साल था 1997.

सीनियर महिला राष्ट्रीय फ़ुटबॉल चैंपियनशिप के फ़ाइनल मैच में पश्चिम बंगाल और मणिपुर आमने-सामने थे. सालाना होने वाले इस अंतरराज्यीय टूर्नामेंट के आख़िरी तीन फ़ाइनल में बंगाल, मणिपुर से हार गया था. इसके बाद भी अब फिर से बंगाल के खिलाड़ी अपनी पीली और लाल रंग की जर्सी में शान से खड़ीं थीं. फ़ुटबॉलर बंदना पाल पश्चिम बंगाल के हल्दिया शहर के दुर्गाचक स्टेडियम में अपने घरेलू मैदान पर थीं.

सीटी बजते ही मैच शुरू हो गया.

इससे पहले इस 16 साल की स्ट्राइकर ने चैंपियनशिप के क्वार्टर फ़ाइनल मैच में हैट्रिक बनाई थी. उस मैच में बंगाल ने गोवा के ख़िलाफ़ जीत हासिल की थी, लेकिन पाल के बाएं टखने में चोट लग गई. पाल बताती हैं, ‘’मैं फिर भी (पंजाब के ख़िलाफ़) सेमीफ़ाइनल में खेल चुकी थी, लेकिन मुझे दर्द हो रहा था. उस दिन जब हम फ़ाइनल में पहुंचे, तो मैं खड़ी भी नहीं हो सकी’’

पश्चिम बंगाल की सबसे युवा खिलाड़ी पाल ने बेंच से चैंपियनशिप का फ़ाइनल देखा. कुछ ही मिनटों का मैच बचा था और किसी भी टीम ने गोल नहीं किया था. पश्चिम बंगाल की कोच शांति मलिक ख़ुश नहीं थी. क़रीब 12 हज़ार सीटों वाले स्टेडियम में दर्शकों की भीड़ में राज्य के मुख्यमंत्री और खेल मंत्री भी शामिल थे, जो उनका तनाव बढ़ा रहे थे. शांति मलिक ने पाल को तैयार होने के लिए कहा. पाल बताती हैं, मैंने शांति से कहा, ‘’मेरी हालत देखो’’, लेकिन कोच ने कहा, ‘’अगर तुम खेलोगी, तो गोल हो जाएगा. मेरा दिल कह रहा है.”

दर्द को कम करने के लिए तुरंत दो इंजेक्शन और चोट के चारों तरफ़ कसकर गर्म पट्टी बांधने के बाद पाल ने किट पहनी और इंतज़ार किया. मैच ड्रॉ हो गया और गोल्डन गोल के लिए अतिरिक्त समय मांगा गया. इसका मतलब था जो भी टीम पहले स्कोर करेगी वह चैंपियनशिप जीत जाएगी.

पाल बताते हैं, "मैंने क्रॉसबार पर निशाना साधा. गेंद दाईं तरफ मुड़ी. गोलकीपर ने छलांग लगाई, लेकिन गेंद उनके ऊपर से निकलकर सीधे नेट पर जा लगी.’’

PHOTO • Riya Behl
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बाएं: बंदना पाल के रूप में फ़ुटबॉल खेलते हुए बोनी पाल की पहली तस्वीरों में से एक, 2 दिसंबर 2012 को आनंदबाज़ार पत्रिका के स्पोर्ट्स सप्लीमेंट में प्रकाशित हुई थी. दाएं: साल 1998 की महिला राष्ट्रीय फ़ुटबॉल चैंपियनशिप में बंदना की भागीदारी की सराहना करता एआईएफ़एफ़ का प्रमाण-पत्र

यहां पाल किसी अनुभवी कहानीकार की सहजता लिए सांस लेते हैं और कहते हैं, ‘’मैंने अपने चोटिल पैर से गोल मारा था.” मुस्कुराते हुए यह फ़ुटबॉलर आगे कहता है, ‘’कीपर कितना भी लंबा क्यों न हो, क्रॉसबार शॉट्स को बचाना मुश्किल होता है. मैंने गोल्डन गोल किया.’’

मैच को क़रीब 25 साल बीत गए हैं, लेकिन 41 साल के पाल अब भी इसे गर्व के साथ दोहराते हैं. एक साल बाद पाल नेशनल टीम में थे, जो जल्द ही बैंकॉक में 1998 के एशियाई खेलों में खेलने के लिए जाने वाली थी.

यह सबकुछ, पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना ज़िले के इच्छापुर गांव के इस फ़ुटबॉलर के लिए सपने की तरह था. वह कहते हैं, ‘’मेरी दादी रेडियो पर (फ़ाइनल मैच की) कमेंट्री सुन रही थीं. मेरे परिवार में इससे पहले फ़ुटबॉल में कोई इस स्तर तक नहीं पहुंचा था. उन सभी को मुझ पर गर्व था.’’

जब पाल छोटे थे, तो सात लोगों का उनका परिवार गायघाटा ब्लॉक के इच्छापुर गांव में स्थित घर में रहता था. यहां उनके पास दो एकड़ ज़मीन थी. इस ज़मीन पर वे चावल, सरसों, हरी मटर, दाल, और गेहूं उगाते थे. अब इस ज़मीन के कुछ हिस्सों को बेचकर परिवार के बीच बांट दिया गया है.

पांच भाई-बहनों में सबसे छोटे पाल कहते हैं, ‘’मेरे पिता एक दर्ज़ी का काम करते थे और मेरी मां सिलाई और कढ़ाई में उनकी मदद करती थी. मेरी मां पगड़ी, राखी, तथा कई और चीज़ें भी बनाती थी. बचपन से हम अपनी ज़मीन पर काम कर रहे थे.’’ बच्चों को क़रीब 70 मुर्गियों और 15 बकरियों की देखभाल करनी होती थी. उनके लिए स्कूल जाने से पहले और लौटने के बाद घास काटनी पड़ती थी.

पाल ने इच्छापुर हाईस्कूल में कक्षा 10वीं की पढ़ाई पूरी की. पूर्व फ़ुटबॉलर बताते हैं, ‘’लड़कियों की फ़ुटबॉल की टीम नहीं थी, इसलिए स्कूल के बाद मैं लड़कों के साथ खेलता थी’’.  पोमेलो (एक तरह का सिट्रस फल) को हाथ में लिए कमरे से बाहर निकलते हुए पाल कहते हैं, ‘’हम इसे बटाबी या जंबूरा कहते हैं. हमारे पास फ़ुटबॉल ख़रीदने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए इस फल को हम पेड़ से तोड़ते थे और इससे खेलते थे; और इस तरह मैंने शुरुआत की.”

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बाएं: बोनी उस कमरे में बैठे हैं जिसमें वह और स्वाति अपने घर की पहली मंज़िल पर रहते हैं. दाएं: दो पोमेलो (बाएं), जिस फल से बोनी खेलते थे, क्योंकि उनके परिवार के पास फ़ुटबॉल ख़रीदने के लिए पैसे नहीं थे. तस्वीर में दाईं ओर उनके कोचिंग वाले जूते देखे जा सकते हैं

इसी तरह एक दिन इच्छापुर में बुचु दा (बड़ा भाई) के नाम से जाने जाने वाले सिद्धनाथ दास ने 12 साल के बच्चे को फ़ुटबॉल खेलते हुए देखा. बुचु दा ने पाल को बारासात शहर में होने वाले फ़ुटबॉल ट्रायल के बारे में बताया. इसके बाद पाल ने बारासात जुबक संघ क्लब टीम में जगह बनाई. उनके शानदार शुरुआती खेल को देखने के बाद कोलकाता के एक क्लब इतिका मेमोरियल ने पाल के साथ क़रार किया. इसके बाद पाल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

साल 1998 के एशियाई खेलों में खेलने के लिए पाल को राष्ट्रीय टीम के लिए चुना गया था. जल्दबाज़ी में फ़ुटबॉलर के लिए पासपोर्ट और वीज़ा का आवेदन किया गया. यह पूर्व फ़ुटबॉल खिलाड़ी याद करते हुए बताता है, ‘’हम हवाई अड्डे पर जाने के लिए तैयार थे, लेकिन उन्होंने मुझे वापस भेज दिया.’’

एशियाई खेलों की एक साथ तैयारी करते हुए मणिपुर, पंजाब, केरल और ओडिशा के खिलाड़ियों ने पाल के खेल को देखा था. उन्हें पाल के लिंग पर संदेह था और इस बात को उन्होंने अपने कोच के सामने रखा. जल्द ही मामला खेल की संचालन संस्था ऑल इंडिया फ़ुटबॉल फ़ेडरेशन (एआईएफ़एफ़) तक पहुंच गया.

पाल  बताते हैं, ‘’मुझे क्रोमोसोम टेस्ट के लिए कहा गया था. उस समय में इसे केवल बॉम्बे या बैंगलोर में ही करवा सकते थे.” कोलकाता में भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआईI) की डॉ. लैला दास ने पाल के ख़ून के नमूने मुंबई भेजे. पाल कहते हैं, “डेढ़ महीने बाद रिपोर्ट में कैरियोटाइप टेस्ट के नतीजे थे, जिसमें  '46 XY' क्रोमोसोम दिखाए गए थे. महिलाओं के लिए ये ‘46 XX’ होने चाहिए. डॉक्टर ने मुझसे कहा कि मैं (औपचारिक रूप से) खेल नहीं सकती.’’

उभरती हुई फ़ुटबॉल स्टार की उम्र महज़ 17 साल थी, लेकिन अब उनके खेल का भविष्य संदेह में था.

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आजकाल सिलीगुड़ी में 19 जुलाई 2012 को छपी बोनी की एक तस्वीर; सिलीगुड़ी अनुमंडल खेल परिषद के सचिव को अपना बायोडाटा सौंपते हुए

इंटरसेक्स इंसानों या इंटरसेक्स विविधताओं वाले व्यक्ति में ऐसी जन्मजात यौन विशेषताएं होती हैं जो महिलाओं या पुरुषों के शरीर के लिए चिकित्सा की दुनिया और समाज द्वारा तय मानदंडों के अनुरूप नहीं होती हैं. ये विविधताएं प्रजनन से जुड़े बाहरी या आंतरिक हिस्सों, क्रोमोसोम या हार्मोनल पैटर्न में हो सकती हैं. इनका पता जन्म के समय या जीवन में बाद में भी लग सकता है

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यह पूर्व फ़ुटबॉलर बताते हैं, ‘’मेरे पास एक गर्भाशय, एक अंडाशय, और भीतर में एक शिश्न (पीनिस) था. मेरे पास दोनों ‘पक्ष’ (रिप्रोडक्टिव पार्ट) थे.’’ रातोंरात फ़ुटबॉल समुदाय, मीडिया और पाल के परिवार ने एथलीट की पहचान पर सवाल उठा दिए थे.

पूर्व फ़ुटबॉलर बताते हैं, ‘’उस समय कोई भी जानता या समझता नहीं था. ये तो अब जाकर हुआ है कि लोग इस पर बोल रहे हैं और एलजीबीटीक्यू से जुड़े मुद्दों को उठाया जा रहा है

पाल एक इंटरसेक्स व्यक्ति हैं, जो एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय में 'आई' का प्रतिनिधित्व करते हैं और अब बोनी पाल के नाम से जाने जाते हैं. बोनी कहते हैं, ‘’मेरे जैसा शरीर न सिर्फ़ भारत, बल्कि दुनिया भर में मौजूद है. एथलीट, टेनिस खिलाड़ी, फ़ुटबालर; मेरे जैसे तमाम खिलाड़ी हैं जो एक आदमी के रूप में पहचान रखते हैं.” वह मेडिकल कम्युनिटी के सदस्यों समेत अलग-अलग श्रोताओं के सामने जेंडर की अपनी पहचान, जेंडर अभिव्यक्ति, सेक्सुअलिटी, और सेक्सुअल रुझान के बारे में बात रखते हैं.

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बाएं: टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सिटी सप्लीमेंट में प्रकाशित बोनी पर केंद्रित एक लेख. दाएं: बोनी पाल का आधार कार्ड; जिसमें उनका जेंडर पुरुष के तौर पर दर्ज है

इंटरसेक्स व्यक्तियों या इंटरसेक्स विविधताओं वाले व्यक्तियों में जन्मजात यौन विशेषताएं होती हैं, जो महिला या पुरुष के लिए मेडिकल की दुनिया के और सामाजिक मानदंडों को पूरा नहीं करती. ये भिन्नता बाहरी या अंदरूनी प्रजनन के हिस्सों में, क्रोमोसोम या हार्मोनल पैटर्न में हो सकती है. इनका पता जन्म के समय या जीवन में बाद में भी लग सकता है. इंटरसेक्स विविधताओं वाले व्यक्तियों के लिए मेडिकल प्रैक्टिशनर डीएसडी शब्द - (डिफरेंसज़/डिसऑर्डर ऑफ़ सेक्स डेवलपमेंट) - का इस्तेमाल करते हैं.

दिल्ली के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में फ़िजियोलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉ सतेंद्र सिंह कहते हैं, “इंटरसेक्स लोगों के स्वास्थ्य के बारे में अज्ञानता और भ्रम के कारण मेडिकल कम्युनिटी में कई लोग डीएसडी को अक्सर ग़लत तरीक़े से ‘डिसऑर्डर ऑफ़ सेक्स डेवलपमेंट’ की तरह परिभाषित करते हैं. वह कहते हैं, ‘’इंटरसेक्स लोगों की संख्या के बारे में साफ़ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.’’

साल 2014 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से संबंधित मुद्दों पर एक रिपोर्ट आई थी. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हर 2 हज़ार बच्चों में कम से कम एक बच्चा ऐसी यौन दैहिक गठन के साथ पैदा होता है, जिसे महिला या पुरुष की श्रेणी में रखना किसी विशेषज्ञ के लिए भी बहुत मुश्किल होता है. इन बच्चों में महिला और पुरुष की विशेषताएं इस तरह से मिली होती हैं जिसकी वजह से इन्हें किसी वर्ग में रखना मुश्किल बनाता है.

डॉ सतेंद्र सिंह मानवाधिकार कार्यकर्ता और डिसेबिलिटी राइट्स डिफ़ेंडर (अक्षमता के शिकार लोगों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले) भी हैं. वह कहते हैं, ‘’इस तथ्य के बावजूद पाठ्यपुस्तकें (भारत के चिकित्सा पाठ्यक्रम में) अभी भी 'हेर्मैफ़्रोडाइट', 'अस्पष्ट जननांग', और 'विकार' जैसे अपमानजनक शब्दों का उल्लेख करती हैं.’’

महिला टीम से निकाले जाने के बाद, बोनी ने कोलकाता के भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई) द्वारा स्वीकृत शारीरिक परीक्षा दी. इस परीक्षा के बाद उन्हें किसी भी महिला फ़ुटबॉल टीम में खेलने के अनुमति नहीं दी गई. बोनी कहते हैं, ‘’जब फ़ुटबॉल छूट गया, तो मुझे लगा कि जैसे मेरी ज़िंदगी ख़त्म हो गई. मेरे साथ अन्याय किया गया.’’

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बाएं: बोनी, बटाबी या जंबूरा (पोमेलो) फल पकड़े हुए. जब उन्होंने खेलना शुरू किया था, तो मोटे छिलके वाला यह फल फ़ुटबॉल का अच्छा विकल्प हुआ करता था. दाएं: वह उस आलमारी के सामने बैठे हैं, जिसमें उनकी ट्राफियां और प्रमाण-पत्र रखे हैं

उनका कहना है कि साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले ने उन्हें उम्मीद दी थी. जो कहता है, “किसी की लैंगिक पहचान, गरिमा के साथ जीने के मौलिक अधिकार के केंद्र में होती है. जेंडर किसी व्यक्ति के होने की भावना के मूल के साथ-साथ, किसी व्यक्ति की पहचान का एक अभिन्न हिस्सा है. इसलिए, लैंगिक पहचान की क़ानूनी मान्यता हमारे संविधान के तहत गरिमा और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है". ट्रांसजेंडर के रूप में पहचान करने वाले व्यक्तियों की क़ानूनी मान्यता के लिए राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण और पूज्य माता नसीब कौर जी महिला कल्याण सोसायटी द्वारा दायर याचिकाओं के जवाब में ये फ़ैसला दिया गया. इस ऐतिहासिक फ़ैसले ने लैंगिक पहचान पर विस्तार से चर्चा की. ये फ़ैसला अपने-आप में पहला क़दम था, जिसने नॉन-बाइनरी लैंगिक पहचान को क़ानूनी रूप से पहचानने और भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित किया.

इस फ़ैसले ने बोनी की स्थिति को मान्यता देने का काम किया. वह कहते हैं, ‘’मुझे लगता था कि मैं महिला टीम में जगह रखता हूं. लेकिन जब मैंने एआईएफ़एफ़ से पूछा कि मैं क्यों नहीं खेल सकता, तो उन्होंने कहा कि ये आपके शरीर और क्रोमोसोम की वजह से है.’’

इंटरसेक्स विविधताओं वाले खिलाड़ियों के लिए सेक्स और लिंग परीक्षण नीतियों की प्रक्रिया के बारे में जानकारी मांगने के लिए कोलकाता के साई नेताजी सुभाष ईस्टर्न सेंटर और अखिल भारतीय फ़ुटबॉल महासंघ को कई बार मैसेज भेजे गए, लेकिन उनकी तरफ़ से रिपोर्टर को कोई जवाब नहीं दिया गया.

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अप्रैल 2019 में बदलाव लाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ बोनी इंटरसेक्स ह्यूमन राइट्स इंडिया (आईएचआरई) के संस्थापक सदस्य बन गए, जो इंटरसेक्स व्यक्तियों और उनके समर्थकों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है. ये समुदाय इंटरसेक्स व्यक्तियों के अधिकारों को बढ़ावा देता है, काउंसलिंग के कार्यक्रम आयोजित करता है, और उनकी चुनौतियों और ज़रूरतों को सामने लाता है.

बोनी इस नेटवर्क में इंटरसेक्स विविधताओं वाले अकेले व्यक्ति हैं, जो सक्रिय रूप से बच्चों के साथ काम करते हैं. आईएचआरई की समर्थक और सदस्य पुष्पा अचंता कहती हैं, "पश्चिम बंगाल में सरकारी स्वास्थ्य एवं चाइल्डकेयर संस्थानों के माध्यम से बोनी के सही समय पर किए हस्तक्षेप ने कई युवाओं को उनके शरीर और यौन व लैंगिक पहचान को समझने और स्वीकार करने में मदद की है, और उनके अभिभावकों को आवश्यक और संभावित सहायता प्रदान करने में मदद की है.”

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बाएं: स्वाति (बाएं) बोनी को कोच के रूप में उनके अनुकरणीय कार्य के लिए साल 2021 में पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग से मिले पुरस्कार का उद्धरण पढ़ते हुए देख रही हैं. दाएं: एबेला में 9 अक्टूबर, 2017 को प्रकाशित एक लेख; जिसमें साल्ट लेक में किशालय टीम के एक फ़ुटबॉल मैच जीतने पर बोनी की कोचिंग की प्रशंसा की गई थी

एक एथलीट अधिकार कार्यकर्ता डॉ. पायोशनी मित्रा कहती हैं, ‘’युवा एथलीटों में उनकी शारीरिक स्वायत्तता को लेकर जागरूकता में बढ़ोतरी हुई है. बोनी के समय में ऐसा नहीं था’’. स्विट्ज़रलैंड के लुसाने में ग्लोबल ऑब्जर्वेटरी फ़ॉर विमेन, स्पोर्ट, फ़िजिकल एजुकेशन एंड फ़िजिकल एक्टिविटी में सीईओ के रूप में, डॉ मित्रा ने एशिया और अफ़्रीका में महिला एथलीटों के साथ मिलकर काम किया है, ताकि वे खेल में मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात कर सकें.

बोनी याद करते हुए कहते हैं, “जब मैं (हवाई अड्डे से) वापस आया, तो स्थानीय अख़बारों ने मुझे प्रताड़ित किया. ‘महिला टीम में एक पुरुष खेल रहा है,’ इस तरह की सुर्ख़ियां अख़बारों में थीं.” बोनी, इच्छापुर लौटने के दुखद अनुभव को विस्तार से बताते हैं, ‘’मेरे माता-पिता, भाई और बहन सब डर गए थे. मेरी दो बहनों और उनके ससुरालवालों ने अपमानित महसूस किया. मैं सुबह घर वापस आ गया, लेकिन शाम तक वहां से भागना पड़ा.’’

क़रीब दो हज़ार रुपए के साथ बोनी भाग गए. उन्हें याद है कि जिस दिन वह घर से निकले थे उस दिन उन्होंने जींस पहना था और छोटे बाल रखे हुए थे. वह एक ऐसी जगह जाना चाहते थे जहां कोई उन्हें न जानता हो.

पाल समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले बोनी कहते हैं, ''मैं मूर्तियां बनाना जानता हूं, इसलिए मैं इस काम को करने के लिए कृष्णनगर भाग आया. हम मूर्तिकार हैं.’’ इच्छापुर गांव में बोनी के अंकल मूर्ति बनाते थे जहां वह बड़े हुए. मूर्ति के काम में अंकल की मदद करने के अनुभव ने, बोनी को मिट्टी की मूर्तियों और गुड़ियों के लिए प्रसिद्ध कृष्णनगर शहर में नौकरी दिलाने में मदद की. उनके काम को जांचने के लिए उन्हें चावल और जूट की रस्सियों के सूखे डंठल से एक मूर्ति बनाने के लिए कहा गया. बोनी को 200 रुपए प्रतिदिन की नौकरी मिल गई और ऐसे उन्होंने छिपकर जीवन जीना शुरू कर दिया.

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बाएं: इच्छापुर में उस जगह पर बोनी खड़े हैं जहां मूर्तियां बनाई जाती हैं. यहीं वह बड़े हुए और उन्होंने इस काम में मदद करते-करते इस कला को आत्मसात कर लिया. दाएं: भूसे और जूट से बनी एक मूर्ति की संरचना. बोनी को कुछ ऐसा ही बनाने को कहा गया था, जब कृष्णनगर में नौकरी देने से पहले उनका टेस्ट लिया गया था

इच्छापुर में बोनी के माता-पिता, अधीर और निवा अपनी सबसे बड़ी बेटी शंकरी और बेटे भोला के साथ रह रहे थे. बोनी को अकेले रहते हुए तीन साल हो गए थे. बोनी याद करते हुए बताते हैं कि वह एक सर्द सुबह थी, जब उन्होंने घर जाने का फ़ैसला किया: ‘’उन्होंने (स्थानीय लोगों ने) शाम को मुझ पर हमला किया. मैं तेज़ी से भागने में कामयाब रहा, लेकिन मुझे जाते देख मेरी मां रो रही थी.’’

ये न तो पहली बार था और न आख़िरी बार, जब उन्हें शारीरिक रूप से अपना बचाव करना पड़ा था, लेकिन उस दिन उन्होंने ख़ुद से एक वादा किया. वह बताते हैं, “मैं सभी को दिखाने जा रहा था कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हो सकता हूं. मैंने तय किया कि मेरे शरीर में जो भी समस्याएं हैं, मैं उन्हें ठीक कर दूंगा.’’ बोनी ने सर्जरी की मदद लेने का फ़ैसला किया.

उन्होंने ऐसे डॉक्टरों की तलाश की जो उनके जननांगों का ऑपरेशन कर सकें और आख़िरकार कोलकाता के साल्ट लेक में एक डॉक्टर मिला, जहां पहुंचने में ट्रेन से चार घंटे लगते थे. बोनी बताते हैं, ‘’हर शनिवार डॉ. बी.एन. चक्रवर्ती क़रीब 10 से 15 डॉक्टरों के साथ बैठते थे. उन सभी ने मेरी जांच की.’’ उन्होंने कई महीनों में कई बार परीक्षण किए. बोनी कहते हैं, ‘’मेरे डॉक्टर ने बांग्लादेश के लोगों पर इसी तरह के तीन ऑपरेशन किए थे और वे सफल रहे थे.’’ लेकिन उनका कहना था कि सबके शरीर अलग होते हैं और इस प्रकिया के साथ आगे बढ़ने से पहले उन्हें अपने डॉक्टर के साथ कई बार बातचीत करनी पड़ी.

सर्जरी में लगभग 2 लाख रुपए का ख़र्च आना था, लेकिन बोनी ठान चुके थे. साल 2003 में, बोनी ने हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी (एचआरटी) शुरू की और हर महीने टेस्टोस्टेरोन बढ़ाने के लिए 250 मिलीग्राम टेस्टोविरोन नाम के इंजेक्शन ख़रीदने के लिए 100 रुपए ख़र्च किए. दवाओं, डॉक्टरों की फ़ीस और सर्जरी के लिए पैसा जमा करने के लिए, बोनी ने कोलकाता और उसके आसपास पेंटिंग के काम जैसी दिहाड़ी मज़दूरी की तरफ़ रुख़ किया. ये काम कृष्णानगर में उनके मूर्ति बनाने के काम से अलग था.

बोनी कहते हैं, “सूरत की एक फ़ैक्ट्री में मूर्तियां बना रहे एक व्यक्ति को मैं जानता था, इसलिए मैं उसके साथ वहां चला गया.” उन्होंने वहां हफ़्ते में छह दिन काम किया और गणेश चतुर्थी, जन्माष्टमी, और दूसरे त्योहारों के लिए मूर्तियां बनाकर हर रोज़ 1 हज़ार रुपए कमाए.

वह दुर्गा पूजा और जगद्धात्री पूजा के लिए हर साल कृष्णनगर लौटते थे, जो आमतौर पर अक्टूबर-नवंबर में मनाया जाता था. ये सिलसिला 2006 तक ऐसे ही चलता रहा, जब बोनी ने कृष्णनगर में कॉन्ट्रेक्ट पर मूर्तियों का ऑर्डर लेना शुरू किया. वह बताते हैं, ‘’सूरत में मैंने सीखा कि 150-200 फ़ीट लंबी मूर्तियां कैसे बनाई जाती हैं और इस तरह की मूर्तियां यहां डिमांड में थी. मैं एक वर्कर को काम पर रखता था और हमने अगस्त और नवंबर के बीच त्योहार के मौसम में ख़ूब पैसा कमाया.’’

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बाएं: बोनी और स्वाति. दाएं : इच्छापुर गांव में स्थित पारिवारिक घर में अपनी मां निवा के साथ

इसी समय के आसपास, बोनी को कृष्णनगर की मूर्ति बनाने वाली स्वाति सरकार से प्यार हो गया.

स्वाति ने स्कूल छोड़ दिया था, और जीविका चलाने के लिए मां और चार बहनों के साथ मूर्तियां सजाने का काम करती थीं. बोनी के लिए ये एक मुश्किल समय था. बोनी याद करते हैं, ‘’मुझे उसको अपने बारे में बताने की ज़रूरत थी. मेरे पास डॉक्टर का विश्वास था (मेरी सर्जरी की सफलता के बारे में), इसलिए मैंने उसे बताने का फ़ैसला किया.’’

स्वाति और उनकी मां दुर्गा ने उनका साथ दिया, और स्वाति ने साल 2006 में बोनी की सर्जरी के लिए सहमति फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर भी किए. तीन साल बाद, 29 जुलाई, 2009 को बोनी और स्वाति की शादी हुई.

स्वाति को उस रात की याद है, जब उनकी मां ने बोनी से कहा था, “मेरी बेटी ने तुम्हारे शरीर की समस्या को समझ लिया है. उसने तब भी तुमसे शादी करने का फ़ैसला किया है, तो मैं क्या कह सकती हूं? तुमी शात दीबा, तुमी थाकबा (तुम उसका साथ दोगे, उसके साथ रहोगे).”

***

बोनी और स्वाति का विवाहित जीवन विस्थापित होने के साथ शुरू हुआ. कृष्णनगर में लोग गंदी बातें करने लगे, इसलिए दोनों ने 500 किलोमीटर उत्तर की ओर दार्जिलिंग ज़िले के माटीगाड़ा में जाने का फ़ैसला किया, जहां कोई उन्हें पहचानता नहीं था. बोनी ने पास में ही मूर्ति बनाने वाली फ़ैक्ट्री में काम खोजा. बोनी बताते हैं, “उन्होंने मेरा काम देखा और मुझे 600 रुपए की दैनिक मज़दूरी की पेशकश की. मैंने हां कर दी. माटीगाड़ा के लोगों ने मुझे बहुत प्यार दिया.” वह याद करते हुए बताते हैं कि कैसे उनके साथ काम करने वाले आदमियों ने उन्हें अपना ही समझा. वे शाम को चाय की दुकानों पर साथ-साथ घूमते थे.

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बाएं: गांव में एक चाय की दुकान पर बैठे बोनी. दाएं: लकड़ी के व्यापारी पुष्पनाथ देवनाथ (बाएं), और नारियल पानी बेचने वाले गोरांग मिश्रा (दाएं) के साथ बैठे हुए

लेकिन दोनों इच्छापुर नहीं लौट सके, क्योंकि बोनी का परिवार उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था. जब बोनी के पिता का निधन हो गया, तो उन्हें अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने दिया गया. बोनी बताते हैं, "सिर्फ़ खिलाड़ी ही नहीं, मेरे जैसे और भी कई लोग हैं जो समाज के डर से अपना घर नहीं छोड़ते हैं."

दोनों ने महसूस किया कि उनके संघर्षों को तब पहचाना गया, जब बोनी के जीवन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री, ‘आई एम बोनी’ ने साल 2016 में कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार जीता. इसके तुरंत बाद, बोनी को किशालय चिल्ड्रन होम में फ़ुटबॉल कोच की नौकरी की पेशकश की गई. किशालय होम बच्चों की देखभाल करने वाला एक एक सरकारी संस्थान है, जो बारासात शहर में है और पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग (डब्ल्यूबीसीपीसीआर) द्वारा संचालित है. डब्ल्यूबीसीपीसीआर की चेयरपर्सन अनन्या चक्रवर्ती चटर्जी कहती हैं, "हमें लगा कि वह बच्चों के लिए प्रेरणा साबित हो सकते हैं. जब हमने बोनी को कोच के रूप में नियुक्त किया, तो हम जानते थे कि वह एक बहुत अच्छे फ़ुटबॉलर हैं, जिसने राज्य के लिए कई पुरस्कार जीते हैं. लेकिन उस समय उनके पास कोई काम नहीं था. इसलिए हमने महसूस किया कि ख़ुद को यह याद दिलाना महत्वपूर्ण है कि वह कितने अच्छे खिलाड़ी थे."

बोनी अप्रैल 2017 से वहां कोचिंग कर रहे हैं और वह पेंटिंग और मूर्तिकला भी सिखाते हैं. वह अपनी पहचान के बारे में बच्चों से खुलकर बात करते हैं और कई लोगों के विश्वासपात्र हैं. फिर भी उन्हें अपने भविष्य की चिंता रहती है. वह बताते हैं, “मेरे पास कोई स्थायी नौकरी नहीं है. मुझे केवल उन दिनों के लिए भुगतान किया जाता है, जब मुझे काम पर बुलाया जाता है.’’ वह आमतौर पर क़रीब 14 हज़ार रुपए महीना कमाते हैं, लेकिन 2020 में कोविड-19 महामारी के बाद उनके पास चार महीने तक कोई आय नहीं थी.

फ़रवरी 2020 में, बोनी ने इच्छापुर में अपनी मां के घर से कुछ ही क़दम की दूरी पर एक घर बनाने के लिए पांच साल का क़र्ज़ लिया, जहां अब वह स्वाति और अपने भाई, मां, और बहन के साथ रहते हैं. ये वह घर है, जिससे बोनी को जीवन भर भागना पड़ा. एक फ़ुटबॉलर के रूप में बोनी की कमाई इस घर को बनाने में ख़र्च की गई, जहां वह और स्वाति अब एक छोटे से बेडरूम में रहते हैं. परिवार पूरी तरह से अब भी उन्हें स्वीकार नहीं करता है. वे कमरे के बाहर एक छोटी सी जगह में गैस-स्टोव पर अपना खाना पकाते हैं.

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बाएं: स्वाति और बोनी इच्छापुर में अपने निर्माणाधीन घर के बाहर खड़े हैं. दाएं: इस जोड़े को उम्मीद है कि पूरा घर बन जाने के बाद, उनके छोटे से बेडरूम में पड़ी ट्राफियों की आलमारी को एक स्थायी ठिकाना मिल जाएगा

बोनी को 3 लाख 45 हज़ार का छोटा होम लोन उस पैसे से चुकाने की उम्मीद थी जो उनके अपने जीवन पर बनी एक फ़िल्म के अधिकार बेचकर मिलने वाले थे. लेकिन मुंबई के फ़िल्मनिर्माता फ़िल्म को बेच नहीं पाए और इसलिए बोनी का क़र्ज़ अभी बकाया है.

प्रमाण-पत्रों और चमचमाती ट्राफियों से भरी आलमारी के सामने बैठे बोनी एक इंटरसेक्स व्यक्ति के रूप में अपने जीवन के बारे में बात करते हैं. अनिश्चितताओं से भरे जीवन के बावजूद, उन्होंने और स्वाति ने समाचार पत्रों की कतरनों, तस्वीरों, और यादगार वस्तुओं को एक लाल सूटकेस में बहुत सावधानी से रखा हुआ है, जिसे इस आलमारी के ऊपर रखा गया है. उन्हें उम्मीद है कि दो साल पहले उन्होंने जिस घर को बनाने का काम शुरू किया था उसमें इस आलमारी के लिए एक स्थाई जगह होगी.

बोनी कहते हैं, "कभी-कभी, मैं अब भी अपने गांव में 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) पर क्लबों के साथ दोस्ताना मैच खेलता हूं, लेकिन मुझे फिर कभी भारत के लिए खेलने का मौक़ा नहीं मिला"

अनुवाद: शोभा शमी

Riya Behl

ریا بہل، پیپلز آرکائیو آف رورل انڈیا (پاری) کی سینئر اسسٹنٹ ایڈیٹر ہیں۔ ملٹی میڈیا جرنلسٹ کا رول نبھاتے ہوئے، وہ صنف اور تعلیم کے موضوع پر لکھتی ہیں۔ ساتھ ہی، وہ پاری کی اسٹوریز کو اسکولی نصاب کا حصہ بنانے کے لیے، پاری کے لیے لکھنے والے طلباء اور اساتذہ کے ساتھ کام کرتی ہیں۔

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Translator : Shobha Shami

Shobha Shami is a media professional based in Delhi. She has been working with national and international digital newsrooms for over a decade now. She writes on gender, mental health, cinema and other issues on various digital media platforms.

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