एल्लप्पन विस्मित हैं और थोड़ा ग़ुस्से में भी हैं.
“हम समुद्र तट के किसी मछुआरे समुदाय से संबंध नहीं रखते हैं. फिर हमें सेंबानंद मारावर या गोसांगी के रूप में क्यों चिन्हित किया गया है?”
“हम शोलगा हैं,” क़रीब 82 साल के बुज़ुर्ग दावे के साथ कहते हैं. “सरकार हमसे सबूत चाहती है. हम यहीं रहते आए हैं, क्या यह सबूत काफ़ी नहीं है? आधार अंटे आधार. येल्लिंडा तरली आधार? [सबूत! सबूत! उनकी यही रट है].”
तमिलनाडु के मदुरई ज़िले सक्कीमंगलम गांव में रहने वाले एल्लप्पन के समुदाय के लोग सड़कों पर घूम-घूम कर पीठ पर कोड़े मारने का तमाशा दिखाते हैं, और स्थानीय तौर पर चातई समुदाय के रूप में जाना जाता है. लेकिन जनगणना में उन्हें सेंबानंद मारावर के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, और अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी) में रखा गया है.
“जनगणना कर्मचारी आते हैं, हमसे कुछ सवाल करते हैं और फिर अपनी मनमर्ज़ी से हमें सूचीबद्ध कर देते हैं,” वह आगे कहते हैं.
एल्लप्पन उन 15 करोड़ भारतीयों (अनुमानित) में एक हैं जिन्हें अनुपयुक्त तरीक़े से चिन्हित और वर्गीकृत किया गया है. इनमें से अनेक समुदायों को ब्रिटिश शासन के दौरान लागू आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के तहत ‘वंशानुगत अपराधी’ घोषित कर दिया गया था. इस क़ानून को बाद में 1952 में रद्द कर दिया गया और इन समुदायों को डी-नोटिफ़ाइड ट्राइब्स (डीएनटी’ज) या घुमंतू जनजातियों (एनटी’ज) के रूप में उल्लिखित कर दिया गया.
नेशनल कमीशन फ़ॉर डिनोटिफाईड नोमैडिक एंड सेमी नोमैडिक ट्राइब्स द्वारा 2017 में जारी एक सरकारी रिपोर्ट कहती है, “ज़्यादातर मामलों में सबसे अधूरे और सबसे ख़राब - उनकी सामाजिक स्थिति को इसी भाषा में परिभाषित किया जा सकता है. वे सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले पदानुक्रम पर हैं और आज भी उन्हीं पूर्वाग्रहों से जूझ रहे हैं जो उनके ख़िलाफ़ औपनिवेशिक शासन के दौरान गढ़ दिए गए थे.”
बाद में इनमें से कुछ समुदायों को अनुसूचित जनजाति (एसटी), अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) जैसी श्रेणियों में सूचीबद्ध कर दिया गया. लेकिन 269 समुदायों को आज तक किसी भी सूची में नहीं रखा जा सका है. यह ख़ुलासा भी 2017 की रिपोर्ट में ही हुआ है. यह उदासीनता उन समुदायों को शिक्षा और रोज़गार, भूमि आवंटन, राजनीतिक और सरकारी नौकरियों में भागीदारी और आरक्षण जैसे कल्याणकारी संवैधानिक उपायों से वंचित रखती है.
इन समुदायों में एल्लप्पन के शोलगा समुदाय के अलावा, सर्कस के कलाकार, भाग्य बताने वाले, संपेरे, सस्ते गहने, गंडे-ताबीज़ और रत्न बेचने वाले, पारंपरिक जड़ी-बूटियां बेचने वाले, रस्सियों पर करतब दिखाने वाले और सांड़ों को सींगों से पकड़ने वाले लोग शामिल हैं. वे ख़ानाबदोशों का जीवन जीते हैं और उनके रोज़गार का कोई स्थायी माध्यम नहीं है. वे अभी भी भटकने के लिए विवश हैं और अपनी आमदनी के लिए प्रतिदिन नए लोगों की मेहरबानियों पर निर्भर हैं. लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने अपना एक ठिकाना ज़रूर बना रखा है, जहां वे समय-समय पर जाते रहते हैं.
जनगणना के अनुसार, तमिलनाडु में पेरुमल मट्टुकरन, डोम्मारा, गुडुगुडुपांडी और शोलगा समुदायों को एससी, एसटी और एमबीसी श्रेणियों में रखा गया है. उनकी विशिष्ट पहचान की अनदेखी कर उन्हें आदियन, कट्टुनायकन और सेम्बानंद मारावर समुदायों में रखा गया है. कई दूसरे राज्यों में भी अनेक समुदायों को इसी तरह ग़लत रूप में सूचीबद्ध किया गया है.
पांडी कहते हैं, “अगर पढ़ाई और नौकरी में आरक्षण नहीं मिला, तो हमारे बच्चे दूसरों के मुक़ाबले कहीं नहीं टिक पाएंगे. हमसे यह उम्मीद करना कि किसी सहयोग के बिना हम दूसरे समुदायों [ग़ैर-डीएनटी’ज और एनटी’ज] के बीच आगे बढ़ पाएंगे, किसी भी तरह से ठीक नहीं.” वह पेरुमल मट्टुकरन समुदाय से संबंध रखते हैं. उनके समुदाय के लोग सजे हुए बैल को लेकर घूमते है, और लोगों के घर-घर जाकर मिलने वाले दान से अपनी गुज़र-बसर करते हैं. इस समुदाय को बूम बूम मट्टुकरन के नाम से भी जाना जाता है और इसके सदस्य दान मिलने के बदले लोगों को उनका भाग्य बताते हैं, और भजन सुनाते हैं. साल 2016 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद वे आदियन समुदाय में शामिल कर लिए गए. वे इस बात से संतुष्ट नहीं हैं और यह चाहते हैं कि लोग उन्हें पेरुमल मट्टुकरन के नाम से पहचानें.
पांडी जब हमसे बात कर रहे होते हैं, तभी उनका बेटा धर्मादोरई घर लौटता है. उसने अपने हाथ में एक सुंदर ढंग से सजाए हुए बैल को रस्सी से पकड़ रखा है. कंधे पर उसका झोला लटका हुआ है जिसमें वह दान में मिली चीज़ें रखता है, और कुहनी में दबाकर जिस मोटी सी किताब को उसने पकड़ रखा है, उसके आवरण पर लिखा है - ‘प्रैक्टिकल रिकॉर्ड बुक.’
धर्मादोरई, मदुरई के सक्कीमंगलम में राजकीय उच्च विद्यालय में 10वीं कक्षा का छात्र है. बड़ा होकर वह ज़िला कलेक्टर बनना चाहता है, और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसका स्कूल में रहना ज़रूरी है. इसलिए, जब उसे अपने स्कूल के लिए सात किताबें ख़रीदने की आवश्यकता हुई, और उसके पिता पांडी द्वारा दिए गए 500 रुपए उसकी सातवीं किताब को ख़रीदने के लिए कम पड़ गए, तब धर्मादोरई ने ख़ुद ही इन पैसों का इंतज़ाम करने का फ़ैसला किया.
“मैं इस सजे हुए बैल को लेकर निकल पड़ा. कोई 5 किलोमीटर तक घूमने के बाद मैंने 200 रुपए इकट्ठे कर लिए. उन्हीं पैसों से मैंने यह किताब ख़रीदी है,” वह बताता है. अपने मक़सद को हासिल करने के लिए की गई इस मेहनत की ख़ुशी उसके चेहरे पर साफ़ दिखती है.
तमिलनाडु में डीएनटी समुदायों की संख्या (68) सबसे ज़्यादा है, और एनटी समुदायों की दृष्टि से यह दूसरे (60) नंबर पर आता है. और इसलिए, पांडी को ऐसा नहीं लगता है कि धर्मादोरई को यहां बेहतर शिक्षा मिल सकेगी. “हमारी प्रतियोगिता बहुत से दूसरे समुदायों के लोगों के साथ है,” उनका इशारा उन समुदायों की तरफ़ हैं जिन्हें बहुत पहले से अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है. तमिलनाडु में शिक्षण संस्थानों और नौकरी में 69 प्रतिशत जगहें पिछड़े वर्ग (बीसी), अत्यंत पिछड़े वर्ग (एमबीसी), वन्नियार, डीएनटी, एससी और एसटी समुदायों के लिए आरक्षित हैं.
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“हम जिस भी गांव से होकर गुज़रते हैं वहां यदि कुछ खो जाए, तो सबसे पहले हमें दोषी ठहराया जाता है. मुर्गियां हों, गहने हों या कपड़े हों - किसी भी चीज़ की चोरी के लिए हमें ही अपराधी माना जाता है, हमें ही सज़ा दी जाती है और हमें ही मारा-पीटा और अपमानित किया जाता है,” लगभग 30 साल के महाराजा कहते हैं.
आर. महाराजा डोम्मार समुदाय के हैं और सड़कों पर करतब दिखाते हैं. शिवगंगा ज़िले के मनमदुरई में अपने परिवार के साथ एक बंडी (अस्थायी कारवां) में रहते हैं. उनके डेरे में 24 परिवार रहते हैं और महाराजा का घर एक तिपहिया गाड़ी है. इस वाहन को पैक कर परिवार और उनके सामानों के लिए एक सवारी गाड़ी के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. उनकी पूरी गृहस्थी और तमाशा दिखाने के उपकरण - मसलन चटाई, तकिये और एक केरोसीन तेल से जलने वाला चूल्हे के साथ-साथ एक मेगाफ़ोन, ऑडियो कैसेट प्लेयर, सलाखें और रिंग (जिनका उपयोग वे करतब दिखाने के क्रम में करते हैं) - भी उनके साथ ही चलते हैं.
“मैं और मेरी पत्नी गौरी सुबह-सुबह अपनी बंडी से निकल पड़ते हैं. हम तिरुपत्तूर पहुंचते हैं, जो यहां से निकलने के बाद आने वाला पहला गांव है, और तलैवर (गांव प्रधान) से गांव के बाहरी इलाक़े में अपना डेरा डालने और गांव में अपना तमाशा दिखाने की इजाज़त लेते हैं. हम उनसे अपने लाउडस्पीकर और माइक्रोफ़ोन के लिए बिजली का कनेक्शन देने का आग्रह भी करते हैं.”
और, फिर शाम को 4 बजे के आसपास उनका तमाशा शुरू होता है. सबसे पहले घंटे भर तक करतब प्रस्तुत किए जाते हैं, और उसके बाद एक घंटे तक गानों की रिकॉर्डिंग पर फ्रीस्टाइल नृत्य का कार्यक्रम चलता है. खेल ख़त्म होने के बाद वे घूम-घूम कर दर्शकों से पैसे देने का आग्रह करते हैं.
औपनिवेशिक युग में डोम्मारों को अपराधी जनजाति (क्रिमिनल ट्राइब) के रूप में चिन्हित किया गया था. हालांकि, अब उन्हें विमुक्त कर दिया गया है, “वे अभी भी एक निरंतर भय की स्थिति में रहते हैं. आए दिन उनके पुलिसिया ज़्यादतियों और भीड़ के हमलों का निशाना बनने की ख़बरें सुनने को मिलती हैं,” ऐसा सामुदायिक अधिकारों के लिए काम करने वाली मदुरई की एनजीओ ‘टेंट’ (द एमपॉवरमेंट सेंटर ऑफ़ नोमैड्स एंड ट्राइब्स) सोसाइटी की सचिव आर.माहेश्वरी कहती हैं.
वह कहती हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम ने भले ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भेदभाव और हिंसा के विरुद्ध क़ानूनी सुरक्षा प्रदान की हो, किंतु अनेक आयोगों और उनकी रिपोर्टों द्वारा दिए गए सुझावों के बाद भी डीएनटी और एनटी जैसे कमज़ोर समुदायों के लिए किसी तरह की संवैधानिक और विधिसम्मत सुरक्षा का प्रावधान नहीं है.
महाराजा बताते हैं कि डोम्मार कलाकार कई बार अपने घर लौटने से पहले साल भर घूमते रहते हैं. “जिस दिन बारिश हो जाती है या पुलिस हमारे तमाशे में व्यवधान डालती है, उस दिन हम कुछ भी नहीं कमाते हैं,” गौरी बताती हैं. अगले दिन वे अपनी बंडी को किसी दूसरे गांव ले जाते हैं. अपनी यात्रा के लिए वे एक ही गांव और रास्ते से होकर कई बार गुज़रते हैं.
उनके 7 साल के बेटे मनिमारण की स्कूली शिक्षा समुदाय के लोग सामूहिक तौर पर निभाते हैं. “एक साल बच्चों की देखभाल करने के लिए मेरे भाई का परिवार हमारे घर पर रहा. कभी-कभार मेरे चाचा बच्चों की देखभाल करते हैं,” वह कहते हैं.
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अपने शानदार दिनों में रुक्मिणी के करतब देख कर दर्शक आवाक रह जाते थे. वह अपने बाल से बांध कर भारी वज़न का पत्थर उठा सकती थीं, और लोहे की सलाखें मोड़ सकती थीं. आज भी वह आग के सहारे किए जाने वाले अपने ख़तरनाक करतबों से अच्छीख़ासी भीड़ खींचती हैं. इन खेलों में छड़ी को घुमाने, स्पिनिंग और कई दूसरे तमाशे शामिल हैं.
सड़कों पर करतब दिखाने वाली 37 साल की कलाकार रुक्मिणी डोम्मार समुदाय की सदस्य हैं और तमिलनाडु के शिवगंगा ज़िले के मनमदुरई में रहती हैं.
वह कहती हैं कि उन्हें ग़लत टिप्पणियों से बार-बार परेशान किया जाता है. “हम गाढ़ा मेकअप करते हैं और भड़कीले-रंगीन कपड़े पहनते हैं, जिसका पुरुष ग़लत मतलब निकालते हैं. हमारी देह को ग़लत नीयत से छूने की कोशिश की जाती है. हमसे भद्दे शब्द कहे जाते हैं, और अपना ‘दाम’ बताने के लिए भी कहा जाता है.”
पुलिस भी उनकी मदद नहीं करती है. जिन मर्दों के ख़िलाफ़ वह शिकायत करती हैं वे ख़ुद को अपमानित करते हैं, और रुक्मिणी के मुताबिक़, “वे हमारे ख़िलाफ़ ही चोरी का मामला दर्ज कर देते हैं, और उसपर कार्रवाई करते हुए पुलिस हमें बंद कर देती है और पीटती है.”
साल 2022 में इस एनटी समुदाय, जिसे स्थानीय लोग कलईकूटाडिगल कहते हैं, को अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया.
पूर्ववर्ती डीएनटी और एनटी की तुलना में रुक्मिणी के अनुभव भिन्न नहीं हैं. हालांकि, अपराधी जनजाति अधिनियम को निरस्त कर दिया गया, लेकिन कुछ राज्यों ने उसके स्थान पर आदतन अपराधी अधिनियम (हैबीचुअल ट्राइब्स एक्ट) बनाया, जो समान पंजीकरण और निगरानी प्रक्रियाओं पर आधारित है. दोनों में एकमात्र अंतर यही है कि पहले की तरह अब पूरे समुदाय को नहीं, बल्कि व्यक्ति विशेष को निशाना बनाया जाता है.
रुक्मिणी समुदाय इस गांव में अस्थायी तंबुओं, ईंट-गारे के बने सुविधाहीन कमरों और क़ाफ़िलों में रहता है. रुक्मिणी की पड़ोसी, 66 साल की सेल्वी बताती हैं कि उन्हें यौन प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है. सड़क पर करतब दिखाने वाली कलाकार सेल्वी कहती हैं, “गांव के मर्द रात में हमारे तंबुओं में घुस जाते हैं और हमारे बगल में लेट जाते हैं. हम इसलिए गंदी रहती हैं, ताकि वे हमसे दूर रहें. हम अपने बाल में कंघी नही करतीं, न नहाती और साफ़ कपड़े पहनती हैं. इसके बाद भी बदमाश अपनी कारस्तानियों से बाज़ नहीं आते.” सेल्वी दो बेटों और दो बेटियों की मां हैं.
“जब हम सफ़र पर रहते हैं, तब हम इतने गंदे दिखते हैं कि आप हमें पहचान नहीं पाएंगे,” सेल्वी के पति रत्तिनम अपनी तरफ़ से जोड़ते हैं.
समुदाय की 19 वर्षीय युवा लड़की तयम्मा, सन्नतिपुडुकुलम के राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में 12वीं कक्षा में पढ़ती है. अपनी जनजाति में स्कूल की शिक्षा पूरी करने वाली वह पहली लड़की होगी.
हालांकि, भविष्य में कॉलेज में कंप्यूटर की पढ़ाई करने के उनके सपने को शायद उनके माता-पिता की स्वीकृति न मिल पाए.
“हमारे जैसे समुदाय की लड़कियों के लिए कॉलेज सुरक्षित जगह नहीं है. स्कूल में ‘सर्कस पोदर्वा इवा’ [सर्कस कलाकार] कह कर उनका मज़ाक़ उड़ाया जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है. कॉलेज में उनके साथ और भी बुरा हो सकता है.” उनकी मां लक्ष्मी इस बारे में आगे सोचती हुई कहती हैं, “और उन्हें दाख़िला भी कौन देगा? अगर दाख़िला मिल भी गया, तो हम उसकी फ़ीस कैसे भरेंगे?”
‘टेंट’ की माहेश्वरी बताती हैं कि इसीलिए इस समुदाय की लड़कियां कम उम्र में ही ब्याह दी जाती हैं. “अगर यौन शोषण, बलात्कार और अवैध गर्भधारण जैसी कोई ग़लत घटना घटती है, तो समुदाय के भीतर ही उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाता है और उनके विवाह की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं,” सेल्वी बतलाती हैं.
इस तरह से इन समुदायों की औरतें दोहरी मार झेलती हैं - न केवल उनके समुदायों को भेदभाव का शिकार बनना पड़ता है, बल्कि स्त्री होने के कारण उन्हें लैंगिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है.
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तीन बच्चों की मां 28 वर्षीय हमसावल्ली कहती हैं, “जब मैं 16 साल की थी, तभी मेरी शादी कर दी गई थी. मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं, इसलिए मुझे भविष्य बताने का पेशा चुनना पड़ा. लेकिन मैं नहीं चाहती कि आने वाली पीढ़ियों को भी यह काम करना पड़े. यही कारण है कि मैं अपने सभी बच्चों को स्कूल भेजती हूं.”
वह गुडुगुडुपांडी समुदाय की हैं और मदुरई ज़िले के गांवों में लोगों का भाग्य बताती हुई घूमती रहती हैं. एक दिन में वह मोटा-मोटी 55 घरों में जाती हैं. इस क्रम में वह मध्य तमिलनाडु की 40 डिग्री वाले ऊंचे तापमान में कोई 10 किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चलती हैं. साल 2009 में उनकी बस्ती में रहने वाले लोगों को कट्टुनायकन, अर्थात एक अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया था.
मदुरई शहर की बस्ती जेजे नगर के अपने घर में वह बताती हैं, “इन घरों में रहते हुए हमें कुछ खाना और कभी कुछ अनाज मिल जाता हैं. कभी-कभार कोई हमें एक या दो रुपए भी दे देता है.” जेजे नगर, मदुरई ज़िले के तिरुपरनकुंद्रम शहर में लगभग 60 परिवारों की एक बस्ती है.
गुडुगुडुपांडी समुदाय की इस बस्ती में न तो बिजली का कनेक्शन है और न सफ़ाई की सुविधाएं. लोग बस्ती के आसपास की घनी झाड़ियों में शौच करने जाते हैं, इसलिए सांप काटने की घटना एक आम बात है. हमसावल्ली बताती हैं, “यहां इतने लंबे आकार के सांप मिलते हैं, जो कुंडली मार कर बैठने के बाद भी मेरी कमर की ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं.” जब बारिश में हमारे तंबू टपकने लगते हैं, तब ज़्यादातर परिवार ‘स्टडी सेंटर’ के बड़े से हॉल में रात गज़ारते है. इस ‘स्टडी सेंटर’ को एक ग़ैर सरकारी संगठन ने बनवाया था.
हालांकि, उनकी आमदनी इतनी पर्याप्त नहीं है कि वह 11, 9 और पांच साल के अपने तीन बच्चों का पेट भर सकें. “मेरे बच्चे हमेशा बीमार रहते हैं. डॉक्टर कहते हैं, ‘बढ़िया खाओ, बच्चो को बीमारी से लड़ने की ताक़त और ऊर्जा के लिए पोषण की ज़रूरत है.’ लेकिन मैं अधिक से अधिक उन्हें राशन में मिलने वाले चावल से बना दलिया और रसम ही खिला सकती हूं.”
शायद इसीलिए वह पूरी दृढ़ता से कहती हैं, “मेरी पीढ़ी के साथ यह पेशा समाप्त हो जाना चाहिए.”
इन समुदायों के अनुभवों का हवाला देते हुए बी. आरी बाबू कहते हैं, “सामुदायिक प्रमाणपत्र केवल श्रेणी बताने वाला पहचान-पत्र नहीं, बल्कि मानवाधिकारों को प्राप्त करने का माध्यम भी है.” बाबू, मदुरई के अमेरिकन कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हैं.
वह आगे कहते हैं, “यह प्रमाणपत्र इन समुदायों के लिए सामाजिक न्याय के साथ-साथ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समावेशन को सुनिश्चित करने का एक सशक्त उपकरण है, ताकि वर्षों से होती आई प्रशासनिक ग़लतियों को सुधारा जा सके.” वह बफून के संस्थापक भी हैं जो एक अव्यावसायिक यूट्यूब चैनल है. इस चैनल ने महामारी और लॉकडाउन के दौरान तमिलनाडु में वंचित और अभावग्रस्त समूहों द्वारा झेली गईं कठिनाइयों और समस्याओं को दर्ज करने का काम किया है.
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सन्नतिपुडुकुलम के अपने घर में, आर. सुप्रमणि गर्व के साथ अपना मतदाता पहचान-पत्र दिखाते हुए हुए कहते हैं, “60 सालों में पहली बार मैंने इन चुनावों [2021 में हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में] में पहली बार वोट डाला है.” ग़ैर सरकारी संगठनों की मदद से आधार कार्ड जैसे दूसरे आधिकारिक काग़ज़ात भी उन्हें सुलभ हो गए हैं.
“मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं, इसलिए कोई दूसरा काम करके मैं रोज़ीरोटी नहीं कमा सकता. सरकार को हमें कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण और क़र्ज़ देने की बात सोचनी चाहिए. इससे स्वरोज़गार को बढ़ावा मिलेगा,” वह कहते हैं.
बीते साल, 15 फरवरी को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने डीएनटी के लिए आर्थिक सशक्तिकरण योजना (एसईईडी) को आरंभ किया. इस योजना को उन परिवारों पर केन्द्रित रखा गया है, जिनकी आय प्रतिवर्ष 2.50 लाख रुपया या उससे कम है, और वे परिवार जो केंद्र अथवा राज्य सरकार की ऐसी किसी अन्य योजना के लाभार्थी नहीं हैं.”
प्रेस विज्ञप्ति में भी इन समुदायों के साथ हुए भेदभाव की बात कही गई है, और “वित्तीय वर्ष 2021-22 से लेकर 2025-26 के बीच के पांच वर्षों में लगभग 200 करोड़ की राशि ख़र्च करने की योजना पर विशेष बल दिया गया है.” किंतु अभी तक किसी समुदाय को एक भी पैसा नहीं मिला है, क्योंकि अभी तक आकलन का काम पूरा नहीं हुआ है.
सुप्रमणि कहते हैं, “हमें संविधान में एससी और एसटी की तरह ही एक अलग और स्पष्ट मान्यता मिलनी चाहिए. यह राज्य द्वारा इस बात को सुनिश्चित करने की दिशा में पहला क़दम होगा कि हमारे साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं किया जा रहा है.” उनके अनुसार उचित और त्रुटिहीन गणना के बाद ही इन समुदायों और इनके सदस्यों की भलीभांति पहचान हो सकेगी.
यह लेख 2021-22 के एशिया पैसिफ़िक फोरम ऑन वीमेन, लॉ एंड डेवलपमेंट (एपीडब्ल्यूएलडी) मीडिया फ़ेलोशिप के तहत लिखा गया है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद