बेस कैंप में नए सिरे से आशा और उत्सुकता दिखाई दे रही थी, जहां हरे रंग की वर्दियों में पुरुष और महिलाएं अपने सेलफ़ोन पर संदेशों, नक्शों और तस्वीरों की लगातार निगरानी कर रहे थे.
उस दिन सुबह-सवेरे, एक खोजी टीम ने पास के जंगल के एक हिस्से में पैरों के ताज़ा निशान देखे थे.
वन विभाग के एक सूत्र ने बताया कि एक अन्य टीम, कपास के खेतों और जल निकायों से घिरे झाड़ीदार जंगल के 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगाए गए 90 कैमरों में से एक से, बाघ की कुछ धुंधली तस्वीरों के साथ लौटी है. तनाव से भरी आवाज़ में हरी वर्दी पहने एक युवा वन रक्षक ने कहा, “धारियां मादा बाघ जैसी दिख रही हैं.” उसके वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “तस्वीर साफ़ नहीं है. हमें और स्पष्टता चाहिए.”
क्या यह वही हो सकती है? क्या वह आसपास ही है?
वन रक्षकों, खोजकर्ताओं और तेज़तर्रार निशानेबाज़ों की टीमें एक और कठिन दिन के लिए उस बाघिन की खोज में अलग-अलग दिशाओं में फैलने वाली थीं जो अपने दो शावकों के साथ थी और लगभग दो साल से पकड़ में नहीं आ रही थी.
बाघ के हमले में कम से कम 13 ग्रामीणों की मौत हुई थी - और वह इन सभी मामलों में संदिग्ध थी.
वन्यजीव निरीक्षक का आदेश कि बाघिन को ‘पकड़ो या मार दो’, मिलने के बाद दो महीने से बड़ा ऑपरेशन चल रहा था. लेकिन दोनों में से किसी भी विकल्प को पूरा करना आसान नहीं था. बीते 28 अगस्त 2018 से, उसने अपना कोई सुराग नहीं दिया था. कैमरे की एक छोटी सी बीप या पैरों के निशान, उसे ढूंढने या पकड़ने की कोशिश में लगी टीमों के बीच उम्मीद जगा देते.
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यह अक्टूबर के मध्य में रविवार की एक सुबह का वक़्त है, और सर्दियों की ठंड शुरू होनी बाक़ी है. हम जंगल के एक अलग-थलग हिस्से में हैं, जहां अधिकारियों ने एक अस्थायी टेंट लगाया है, जिसे वे पश्चिमी विदर्भ के यवतमाल ज़िले में स्थित लोणी और सराटी गांवों के बीच इस ऑपरेशन का बेस कैंप कह रहे हैं. यह क्षेत्र, कपास के किसानों की लगातार आत्महत्याओं के कारण जाना जाता है.
यह रालेगांव तहसील है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 43 के उत्तर में है और वडकी और उमरी गांवों के बीच स्थित है. यहां मुख्य रूप से गोंड आदिवासी रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर छोटे और ग़रीब किसान हैं, जो कपास और मसूर की खेती करते हैं.
बाघ का पता लगाने वाली टीम में 200 वन्य कर्मचारी हैं - गार्ड, महाराष्ट्र वन विभाग के वन्यजीव विभाग के रेंज फ़ॉरेस्ट अधिकारी, राज्य का वन विकास निगम, ज़िल के वन अधिकारी, मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) और वन्यजीव विभाग के सबसे शीर्ष अधिकारी, प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ़, वन्यजीव) शामिल हैं. ये सभी मिलकर काम कर रहे हैं, चौबीसों घंटे मैदान में तैनात हैं, इस जंगली बिल्ली और उसके दो शावकों को ढूंढ रहे हैं.
इसके अलावा, समूह में हैदराबाद के तेज़तर्रार निशानेबाज़ों का एक विशेष दल शामिल है, जिसका नेतृत्व नवाब शफ़ात अली ख़ान कर रहे हैं, जो एक अभिजात परिवार के 60 वर्षीय प्रशिक्षित शिकारी हैं. नवाब की उपस्थिति ने अधिकारियों और स्थानीय संरक्षणकर्ताओं को बांट दिया है, जो उनकी भूमिका से बहुत ज़्यादा ख़ुश नहीं हैं. लेकिन वह आवारा जंगली जानवर को शांत करने [नशे वाला इंजेक्शन देकर पकड़ने] या मारने के लिए, भारत भर के वन्यजीव अधिकारियों के लिए एक महत्तवपूर्ण व्यक्ति हैं.
उनकी टीम के सदस्य सैय्यद मोइनुद्दीन ख़ान कहते हैं, “उन्होंने ऐसा कई बार किया है.” कुछ समय पहले, उन्होंने एक बाघिन को शांत करके पकड़ा था, जिसने भारत के 50 नामित बाघ अभ्यारण्यों में से एक, ताडोबा राष्ट्रीय उद्यान के निकट दो लोगों को मार डाला था.
उन्होंने बिहार और झारखंड में छह महीने में 15 लोगों को मौत के घाट उतारने वाले एक “दुष्ट” हाथी को पकड़ा था, और एक तेंदुए को गोली मारी थी जिसने पश्चिमी महाराष्ट्र में सात लोगों की हत्या कर दी थी.
हालांकि, चश्मा पहने हुए और डार्ट्स फ़ायर करने वाली हरे रंग की राइफल को घुमाते हुए मृदुभाषी निशानेबाज़ नवाब कहते हैं कि यह केस अलग है.
रविवार की सुबह अपने बेटे और वर्दीधारी सहायकों की एक टीम के साथ बेस कैंप पहुंचे शफ़ात अली कहते हैं, “बाघिन अपने शावकों के साथ है. हमें पहले उसे शांत करना होगा और फिर उसके दोनों शावकों को भी पकड़ना होगा.”
इस ऑपरेशन में अपने पिता की मदद कर रहे असगर कहते हैं, “कहना आसान होता है, करना मुश्किल.” बाघिन को स्पष्ट देख पाना बहुत मुश्किल है, जिससे यह काम लंबा खिंच रहा है.
स्पेशल टाइगर फ़ोर्स का एक व्यक्ति बताता है कि वह तेज़ी से अपना स्थान बदल रही है और कहीं भी आठ घंटे से ज़्यादा नहीं रुकती. उसे यहां से लगभग 250 किलोमीटर दूर स्थित नागपुर के पेंच टाइगर रिज़र्व से इस ऑपरेशन के लिए एक महीना पहले बुलाया गया था.
ऐसा लग रहा है कि टीम के कुछ लोग निराश होने लगे हैं. धैर्य ही सफलता की कुंजी है, लेकिन वे इसे खोते जा रहे हैं.
टी-1 - जिसे स्थानीय लोग अवनी कहते हैं - के बारे में बताया जाता है कि उसने रालेगांव में दो वर्षों में 13 से 15 ग्रामीणों को मारा है. वह यहां, तहसील की हरी झाड़ियों और घने जंगलों में कहीं छिपी हुई है.
उसने दो साल में, 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के लगभग एक दर्जन गांवों में भय और चिंता फैलाई है. ग्रामीण डरे हुए हैं, और फ़सल की कटाई का मौसम होने के बावजूद कपास के अपने खेतों में जाने से हिचकते हैं. कलाबाई शेंडे कहती हैं, “मैंने एक साल से अपने खेत नहीं देखे हैं.” उनके पति लोणी गांव में टी-1 के शिकार हुए पीड़ितों में से एक थे.
टी-1 किसी पर भी हमला कर सकती है - हालांकि, उसने 28 अगस्त को बेस कैंप के उत्तर में स्थित पिंपलशेंडा गांव में अपने अंतिम शिकार के बाद से किसी इंसान पर हमला नहीं किया है. जिन लोगों ने उसे देखा है उनका कहना है कि वह आक्रामक है और उसके स्वभाव के बारे में अनुमान लगाना संभव नहीं है.
वन अधिकारी हताश हैं; अगर एक और इंसान पर हमला हुआ, तो स्थानीय लोगों का ग़ुस्सा उबल पड़ेगा. दूसरी ओर, बाघ प्रेमी और संरक्षणकर्ता, टी-1 को मारने के आदेश के ख़िलाफ़ अदालत में केस कर रहे हैं.
मुख्य वन संरक्षक प्रमुख (वन्यजीव), ए.के. मिश्रा, जो इस ऑपरेशन के लिए अपने सहायक अधिकारी के साथ पास के पांढरकवड में डेरा डाले हुए हैं. वह चार महीने में सेवानिवृत होने वाले हैं. उनके एक युवा अधिकारी बताते हैं, “सर को यहीं से रिटायर होना पड़ सकता है.”
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वन्यजीव कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह समस्या टी-1 से शुरू नहीं हुई थी और न ही यह उसकी समाप्ति पर ख़त्म होगी. स्थिति वास्तव में बिगड़ने वाली है - और भारत के पास इसका कोई इलाज नहीं है.
नागपुर स्थित वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ़ इंडिया (डब्ल्यूपीएसआई) के केंद्रीय निदेशक, डॉ. नितिन देसाई कहते हैं, “साथ मिलकर बैठने और हमारी सुरक्षा रणनीति को फिर से तैयार करने का यही सही समय है. हमें बाघ की उस आबादी से निपटना होगा जिसने जंगल के किसी निकटवर्ती इलाक़े को नहीं देखा है या नहीं देखेगी. हम प्राथमिक रूप से अपने आसपास मंडराने वाले आवारा जानवरों को देख रहे हैं.”
देसाई की बातें सच लगती हैं: टी-1 के इलाक़े से लगभग 150 किलोमीटर दूर, अमरावती ज़िले की धामणगांव रेलवे तहसील में एक किशोर उम्र का नर बाघ, जो शायद अपनी मां से बिछड़ गया था, ने 19 अक्टूबर को मंगरूल दस्तगीर गांव के एक व्यक्ति की हत्या उसके खेत में कर दी थी, और तीन दिन बाद अमरावती शहर के पास एक महिला को मार दिया था.
वन अधिकारियों का मानना है कि वहां तक पहुंचने के लिए बाघ ने चंद्रपुर ज़िले से 200 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय की, और ज़्यादातर गैर-वन क्षेत्रों को पार किया. उनके मुताबिक़, एक नई समस्या उत्पन्न हो रही है. उस बाघ पर नज़र रखने वाले अधिकारियों ने बताया कि वह चंद्रपुर से लगभग 350 किलोमीटर की यात्रा करके मध्य प्रदेश के अंदर घुस गया है.
टी-1 इस क्षेत्र में शायद टिपेश्वर वन्यजीव अभयारण्य से आई थी, जो यवतमाल ज़िले में लगभग 50 किलोमीटर पश्चिम की ओर है - ज़िला वन्यजीव रक्षक और बाघ प्रेमी रमज़ान वीरानी कहते हैं कि वह अपनी मां के दो शावकों में से एक है. एक नर बाघ, टी-2, जो उसके दो शावकों का पिता है, उसके इलाक़े को साझा करता है.
पांढरकवड के एक कॉलेज में व्याख्याता वीरानी कहते हैं, “वह 2014 के आसपास इस क्षेत्र में आई और यहीं बस गई. हम तभी से उसकी हरकत पर नज़र रख रहे हैं; दशकों में यह पहली बार है जब इस क्षेत्र को एक बाघ मिला है.”
आसपास के गांवों में रहने वाले लोग इससे सहमत हैं. सराटी गांव के 63 वर्षीय मोहन ठेपाले कहते हैं, “मैंने इस क्षेत्र में कभी बाघ की उपस्थिति के बारे में नहीं सुना है.” अब बाघिन और उसके दो शावकों की कहानी चारों ओर फैली हुई है.
यह क्षेत्र, विदर्भ के कई अन्य भूभागों की तरह ही, खेतों और बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं - नई या चौड़ी सड़कों, बेंबला सिंचाई परियोजना की एक नहर - के बीच छोटे-छोटे वनों का मिश्रण है, और परियोजनाओं ने जंगल के क्षेत्र को काफ़ी हद तक समेट दिया है.
टी-1 ने सबसे पहले जून 2016 में, बोराटी गांव की 60 वर्षीय महिला सोनाबाई घोसाले को अपना शिकार बनाया था. ( पढ़ें: बाघिन टी-1 के हमलों और आतंक के निशान ) तब बाघिन के पास शावक नहीं थे. उसने 2017 के अंत में उन्हें जन्म दिया. यह टकराव अगस्त 2018 में बढ़ने लगा, जब टी-1 ने कथित रूप से तीन पुरुषों की हत्या कर दी. उसका नवीनतम शिकार, बीते 28 अगस्त को पिंपलशेंडा गांव के 55 वर्षीय गडरिया और किसान, नागोराव जुनघरे थे.
तब तक प्रधान संरक्षक ने बाघिन को मारने का आदेश जारी कर दिया था. इस फ़ैसले को पहले उच्च न्यायालय में और बाद में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने बाघिन को जीवित न पकड़ सकने की हालत में उसे ‘मार दिए जाने’ के उच्च न्यायालय के आदेश को बरक़रार रखा.
तब कुछ संरक्षणकर्ताओं ने राष्ट्रपति से बाघिन के जीवनदान की मांग की.
इस बीच, वन अधिकारियों ने निशानेबाज़ शफ़ात अली ख़ान को आमंत्रित किया, लेकिन संरक्षणकर्ताओं के विरोध और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के हस्तक्षेप के बाद उन्हें वापस भेजना पड़ा.
सितंबर में, मध्य प्रदेश से विशेषज्ञों की एक टीम बुलाई गई. यह टीम चार हाथियों के साथ आई और चंद्रपुर के ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व से पांचवां हाथी बुलाया गया.
ऑपरेशन को एक बड़ा झटका तब लगा, जब चंद्रपुर से आए हाथी ने एक दिन मध्य रात्रि को अपनी ज़ंजीर से ख़ुद को आज़ाद कर लिया. वह रालेगांव के बीचोबीच स्थित बेस कैंप से भटक कर 30 किलोमीटर दूर चला गया, और चाहंद और पोहना गांवों में दो व्यक्तियों को मार डाला.
इसके बाद, महाराष्ट्र के वनमंत्री सुधीर मुनगंटीवार आगे आए; उन्होंने शफ़ात अली ख़ान को वापस बुलाया और वन्यजीव विभाग के प्रमुख ए.के. मिश्रा सहित, वरिष्ठ वन अधिकारियों से पांढरकवड में तब तक तैनात रहने के लिए कहा, जब तक कि बाघिन को जीवित पकड़ नहीं लिया जाता या मार नहीं दिया जाता. इसकी वजह से नागपुर में संरक्षणकर्ताओं का विरोध और तीव्र हो गया.
नवाब के दोबारा हरकत में आते ही स्थानीय बाघ संरक्षणकर्ता और कुछ वन अधिकारी, विरोध में वहां से चले गए. उन्होंने शफ़ात अली की कार्यशैली पर भी आपत्ति जताई - जिनका मानना है कि बाघिन को जीवित नहीं पकड़ा जा सकता और उसे मार देना ही सबसे अच्छा विकल्प है.
नवाब ने हरियाणा की सर्वश्रेष्ठ गॉल्फर और डॉग ब्रीडर ज्योति रंधावा को इतालवी केन कॉर्सो नस्ल के अपने दो कुत्तों के साथ वहां बुलाया - संभवतः आसपास सूंघकर पता लगाने के लिए.
पैराग्लाइडर्स, ड्रोन चलाने वाले और ट्रैकर्स की एक टीम को काम पर लगाया गया - लेकिन सब कुछ व्यर्थ रहा. ड्रोन काफ़ी आवाज़ करते थे. दूसरी तरफ़, यहां की भौगोलिक स्थिति और घने जंगल को देखते हुए पैराग्लाइडर्स किसी काम नहीं आ सकते थे.
अन्य विचारों को भी ख़ारिज कर दिया गया, जैसे कि जाल, चारा, पैदल गश्त.
टी-1 पकड़ से बाहर थी, और ग्रामीणवासियों का भय जस का तस बना रहा. पूरे सितंबर और अक्टूबर के पूर्वार्ध में कुछ भी नहीं हुआ.
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फिर, एक सुराग मिला. वह आसपास ही थी.
17 अक्टूबर को, एक खोजी दल उत्साहित होकर वापस लौटा: टी-1 बेस कैंप के क़रीब ही है. उन्होंने कहा कि उन्होंने उसे सराटी गांव में देखा है, जहां टी-1 ने अगस्त 2017 में, बेस कैंप से क़रीब तीन किलोमीटर दूर एक युवा किसान को मार दिया था.
सभी टीमें हरकत में आ गईं और उस जगह की ओर भागीं. वह वहीं थी. चारों ओर से घिर चुकी बाघिन ने ग़ुस्से में आकर एक टीम पर हमला भी कर दिया. तेज़ निशानेबाज़ों ने शांत करने वाले डार्ट्स का उपयोग करने का विचार छोड़ दिया और बेस कैंप लौट आए. बाघिन जब हमला करने के लिए आपकी ओर तेज़ी से आ रही हो, तो आप उस पर गोली नहीं चला सकते.
हालांकि, यह अच्छी ख़बर थी. टी-1 ने लगभग 45 दिनों के बाद अपना ठिकाना छोड़ दिया था. अब उसकी हरकत पर नज़र रखना आसान हो गया. लेकिन उसे पकड़ पाना अभी भी मुश्किल था और संभावित रूप से ख़तरनाक भी.
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शफ़ात अली ने बताया, “यह एक मुश्किल ऑपरेशन है. शावक अब छोटे नहीं रहे. लगभग एक साल के हो चुके हैं, वे एक साथ छह-सात पुरुषों से निपटने के लिए काफ़ी हैं.” इसलिए खोजकर्ता एक बाघिन से नहीं, बल्कि तीन बाघों से निपट रहे हैं.
महाराष्ट्र के वन अधिकारी प्रेस से बात करने को तैयार नहीं थे, इसलिए ऑपरेशन की छोटी से बड़ी सभी बातें बताने की ज़िम्मेदारी हैदराबाद से आए शफ़ात अली और उनकी टीम पर छोड़ दी गई थी.
चश्मा लगाया हुआ एक युवा वन अधिकारी, एक मराठी न्यूज़ चैनल के टीवी क्रू के बारे में ग़ुस्से से कहता है, “यह दखलंदाजी अनुचित है.” उसे शफ़ात अली द्वारा प्रेस से बात करने का विचार पसंद नहीं है.
पांढरकवड में एक स्थानीय वन्यजीव संरक्षणकर्ता कहते हैं कि वन अधिकारी ही सार्वजनिक दबाव और राजनीतिक आदेश का भार संभाल रहे हैं, लेकिन स्पष्ट रूप से दोष उन्हीं पर मंढा जाना है. उन्होंने शफ़ात अली द्वारा मोर्चा संभालने के बाद इस ऑपरेशन से ख़ुद को अलग कर लिया है. वह आगे कहते हैं, “उन्होंने स्थिति को अपने हाथों से बाहर निकल जाने दिया.”
बेस कैंप में लकड़ी के खंभे से लटक रहे एक बड़े नक्शे पर लाल रंग से रेखांकित क्षेत्र, पिछले दो वर्षों में टी-1 की गतिविधियों की ओर इशारा कर रहा है.
दिन भर की खोज के बाद आराम करता हुआ एक युवा गार्ड समझाता है, “यह उतना सरल नहीं है जितना दिखता है. यह एक ऊबड़-खाबड़ इलाक़ा है, जिसमें बहुत सारे खेत, जंगली खरपतवार, झाड़ियों के ढेर और मोटे पेड़-पौधे, छोटी-छोटी नदियां और कुंड हैं - यह सबकुछ बहुत पेचीदा है.”
वह हर आठ घंटे में अपना स्थान बदल रही है, केवल रात में बाहर घूमती है.
सराटी में एक आदमी ने 21 अक्टूबर की देर शाम बाघिन और उसके शावकों को देखा. वह डर के मारे घर भाग गया. एक खोजी टीम मौक़े पर पहुंची, लेकिन तब तक बाघिन और उसके दोनों शावक अंधेरे में ग़ायब हो चुके थे.
अक्टूबर के उत्तरार्ध में, कई टीमों ने टी-1 और उसके शावकों पर क़रीब से नज़र रखी. इस बीच, 25 से 31 अक्टूबर तक, दो ग्रामीणवासी बाल-बाल बचे - एक बोराटी में, दूसरा आतमुर्डी गांव में. ( पढ़ें: ‘उनके सही-सलामत घर लौट आने पर, मैं बाघ का धन्यवाद करती हूं’ )
इस बीच शफ़ात अली को एक बैठक में भाग लेने के लिए बिहार जाना पड़ा. और उनके बेटे असगर अली ने अपनी टीम के तेज़ निशानेबाज़ों के साथ ज़िम्मेदारी संभाल ली. भारत भर के वन्यजीव कार्यकर्ता टी-1 को बचाने के लिए याचिकाएं डालते रहे और मांग उठाते रहे. ज़मीन पर, हालात तनावपूर्ण बने हुए थे. कपास की फ़सल कटाई के लिए तैयार थी, लेकिन पूरे रालेगांव तहसील के किसान भयभीत हैं.
गांव के कई लोगों ने 2 नवंबर को टी-1 को बोराटी के आसपास, रालेगांव जाने वाली तारकोल की चिकनी सड़क पर घूमते हुए देखा. वह अपने शावकों के साथ थी. गश्त लगाने वाली एक टीम, असगर और उनके सहयोगियों के साथ मौक़े पर पहुंच गई. इस बीच, 3 नवंबर, शनिवार के दिन शफ़ात अली बेस कैंप लौट आए.
महाराष्ट्र वन विभाग के 3 नवंबर के एक बयान से पुष्टि होती है कि टी-1 को पिछली रात लगभग 11 बजे गोली मार दी गई थी. यह देश के अब तक के सबसे लंबे चले ऑपरेशनों में से एक है.
आधिकारिक बयान में कहा गया कि जब बाघिन को शांत करने का प्रयास विफल हो गया और उसने गश्ती दल पर आक्रामक तरीक़े से हमला कर दिया, तो असगर, जो एक खुली जीप में सवार थे, ने कथित तौर पर आत्मरक्षा में अपनी राइफल के ट्रिगर को दबाया और एक ही बार में बाघिन को मार गिराया.
टी-1 के शव को पोस्टमॉर्टम के लिए नागपुर के गोरेवाडा चिड़ियाघर भेजा गया था.
पीसीसीएफ़ (वन्यजीव), ए.के. मिश्रा ने संवाददाताओं को बताया कि वे टी-1 के दो शावकों को जीवित पकड़ने के लिए नए सिरे से योजना बना रहे हैं.
रालेगांव के लोगों को राहत मिल गई, लेकिन टी-1 को मारने के तरीक़े और नियमों के उल्लंघन करने के सवाल को लेकर वन्यजीव कार्यकर्ता उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने की तैयारी में हैं.
बाघिन मारी जा चुकी है. हालांकि, बाघ के साथ इंसानों की भिड़ंत जारी है और बड़े पैमाने पर चल रही है.
अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़