज़रूर इसका फ़ायदा होता. लेकिन उस समय बारिश बिल्कुल नहीं हुई.” उन्होंने बातचीत में ‘मौसम बदलने’ जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि असमान बारिश के बारे में संकेत की भाषा का प्रयोग किया - मसलन बहुत अधिक, बहुत जल्दी, ग़लत मौसम में ग़लत समय पर वगैरह-वगैरह. बहरहाल मौसम के प्रकोप का दुष्परिणाम यह हुआ कि उनकी उम्मीद के सिर्फ़ पांचवें हिस्से के बराबर ही पैदावार हो सकी. “फ़सल के पूरी तरह से नष्ट हो जाने का अंदेशा था.” और वह भी तब जबकी उन्होंने 300 रुपए प्रति किलो के क़ीमती और उन्नत क़िस्म की बीज ‘रामनाद मुंडु’ का प्रयोग किया था.
उन्हें याद है जब मिर्च की एक ढेर एक या दो रुपए में और बैंगन 25 पैसे में एक किलो बिकता था. “फिर तीस साल पहले कपास केवल तीन या चार रुपए में क्यों बिकता था? तब आप किसी मज़दूर को दिन भर काम करने के बदले पांच रुपए देते थे. और अब? उनकी मज़दूरी बढ़कर 250 रुपए रोज़ हो गई है. लेकिन, कपास आज भी 80 रुपए किलो ही बिकता है.” दूसरे शब्दों में, मज़दूरी में 50 गुना इज़ाफ़ा हुआ है, जबकि मूल्यों में बढ़ोतरी सिर्फ़ 20 गुना ही हुई है. ऐसे में किसान क्या करेगा? ज़ाहिर तौर पर उसके पास चुपचाप अपना काम करते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं है.
यह काम अदैकलसेल्वी अलग अंदाज़ में करती हैं. उनकी इस बात से उनका संकल्प प्रकट होता है, “मिर्च का खेत इस तरफ है,” वह अपनी दाईं तरफ़ इशारा करती हैं, “और मैं अपनी कुछ खेती इस तरफ़ और कुछ खेती उस तरफ़ भी करती हूं.’ उनकी उंगलियां हवा में तैरती हुई कोई नक्शा सा बनाती दिखती हैं. अदैकलसेल्वी मुस्कुराती हुई बताती हैं, “चूंकि मेरे पास मेरी बाइक है, इसलिए मैं दोपहर को खाने के लिए भी जा सकती हूं. मैं बोरियां लाने और उन्हें ढोने के लिए किसी पर निर्भर नहीं हूं, और मैं उन्हें अपने कैरियर पर उठा कर अपने घर तक ले जा सकती हूं.” ऐसे एक ख़ास लहजे में बोली गई उनकी तमिल ज़ुबान भी थोड़ी जानी-पहचानी सी लगती है.
“साल 2005 में अपनी ख़ुद की बाइक ख़रीदने के पहले मैं गांव में किसी और की बाइक मांग कर अपना काम चलाती थी.” उनकी नज़र में टीवीटीएस मोपेड में किया गया उनका यह निवेश बहुत उपयोगी साबित हुआ है. वह गांव की दूसरी युवा लड़कियों को भी बाइक चलाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं. “बहुतों ने तो चलाना शुरू भी कर दिया है,” वह मुस्कुराती हैं और अपने खेत पर जाने जाने के लिए अपनी बाइक की तरफ़ बढ़ने लगती हैं. हम भी अपनी गाड़ी में सवार होकर उनके पीछे चल निकलते हैं. हम रामनाथपुरम की ज़मीन पर एक सुर्ख़ लाल कालीन की तरह धूप में पसरी लाल मिर्चों को सूखता हुआ देखते गुज़र रहे हैं. इन्हीं मिर्चों की खुशबु और स्वाद देश-देशांतर की थालियों का ज़ायका बढ़ाएंगी. लोग कहेंगे, थाली में एक गुंडू मिलागई (ताज़ा मिर्च) दें मेहरबानी करें....
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“मैंने तुम्हारा हरापन देखा है, फिर पकने के साथ-साथ
तुम लाल होती गई,
तुम दिखने में कितनी मोहक हो और थाली में कितनी
ज़ायकेदार...”
संत-कवि पुरंदरदास के एक गीत की पंक्तियां
इन सहज और रोचक पंक्तियों की अनेक व्याख्याएं संभव हैं. लेकिन के. टी. अच्चया की पुस्तक इंडियन फूड, अ हिस्टोरिकल कम्पैनियन के अनुसार मिर्च का पहला साहित्यिक उल्लेख यहीं मिलता है. यह मसाला आज किसी भारतीय भोजन की थाली की एक सार्वभौमिक और अनिवार्य उपस्थिति बन चुका है कि यह “विश्वास करना बहुत मुश्किल है कि यह हमेशा से हमारे साथ नहीं था.” बहरहाल इस गीत के ज़रिए हम इस मसाले के उत्पत्ति के एक निश्चित काल तक पहुंचने की स्थिति में हैं. इस गीत की रचना “दक्षिण भारत के महान संतकवि पुरंदरदास (1480 - 1564) ने की थी.”
जैसा कि इस गीत में वर्णित है:
“निर्धनों की रक्षा करने वाला, भोजन को सुस्वादु बनाने वाला, खाने में इतना तीखा कि प्रभु पांडुरंग विट्ठल के लिए भी इसे कच्चा खा पाना असहनीय है.”
वनस्पतिशास्त्र की भाषा में कैप्सिकम एनम के नाम से उल्लिखित मिर्च को ‘भारत में लाने का श्रेय पुर्तगालियों को है, जो दक्षिण अमेरिका पर अपनी जीत के बाद वहां से इसे लेकर भारतीय तट पर पहुंचे थे,’ यह बात सुनीता गोगटे और सुनील जलिहल ने अपनी किताब ‘रोमांसिंग दी चिली’ में कही है.
एक बार अपने भारत में दाख़िले के बाद इसने गोलमिर्च को पीछे छोड़ दिया, जो कि उस समय तक भोजन को तीखा और चटपटा बनाने का इकलौता मसाला था. मिर्च के पक्ष में एक बात यह भी है कि इसे पूरे देश में कहीं भी उपजाया जा सकता है, और “गोलमिर्च की बनिस्बत इसकी उपयोग की बहुलता भी अद्भुत है” अच्चया बताते हैं. संभवतः यही कारण है अनेक भारतीय भाषाओं में मिर्च का नामकरण भी गोलमिर्च से मिलता-जुलता ही किया गया है. उदाहरण के लिए, तमिल में गोलमिर्च को मिलागु, और मिर्च को मिलागई कहते हैं. इस तरह दो ‘स्वरों’ ने दो महादेशों और अनेक सदियों के बीच की दूरी के बीच एक पुल का काम किया.
जल्दी ही मिर्च भारत में हम सबका मसाला बन गया. और, आज भारत की गिनती सूखी लाल मिर्च के बड़े उत्पादक देशों में होती है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह सबसे अग्रणी उत्पादक है और 2020 में भारत ने कुल 10.7 लाख टन लाल मिर्च का उत्पादन किया. क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे थाईलैंड और चीन की तुलना में यह लगभग पांच गु ना अधिक है. साल 2021 में 8,36,000 टन खेती के साथ आंध्रप्रदेश देश का सबसे बड़ा मिर्च-उत्पादक राज्य है. उसकी तुलना में तमिलनाडु ने उस वर्ष केवल 25,648 टन मिर्च का उत्पादन किया. राज्य में , रामनाथपुरम ज़िले का स्थान उसमें सबसे आगे है. तमिलनाडु के प्रति चार हेक्टेयर ज़मीन में एक हेक्टेयर मिर्च का उत्पादन (54,231 में 15,939 टन) का उत्पादन इसे ज़िले में होता है.
रामनाथपुरम की मिर्च और मिर्च किसानों के बारे में मैंने सबसे पहले पत्रकार पी. साईनाथ की मशहूर किताब: एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राट के “दी टिरनी ऑफ द तारागर” नामक अध्याय में पढ़ा था. इसकी शुरुआत इस प्रकार होती है: “तारागर (दलाल या कमिशन एजेंट) एक छोटे किसान के लाई हुई दो बोरियों में से एक में अपना हाथ डालता है और कोई एक किलो मिर्च निकालता है. वह उन मिर्चों को लापरवाही से एक ढेर की तरफ़ उछाल देता है. यह सामी विट्ठल (भगवान) का हिस्सा है.
साईनाथ इसके बाद हमारा परिचय भौंचक्के रामास्वामी से कराते हैं, “यह छोटा सा किसान एक तिहाई एकड़ में मिर्च उगाकर अपना गुज़ारा करता है.” वह चाहकर भी किसी दूसरे को अपनी फ़सल नहीं बेच सकते हैं, क्योंकि “दलाल ने उपज से पहले ही पूरी फ़सल ख़रीद ली थी.” साल 1990 के दशक की शुरुआत में जब साईनाथ ने अपनी पुस्तक के लिए देश के दस सबसे निर्धन ज़िलों का दौरा किया था, किसानों पर तारागर का दबदबा कुछ ऐसा ही था.
और, 2022 में, मैं अपनी सीरीज ‘लेट देम ईट राइस’ के सिलसिले में दोबारा रामनाथपुरम गई, तो मुझे उन किसानों की स्थिति का जायज़ा लेने का एक और मौक़ा मिला.
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“कम पैदावार की वजहें हैं: माईल, मुयल माडू, मान
(तमिल में - मोर, खरगोश, गाय, और हिरन). उसके अलावा कई बार ज़रूरत से ज़्यादा बारिश होती
है और कई बार उम्मीद से बहुत कम.”
वी. गोविंदराजन, मुम्मुदिस्थान, रामनाथपुरम के
एक मिर्च-किसान
रामनाथपुरम शहर के एक मिर्च व्यापारी की दुकान के भीतर औरतें और मर्द थोक बोली की शुरुआत का इंतज़ार कर रहे हैं. ये सभी किसान दूरदराज़ के इलाक़ों से टेंपो, बसों और बोरियां लदी बैलगाड़ियों पर कड़ी धूप में ख़ुद को पंखा झलते और तौलियों और पल्लुओं से अपना पसीना पोंछते हुए यहां पहुंचे हैं. प्रचंड गर्मी पड़ रही है, लेकिन वे अपने लिए छांह का एक छोटा सा टुकड़ा खोजने में सफल होते हैं. उनके खेतों में तो इतनी भर भी छांह नहीं है. मिर्च के पौधे ऐसे भी छांह की शीतलता में नहीं पनपते हैं.
वी. गोविंदराजन (69 साल) अपने साथ 20-20 किलो की तीन लाल मिर्चों की बोरियां लेकर आए हैं. “इस साल फ़सल अच्छी नहीं हुई है.” वह मगसूल की पैदावार के बारे में बात कर रहे हैं. “लेकिन दूसरे ख़र्चे में कोई कमी नहीं होती है. वह बताते हैं कि मल्लीगई (चमेली) और मिलागई जैसी दूसरी नाज़ुक फ़सलों की तुलना में मगसूल मिर्च प्राकृतिक रूप से एक कठोर पैदावार है. इसे कीटनाशकों में नहलाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती.
उसके बाद, गोविंदराजन प्रक्रिया के बारे में बताते हैं. वह मुझे हल चलाने के क्रम के बारे में भी बताते हैं. गर्मियों में खेत को सात (जो सबसे गहरा माना जाता है)) या कम से कम पांच बार हल से जोतना होता है. उसके बाद मिट्टी में खाद डालना होता है. इसके लिए हफ़्ते भर रोज़ रात को 100 बकरियों को खेत में छोड़ना होता है, ताकि उनके खाद से से खेत की उर्वराशक्ति बढ़ सके. इसके लिए गोविंदराजन को एक रात के 200 रुपए चुकाने होते हैं. बीज ख़रीदना भी ख़ासा महंगा है और पूरे फ़सल के दौरान खेत के खर-पतवार को 4 से 5 बार साफ़ करना होता है. वह हंसते हुए बताते हैं, “मेरे बेटे के पास एक ट्रैक्टर है, इसलिए मुझे खेत तैयार करने के पैसे नहीं लगते हैं. दूसरों को इसी काम के लिए 900 से 1,500 रुपए के बीच भाड़े के रूप में चुकाने पड़ते हैं. यह भाड़ा काम के हिसाब वसूला जाता है.”
जब हम बातचीत करते होते हैं, कुछ दूसरे किसान भी हमारे पास आ खड़े होते हैं. वे धोती और लुंगी पहने हुए हैं और उनके कंधे पर एक तौलिया है. कुछ ने पगड़ी भी बांध रखी है. औरतों ने नायलोन की चमकीली और फूलों के छापों वाली साड़ियां पहनी हुई हैं. उनके बाल के जूड़े में नारंगी रंग की कनकाम्बरम बंधी हुई है और उनसे मल्लिगाई (चमेली) की महक आ रही है. गोविंदराजन मेरे लिए चाय ख़रीदते हैं. कड़ी धूप की एक लकीर ढलान वाली छप्पर की फांक से नीचे उतर रही है और लाल मिर्चों की ढेरों को छू रही है. उस ढेर से किसी बड़े माणिक्य की तरह रौशनी सी फूट रही है.
रामनाथपुरम ब्लॉक के कोनेरी टोले की 35 वर्षीया किसान ए. वासुकी भी अपने अनुभव साझा करती हैं. वहां मौजूद दूसरी औरतों की तरह उनका भी दिन पुरुषों से पहले शुरू होता है. क़रीब 7 बजे तक घर के कामों से फ़ारिग होकर वह बाज़ार निकल पड़ती हैं. उन्हें अपने स्कूल जाने बच्चों के लिए लंच पकाना और पैक करना पड़ता है. उनके वापस लौट कर आने तक 12 घंटे गुज़र चुके होते हैं. लौटने के बाद उनको बाक़ी काम पूरा करना होता है.
इस साल की पूरी पैदावार तहस-नहस हो चुकी है, ऐसा वह बताती हैं. “कोई न कोई गड़बड़ी ज़रूर हुई थी कि मिर्च का आकार बिल्कुल भी नहीं बढ़ पाया. अम्बुट्टुम कोट्टीडुचु (पूरी फ़सल गिर गई).” वे अपनी फ़सल के आधे हिस्से के रूप में केवल 40 किलो मिर्चें ही पा सकीं. बाक़ी 40 किलो की उम्मीद उनको सीज़न बीतने के बाद है. अपनी कमाई की संभावना बढ़ाने के उद्देश्य से वह मनरेगा के काम की तरफ़ उम्मीद भरी नज़रों से देख रही हैं.
पी. पूमायिल (59 साल) के लिए आज की सबसे बड़ी घटना यह है कि 20 किलोमीटर दूर अपने छोटे से गांव मुम्मुड़ीसातान से यहां तक की उनकी यात्रा पूरी तरह से मुफ़्त रही. उस सुबह उनसे बस पर चढ़ने का कोई भाड़ा नहीं लिया गया. साल 2021 में मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन के नेतृत्व में सत्ता में आने के तत्काल बाद डीएमके की सरकार ने शहर की बसों में महिलाओं के लिए बिल्कुल मुफ़्त यात्रा करने की सुविधा की घोषणा की थी.
पूमायिल मुझे अपना टिकट दिखाती हैं, जिसपर महिलाएं (मगलिर) और नि:शुल्क लिखा है. उन्होंने अपने 40 रुपए बचा लिए हैं और हम उनकी बचत के बारे में बातचीत कर रहे हैं. पास खड़े दो पुरुष किसान परिहास में कहते हैं कि उन्हें भी मुफ़्त में यात्रा करने दिया जाता, तो कितना अच्छा होता! उनकी बात सुनकर सभी लोग हंस पड़ते हैं. ख़ासकर औरतें बहुत ख़ुश दिख रही हैं.
लेकिन उनकी मुस्कुराहटें तब धीरे-धीरे मुरझाने लगती हैं, जब गोविंदराजन उन्हें एक-एक कर कम उपज की वजहें गिनाने लगते हैं. माईल, मुयाल, माडू, मान, वे तमिल में गिनाते हैं - मोर, खरगोश, गाय और हिरन. “और इसके बाद ज़रूरत से ज़्यादा या ज़रूरत से बहुत कम बरसात.” जब फूल निकलने और फल के बड़े होने के समय अच्छी बारिश मददगार साबित हो सकती थी, उस समय बारिश हुई ही नहीं. वह हाथ से ऊंचाई का इशारा करते हुए बताते हैं, “पुराने दिनों में कितनी अधिक मात्रा में मिर्च की खेती हुआ करती थी. तब मिर्चों की एक पहाड़ीनुमा ढेर बन जाती थी और कोई उस ढेर पर और मिर्च फ़ैलाने के लिए उस पर खड़ा हो सकता था.”
अब ढेर छोटे होते जा रहे हैं, और उनकी प्रजातियां भी एक सी नहीं रहीं. कुछ गहरे लाल रंग की होती हैं, और कुछ बहुत चमकीली होती हैं. लेकिन वे सब की सब बहुत तीखी होती हैं, और इसीलिए बीच-बीच में किसी न किसी के छींकने या खांसने की आवाज़ आती ही रहती है. कोरोनावायरस अभी भी पूरी दुनिया के सामने एक बड़ा ख़तरा बना हुआ है, लेकिन यहां व्यापारी की दुकान के भीतर इस छींक का असल मुजरिम मिर्च है.
तक़रीबन इसी समय नीलामीकर्ता एस. जोसेफ़ सेंगोल वहां आते हैं और सबकी बेचैनी बढ़ जाती है. सभी किसान अचानक गंभीर हो जाते हैं और ध्यान से कार्रवाई को देखने लगते हैं. मिर्च की ढेरों के इर्दगिर्द लोगों का इकट्ठा होना बढ़ने लगा है. जोसेफ़ के साथ जो दूसरे लोग आए हैं वे उपज पर खड़े होकर उसकी जांच करते हैं. इसके बाद, वह अपने दाएं हाथ पर एक तौलिया रख लेते हैं. एक और आदमी आता है और भीतर से जोसेफ की उंगलियां पकड़ता है. गोपनीय नीलामी का यही तरीक़ा है. नीलामी में सारे ख़रीदार पुरुष ही हैं.
नीलाम में प्रयुक्त होने वाली सांकेतिक भाषा किसी बाहरी इंसान के लिए पहेली से कम नहीं है. हथेली को छूने, उंगलियों को पकड़ने या एक हाथ को दूसरे हाथ से थपथपाने के ढंग से संवादों और संख्याओं का आदान-प्रदान बदस्तूर जारी है. हरेक ढेर का मूल्य इसी तरीक़े से तय हो रहा है. अगर वे किसी नीलामी को रद्द करना चाहते हैं, तो हथेली के मध्य में शून्य की आकृति बनाते हैं. नीलामकर्ता को इस काम के लिए तीन रुपए प्रति बोरी की दर से कमीशन मिलता है. और, इस नीलामी की पूरी प्रक्रिया के सफल आयोजन के लिए व्यापारी को किसानों से कुल बिक्री का 8 प्रतिशत कमीशन के रूप में मिलता है.
एक ख़रीदार का सौदा तय हो जाने के बाद दूसरे की बारी आती है. फिर उसी तरह से तौलिए के भीतर उंगली पकड़ने का सिलसिला शुरू होता है. इसी तरह एक-एक करके हर ख़रीदार की बारी जाती है. उस दिन लाल मिर्च की क़ीमत उनके आकार और रंग के आधार पर 310 रुपए से लेकर 389 रुपए प्रति किलो तय हुई है. रंग और आकार ही मिर्चों की गुणवत्ता तय करने वाले मुख्य तत्व हैं.
किसान बहुत ख़ुश नहीं दिख रहे हैं. कम पैदावार के कारण अच्छी क़ीमत मिलने के बावजूद उन्हें कोई लाभ नहीं हो सका है. बल्कि उन्हें नुक़सान ही हुआ है. गोविंदराजन कहते हैं, “हमसे कहा गया है कि हम अधिक कमाई करना चाहते हैं, तो हमें मूल्य संवर्द्धन (वैल्यू एडिशन) पर ध्यान देना चाहिए. लेकिन आप ही बताइए, हमारे पास समय कहां है? क्या हम सूखी मिर्च को पीसकर उसका पाउडर पैक करें और उन पैकेटों को बेचने बाज़ार जाएं या हम अपनी खेती पर ध्यान दें?”
लेकिन जल्दी ही तनाव उनके आक्रोश पर भारी पड़ने लगता है, जब उनकी मिर्च की नीलामी का समय आता है. वह मुझसे आग्रह करते हैं, “आप भी आइए, आप बेहतर देख सकती हैं. यह वैसा ही है जैसे कोई अपनी परीक्षा के नतीजों का इंतज़ार कर रहा हो.” वह तौलिए से अपना मुंह पोंछते हुए कहते हैं. उनकी भावभंगिमा में तनाव साफ़ प्रकट हो रहा है और वह हाथों की सांकेतिक भाषा को ध्यान से देख रहे हैं. वह मूल्य की घोषणा होने के बाद मुस्कुराते हैं, "मुझे प्रतिकिलो 335 रुपए की क़ीमत मिली है." उनके बेटे की मिर्च, जिनके फल अपेक्षाकृत बड़े आकार के हैं, 30 रुपए अधिक क़ीमत पर बिकी हैं. वासुकी को उनकी पैदावार की क़ीमत 359 रुपए प्रति किलो मिली है. किसान अब राहत महसूस कर रहे हैं, लेकिन अभी उनका काम पूरा नहीं हुआ है. अभी उनको अपनी मिर्च का वज़न कराना है, पैसे लेने हैं, थोड़ा-बहुत खाना खाना है, छोटी-मोटी ख़रीदारियां करनी हैं और तब जाकर घर लौटने की बस पकड़नी है...
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“पहले के दिनों में हम सिनेमा जाया करते थे. लेकिन
थिएटर में पिछली फ़िल्म जो मैंने कोई 18 साल पहले देखी थी, उसका नाम ‘तुलाता मनमम तुल्लुम’
(यहां तक कि मेरा दिल भी ख़ुश नहीं होगा!) था.”
मेलयकुड़ी, रामनाथपुरम की मिर्च-किसान एस. अंबिका
एस. अंबिका हमें बताती हैं, “शॉर्ट कट से जाने पर हमारा खेत बस आधा घंटा पैदल चलकर पहुंचा जा सकता है. लेकिन सड़क के रास्ते जाने पर थोड़ा अधिक समय लगता है.” साढ़े तीन किलोमीटर की अनेक मोड़ों वाली और घुमावदार सड़क पर चलने के बाद हम परमकुड़ी ब्लॉक के मेलयकुड़ी गांव के उनके मिर्च के खेतों पर पहुंचते हैं. मिर्च के पौधे दूर से ही लहलहाते हुए दिखते हैं - पत्ते हरे और चमकीले हैं और सभी डालियों पर पकने के अलग-अलग दौर से गुज़रती हुईं मिर्च की फलियां लगी हुई हैं. उनके रंग सुर्ख़ लाल, हल्दी से पीले और सुंदर अरक्कु (मैरून) रंग की रेशमी साड़ियों जैसे हैं. इधर-उधर नारंगी रंग की तितलियां उड़ रही हैं. ऐसा लगता है गोया अधपकी मिर्चों के पंख लग गए हों.
दस मिनट के भीतर ही खेतों की सुंदरता का मोहक जादू टूटने लगा. अभी सुबह के 10 भी नहीं बजे हैं, लेकिन धूप की गर्माहट अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी है. मिट्टी सूख चुकी है और आंखें पसीने से चिपचिपाने लगी है. हमने गौर किया, ज़िले में सब जगह ज़मीन पर गर्मी से दरार पड़ चुकी हैं, मानो रामनाथपुरम की धरती को बरसात का बेसब्र इंतज़ार हो. अंबिका के मिर्च के खेत की भी यही स्थिति है. पूरी की पूरी ज़मीन पर जालीनुमा दरारें पड़ी हुई हैं. लेकिन अंबिका को नही लगता कि खेत में दिखती दरारें मिट्टी के सूखेपन के कारण हैं. वह अपने पैरों की उंगलियों से खेत की मिट्टी खोदते हुए पूछती हैं, “देखिए, क्या यह नमी है?” उनके दूसरे अंगूठे में चांदी के बने मेट्टी (अंगूठी) हैं.
अंबिका का परिवार पीढ़ियों से आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है. उनकी उम्र 38 साल है, और उनके साथ उनकी 33 साल की देवरानी भी है. दोनों के परिवारों के पास एक-एक एकड़ खेती करने लायक ज़मीन है. मिर्च के अलावा वे दोनों अगती भी उगाती हैं, जो एक तरह का पालक है और उनकी बकरियों के लिए एक पौष्टिक चारा है. कई बार वे भिंडी और बैगन भी उगाती हैं. इनसे उनके काम का बोझ बेशक़ काफ़ी बढ़ जाता है. लेकिन क्या इससे उनकी आमदनी में कोई बढ़ोतरी होती है?
दोनों औरतें अपने खेतों पर रोज़ सुबह 8 बजे पहुंच जाती हैं और फसलों की रखवाली करने के लिए शाम को 5 बजे तक रूकती हैं. “वर्ना बकरियां पौधों को चर जाएंगी!” रोज़ सुबह वे 4 बजे तक जग जाती हैं. घर की सफ़ाई करना, पानी भरना, खाना पकाना, बच्चों को जगाना, बर्तन धोना, खाने की पैकिंग करना, मवेशियों और मुर्गियों को चारा देना, खेत जाना, वहां काम करना, कभी-कभी जानवरों को पानी पिलाने के लिए दोपहर में घर लौटना, फिर मिर्च के खेतों पर दोबारा जाना, फ़सलों का रखरखाव करना, और फिर शॉर्ट कट के रास्ते आधे घंटे पैदल चलते हुए अपने घरों को लौटना उनकी सामान्य दिनचर्या है. उस रास्ते पर एक कुतिया अपने पिल्लों के साथ अक्सर उनकी राह देखती हुई मिल जाती है. कम से कम इस मां को तो अपने बच्चों के लिए फ़ुर्सत है...
अंबिका का बेटा उन्हें फ़ोन कर रहा है. “एन्नडा,” तीसरी बार जब घंटी बजती है, तो अंबिका झल्लाती हुई आवाज़ में कहती हैं, “तुमको क्या चाहिए?” उसकी बात सुनते हुए वह उसे हल्की फटकार लगाती हैं. वह हमें बताती हैं कि बच्चे घर पर तरह-तरह की फरमाइशें करते रहते हैं. “हम कुछ भी पकाएं, उनको बस अंडा और आलू चाहिए. उनके लिए हमें दोबारा कुछ-कुछ बनाना पड़ता है. रविवार के दिन वे जो मांस कहते हैं हम उनके लिए बाज़ार से ख़रीदकर पका देते हैं.”
बातचीत करने के क्रम में अंबिका और रानी मिर्चे तोड़ती जा रहीं हैं. आसपास के खेतों में काम कर रही औरतें भी यही कर रही हैं. वे फुर्ती के साथ डालियों को उठाती हैं और बहुत आराम से उनसे मिर्चे तोड़ लेती हैं. जब उनकी मुट्ठियां भर जाती हैं, तो वे उन्हें एक रंगीन ख़ाली बाल्टी में डाल देती हैं. अंबिका बताती हैं कि पहले इस काम के लिए ताड़ के पत्ते की बनी टोकरी काम में लाई जाती थी, लेकिन अब उसकी जगह प्लास्टिक की मजबूत बाल्टियों ने ले ली है, जो फ़सल के कई सीज़न तक आराम से टिकती हैं.
उधर अंबिका के घर की छत पर उनकी पैदावार कड़ी धूप में सूख रही है. वह एक-एक मिर्च को सतर्कता के साथ सूखने के लिए फैलाती हैं और समय-समय पर उन्हें उलटती-पलटती रहती हैं, ताकि वे समान रूप से सूख जाएं. वह कुछ मिर्चों को उठाती हैं और उन्हें तेज़ी से हिलाती हैं. जब ये ठीक से सूख जाएंगी, तो इनके भीतर से “गड़-गड़ की आवाजें आने लगती हैं.” यह मिर्चों के भीतर सूख चुके बीजों के खड़खड़ाने की आवाज़ होती है. इस स्थिति में मिर्चों को इकट्ठा करके तौलने के बाद बोरियों में भर लिया जाता है, और गांव के दलाल या बेहतर क़ीमत की उम्मीद में परमकुड़ी और रामनाथपुरम के बाज़ार ले जाया जाता है.
नीचे अपनी रसोई से अंबिका मुझसे पूछती हैं, “आप ‘कलर’ (बोतलबंद शीतलपेय) पियेंगी?”
वह मुझे पास के खेत में अपनी बकरियों का बाड़ा दिखाने ले जाती हैं. किसान के चौकीदारी करने वाले कुत्ते जो रस्सियों से बुनी हुई चारपाई के नीचे सो रहे हैं, हमें देखकर जाग जाते हैं और भौंकने लगते हैं. “जब मेरे पति किसी आयोजन में खाना परोसने जाते हैं, तो मेरा कुत्ता मेरी भी रखवाली करता है. मेरे पति भी एक किसान हैं और काम मिलने पर कोई दूसरा काम भी कर लेते हैं.”
अपने विवाह के शुरुआती दिनों की बातें याद करते हुए वह शरमाने लगती हैं. “पुराने दिनों में हम सिनेमा देखने जाया करते थे. लेकिन थिएटर में पिछली फ़िल्म जो मैंने कोई 18 साल पहले देखी थी, उसका नाम है ‘तुलाता मनमम तुल्लुम’ (यहां तक कि मेरा दिल भी ख़ुश नहीं होगा!).” फ़िल्म का नाम सुनकर हमारे चेहरों पर एक अनायास मुस्कान छा जाती है.
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“अपनी फ़सल बेचने की कोशिश में मिर्च की खेती करने
वाले छोटे किसान अपनी आमदनी का 18 प्रतिशत हिस्सा गंवा देते हैं”
के. गंधिरासु, निदेशक, मुंडु चिली ग्रोवर्स असोसिएशन,
रामनाथपुरम
गंधिरासु कहते हैं, “उन किसानों के बारे में सोचिए जो सिर्फ़ पांच या दस बोरियां मिर्च ही उगाते हैं. सबसे पहले तो उन्हें टेम्पो या दूसरी गाड़ी का भाड़ा चुकाना पड़ता है, जो उन्हें उनके गांव से मंडी तक ले जाता है. वहां मूल्य तय करने के लिए व्यापारी आएंगे और 8 प्रतिशत अपना कमीशन शुल्क के रूप में वसूलेंगे. तीसरा, वज़न करने में भी कुछ गड़बड़ी हो सकती है, और इस गड़बड़ी का लाभ भी अक्सर व्यापारी को ही मिलता है. अगर वह एक बोरी में आधा किलो भी कम मानकर चलते हैं, तो यह पूरी तरह किसानों का ही घाटा है. बहुत से किसान इसकी शिकायत करते हैं.
इसके बाद भी, एक किसान का पूरा दिन इस प्रक्रिया में खप जाता है और इस अवधि में वह अपने खेत से अनुपस्थित रहता है. अगर व्यापारी के पास नक़द होता है, तब तो वे फ़ौरन भुगतान कर देते हैं वर्ना वे किसान से दोबारा आने को कह देते हैं. और, सबसे आख़िर में, किसान बाज़ार जाने के समय प्रायः अपना खाना साथ नहीं ले जाते हैं. ऐसी स्थिति में उन्हें भूख लगने पर होटल में खाना पड़ता है. यह ख़र्च और दूसरे सभी ख़र्च जोड़कर देखने पर पता चलता है कि किसान की कुल आमदनी से 18 प्रतिशत की कटौती हो चुकी होती है.”
गंधिरासु एक कृषक उत्पादक संगठन (एफ़पीओ) चलाते हैं. साल 2015 से रामनाद मुंडु चिली प्रोडक्शन कंपनी लिमिटेड किसानों की आय में वृद्धि करने की दिशा में सक्रिय है. गंधिरासु इस कंपनी के अध्यक्ष और निदेशक हैं. उनसे हमारी मुलाक़ात मुदुकुलतुर शहर में स्थित उनके कार्यालय में होती है. “आप आमदनी कैसे बढ़ाएंगे? पहले तो आप फ़सल लगाने की लागत में कटौती कर दें. दूसरा, आपको अपनी पैदावार बढ़ाने की ज़रूरत होगी. और तीसरा, बाज़ार तक अपनी पहुंच को सुलभ बनाइए. फ़िलहाल हम अपना पूरा ध्यान विपणन पर केन्द्रित कर रहे हैं.” रामनाथपुरम ज़िले में उनको सबसे आवश्यक हस्तक्षेप “पलायन की समस्या” को रोकना लगा.
सरकार अपने पिछले आंकड़ों को खंगालती है. रामनाथपुरम ज़िले के लिए तमिलनाडु रूरल ट्रांसफॉर्मेशन प्रोजेक्ट की डायग्नोस्टिक रिपोर्ट (नैदानिक पड़ताल) के अनुसार 3,000 से लेकर 5,000 की संख्या में किसान प्रति वर्ष पलायन कर रहे हैं. इस पलायन के बिचौलिए, जल संसाधनों की कमी, सूखा, और शीतगृहों की कमी जैसी समस्याएं उत्तरदायी हैं.
गंधिरासु बताते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका पानी की है. वह क्षण भर के लिए ठिठककर दोबारा बोलते हैं, “आप कावेरी डेल्टा क्षेत्र के मैदानी इलाक़ों या पश्चिमी तमिलनाडु में चले जाइए. आप क्या देखते है? बिजली के खंभे. क्योंकि वहां हर जगह बोरवेल मिलेंगे.” रामनाथपुरम में उनकी संख्या बहुत कम है, वह बताते हैं. वर्षा-आधारित सिंचाई की अपनी सीमाएं हैं जो मौसम के मिजाज़ और मर्जी पर निर्भर हैं.
एक अन्य सरकारी आंकड़े जिसका स्रोत, ज़िला सांख्यिकी पुस्तिका है, के अनुसार ज़िले में 2018-19 में केवल 9,248 पंपसेट थे. रामनाथपुरम विद्युत् वितरण सर्कल इसकी पुष्टि करता है. राज्य के कुल 18 लाख पंपसेटों की तुलना में यह यह संख्या नगण्य है.
बहरहाल रामनाथपुरम के लिए यह कोई नई समस्या नहीं है. साल 1996 में प्रकाशित ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्राट’ में पत्रकार पी. साईनाथ ने विख्यात लेखक स्वर्गीय मेलनमई पोन्नुस्वामी का साक्षात्कार लिया है. “सामान्य धारणा के विपरीत ज़िले में कृषि से संबधित बहुत अच्छी संभावनाएं हैं. लेकिन इन बातों के लिए आवश्यक प्रयास कौन करता है?” उन्होंने आगे कहा कि “रामनाद की 80 फ़ीसदी से भी अधिक जोत की ज़मीन का आकार दो एकड़ से भी छोटा है और यह आर्थिक पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है. लेकिन इन सबसे भी बड़ी समस्या सिंचाई की कमी है.”
संभावनाओं को लेकर पोन्नुस्वामी अपने आकलन में बिल्कुल सटीक थे. वर्ष 2018-19 में रामनाथपुरम ज़िले ने 4,426.64 मैट्रिक टन मिर्च का व्यवसाय किया, जिसका अनुमानित मूल्य लगभग 33.6 करोड़ रुपए था. इसकी तुलना में धान की उपज से कुल 15.8 करोड़ रुपयों का ही व्यापार हुआ, जबकि धान के खेतों को बेहतर सिंचाई की सुविधा दी गई थी.
एक किसान का पुत्र होने और मास्टर डिग्री की पढ़ाई करने के समय तक ख़ुद भी कृषिकार्य में रूचि लेने वाले गंधिरासु ने ज़िले में मिर्च की खेती के आर्थिक-व्यापारिक भविष्य का अनुमान लगा लिया था. इसलिए, इस संभावनाओं में गोते लगा कर मोती चुनने में उन्होंने थोड़ी भी देरी नहीं की. सामान्यतः एक छोटा किसान तक़रीबन एक एकड़ में अपनी फ़सल लगाता है. फ़सल तैयार हो जाने के बाद वह कुछ मजदूरों को रख कर पौधों से मिर्चें तुड़वाता है. बाक़ी का काम किसान और उसका परिवार ख़ुद कर लेते हैं. “एक एकड़ में मुंडु मिर्च की फ़सल लगाने में कोई 25,000 से लेकर 28,000 रुपए ख़र्च होते हैं. फ़सल तोड़ने की लागत कोई 20,000 रुपए अतिरिक्त आती है. यह 10 से लेकर 15 मज़दूरों का ख़र्च है, जो चार बार मिर्च की फ़सल तोड़ने के लिए भाड़े पर रखे जाते हैं.” एक मज़दूर एक दिन में एक बोरी मिर्चें इकट्ठी करता है. गंधिरासु कहते हैं कि जब पौधे घने हों, तो यह थोड़ा मुश्किल काम है.
मिर्च की खेती छह महीने की पैदावार है. इसके बीज अक्टूबर में छींटे जाते हैं और इसके दो बोगम (उपज) होते हैं. पहली बार यह ताई (तमिल महीना, जो जनवरी में शुरू होता है) में फलता है. दूसरी उपज चितिरई (मध्य अप्रैल) में होती है.
बाज़ार में अच्छी खासी मांग और कम आपूर्ति की वजह से पूरे साल इसकी क़ीमत चढ़ी रहती है. रामनाथपुरम और परमकुड़ी के किसान मार्च के शुरुआत में मिर्च को मिलने वाली क़ीमत से बहुत उत्साहित थे. पहली खेप में मिर्च 450 रुपए प्रति किलो के भाव से बिकी. लोगों का अनुमान था कि यह भाव 500 रुपए प्रति किलो की ऊंचाई को छू लेगा.
गंधिरासु इन संख्याओं को ‘सुनामी’ कहते हैं. वह यह मानकर चलते हैं कि अगर मुंडु मिर्च का लाभमुक्त मूल्य 120 रुपए प्रति किलो है, और एक एकड़ में 1,000 किलो मिर्च की खेती होती है तब भी किसान को 50,000 रुपयों का लाभ होगा. “दो साल पहले मिर्च केवल 90 या 100 रुपए प्रति किलो की दर से बिकी थी. आज मिर्च की दर पहले के मुक़ाबले काफ़ी बेहतर है. इसके बावजूद हम यह मानकर नहीं चल सकते हैं कि यह 350 रुपए प्रति किलो के भाव से बिकेगी. यह एक भ्रम है.”
वह कहते हैं कि मुंडु मिर्च इस ज़िले की एक प्रचलित पैदावार है. वह यह भी बताते हैं कि यह एक ‘भिन्न’ प्रजाति है. यह कुछ हद तक टमाटर की प्रतिकृति जैसी दिखती है. “रामनाद मुंडु को चेन्नई में सांभर चिली भी बोला जाता है, क्योंकि यह थोड़ी गूदेदार होती है, इसलिए इसको डालने से पुली कोडम्बू (इमली की खट्टी तरी) को गाढ़ा पकाया जा सकता है, जो बहुत स्वादिष्ट होता है.
भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी मुंडुक का ख़ासा बड़ा बाज़ार है. ऑनलाइन सर्च से यह बात स्पष्ट होती है. मई के मध्य तक अमेज़न पर मुंडु की क़ीमत 799 रुपए प्रति किलो थी. यह कीमत 20 प्रतिशत की छूट के बाद थी.
गंधिरासु यह मानते हैं, “हम नहीं जानते हैं कि इसके अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के लिए लॉबी कैसे की जाती है. विपणन एक समस्या है.” इसके अलावा एफ़पीओ के 1,000 से भी अधिक सदस्यों में सब के सब संगठन को अपनी उपज नहीं बेचते हैं. “हमारे पास इतने वित्तीय संसाधन हैं भी कि उनकी पूरी पैदावार ख़रीद सकें, और न ही हम उनका अच्छी तरह भंडारण करने में ही समर्थ हैं.”
बेहतर क़ीमत मिलने की आशा में एफ़पीओ द्वारा फ़सल का भंडारण इसलिए भी एक कठिन काम है, क्योंकि कई महीनों तक मिर्च को रखने के कारण उनके काले हो जाने की आशंका रहती है और उसके पाउडर में भी कीड़े लग सकते हैं. जब हम रामनाथपुरम शहर से 15 किलोमीटर दूर सरकार द्वारा संचालित शीतगृह के वातानुकूलित अहाते का जायज़ा लेने पहुंचे, तो हमने वहां पिछले साल उगाई गईं मिर्च की बोरियां को रखा देखा. हालांकि, प्रशासन ने व्यापारी और उत्पादकों को एक-दूसरे के आमने-सामने लाने की बहुत कोशिश की, लेकिन किसानों की उदासीनता के कारण यह संभव नहीं हो पाया. संभवतः किसान आशंकित थे कि सौदा नहीं हो पाने की स्थिति में, उनपर अपनी पैदावार को वहां तक ले जाने और वहां से लाने का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा, जिसे उठाने में न तो वे बहुत सक्षम थे और न उनको इसमें कोई विशेष रुचि ही थी.
अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुए एफ़पीओ किसानों को कीट-नियंत्रण के पारंपरिक तरीक़े आज़माने का परामर्श देती है. “इस इलाक़े में सामान्यतः मिर्च के खेत के चारों तरफ आमनक्कु (अरंडी) के पौधे उगाए जाते हैं, क्योंकि मिलागई पर हमला करने वाले किसी भी कीड़े को यह अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है. साथ ही, अरंडी के पौधे आकार में भी काफ़ी ऊंचे होते हैं और छोटे पक्षियों को अपनी तरफ़ आकर्षित करते हैं. ये पक्षी कीटों को बड़े चाव से खाते हैं. यह एक प्रकार का उयिरवेल्ली अर्थात जीवित बाड़े का काम करते हैं.”
वह अपनी मां को याद करते हैं जो खेत की की सीमाओं पर आमनक्कु और अगती (अगस्त्य के पेड़ के नाम से जानी जाने वाली पालक की एक परिचित प्रजाति) लगाया करती थी. वह कहते हैं, “जब वह मिर्चों की देखभाल करने जाती थीं, तब हमारी बकरियां भी उनके पीछे-पीछे दौड़ी चली जाती थीं. वह उन्हें एक तरफ बांध देती थीं और अगती और आमनुक्कु के पत्ते खाने के लिए देती थीं. इतने भर से बकरियां संतुष्ट हो जाती थीं. जैसे मिलागई हमारे लिए मुख्य फ़सल थी वैसे ही अगती का भी हमारे लिए अलग महत्व था.”
अतीत से सबक लेने के अलावा, गंधिरासु भविष्य की ओर देख रहे हैं और विज्ञान की ज़रूरत को समझते हैं. वह कहते हैं, "हमें रामनाथपुरम में एक मिर्च अनुसंधान केंद्र की आवश्यकता है, विशेष रूप से मुदुकुलतुर में. धान, केला, इलाइची, हल्दी - इन सभी फ़सलों के अनुसंधान केंद्र हैं. अगर आपके गांव-शहर में स्कूल और कॉलेज हैं, तभी आप अपने बच्चों को वहां पढ़ने भेजेंगे. अगर केंद्र होंगे, तभी आप की किसी समस्या का समाधान या उपचार हो सकता है. मिर्च के लिए भी कोई केंद्र स्थापित होने के बाद ही इसकी पैदावार में क्रांतिकारी प्रगति आना संभव है.”
फ़िलहाल एफ़पीओ मुंडु प्रजाति के लिए एक भौगोलिक संकेत चिह्न हासिल करने पर काम कर रही है. “मिर्च के इस विशेष गुण के बारे में दुनिया को बताना आवश्यक है. संभव हो तो इस पर एक पुस्तक भी लिखी जानी चाहिए.”
कृषि संबंधी सभी समस्याओं का पारंपरिक और सार्वभौमिक उपचार – मूल्य संवर्द्धन – मिर्च के मामले में सफल नहीं भी हो सकता है. ऐसा गंधिरासु का मानना है. “देखिए, हर किसान के पास 50-60 बोरी मिर्चें हैं. उन मिर्चों के साथ वे अकेले क्या कर सकते हैं? एफ़पीओ एकजुट होकर भी मसाला कंपनियों का मुक़ाबला नहीं कर सकता है और उनसे सस्ता मिर्च पाउडर नहीं बेच सकता है. उन कंपनियों का मार्केटिंग बजट भी करोड़ों में होता है.”
हालांकि, गंधिरासु आगाह करते हैं कि असल समस्या आने वाले दिनों में जलवायु में बदलाव से आ सकती है.
वह पूछते हैं, “उससे निबटने के लिए हम क्या कर रहे हैं? तीन दिन पहले तेज़ आंधी आने का ख़तरा उत्पन्न हो गया था. मैंने मार्च के महीने में यह कभी नहीं सुना था! अगर पानी की अधिकता हो जाएगी, तो मिर्च के पौधे मर जाएंगे. किसानों को इन चुनौतियों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालना होगा.”
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“औरतें अपनी ज़रूरत के हिसाब से कम या ज़्यादा क़र्ज़
लेती हैं. शिक्षा, शादी-ब्याह या प्रसव – इन कामों के लिए क़र्ज़ देने से हम कभी मना
नहीं करते हैं. खेती भी इनके बाद ही आती है.”
जे. अदैकलसेल्वी, मिर्च किसान और एसएचजी की मुखिया
पी. मुतुविजयापुरम, रामनाथपुरम
उन्होंने अपने पड़ोसी के खेत पर मुझे काम में लगाया है. “आप को डर लग रहा है न कि आप पौधों को उखाड़ न दें, यही बात है न!” उनके पड़ोसी ने बताया था कि उन्हें आदमियों की किल्लत है, और उन्हें कोई सहायता करने वाला आदमी चाहिए. बहरहाल मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया हूं और उन्होंने मुझे खीझते हुए शुक्रिया कह दिया. इस बीच अदैकलसेल्वी ने एक बाल्टी ले ली है और मिर्चों को तोड़ने के लिए तीसरे पौधे में हाथ लगा चुकी हैं. मैं अपने पहले पौधे के पास ही थक हारकर बैठ जाती हूं और एक बड़ी मिर्च को तोड़ने का उपक्रम करने लगती हूं. लेकिन जिस टहनी पर वह लटकी हुई है, वह मोटी और मज़बूत है. वह मेरे घर के में रखी अंजलपेट्टी (मसाला का बक्सा) की तरह मज़बूत नहीं है. मुझे चिंता होती है कि मिर्च को तोड़ने की कोशिश में मुझसे कहीं पौधे की टहनी न टूट जाए.
आसपास काम करती हुई औरतें इकट्ठा होकर तमाशा देखने लगी हैं. पड़ोस के खेत का मालिक अपना सर हिला रहा है, जबकि अदैकलसेल्वी अभी भी मेरा जोश बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. उनकी बाल्टी में मिर्च भरती जा रही है, जबकि मेरी मुट्ठी में बमुश्किल आठ-दस लाल मिर्चें ही हैं. पड़ोसी किसान कहता है, “आपको अदैकलसेल्वी को अपने साथ चेन्नई ले जाना चाहिए, वह खेत संभाल सकती है, और साथ ही वह एक दफ़्तर भी संभाल सकती है.” लेकिन मुझे काम देने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. यह स्पष्ट हो चुका है कि मैं उनकी नज़रों में खरी नहीं उतर पाई हूं.
अदैकलसेल्वी अपने घर में ही एक दफ़्तर भी चलाती हैं. इसे एफ़पीओ ने खोला है और इसमें एक कंप्यूटर और जेरोक्स मशीन है. उनका काम काग़ज़ातों की फ़ोटो प्रतियां निकालना और लोगों को ज़मीन के पट्टे से संबंधित जानकारियां उपलब्ध कराना है. “इसके बाद कोई दूसरा काम करने का समय मुझे बिल्कुल नहीं मिलता है, क्योंकि मुझे अपनी बकरियों और मुर्गियों की भी देखभाल करनी होती है.”
इसके अलावा, उनकी ज़िम्मेदारियों में एक मगलिर मंड्रम या महिलाओं के लिए एक स्वयं सहायता समूह का संचालन भी शामिल है. गांव की साठ औरतें इस समूह की सदस्य हैं, जो पांच छोटे-छोटे समूहों में बंटी हुई हैं. प्रत्येक छोटे समूह की दो तलैवी (मुखिया) होती हैं. अदैकलसेल्वी उन दस मुखिया में से एक हैं. अन्य गतिविधियों के अलावा मुखिया का काम पैसे जमा लेना और उन पैसों को बांटना है. “लोगबाग बाहर से ऊंचे ब्याज दरों - रेंदु वट्टी, अंजु वट्टी (24 से 60 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर) - पर क़र्ज़ लेते हैं. हमारा मगलिर मंड्रम, ओरु वट्टी - 1,000 रुपए प्रति एक लाख पर क़र्ज़ देता है.” यह क़रीब 12 प्रतिशत प्रति वर्ष पड़ता है. “लेकिन हम एकत्र किए गए पैसे किसी एक ही आदमी को ऋण के रूप में नहीं देते हैं. यहां हर आदमी एक छोटा किसान है, उन सबको अपनी-अपनी मुश्किलों से निपटने के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ती है. सच है न?”
औरतें अपनी ज़रूरतों के हिसाब से कम या ज़्यादा क़र्ज़ लेती हैं. वह बताती हैं कि उनकी मुख्यतः तीन ज़रूरतें होती हैं. “शिक्षा, शादी-ब्याह, और प्रसव - और इन कामों के लिए क़र्ज़ देने से हम कभी मना नहीं करते हैं. यहां तक की खेती भी उसके बाद की प्राथमिकता होती है.”
अदैकलसेल्वी को एक और बड़े बदलाव का श्रेय जाता है, जो क़र्ज़ की वसूली से संबंधित है. “पहले यह नियम था कि हरेक महीने आपको एक निर्धारित राशि लौटानी होती थी. मैंने ऋणधारकों से कहा: हम सभी किसान हैं. कई बार किसी महीने हमारे पास पैसे नहीं भी होते हैं. फ़सल बेचने के बाद हमारे पास कुछ पैसे ज़रूर आते हैं. इसलिए जब लोगों के पास पैसे हों, तब उन्हें भुगतान की सुविधा मिलनी चाहिए. इस ऋण-व्यवस्था से सबको राहत मिलनी चाहिए. है कि नहीं?” यह एक समावेशी बैंकिंग सिद्धांतों के लिए एक सबक की तरह है. यह एक ऐसी ऋण व्यवस्था है जो स्थानीय लोगों के लिए सबसे अधिक व्यवहारिक है.
गांव में मगलिर मंड्रम का अस्तित्व उनके विवाह से भी पहले कोई 30 साल से है. ये समूह गांव के लिए भी विभिन्न कार्यक्रम चलाते हैं. मार्च में हमारे दौरे के बाद वाले सप्ताहांत में उन लोगों ने महिला दिवस मनाने की योजना बनाई थी. वह मुस्कुराती हुई बताती हैं, हमने तय किया कि चर्च में ‘संडे मास’ के बाद हम लोगों के बीच केक बांटने का कार्यक्रम करेंगे.” वे लोग बारिश के लिए प्रार्थनाओं का भी आयोजन करते हैं, पोंगल का उत्सव मनाते हैं, और ज़रूरतमंदों की सेवा करते हैं.
चूंकि वह साहसी और स्पष्टवादी हैं, लिहाज़ा अदैकलसेल्वी नशाखोरी और पत्नी के साथ मारपीट करने के मामले में गांव के पुरुषों को भी समझाती-बुझाती और मशविरे देती हैं. बाइक चलाना जानने और दशकों से अपने खेतों की देखभाल करने के कारण वह दूसरी महिलाओं के लिए एक प्रेरणा हैं. “अब सभी युवा औरतें तेज़तर्रार हैं. वे बाइक चलाती हैं, और पढ़ी-लिखी हैं. लेकिन..” इतना कहकर वह अचानक ठिठक जाती हैं और पलटकर पूछती हैं, “उनके लिए काम कहां है?”
अब उनके पति वापस आ गए हैं, सो उन्हें खेती में थोड़ी मदद मिल जाती है. बचे हुए वक़्त में उनको दूसरे काम करने होते हैं. मसलन वह अब कपास की खेती पर भी थोड़ा ध्यान देती हैं. “पिछले दस सालों से मैं कपास के बीज इकट्ठे कर रही हूं. ये बीज 100 रुपए प्रति किलो की दर से बिक जाते हैं. बहुत से लोग मुझसे ही कपास के बीज ख़रीदते हैं, क्योंकि मेरे बीज बहुत अच्छी तरह से अंकुरित होते है. गत वर्ष मेरे विचार से मैंने कोई 150 किलो बीज बेचे थे.” वह एक प्लास्टिक का थैला खोलती हैं, और जैसे कोई जादूगर टोपी से खरगोश निकालता है वैसे ही उस थैले से तीन और छोटी थैलियां निकालती हैं और मुझे बीजों की अलग-अलग क़िस्में दिखलाती हैं. अपनी व्यस्तताओं और प्राथमिकताओं के बीच एक बीज संरक्षक का उनका यह रूप हमें विस्मित करता है.
मई के अंत तक उनकी मिर्च की पैदावार पूरी हो चुकी होती है, और हम फ़ोन पर अक्सर इस मौसम की पैदावार की चर्चा करते रहते हैं. वह मुझसे कहती हैं, “इस बार मिर्च की क़ीमत 300 रुपए प्रति किलो से लुढ़कती हुई 120 रुपए प्रति किलो तक आ पहुंची, हालांकि यह गिरावट धीरे-धीरे दर्ज की गई.” इस बार उन्हें एक हेक्टेयर की खेती से सिर्फ़ 200 किलोग्राम मिर्च ही मिल सकी. बिक्री के कमीशन के रूप में 8 प्रतिशत हिस्सा देना पड़ा, और प्रति 20 किलो पर 1 किलो मिर्च बोरियों के वज़न के रूप में वसूले गए, जबकि एक बोरी का वज़न सिर्फ़ 200 ग्राम ही था. इस तरह हर बोरी पर उन्हें 800 ग्राम का अकारण और बेतुका नुक़सान उठाना पड़ा. राहत की बात थी कि इस बार क़ीमतों में बहुत अधिक गिरावट दर्ज नहीं की गई, लेकिन उनके अनुसार बारिश ने पौधों का बुरा हाल कर दिया, और उपज भी इसी कारण कम हुई.
बहरहाल पैदावर भले ही कम हो जाए, किंतु किसान का श्रम कभी कम नहीं होता. ख़राब से ख़राब मिर्च की फ़सल को भी तोड़ने, सुखाने, और बोरियों में डालकर बेचने की आवश्यकता होती है. तब जाकर अदैकलसेल्वी और उनके साथ श्रम करने वाले किसान और खेतिहर मज़दूर की मेहनत के कारण ही सांभर की हर चम्मच में स्वाद घुलता है...
इस रपट की रिपोर्टर, रामनाद मुंडु चिली प्रोडक्शन कंपनी के के. शिवकुमार और बी. सुगन्या के सहयोग के लिए दोनों का हार्दिक आभार प्रकट करती हैं.
इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.
कवर फ़ोटो: एम पलानी कुमार
अनुवाद: प्रभात मिलिंद